"प्रेम नाम है मेरा..प्रेम चोपड़ा।"
इस संवाद के ज़हन में आते ही जिस अभिनेता का नाम हमारे दिलोदिमाग में आता है..वह एक घने बालों वाला..हीरो माफ़िक सुन्दर कदकाठी लिए हुए व्यक्ति का चेहरा होता है। उसके शांत..सौम्य चेहरे को देख कतई नहीं लगता कि इस व्यक्ति की दमदार नकारात्मक स्क्रीन प्रेसेंस के बल पर एक समय लड़कियाँ/ महिलाएँ छिप जाया करती थी..सामने आने से डरती थी। जी..हाँ दोस्तों...सही पहचाना आपने। मैं प्रसिद्ध खलनायक प्रेम चोपड़ा और उनकी आत्मकथा "प्रेम नाम है मेरा- प्रेम चोपड़ा" की बात कर रहा हूँ।
एक ऐसा अभिनेता जो आया तो इस मायानगरी में हीरो बनने के लिए मगर किस्मत की मार देखिए कि शुरुआती कुछ फिल्मों में हीरो बनने के बाद वह पूरी ज़िन्दगी हीरो के बजाय खलनायक/ चरित्र अभिनेता बन कर रह गया। मगर यहाँ क़ाबिल ए गौर बात ये कि जहाँ एक तरफ हमारे यहाँ फिल्मी दुनिया में हीरो की लाइफ़ दस या बारह साल से ज़्यादा नहीं होती , वहीं प्रेम चोपड़ा जी अपने हुनर..अपनी काबिलियत के बल पर फिल्मी दुनिया में पिछले पचास सालों से भी ज़्यादा समय से सक्रिय रह.. राज कर रहे हैं।
रोल इन्हें बेशक़ बड़ा-छोटा या फिर इन्हें कॉमेडी करने को मिले.. उससे इन्हें फर्क नहीं पड़ता और ये चुपचाप कोई ना कोई ऐसी पंच लाइन बोल कर निकल जाते हैं कि वो पंच लाइन..वो वाक्य हमेशा के लिए इनकी पहचान बन जाता है।
इस किताब में इन्होंने किस्सागोई शैली में अपनी आत्मकथा बयान की है जिसे कलमबद्ध करने का श्रेय उनकी बेटी रकिता नंदा को जाता है। इस आत्मकथा में इनके संघर्ष और इनकी कामयाबी के दिनों का रोचक वर्णन है कि किस तरह एक बड़े अखबार में मार्कटिंग की नौकरी, जिसमें इन्हें महीने में कम से कम 20 दिन बम्बई(मुंबई) से बाहर रहना पड़ता था, करने के साथ साथ ये फिल्मों में एक्टिंग एवं रोल पाने के लिए संघर्ष किया करते थे।
इस उपन्यास में किस्सा है उस बड़े हीरो और इनका कि किस तरह ये दोनों, दो जवान लड़कियों को फ़िल्म देखने के दौरान बीच में ही छोड़ कर इसलिए भाग गए थे कि दोनों की जेबें उस वक्त खाली थी और उन्हें रात को उन दोनों लड़कियों को डिनर कराना पड़ता।
इसमें बातें हैं उस बड़ी हिरोइन की जिसने अपनी फ़िल्म में थप्पड़ का सीन ना होने के बावजूद भी ज़बरदस्ती उस सीन को जानबूझ कर रखवाया कि उन्हें प्रेम चोपड़ा से इस बात का बदला लेना है जब बार बार प्रयत्न करने के बाद भी वह बलात्कार के एक सीन में निर्देशक के मनवांछित एक्सप्रेशन नहीं ला पा रही थी और मनवांछित भावों को पाने के लिए प्रेम चोपड़ा ने उसका हाथ कुछ ज़्यादा मरोड़ दिया था।
और भी कई रोचक किस्सों से भरपूर इस किताब में बातें हैं प्रेम चोपड़ा के साथी कलाकारों, नायकों, नायिकाओं के साथ उनके आत्मीय संबंधों का जिक्र है। इसमें जिक्र है कि किस तरह मनोज कुमार ने पहले शहीद और फिर उपकार में उन्हें लाइफ़ चेंजिंग रोल दे कर उनकी किस्मत पलट दी। साथ ही यह भी कि वह पहले अभिनेता हैं जिन्होंने कपूर खानदान की सभी पीढ़ियों के साथ किसी ना किसी रूप में काम किया है।
इसमें अधिक फिल्में एक साथ करने की वजह से उन पर लगे बैन के साथ साथ इस बात का भी जिक्र है कि किस तरह उनकी फिल्में देखते हुए उनकी फ़िल्मी छवि से पहले पहल उनके बच्चे इस हद तक डरे..सहमे एवं हैरान परेशान रहते थे कि उन्हें सच्चाई से रूबरू करवाने के लिए काफ़ी प्रयास करने पड़ते थे। अमिताभ बच्चन और प्रेम चोपड़ा जब भी लोगों के बीच एक दूसरे की तारीफ़ करते थे तो एक दूसरे के अभिनय को 'आउटस्टैंडिंग' कहते थे जो दरअसल 'रबिश' शब्द के लिए लिए उनका कोर्ड वर्ड था।
बहुत ही रोचक अंदाज़ में लिखी गयी इस किताब में कुछ तकनीकी खामियां भी मुझे दिखाई दी मसलन...
• धर्मेंद्र के साथ प्रेम चोपड़ा की फिल्मों में 'अंधा कानून' फ़िल्म का नाम दिया गया है जो ग़लत है।
• पेज नम्बर 100 में 'देशप्रेमी' फ़िल्म को देशप्रेम लिख दिया गया है।
• किताब में एक जगह दिया गया है कि प्रेम चोपड़ा बालों की हेयर क्रीम जिसका नाम ब्रिल (ब्रायल)क्रीम था की ऐड करते थे जबकि असल में उन्होंने वेसलीन हेयर क्रीम की ऐड की थी।
इनके अलावा एक कमी और दिखाई दी कि इस किताब में जब प्रेम चोपड़ा किसी एक्टर के बारे में बता रहें हैं तो उसके साथ ही तारतम्य को तोड़ते हुए उस एक्टर की प्रेम चोपड़ा के बारे में राय एक छोटे बोल्ड हैडिंग के साथ शुरू हो जाती है। अच्छा यही होता कि सभी लोगों की प्रेम चोपड़ा के प्रति राय, आखिर में एक ही साथ अलग अलग हैडिंग के साथ दी जाती। कुछ जगहों पर छोटी मोटी प्रूफ की ग़लतियों को अगर नज़रंदाज़ करें तो यह आत्मकथा रोचक एवं पठनीय है।
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