"तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो"

"तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो"

***राजीव तनेजा***

"अलार्म कई बार बजने के बाद अब और बजने से इनकार कर चुका था"...

"खुमारी ऐसी छाई थी कि..निद्र देवता भी लाख भगाए ना भाग रहे थे "...

"भागते भी क्योंकर?"

"रात पौने तीन बजे लिखने-लिखाने के बाद जो सोने को बिस्तर का मुँह ताका था मैँने"


"नतीजन!...सुबह पहली ट्रेन तो मिस हो चुकी थी पानीपत के लिए"...

"दूसरी वाली पैसैंजर का भी कुछ भरोसा नहीं था कि पकड पाऊँगा या नहीं"...


"आँख जो खुली थी साढे सात बजे "...

"अब कुल एक घंटे में क्या क्या करूँ मैँ?"

"सुबह सवेरे नहा-धो के तैयार हो नाश्ता पाडूँ मैँ या...

"कितना हुआ डाउनलोड ... चैक करूँ मैँ और...

या फिर यार दोस्तों के लिए पुट्ठी सीडी तैयार करूँ मैँ"


"ऊपर से अपनी मैडम जी भी बिना रुके चिल्लाती ही चली जा रही थी"...

"कोई चिंता है ही नहीं...कब सोना है?..कब जागना है?...कुछ पता ही नहीं है जनाब को"...

"बच्चों को तो शिक्षा देते रहते हैँ कि ये ना करो और वो ना करो"...

"टाईम पे सोया करो...टाईम पे जागा करो"

"और रात को जो खुद उल्लू के माफिक डेल्ले चौडे कर जाग रहे होतें हैँ सारी सारी रात"

"उसका कुछ नहीं"...


"लैक्चर देने को हमेशा तैयार कि...रोज़ दो-दो दफा ब्रश किया करो वगैरा..वगैरा"...

"और खुद जो बिना ब्रश किए ही कहने लगते हैँ कि...

"भूख के मारे बुरा हाल है..आने दे फटाफट नाश्ता"

"उसका क्या!..?"


"मैँ भी कच्चा-पक्का जैसा तैयार होता है लगा देती हूँ सामने"...

"अब थोडा सब्र नहीं होता है तो मैँ क्या करूँ?"

"दो ही हाथ दिए हैँ भगवान ने"

"इन्हें भी सम्भालूँ और इनके सैम्पलों को भी...हुँह..."


"ऊपर से!...बिना सोचे समझे नीचे से मम्मी-पापा भी ऐन टाईमिंग के साथ पूरी गठरी बाँध मैले कपडे भेज देते हैँ धोने को"...

"थोडा तो सब्र करें कम से कम"

"पता नहीं कब समझेंगे ये सब मेरी तक्लीफ को"


"कितनी बार समझाया है इन्हें कि ज़्यादा ना टोका-टाकी ना किया करें मेरे साथ भी और बच्चों के साथ भी"...

"बडे हो गये हैँ अब"...

"भला-बुरा आप समझेंगे"

"करेंगे तो अपनी ही मर्ज़ी...चाहे लाख समझा लो"

"लेकिन नहीं!...टोके बिना रोटी जो हज़म नहीं होती है ना जनाब को"...

"अरे!...नहीं हज़म होती है तो हाजमोला-शाजमोला खाओ"...

"थोडा चूर्ण-शूर्ण पाडो"...

"अब तो!..अपने बच्चन जी भी तो चूर्ण बेचने लगे हैँ"बीवी चहकती हुई बोली


"इसका मतलब सचमुच बढिया हाज़मेदार होगा"मैँ हँसता हुआ बोला


"ये ना पहनो...वो ना पहनो"...

"अरे!..तुम्हें टट्टू लेना है?"बीवी मेरा व्यंग्य सुने बिना ही बोलती चली गई


"कुछ समझ भी है जनाबे आली को कि क्या लेटेस्ट टरैंड चल रहा है फैशन की दुनिया में?"

"कभी ताक-झाँक भी लिया करो ट्रेन में इधर-उधर कि...

समय पे बता सको की ये सोनीपत वाली लडकियाँ क्या-क्या फैशन कर रही हैँ आजकल"...


"ये क्या कि हर वक्त कीबोर्ड,स्क्रीन और कम्प्यूटर के ही ख्वाबों से ही दो चार होते रहते हो?"

