कभी अख़बारों में छपी चंद गौर करने लायक सुर्खियाँ या तमाम मीडिया चैनल्स की हैडिंग बन चुकी कुछ चुनिंदा या ख़ास ख़बरें हमारे मन मस्तिष्क में कहीं ना कहीं स्टोर हो कर अपनी जगह..अपनी पैठ बना लेती हैं और जब तक ज़रूरत ना हो..बाहर नहीं निकलती। इसी तरह हमारे आस पड़ोस में घट चुकी या घट रही कुछ काबिल ए गौर घटनाएँ अथवा कुछ अलग तरह के नोटिसेबल किरदार भी सहज ही हमारे ध्यानाकर्षण का केंद्र बन..हमारे अवचेतन मन में कहीं ना कहीं बस जाते हैं और वक्त ज़रूरत के हिसाब से तब बाहर निकलते हैं जब हम जैसे लेखकों को कुछ नया रचना होता है।
दोस्तों..आज मैं एक ऐसे कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' के नाम से लिखा है प्रगति गुप्ता ने। उनकी अनेक कहानियाँ पहले से ही विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। आइए..अब बात करते हैं इस संकलन की कहानियों की।
इस संकलन की एक कहानी जहाँ एक तरफ़ शरीर से मुक्त हो चुकी आत्माओं के माध्यम से हमारे देश में निरंतर हो रही भ्रूण हत्याओं के पीछे की वजहों पर बात करती नज़र आती है। जिसमें विभिन्न उदाहरणों के ज़रिए भ्रूण हत्याओं के तरीकों का इस ढंग से मार्मिक वर्णन किया गया है कि पढ़ने वालों के दिल दहशत एवं करुणा से काँप उठते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी संकलन की एक अन्य कहानी एक सफ़ल गायनेकोलॉजिस्ट पत्नी और उसके सर्जन पति की कहानी कहती है। जिसमें सास ससुर और घर..बच्चों की जिम्मेदारी के नाम पर पत्नी से उसका अच्छा भला..चलता कैरियर छुड़वा कर उसे घर बिठा दिया जाता है और वह उन सबकी देखभाल करते करते खुद अपना सारा जीवन उन्हीं के नाम होम कर देती है। मगर क्या वह कभी अपने डॉक्टरी के सपने..अपने पैशन..अपनी काबिलियत को अपनी मर्ज़ी से राज़ी खुशी भूल पाती है?
इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ महँगी तनख्वाहों पर मल्टीनेशनल कंपनीज़ में नौकरी पर लगे उन पढ़े लिखे युवाओं की बात करती है जो एकाएक ज़्यादा पैसा देख लेने के बाद उसे ढंग से पचा नहीं पाते और अनाप शनाप खर्चों एवं पार्टीबाज़ी के चक्कर में आ..नशे की गिरफ़्त में इस कदर घिरते चले जाते हैं कि उनको ना अपने अच्छे बुरे का भान और ना ही माँ बाप की समझाइश का कोई असर हो पाता है। तो वहीं एक अन्य कहानी में एक करोड़ के सालाना पैकेज पर नौकरी करने वाले अनमोल की पत्नी नीता, जो एक बच्ची की माँ भी है, के सामने शादी के 8 साल बाद उसके पति की अजीब आदतों का राज़ खुलता है कि पुरुष होने के बावजूद उसकी आदतें और शौक एक स्त्री जैसे हैं।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी बददिमाग 'भूमि' और उसके अपेक्षाकृत शांत पति 'अंकित' के माध्यम से इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि 'सब्र के पैमाने को भी कभी ना कभी तो छलकना ही होता है। जिसमें प्रेम विवाह होने के बावजूद भी पढ़ी लिखी 'भूमि' बात..बात पर.. जगह-जगह सबके सामने अपने डीसेंट..