"क्यों लिखता हूँ मैँ"
***राजीव तनेजा***
"हुह!..."खाने की तरफ देखते ही मैँ नाक-भों सिकोडता हुआ बोला
"ऑय-हॉय आज फिर मूंग की दाल?"...
"कुछ और नहीं बना सकती थी क्या?"
"कितनी बार कहा है कि इस घर में खाना बनेगा तो सिर्फ मेरी मर्ज़ी का"...
"पर पता नहीं तुम्हारे कान पे जूँ तक क्यूँ नहीं रेंगती है?"
"हर रोज़ बस वही उल्टे-सीधे खाने...
कभी 'करेला' तो कभी 'घिया'...
कभी 'तोरई' तो कभी 'बैंगन का भुर्ता'"
"अरे!...गुस्सा तो इतना आता है कि अभी के अभी मार-मार के तुम्हारा ही भुर्ता बना दूँ"मैँ गुस्से से बिफरता हुआ बोला
"तो फिर समझाओ ना अपने माँ-बाप को...
क्यूँ थोक के भाव उठा लाते हैँ ?"
"बडा चाव चढा हुआ है बुढापे में हरी सब्ज़ियाँ पाडने का...
"ये नहीं कि जो सबको पसन्द है ...वो ही पकवाएँ और वो ही खाएँ"
"और उनके इस नव्वें शौक के चक्कर में कोई भी प्रोग्राम कहाँ ठीक से देख पाती हूँ टीवी पर"
"किसी सीरियल का स्टार्ट मिस हो जाता है तो किसी का एण्ड"
"अब बीच में से देखो तो पल्ले ही कहाँ पडती है कहानी"...
"कुछ समझ नहीं आता है कि कौन किसका देवर है तो कौन किसकी भाभी"...
"और ऊपर से कोई किसी सीरियल में वैम्प का किरदार निभा रही होती है तो वही...
किसी दूसरे चैनल पे नायिका बन इठला रही होती है"
"किस का किस से क्या रिश्ता है कुछ समझ में ही नहीं आता है"...
"कभी 'मिहिर' मरा हुआ नज़र आता है तो कभी ज़िन्दा दिखाई देता है"...
"एक बार कॉटीन्यूटी टूट जाए सही तो समझो...गयी भैंस पानी में"
"अब ले लो मज़े....सब का सब गडबड झाला हो जाता है" ...
"कंफ्यूज़न ही कंफ्यूज़न"...
"घोर कंफ्यूज़"
"इसलिए तो कहती हूँ बार-बार कि बीच में टोका ना करो"...
"और हाँ!...आईन्दा खाना मिलेगा तो प्रोग्राम से पहले या फिर प्रोग्राम के बाद"...
"बीच में बिलकुल नहीं"
"कोई नखरा नहीं चलेगा अब किसी का"...
"मैँ तो तंग आ चुकी हूँ तुम सब की फरमाईशें पूरी करते-करते"...
"किसी को कुछ चाहिए तो किसी को कुछ"..
"ये नहीं कि जो बना है चुपचाप ठूस लो आराम से और चैन के बैठ के देखने दो मुझे टीवी घडी दो घडी"...
"और इसके अलावा शौक ही क्या है मेरा?"
"अब ये चैटिंग-वैटिंग तो तुम मजबूरी में ही करती होगी?"मैँ बोल पडा
"तुम्हें तो बस मौका मिले सही...पीछे पड जाया करो मेरे"
"घडी दो घडी किसी से दो बोल बात-बतला लेती हूँ तो उसमें भी एतराज है जनाब को?"
"चिंता नहीं करो ना कोई मुझे ले जाएगा और..ना ही मैँ तुम्हें छोड के जाने वाली हूँ कहीं"
"कहीं तुम्हारे मन में लड्डू फूट रहे हों कि ये जाए सही और मैँ झट से बुलवा लूँ कनाडा वाली को"
"बार-बार सुनाते जो रहते हो कि वो ये-ये बनाती है और वो-वो पकाती है"
"कान खोल के सुन लो तुम भी सब के सब"बीवी बच्चों की तरफ मुखातिब होती हुई बोली...
