"यस!.. वी आर दा बैस्ट कॅपल"

"यस!.. वी आर दा बैस्ट कॅपल"

***राजीव तनेजा***



"कुछ याद भी रहता है इसे?....आज का दिन तो कम से कम बक्श देना था...लेकिन नहीं...

"बरसों से पाल-पोस कर परिपक्व की हुई ब उरी आदत भला एक दिन के लिए क्यों त्यागी जाए?"....

"यही सोचा होगा शायद"...

"कम्भख्त मारी को कम से कम इस दिन का तो ख्याल रखना चाहिए था"

"ये क्या कि बाकि दिनों की तरह इस दिन भी खुशी को ठेंगा दिखा चलता कर दिया जाए?"


"ओफ्फो!...इस अशांति भरे महौल में कोई कुछ लिखे भी तो कैसे?"मैँ कीबोर्ड पर उँगलियाँ चटखाता हुआ गुस्से से चिल्लाया

"मेरी आवाज़ दिवारों से टकरा वापिस मेरी तरफ ही लौट आई"

"देखा तो!...मुझे सुनने वाला कोई आस-पास नहीं था"


"बीवी लड़-झगड़ कर कब कमरे से बाहर निकल गई पता भी ना चला"....

"हे ऊपरवाले!...कुछ तो मेहर कर....पता लगा उस कंबख्तमारी का कि कहाँ सिर सड़ा रही है?"...

"यहाँ मैँ बावलों की तरह अकेला भौंक-भौंक के दिवारों पे अपनी भड़ास निकाले जा रहा हूँ"

"क्या फायदा यूँ फोकट में गला फाड़ चिल्लाने से?"मैँ डायरैक्ट ऊपरवाले से बात करता हुआ बोला


"अरे!...जाएगी कहाँ?....जाने वाली शक्लें कुछ और हुआ करती हैँ"मैँ खुद को तसल्ली दे रहा था


"हाँ!...कहीं नहीं जाने वाली वो"....

"यहीं कहीं आसपास ही होगी"...

"मज़ाक कर रही होगी मेरे साथ"...


"उस दिन भी तो पूरे दो घंटे तक नचाती रही थी मुझे"...

"कभी इधर...तो कभी उधर"

"मैँ बावला भी तो नाहक परेशान हो उसे पूरे मोहल्ले में धूँढता फिरा था"

"कहाँ-कहाँ नहीं फोन नहीं खड़का मारा था मैँने उसको तलाशने की खातिर?"


"और लो!... मिली भी तो कहाँ?"

"अपने ही गैस्टरूम में"...

"वहीं छुपी बैठी थी"....

"नॉटी कहीं की"...


"अपने आप लौट आएगी....रोज़ का ही तो ड्रामा है ये उसका"मैँ अपने आप से ही बात किए चला जा रहा था ...


"लेकिन शायद!...अन्दर ही अन्दर कुछ चिंतित सा भी था मैँ...


"तीन घंटे से ज़्यादा जो हो चुके थे उसे निकले हुए"....

"पहले तो हमेशा पंद्रह-बीस मिनट में ही इधर-उधर मटरगश्ती कर के वापिस लौट आया करती थी"...

"आज पता नहीं क्या हुआ है इसे...जो अभी तक नहीं लौटी?"मेरे चेहरे पे चिंता भरा भाव था


"शायद!..कुछ ज़्यादा ही डांट दिया था मैँने"...

"अब!...डांट दिया तो डांट दिया..."

"आखिर पति हूँ उसका...इतना हक तो बनता ही है मेरा"...


"क्यों!...है कि नहीं?"


"हुँह!...नहीं आती तो ना आए...मेरी बला से "...

"छत्तीस ढूँढ लाउंगा"...

"लेकिन स्साली!...ढंग से जाती भी तो नहीं है"...

"ये क्या कि धमकी तो दे दी फुल्ल-फुल कि...

"अबकी बार लौट के ना आऊँगी"


"अभी ठीक से पूरा स्माईल भी चेहरे पे फिट नहीं हो पाता था कि वापिस आ धमकती थी कि...

"हाँ-हाँ! ...तुम तो चाहते ही हो कि मैँ चली आऊँ और तुम ले आओ उसी प्रोमिला को"


"कान खोल के सुन लो!...इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ने वाली"...

"कहीं धोखे में बैठे ना रहना"...

