पुकारा है ज़िन्दगी को कई बार- लतिका बत्रा

अपने दुःख.. अपनी तकलीफ़..अपने अवसाद और निराशा से भरे क्षणों को बार बार याद करना यकीनन बहुत दुखदायी होता है। जो हमें उसी दुख..उसी कष्ट को फिर से झेलने..महसूस करने के लिए एक तरह से मजबूर कर देता है। ऐसे में अगर कोई ठान ले कि उसे एक सिरे से उन्हीं सब लम्हों..उन्हीं सब पलों..उन्हीं निराशा और अवसाद से भरे क्षणों को फिर से जीते हुए..उनकी बाँह थाम उन्हें इस इरादे से कलमबद्ध करना है कि उनके जीवन से प्रेरित हो..निराशा के भंवर में फँसे लोग अपने जीवन में आशा की नयी लौ.. नयी किरण जगाने में सफ़ल हो पाएँ।

दोस्तों..आज मैं ब्रैस्ट कैंसर से ग्रसित होने और फिर अपनी हिम्मत..जिजीविषा और धैर्य के बल पर उससे ठीक हो कर निकलने के अनुभवों को बयां करने वाली एक ऐसी प्रेरक किताब से आपका परिचय करवाने जा रहा हूँ जिसे बेहद मंझी हुई भाषा में लिखा है लतिका बत्रा जी ने। 

पारिवारिक बँटवारे के बाद पैदा हुए हालातों के मद्देनजर, दिल्ली के एजुकेशन हब माने जाने वाले इलाके, मुखर्जी नगर में रह रही लेखिका को आर्थिक स्तर पर अपने पति का हाथ बंटाने के लिए खुद भी काम में जुटना पड़ता है। काम में अत्यधिक व्यस्त हो जाने की वजह से वे अपनी सेहत का सही से ध्यान नहीं रख पाती हैं। जिसकी परिणति के रूप में  ब्रैस्ट कैंसर उनके शरीर में अपना घर बना लेता है। 

आत्मकथा के एक संक्षिप्त हिस्से के रूप में लिखी गयी इस किताब में कहीं कुदरती रूप से महिलाओं के केयरिंग स्वभाव की बात नज़र आती है। तो कहीं उनके द्वारा अपने स्वास्थ्य..अपनी सेहत के प्रति अनदेखी भरा खिलवाड़ इस हद तक होता नज़र आता है कि घर परिवार की जिम्मेदारियों के अतिरिक्त वे अन्य कुछ भी देख नहीं पाती हैं। घर बाहर के काम में फँस खुद अपने इलाज के प्रति लेखिका की लापरवाही इस हद तक नज़र आती है कि वे ज़रूरी टैस्ट रिपोर्ट्स के आने के बाद भी उन्हें डॉक्टर को दिखाने में पाँच लंबे महीनों का वक्त ले लेती हैं। 

इसी किताब में कहीं कैंसर..उसकी भयावहता और उसके इलाज से जुड़ी भावनात्मक बातें नज़र आती हैं। तो कहीं कविताओं एवं आलेखों के ज़रिए बीमारी की भयावहता और उसके प्रति डर साफ़ झलकता दिखाई देता है। इसी किताब की किसी अन्य कविता एवं आलेख में बीमारी के प्रति चिंता..जिज्ञासा एवं इसके निदान को ले कर लेखिका..उनके बेटों एवं पति की छटपटाहट से भरी उत्कंठा..उत्सुकता झलकती दिखाई देती है। 

कहीं इस किताब में लेखिका के प्रति उनके दोस्तों, रिश्तेदारों एवं पड़ोसियों की चिंता परिलक्षित होती है। तो कहीं पति.. बच्चों की अनुपस्थिति में घर का घरेलू नौकर भी चिंता से लेखिका के आसपास मंडराता दिखाई देता है। कहीं निराशा..अवसाद के क्षणों में लेखिका अपनी किस्मत पर आँसू बहाती.. खीझती और झल्लाती दिखाई देती है। तो इसी किताब में कहीं स्नेहशील.कर्मठ माँ की बिगड़ती सेहत को ले कर बच्चे चिंतित मगर ऊपर से मज़ाक करते..हिम्मत दिखाते..ढाँढस बंधाते नज़र आते हैं। कहीं इसमें कभी मूक रह कर कभी चिंता जताता तो अपनी बेबसी पर आँसू बहाता..छटपटाता संवेदनशील पति दिखाई देता है।