"अब हर एक के नखरे उठाना बस का नहीं है मेरे"
"खाना है तो खाओ"...
"नहीं तो भाड में जाओ"बीवी रिमोट का बटन दबाते हुए बोली
"मैँ भी इंसान हूँ कोई मशीन नहीं कि बस चलती जाऊँ"...
"बस चलती जाऊँ"
"ओफ्फो!...अब ये केबल भी अभी ही जानी थी"...
"कितनी बार कहा है कि ये केबल-शेबल को टाटा कर 'टाटा स्काई' अपनाओ या फिर...
'डिश टीवी'की 'डिश' में परोसे हुए चैनल देखो आराम से"...
"ना केबल वालों की दादागिरी का पंगा"...
"ना ही केबल कटने का डर"...
"ऊपर से एकदम क्लीयर प्रफार्मैंस"...
"यानी के फुल्ल-फुल्ल मज़ा ..अनलिमिटिड"...
"बस रिचार्ज करो और हो जाओ शुरू"
"लेकिन!..कोई मेरी बात मानें तब ना"....
"चाहे जितना चिल्लाती रहूँ लेकिन कोई असर ही नहीं होता है इस चिकने घडे पर"बीवी मेरी तरफ उँगलियाँ नचाती हुई बोली
"बस!..खाया-पिया और बैठ गए लिखने फाल्तू की कहानियाँ"
"बठे-बिठाए खाने को जो मिल जाता है तो ये वेल्ले काम रह जाते हैँ जनाब के पास करने को"
"कहने को कहते हैँ कि एक ना एक दिन मेरी किस्मत जागेगी और सब मेरी लेखनी का लोहा मानेंगे"
"अरे!...तुम्हारी का तो पता नहीं कि कब जागेगी ...या जागेगी भी या नहीं लेकिन...
इतना तो पक्का है कि मेरी ही किस्मत फूटी थी दोस्त जो इस घर में तुम संग ब्याहे चली आई"...
"लाख रिश्ते आए थे मेरे लिए"
"पता नहीं कमभख्त अक्ल पे कौन से पत्थर पडे थे मेरी जो इस बावले संग ब्याह रचाया"
"पता नहीं था ना कि ये मोटू सिर्फ खाने और लिखने के लिए ही जीता है"
"अगर ज़रा सी भी भनक लग जाती तो बीच फेरों में ही भाग खडी होती"
"अरे हाँ...याद आया....
याद है ना कि नहीं शादी पे जाना है अपनी 'तुलसी'की?"
"वो भी तो कितने तरले कर रहा था मेरे"बीवी जैसे पुरानी यादों में खो गई
"क्या होता जो दिल्ली छोड इलाहबाद बसना पडता?"
"बस जाती तो बस जाती"...
"ठाठ से तो रहती कम से कम"
"अच्छा!...वो वाला?"
"हाँ-हाँ!...वो ही वाला"बीवी आँखे नचाती हुई बोली
"रानी बना के रखता!....रानी"
"अरे!...वो तो कब का सन्यासी बन गया था तेरे चक्कर में"
"वो हाथ नहीं आने वाला था वैसे भी"
"ये सन्यासी-वन्यासी तो सब धरा का धरा रह जाता"...
"बस!..मैँ ही ढीली पड गई तुम्हारे कारण"
"मेरे कारण?"
"और नहीं तो क्या"..
"अच्छा होता जो मना लेती उसे किसी तरह"..
"इतना तो अब भी विश्वास है मुझे कि मेरे एक-आध गाना गाने की देर थी और...
उसने मेरी मुट्ठी में होना था"बीवी आह भरती हुई बोली
"बीवी ने लम्बी तान ली और शुरू हो गयी...
"चल सन्यासी मन्दिर में"...
"तेरा चिमटा...मेरी चूडियाँ"...
"दोनों साथ-साथ खनकाएंगे"
" अरे!...शक्ल देखी थी कभी ध्यान से उसकी?"
"कालू राम कहीं का"....
"पूरा मद्रासी दिखता था....पूरा मद्रासी"
"इसकी बजाए अगर तुम कुछ इस तरह से गाती तो शायद बात बन जाती"
"काबू में आ भी जाता तुम्हारे"
मैँ भी शुरू हो गया...