"किसी को भी ला के बैठा दो चौके में...मुझे कोई परवाह नहीं लेकिन. ...

पहले पूरे पंद्रह हज़ार रुपए हर महीने के हिसाब से तैयार रखना मेरे लिए"

और हाँ!...ये ध्यान है कि नहीं कि ये 'वैगन ऑर' मेरे नाम पे ही रजिस्टर्ड है"साक्षात ताड़का क आ ही कलयुगी अवतार नज़र आती थे मुझे


"हुँह!...ऐसा भी क्या डरना?"...

"जो होगा देखा जाएगा"...

अगर उसे घर-गृहस्ती परवाह नहीं है तो मुझे भी नहीं है"...

"मैँ नाहक अकेला क्यों परेशान होता फिरूँ?"


"राज़ी-राज़ी आती है तो आए ...नहीं तो भाड़ में जाए मेरी बला से"


"बच्चे ही पालने हैँ ना?"....

"पाल लूंगा औखे-सौखे"

"वैसे भी सब बच्चों को कहाँ मिलता है माँ का प्यार?"

"ज़्यादा हुआ तो थोड़ा बहुत ध्यान मैँ भी रख ही लूँगा कुछ ना कुछ कर के"

"कोई माँ के पेट से नहीं सीख के आता ये सब"...

"वक्त और ज़रूरत सब सिखा देती है"


"ये भी नहीं हुआ बावली से कि...कम से कम छोटे को अपने साथ लेती जाती"...

"पता भी है कि रात को दो-दो दफा सू-सू करता है बिस्तर पे"...

"अब कहाँ मैँ रात को उठ-उठ के उसके लंगोट बदलता फिरूँ?"

"और कोई काम है कि नहीं मुझको?"...

"ले जाती साथ में तो मेरी थोड़ी परेशानी ही कम हो जाती"...

"उसका क्या बिगड़ जाता?"...


"लेकिन नहीं!..कैसे गवारा होता उसे मेरा सुख?"

"अगर उसे इतना ही ध्यान होता तो आज ये लफड़ा ही नहीं होना था"...

"पता भी है कि सुबह-सुबह पानीपत जाना होता है बन्दे ने"...


"अब बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करता फिरूं या खुद तैयार हौऊँ?"



"ओफ्फो!...मैडम जी को भी अभी ही उड़नछू होना था"


"अरे!...अगर ऐसा ही करना था तो पहले करना था ना जब...मेरे आसपास छत्तीस क्या चौआलिस मंडराया करती थी"...

"लेकिन नहीं!...तब तो गली मोहल्ले में कैज़ुअली घूमते फिरते वक्त भी...

अपना हाथ मेरी कमर में ऐसे डाल के चलती थी कि सब जान लें कि...

"खबरदार!...जो इधर एक इंच भी नज़र भी दौड़ाई तो"...

"खुला सांड नहीं है मेरा पति जो यूँ आँखे फाड़-फाड़ देखे चली जा रही हो"

"कभी हैंडसम लड़के नहीं देखे हैँ क्या?"बीवी गर्व से तने चेहरे के साथ बोलती थी

"हाँ!...इस झोट्टे की मालकिन मैँ हूँ"....

"मेरे ही खूंटे से बन्धा है"बीवी मंगलसूत्र हाथ से नचाती हुई बोलती थी


"हुँह!...अच्छी भली भी आती-आती बिदक जाती थी कि चलो यहाँ से!..ये मैडम दाल नहीं गलने देगी"


"अब!...अब जबकि पता है कि कोई नहीं पटने वाली इस उम्र में इनसे...तो!...तो रुआब दिखाती है स्साली...."


"पता भी है कि बिना प्रापर खाने का मज़ा नहीं आता है बन्दे को लेकिन नहीं...

कोई ना कोई कसर तो बाकि रखनी ही है ना"....


"कभी सलाद गायब तो कभी पापड़-अचार खत्म"...

"ये भी नहीं होता कि कम से कम रायता ही डाल ले हफ्ते में एक आध बार"

"करना क्या होता है?...बस रैडेमेड बूंदी का पकैट खोला और टपका डाली दही में थोड़ा सा"...

"हो गया रायता तैयार"....

"सिम्पल!..."


"चलो माना...कि खत्म हो गया होगा सामान लेकिन ....

अगर खत्म हो गया था तो बाज़ार से ला नहीं सकती थी क्या?"


