"इंकलाब ज़िन्दाबाद"
***राजीव तनेजा***
"क्या मुझे जीने का कोई हक नहीं?"..
"क्या मेरे भी कुछ अरमाँ नहीं हो सकते?"...
"क्या हर वक्त...
हर घडी मेरे अरमानों का यूँ ही गला घोटा जाता रहेगा?"...
"क्या सिवाय चुपचाप टुकुर-टुकुर ताकने के कुछ भी नहीं कर पाऊँगा मैँ?"...
"क्या मेरे अरमानों कि चिता यूँ ही खुलेआम जलती रहेगी?"...
"क्या मेरी तमाम हसरतें यूँ ही ज़िन्दा दफ्न होती रहेंगी हमेशा?"...
"क्या मेरा साथ देने वाला कोई नहीं होगा इस पूरे जहाँ में?"..
"क्या मुझे कभी खुशी नसीब होगी?"...
"होगी भी या नहीं?"...
"क्या मुझे हर घडी यूँ ही घुट-घुट के जीना पडेगा"..
"क्या सपने देखना गुनाह है?"...
"पाप है!..?"
"हाँ!..अगर ये गुनाह है..पाप है ...तो...
ये गुनाह...
ये पाप मैँ हर रोज़ करूँगा"..
"बार-बार करूँगा"
"रोक सको तो रोक लो"
"जी में तो आता है कि...
कहीं से '56' या '47'मिल जाए घडी दो घडी के लिए और..
आव देखूँ ना ताव...सीधे-सीधे दाग दूँ पूरी की पूरी '6' की'6'"
"आखिर बरदाश्त की भी एक हद होती है"...
"बच्चे की भी एक ज़िद होती है"
"दोस्तो!...आज मेरा जो हाल हो रहा है"...
"जो मुझ बदनसीब पर बीत रही है"
"भगवान ना करें कि ऐसा मेरे किसी दुशमन के साथ भी कभी हो"
"मगर!...असलियत में सच तो ये है कि यही सब आपके साथ भी होने वाला है"
"चाहे आज हो...या फिर कल...या फिर किसी और दिन"
"इसलिए वक्त के तकाज़े और मौके की नज़ाकत को समझते हुए...
आओ!..हम एक हो जाएँ और...
इस ज़ुल्म और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाएँ"
"याद रहे!..
"बन्द है मुट्ठी तो...लाख की...
खुल गयी तो फिर...खाक की"
"इकलाब ज़िन्दाबाद"
"ज़िन्दाबाद...ज़िन्दाबाद"
"कह दें आज हम उनसे कि हम एक थे ...
एक हैं और एक रहेंगे"
"जो हमसे टकराएगा...चूर-चूर हो जाएगा"
"बहुत सह लिए हमने ज़ुल्म ओ सितम"
"अब उनकी बारी है"
"आने वाला कल हमारा है"...
"हमारा है...हमारा है"
"हमारे सब्र का इम्तिहाँ अब और ना लो...फूस को चिँगारी अब और न दो"
"आखिर!..क्या नाजायज़ माँगा था मैँने उस से ?"
"क्या घिस जाता उसका?"
"कौन सा मैँ उस से ..घर बसाने की बात कर रहा था जो इतना भडक खडी हुई?"
"सिर्फ दोस्ती का हाथ ही तो माँगा था बस...
"और क्यों ना माँगता भला?...
"आखिर!..पहल भी तो उसी ने की थी"
"पहली 'मेल' भी तो उसी की तरफ से ही आई थी..."
"मेरी तरफ से नहीं"
"मैँने तो बस!..रिप्लाई भर ही किया था"
"सलामे इश्क मेरी जाँ...ज़रा कबूल कर लो...
तुम हमसे प्यार करने की ज़रा सी भूल कर लो"
"कर्म फूटे थे मेरे जो...
वो जो जो पूछती चली गयी...
मैँ साला!...राजा हरीश चन्द्र की औलाद ...
