***राजीव तनेजा***
"बचाओ...बचाओ...की आवाज़ सुन मैं अचानक नींद से हडबड़ा कर उठ बैठा…देखा तो आस-पास कोई नहीं था… घडी की तरफ नज़र दौडाई तो रात के सवा दो बज रहे थे|पास पडे जग से पानी का गिलास भर मैँ पीने को ही था कि फिर वही रुदन...वही क्रंदन मेरे कानों में फिर गूंज उठा|कई दिनों से बीच रात ये आवाज़ मुझे सोने नहीं दे रही थी|अन्दर ही अन्दर अपराध भाव खाए जा रहा था कि उस दिन…हाँ…उस दिन अगर मैँने थोडी हिम्मत दिखाई होती तो शायद आज मैँ यूँ परेशान ना होता|जो हुआ...जैसा हुआ...अफसोस है मुझे लेकिन मैँ अकेला….निहत्था उन हवस के भेडियों से उसे बचाता भी तो कैसे?
"क्यों!...शोर तो मचा ही सकते थे कम से कम?”मेरे अन्दर का ज़मीर बोल पड़ा
"कोशिश भी कहाँ की थी तुमने?...ज़बान तालू से चिपक के रह गई थी ना?...बोल ही नहीं फूट रहे थे तुम्हारी ज़ुबान से"...
“एक झटके से अपना पाँव छुडा चल दिए थे"…
"क्यों!...यही सोचा था ना कि..कोई मरे या जिए...क्या फर्क पडता है तुम्हें?"...
"हाँ!..नहीं पड़ता है फर्क मुझे …कौन सा मेरी सगे वाली थी?"मैँ तैश में आ बोल पडा...
"तुम में इंसानियत नाम की भी कोई चीज़ है कि नहीं?"..
"वैसे!..अगर तुम्हारी सगे वाली होती तो तुम क्या करते?….बचाते क्या उसे?" अंतर्मन पूछ बैठा..
"शश…शायद नहीं"…
“क्यों?”…
“मुझे क्या ज़रूरत पड़ी है किसी के फटे में टांग अडाने की?….क्या मैँने उसे कहा था कि यूँ देर रात… फैशन कर बाहर सड़क पे आवारा घूमो?"मैँने तड़प कर जवाब दिया
"अब निबटो इन सड़कछाप लफूंडरों से खुद ही..मैँ तो चला अपने रस्ते…कौन पड़े पराए पचडे में?"….
“ये सोच तुम तो पतली गली से भाग लिए थे और वो बेचारी…बस दयनीय एवं कातर नज़रों से आँखो में आँसू लिए तुम्हें मदद को पुकारती रही"...
“तो?”..
“कुछ फर्ज़ नहीं बनता था तुम्हारा?"अंतरात्मा ने धिक्कारा
"बिना बात के मैँ पंगा क्यों मोल लूँ?"मैँने बिना किसी लाग लपेट के जवाब दिया
"यही घुट्टी में घोल-घोल पिलाया गया है हमें बचपन से कि...अपने मतलब से मतलब रखो…दूसरे के फटे में टांग नहीं अडाओ"...
"सो!..मैँ कैसे अड़ा देता"मैँने तडप कर जवाब दिया
"और वैसे भी किस-किस को बचाता फिरूँ मैँ?...हर जगह तो यही हाल है|अब उस दिन की ही लो...क्या मैँने कहा था शर्मा जी से कि बैंक से मोटी रकम निकलवाओ और फिर पलाथी मार वहीं सड़क के मुहाने उन्हें गिनने बैठ जाओ?"
“अब यूँ शो-ऑफ करेंगे तो भुगतना तो पडेगा ही ना?"…
"पता भी है कि ज़माना कितना खराब है लेकिन फिर भी….
"पड़ गए थे ना गुण्डे पीछे?….हो गई थी ना तसल्ली?"…
"जब पहले ही कुछ नहीं सोचा तो फिर बाद में बचाओ-बचाओ कर के काहे चिल्लाते थे?"…
"मालुम नहीं था क्या कि कोई नहीं आएगा बचाने को…सबको अपनी जान प्यारी है"...
