मेरी दूसरी कहानी नवभारत टाईम्स पर
"बस, बन गया डाक्टर"
राजीव तनेजा
" कई दिनों से बीवी की तबियत दुरुस्त नहीं थी "....
कई बार उसने मुझसे कहा भी कि डॉक्टर के पास ले चलो लेकिन मुझे अपने काम - धंधे से फुरसत हो तब ना। हर बार किसी न किसी बहाने से टाल देता। एक दिन बीवी ने खूब सुनाई कि मेरे लिए ही तो टाइम नहीं है जनाब के पास, वैसे पूरी दुनिया की कोई भी बेकार से बेकार, कण्डम से कण्डम भी आ के खडी हो जाए सही, लार टपक पड़ती है जनाब की। लट्टू की तरह नाचते फिरते हैं चारों तरफ।
अब भला कैसे समझाऊ इस बावली को कि आजकल इंडिया में बर्ड फ्लू फैला हुआ है। सो घर की मुर्गी की तरफ ताकना भी हराम है। इसलिए कभी - कभार जीभ का स्वाद बदलने की खातिर इधर - उधर मुंह मार ही लिया तो कौनसी आफत आन पड़ी...
अब यार, इसमें मेरा भला क्या कसूर ? क्या मैंपकड़ कर लाया था इस ' फ्लू ' को ? अब भूख चाहे पेट की हो या फिर दिल की , बात तो एक ही है ना ? अमां यार !... जब ऊपरवाले ने पेट दिया है तो वह तो भूख के मारे तड़पेगा ही। कोई रोक सके तो रोक ले। मैं या आप भला इसमें क्या कर सकते हैं ? और अगर पेट तड़पेगा तो उसे भरना तो ज़रूरी है ही। अब ये औरतें क्या जानें कि भूख आखिर होती क्या है ? इनको क्या पता कि मंडी में आलू क्या भाव बिकता है ? इन्हें तो घर बैठे-बिठाए जो हुकुम का ताबेदार मिल गया है। सो आव देखती हैं ना ताव देखती हैं, बस झट से मुंह खोला और कर डाली फरमाइश। और जैसे मैं इसी इंतज़ार में बैठा हूँ कि कब हुकुम मिले और कब मैं बजाऊ। कोई और काम - धंधा है कि नहीं मुझे ?
आखिर तंग आ कर बोल ही डाला एक दिन, " चल आज ही करा देता हूं तेरा पोस्टमॉर्टम। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी। "
ले गया उसे सीधा ' नत्थू ' पंचर वाले की दुकान पर। अरे बाबा नाम है उसका ' नत्थू ' पंचर वाला .. . कभी लगाया करता था ' पंचर - शंचर ' ...पर अब तो डॉक्टर है डॉक्टर। पता नहीं कब उसने रातों - रात पढ़ाई की और बन बैठा डॉक्टर। वैसे भी कई दिनों से दिली तमन्ना थी कि एक बार मिल तो आऊं ... पुराना यार जो है। पहुंचकर देखा तो बाहर लंबी लाइन लगी हुई थी। टोकन बांटे जा रहे थे कि अब इसका नंबर तो अब इसका।
रिसेपशनिस्ट बड़ी ही पटाखा रखी थी पट्ठे ने। अरे पटाखा क्या ... पूरी फुलझड़ी थी फुलझड़ी। मुझे तो अफसोस होने लगा था कि आखिर इतने दिन तक ' झख ' क्यों मारता रहा मैं ? मिलने क्यों नहीं आया...मति मारी गई थी मेरी। अन्दर पहुंचा था कि नर्स को देख दिल झूम - झूम गाने लगा... " क्या अदा , क्या जलवे तेरे पारो ?... हो पारो... "
पट्ठा पता नहीं कहां से ' धांसू ' आइटम छांट लाया था। डॉक्टर लंगोटिया यार था अपना। पता चलते ही सीधा अन्दर ही बुलवा लिया। बीवी की तकलीफ बताई तो उसने किसी दूसरे डॉक्टर का नाम सुझा दिया। मैं चौंका कि यार तुम तो खुद ही इतने बड़े डॉक्टर हो ... फिर किसी और के पास भेजने की भला क्या तुक है ?"
" समझा कर यार, घर का मामला है ... सो क्वॉलिफाइड ही ठीक है। "
मैंने कुछ देर से आने की कह बीवी को रिक्शा से घर वापस भेज दिया।
" हाँ ... अब बताओ, चक्कर क्या है आखिर ?"