सब का सब सच सच बताता चला गया"
"इस साले!..सच्चाई के कीडे ने मुझे कहीं का ना छोडा"
"अगर पता होता कि वो ऐसे पागल घोडी की तरह बिदकेगी तो....
मैँ क्या मेरे बाप की तौबा जो कभी भूले से सच का नाम भी ज़बान पे लाता"
"अब किसे क्या दोष दूँ ए राजीव?...जब चिडिया चुग गयी खेत"
"मति तो मेरी ही मारी गयी थी ना?"
"इस साले!..सच बोलने के भूतिए पिशाच ने मुझे कहीं का नहीं छोडा"
"क्या ज़रूरत पड गयी थी उस बावली को इतना फुदकने की?कि..
मुझ मासूम से भी तो सच बोले बिना रहा कहाँ गया कि...
"मैँ शादीशुदा हूँ और मेरे तीन 'न्याणे' भी हैँ"
"मैँने तो यही सोचा था कि एक तजुर्बेकार दोस्त पा कर वो फूली नहीं समाएगी और .. .
बैठे-बिठाए अपनी मौज हो जाएगी"
"सच है!..बिन माँगे मोती भी मिल जाए तो उसकी वो कद्र नहीं होगी जो होनी चाहिए"
"बैठे बिठाए बावली को अच्छा-भला गुरू मिल रहा था और वो मुझे गुरू घंटाल समझ बिना मेरी घंटी खडकाए चली गयी"
हुण तुस्सी आप ही दस्सो कि...
"की शादी करणा गुनाह हैगा?"
"पॉप हैगा?"
"अफैंस हैगा?"
"अगर है वी ते एदे विच्च मेरा की कसूर?"
"जा के फडो मेरे माँ-प्यो नूँ कि तुस्सी ऐ ज़ुल्म राजीव नॉल क्यों कीत्ता?"
"चंगे भले न्याणे नूँ ज्वाकाँ आला बना के छड्ड दित्ता"
"आय हाय!.हुणॅ ऍ पँजाबी कित्थों वड गयी आ के विच्च सिर्.रर सड्डान नूँ?"
"छ्ड्डो जी पँजाबी नूँ अते.. फडिए अपणी हिन्दी ज़बान नूँ"
"पूछो!..मेरे माँ बाप से कि क्या जल्दी पड गयी थी उन्हेँ मुझे इस दुनिया में लाने की?"
"अब लाए तो लाए"...
"कोई बात नहीं...लेकिन...
फिर क्या जल्दी पड गयी थी मुझे इतना जल्दी ब्याहने की?"
कौन सा टैक्स लगा जा रहा था कि. ..
"बेटा!..जल्दी से शादी कर ले"...
"सुना है!...'एण्टरटॆनमैंट' टैक्स बढने ही वाला है"
"अब बढ रहा था तो बढने देते"...
"कौन सा अपुन ने कभी टैक्स भरा है जो अब भर देते?"
"कभी शेर को गीदड का पानी भरते देखा है ?"
"नहीं ना?"
"फिर?"
"और वैसे भी अभी कौन सा मैँ बुड्ढा हो मरे जा रहा था इस जस्ट चालीस की उम्र में ?जो...
आव देखा ना ताव और बाँध दी अपुन के गले में घंटी कि...
"ले बेटा!..अब तू ही बजा इस घडियाल को"
"हाँ!..घंटी कहाँ?...घडियाल ही तो थमा दिया था उन्होंने मेरे हाथ में कि...
"ले बेटा!...मोटा दहेज अंटी में आ रहा है ...थाम ले बिना किसी लाग लपेट के"
"अब थोडा-बहुत तो काँप्रोमाईज़ करना ही पडता है लाईफ में"
"सो!...मुझे भी करना पडा माँ-बाप की खातिर"
"आज्ञाकारी जो ठहरा"
"अब खुद तो उन्होंने गुज़ार दी अपनी पूरी ज़िन्दगी एक ही...इकलौते खूँटे से बन्धे-बन्धे..