"और लो….ऊपर से लगे हाथ ई सिरीज़ नोकिया का महंगा फोन निकाल लगे 100 नम्बर घुमाने”…
"डाक्टर ने कहा था कि हर जगह अपनी शेखी बघारो?…फोन का फोन गया और दुनिया भर के सवाल-जवाब अलग से"…
"कितने का लिया था?…बिल वाला है या नहीं?…कोई प्राब्लम तो नहीं?" ….
"बडे मज़े से लुटेरों को ही एक एक खूबी बताने लगे...साढे अठाईस हज़ार...आठ जी.बी इनबिल्ट मेमोरी…'स्टील बॉडी..'म्यूज़िक एडीशन...हाई रिजौल्यूशन का मैगा पिक्सल कैमरा'... 'ब्लू टुथ'वगैरा..वगैरा "पहले आराम से लुट-पिट लो...बाद में करते रहना कंप्लेंट-शंमप्लेंट" लुटेरे भी बडे इत्मीनान से...कॉनफीडैंस से बोले
"जब तक बात समझ आती तब तक वो रफूचक्कर हो चुके थे" …
"अब 'पुलिस...पुलिस' चिल्लाने से क्या फायदा जब चिडिया चुग गई खेत?"..
"हुंह!..कभी टाईम पे आई भी है पुलिस जो उस दिन आ जाती?"…
"अरे!..जिसे पुकार रहे थे...उसी की शह पर तो होता है ये सब…सैयां भए कोतवाल..तो डर काहे का?"..
"फिक्स हिस्सा होता है इनका हर चोरी-चकारी में..हर राहजनी में”..
“हर जेब तराशी में...हर अवैध धन्धे में"...
"हाँ!..इन्हें सब पता रहता है कि फलानी-फलानी जगह पर फलाने-फलाने बन्दे ने फलानी -फलानी वारदात को अंजाम दिया है"...
"चाहें तो दो मिनट में ही चोर को माल समेत थाने में चाय-नाश्ते पे बुलवा लें" …
"ये चाहें तो शहर में हर तरफ अमन और शांति का माहौल हो जाए...अपराधियों की जुर्म करने के नाम से ही रूह तक काँप उठे"…
"छोडो ये बेकार में इधर-उधर की बातें...सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते कि...दम नहीं है तुममें...चुक चुके हो तुम…हौसला नहीं है तुम में लड़ने का...विरोध करने का"
"नपुंसक हो तो तुम...हाँ!..नपुंसक”...
"मर्द नहीं!..किन्नर बसता है तुम में"अंतर्मन बिना रुके ताव में बोले चला जा रहा था...
"मालुम भी है तुम्हें...क्या हुआ था उस दिन?…तुम तो मस्त हो भजन-कीर्तन में जुटे थे अन्दर ही अन्दर और वहाँ बाहर…मेरी ऐसी की तैसी हुई पड़ी थी" …
"चल फूट ले फटाफट....चीर डालेंगे नहीं तो"..
“कह उन्होंने मुझे धमकाया था...तुम्हें नहीं…दिसम्बर की सर्द रात में भी पसीना-पसीना हो उठा था मैँ"...
“ओह!…
"क्या गलत किया जो घबरा कर वापिस मुड गया?"मैँ बोला
"पता नहीं क्या हुआ होगा उस बेचारी का" मन चिंतित स्वर में बोला
"अब क्या बताऊँ?..बस…तभी से उसका ये बचाओ-बचाओ का स्यापा मुझे सोने नहीं दे रहा है…ना चाहते हुए भी बार बार उसी का ख्याल आने लगता है"...
"पता नहीं क्या हुआ होगा उसके साथ?..ज़िन्दा भी होगी या...?"आगे बोला ना गया मुझसे
"छोडो ये खोखली हमदर्दी भरी बातें ...कुछ नहीं धरा है इनमें"ताना मारता हुआ अंतर्मन फिर बोल पडा
“ये खोखली…बेकार की बातें हैं?”…
"हाँ!…सौ बातों की एक बात यही है कि मर्द नहीं हो तुम..हो ही नहीं सकते क्योंकि उस दिन जब वो चार मिल कर बीच बाज़ार उस निहत्थे को बिना बात पीट रहे थे तब समूची नपुंसक भीड़ के साथ तुम भी तो खडे-खडे तमाशा ही देख रहे थे ना?”..