"चल'मद्रासी'...'होटल' में"...
"तेरा 'डोसा'...मेरा 'समोसा'...
"दोनों साथ-साथ खाएँगे"
"ऑय-हॉय अब क्या करूँ इस मोटू का?"
"इसे तो हर वक्त खाने की ही पडी रहती है"
"मजाल है जो कभी ध्यान टस से मस हो जाए"
"बात कहाँ की हो रही थी और ये बीच में घुसेड लाया 'डोसा' और 'समोसा'"
"हर जगह बस लेखक का कीडा ही छाया रहता है इनके दिल-ओ-दिमाग पर"...
"लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर"...
"बेवाकूफ!...कभी तो अक्ल से काम लिया करो"
"ये नहीं कि हर वक्त बस चबड-चबड"
"खाते जाओ...खाते जाओ और कीबोर्ड पे उँगलियाँ घिसते जाओ"
"तुम ही कौन सा तीर मार रही होती हो इस मुय्ये इडियट बॉक्स में आँखे गडाए-गडाए?"
"खबरदार!..जो इसे 'इडियट बॉक्स' या 'बुद्धू बक्सा'कहा"
"माना!..कि कभी हुआ करता था ये 'इडियट' किसी ज़माने में लेकिन अब तो इसका कोई सानी नहीं हैँ"
"तुम सोचते हो कि ये बावली बैठी-बैठी बस यूँ ही फोक्ट में अपनी आँखे आँसुओं से टप-टप लाल किए फिरती है"...
"अरे!...इतनी बावली नहीं हूँ मैँ"...
"मुफ्त में तो मैँ किसी को अपना बुखार तक ना दूँ"
"अब इस 'तुलसी' को ही लो....
माना कि एकटिंग ठीक-ठाक कर लेती है लेकिन मैनें भी इसे मेल भेज -भेज के ऐसा चने के झाड पे चढा है कि...
पट्ठी मेरे हर खत का जवाब खुद ही पर्सनली देती है"...
"अभी परसों ही तो इनवीटेशन भेजा है अगली ने अपनी शादी का"
"इनवीटेशन?"...
"शादी का?"...
"और नहीं तो क्या?"..
"ये देखो....साफ साफ लिखा है...
"तुलसी की शादी....8.00 बजे...
बारात:6.00 बजे
दिन:बुध वार...
तारीख:21 नवम्बर 2007
स्थान: मुस्सदी लाल धर्मशाला,नरेला(दिल्ली)बीवी कार्ड हवा में लहराते हुए बोली
"मुम्बई छोड दिल्ली मिली उसे घर बसाने को?"
"अरे!...मुम्बई में रहती है तो क्या?"
"दिल तो उसका दिल्ली में ही बसता है ना?"
"इलैक्शन भी तो यहीं दिल्ली से ही लडी थी ना कमल वालों की तरफ से"
"अब हार गयी...तो हार गयी"...
"क्या फर्क पडता है?"...
"अब!..ये तुम देखो कि तुमने जाना है कि नहीं जाना है"....
"मैँ तो ज़रूर जाऊँगी"..
"पर्सनली इनवाईटेड जो हूँ"बीवी शान बघारते हुए बोली
"बडे बडे लोग आएँगे"...
"बिज़नस मैन...इडस्ट्रियलिस्ट...सैलीब्रिटीज़..वगैरा...वगैरा"..
"सबके ऑटोग्राफ लूँगी"...
"वक्त-बेवक्त सहेलियों पे रौब जमाने के काम आएँगे"...
"वैसे आप भी खाली घर में बैठ के क्या करोगे?"..
"क्यों नहीं चल पडते मेरे साथ?"...
"साथ का साथ हो जाएगा और काम का काम"
"काम का काम?"..
"कैसा काम?"...
"कौन सा काम?"
"हे भगवान!...क्या सब कुछ मुझे ही समझाना पडेगा इस लल्लू को?"
"छोडो अब ये कहानियाँ-वहानिय़ाँ लिखना" ..