"अब सामने कम्प्यूटर ना हुआ तो लग गए पैंसिल कागज़ ले आडे-तिरछी लकीरें खींचने"...

"आखिर क्या फायदा ऐसे शौक का जो भुखमरी की कगार पे ले जाए?"

"ना फीस भरी जाती है तुमसे बच्चों की"...

"ना ही मोबाईल और नैट के बिल जमा करवाते हो टाईम पे"


"मैँ मैडम की बात पे ध्यान ना देता हुआ चुपचाप तैयार होता रहा"


"जब से मैडम को पता चला है कि ये राजीव रात दो-ढाई बजे तक जागने पर भी सुबह...

बिना किसी नागे के 4.40 A.M पे क्यूँ उठ जाता है "...


"बस तब से रोज़ाना की रट समझ लो या फिर स्त्री हठ समझ लो"...

अपनी मैडम यही लाड भरा राग अलापती हैँ कि..."छोडो इसे....8.40 A.M वाली पैसैंजर में चले जाना"


"टाईम का टाईम बचेगा और 'सी.एन.जी.' की 'सी.एन.जी'"


"अब उन्हें!..क्या और कैसे समझाऊँ कि...बनिया पुत्तर ना हुआ तो क्या?...

एक पंथ तीन-तीन काज करता हूँ मैँ"..

"पहला काज कि सुबह सवेरे 'हिमालयन'में थोडा भजन-कीर्तन भी हो जाता है मुझ नास्तिक से और..

दूजे काज के रूप में अपने वर्मा जी से प्रसाद भी मिल जाता है मुँह मीठा करने को"...


"अब ये और बात है कि अपने को तो चुटकी भर ही नसीब हो पाता है लेकिन यही सोच संतोष कर लेता हूँ कि ....

"प्रसाद तो प्रसाद है...कोई पेट थोडे ही भरना है?"


"लेकिन उस्ताद! ...बात तब अखरती है जब...

लडकी देख अपने वर्मा जी दानवीर कर्ण बन पूरी मुट्ठी ही भर डालते हैँ प्रसाद से उसकी"


"ये तो हुए दो फायदे"...

तीजे के अब अपने मुँह से कैसे कहे ये राजीव कि...

लगे हाथ बोनस स्वरूप गन्नौर वाली मैडम जी के दर्शन भी हो जाते हैँ"....


"अब कुछ ना कुछ तो ज़रूर है उनमें जो मैँ क्या?..सभी दैनिक यात्री तक सम्मोहित हो खिंचे चले जाते हैँ"...


"जाना होता है कहीं और...तेरी ओर खिंचे चले आते हैँ"


"कैसे बताए अब ये हाल ए दिल अपना कि....

"क्यूँ सुबह-शाम उन्हीं का ख्याल दिल ओ दिमाग पे छाया रहता है?"...

"क्यूँ हर समय...हर वक्त...दिल उन्हीं के ख्यालों में गुम रहता है?"


"अरे!...वैसा कुछ नहीं है जो तुम यूँ मंद मंद मुस्काते चले जा रहे हो"

"अरे बाबा!...कमैंट चाहिए होता है अपनी रचनाओं के लिए"

"हौसला जो बढता है ना इस सब से"...

"पता नहीं क्यूं लगता है अपुन को कि अच्छा रिव्यू दे सकती हैँ वो"

"लेकिन क्या करूँ?...हिम्मत ही नहीं हुई कभी उनसे बात करने की"

"बस चुपचाप देखता रहता हूँ उनको कि शायद वो ही पहल कर लें कभी"


"उफ!...हर वक्त बस ये मैडमें ही मैडमें"...

"ये जीना भी कोई जीना है?"..

"कभी ये मैडम तो कभी वो मैडम"...

"करते रहो चापलूसी हर वक्त".. .

"कभी इसकी तो कभी उसकी"


"अब तो ये हालत हो चुकी है मेरी कि जहाँ देखूँ...दिखती है बस...कोई ना कोई मैडम"


"सुबह आँख खुलते ही एक मैडम जी के शलोक सुनो"...

"दूजी के सुबह ट्रेन में प्रवचन सुन उसे टुकुर-टुकुर निहारो"...

"शाम को उसी के इंतज़ार में कई बार जानबूझ'मालवा'मिस करो"


"और अगर मालवा में जाओ तो तीजी को रेलगाडी में 'नमस्ते मैडम जी...नमस्ते मैडम जी' कह...