 इसी किताब में कहीं लेखिका डॉक्टरों एवं नर्सिंग स्टॉफ के सामने अपनी बीमारी की वजह से वस्त्र विहीन हो शर्मसार महसूस होती नज़र आती है। जबकि हस्पताल के इंटर्न्स, डॉक्टर्स एवं नर्सिंग स्टॉफ निर्विकार भाव से उनके इलाज में जुटा होता है कि उनके लिए वह महज़ एक ऑब्जेक्ट के सिवा और कुछ भी नहीं होती। तो कहीं किसी रिश्तेदारी में हो रहे मुंडन और कीमोथेरेपी की वजह से खुद के बालों के झड़ने को हँस कर लेने या एक समान कहने वाली लेखिका की जीवटता..जीवंतता.. हिम्मत झलकती भी हमें दिखाई देती है।
 
इसी किताब में कहीं इलाज के दौरान अवसाद और निराशा से बचने हेतु किए गए प्रयासों के तहत लेखिका का लेखन फिर से पुनर्जीवित हो..अपना मूल स्वरूप पाता दिखाई देता है। तो कहीं कैंसर खुद, निराश हो चुकी लेखिका को फिर से जीना सिखाता तो कहीं इशारों..प्रतीकों के ज़रिए जीवन के एक एक पल का मूल्य समझाता दिखाई देता है।

इसी किताब के ज़रिए हमें नर्स की एक ऐसी लापरवाही भरी ग़लती का पता चलता है कि भयंकर दर्द से परेशान हो लेखिका हताशा..अवसाद और निराशा के ऐसे पलों में महाप्रस्थान तक की कामना करने लगी। 

इसी किताब में डॉक्टर ए.के.दीवान जैसे सहृदय डॉक्टर का जिक्र भी नज़र आता है जिन्होंने अपने अस्पताल और स्टॉफ की इस ग़लती के मद्देनज़र अपने प्रभाव से बिल बहुत ही कम करवा दिया। साथ ही इस किताब में अन्य डॉक्टर का जिक्र भी नज़र आता है जिनकी जान पहचान की वजह से उन्हें अस्पताल की केमिस्ट शॉप पर 17-18 हज़ार का मिलने वाला मेडिकल इंस्ट्रूमेंट दरियागंज से सिर्फ 1200/- रुपए में मँगवा दिया था। 

किताब में वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ एक जगह शब्द ग़लत छपे हुए भी दिखाई दिए। उदाहरण के लिए पेज नंबर 41 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'यह एक विचारणीय प्रश्न था कि इतना बड़ा हॉस्पिटल है, फिर भी एक ऐसे पेशेंट के लिया बेड उपलब्ध नहीं है जिसके ऑपरेशन के लिए ओटी तक बुक हो चुका था'

इस वाक्य में 'फिर भी एक ऐसे पेशेंट के लिया' की जगह 'फिर भी एक ऐसे पेशेंट के लिए' आएगा।

इसके बाद पेज नंबर 46 पर लिखा दिखाई दिया कि..

** 'मैं रेत सी उनको हाथों से फिसलती जा रही थी।'

यहाँ 'उनको हाथों सी' के बजाय 'उनके हाथों से' आएगा। 

पेज नंबर 93 पर लिखा दिखाई दिया कि..

** 'मुझे बार-बार गले को सहलाते और खारिज करते देखकर जो पति ने ध्यान से वहाँ देखा तो सारी त्वचा लाल हो रही थी और दाने निकले हुए थे।'

यहाँ 'सहलाते और खारिज करते' की जगह 'सहलाते और खारिश करते' आएगा।

इसी तरह पेज नम्बर 99 पर लिखा दिखाई दिया कि..

** 'हर दर्द क गाढ़े को ढाँपने'

यहाँ 'हर दर्द के गाढ़े को ढाँपने' आएगा।

अंत में किताब के बैक कवर पर शब्दाहुति प्रकाशन की शिवांगी त्यागी का लिखा नोट नज़र आया जिसमें लिखा दिखाई दिया कि..

'दुस्साध्य रोग ने कलम को मांझा' जबकि यहाँ 'दुस्साध्य रोग ने कलम को मांजा' आएगा।

* हास- ह्रास 
*बुद्धी- बुद्धि
*यांत्रणा- यंत्रणा 
*सुषुप्त- सुसुप्त
*सिमित' सीमित
*सडक- सड़क
*गड़मड़- गडमड
*बच्चु-बच्चू
*मजाक उड़ता है- मज़ाक उड़ाता है
*दुबार- दुबारा(दोबारा)
*अकल्पनीये- अकल्पनीय
*दयनिय- दयनीय
*उपाये- उपाय
*बल्ड- ब्लड
*बटे- बंटे
*आपल्वित- अपल्वित
*अर्थ लेटी- अधलेटी 

बहुत ही बढ़िया क्वालिटी में छपी इस 104 पृष्ठीय प्रेरक किताब के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है शब्दाहुति प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 350/- रुपए। जो कि मुझे ज़्यादा लगा। ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक किताब की पकड़ को बनाने के लिए यह ज़रूरी है कि कम दाम पर इसका पेपरबैक संस्करण बाज़ार में लाया जाए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

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