"कोई फायदा नहीं जब इनसे कुछ वसूल ना सको"...
"और वैसे भी ये सब मोह-माय का चक्कर तुम्हारे बस की बात नहीं"...
"यूँ ही बेफिजूल में लिखना-लिखाना छोडो"...
"पढता ही कौन है तुम्हें?"
"अपनी तसल्ली भर के लिए ही लिखते हो ना?"
"मैँ भी तुम्हें इसलिए नहीं टोकती तुम्हें कि अच्छा है बिज़ी रहें"...
"वर्ना तुम्हारी तो कभी फरमाईशें ही खत्म नहीं होती कि...
कभी ये ला...तो कभी वो बना"
"चलो तुम भी...
खाली घर बैठ इस लिखने -लिखाने के चक्कर में कही सुनहरा मौका न हाथ से निकल जाए"...
"सुनहरा मौका?"
"और नहीं तो क्या?"...
"क्या पता खुद 'एकता कपूर' खुद आ रही हो वहाँ"...
"'एकता' और 'तुलसी'?"...
"एक साथ?"...
"एक ही मँच पर?"...
"भाँग चढा रखी है क्या?"
'अब ये 'तुलसी'से 'एकता' में छत्तीस के आँकडे वाली खबर का तो मुझे भी पता है लेकिन...
इन टीवी और फिल्म वालों का कुछ पता नहीं होता है"...
"कोई पता नहीं कि...कल ऊँट किस करवट बैठा था?और...
आज किस करवट बैठेगा?"...
"और कोई गारैण्टी नहीं कि बैठेगा भी या नहीं?"
"इन सालों के खाने के दाँत और होते हैँ और दिखाने के और"
"अब!..अपनी'अलीशा'को ही लो ना...
कुछ साल पहले तक तो 'अनु मलिक' को दिन में सौ-सौ गालियाँ बकती थी लेकिन..
अब दोनों एक साथ...एक ही मँच पर 'मंच'खाते हुए 'इंडियन आईडल'चुनने का ड्रामा करते नज़र आ रहे थे"
"ले चलना तुम भी अपनी ये कहानियाँ-वहानियाँ"...
"क्या पता कि किस्मत जाग जाए और तुम वेल्ले से नामी गिरामी राईटर बन जाओ"
"उस वक्त मुझे तो नहीं भूल जाओगे ना?"बीवी शरारती मुस्कान चेहरे पे लाती हुई बोली
"लो!..अब कह रहे हो कि कोई कहानी तैयार नहीं है"
"इतने महीनों से क्या झक्ख मार रहे थे?"बीवी गुस्से से बौखला उठी
"कोई काम ढंग से होता भी है तुमसे?...
"बस मेरे ही सहारे बैठे रहा करो हमेशा"...
"बच्चे नहीं हो अब दूध पीते कि मैँ ही अब उँगली पकड के चलना भी सिखाऊँ तुम्हें हमेशा"
"जिस दिन मैँ नहीं रहूँगी ना बच्चू...तब पता चलेगा"
"खैर!..छोडो ये सब और ध्यान से सुनो मेरी बात"...
"अभी दो दिन पडे हैँ 'तुलसी'की शादी को"
"सबसे पहले जाओ 'तनेजा कम्प्यूटर'वाले के पास और अपना 'प्रिंटर'ठीक कराओ"
"लेकिन इस सब से होगा क्या आखिर?"मैँ असमंजस भरे स्वर में बोला
"बेवाकूफ!..जो कुछ भी...जितना कुछ भी लिखा है अभी तक...
सबका प्रिंट आउट ले लो"लेकिन...
इतना ध्यान रखना है कि...सब की सब कहानियों के 'टाईटल' बदले हुए होने चाहिए"
"पुराने माल पे नया लेबल लगा दिखाई देना चाहिए"
"और हाँ!..सब के सब टाईटल "क"अक्षर से शुरू होने चाहिए"
"वो भला क्यों?"मैँ मासूम चेहरा लिए बोला....
"इतना भी नहीं पता बुद्धू?"...
"एकता को "क" अक्षर का 'फोबिया' है"...
