80 दशक के अंतिम सालों जैसी एक बॉलीवुड सरीखी कहानी जिसमें रेखा, जितेंद्र, राखी, बिंदु, उत्पल दत्त, चंकी पाण्डेय, गुलशन ग्रोवर इत्यादि जैसे अनेकों जाने पहचाने बिकाऊ स्टार हों और कहानी के नाम पर एक ऐसी कहानी जिसमें प्रेम, त्याग, ईर्ष्या, जलन, ममता एवं व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा/ प्रतिद्वंदिता समेत थोड़ी मारधाड़ एवं खूब मैलोड्रामा याने के सभी बिकाऊ फॉर्मूलों का मसालेदार तड़का लगा हो। वह अब..आज के माहौल में आपको पढ़ने को मिल जाए तो यकीनन आप नॉस्टेल्जिया की राह से होते हुए उस दौर में पुनः फिर से वापिस पहुँच जाएँगे जिसे आप स्वयं देख या फिर कभी किसी से सुन चुके हैं।
दोस्तों..आज मैं हर पल रोचकता जगाते एक ऐसे ही उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'वर्जिन मदर' के नाम से लिखा है संतोष कुमार ने। अब उपन्यास के शीर्षक 'वर्जिन मदर' से ही सबका ध्यान इसकी तरफ़, बेशक अच्छे या बुरे संदर्भ में, जाना लाज़मी बन जाता है कि आखिर..इसमें ऐसा होगा क्या? आश्चर्यजनक रूप से अपने नाम के ठीक विपरीत इस उपन्यास में बोल्डनेस का कहीं नामोनिशान तक नहीं है बल्कि उसके बजाय इसमें एक ऐसी पारिवारिक कहानी है जिसे पढ़ते हुए हम इसी के हो कर रह जाते हैं।
इस उपन्यास में कहानी है यंग बिज़नस मैन ऑफ द ईयर के अवार्ड से नवाज़े गए बीस वर्षीय युवा 'समय' और अवार्ड ना जीत पाने वाले 'अनुज', जो कि बड़े..दिग्गज व्यवसायी कबीर का बेटा है, के बीच बढ़ती ईर्ष्या..प्रतिद्वंदिता..जलन और दुश्मनी की। मुख्य रूप से इस उपन्यास में कहानी है 'समय' के प्रति 'सुहाना' के असीमित स्नेह..प्रेम और ममता भरे लाड़ प्यार की जिसे उसने उसकी माँ ना होते हुए भी माँ से बढ़ कर प्यार दिया। इसमें बातें है उस 'सुहाना' की जिसने कभी 'कबीर' से शिद्दत से प्यार किया मगर इसे भाग्य..साजिश या फिर परिस्थितियों की मार कहिए कि वो लाख चाह कर भी कबीर की ना हो सकती।
इसमें कहानी है कबीर की पत्नी काव्या और उसकी शातिर बुआ सुचिता की। उस सुचिता की, जिसकी साजिशों के चलते कबीर, सुहाना का ना हो कर काव्या का हो गया। मगर क्या सिर्फ़ सुचिता ही इस सबके के पीछे ज़िम्मेदार थी या फिर काव्या भी अपने मन में ऐसे ही कुछ ख़तरनाक मंसूबे पाले थी? यह सब तो जानने के लिए आपको सरल भाषा में लिखे गए इस रोचक उपन्यास को पढ़ना होगा।
मुंबई की पृष्ठभूमि पर रचे बसे इस उपन्यास में कहीं वहाँ की लोकल ट्रेन का जिक्र आता है तो कहीं वहाँ के आलीशान मॉल्स का। कहीं गणपति विसर्जन के ज़रिए लालबाग के महाराजा की बात होती है तो कहीं वहाँ की ओला जैसी कैब सर्विस की। अब ये और बात है कि वहाँ की ओला कैब में एक साथ चार जने सफ़र करते दिखाई देते हैं जबकि यहाँ दिल्ली की ओला/उबर की कैब सर्विस में दो से ज़्यादा जनों को ले जाने की मनाही है। ख़ैर.. यहाँ.. इस बात में मैं मुंबई के हिसाब से शायद ग़लत भी हो सकता हूँ।
हालांकि अपनी तरफ़ से लेखक ने इस उपन्यास में रहस्य बनाए रखने का पूरा प्रयास किया मगर मुझे इसकी कहानी एक ऐसी कहानी लगी जिसे ना जाने कितनी बार थोड़े बहुत फ़ेरबदल के साथ पहले भी बॉलीवुड/साउथ की कई फिल्मों में फ़िल्माया जा चुका है। याने के बहुत ज़्यादा प्रिडिक्टेबल लगी।
एक दूसरी ज़रूरी बात कि उपन्यास की मुख्य किरदार 'सुहाना' ही इस उपन्यास की नैरेटर है और अपने ज़रिए पूरी कहानी का, यहाँ तक कि काव्या के घर का..एक एक बात का..एक एक संवाद का..एक एक हलचल का इस तरह आँखों देखा वर्णन करती दिखाई देती है मानों उसने सभी जगह अपने सी सी टीवी कैमरे विद साउंड एण्ड मोशन सेंसर लगवा रखे हों। यहाँ कहानी के किसी किरदार को कहानी आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी देने के बजाय अगर लेखक खुद अपने ज़रिए कहानी को आगे बढ़ाता तो ज़्यादा बेहतर होता
आमतौर पर आजकल के बहुत से लेखक चीज़ों..वाक्यों में स्त्रीलिंग एवं पुल्लिंग तथा एक वचन और बहुवचन का सही से भेद नहीं कर पाते हैं। यही कमी इस उपन्यास में भी बहुत जगह पर दिखाई दी जो अखरती है। कुछ जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त ज़रूरी जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना भी खला। साथ ही कुछ जगहों पर कुछ शब्द बिना किसी ज़रूरत के रिपीट होते दिखाई दिए। मसलन पेज नम्बर 47 पर लिखा दिखाई दिया कि...