जी हजूरी वाले अन्दाज़ में दुआ-सलाम करो"...


"टी.टी जो ठहरी". ..

"ऊपर से एक्स बॉक्सिंग चैपियन"

"वल्लाह...क्या रौब है उनका"

"गरज़दार आवाज़ कि असली शेर भी एक बार को थर्रा उठे"

"एक बार तो बिना ठुक्के पर्ची भी कटवा चुका हूँ चुपचाप"....

"मरना थोडी था मैँने जो नानुकुर करता"

"अब बार-बार यही काम करूँगा क्या?"...


"ये तो शुक्र है रिज़वी साहेब का जो बक्श देते हैँ ज़्यादातर"...

"वर्ना उनसे कडक ....उनसे गुस्सैल तो मैँने किसी 'टी.टी'को देखा नहीं है आजतक"...


"ये तो अल्लाह का करम है कि अभी हाल ही में हज हो के आए हैँ अपने रिज़वी साहेब"...

"सो!...गुस्सा तो उन्हें जैसे बिना छुए ही निकल जाता है दूर से"

"अभी हाल ही का एक किस्सा याद आ गया उनका"...

"रोज़मर्रा की तरह चैकिंग जारी थी जनाब की".. .

"एक लडकी ने उन्हीं के सामने ...उन्हीं के मुँह पे कह डाला कि..

"कर ले जो करना है...मैँ रिज़वी को जानती हूँ"...

"उन्हें पहचानती हूँ...अच्छे जानकार हैँ मेरे ..वगैरा...वगैरा"


"अब उस बेवाकूफ को कौन समझाता कि...

"बावली!...जिस बन्दे के सामने तू ये सब बखान गा रही है...

वही...खुद सोलह आने...सौ फीसदी शुद्ध रिज़वी ही है"


"उसका तो पता नहीं लेकिन सिहर तो हम उठे थे कि...

"बिना नहाए-धोए ही गयी इसकी भैंस पानी में"...

"कर लिया खुद ही सत्यानाश"

"तीन सौ बीस की पर्ची तो पक्की ही पक्की समझो"

"लेकिन मजाल है जो साहेब के माथे पे शिकन तक आई हो"...

"बस अपने एस्कार्ट लोगों से यही कहा कि "समझाओ यार इसको" और मंद-मंद मुस्काते चल दिए आगे"


"बाकी मैदमों से पिंड छूटे तो रात घर पहुँच अपनी पर्सनल मैडम जी की सुनो और अपनी आपबीती बतिआओ"


"अब इस चौथी मैडम का नाम ना ही लो तो बेहतर"...

"पिछली वालीयों ने तो कुछ का जीना ही दूभर किया है या किया होगा लेकिन...

यहाँ दिल्ली में इस चौथी वाली मैडम ने तो ऐसा कहर बरपाया है कि बस पूछो मत"...

"मुख्यमंत्री जो ठहरी"

"अब आप ना भी पूछे तो बताने से कैसे गुरेज़ करे ये राजीव..."....



"पहले नाश्ता तो ठूस लो ठीक से...

फिर करते रहना पूरे रस्ते बखान अपनी इन मैडमों का"....

"पानी कब से गर्म हो-हो ठंडा हो गया लेकिन जनाब को लिखने-लिखाने...और इधर-उधर की बतिआने से फुर्सत मिले तब ना"

"फिर कहोगे कि बोलती है"...

"जल्दी से नहा के खिसक लो पानीपत"...

"याद है ना कि मुन्ने की फीस भरनी है जुर्माने सहित?"

"कल-कल करके पूरा महीना बीत गया तुमसे लेकिन फीस भरते ही नहीं बनता"

"जब नाम कट जाएगा ना...तभी अक्ल आईगी तुम्हें"...

"पता नहीं आएगी भी या नहीं"बीवी खुद से ही बातें करते हुए बोले चली जा रही थी

"बीवी की डांट-डपट सुन लिखने से मन उचट गया मेरा"...

"भला कहीं ऐसे अशांति भरे माहोल में कुछ लिखा जा सकता है?"


"नहीं ना"...

"तो बस फटाफट ब्रैड के दो स्लाईस ठूसे मुँह में और सीधा घुस गया नहाने"...

