ज्यों ज्यों तकनीक के विकास के साथ सब कुछ ऑनलाइन और मशीनी होता जा रहा है। त्यों त्यों इज़ी मनी चाहने वालों की भी पौबारह होती जा रही है। ना सामने आ..किसी की आँख में धूल झोंक, सब कुछ लूट ले जाने की ज़रूरत। दूर बैठे ही बस जिसका तिया पांचा करना हो..किसी तरह का लालच दे, उससे ओ.टी.पी हासिल करो और बस बिना अपना दीदार कराए झट से उसकी खुली आँखों से काजल चुरा लो।
लेकिन ऐसा नहीं है कि सब कुछ तकनीक के आ जाने से ही संभव हुआ। इससे पहले भी 'नटवरलाल' और
'चार्ल्स सोभराज' जैसे तुर्रमखां ठग हुए जिन्होंने अपनी जालसाज़ी भरी हरकतों से देश दुनिया की अनेक सरकारों की नाक में दम कर डाला था। ठगी का इतिहास तो खैर..उससे भी बहुत पुराना है। कभी ऐय्यारों के ज़रिए तो कभी ख़ूबसूरत हसीनाओं की दिलकश अदाओं के माध्यम से अपने मकसद को इन ठगों द्वारा कामयाब किया गया। इस तरह की सभी ठगी की वारदातों में एक ख़ास बात होती थी कि ये ठग लाइमलाइट में आने और खून खराबे से बचने का अपनी तरफ़ से हरसंभव प्रयास करते थे लेकिन एक समय ऐसा भी था जब अपनी पहचान को उजागर होने से बचाने के लिए ठग बेरहमी से उन सभी का कत्ल कर उनकी लाशें छुपा दिया करते थे जिनकी शिनाख़्त से उन्हें पहचाने जाने या पकड़े जाने का डर होता था।
दोस्तों..आज मैं एक ऐसे ही दुर्दान्त ठग 'जगीरा' और उसके गिरोह की कहानी ले कर आपके सामने आया हूँ जिसे अपने शब्दों में ढाल लेखक सुभाष वर्मा ने ठगमानुष श्रंखला का पहला उपन्यास 'जगीरा' रचा है।
इस उपन्यास में एक काल्पनिक कहानी है अंग्रेज़ी राज के समय के एक तेज़तर्रार..दुर्दान्त और बेरहम मगर महिलाओं की इज़्ज़त करने वाले ठग जगीरा की। इसमें बातें हैं उस जगीरा की, जिसे अपने काम में ज़रा भी चूक गवारा नहीं। लूट के मामले में वह अपने गिरोह के साथ मिल कर राह चलते व्यापारियों से ले कर पुलिस वालों तक को नहीं बख्शता और लूट के बाद हर शिनाख्त..हर सबूत को जड़ से मिटा दिया करता है।
बाकायदा शुभ मुहूर्त देख कर ठगी के लिए निकलने वाले उसके बहरूपिए खानाबदोश गिरोह के कारनामों से तंग आ उन्हें पकड़ने के लिए एक तरफ़ अंग्रेज़ सरकार उनके पीछे पड़ी है और दूसरी तरफ़ कुछ स्थानीय अय्याश शासक उनसे अपना हिस्सा से उन्हें अपने राज्य में लूट और ठगी की खुली वारदातें भी करने देते हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन के समांतर चलती इस तेज़ रफ़्तार रोचक कहानी में एक तरफ़ अंग्रेज़ सरकार पूरी बेरहमी से देश की आज़ादी के लिए चल रहे जन आंदोलन को कुचलने में जुटी नज़र आती है तो वहीं दूसरी तरफ़ जगीरा के आतंक से त्रस्त छोटे बड़े व्यापारियों एवं धन्ना सेठों को बचाने के लिए भी उसकी कवायद..मुहिम और धरपकड़ निरंतर जारी है। जगीरा की लूट और बेरहमी का आतंक इतना ज़्यादा.. ग़हरा और व्यापक है कि हर छोटे बड़े व्यापारी को अपने जान माल की सुरक्षा के प्रयास निजी स्तर पर भी अलग से प्रयास करने पड़ रहे हैं।
इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ जगीरा के विश्वस्त साथी उसके लिए हमेशा जान देने को तैयार नज़र आते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ उसी के गिरोह में कोई ऐसा घर का भेदी भी है जो हर समय उसकी जड़ काटने को घात लगाए बैठा है। रहस्य..रोमांच और उत्तेजना से भरे इस उपन्यास में हरदम चौकन्ने रहने वाले जगीरा से भी कुछ ऐसी चूक हो जाती है कि तमाम तरह की सतर्कता एवं सावधानियों के बावजूद भी वह एक दिन खुद को साजिशन..जेल की सलाखों के पीछे अपनी मौत के इंतज़ार में खड़ा पाता है।
निष्ठा..विश्वासघात.. साजिश..प्रेम..बिछोह जैसी भावनाओं से लैस इस उपन्यास में अंत तक पहुँचते पहुँचते जगीरा अपनी मौत मौत के चंगुल से किसी तरह बच तो जाता है मगर...
धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस रोचक उपन्यास में प्रूफ़ रीडिंग के स्तर पर मुझे कुछ खामियां नज़र आयी जैसे कि..
पेज नंबर 20 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'गेहूं की कटाई के बाद कुछ खेत खाली थे तो कुछ सोने की तरह चमक थे।'
यहाँ 'सोने की चमक थे' की जगह 'सोने की तरह चमक रहे थे' आएगा।
इसी तरह पेज नंबर 29 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'जगीरा एक हाथ में घोड़े की लगाम और दूसरे हाथ में तलवार की मूठ पकड़ कर किसी चिंतित राजा की तरह, जो किसी महत्वपूर्ण फैसले के बारे में विचाराधीन हो, लग रहा था।'
इस वाक्य में 'विचाराधीन' शब्द सही नहीं है। विचाराधीन का अर्थ होता है 'किसी मामले पर अभी विचार किया जाना है।' जबकि यहाँ विचार किया जा रहा है। इसलिए यहाँ 'विचाराधीन' की जगह 'विचारमग्न' आएगा।
पेज नंबर 59 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'हाँ!..एक बहादुर और विश्वसनीय ढंग से मिलकर मुझे खुशी होगी।'
यहाँ 'विश्वसनीय ढंग से मिल कर मुझे खुशी होगी' की जगह 'विश्वसनीय ठग से मिल कर मुझे खुशी होगी' आएगा।
पेज नंबर 64 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'भवन के आगे कुछ लाल सिपाही खड़े थे'
वाक्य के इस अंश का कोई मतलब नहीं निकल रहा। या तो 'लाल' शब्द को आना ही नहीं चाहिए था या फिर 'लाल' की जगह 'लाल वर्दी में' आना चाहिए था।
इसी पैराग्राफ में और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'वहीं कुछ साफ-सुथरे कपड़े पहने भारतीय एक अन्य रास्तों से अंदर जाते थे।'
अगर अन्य रास्ता सिर्फ़ एक था तो 'रास्तों' शब्द की जगह 'रास्ते' आना चाहिए था।
इससे अगले पेज याने के पेज नंबर 65 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'साहित्य भवन से किसी को बाहर आते-जाते ना देख मंगल श्री वापस चलने वाला ही था'
यहाँ मंगल के बाद 'श्री' शब्द की जगह 'भी' शब्द आना चाहिए था।
' साहित्य भवन से किसी को बाहर आते-जाते ना देख मंगल भी वापस चलने ही वाला था'
पेज नंबर 78 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..
'कुछ इंतजार के बाद उसने जादूगर के सिपाहियों ने चिल्लाते हुए कहा,'
यहाँ 'जादूगर के सिपाहियों ने चिल्लाते हुए कहा' की जगह 'जादूगर के सिपाहियों से चिल्लाते हुए कहा' आएगा।
पेज नंबर 124 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"साकेत अली के तरफ़दारों में उन्हें घिनौनी मौत दी।"
यहाँ 'तरफ़दारों में उन्हें' की जगह 'तरफ़दारों ने उन्हें' आएगा।
*निसहाय- निःसहाय
*पुस्तैनी- पुश्तैनी
*मुठ- मूठ(तलवार की)
*शीलन- सीलन
*नियत- नीयत
*मोह-पास- मोहपाश
*गधों के हुंकने- गधों के हूंकने
*पनवारी- पनवाड़ी
*रिहायसी- रिहायशी
*संघठन- संगठन
*तैस- तैश
*गिड़गिड़या- गिड़गिड़ाया
साथ ही उपन्यास में सूर्योदय और सूर्यास्त का लगभग एक पैराग्राफ़ जितना वर्णन बार बार पढ़ने से थोड़ी एकरसता का भान हुआ। जिससे बचा जाना चाहिए। साथ ही जादू के खेल के दौरान मतिभ्रम द्वारा जादूगर के खुद को एक ही समय पर कहीं और दिखाए जाने का दृश्य मुझे धूम-3 फ़िल्म से प्रेरित लगा। जादू के दृश्य में कुछ नयापन होता तो और ज़्यादा बेहतर लगता।
हालांकि यह रोचक उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी में छपे इस 163 पृष्ठीय मज़ेदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है RED GRAB BOOKS ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
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