'मैं समय को लेकर को कोई रिस्क नहीं लेना चाहती हूँ।'
इस वाक्य में दूसरे वाले 'को' शब्द की ज़रूरत नहीं थी।
प्रूफ़रिडिंग के स्तर पर भी कुछ ऐसी कमियाँ दिखाई दीं जिन्हें ठीक करना बहुत ज़रूरी लगा जैसे कि पेज नंबर 13 पर लिखा दिखाई दिया कि..
** 'काव्या कॉलेज के दिनों से ही कबीर से प्यार करती थी और उसे पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने का मादा रखती थी।'
इस वाक्य में 'माद्दा' के बजाय 'मादा' लिखा है जो कि 'मादा' याने के 'स्त्री' होता है जबकि यहाँ 'माद्दा' होना चाहिए जो कि बतौर हिम्मत के प्रयुक्त होता है।
** इसी तरह पेज नंबर 21 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"मैं उसका दुश्मन नहीं हूँ जो उसके लिए बुरा चाहूँगा। मैंने जो कहाँ उसे तुम भी याद रखना और टाइम टाइम पर उसे याद दिलाते रहना।"
यहाँ 'मैंने जो कहाँ उसे तुम भी याद रखना' की जगह 'मैंने जो कहा उसे तुम भी याद रखना आएगा।
** आगे बढ़ने पर पेज नंबर 35 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..
'निशांत और अनुज बेवजह मेरे बेटे से झगड़ा मोड़ ले रहे थे।'
यहाँ 'झगड़ा मोड़ ले रहे थे' के बजाय 'झगड़ा मोल ले रहे थे' आएगा।
** इसके बाद पेज नम्बर 58 पर एक जगह लिखा दिखाई दिया कि..
"आप कहा खोए हो?" पलक ने फिर पूछा।
यहाँ इसके बजाय "आप कहाँ खोए हो?" आना चाहिए।
** और आगे बढ़ने पर पेज नंबर 70 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'निशांत भी उसे बदला लेने के लिए उसका रहा था।'
यहाँ 'उसका रहा था' के बजाय 'उकसा रहा था' आना चाहिए।
** इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..
"कभी-कभी पलक भी महक के साथ आ जाती थी और तीनों मिलकर गेम खेलते और मूवीज देखने जाते।"
यहाँ 'मूवीज़' के बजाय 'मूवी' आना चाहिए। 'मूवीज़' का मतलब तो हुआ कि एक से ज़्यादा फिल्में मगर एक दिन..एक मीटिंग..एक डेट में एक से ज़्यादा फिल्में भला कौन देखेगा और क्यों देखना पसन्द करेगा?
** और आगे बढ़ने पर पेज नंबर 93 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'मैं जैसे ही उसकी आवाज सुनी अपने कमरे से भागते हुए उसके पास पहुँची और उसे गले से लगा कर रोने लगी।'
यहाँ 'मैं जैसे ही उसकी आवाज सुनी' की जगह 'मैंने जैसे ही उसकी आवाज़ सुनी' आएगा।
** इसके बाद पेज नम्बर 163 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"आप क्यों जबरी कर रही हैं?"
यह वाक्य सही नहीं है। इसकी जगह "आप क्यों ज़बरदस्ती कर रही हैं?" होना चाहिए।
** इसके बाद अगले पेज नंबर 164 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'इतने सालों बाद उसे अपने करीब देखकर मेरे दिन की धड़कनें तेज हो गई थी।'
यहाँ 'दिन की धड़कनें' नहीं बल्कि 'दिल की धड़कनें' आएगा।
**(नोट: इस तरह की कमियों के अनेकों उदाहरण इस किताब में देखने को मिले।)
1 comments:
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (05-01-2022) को चर्चा मंच "नसीहत कचोटती है" (चर्चा अंक-4300) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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