“तो?..क्या करता मैं?…बिना बात के अकेले ही भिड जाता उन गुण्डे-मवालियों से?”…
“वो चार थे लेकिन तुम सब मिलकर तो सौ थे…सांप क्यों सूंघ गया था तुम सब को?”…
“वव..वो…दरअसल….
“उस दिन जब वो पुलिस वाला तुम सब नामर्दों के सामने उस बेचारे गरीब रेहड़ी वाले को सिर्फ इसलिए बुरी तरह धुन्न रहा था कि उसने अपना हफ्ता टाईम से नहीं दिया था … तब भी तो तुम चुप ही रहे थे ना?”…
“तो?…क्या करता मैं?….पुलिस वाले से पंगा मोल ले के….
“जब तुम्हारी इतनी ही फटती है पुलिस वालोँ से तो सीधे-सीधे मान क्यों नहीं लेते कि मर्द नहीं हो तुम…नपुंसकता बसी हुई है तुम्हारे रोम-रोम में…तुम्हारी रग-रग में?”…
- "हाँ-हाँ तुम्हारे हिसाब से मर्द तो वो सरकारी बाबू है ना जो बेचारे वर्मा जी की 'बुढापा पैंन्शन' पिछले छ: महीने से घूस ना देने के कारण के रोके बैठा है"मैँ भड़क उठा..
- "मर्द तो वो सरकारी डाक्टर है ना जो ड्यूटी के समय ही डंके की चोट पर अपने विज़िटिंग कार्ड हमारे हाथों में थमाता है कि...यहाँ छोडो!...और मेरे क्लीनिक पे आ के इलाज करवाओ और हम दिमागी तौर पर अक्षम..अपंग लोग सुबह-शाम उसके बँगले के बाहर लाईन लगाए नज़र आते हैँ" मैँ जैसे खुद से बातें करता हुआ बोला
- "हाँ!..मर्द तो वो बिजली विभाग का मीटर रीडर है जो दिन-दहाड़े मुझ नपुंसक को चंद नोटों की खातिर बिजली चोरी के तमाम गुर सिखाने को तैयार बैठा है"
"हाँ!..मर्द तो वो ढाबे वाला है ना जो परसों उस बाल मज़दूर को दो रोटी ज़्यादा खाने पर बुरी तरह मार रहा था?"… - "हाँ!..असली मर्द तो वो हैँ ना जो मर्दाना जिस्म...मर्दाना ताकत रखने के बावजूद किसी अबला नारी की अस्मत लुटते देख नज़रें फेर लेते हैँ?"
- "अरे!...असली जवाँ मर्द तो 'नंदीग्राम' में हैँ...'गोधरा' में हैँ….पूरे 'गुजरात' में हैँ"...
- "मर्द तो वो हैँ जिन्होंने कश्मीर से हिन्दुओं का पलायन करवा दिया"…
- "मर्द तो वो हैँ जिन्होंने गुजरात छोडने को मुस्लिमों को मजबूर कर दिया"…
- "मर्द तो वो थे जिन्होंने धार्मिक उन्माद में आ के बाबरी विध्वंस को अंजाम दिया था"…
- "मर्द तो वो थे जिन्होंने दिन दहाडे हमारी संसद में घुस कर हमारे लोकतांत्रिक ढाँचे को ही नष्ट करने की सोची थी"..
"हाँ!…औरत होते हुए भी मर्द ही तो थी हमारी पूर्व प्रधानमंत्री जिन्होनें अपनी गद्दी जाती देख समूचे देश को ही आपातकाल की भट्ठी में झोंक खुद का भविष्य सुरक्षित कर डाला था" मैँने बात आगे बढाई
"और उसे कैसे भूल गए?...वो भी तो असली मर्द ही था जिसने एक पंथ दो-दो काज करते हुए तंदूर में अपने प्यार को भून 'तंदूर कांड' को जन्म दे…लगे हाथ 'अमूल मक्खन' वालों का विज्ञापन भी मुफ्त में कर डाला था"अंतर्मन मेरी हाँ में हाँ मिलाता हुआ बोला
"मर्द तो वो बाहूबली का बेटा...वो भाई था जिसे अपनी बहन की खुशी से ज़्यादा अपने परिवार...अपने खानदान की इज़्ज़त प्यारी थी"..