" अब यार, तुम तो अपने लंगोटिया यार हो। तुमसे क्या छिपाना। जानते तो हो ही कि मैं पहले पंचर लगाया करता था... "
" फिर इस डॉक्टरी की लाइन में कैसे कूद पड़े ?" मैं बीच में ही बोल पड़ा।
" अरे यार, वो ही तो बता रहा हूँ। तुम तो जानते ही हो कि ... माधुरी दीक्षित कितनी पसंद है मुझे। बस वही ले आई यार इस डॉक्टरी के धन्धे में। "
" माधुरी दीक्षित ले आई ? समझा नहीं ... ज़रा तफ्तीश से समझाओ। "
" बता रहा हूं बाबा। ज़रा सब्र तो रख। सुबह - सुबह आए हो , पहले कुछ खा - पी तो लो...ज़रा चाय - नाश्ता तो लाना, " डाक्टर साहब कंपाउंडर को हुकुम देते हुए बोले ।
" हां तो दरअसल हुआ क्या कि ..." एक दिन ' वी . सी . आर ' किराए पर लिया और पूरी रात सिर्फ और सिर्फ माधुरी की ही फिल्में देखता रहा बस। "
" अच्छा फिर ?"
" बस जैसे नशा सा छा गया हो "...
" जहाँ देखूँ .. वहाँ बस वो और मैँ "....
" दूजा कोई नहीं "
" धक - धक करने लगा ... ओ मोरा जिया डरने लगा ..."
" अगले दिन नींद पूरी ना होने की वजह से सर कुछ भारी - भारी सा था "
ऊपर से ' नास - पीटे ' मालिक का बुलावा आ गया ड्यूटी बजाने के लिए
" माधुरी का जलवा ही ऐसा था कि ... कुछ सूझे नहीं सूझ रहा था "
" आँखो के आगे से उसकी ...
' लचकती '...
' बल खाती '..
नाज़ुक कमर हटने का नाम ही नहीं ले रही थी "
" टायर में हवा भरते - भरते होश ही नहीं रहा कि कितनी हवा भरनी है और कितनी नहीं ?"
" अचानक धढ़ाम आवाज़ आई और ' ट्यूब ' चारों खाने चित्त "
" राम नाम सत्य हो चुका था ट्यूब का "
" खूब सुनाई मालिक ने ... लेकिन मैने भी टका सा जवाब दे दिया कि ...
" सम्भालो अपनी धर्मशाला "
" नहीं बजानी है तुम्हारी नौकरी "
" मेरी हिम्मत देख दिल ही दिल में माधुरी ने पीठ ठोंक डाली ...
' शाबाश !'...
ये की ना मर्द वाली बात "
" असली जवां मर्द हो तुम तो "
" मैने अपना झुल्ली - बिस्तरा उठाया और जा पहुंचा सीधा डॉक्टर साहब के यहां "
" कई बार बुलावा जो आ चुका था लेकिन बस मेरा मन ही नहीं करता था "
" मालिक की बेटी की शक्ल कुछ - कुछ माधुरी से मिलती जो थी "
" सो टिका रहा वहीं "
" फिर नौकरी को लात क्यों मार दी ?"
" पट्ठे ने अपनी बेटी जो ब्याह दी उस गंगू तेली के साथ "
" तो अब वहां रुक कर भला मैं कौन सा कद्दू पाड़ता ?"
" सो छोड जाना ही बेहतर लगा "
" डॉक्टर साहब के यहां भी क्या ' पंचर ' ही लगाते थे ?"
" बावला तो नहीं है कहीं तू ?"
" या फिर भांग चढा रखी है ?"
" अरे यार इंजेक्शन ठोकता था इंजेक्शन "
" पर ये सब तुम्हे आता कहां था ?"
" अरे यार कोई पेट से ही सीख के थोडी आता है ये सब "
" यहीं ... इसी दुनिया में रहकर सीखा जाता है सब का सब "
" फिर भी ?" मेरे चेहरे पे असमंजस का भाव था।
" अरे यार !... सीधी सी बात है , पहले टायर में से कील उखाडता था अब बदन मे कील घुसेडता हूं "
" वैरी सिम्पल "
" शुरू - शुरू में तो डाक्टर ने पर्ची काटने पे बिठा दिया था "
" कई बार तो ये भी लगा कि कहां आ के फंस गया , लेकिन ...
" सब्र का फल मीठा होता है "
" कैसे ?"
" हुआ क्या कि एक दिन कंपाउडर छुट्टी मार गया "....
" बस उसका छुट्टी मारना था और मेरी किस्मत का दरवाज़ा खुलना था "
" डाक्टर साहब ने उसकी जगह मुझे ड्यूटी पर लगा दिया "
" फिर ?"
" पट्टी - वट्टी करना तो मैं जान ही चुका था अब तक "...
" बस डाक्टर साहब की सेवा करता गया और धीरे - धीरे सारे दाव - पेंच सीखता गया कि ...
किस मर्ज़ के लिये कौन से ' गोली ' थमानी है और ....