"सुबह से ही तो बिना बात लड़े चली जा रही थी"

"पता नहीं क्या मज़ा मिलता है इन औरतों को हम मर्दों से बहस करने में?"

"ये नहीं कि...मर्द ज़ात हैँ हम....जो हुकुम कर दिया...सो कर दिया"


"चुपचाप मान लें"...

"खुद भी चैन से जिएं और हमें भी चैन से रहने दें"

"लेकिन नहीं!...हमारी तो जैसे कोई औकात ही नहीं है ना"...


"कभी कोई बात हमारी माननी ही नहीं है"....

"ये क्या बात हुई कि कभी शलगम में मटर नहीं होंते तो कभी बे-इंतहा डले नज़र आते हैँ"...

"अरे!...कुछ भी बनाना है तो सलीके से बनाओ...तमीज़ से बनाओ"...

"ये क्या कि बस जैसे फॉरमैलिटी भर ही पूरी करनी हो"...


"कई बार तो कह चुका हूँ कि तड़का ज़रा ढंग से लगा दिया करो लेकिन कोई हमारी सुने तब ना"...


"कितनी बार कह-कह के थक लिया कि चायनीज़ कुकरी क्लासेज़ जायन कर लो...लेकिन नहीं ...

टाईम नहीं है ना मैडम के पास"...


"लेकिन कोई ये बताएगा कि....

डांस क्लासेज़ और अंग्रेज़ी में गिटर-पिटर सीखने के लिए टाईम ही टाईम कैसे निकल जाता है मैडम जी के पास?"


"स्साले!..अँग्रेज़ चले गए अपनी गिटर-पिटर यहीं छोड़ के"मैँ अब हिन्दी प्रेमी होने के नाते अँग्रेज़ी की माँ-बहन एक करने लगा था


"अब!..अपने को अँग्रेज़ी नहीं आती तो नहीं आती"....

"क्या करें?"

"जिस से जो बनता हो...उखाड़ना हो उखाड़ ले"


"खाने की शिकायत करो तो टका सा जवाब मिलता है कि"फाल्तू ना बोलो!....जो पकवाना होता है लाकर दे दिया करो"...

"यहाँ साला!. कुछ भूले भटके खरीद के भी ले आओ तो शिकायत ये कि..."ये क्या कबाड़ उठा लाए?"

"दिखाई नहीं देता कि अमरूद कच्चे हैँ"...


"अब!..कच्चे हैँ तो कच्चे हैँ....मैँ क्या करूँ?"

"भट्ठी में भून के पका लो"


"पता भी है कि कल वैलैंटाईन है लेकिन नहीं!...लड-लड़ के अपने साथ-साथ मेरी भी ऐसी की तैसी करनी है ना"...

"इसलिए दो दिन पहले से ही तैयारी शुरू कर दी कि कहीं ऐन मौके पे बन्दे का चेहरा खुशी के मारे खिल ना उठे"


"उफ!...पता नहीं कहाँ उड्ड गई ये कम्भख्त मारी?"

"कब से चाय की तलब लगी पडी है लेकिन इसे चिंता हो तब ना"

"पता भी है कि किसी और के हाथ की चाय पसन्द नहीं आएगी"...

"काम वाली बाई के हाथ की तो बिलकुल नहीं"...


"हम्म!...शायद इसीलिए भाव ज़्यादा खाने लगी है आजकल"मैँ कुछ सोचता हुआ बोला


"यहाँ आज दिल उदास पे उदास हुए चला जा रहा है और इसे कोई फिक्र ना फाका"....


"ऐसे अकेले जीने से तो अच्छा है कि खुदकुशी ही कर लूँ"

"हाँ!...यही ठीक भी रहेगा"...

"मन कर रहा है कि अभी के अभी अपने आप को खतम कर लूँ "...


"आज जो हुआ...जैसा हुआ पता नहीं उस सब में किसका दोष था और किसका नहीं"


"लेकिन इतना जानता हूँ कि नहीं होना चाहिए था ऐसा "

"ये!...ये क्या होता जा रहा है मुझे?"...

"अन्दर ही अन्दर मैँ आहत हो टूट के बिखरने लगा हूँ।"


"कहने को तो हमने प्रेम विवाह किया था लेकिन रोज़ाना की आपाधापी में प्रेम कब का उड़नछू हो हमारी

ज़िन्दगी से जा चुका है"मैँ सोच में डूबा जा रहा था


"ये जीना भी कोई जीना है?"...