"इसी को ध्यान में रखते हुए उसने अपनी बहन के प्यार का अपहरण कर उसे मार डाला था" मेरे साथ-साथ अंतर्मन की आवाज़ भी तीखी हो चली थी
“मर्द तो वो खाप पंचायतें हैं जिनसे जवाँ होते दिलों का प्यार नहीं देखा जाता"…
"और उसे कैसे भूल गए?..मर्द तो वो मंत्री का बेटा भी था जिसने 'बॉर' बन्द होने की बात सुन गुस्से में आ 'बॉर बाला' को ही टपका डाला था"…
“मर्द तो वो मंत्री था जिसने अपनी प्रेमिका 'मधुमिता' को मौत के घाट उतारा था"
"हाँ!..वो सिक्योरिटी वाले मर्द ही तो थे जिन्होंने हमारी प्रधानमंत्री 'श्रीमति इंदिरा गान्धी' को गोलियों से छलनी कर मार डाला था"...
"शायद वो 'लिट्टे' वाले भी मर्द ही रहे होंगे जिन्होंने 'राजीव गान्धी' को मारा था"...
"और वो 'एस.टी.एफ' वाले नामर्द साले!...जिन्होने वीरप्पन को मार गिराया था?"मैँ व्यंग्य बाण चलाता बोल उठा “मर्द तो वो प्रधान मंत्री थे जिनके सूटकेस की वजह से कई दिनों तक मीडिया में सरगर्मी रही थी"...
"वो मीडिया वाले भी मर्द ही थे जो दिन-दिन भर प्रिंस की खबरें दिखाते रहे"...
“या फिर वो मीडिया वाले भी तो मर्द ही होते हैँ जो खबर ना होने पर भी बेवजह की सनसनी क्रिएट कर उसकी आँच में अपने भुट्टे भूनते रहते है"…
"असली जवाँ मर्द तो वो मीडिया वाले हैँ जिन्हें इस बात की ज़्यादा चिंता रहती है कि... 'बिग बी' ने किस-किस मंदिर में...किस किस देवता के आगे मत्था टेका? बजाय इसके कि आसाम में या पंजाब में रेल दुर्घटना में कितने मरे और कितने घायल हुए?" …
"नामर्द तो वो पत्रकार हैँ जो अपनी जान जोखिम में डाल नित नए स्टिंग आप्रेशनों को अंजाम दे रहे हैँ...क्यों?..सही कहा ना मैंने?"
"तुम क्या सोचते हो कि मर्द बिरादरी सिर्फ भारत में ही बसती है?"मेरी बात अनसुनी कर मेरे अन्दर का राजीव बोलता चला गया
"अरे बुद्धू!... पूरी दुनिया भरी पड़ी है मर्दों से... वो मर्द ही तो थे जिन्होंने '9-11' की घटना को अंजाम दे हज़ारों बेगुनाहों को ज़िन्दा दफना डाला था" ..
"हाँ!…असली जवाँ मर्द तो वो भी है जिसने 'सद्दाम' का बेवजह तख्ता पलट उसे फाँसी पे चढा दिया"…
"हाँ!…एक नई बात सुनो....इनसानों के अलावा देश भी मर्द-नामर्द दोनों किस्म के हुआ करते है"…
"क्या मतलब?…वो कैसे?”…
"अब ये ‘अमेरिका’ को ही लो ...असली जवाँ मर्द देश है...किसी से भी नहीं डरता"...
"सिवाय 'लादेन' के" मैँ हँसी उडाता हुआ बोला
"देखा नहीं कैसे उसने तेल-ताकत और पैसे की खातिर...मित्र देशों को बरगला इराक पे बिना बात के कब्ज़ा जमा लिया"
"इसे कहते हैँ ...मर्दों में मर्द…असली मर्द क्योंकि मर्द को दर्द नहीं होता"…
"ओह!..तो इसीलिए तुम मुझे मर्द नहीं कहते हो क्योंकि मुझे दर्द नहीं होता?"…
- "हाँ!…मुझे दर्द होता है जब कोई मर्द किसी निर्बल अबला नारी की इज़्ज़त लूटता है"...