"कपडे भी काले पहनती है"..
"किसी को कहते सुना था कि रहती भी हमेशा काले लोगों के बीच ही है"...
"स्पाट बॉय से लेकर एक्टर,डाईरैक्टर...हर बन्दा काले लबादे में ही नज़र आता है"...
"लेकिन अपुन को तो इन अफवाहों में रत्ती भर भी विश्वास नहीं है"
"लेकिन फिर भी हम कोई रिस्क भला क्यों लें?"...
"सेफ साईड चलने में बुराई ही क्या है आखिर?"
"मुझे कुछ नहीं पता बस"...
"तुम्हारी हर कहानी का नाम 'क'से ही शुरू होना चाहिए "बीवी लाड भरे स्वर में बोली
"जैसे!..काणा कुत्ता कमाल का"...
"काली कबूतरी दुध वर्गी"...वगैरा...वगैरा"मैँ हँसते हुए बोला
"तुम भी ना?"बीवी शिकायती लहज़े में बोली
"इस सब की चिंता छोडो...मैँ अपने आप सम्भाल लूँगा"
"वैसे भी नाम में क्या रखा है?"...
"कहानी में दम होना चाहिए"मैँ बोला...
"कुछ समझ नहीं आए तो बस ऐसे ही दो चार पेजों पर कलम घसीट डालना"...
"बस इतना ध्यान रहे कि कहानी ऐसी लिखना जिसमें बहुत से किरदारों को जोडने-घटाने की गुंजाईश हो"
"बाकि सारे मसाले 'एकता'अपने आप फिट कर लेगी जैसे..
'फैमिली ड्रामा'...
'आँसुओँ की बारिश'...
'बदला'...
'अवैध संतान'...
'नाजायज़ रिश्ते'...
'बिज़नस राईवलरी'....
'विदेशी लोकेशन'...
'आलीशान सैट'...
'मँहगे कॉस्ट्यूमस'वगैरा...वगैरा"बीवी बोली....
"कौन सा सीरियल कितने हफ्ते या कितने साल चलाना है?"....
"कैसे उनकी 'टी आर पी' मेनटेन रखनी है?"....
जैसी बेसिक बातें समझाने की ज़रूरत नहीं है उसे"...
"ये सब खींचतान बिना किसी लाग-लपेट के अच्छी तरह जानती है वो"...
"तजुर्बा...मेरी जान तजुर्बा इसे ही कहते हैँ "बीवी जैसे खुद से ही बातें करती हुई बोली
"अब ये एक्टर-वक्टर की चिंता तुम काहे मोल ले रहे हो?"...
"अगली का काम है अपने आप सम्भालती फिरेगी"बीवी मेरी तरफ देखती हुई बोली
"किसी को रखे..ना रखे ..उसकी मर्ज़ी"...
"एक बात तो है कॉमन है तुम दोनों में"मैँ बोल पडा
"क्या.. ?"बीवी कौतुकपूर्ण नज़रों से मेरी तरह ताकती हुई बोली
"यही कि...ना तुम अपने आगे किसी की चलने देती हो और ना ही वो"
"तुम भी ना!..बस यूँ ही बेसिर पैर की उडाते रहा करो हमेशा"बीवी तिलमिलाती हुई बोली
"अब अगर कोई उसी की छाती पे...उसी के सामने मूँग दलना शुरू कर दे तो और करे भी क्या बेचारी?"
"सही करती है बिलकुल कि...
कोई ज़रा सी भी ना नुकुर करे सही...
अगले एपीसोड में ही पत्ता साफ"...
"बस चले उसका तो बीच एपीसोड में ही कत्ल करवा डाले"मैँ बीच में ही टाँग घुसाता हुआ बोला
"अब भले ही उसके लिए वो कहानी में फेरबदल कर उसका मर्डर करवाए या फिर एक्सीडैंट"
"हमें क्या लेना?"
"शो मस्ट गो ऑन"...