सोबर कमाऊ पति, अंकित को नीचा दिखाने..अपमानित करने से नहीं चूकती। मगर एक दिन बीच सड़क ऐसा क्या होता है कि अंकित के सब्र का पैमाना छलकने को आतुर हो उठता है? तो वहीं एक अन्य कहानी ब्रेन हेमरेज की वजह से गंभीर हालत में अस्पताल पहुँची इंदु और उसकी उन स्मृतियों की बात करती है जिन्हें उसने तीन दिन अस्पताल में रहते हुए और फिर मृत्यु के बाद तेरह दिनों तक अपने घर में आत्मा बन कर महसूस करते हुए जिया। इन स्मृतियों में एक तरफ़ अपने बच्चों के मोह से जुड़ी बातों की चिंता और दूसरी तरफ़ अपने पति के गैरज़िम्मेदाराना रवैये से जुड़ी ऐसी बातें थीं जो उसे चैन से मुक्त नहीं होने दे रही थी।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ मानवता की सेवा के इरादे से सालों साल लगन और मेहनत से पढ़ाई कर डॉक्टर बनने वालों की हिम्मत और संबल को तोड़ती हुई दिखाई देती है। जब मरणासन्न हालात में इलाज के लिए अस्पताल पहुँचे गंभीर मरीज़ की इलाज के दौरान हुई मौत के बाद उसके उपद्रवी रिश्तेदार डॉक्टरों को ही पीट कर गंभीर रूप से घायल कर देते हैं। इसमें एक तरफ़ डॉक्टरों का मरीजों के प्रति समर्पण..सेवाभाव एवं संवेदनशील पक्ष दिखाई देता है तो वहीं दूसरी तरफ मरीज़ के साथ आए उसके हितचिंतकों का असंवेदनशील एवं गैरज़िम्मेदाराना रवैया परिलक्षित होता है।
एक अन्य कहानी मर्दों की फ्लर्टी नेचर की बात करती है कि किस तरह प्रौढ़ता की उम्र का एक व्यक्ति एक साथ दो दो युवतियों से निकटता बढ़ा.. दोनों को ही धोखा दे रहा होता है जिसका पता उसके मरने के बाद पता चल पाता है।
एक अन्य कहानी में रिश्तों और भावनाओं के प्रति अपने जवान बेटे के लापरवाही भरे प्रैक्टिकल रवैये से आहत अभिभावकों में से पति के मरने के बाद अस्पताल से उनकी डेडबॉडी लेने एवं मृत्यु के बाद घर में होने वाले तमाम तरह के संस्कारों.. रीति रिवाज़ों को विधिपूर्वक करने से पहले ही बेटे के बैंक और प्रॉपर्टी से जुड़े मुद्दों को हल करने वाले रवैये को देख कर आहत मन से खुद माँ भी उसके प्रति प्रैक्टिकल होने की सोच लेती है। तो वहीं एक अन्य बुद्धिजीविता से भरी कहानी इस बात को समझाने का प्रयास करती नज़र आती है कि जब किसी ना किसी दबाव के चलते मन में दबी इच्छाओं..बातों एवं भावों को व्यक्त करना संभव ना हो तो वे कहीं गुम या ग़ायब होने के बजाय मन के भीतर ही कहीं ना कहीं अपनी पैठ बना..एकत्र होती रहती हैं। ऐसी ही अधूरी..दमित इच्छाओं..बातों को जब कोई समझने वाला मिल जाता है तो यही अव्यक्त भावनाएँ तरल रूप में अश्रु बन कर खुद से आज़ाद होने लगती हैं। तो वहीं एक अन्य कहानी में उन जवान होती बच्चियों की बात नज़र आती है जो बाहर तो बाहर..खुद अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं।
पठनीयता के लिहाज से कुछ कहानियाँ मुझे बढ़िया तो कुछ गूढ़ एवं बुद्धिजीविता से भरी लगी। कुछ एक जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियाँ जैसे..