"अब नहाया ना नहाया...सब बराबर था क्योंकि पाने तो कब का ठंडा हो चुका था"

"बीवी!...और गीज़र फिर से ऑन कर देती?...सवाल ही नहीं पैदा होता"

"बस जैसे तैसे करके फ्रैश हुआ और कपडे पहन भाग लिया स्टेशन की ओर"


"बस!...यही कोई दो मिनट की कसर...और ट्रेन मुझे मुँह चिढाते हुए सरपट दौडी चली जा रही थी"...

"ले बेटा!...कर ले पीछा"

"भाग के भी कोई फायदा ना देख लटका सा मुँह ले बीवी की तरफ ताका तो वो मुँह बनाते हुए बोली...

"घर में कौन सा अण्डे पडे हैँ सेने को?"...

"चलो बाईपास छोडे देती हूँ"

"याद है ना कि मुन्ने की फीस ...."

"बीवी की बात अनसुनी कर मैँने बीच में ही मुण्डी हिला हामी भर दी"

"बाईपास आ चुका था ...सो!...बीवी से हैंड शेक कर मैँने बस पकड ली"


"आखरी सीट खाली थी सो वहीं बैठ गया"...

"टिकट कटवा कुछ देरे इधर-उधर ताकता रहा फिर बोर हो अपनी कॉपी पैंसिल निकाल शुरू हो गया"

"लेखकीय कीडा जो ठहरा...उभरे..उभरे...ना उभरे...ना उभरे"...

"कब उभर जाए कुछ पता नहीं"...

"चेहरे पे दर्द और होंठो पे मुस्कान लिए बिना रुके लिखता जा रहा था मैँ"...


"तुम इतना जो मुस्करा रहो..क्या गम है जो छुपा रहे हो"


"क्या हुआ राजीव बाबू?"...

"किस सोच में डूबे हो?"अचानक आई आवाज़ से मेरे विचारों की बनती बिगडती श्रंखला टूट गयी

"देखा तो बगल में अपने दहिया साहब खडे थे"

"उनकी भी छूट गयी थी"...

"अ..अ..कुछ खास नहीं ...बस ऐसे ही"मैँने खिडकी की तरफ खिसकते हुए कहा


"अब क्या मुँह लेकर अपना हाल ब्याँ करे ये राजीव?"

"मैँ खुद ही तो तारीफों के पुल बाँधा करता था उनके"...

"हाँ!..उन्हीं के"....

"जिनकी वजह से तो आज मेरा ये हाल है"...

"आज अगर मेरा काम-धन्धा...मेरा घरबार...

सब टूट की कगार पर है तो सिर्फ उन्हीं के कारण"


"दोराहे पे खडा आज मैँ सोच रहा हूँ कि किस ओर जाऊँ?"...

"इस ओर...या फिर उस ओर"...

"जाऊँ तो जाऊँ कहाँ...बता है दिल...कहाँ है मेरी मंज़िल?"



"कौन ऐसा नहीं होगा जो...मेरा मज़ाक...

मेरी खिल्ली नहीं उडाएगा?"....


"सब के सब यही कहेंगे कि बडा अपना 'टीन-टब्बर' सब उखाड ले गया था पानीपत कि..

अब तो वहीं सैट होना है"...

"वही मेरी कॉशी...वही मेरा मक्का"


"आ गए मज़े?"...

"ले लिए वडेवें?"...

"हर जगह अपनी ही चलाता था"...

"अब पता चला बच्चू को कि मंडी में आलू क्या भाव बिकता है?"जैसे ताने बारम्बार मेरे कानों के पर्दों को बेंध ना डालेंगे?"


"उनका भी क्या कसूर?"


"मैँ खुद ही जो छाती ठोंक बडे-बडॆ दावे करता था कि...

'मेरी दिल्ली मेरी शान'...

'दिल्ली पैरिस बन के रहेगी'...


"माँ दा सिरर बन्न के रहेगी"...

"ढेढ साल में तो कुछ हुआ नहीं"....

"अब वैसे भी वक्त ही कितना बचा है अपनी चौथी वाली मैडम जी के पास?"

"खेल सर पे तैयार खडे हैँ होने को और मैडम जी अभी 'फ्लाईओवर' भी पूरे नहीं बनवा पाई हैँ"...


"पिछले ढेढ साल में और अब में कितना फर्क पड गया है?"...