- "हाँ!...मुझे दर्द होता है जब कोई ‘मुशर्रफ’ सारे कानूनों को ताक में रख पाकिस्तान का बादशाह और सेनापति दोनों बन बैठता है"
- "हाँ!...मुझे दर्द होता है जब कोई मर्द मुल्क 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' का नारा दे हमारी पीठ में ही छुरा भौंकता है"
- "हाँ!..मुझे दर्द होता है जब कोई मर्द मुल्क धोखे से 'कॉरगिल' पे कब्ज़ा जमाता है"...
- "हाँ!...मुझे दर्द होता है जब देखता हूँ कि तथाकथित बडे स्कूल-कॉलेजों के मर्द प्रिंसिपल तथा अध्यापक यौन शोषन में लिप्त नज़र आते हैँ"..
- "हाँ!...मुझे दर्द होता है जब नकली स्टिंग आप्रेशन करवा के कोई मर्द पत्रकार किसी अध्यापिका की इज़्ज़त सरेआम नीलाम करवा डालता है"
- "यही सब…अगर यही सब मर्दानगी की निशानियाँ हैँ तो लॉनत है ऐसी मर्दानगी पर….ऐसे मर्दों पर"
"इससे तो अच्छा मैँ नामर्द ही सही...किसी के साथ गलत तो नहीं करता...बुरा तो नहीं करता"...
"नहीं बनना है मुझे ऐसा मर्द जो दूसरों के दर्द को ना समझ सके…दुःख को ना समझ सके"…
"ऐसे ही सही हूँ मैँ...नामर्द ही सही ...किन्नर ही सही…नपुंसक ही सही"…
***राजीव तनेजा***
14 comments:
अच्छा प्रयास. आपको बस शैली में धार लाने की ज़रूरत है।
राजीव जी
आपने तो बहुतों को
लपेट लिया इसमें
शैली सुधारनी है थोड़ी
तीखी करनी है धार
तभी जाहिर होगी
जो करनी है मार
बढ़ते रहो चढ़ते रहो
अड़ते रहो लड़ते रहो
राजीव जी
आप ने अपने मन की पीड़ा बहुत ही प्रभावशाली ढंग से रखी है, सिर्फ़ पोस्ट जरा ज्यादा लंबी हो गयी है।
राजीव तुम इतना लंबा
मेरी तरह लंबा क्यों लिखते हो
जया जी की तरह छोटा लिखो
गहरा असर करेगा
उसे ज्यादा पाठक पढ़ेगा
ati sunder...
भाई ,मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि आपकी पोस्ट लम्बी है ; अगर पीड़ा में सततता है तो चीख की लम्बाई और कराह की गहराई तो होगी ही.....
Bahut badhiya Vyang..
aise mard se to na-mard hi behtar.
सटीक और करारी चोट करता एक उम्दा व्यंग्य !
राजीव भाई
आपने तो गजब ही कर दिया
एक पोस्ट में कई मुद्दों को समेट दिया।
ब्लात्कार,कारगिल,मु्सरर्फ़ से पोस्ट लाते हुए
सही जगह पर ला टेकी है।
आभार
"नहीं बनना है मुझे ऐसा मर्द जो दूसरों के दर्द को ना समझ सके…दुःख को ना समझ सके"…
"ऐसे ही सही हूँ मैँ...नामर्द ही सही ...किन्नर ही सही…नपुंसक ही सही"…
बिलकुल सही कहा
from:Divya
Bahut badhiya Vyang..
aise mard se to na-mard hi behtar.
from:शिवम् मिश्रा shivam_mainpuri@rediffmail.com
सटीक और करारी चोट करता एक उम्दा व्यंग्य !
from:ललित शर्मा
"नहीं बनना है मुझे ऐसा मर्द जो दूसरों के दर्द को ना समझ सके…दुःख को ना समझ सके"…
"ऐसे ही सही हूँ मैँ...नामर्द ही सही ...किन्नर ही सही…नपुंसक ही सही"…
बिलकुल सही कहा
ललित शर्मा has left a new comment on your post "हाँ!...मैं नपुंसक हूँ":
राजीव भाई
आपने तो गजब ही कर दिया
एक पोस्ट में कई मुद्दों को समेट दिया।
ब्लात्कार,कारगिल,मु्सरर्फ़ से पोस्ट लाते हुए
सही जगह पर ला टेकी है।
आभार
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