** सौबत- सोहबत
** चिपकर- चिपक कर
** बच्चे-वच्छे- बच्चे-वच्चे इत्यादि एवं कहानियों से जायज़ जगहों पर भी नुक्ते नदारद दिखे। प्रूफ़रिडिंग के स्तर पर अगर देखें तो पेज नंबर 61 के पहले पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..
'अपना कामों को जल्द से जल्द समेटकर सुव्यवस्थित कर देने की इंदु की हमेशा से ही आदत थी।'
यहाँ 'अपना कामों को जल्द से जल्द समेट कर' की जगह 'अपने कामों को जल्द से जल्द समेट कर' आएगा।
इसी तरह पेज नंबर 62 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'एक हाथ में ड्रिप और नाक से गुज़रती हुई की नलकियाँ डॉक्टर ने इलाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए लगा कर रख छोड़ी थी।'
इस वाक्य में यह स्पष्ट नहीं है कि किस चीज़ की नलकियाँ? यहाँ इसे 'ऑक्सीज़न की नलकियाँ' किया जा सकता था या फिर नलकियाँ से पहले के शब्द 'की' को ही हटा कर इसे पाठकों के दिमाग़ पर छोड़ दिया जाना चाहिए था कि वह अपने आप अंदाज़ा लगा ले कि किस चीज़ की नलकियाँ की यहाँ बात हो रही है।
इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'नए शरीर और नई प्रविष्टि के प्रतीक्षा में अस्पताल के तीन दिन और...
यहाँ 'नई प्रविष्टि के प्रतीक्षा में' की जगह 'नई प्रविष्टि की प्रतीक्षा में' आएगा।
इसके बाद पेज नंबर 63 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'इक्यावन साल के वैवाहिक जीवन में सिर्फ खुद लिए उसने शिशिर से कुछ ही पल चाहे थे।'
यहाँ 'वैवाहिक जीवन में सिर्फ़ खुद लिए' की जगह 'वैवाहिक जीवन में सिर्फ़ खुद के लिए' आएगा।
इसके आगे पेज नंबर 72 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'फिर भी श्वास और क्षय रोग के इस विभाग में दमे व श्वास संबंधी बीमारियों से जूझते मरीज़, स्वस्थ्य इंसान को भी अंदर तक हिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे।'
इसमें 'स्वस्थ्य' शब्द की जगह 'स्वस्थ' शब्द आएगा।
इसी तरह पेज नंबर 89 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'जैसे-जैसे पल्लवी की बातें मृगया को उथले भ्रमों से निकाल थी..'
यहाँ..'उथले भ्रमों से निकाल थी' की जगह 'उथले भ्रमों से निकाल रही थी' आएगा।
इसी पेज की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'जो बार बार उसको झंझकोर कर उसकी मासूमियत पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा था कि...काश।'
यहाँ गौर करने लायक बात यह है कि 'झंझकोर' कोई शब्द नहीं होता। इसकी जगह 'झंझोड़ कर' आना चाहिए।
महिला सशक्तिकरण को ले कर लिखे गए इस बढ़िया कहानी संकलन को पढ़ते वक्त मैंने नोटिस किया कि इसकी सभी कहानियाँ कहीं ना कहीं किसी समस्या..अवसाद या निराशा की बात करती हैं। हालांकि राहत की किरण के रूप में कुछ कहानियाँ अपने अंत में सकारात्मकता की तरफ़ कदम बढ़ाती तो दिखी मगर मेरे ख्याल से इतना भर काफ़ी नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में सकारात्मकता के नज़रिए से लेखिका की कलम से कुछ प्रेम..हर्ष और उल्लास बाँटती कहानियाँ भी निकलती दिखाई देंगी।
यूँ तो यह 110 पृष्ठीय बढ़िया कहानी संकलन मुझे उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भारतीय ज्ञानपीठ ने और इसका मूल्य रखा गया है 220 रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटेंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को शुभकामनाएं।
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