"टट्टू जितना भी नहीं"


"दावे तो लम्बे चौडे कर रही है मैडम जी खुद और उनका लाव लश्कर भी लेकिन ...

हालात तो अभी भी जस के तस ही हैँ"...


"वही आँखे मूंद!..बेतरतीब दौडती भीड"....

"वही हमेशा!..दुर्घटनाएँ करती बेलगाम ब्लू लाईन बसें"....

"वही उनकी!..रोज़ाना की अन्धी भागमभाग"...

"वही उनकी!..लफूंडरछाप दादागिरी"...


"कुछ भी तो नहीं बदला है"


"वही सरे आम!..अवाम को ठगते-एंठते ऑटो-टैक्सी वाले"...

"वही केंचुए की चाल!..रेंगता ट्रैफिक"

"वही बिजली के!..लम्बे-लम्बे कट"..

और वही जम्बो जैट के माफिक!..बिजली के तेज़ दौडते मीटर"


"कुछ बदला भी है कहीं?"...


"हाँ!..बदला है अगर कुछ...तो वो है आम आदमी का मायूस चेहरा"...

"हाँ!..मायूस कहना ही सही रहेगा"...


"इनके मायूसियत लिए मासूम चेहरे के पीछे ज़रा ठीक से झांक कर तो देखो मैडम जी"

"कैसे मर-मर जीने की चाह में जिए चले जा रहे हैँ ये"

"लेकिन पराई पीड आप क्या जानो?"...

"आपका क्या है?"..

"कौन सा आपको भाग कर बस या गाडी पकडनी है?"...

"कौन सा आपको बिजली,पानी और मोबाईल के बिल भरने हैँ?"...


"कौन सा आपके मकान,दुकान या फैक्ट्री पे हथोडा बजाया जा रहा है?"


"कौन सा आपकी दुकान या बिल्डिंग को 'सील'लग रही है?"...


"दिल्ली 'पैरिस' बने ना बने लेकिन इतना तो सच है ...कि आपके घर ....

ऊप्स!...घर कहाँ हुए करते हैँ आपके?"...

"सॉरी!..घर तो हम जैसे मामूली लोगों के होते हैँ"...

"आप लोग तो बँगलो में रहा करते हैँ"...


"हैँ ना!...?"...


"आपके बँगले बनेंगे...ज़रूर बनेंगे लेकिन हम लोगों की जेबों के दम पर"..


"यही सच है ना?"...


"पैरिस क्या...फ्राँस क्या...और लंदन क्या...

दुनिया के हर देश...हर शहर..हर मोहल्ले की पॉश कालोनियों में बनेंगे"

"और!...वो भी एक से एक टॉप लोकेशन पर"


"हाँ!...हमीं लोगों की जेबों की कीमत पर"मेरा ऊँचा स्वर मायूस हो चला था


"पता नहीं कैसे पाई-पाई जोड कर हमने अपना ये छोटा सा आशियाना बनाया"..

"सालों साल एडियाँ रगड-रगड कर अपना रोज़गार जमाया"...

"जब कुछ खाने कमाने लायक हुए तो मैडम जी कहती हैँ कि...

"चलो!..भागो यहाँ से"...

"टॉट का पैबन्द हो तुम दिल्ली के नाम पर"..

"धब्बा हो दिल्ली की शान में"


"सील कर देंगे हम तुम्हारी ये दुकाने. ..ये फैक्ट्रियाँ"...

"तोड देंगे तुम्हारे ये फ्लैट..ये मकान"...

"नाजायज़ कब्ज़ा जमा रखा है तुमने"...


"अरे!...काहे का नाजायज़ कब्ज़ा?"..

"पूरे गिन के करारे-करारे नोट खर्चा किए थे हमने"


"पता भी है तुम्हें कि कितने सालों से?"...

"क्या-क्या जतन करके...कहाँ-कहाँ अँगूठा टेक के पैसा इकट्ठा कर हमने ये छोटा सा दो कमरों का मकान खरीदा और...

अब आप ये कहने चली हैँ कि ये ग्राम सभा की सरकारी ज़मीन है...या फिर एक्वायर की हुई ज़मीन है"...


"हमें कुछ नहीं पता कि ग्राम सभा क्या होती है और एक्वायर किस बिमारी का नाम है?"


"हमें तो बस इतना पता है कि ये दुकान..ये मकान हमारा है"


"चलो माना कि आप सच ही कह रही होंगी सोलह आने कि ये ग्राम सभा की ज़मीन है...

