और प्राण- बन्नी रुबेन( अजीत बच्छावत- अनुवाद)

किसी भी फ़िल्म में नायक के व्यक्तित्व को उभारने में खलनायक की भूमिका का बड़ा हाथ होता है। जितना बड़ा..ताकतवर खलनायक होगा, उतनी ही उसे हराने पर..पीटने पर..नायक के लिए तालियाँ बजती हैं। खलनायक की शातिर चालों पर जब नायक नहले पे दहला मारते हुए उसे पटखनी देता है तो नायक का नाम ऊँचा और बड़ा होता जाता है। खलनायक की महत्ता दर्शाने के लिए एक चली आ रही रवायत के अनुसार फ़िल्म के शुरू में नंबरिंग दिखाते वक्त खलनायक के नाम को अलग से महत्त्व देते हुए दर्शाया जाता है जैसे कि..and Pran (और 'प्राण') या and  Amrish Puri (और अमरीश पुरी) इत्यादि।  

दोस्तों..आज मैं बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री के एक ऐसे दिग्गज अभिनेता 'प्राण' के बारे में लिखी गयी किताब एक अँग्रेज़ी किताब "And Pran" के हिंदी अनुवाद "और प्राण" के बारे में बात करने वाला हूँ जिसे प्राण साहब के एवं उनके परिचितों के साक्षात्कार तथा गहन शोध के बाद 'बन्नी रुबेन' के द्वारा लिखा गया जो कि स्वयं भी एक फिल्मी पत्रकार एवं सिनेमा के प्रचारक थे। इस किताब की भूमिका हिंदी फिल्मों के महानायक 'अमिताभ बच्चन' ने लिखा है तथा इसके सफ़ल हिंदी अनुवाद की ज़िम्मेदारी को अजीत बच्छावत ने बहुत ही बढ़िया तरीके से पूरा किया है।

 'प्राण'..जिन्हें उनके रुतबे एवं अहमियत की वजह से हमेशा 'प्राण साहब' कह कर पुकारा गया। दिखने में हीरो के माफ़िक हैंडसम..स्मार्ट और सलीकेदार होने के साथ साथ वे इस कदर विश्वसनीयता के साथ पर्दे पर खलनायक के रूप में खुद को पेश करते थे कि जहाँ एक तरफ़ खुद को सभ्य और शरीफ़ मानने वाले लोग उनसे बचने..कतराने का प्रयास करते। तो वहीं दूसरी तरफ़ अधेड़ महिलाओं से ले कर नवयौवनाएँ तक भी भय के मारे आक्रांत हो..उनके आजू बाजू से हो कर गुज़रने से भी परहेज़ करती।

इनके अभिनय की रेंज का लोहा मल्लिका के तरन्नुम 'नूरजहाँ' से ले कर राजकपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार तथा अमिताभ बच्चन और गोविंदा तक की तमाम पीढ़ी ने माना। कहने का मतलब ये कि फ़िल्म जगत के अपने लगभग 67 वर्षों के सफ़र के दौरान उनके साथ हर बड़े छोटे कलाकार ने काम किया और उन्हें..उनके अभिनय एवं मिलनसार स्वभाव को सराहा। 

इसी किताब से हमें पता चलता है कि लाहौर में चल रहे अपने फ़ोटोग्राफ़ी के व्यवसाय से 200/- रुपए महीना कमाने वाले प्राण साहब ने खुशी खुशी मात्र 50/- रुपए मासिक की तनख्वाह पर फिल्मों में काम करना मंज़ूर किया कि इससे लोग उन्हें नकारा समझने के बजाय अभिनेता और कलाकार समझने लगेंगे। हालांकि जिस वक्त उन्होंने फिल्मों में कदम रखा उस समय इस पेशे को शरीफ़ लोगों के लिए सही नहीं समझा जाता था क्योंकि फ़िल्म के लिए अभिनेत्रियों के तलाश कोठों और वैश्यालयों में की जाती थी क्योंकि पैसे के लालच में वे कैमरे के सामने हर तरह की अदाएँ दिखाने के लिए बिना किसी झिझक के तैयार हो जातीं थीं।

इसी किताब में कहीं फैशनेबल कपड़ों और निजी रखरखाव के शौकीन प्राण साहब के लाहौर में तफ़रीह के लिए निजी तांगा रखे होने की बात नज़र आती है। तो कहीं किसी अन्य संस्मरण में उनकी वाकपटुता के बल पर अदालत का जज भी, उन पर चल रहे मोटर एक्सीडेंट के विभिन्न अभियोगों में, उनसे प्रभावित हो जुर्माने की राशि कम करता दिखाई देता है।