"वही रोज़ की बहस"...

"वही रोज़ना का लड़ना-झगड़ना"...

"वही बेकार की बेतुकी चिकचिक"...


"मुझे हमेशा यही शिकायत रही कि जिस से मैँने प्रेम विवाह किया ...वो ये नहीं...कोई और है"


"पहले जैसी कोई बात ही जो नहीं रही उसमें"

"वो मोहिनी मुस्कुराहट....

"वो उसका चहकना...वो शोखी...वो चंचल अदाएं"मेरे दिमाग में उसकी पुरानी यादें ताज़ा हो चली थी...


"लेकिन अफसोस!...वैसा कुछ भी तो नहीं बचा अब उसमें"


"और लो!...ऊपर से उसे लगता है कि मैँ बदल गया हूँ"...

"हुँह!...उल्टा चोर कोतवाल को डांटे"...

"शिकायत सुनो इनकी कि...मैँ बात बात पे डांटने लगा हूँ"...

"गुस्सा मेरी नाक पर हमेशा चढा रहता है वगैरा..वगैरा"...


"अब गुस्सा ना चढा रहे तो और क्या करे....?"

" हर तरफ टैंशन ही टैंशन"....

"कोई भी दिन तो ऐसा नहीं गुज़रता जिस दिन मैँ सुकून से बैठ सकूँ"...

"कभी बिजली के बिल तो कभी टेलीफोन के बिल"...

"कभी बच्चों की फीस तो कभी कम्प्यूटर खराब"...

"ऊपर से ये ब्लॉग लिखने का चस्का"

"टाईम ही कहाँ होता है मेरे पास कि उसकी छोटी-छोटी बातों में अपना कीमती समय खराब करता फिरूँ"

"जानता जो हूँ कि टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"...

"मनी से याद आया कि यहाँ स्साले!... देने वाले तो देने का नाम नहीं लेते और...

दो-चार लेने वाले ज़रूर घर के बाहर रोज़ाना सुबह-शाम कतार बाँधे नज़र आते हैँ


"अब आप ही बताओ कि इस आपाधापी भरे माहौल में टैंशन ना हो तो और क्या हो?"


"जिस से मैँने प्रेम किया....अपने घर वालों से लड़-झगड़े कर उनकी मर्ज़ी के खिलाफ ब्याह रचाया" ...

"कम से कम उसे तो मेरा ख्याल रखना चाहिए"मैँ अपने आप से बात करता जा रहा था


"ठीक इसके उलट...आज उसी के साथ मेरी नहीं बन रही है"...


"हालात ऐसे हैँ कि ना चाहते हुए भी हफ्ते में कम से कम तीन या चार दफा हम लड़ बैठते हैँ।"

"कभी किसी बात पर तो कभी किसी बात पर"

"ध्यान से देखो तो कई बार कोई बात ही नहीं होती है"मेरी उँगलियाँ बिना थके कीबोर्ड पर टक-टकाटक करती ही जा रही थी...



"मैँने कभी भी उसे किसी काम के लिए नहीं रोका।"...

"कहीं आने-जाने से मना नहीं किया।"...

"किसी भी तरह के कपडे पहनने या ना पहनने के लिए नहीं टोका"...

"कभी उसकी इच्छाओं पर हावी नहीं हुआ मैँ"...

"उसने कहा कि उसे डांस सीखना है"...

"ठीक है!...सीख लो"मेरा जवाब था


"उसने कहा उसे अँग्रेज़ी सीखनी है" मैँने कहा ज़रूर सीखो...

"कहने का मतलब ये कि मैँ उसकी खुशी से खुश था लेकिन फिर ये सब मेरे साथ ही क्यों?"....


"क्या मैँ चाहता था कि हम में अनबन हो?"...

"हम लडें!...लडते रहें?"...

"या फिर वो चाहती थी कि हम झगड़ते रहें?"...


"शायद हम दोनों ही कभी एक दूसरे को समझ नहीं पाए"


"शादी हुए बरसों बीत गए लेकिन हमारा लड़ना आज भी बदस्तूर जारी है"

"कई बार तो लड़ाई इतनी बढ जाती है कि गुस्से में चाहे-अनचाहे मेरा हाथ भी उठने लगा है"...