माने सरकारी ज़मीन लेकिन...

तब आपके मातहत कहाँ गए हुए थे जब पैस ए ले-ले यहाँ खेतों में धडाधड कलोनियाँ बसाई जा रही थी?"

"तब क्यों नहीं रोका था हमें?"

"तब क्यों नहीं अन्दर किए थे कॉलोनाईज़र और प्रापर्टी डीलर?"

"वो भी तो पैसे ले कर इधर-उधर हो गए थे"मैँ खुद से बातेँ करता हुआ बोला


"उस वक्त तो पाँच हज़ार रुपए पर 'शटर' के हिसाब से...

नकद गिन के धरवा लिए थे सरकारी बाबुओं ने चिनाई चालू होने से पहले ही कि...


"हाँ!...दल दो हमारे सीने पे दाल"..

"हम पत्थर दिल हैँ"...

"हमें कोई फर्क नहीं पडता"..


"ठीक उनके दफतर के सामने ही तो निकाली थी तीन दुकाने मैंने"...

"कोई रोकने वाला...कोई टोकने वाला नहीं था...

नोटों भरा जूता जो मार चुका था पहले ही" ..


"ये तो बाद में पता चला कि सालों ने पैसे भी डकार लिए और पीठ पीछे कंप्लेंट कर छुरा भी भौँक डाला सीने में"...

"सालों!..को अपनी कुर्सी जो प्यारी थी"

"सो!...बेदाग बचाने को सारी कसरतें की जा रही थी"...

"ऊपर दफतर में खिला-पिला के मेरे केस की फाईल दबवा दी कि कुछ भी हो साल दो साल ऊपर उभरने तक ना देना"...

"बाद में अपने आप निबटता रहेगा खुद ही"..

"वाह!...क्या सही तरीका छांटा है पट्ठों ने"...

"जेब की जेब भरी रही और कुर्सी की कुर्सी बची रही"


"कहने को तो जनता के सेवक हैँ"...

"सेवा करना इनका धर्म है...तनख्वाह मिलती है इन्हें इसकी"..


"अजी छोडो ये सब!...काहे के जनता-जनार्दन के सेवक?"...


"सेवा-पानी तो उल्टे अपनी ये करवाते हैँ हमसे"

"लानत है ऐसे जीवन पर"...

"इनकी सेवा भी करो और इनका पानी भी भरो"


"मैडम जी!...आपका डिपार्टमैंट कहता है कि सिर्फ दिल्ली जल बोर्ड का पानी ही पिएँ"..

"अरे!...पहले ठीक से घर-घर पहुँचाओ तो सही इसे"...

"फिर हम ना पिएँ तो कहना"


"वैसे एक बात बताएँगी आप सच्ची-सच्ची?"

"आपने कभी खुद भी पी के देखा है इसे?"....

"कैसे सडाँध मारता है ना कई बार?"


"है ना?"...


"इसका मटमैला रंग देख तो उबकाई भी आने से मना कर देती है"..


"ठीक है!...माना कि आप सिर्फ और सिर्फ फिल्टरड पानी ही इस्तेमाल करती हैँ....

नहाने के लिए भी और *&ं%$# के लिए भी"...


"किसी से सुना तो ये भी है कि आपके कुत्ते तक भी बिज़लरी के अलावा दूजा सूँघते तक नहीं हैँ"...

"अल्सेशियन जो ठहरे"

"अरे!...हमें उनसे भी गया गुज़रा तो ना बनाएँ आप"

"प्लीज़!..विनती है हमारी आपसे कि...

ढंग से बाल्टी दो बाल्टी पीने का पानी ही म्यस्सर करवा दिया करें"


"तब कहाँ गई थी मैडम जी आप?"

"जब पुलिस वाले बीट आफिसर बारम्बार मोटर साईकिल पे चक्कर काट काट अपना हिस्सा ले जा रहे थे और...

बाद में चौकी इंचार्ज को भेज दिया था कि जाओ तुम भी कर आओ मुँह मीठा"..

"हो जाएगी तुम्हारी भी दाढ गीली"


"आप कहती हैँ कि हमने अवैध कंस्ट्रक्शन की हुई है तो...

आप ये बताएं कि किसने नहीं किया है ये तथाकथित अवैध निर्माण?"