किस मर्ज़ के लिये कौन सी "
" ज़्यादातर अनपढ - गंवार ही आते थे हमारे क्लीनिक में ,...
सो , ज़्यादातर कोई दिक्कत पेश नहीं आती थी "
" राज़ की बात तो ये कि अपने डाक्टर साहब को भी कुछ खास आता - जाता नहीं था "
" फिर इलाज वगैरा कैसे करते थे ?"
" अरे यार एक - दो पुरानी किताबें छांट लाए थे कहीं रद्दी से ,...
उन्हीं से पढ कर अलग - अलग तजुर्बे करते फिरते थे मरीज़ों पे जैसे कि ...
कभी किसी को ' यूनानी ' दवा थमा दी तो कभी किसी को ..
' आयुर्वेदिक '...
तो कभी किसी को ' एलोपेथिक '"
" कभी - कभी तो ' होमियोपेथिक ' के भी गुण गाने लगते थे "
" पता नहीं कमरा बन्द करके क्या - क्या पीसते रहते थे ?"
" कई बार तो उनके हाथ ताज़े गोबर से भी सने देखे थे मैने "
" एक बार तो मेरी हंसी ही छूट गयी थी जब मैने देखा कि ...
डाक्टर साहब एक गाय के पीछे - पीछे ' लौटा ' लिये डोल रहे थे "
" अब ये तो ऊपरवाला जाने कि किस घडी का इंतज़ार था उन्हें ?"
" जब हाथ में लौटा लिये बैरंग लौटे तो सारा बदन कीचड से सना था और कपडे फटेहाल "
" पता नहीं उस गाय की बच्ची ने कहां - कहां चाटा होगा ...
या फिर कहां - कहां सींग मारे होंगे ?"
" मरीज़ का चौखटा देख अलग - अलग तजुर्बे करते रहते थे कि ..
इस पर ' यूनानी ' फिट बैठेगी और इस पर ' आयुर्वेदिक '"
" ये तो शुक्र है ऊपरवाले का कि उनका वास्ता सिर्फ अनपढ - गवारों से ही पड़ता था "
" जो कोई भी मरियल सा आता , सीधा उसे पानी चढाने की कहते "
" बेचारा गरीब मानुस जल्दी ठीक होने की आस में हामी भर देता "
" उस बेचारे को क्या मालूम कि. ..
दाम तो लिए जा रहे हैं ' ग्लूकोज़ ' के और चढाया जा रहा है ' निरा ' पानी "
" निरा पानी ?"
" और नहीं तो क्या ?"
" यही तो असली कमाई का फंडा है "
" ना हींग लगी न फिटकरी और रंग चढा चोखा "
" अरे यार तुमको इस सब की खबर कैसे हो गयी ?"
" क्या डाक्टर साहब खुद ही इतना मेहरबान हो गये कि ... सारे भेद खुद - बा - खुद बताते चले गये ?"
" अरे डाक्टर के बच्चे का बस चलता तो वो इस सब की हवा तक भी ना लगने देता "
" फिर ?"
" अरे यार सीधी सी बात है , मैँ अपने आंख - कान सब खुले रखता था "
" खुद को अनपढ बता खूब फुद्दू खींचा डाक्टर का , पट्ठा सोचता था कि ये अंगूठा छाप भला उसका क्या उखाड़ लेगा ?"
" वो मेरी तरफ से बेपरवाह बना रहा और मैं अन्दर ही अन्दर उसकी ही कब्र खोदता चला गया। आहिस्ता - आहिस्ता सब दवाईयो के नाम जबानी रट लिए मैने। " बस एक बात ही समझ नहीं आ रही थी कि ये डाक्टर का बच्चा एक ही बीमारी के लिये कभी लाल ' गोली पकड़ाता है तो कभी ' हरी ' , तो कभी ' पीली ' । मतलब ये कि बीमारी कोई भी हो लेकिन दवा एक ही। ये चक्कर मुझे घन - चक्कर किए जा रहा था। मैने भी अक्ल के घोडे दौडाए और जान लिया सब राज़। दूध का दूध और पानी का पानी कर डाला। " साला डाक्टर बडा ही छुपा - रुस्तम निकला। सारी की सारी गोलियों के रंग अलग - अलग लेकिन माल एक।
" माल एक ?" मैने हैरानी से पूछा
" हां यार सब की सब गोलियों में खालिस मिट्टी थी "
" फिर डाक्टर साहब इलाज कैसे करते थे ?"