"जिसका मुझे हमेशा अफसोस रहा है और ताउम्र रहेगा"

"लेकिन!...मैँ करूँ भी तो क्या करूँ?"

"कंट्रोल नहीं रख पाता अपने ऊपर"


"वो बात ही ऐसी जली भुनी कर देती है कि ना चाहते हुए भी मेरे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं रहता है।"

"पता नहीं क्यों मैँ उतेजित हो आपे से बाहर हो उठता हूँ"....


"संयम से काम लेना चाहिए मुझे"मेरी उँगलियाँ अब धीमी गति से टाईप कर रही थी


"कई बार सोचता भी हूँ कि मैँ जो कर रहा हूँ वो गलत है...सही नहीं है लेकिन....

जब बर्दाश्त करने की हद मेरे बूते से बाहर हो जाया करती है ...तभी ऐसा होता है।"


"सच कहूँ तो!..आजकल अक्सर ऐसा होने लगा है।"


"बाद में पछतावा भी होता है हर बार कि उसे ना सही लेकिन कम से कम मुझे तो आपे में रहना चाहिए"


"जानता हूँ कि आज जो हुआ...जैसा हुआ...सही नहीं हुआ"...


"नहीं होना चाहिए था ऐसा"....

"लेकिन मैँ करूँ भी तो क्या करूँ?"मैँ जैसे खुद से ही सवाल करता हुआ बोला



"हर बार कोई ना कोई ऐसी कडवी...दिल को अन्दर तक चुभने वाली बात वो कर देती है कि मुझसे चुप नहीं रहा जाता है"

"और नतीजन!...फिर हम बैठे बिठाए बिना किसी तुक के लड़ पड़ते हैँ।"


"पता नहीं क्यों हमें शर्म भी नहीं आती है कि...बच्चे बड़े हो रहे हैँ"....

"क्या तमाशा दिखाते रहते हैँ हम उन्हें रोज़-रोज़"...

"क्या सोचते होंगे वो हमारे बारे में?"मुझे खुद से ही नफरत सी होने लगी थी


"कई बार मैँ अकेला बैठ विचार करता हूँ कि आखिर हम क्यों लड़ते हैँ?"

"क्या हम में प्रेम नहीं है?"...

"अगर नहीं है तो फिर हमने शादी क्यों की?"...

"क्या हम दोनों का प्रेम प्रेम नहीं...सिर्फ विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण भर था?"


"नहीं ऐसा हर्गिज़ नहीं था"...

"अगर ऐसा होता तो आज मैँ संजू का नहीं ...किसी और का पति होता".....


"शायद!....प्रोमिला.....शशि....मोनिका.....कंचन या फिर कोई और?"......


"अब मैँ किस-किस का नाम ध्यान रखता फिरूँ?"पुरानी माशूकाओं की याद आने से मेरा चेहरा लाल हो उठा था


"उफ!...ये ठंड के मौसम में किनकी याद आ गई?"एक साथ सभी किस्से दिमागी भंवर में किलोल करने लगे


"उफ!...तौबा....वो दिन भी क्या दिन थे?"मैँ पुरानी यादों से पीछा छुड़ाने के लिए सर को झटकता हुआ बोला


"संजू का चेहरा फिर मेरे सामने था"...

"क्या मैँ ही गलत होता हूँ हर बार?"


"बहुत सोच विचारने के बाद घूम फिर के मैँ इस नतीजे पे पहुँचा हूँ कि .....

मुझे उसकी टोकाटाकी पसन्द नहीं और उससे बिना टोके रहा नहीं जाता।"


"शायद अपनी गल्तियों को ढांपने के लिए मेरी यही सोच जायज़ थी"


"कुछ ऐसा ही वो भी सोचती हो शायद कि... वो ठीक है और राजीव गलत"...

"सच!...अपनी गल्तियाँ किसे नज़र आती हैँ?"


"बहुत हो ली लड़ाई....बहुत लड़ लिए हम"

"अब चाहे जो हो जाए मैँ कभी उस पर हाथ नहीं उठाउँगा।"मैँने फैसला सा कर लिया


"हाँ!...यही ठीक रहेगा"...