"क्या आप नेताओं के निर्माण दूध के धुले हैँ?"

"कुछ अनैतिक नहीं है उनमें?"

"क्या आपको ज़रूरत हो सकती है अतिरिक्त स्पेस की...हमें नहीं?"

"क्या आपकी ज़रूरतें जायज़ हो सकती हैँ...हमारी नहीं?"


"अच्छा किया जो आपने बुल्डोज़र चला हमारा आशियाँ मटियामेट कर दिया...ध्वस्त कर दिया लेकिन...

क्या आपके अपने अवैध निर्माणों की तरफ आप ही के बुल्डोज़र ने निगाह करना भी गवारा समझा?"

"उचित समझा?"


"नहीं ना!...?...


"किस मुँह से पत्थर फेंकते हो ए राजीव ...जब आशियाँ तुम्हारा भी शीशे का है"

"रेत के ढेर पे तुम भी खडे हो और हम भी पडे हैँ"...

"ना तुम सही हो...ना हम ही सही हैँ"


"अरे!..हमारा दिल देखो....हमारा जिगरा देखो"...

"आपने हथोडा बजाया"...

"कोई बात नहीं"...

आपने सील लगाई"...

"कोई बात नहीं"

"लेकिन इतना तो ज़रूर पूछना चाहूँगा आपसे कि...

अगर हमारे यहाँ से हथोडों की धमाधम आवाज़ें हमारे दिल ओ दिमाग को बेंधे जा रही थी तो

कम से कम आपके वहाँ से हथोडी की महीन सी ...बारीक सी आवाज़ भी हमें तसल्ली दे जाती कि ..

कानून सबके वास्ते एक है"...


"हम चुपचाप संतोष कर अपने रोते हुए दिल को शांत कर लेते कि...

"कोई छोटा...कोई बडा नहीं है कानून की नज़र में"

"वो सबको एक आँख से देखता है"

"लेकिन अफ्सोस!...जो हुआ...जैसा हुआ...

उस से तो लगता है कि इससे तो अच्छा था कि कानून की एक आँख भी ना ही होती"...

"यूँ भेदभाव तो नहीं कर पाता वो"..


"कहने को हम लोकतंत्र में जी रहे हैँ"..

"अगर ये भ्रम मात्र है हमारा तो प्लीज़...इसे भ्रम ही रहने दें"

"करो ना यूँ ज़मीनोदाज़ हमारे आशियाँ...जवाब तुम्हें ऊपर भी देना है"


"तब कहाँ चली जाती हैँ मैडम जी आप?...

जब चौक पे खडे हो ड्यूटी बजाने के बजाए आपके ट्रैफिक हवलदार झाडियों के पीछे छुप...

पहले तो आम आदमी को कानून तोडने के लिए प्रेरित करते हैँ और फिर...

चालान से सरकारी खजाना भरने से पहले अपनी जेब भरने को बाध्य करते हैँ"...


"ठीक है!...माना कि खर्चे बहुत हैँ सरकार के...कोई सीधे-सीधे दे के राज़ी नहीं है लेकिन...

ये कहाँ का इंसाफ है कि सीधे तरीके से जब घी ना निकले तो सरकार भी अपनी उँगलियाँ टेढी कर ले?"


"चालान तो आपने वही रखा सौ रुपए का ही लेकिन...टैक्स के नाम पर पाँच सौ का फटका अलग से लगा दिया"...

"वाह री शीला!...देख लिया तेरा इंसाफ"

"ज़ोर का झटका...सचमुच बडी ज़ोर से लगा दिया ना?"...


"आप कहती हैँ कि इससे तो गाडे-घोडे वालों को ही फर्क पडेगा...आम आदमी को नहीं"...

"ये तो बताओ मैडम जी कि ये फालतू का खर्चा कहाँ से ओटेंगे वो बेचारे?"


"किराए बढा दिए जाएँगे...आटा...दाल-चावल...कपडा-लत्ता सब मँहगा हो जाएगा"

"कुछ खबर भी है आपको?"


"एक तो पहले से ही बढे हुए कम्पीटीशन से कमाई में कमी...

ऊपर से सीलिंग और मँहगाई की मार"...


"वाह मैडम जी...देखा तेरा पलटवार"

"अरे!...अगर खर्चे ही पूरे करने हैँ तो अपने मातहतों की जेबें...उनके बैंक एकाउंट...