" अरे काहे का डाक्टर ?" दोस्त को अब तक ताव आ चुका था
" पहले हलवाई था साला हलवाई "
" हलवाई ?" मुझे जैसे विश्वास ही ना हुआ
" हां भाई ... हलवाई। एक बार किसी को खराब मिठाई खिला दी और वो बन्दा गया लुढक। कोर्ट - कचहरी का चक्कर पडा तो पट्ठे ने ले - दे के सरकारी डाक्टर से पूरी रिपोर्ट ही बदलवा दी। अच्छे खासे चढाने पड़े। बस तभी से यारी हो गयी उस डाक्टर से।
" उसी से सीखा होगा ये सब "
" हां तो बात हो रही थी कि जब सारी की सारी गोलियों में निरी मिट्टी होती थी तो , ये डाक्टर इलाज कैसे करता था ?"
" जी "
" अरे यार असली दवा का नाम लिख देता था पर्ची पर कि बाज़ार से ले लो "...
" जल्दी ठीक हो जाओगे "
" उसी से बन्दा ठीक हो जाता और सोचता कि ...
डाक्टर साहब के हाथ में ....
' जादू ' है , ' शफा ' है "
" तो आजकल अपने ये डाक्टर साहब हैं कहां ?"
" अरे यार अब तो वो बडे आदमी बन गये हैं "
" कई - कई तो फैक्ट्रियां है दवाईयों की "
" अरे वाह !... बडी तरक्की कर ली उन्होने "
" काहे की तरक्की ? मेरे यार "...
" ये तो भला हो उस पुलिस वाले का जिसने इन्हें जेल पहुंचाया था "
" भला हो जेल पहुंचाने वाले का ?" मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था
" और नहीं तो क्या ?"
" आया तो वो था डाक्टर साहब को जेल की हवा खिलाने ,...
' नकली डिग्री ' और ' नकली सर्टीफिकेट ' के चक्कर में और ...
खुद ही बन बैठा पचास टके का पार्टनर दवाई वाली फैक्ट्री में "
" बात पूरी समझ नहीं आ रही है। सर के ऊपर से निकले जा रही है। ज़रा खुल के समझाओ "
" बस यार ऊपर से वॉरंट इशू हुए थे डाक्टर के , सो जेल तो जाना ही पडा "
" पुलिस वाले ने वहां भी ऐसी सैटिंग बिछा रखी थी कि डाक्टर साहब को कोई दिक्कत पेश नहीं आई "
" बाकी केस को कमज़ोर करने का काम तो पहले ही कर दिया था इंस्पैक्टर ने "
" सो तीन महीने में ही बाहर थे अपने डाक्टर साहब "
" अब खूब छन रही है दोनों में, मानो एक ही लंगोट में खेला - कूदा करते थे दोनो बचपन में "
" ठाठ से जी रहे हैं दोनों "
" हूं !... तो क्या ये सर्टिफिकेट वगैरा भी नकली तैयार हो जाते हैं ?"
" अरे तुम कहो तो ' न्यूरो सर्जन ' की डिग्री थमा दूं अभी के अभी। हाथों - हाथ। पहले तो होता था कि डिग्री लेनी है तो ' बिहार ' जाओ। दो - चार दिन काले करो। तब कहीं जा के बड़ी मुशकिल से सर्टिफिकेट हाथ लगता था। कहीं गलती से कुछ मिस्टेक हो गयी तो फिर नये सिरे से खर्चा करो और समझो की पूरा हफ्ता गया काम से।
" और अब ?"
" अब तो यार कंप्यूटर का ज़माना है, इस हाथ दे और इस हाथ ले। सब कुछ ऑलरेडी तैयार होता है। बस ' नाम - पता ',... ' उमर ' , ' फोटू ' वगैरा बदलो और तुरंत ही डिग्री हाथ में "
" मुन्ना भाई नहीं देखी है क्या ?" दोस्त हंसते हुए बोला
मै भी खिलखिला के हँस दिया।
" तो डाक्टर साहब ... कब आऊं मैं कंपाउंडरी करने ?"
" हा ... हा ... हा .... हा ..." और हम दोनों की हंसी फूट पडी "
" अभी यार बातें तो बहुत हैं कहने - सुनने के लिए, लेकिन क्या करूं ? मजबूरी है, पापी पेट का सवाल है। रोज़ी - रोटी का ख्याल तो रखना ही पडेगा। बाहर मरीज़ों की लाइन लम्बी होती जा रही है। ’ दोस्त बोला।
" फिर कभी आओ फुरसत निकाल के, खूब मज़े करेंगे।
मैं फिर आने की कह वापिस चला आया। अभी तो बहुत कुछ पूछना - सुनना बाकी था। भरपूर दावत के साथ - साथ नर्स को जी भर के ताड़ने का मौका भला कौन गंवाना चाहेगा ? ।
2 comments:
बधाई !
घुघूती बासूती
राजीव जी
क्या शब्दों का जाल बुना है पढ़ कर मजा आ गया
सुशील
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