"उसकी चुभने वाली बातों को मैँ भूल जाउंगा...इग्नोर कर दूंगा"

"ज़्यादा होगा तो!..चुपचाप बाथरूम या फिर टायलेट में रो लूंगा लेकिन उसे कुछ नहीं कहूँगा"


"स अच!...एक बात तो है पट्ठी में....जितना वो मुझसे लड़ती है...उतना ही प्यार भी तो करती है मुझसे"...


"अब देखो ना!...उसके माँ-बाप लाख बुलाते रहते हैँ कि छुटियाँ आ रही हैँ बच्चों की...इस बार यहीं आ जाना"...

"एक साथ रहेंगे...खूब मज़ा आएगा"...

"कोई ना कोई बहाना कर के टाल देती है उन्हें हर बार कि इस बार नहीं...अगली बार"...

"जानती जो है कि उसके बिना रह नहीं पाउंगा"


"क्या हुआ जो हम लड़ते हैँ?"...

"किस घर में लड़ाई नहीं होती है"...

"ज़रा बताओ तो...."

"अब चाहें हम रोज़ लड़्ते फिरें लेकिन सुलह भी तो कर ही लेते हैँ ना"...

"ये तो नहीं करते कि मुँह फुलाए बैठे रहें....बात ही ना करें एक दूसरे से..."

"अपनी गल्ती मान सौरी भी तो खुद ही कहने आ जाती है ना कई बार" मैँ भावुक हो चला था


"याद है मुझे आज भी वो दिन जब हम हनीमून पर मनाली गए थे"....

"वहाँ हमने 'बैस्ट कपल' का अवार्ड भी तो जीता था ना।"

" संयोग देखो कि लगातार तीन साल तक 'बैस्ट कॅपल' का अवार्ड जीतते रहे हम"


"सुनो"...


"हूँ!......


"क्या कर रहे हो?"

"क्क...क्कुछ नहीं....बस ऐसी ही......"मैँ फटाफट मॉनीटर बन्द करता हुआ अचानक पलटाबोला


"देखा तो!..पीछे बीवी हाथों में गुलाब का फूल लिए खड़ी थी"


"हैप्पी वैलैनटाईन"....बीवी ने कह मेरा माथा हौले से चूम लिया...


"सॉरी...."मेरे मुँह से बस यही निकला और मैँने उसका हाथ थाम लिया

"जाने कब हम दोनों की आँखो से आँसू बह निकले पता भी ना चला"


"चाय पिओगे?"...


"हूँ!..."कह मैँने चुपचाप सहमति जता दी


"यस!...वी ऑर दा बैस्ट कॅपल"बीवी क ए किचन में जाते ही मैँ खुशी से हाथ हवा में लहराता हुआ बोला


"अभी मैँ ये सोच ही रहा था कि बीवी चाय और बिस्कुट ले कर आ गई"


"एक बात बताओ ज़रा...."बीवी चाय की चुस्की लेती हुई बोली


"क्या?"मेरे चेहरे पे प्रश्न था


"तुम्हारा प्रोमिला के साथ सचमुच में चक्कर था ना?"


"नहीं!...

नहीं तो "मेरी आवाज़ में सकपकाहट थी


"झूठे!.....मैँने सब पढ लिया है"...संजू खिलखिला के हँस दी


"और वो मोनिका....कंचन.....वगैरा...वगैराअ...."

"फ्लर्ट कहीं के"बीवी की हँसी रुक नहीं रही थी


"मेरी सकपकाई सी हँसी भी उसकी हँसी में शामिल हो चुकी थी"


***राजीव तनेजा***

नोट:संजू (मेरी पत्नी)को समर्पित

7 comments:

Samrendra Sharma said...

लगे रहो भाई बहुत शानदार

अविनाश वाचस्पति said...

यह काम है निस्संदेह नेक
जिसके फायदे होंगे अनेक

Kirtish Bhatt said...

बहुत बढ़िया राजीव भाई. बहुत बढ़िया........

Kirtish Bhatt said...

बहुत बढ़िया राजीव भाई. बहुत बढ़िया........

Rakesh Kumar Singh said...

ख़ूबरसूरत. बहुत ख़ूबसूरत. मज़ा आ गया.

Udan Tashtari said...

सही है.. :)

अविनाश वाचस्पति said...

ऐसी कहानी लिखकर उसे अपनी पत्नी को समर्पित कर आपने खूब कलाकारी का परिचय दिया है. इसी में आपकी सुरक्षा निहित है. ऐसे ही बुलन्द हौसलों का परिचय देते रहिये.

 
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