उनके बँगले...उनकी जायदादें आदि...सब खंगाल मारो"...

"गारैंटी है कि उम्मीद से दुगना क्या...चौगुना क्या और सौ गुना भी मिल जाए तो कम होगा"

"क्यों ठिठक के रुक क्यों गयी आप?"...

"अपनों के लपेटे में आने का डर सता रहा होगा?"


"ये कहाँ की भलमनसत है कि उन्हें बक्श..आम आदमी को चौ तरफी मार मारें आप?"


"एक तरफ सीलिंग का डंडा"...

"मँहगाई की मार".. .

"हर समय घरोंदो के टूटने-बिखरने का सताता डर"


"आप ही के मुँह से सुना है कि आप दिल्ली को इंटरनैशनल लैवल का बनाने जा रही हैँ"...

"आप कहती हैँ कि मैट्रो दिन दूनी रात चौगुनी तेज़ी से बन रही है लेकिन...

फिर भी आम जनता बसों में बाहर तक लटकी क्योँ नज़र आ रही है?"


"आप कहती हैँ कि मॉल रातोंरात ऊँचे पे ऊँचे हुए जा रहे रहे हैँ लेकिन...

फिर भी छोटे अनाअथोराईज़्ड कॉलोनियों में बाज़ार अभी भी भीड से क्योँ अटे पडे हैँ?...क्योँ भरे पडे हैँ?"..


"आप कहती हैँ कि सडकों की लम्बाई-चौडाई बढ रही है लेकिन...

फिर भी रेहडी-पटरी वाले अभी भी जस के तस सडकों पे कब्ज़ा जमाए क्योँ जमे खडे हैँ?"


"आप कहती हैँ कि फ्लाईओवर बन रहे हैँ ..बनते चले जा रहे है लेकिन...

फिर भी सडको से जाम क्योँ खुलने का नाम नहीं ले रहे हैँ?"


"कहने को...लिखने...बहुत कुछ है बाकी था ए राजीव लेकिन...

बोल बोल के...सोच सोच के थक चुके मेरे विचारों ने मेरा साथ छोड नींद का दामन थामने का एलान कर दिया"

"आँखे अब बोझिल सी होने लगी थी...पता नहीं कब आँख लगी...ना लगी"


"उठो तनेजा साहेब!...देखो क्या नया जुगाड लाया हूँ मोबाईल में"दहिया साहब की आँखो में चमक थी

"आप भी क्या याद करोगे कि किसी टीचर से यारी की है आपने "...

"एकदम से लेटेस्ट हरियाणवी 'एम.एम.एस'"वो फुसफुसाते हुए बोले

"नीला दाँत(ब्लू टुथ)ओपन करो अपने मोबाईल का"

"बस एक मिनट में पहुँच जाएगा"

"वैसे भी पानीपत आने ही वाला है"

"क्या करनाल जा के ही उठोगे आप?"दहिया साहब मुझे झकझकोड कर जगाते हुए बोले

"मैँ तो पूरे रास्ते इंतज़ार करता आया कि...अब जागेंगे कि अब जागेंगे"

"लगता है रात भर भाभी ने सोने नहीं दिया"दहिया साहब शरारत से मुस्कुराते हुए बोले

"इतना ज़्यादा कसरत ना किया करें आप कि अगला दिन जम्हाई और अँगडाई लेते लेते ही गुज़रे"


उनकी बात की तरफ ध्यान न दे मैँने खिडकी से बाहर झाँका तो देखा पानीपत आ चुका था"...

"कॉपी की तरफ नज़र दौडाई तो पहले सफे के बाद खाली की खाली थी"...

"लगता है कि मैँ सपने में ही अपनी भडास लिखता रहा...निकालता रहा"...


"खैर!...कोई बात नहीं...एक नया टॉपिक जो मिल गया था लिखने को"....

"यहाँ बस में ना सही तो ना सही"...

"कौन सा दुकान पे जा कल के दिए अण्डे सेने हैँ?"


"जय हिन्द"...

"भारत माता की जय"



***राजीव तनेजा***

2 comments:

दीपक भारतदीप said...

इतनी बड़ी रचना टाईप करने में मुझे सात दिन लग जायेंगे, इसलिए छोटी पोस्ट लिखने में ही आनंद उठाता हूँ.
दीपक भारतदीप

Indian-commodity said...

achhi rachna hai :)

 
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