"कुछ फर्क नहीं पडता...कहानी यूँ ही चलती रहती है"
"हाँ!...कोई फर्क नहीं पढ्ता है अपनी भोली जनता को"मुझसे व्यंगात्मक लहज़े में बोले बिना रहा नहीं गया
"कलाकारों का ट्रैफिक यूँ ही बदलता रहेगा...भोली जनता..तुम देखो मगर प्यार से"
"और हम लेखकों का क्या?"
"हमें भी किसी दिन ऐसे ही दूध से मक्खी की तरह निकाल बाहर फैँका तो?"मुझे गुस्सा आने को था
"हमारी छोडो"...
"हमारा क्या है?"..
"हम ठहरे रमते जोगी"
"आज इस ठौर तो....कल उस ठौर"
"अपुन ने तो बस आईडिया देना है और माल बटॉरना है"...
"भले ही उसे 'तुलसी'भुनाए या फिर 'एकता'उसकी आँच पे अपने भुट्टे भूने"
"अपनी तरफ से दाम चुका ...कोई ले ले"बीवी बोली
"सबने अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकनी हैँ"बीवी बोली
"अब भले ही सामने वाला हमें चवन्नी दिखाए और खुद हज़ारों कमाए...हमें इस से क्या?"
"वाह!...क्या इंसाफ है ...वाह"मैँ भडकने को था
"मज़दूर का पसीना सूखने से पहले उसे उसकी मज़दूरी मिल जाए...इस से बढकर और क्या होगा"बीवी ने जवाब दिया
"अब ये कहानी-वहानी नाम की कोई चीज़ होती भी है इन प्रोग्रामज़ में?"...
"नहीं ना?"...
"असल चीज़ होती है पैकिंग"...
"किस तरीके से 'माल'को पेश किया जा रहा है और कहाँ पेश किया जा रहा है?...
यही सब मायने रखता है"बीवी बोली
"मतलब?"..
"जैसे..अगर कोई सीरियल दूरदर्शन पे दिखाया जा रहा है तो कोई ढंग का स्पॉंसर भी नहीं मिलेगा"...
"और अगर वही सीरियल थोडे जायकेदार मसालों के साथ 'स्टार' या फिर 'सोनी' पे आ रहा है तो...
यकीनन सभी टॉप के स्पॉसर हाथ जोड कतार बाँधे नज़र आएँगे"बीवी समझाती हुई बोली...
"इसका मतलब सब पैकिंग का कमाल है?"....
"और नहीं तो क्या?"
"ध्यान से देखोगे तो जान जाओगे कि सभी कहानियाँ एक जैसी ही होती हैँ"....
"एक जैसे सैट"..
'एक जैसे मेक अप'...
'एक जैसे गैट अप'...
'एक जैसे किरदार'...
"यानी सब कुछ एक जैसा"
"तुम्हारा मतलब सभी लेखक फुद्दू ही होते हैँ?"
"और नहीं तो क्या"बीवी पूरी लेखक बिरादरी का मज़ाक उडाते हुए बोली
"बहुत हो गयी ये पुरानी कहानियों से चेपा-चेपी"लेखक और उसकी लेखनी की ऐसी बुरी गत मुझसे देखी ना गई और ज़ोर से चिल्ला पडा
"लिखूँगा तो एक्दम ओरीजिनल लिखूँगा वर्ना लिखना छोड दूंगा""
"क्यों सुबह-सुबह मुझे बहकाते हो?"...
"ये लेखकीय कीडा कभी किसी का छूटा है जो तुम्हारा छूट जाएगा?"
"लिखो...लिखो..चुपचाप लिखो"बीवी मानों आदेश देती मुद्रा में बोली
"अब मैँ बेचारा...किस्मत का मारा"...
"क्या करता?".. .
"कोई और चारा भी था मेरे पास?"
"चुपचाप बैठ गया लिखने"...
"पापी पेट का सवाल जो था"
"पता था कि जब तक दो-चार घंटे बीवी के कानों में कीबोर्ड की टक-टकाटक नहीं गूंजेगी...
खाना तो मिलने से रहा"
"चुपचाप लिखने बैठ गया"
"अब चैन किसे था?"
