आमतौर पर हम अपने दैनिक जीवन में हर तरह के किरदारों से रूबरू होते हैं। उनमें बच्चे, बूढ़े, प्रौढ़...युवा..हर तरह के लोग शामिल होते हैं और हर किरदार अपनी तय मनोस्थिति के हिसाब से कार्य करता है। इसमें अगर नायक अपनी सौम्यता, चपलता, सज्जनता एवं चंचलता के साथ प्रस्तुत हो धमाल कर रहे होते हैं तो पूरे मनोयोग के साथ ठसकेदार तरीके से खलनायक भी अपने क्रोध, कुंठा, घृणा और लालच के साथ अपनी दमदार अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे होते हैं। ज़्यादातर देखा ये गया गया है कि बड़े चूंकि बड़े होते हैं, इसलिए हर जगह अपना बड़ा वाला बड़प्पन झाड़ते हुए अपने से छोटों को महत्त्वहीन याने के किसी काम का ना समझते हुए दरकिनार करने से नहीं चूकते।
यही स्तिथि कमोबेश हमारे साहित्य में भी दिखाई देती है। यहाँ भी बड़े अपनी भावनाओं से..अपने जज़्बातों से..अपने अरमानों से अपने पाठक को लेखक के ज़रिए समय समय पर स्तिथि परिस्थिति के अनुसार अवगत करवाते रहते हैं लेकिन बच्चों को..उनके जज़्बातों को..उनके बालमन में उठते सवालों से उत्पन्न झंझावातों को..उनकी दबी, ढकी, छिपी कोमल इच्छाओं को..उनके मन में उमड़ते कुंठाओं के छोटे बड़े बवंडर को उस तरह का महत्त्व नहीं देते जिस तरह का महत्व उनको भी कहानी या उपन्यास का महत्त्वपूर्ण पात्र होते हुए दिया जाना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में हमारे लेखकों ने काम नहीं किया है लेकिन इस तरह के विषय पर उच्च कोटि की रचनाओं को महज़ चंद बार उंगलियों के उलटफेर के साथ ही गिना जा सकता है। ऐसे में नीलिमा शर्मा जी के संपादन "लुकाछिपी" के नाम से कहानियों का एक सांझा संकलन आना..एक सुखद बयार का काम करता है। उनके इस कहानी संकलन में उन्हें वरिष्ठ तथा समकालीन रचनाकारों का भरपूर सहयोग मिला है।
इसे इस संकलन की सफलता ही कहेंगे कि इसकी कहानियों को पढ़ते वक्त हमारा मन स्वयं बच्चे की तरह हो..उसी की तरह सोचने, समझने एवं बर्ताव करने लगता है। उनकी दिक्कतें..उनकी दुविधाओं..उनकी जिज्ञासाओं को हम अपना समझ..अपने हिसाब उनका हल खोजने का प्रयास करने लगते हैं। इस कहानी संग्रह की किसी कहानी में हम बीमारियों की वजह से बचपन में ही लगभग अपाहिज हो चली बच्ची से और उसके प्रति होने वाले सामाजिक बर्ताव से रूबरू होते हैं तो किसी कहानी में लड़की होने की वजह से उसके साथ होने वाले भेदभाव और उसकी वजह से उत्पन्न कुंठाओं को वह अपनी तमाम ज़िन्दगी इस हद तक भूल नहीं पाती है कि ब्याह करने और बच्चे पैदा करने से साफ इनकार कर देती है।
किसी कहानी में हम सौजन्यता की मूरत बने अपने नज़दीकियों की वासना का शिकार होते बच्चों के दुख से व्यथित होते हैं तो किसी कहानी में हम घर बाहर के तथाकथित दकियानूसी तथा संकुचित सोच विचार वाले बुज़ुर्गों से झूझते घर के बच्चों से रूबरू होते हैं। किसी कहानी में बच्चे को मुख्य पात्र बना आस्था अनास्था का चित्रण किया गया है तो किसी कहानी में घरवालों की उपेक्षा झेल रही लड़की के विद्रोह स्वरूप घर से भाग जाने की घटना को ले कर सारा ताना बाना रचा गया है। किसी कहानी में 84 के दंगों के बाद आपस में उपजे अविश्वास को बच्चों तथा बड़ों के माध्यम से दर्शाया गया है। कहने का मतलब है कि एक ही किताब में पढ़ने वाले को अलग अलग क्लेवर की कहानियाँ मुहैया करवाई गयी हैं।
हालांकि इस संकलन में छपी कहानियों में से कुछ कहानियों को मैं पहले भी अन्य संकलनों में पढ़ चुका हूँ लेकिन यकीन मानिए, पुनर्पाठ हर बार पाठक के सामने कहानी के नए आयाम खोलता है। इसलिए समय मिलने पर पहले से पढ़ी हुई रचनाओं को फिर से पढ़ना मुझे श्रेयस्कर लगता है। इस संकलन की कुछ कहानियों ने एक पाठक की हैसियत से मुझे बेहद प्रभावित किया। जिनके नाम इस प्रकार हैं:
मुन्नी- ममता कालिया
फ्रेम से बाहर- तेजेन्द्र शर्मा
लापता पीली तितली- मनीषा कुलश्रेष्ठ
मोबीन का हवाई जहाज- प्रत्यक्षा
दुर्गा- विवेक मिश्र
डायरी, आकाश और चिड़िया- गीताश्री
खौफ़- मनीष वैद्य
गाँठें- योगिता यादव
समय से आगे- प्रतिभा कुमार
मन का कोना- नीलिमा शर्मा
हालांकि ये किताब मुझे उपहारस्वरूप मिली फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी के इस 158 पृष्ठीय कहानी संकलन में कुल 17 कहानियाँ हैं और इसे छापा है शिल्पायन बुक्स ने। इसके पेपरबैक संस्करण की कीमत ₹200/- रखी गयी है जो कहानी की विषय सामग्री और कंटैंट को देखते हुए ज़्यादा नहीं है। इस उम्दा संकलन को लाने के लिए संपादक, प्रकाशक तथा सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई के।
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