"बीती ताहीं बिसार के"
***राजीव तनेजा***
बीती ताहीं बिसार के....
आगे सोचने को जी चाहता है....
बहुत गल्तियाँ कर ली...
अब सुधरने को जी चाहता है
चौरासी,बाबरी और गोधरा पर शर्मिंदा हैँ
क्या कहें अब बस रोने को जी चाहता है
लड़ लड़ कर देख लिया बहुत बार
अब शिक्वे भूल गले लगाने को जी चाहता है
उड लिए पंख फैला ऊँची उड़ान
अब नीचे उतरने को जी चाहता है
पूरी हुई हसरतें बहुतेरी
अब बस वैराग्य को जी चाहता है
जी लिए बहुत उल्टा सीधा कर के
अब बस सुकून से मरने को जी चाहता है
चल के देख लिया पुराने ढर्रे पे कई मर्तबा
अब नई राहें नई मंज़िलें तलाशने को जी चाहता है
मरते रहे औरों के लिए हर हमेशा
अब कुछ पल अपने लिए जीने को जी चाहता है
सुनते रहे तमाम उम्र इसकी उसकी सबकी
अब बस अपनी करने को जी चाहता है
महफिलें उम्दा जमाते रहे उम्र भर
अब मायूस हो चुपचाप बैठने को जी चाहता है
बीते बरस लिखने को बहुत छूट गया....
अब नए विष्य नए शब्द तलाशने को जी चाहता है
सच!...बीती ताहीं बिसार के....
आगे सोचने को जी चाहता है....
बहुत गल्तियाँ कर ली...
अब सुधरने को जी चाहता है
***राजीव तनेजा***
2 comments:
मरते रहे औरों के लिए हर हमेशा
अब कुछ पल अपने लिए जीने को जी चाहता है
सुनते रहे तमाम उम्र इसकी उसकी सबकी
अब बस अपनी करने को जी चाहता है
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बहुत हृदय स्पर्शी पंक्तियाँ
दीपक भारतदीप
बहुत अच्छे
अब छोटा
अच्छा लिख
रहे हो.
डटे रहो डियर.
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