'एकता'खुद ही बारम्बबार आ-आ के मेरे ख्वाबों की एकाग्रता को भंग करने लगी थी "
"सोचूँ कुछ...मन को समझाऊँ कुछ और असल में लिखा जाए कुछ"
"कुछ समझ नहीं आ रहा था"
"जिस भी सीन को झाड-पोंछ के तैयार करूँ...बीवी तपाक से बोल पडे कि ...
"ये?...
ये वाला तो फलाने-फलाने सीरियल में 'एकता'पहले ही दिखा चुकी है"
"बडे लेखक बनते हो ...
कुछ ओरिजिनल नहीं लिख सकते क्या?"बीवी ताना मारते हुए बोली
"अब मैँ बेचारा सोचता रहा और बस सोचता रहा लेकिन कोई धाँसू आईडिया दिमाग में ज़ोर मारने को तैयार ही नहीं"
"साला!...कहाँ से लिखूँ ओरीजिनल कहानी?"...
"इस 'एकताई भूत' ने जीना-मरना...सोना-जागना सब हराम कर डाला था मेरा"...
"आँखो में बसा उल्लू नींद को मुझसे कोसों दूर ले जा चुका था"...
"आँखो के डेल्ले पुराने वाले अदनान सामी की तरह फैले जा रहे थे"
"कभी पुरानी कहानियों में ही नए-नए जुगाड फिट करने की सोचने लगा था मैँ लेकिन...
इस'एकता'के आगे सबको एक ही झटके में धराशाई होते मैँ खुद ही अपने त्रिनेत्र से देख रहा था मैँ"
"सो!...ये आईडिया भी ड्राप करने के अलावा कोई चारा नहीं था"
"उधेडबुन में डूबा-डूबा कभी कुछ तो कभी कुछ लिख रहा था कि...
अचानक सिनेमाई लेखकों वाले बेबाक आईडिए ने ढिचाँक कर के दिमाग में ऑन दा स्पाट फॉयर कर डाला"
"सो!..आव देखे बिना ही ताव से अँग्रेज़ी फिल्मों की सात-आठ डीवीडी मँगवाई किराए पे और सारी की सारी देख डाली एक ही झटके में"
"बस फिर क्या था...लिखता गया...बस लिखता गया"....
"बीवी भी मुझे पूरी लगन और इमानदारी से काम करता देख फूली नहीं समा रही थी"
"दो दिन बाद मैँ प्रिंट आउटस के साथ रैडी था"
"अब तो बस!..'तुलसी'की शादी में 'एकता'का ही इंतज़ार है कि...
कब हो शादी और कब मैँ वहाँ अपनी रचनाओं के पुलिन्दे से उडा दूँ सबकी किल्ली और मार लूँ मैदान"
"चैन अब किसे था ए राजीव?"
"एकता जो खुद नोटों के बण्डल हाथों में ले आ-आ मेरे ख्वाबों की एकाग्रता को भंग करने लगी थी"
"खैर....किसी ना किसी करके सैलीब्रेशन का दिन आ पहुँचा...
"सुबह जल्दी ही उठ गया था मैँ"...
"इसलिए नहीं कि शादी पे जाना है बल्कि इसलिए कि भूख के मारे बुरा हाल था"..
"बीवी ने पिछले तीन दिनों से सुबह-शाम दो फुल्कों के अलावा कुछ दिया भी तो नहीं था"
"कहती थी कि यहीं खा-पी लोगे तो वहाँ जा के क्या पाढोगे?"
"कद्दू...?"
"अब समय काटे नहीं कट रहा था कि कब शाम हो और कब मैँ तैयार होऊँ?"
"शैम्पू-वैम्पू...कँघी-वँघी कर हम मियाँ-बीवी तैयार हो जाने को तैयार खडे थे कि मैँ बीवी से बोला..
"ज़रा कार्ड तो लाओ शादी का"
"देख तो लें कि जाना कहाँ है"
"कहीं बाद में पता चले कि जाना था किसी शादी में और पहुँच गए किसी और में"...
"याद है ना पिछली बार का जब 'रोज़ी'की शादी का न्योता आया था इन्दौर से ...
"बडे मज़े से टिकट कटवा पहुँच गए थे हम दोनों"..
