इस प्यार को क्या नाम दूँ-राजीव तनेजा
***राजीव तनेजा***
"दिल की ये आरज़ू थी कोई दिलरुबा मिले"...
"आखिर तुम्हें आना है...ज़रा देर लगेगी"...
आज ये सब गाने मुझे बेमानी से लग रहे थे क्योंकि सब कुछ धीरे-धीरे सैटल जो होता जा रहा था|आज भी पुराने दिन याद करता हूँ तो सिहर-सिहर उठता हूँ|उफ!..वो दिन भी क्या दिन थे जब मैँ दिन रात इसी सपने में खोया रहता कि... काश..सपने में ही दिख जाए वो मुझे किसी तरह|असलियत में तो नामुमकिन सी बात जो लगती थी|उसका चेहरा हमेशा मेरी आँखो के आगे छाया रहता|ज़मीन पर रह कर चाँद को पाने की चाहत थी मेरी|पहली बार बचपन में बडे पर्दे पर ही तो देखा था उसे|
"सामने ये कौन आया...दिल में हुई हलचल...
देख के बस एक ही झलक...हो गए हम पागल"..
उफ!..क्या कयामत बरपायी थी उसने अपने पहले ही जलवे में..जिसे देखो...वही शैंटी फ्लैट हुए जा रहा था तो अपुन किस खेत की गाजर-मूली थे?थे तो हम भी हाड़-माँस के मामुली इंसान ही ना?...सो!..कैसे बचे रह्ते उसके मोह पाश से? बस अब तो ना दिन को चैन था और ना रही रातों की नींद|जानता था कि मेरी किस्मत में नहीं है वो..कोई बड़ा आदमी ही ले जाएगा उसे
"मेरी किस्मत में तू नहीं शायद...क्यूँ तेरा इंतज़ार करता हूँ...
मैँ तुझे कल भी प्यार करता था...मैँ तुझे अब भी प्यार करता हूँ"
लोगों से सुना है...किताबों में लिखा है...सबने यही कहा है कि...
“नखरे बहुत हैँ स्साली के….खर्चीली इतनी कि पूछो मत...किसी आँडू-बाँडू को पुट्ठे पे हाथ तक नहीं धरने देती है"
अब ये बावले क्या जानें कि नखरे तो होने ही हैं....टॉप की आईटम जो ठहरी...अब हर किसी ऐरी-गैरी...नत्थू-खैरी के बस का कहाँ कि वो लटके-झटके दिखाती फिरे? नखरे दिखाना भी अदा होती है ...स्टाईल होता है|
अब तो खुमार ऐसा छाया दिल ओ दिमाग पे कि लाख उतारे ना उतरा|सबने बहुत समझाया कि…
“रहने दे...तेरे बस कि बात नहीं...ऊँचे लोगों की ऊँची पसन्द भला गरीब के घर में एडजस्ट कैसे करेगी?"
"बड़े ही प्यार से...जतन से रखूँगा…सब नखरे सह-सह लूंगा|रूठ गयी तो ...प्यार से...मान मनौवल से मना लूंगा"
अब किसी और को बसाने की इस दिल ए नादाँ में चाहत ना रही|बचपन से ही दिल में यही इकलौती इच्छा समाई हुई थी कि...एक ना एक दिन उसे लाना ज़रूर है| जब जवान हुआ और थोड़ा-बहुत कमाना भी शुरू कर दिया तो कईओं ने घर आ-आ के खुद ही कहना शुरू कर दिया कि….
“आप हमारी वाली ले जाएँ"
"मैँ मन ही मन सोचता कि…
“इनकी जूठन?...और..वो मैँ सम्भालूँ?"
"हुंह!…ऐसी होने से तो न होना ही अच्छा है”…
लेकिन कम कमाई होने की वजह से सिवाय चुप लगा के रहने के मेरे पास कोई चारा नहीं होता था|अफसोस भी तो इसी बात का था कि कोई फ्रैश पीस स्साली आ के ही राज़ी नहीं था मेरे पास| जो भी मिलती ...जैसी भी मिलती …कोई ना कोई कमी साथ लिए ज़रूर होती|किसी का फिगर बेकार तो किसी के रंग रूप में दम वाली बात नज़र नहीं आती|कोई सूरत-शक्ल से बेकार तो कोई नैन-नक्श से कंडम| कोई ज़रूरत से ज़्यादा तगड़ी कि लाख संभाले ना संभले तो किसी का कमज़ोरी में कोई सानी नहीं|कोई मेकअप से लिपी-पुती...
तो कोई बिना मेकअप के अपना कांति विहीन दीन चेहरा लिए नज़र आती|
अपुन ने तो अपने सभी यार-दोस्तों से साफ-साफ कह दिया था कि..
"लाएँगे तो एक्दम सॉलिड पीस ही लाएँगे वर्ना खाली हाथ बैठे रहेंगे|अब…ये बेकार की '*&ं%$#@'पीस अपने बस की बात नहीं”
सुन जो रखा था बड़े-बुजुर्गों से कि…सब्र का फल मीठा होता है...तो सोचा कि क्यों ना सब्र करके भी देख लिया जाए?
