दरकते दायरे - विनीता अस्थाना

कहा जाता है कि हम सभी के जीवन में कुछ न कुछ ऐसा अवश्य अवश्य होता है जिसे हम अपनी झिझक..हिचक..घबराहट या संकोच की वजह से औरों से सांझा नहीं कर पाते कि.. लोग हमारा सच जान कर हमारे बारे में क्या कहेंगे या सोचेंगे? सच को स्वीकार ना कर पाने की इस कशमकश और जद्दोजहद के बीच कई बार हम ज़िन्दगी के संकुचित दायरों में सिमट ऐसे समझौते कर बैठते हैं जिनका हमें जीवन भर मलाल रहता है कि..काश हमने हिम्मत से काम ले सच को स्वीकार कर लिया होता।

 दोस्तों..आज मैं भीतरी कशमकश और आत्ममंथन के मोहपाश से बँधे कुछ दायरों के बनने और उनके दरकने की बातें इसलिए कर रहा हूँ कि आज मैं 'दरकते दायरे' नाम से रचे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे लिखा है विनीता अस्थाना ने। 

दूरदर्शन से ओटीटी की तरफ़ बढ़ते समय के बीच इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है कानपुर और लखनऊ के मोहल्लों में बसने वाले मध्यमवर्गीय परिवारों की। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें बातें हैं दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों की आपाधापी भरी दौड़ की।

फ्लैशबैक और वर्तमान के बीच बार-बार विचरते इस उपन्यास में कहीं कोई चाहते हुए भी अपने प्रेम का इज़हार नहीं कर पाता तो कहीं कोई इसी बात से कन्फ्यूज़ है कि आखिर..वो चाहता किसे है? कहीं कोई अपनी लैंगिकता को ही स्वीकार करने से बचता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं कोई बड़े बैनर के लिए लिखी कहानी के कंप्यूटर के क्रैश होने को वजह से नष्ट हो जाने की वजह से परेशान नज़र आता है। तो कहीं स्थानीयता के नाम पर फिल्मों में दो-चार जगह देसी शब्दों को घुसा के देसी टच दिए जाने की बात पर कटाक्ष होता दिखाई देता है।  कहीं देसी टच के नाम पर फिल्मों में लोकल गालियों की भरमार भर देने मात्र से ही इस कार्य को पूर्ण समझा जाता दिखाई देता है। तो कहीं दूर से देखा-देखी वाली नई-पुरानी आशिक़ी को 'सिटियारी' के नाम से कहे जाने की बात का पता चलता है। 

इसी उपन्यास में कहीं लड़कियाँ आस-पड़ोस और घर वालों की अनावश्यक रोकटोक और समय-बेसमय मिलने वाले तानों से आहत दिखाई देती हैं कि लड़कों से मेलमिलाप बढ़ाएँ तो आवारा कहलाती हैं और लड़कियों से ज़्यादा बोलें-बतियाएँ तो गन्दी कहलाती हैं। तो कहीं भावी दामाद के रूप में देखे जा रहे लड़के के जब हिंदू के बजाय मुसलमान होने का पता चलता है तो बेटी को शह देती माँ भी एकदम से दकियानूसी हो उठती दिखाई देती है।  कहीं हिंदूवादी सोच की वजह से गंगा-जमुनी तहज़ीब के ख़त्म होने की बात उठती दिखाई देती है। तो कहीं खुद की आस्था पर गर्व करने के साथ-साथ दूसरे की आस्था के सम्मान की बात भी की जाती दिखाई देती है। कहीं मीडिया द्वारा सेकुलरिज़्म की आड़ में लोगों को धर्म और जाति में बाँटने की बात नज़र आती है। तो कहीं कोई पति हिटलर माफ़िक अपनी तानाशाही से अपनी पत्नी को अपने बस में करता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं बॉलीवुड हस्तियों के पुराने वीडियोज़ को मिक्स कर के गॉसिप हैंडल्स के लाइक बटोरने की बात का पता चलता है। तो कहीं कोई प्यार में निराश हो, नींद की गोलियाँ खा, आत्महत्या करने का प्रयास करता दिखाई देता है। कहीं कोई तांत्रिक की मदद से वशीकरण के ज़रिए अपने खोए हुए प्यार को पाने के लिए प्रयासरत नज़र आता है। तो कहीं कोई मौलाना किसी को किसी की यादें भुलाने के मामले में मदद के नाम पर खुद उसके कुछ घँटों के लिए हमबिस्तर होने की मंशा जताता दिखाई देता है। 

कहीं कोई एक साथ..एक ही वक्त में एक जैसे ही फॉर्म्युले से अनेक लड़कियों से फ़्लर्ट करता दिखाई देता है। तो कहीं ऑनलाइन निकाह करने के महीनों बाद बताया जाता दिखाई देता है कि वो निकाह जायज़ ही नहीं था। कहीं किसी की बेवफ़ाई के बारे में जान कर कोई ख़ुदकुशी को आमादा होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई किसी से प्यार होने के बावजूद प्यार ना होने का दिखावा करता नज़र आता है। कहीं कोई अपनी लैंगिकता के भेद को छुपाने के लिए किसी दूसरे के रिश्ते में दरार डालने का प्रयास करता नज़र आता है। तो कहीं कोई किसी को जबरन अपने रंग में रंगने का प्रयास करता दिखाई देता है। 

इस बात के लिए लेखिका की तारीफ़ करनी पड़ेगी कि जहाँ एक तरफ़ बहुत से लेखक स्थानीय भाषा के शब्दों को अपनी रचनाओं में जस का तस लिख कर इसे पाठक पर छोड़ देते हैं कि वो अपने आप अंदाजा लगाता फायर। तो वहीं दूसरी तरफ़ ऐसे स्थानीय एवं अँग्रेज़ी शब्दों के अर्थ को लेखिका ने पृष्ठ के अंत में दे कर पाठकों के लिए साहूलियत का काम किया है। 

कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग की ग़लतियाँ भी दिखाई दीं जैसे कि..

पेज नम्बर 72 के अंतिम पैराग्राफ में उर्दू का एक शब्द 'तफ़्सील' आया है। जिसका मतलब किसी चीज़ के बारे में विस्तार से बताना होता है लेकिन पेज के अंत में ग़लती से हिंदी में इसका अर्थ 'मापदंड' दे दिया है।

पेज नम्बर 155 में दिए गए अँग्रेज़ी शब्द 'जस्टिफाई' का हिंदी अर्थ 'उत्पन्न' दिया गया है जो कि सही नहीं है। 'जस्टिफाई' का सही अर्थ 'सफ़ाई देना' है। 

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस उपन्यास में ज़्यादा किरदारों के होने की वजह से उनके आपसी रिश्ते को ले कर पढ़ते वक्त कई बार कंफ्यूज़न हुआ। बेहतर होता कि उपन्यास के आरंभ या अंत में किरदारों के आपसी संबंध को दर्शाता एक फ्लो चार्ट भी दिया जाता कि पाठक दिक्कत के समय उसे देख कर अपनी दुविधा दूर कर सके।

हालांकि यह उम्दा उपन्यास मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 206 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है नोशन प्रेस की इकाई 'प्रतिबिम्ब' ने और इसका मूल्य रखा गया है 267/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए 200/- रुपए तक होता तो ज़्यादा बेहतर था। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

0 comments:

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz