विसर्जन- वन्दना वाजपेयी

कई बार किसी किताब को पढ़ते वक्त लगता है कि इस लेखक या लेखिका को हमने आज से पहले क्यों नहीं पढ़ा। ऐसा ही कुछ इस बार हुआ जब वंदना वाजपेयी जी का कहानी संकलन "विसर्जन" मैंनें पढ़ने के लिए उठाया। इस संकलन की भी एक अलग ही कहानी है। संयोग कुछ ऐसा बना कि 'अधिकरण प्रकाशन' के स्टाल जहाँ से मेरे दोनों कहानी संकलन आए हैं, वहीं पर वंदना जी ने अपना संकलन रखवाया। उस वक्त सरसरी तौर पर इसे देखा भी लेकिन लेने का पूर्ण रूप से मन नहीं बना पाया। 

बाद में फिर कुछ अन्य साथियों की फेसबुक पर इस किताब की समीक्षा भी आयी लेकिन उनमें भी मैंनें बस इतना ही देखा कि किताब की तारीफ़ हो रही है मगर पूरी समीक्षा को मैंनें तब भी नहीं पढ़ा और इसकी भी एक ख़ास वजह थी और वो वजह ये थी कि जो भी समीक्षा लिखता है वो किताब में बारे में इतना ज़्यादा बता देता है (एक एक कहानी का विस्तार से वर्णन) कि सारी  उत्सुकता खत्म सी होने लगती है या काफ़ी हद तक कम हो जाती है। मेरे हिसाब से समीक्षा के ज़रिए पाठक के मन में पुस्तक के प्रति उत्सुकता बढ़नी चाहिए ना कि कम होनी चाहिए। इसलिए मैंने बाद में वंदना जी से किताब का अमेज़न लिंक लिया और इसे ऑनलाइन मँगवा लिया। 

अब जब संकलन को पढ़ना शुरू किया तो पहली कहानी 'विसर्जन ' ने ऐसा मन मोह लिया कि एक एक बाद एक कर के सभी कहानियाँ लगातार पढ़ता चला गया। हर कहानी एक से बढ़कर एक। सरल..सीधी धाराप्रवाह शैली में लिखी कहानियाँ आपको बिल्कुल भी बोझिल नहीं लगती और कहीं अपने आसपास ही घटती हुई प्रतीत होती हैं। इस संकलन से पता चलता है मानवीय संवेदनाओं पर लेखिका की गहरी पकड़ है। उन्हें बखूबी पता है कि कहानी को कहाँ से और कैसे शुरू करना है और कब...कैसे...किस मोड़ पर खत्म करना है। पढ़ते वक्त हर कहानी आपके सामने चलचित्र की भांति हर दृश्य को एकदम सजीव करती हुई चलती है।

विविध विषयों को अपने में समेटे हुए इस किताब को पढ़ते वक्त किसी कहानी में आप अपने पिता के प्यार को तरस रही एक त्याग दी गयी युवती की व्यथा और फिर इस सबसे उसके उबरने की कहानी से दो चार होते हैं तो किसी कहानी में घर बाहर हर जगह अशुभ मानी जा चुकी बच्ची से उसके दुखों के साथ उसके बचपन से लेकर उसके बड़े होने तक की कहानी से रूबरू होते हैं। 

किसी कहानी में गरीबी के दंश को झेलती एक होनहार बालिका के सपनों के टूटने और फिर पुनः उठ खड़े होने के दृढ़ संकल्प को दिखाया गया है तो किसी कहानी में रिश्तों के कच्चेपन, दुःख, शक, मजबूरी को आधार बना पूरे कथाक्रम का ताना बाना रचा गया है। किसी कहानी में मासूम बच्ची के बचपन से लेकर युवती हो विधवा होने तक के सफर को अंतिम परिणति के रूप में पागलखाने तक पहुँचाया गया है। 

इस संकलन की कुछ एक कहानियाँ तो ऐसी हैं कि उन पर बिना किसी काट छाँट के कोई फ़िल्म अथवा सीरियल आराम से बनाया जा सके। उनकी कुछ कहानियाँ जो मुझे बेहद पसंद आयी, उनके नाम इस प्रकार हैं:

*विसर्जन
*पुरस्कार
*फॉरगिव मी

वैसे तो उनकी हर कहानी अपने आप अलग है  लेकिन मुझे उनकी सभी कहानियों में एक समानता भी दिखी कि सभी कहानियाँ लगभग एक जैसे सीरियस नोट वाले ट्रैक पर चलती हैं। हालांकि कुछ कहानियाँ अपने अंत में साकारात्मक हैं लेकिन उनका ट्रीटमेंट सीरियस ही है। बतौर संदर्भ यहाँ पर मैं ये कहना चाहूँगा कि एक समय था जब फिल्मस्टार दिलीप कुमार ट्रैजिडी किंग के नाम से जाने जाते थे क्योंकि उनकी हर फ़िल्म दुखभरी होती थी। उसकी वजह से दिलीप कुमार अवसाद का शिकार हो डिप्रैशन में चले गए। डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने कॉमेडी फिल्में करनी शुरू की तो चूंकि वो एक्टर अच्छे थे तो उनमें भी उन्होंने धमाल मचा दिया। इसलिए वंदना वाजपेयी जी से ये मेरा विनम्र निवेदन है कि अपनी आने वाली पुस्तकों में इस तरह की एकरसता से बचें। 

एक पाठक की हैसियत से मुझे एक आध कहानी में थोड़ी  भाषणबाजी सी होती हुई प्रतीत हुई जिससे बचा जाना चाहिए। इसके अलाबा आजकल छपने वाली लगभग हर किताब में नुक्तों की ग़लतियाँ दिखाई दे रही हैं जिन्हें दूर करने के प्रयास किए जाने चाहिए। 124 पृष्ठीय इस संग्रणीय कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है 'ए पी एन पब्लिकेशंस' ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹180/- जो कि किताब की क्वालिटी और कंटैंट को देखते हुए बिल्कुल भी ज़्यादा नहीं है। आने वाले भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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