डायबिटीज़ हुई तो क्या हुआ?...थोड़ा-बहुत मीठा तो झेल ही लूँगा| और फिर इसमें आखिर हर्ज़ ही क्या है? क्या मालुम आने वाला कल सुनहरा ही हो?
"हम होंगे कामयाब एक दिन...हो..हो...मन में है विश्वास...पूरा है विश्वास"
"खैर!...हम सब्र पे सब्र करते रहे और वो ऊपर बैठा-बैठा हमारे सब्र का इम्तिहान लेता रहा|पहले तो ये बहाना था जनाब के पास कि मुंडा कमाता नहीं है|
“अरे!…अब तो ठीकठाक कमाने भी लगा हूँ...अब क्या एतराज़ है आपको?"
अब वैसे कहने को तो कई ठीक-ठाक काम चलाऊ अपने रस्ते में आती रही...टकराती रही लेकिन इस चक्कर में कि सिर्फ और सिर्फ सालिड मॉल पे ही हाथ डालना है….मैँ बेवाकूफ!..सबको एक लाइन से रिजैक्ट पे रिजैक्ट करता चला गया|यही सोच थी मेरी कि ऊपरवाला रहमदिल है...उसके घर देर है पर अन्धेर नहीं है|कोई ना कोई तो उसने मेरे लिए भी ज़रूर बनाई होगी|सुन जो रखा था कि…
“जोड़ियाँ ऊपर..स्वर्ग में ही तय हो जाया करती हैं”
तो चलो!...देख ही लेते हैँ कि कब जागती है अपनी रूठी हुई किस्मत? बस!…इसी चक्कर में उम्र बढती रही..बढती रही|अब तो पड़ोसियों तक ने भी टोकना शुरू कर दिया था कि...
“अब मज़े नहीं लेगा तो क्या बुढापे में लेगा?…बाद में तेरे किसी काम ना आएगी...दूसरे ही मौज उड़ायेंगे|जब कब्र में पैर लटके होंगे तो ला के क्या धूप-बत्ती करेगा?”
“अगर ढंग की एक नहीं मिलती है तो कामचलाऊ दो ही ले आओ"एक मज़ाक उड़ाता हुआ बोला
"आजकल बडी सस्ती मिल रही हैँ नेपाल में और आसाम में"
मुझे गुस्सा आ गया...बोला…."नेपाल और आसाम का लोकल माल आप ही को मुबारक हो शर्मा जी|अपुन को तो चाहिए..एकदम स्टाईलिश वाला"
“तेरे बस का नहीं है ये सब"उधर से उखड़ा-उखड़ा सा जवाब मिला
"शर्मा जी!...आपसे अपनी तो संभलती नहीं ठीक से और चले हैँ लैक्चर देने दूसरों को...पहले अपना घर तो ठीक करो जा के”मैं भी कौन सा कम था…छूटते ही जवाब दिया
"चिनॉय सेठ!...जिनके घर शीशे के होते हैँ वो दूसरों के घरों पे पत्थर नहीं फैंका करते"
"कुछ इल्म भी है आपको कि कभी कोई तो…कभी कोई आपकी वाली के साथ मौज उडा रहा होता है?…कभी चाँदनी चौक तो कभी चॉयना? और आप हैं कि आपको कोई फिक्र ही नहीं…कोई चिंता ही नहीं…वाह साहब!..वाह"
"एक-आध को तो मैँने 'बाराटूटी' में भी गुल्छर्रे उडाते देखा था आपकी वाली के साथ…सच...इन्हीं आँखो से|आप बुज़ुर्ग हैँ...आपकी इज़्ज़त कर रहा हूँ वर्ना आपकी जगह कोई और इतनी चूं-चपड़ करता तो अभी के अभी मुँह तोड़ के दांत हाथ में दे देता"…
“अरे!…तो फिर पहले बताना था ना….मेरी ये…बायीं दाढ़ पिछले दो महीने से बड़ी तंग कर रहा था…आज ही उखड़वा के आया हूँ ससुरी को ..
“हुंह!…खामख्वाह में पैसे बर्बाद कर दिए…एक मुक्का ही तो लगता….थोड़ा दर्द ही तो होता”…
"हाँ-हाँ!…मैं तो जैसे आपको घसियारा नज़र आता हूँ ना जो मुफ्त में ही दांत तोड़ देता?”…
“अरे!…अपनों से भी भला कोई पैसे लेता है?”…
“सही है…देवर को नहीं देनी भले ही जंग लगे खूंटे से …..
शर्मा जी की नीयत देख मूड खराब हो चला था मेरा…एक तो पैसे नहीं…ऊपर से लग रहा था कि बिना उस…अपनी दिलरुबा के ही पूरी ज़िन्दगी काटनी पडेगी|
"ये सब ख्यालात दिल में उमड़-घुमड़ ही रहे थे कि अखबार में छपे एक इश्तेहार ने सारा मूड एकदम से फ्रैश कर दिया|बार-बार उसी…एक ही सफे को मैं पढे जा रहा था जिसमें मेरी जॉनेमन का जिक्र था| अपनी चमचम कर चमकती किस्मत पे जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था मुझे|बार-बार खुद को यहाँ-वहाँ चिकोटी काटता कि... "या अल्लाह!...क्या ये सच है?"