वैसे सच कहूँ तो ये अपुन का अन्दाज़ा भर ही है कि...खूँटा एक ही था"
"अब अपने दही को खट्टा कैसे कहूँ?"
"हलवाई बिरादरी का ना हुआ तो क्या हुआ ..
इतनी समझ तो रखता ही हूँ पल्ले कि क्या सही है और क्या गल्त"
"अब वैसे भी मुझे क्या मतलब कि खूँटा एक ही था या फिर बहुत सारी खूँटियाँ?....
"अपुन को तो तीनों टाईम रोटियाँ पकी-पकाई मिल ही जाया करती थी"
"कभी पिताजी बाहर से ले आते थे तो कभी माँ जी"
"लेकिन अपने चक्कर में मेरी तो सोची नहीं गई उनसे और ऐसी तैसी कर डाली मेरी"...
"वजह पूछो तो जवाब मिलता कि अभी नहीं करोगे तो फिर कोई मिलनी भी नहीं है बुढापे में"
"अब उन्हें कौन समझाए ए राजीव कि मर्द और घोडा कभी बुड्ढा हुआ है भला?...जो मैँ हो जाता"
"इतना तो देख ही सकते थे वो कि...
अभी तो ये पट्ठा एकदम से पूरा का पूरा...
सोलह आने....सौ फीसदी...
लँबा चौडा मर्द तंदुरस्त जवाँ मर्द है"
"अगर अपनी औलाद पे विश्वास नहीं था तो कम से कम बाजू वाली पडोसन से ही तो पूछ लेते"...
"खूब छनती जो है उस से "
"उसने भी यही जवाब देना था कि अब मैँ अपने मुँह से कैसे कहूँ?...
पडोस वाली शर्मा ऑटी से ही पूछ लो"
"अब यार!..आप तो समझदार हैँ...
ऐसे भरे-पूरे जवाँ मर्द की कोई ऐरी-गैरी...नथ्थू खैरी यूँ ही मिनट भर में...
मिट्टी पलीद कर दे तो गुस्सा नहीं आएगा क्या?"
"इसमें गल्त ही क्या है?"
"आप ही बताओ...
बताओ...बताओ"
"ज़्यादा हँसो मत"...
"नकली बत्तीसी है"...
"टपक पडेगी"
"ये सच्चे आशिक की ऑह है"...
"लगे बिना नहीं मानेगी"
"क्या हुआ जो हमारा सडक छाप आशिक हुए?"...
"आशिक तो आशिक होता है"
"अमीरे-गरीब...
छोटा-बडा..
हिन्दू-मुस्लिम...
सिख-इसाई...
काला-गोरा...
उसके लिये ये सब कुछ मायने नहीं रखता"
"तो आओ आशिको!...आओ"..
"आज हम साबित कर दें इन बद-दिमाग लडकियों को कि....
"हम एक हैँ...एक थे...और एक रहेंगे"
"हाँ!...हम में है दम"
"इंसाफ की डगर पे ...लडको दिखाओ चल के...
ये लडकियाँ हैँ तुम्हारी...आशिक तुम्हीं हो कल के"
"इन लडकियोँ की तानाशाही...
नहीं चलेगी...नहीं चलेगी"
"हम से जो टकराएगा...चूर-चूर हो जाएगा"
"हम किसी से कम नहीं"..
"देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है"
"तो आओ!..मिलकर आज हम ये अहद करेँ...
"अपनी आवाज़ बुलन्द करें"...
"उठाओ झण्डा और... हो जाओ शुरू...
"इंकलाब ज़िन्दाबाद"...
"ज़िन्दाबाद...ज़िन्दाबाद"
"जय हिन्द"....
"तालियाँ"
***राजीव तनेजा***
3 comments:
वाह क्या बात है !!!!
भाई राजीव जी,
मेरी तरफ से भी इंकलाब-जिंदाबाद.लगे रहो,मुन्ना भाई.
सच्चे आशिक
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