"ये तो वहाँ जा के पता चला था कि हम समझे कुछ और वो 'खसमाँ नूँ खाणी'निकली और कुछ"
"फोटो अभी तक सम्भाल के रखी है मैँने"...
"महीने-सवा महीने में ताक ही लेता हूँ उसकी तरफ कि फिर कभी न हो ऐसा"
"हादसे भी कभी भूले जाते हैँ यूँ ही साल दो साल में?"
"उफ!...कर दिया ना सत्यानाश तुमने?"मैँ कार्ड का मज़मून पढते ही चिल्ला पडा
"बडी आई मुझे अक्ल देने वाली कि ये-ये लिखो और वो-वो ना लिखो"
"खुद को अक्ल नहीं है धेल्ले की और बाँटने चली हो इस परमज्ञानी को ज्ञान"
"हुँह!...बडी आई मुझे शादी का चौदह साल पुराना कोट-पैंट एडजस्ट करवा बॉबू बनाने वाली". .
"सच्ची!...पहन लो...हैडसम लगोगे बहुत...कसम से"
"ये सब कह-कह के बडा मक्खन लगाया जा रहा था कि आ जाऊँ किसी तरह से तुम्हारे झाँसे में"
"और मैँ मूर्ख तुम्हारे इस भुलावे में फँस पूरे तीन दिन भूखा रहा कि ...
"ले बेटा!...कर ले डॉयटिंग-शॉयटिंग"...
"घटा ले तोंद-शोंद"...
"क्या पता हीरो का चाँस ही दे डाले अपनी'एकता"
"हुँह!...."
"आखिर हुआ क्या?"...
"कुछ बोलोगे भी"
"या यूँ ही बकवास करते रहोगे बे फाल्तू में?"
"ले!...
ले पढ खुद ही"...
"आज भी जलूस निकलवा के ही दम लेना था मेरा?"
"देख! ...
हाँ!...ध्यान से देख....कौन सी 'तुलसी' की शादी हो रही है वहाँ"
"ठीक ही तो लिखा है कि 'तुलसी'की शादी है"बीवी मिचमिचाती हुई आँखो पे ज़ोर डाल पढती हुई बोली
"बेवाकूफ...आँखो के ढक्कन पे वाईपर मार ढंग से और ध्यान से देख कि. ..
ये तेरी सीरियल वाली 'तुलसी'नहीं बल्कि...
'तुलसी मैय्या'की शादी है अपने 'विष्ण भगवान (Vishnu Bhagvaan)के साथ "
"आज ही के दिन तो होती है"
"ये तो शुक्र है 'तुलसी मैय्या'का कि बचा लिया वर्ना तुमने तो अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोडी थी जलूस निकलवाने में"
"जय हो!...
जय हो!..'तुलसी'मैय्या की"
***राजीव तनेजा***
5 comments:
राजीव जी
बढ़िया लिखा है। लेकिन, बहुत लंबा लिख मारा है। इसे किस्तों में देते तो झेलने में ठीक रहता। वैसे ई बताइए इसका का मतलब हुआ
"क्या होता जो दिल्ली छोड इलाहबाद बसना पडता?"
लिखा तो आपने बहुत अच्छा है पर जनाब हम तो कविता की लम्बाई से मार खा गए. पढ़ कर मज़ा आया. कंही कंही आपका व्यंग्य करारी चोट करता है.
भैय्या लिखा तो अच्छा पर पोस्ट की लम्बाई का भी ख्याल रखिये। दूसरी बार भी इतनी लम्बी रचना पढनी पडेगी ये डर सतायेगा।
इसमें से अगर आप कुछ आपके साथ घटित हो रहा है तो आप तसल्ली कर लें कि हम भी कुछ ऐसी हालतों से दो चार होते हैं.
दीपक भारतदीप
यह टिपण्णी मै अपने ब्लोग पर आपके २ लाईन के बदले देना चाहता था. लेकिन पिछले आधे घण्टे से आपका कविता पढ़ रहा हूँ क्या लिखना था भूल गया. याद आएगा तो हम फिर से आउँगा. हमारे ब्लोग का भ्रमण करते रहिये याद आने पर हम फिर से आउँगा.
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