अब दिल का भंवर झूम-झूम गाने लगा..
"जिसका मुझे था इंतज़ार...वो घडी आ गयी...आ गयी"...
"जिसके लिए था दिल बेकरार...वो घडी आ गयी..आ गयी"
अब रुका किस कम्भख्त से गया? सीधा दिया हुआ फोन नम्बर मिलाया और सारी बातचीत करने के बाद तुरंत ही बताए गए पते पे जा पहुँचा|वो…तैयार खडी मानों मेरी ही राह तक रही थी|
“उफ्फ!…इस प्यार को क्या नाम दूँ?…दबे हुए जज़बातों को क्या अल्फाज़ दूँ?"
शायद!...पहली नज़र का पहला वाला प्यार यही था…लव ऐट फर्स्ट साईट|जब अपने बारे में सब कुछ तफ्तीश से बताया उन्हें कि...
तनख्वाह के अलावा कितना कमाता हूँ ऊपर से और...क्या क्या शौक हैँ मेरे वगैरा वगैरा|तो कहीं जा के उन्हें तसल्ली हुई कि यही बन्दा ठीक रहेगा|हर किसी राह चलते ऐरे-गैरे नत्थू खैरे के हाथ कैसे थमा देते? पहले भी तो देख चुके थे किसी अनाड़ी के हाथ में उसका हाथ दे के|
क्या हुआ?…
“दो दिन भी ठीक से सम्भाला नहीं गया और उल्टे पाँव लौटा दी…बैरंग?"
अब तसल्ली हो चुकी थी दिल को कि अब किसी को फाल्तू बोलने का मौका नहीं मिलेगा|यार-दोस्त...पड़ोसी-रिश्तेदार...सबके मुँह बन्द हो जाएँगे खुद बा खुद|बड़े कहते फिरते थे कि...
“राजीव के बस का कुछ नहीं..ऐसे ही वेल्ले हाँकता फिरता है" ..
ये!..बड़ा सा...मोटा सा…किंग साईज का ताला लग जाएगा उनकी लपलपाती ज़बान को|अब अपने मुँह से क्या तारीफ करूँ कि...
वो दिखने में कैसी है? रंग-रूप कैसा है उसका?..स्टाईल कैसा है उसका?…फिगर कैसी है उसकी? वगैरा...वगैरा...
उफ!...कैसे तारीफ करूँ उसकी? रंग-रूप तो ऐसा कि एक बारगी तो चाँद भी शर्मा उठे| कोमल इतनी कि छू लेने भर से दाग लग जाए|बस…यूँ समझ लो कि एक दम मक्खन के माफिक चिकनी| चाल ऐसी मतवाली कि धन्नो को फेल कर दे|जब सड़क पे वो सज-धज के निकले तो सब की सब निगाहेँ थम जाएँ| कसा हुआ भरपूर बदन ऐसा कि बडे-बडे विश्वामित्र ललचा उठें…आँखे चौँधिया जाएँ उनकी…बोलती बन्द हो उठे|
"तारीफ करूँ क्या उसकी...जिसने तुम्हें बनाया...
ये चाँद सा रौशन चेहरा…ज़ुल्फों का रंग सुनहरा"...
ऊप्स!..ये ज़ुल्फें कहाँ से आ गई बीच में?..हैँ ही कहाँ उसके ज़ुल्फें? ..मुझे तो कहीं दिखाई ही नहीं दी|
अब वो ऐसी है...या फिर वो वैसी है...मेरे कहने से तो आप मानने से रहे|तो आप खुद ही ज़हमत उठाते हुए उसकी एक झलक देख क्यों नहीं लेते?आप भी अगर फिदा न हो उठें तो मेरा नाम भी तनेजा… ‘राजीव तनेजा' नहीं"...
जय हिंद
***राजीव तनेजा***
6 comments:
राजीव तूने अच्छा नही किया ये तस्वीर लगा कर. मुझे गंगा नदी मे नहाती एक बाला के घने केश और गोरी पीठ याद आ गई जिसे पण्डे देर तक निहारा किए और वह पलटी तो सामने सरदार था. यहाँ तुम्हारी कार है. पता नही तुम्हारी ही है या किसी और की है
कार देख कर भारत सर कार याद आ गई
बसंत आर्य जी वो तो हमारी आपकी इनकी उनकी सबकी है
है कोई शक ?
hahahahha.........yahii lag raha tha ki koi car hi hogi.
हा हा हा राजीव भाई
मामला जोरदार है।
कार ही कार है-जो चाहे नाम दे दो
yaar pata to tha ki baat kahee aur jaa ke pahuchegee
phir car kee photo dekhee to maazra samajh aa gaya
कमाल है.... आप तो वाकई में बांध कर रखने की कला जानते हैं.... ग़ज़ब की .......शानदार पोस्ट.....
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