इसी किताब के ज़रिए प्राण साहब को फिल्मों में पहला मौका देने वाले दलसुख पंचोली से जुड़े एक अन्य संस्मरण में पता चलता है कि किस तरह मात्र दस साल की एक छोटी सी बच्ची की आवाज़ में मौजूद कशिश से प्रभावित हो उन्होंने उसे पंजाबी फिल्म 'यमला जट' में प्राण के साथ एक छोटा सा रोल दिया। जो कि प्राण साहब की भी पहली फ़िल्म थी। वही छोटी लड़की बेबी 'नूरजहाँ' बाद में गायिका-नायिका बन 'पंजाब की बुलबुल' और बाद में पाकिस्तान की 'मल्लिका ए तरन्नुम- नूरजहाँ' के नाम से जानी गयी। 

इसी किताब में कहीं उनकी उर्दू के मशहूर लेखक, सआदत हसन 'मंटो' से दोस्ती के बारे में पता चलता है। तो कहीं अपनी सुरक्षा के मद्देनज़र प्राण के सदा अपने साथ उस रामपुरी चाकू के रखे होने की बात पता चलती है जिसे उन्होंने सिंगापुर के एक पब में अचानक हुए झगड़े के दौरान निकाल भी लिया था। 

इस किताब में कहीं दोस्तों..परिचितों संग उनकी पार्टीबाज़ी और पीने पिलाने के दौरों और आदतों के बारे में विस्तार से पता चलता है तो कहीं कुत्तों के प्रति उनके मन का भावुक कोना भी परिलक्षित होता दिखाई देता है। इसी किताब में कहीं देव आनंद..राजकुमार और धर्मेन्द्र से होती हुई प्रकाश मेहरा की सुपरहिट फिल्म 'ज़ंज़ीर' अमिताभ बच्चन को मिलती दिखाई देती है। जिसके बाद उस समय के संघर्षरत अमिताभ बच्चन 'एंग्री यंग मैन के नाम से रातों रात प्रसिद्ध हुए और बदलते वक्त के साथ महानायक के मुकाम तक पहुँचे।

इसी किताब में कहीं प्राण, आपातकाल के दौरान तत्कालीन इंदिरा सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ बोलते दिखाई देते हैं। तो इसी किताब में कहीं उनके समय के पाबंद होने की बात का पता चलता है कि वे किस तरह सेट पर शूटिंग के समय से दो घंटे पहले ही पहुँच अपना मेकअप वगैरह करवा के तैयार हो जाया करते थे।  इसी किताब से उनकी लोगों के हाव भाव परखने एवं चाल ढाल और लहज़े की नकल करने की काबिलियत एवं पारखी नज़र का पता चलता है कि किस तरह वे अपनी हर फिल्म..हर किरदार के साथ उनके बोलने चालने.. पान खाने अथवा सिग्रेट पीने तक के..यहाँ तक कि चाय पीने के अलग-अलग अंदाज़ की हूबहू कॉपी कर लिया करते थे। 

इसी किताब से पता चलता है कि आज के प्रसिद्ध प्रोड्यूसर डायरेक्टर रोहित शेट्टी के पिता 'शैट्टी' जो कि खुद भी हिंदी फिल्मों के फाइट मास्टर और एक्टर थे, कभी प्राण के लिए उनके डुप्लीकेट का काम किया करते थे। साथ ही प्रसिद्ध अभिनेता अजय देवगन के पिता, वीरू देवगन जो कि एक जाने माने स्टंट डायरेक्टर थे, भी कभी प्राण के लिए उनके डुप्लीकेट का काम किया करते थे। 

इस किताब में कहीं उनकी क्रिकेट, फुटबॉल और हॉकी जैसे खेलों के प्रति उनकी दीवानगी ज़ाहिर होती है। अपने एक संस्मरण में वे बताते है कि किस तरह क्रिकेट मैच देखने के लिए उन्होंने CCI की सदस्यता ली और अपने मित्र के साथ हर बार किन्हीं खास सीटों को कब्जाने के लिए वे सुबह 5 बजे ही टिकट की लाइन में लग जाया करते थे। इसी मज़ेदार किस्से में वर आगे बताते हैं कि प्रतिबंधित होने के बावजूद वे फ्लास्क में चोरी से व्हिस्की भर कर स्टेडियम के अन्दर ले जाया करते थे। 

इसी किताब से पता चलता है दक्षिण भारत में बनने वाली हिंदी फिल्मों में सबसे पहले काम करने की शुरुआत भी प्राण ने ही की थी। यही किताब किसी जगह यह सत्यापित करती नज़र आती है कि एक तरफ़ जहाँ बॉलीवुड की फिल्मों में खलनायक के किरदार सीमित आयाम लिए एक ढर्रे के इर्दगिर्द सिमटे हुए होते थे जबकि साउथ की फिल्मों के खलनायक चरित्र बहुआयामी हुआ करते थे। 

इसी किताब में आगे प्राण बताते हैं कि किस तरह अपनी भूमिकाओं में वे किरदार की मनोदशा के हिसाब से अपनी भाव भंगिमा तय किया करते थे।  इसका एक उदाहरण देते हुए वे बताते हैं कि फ़िल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' के डकैत 'राका' के अभिनय के दौरान अपने हर दृश्य में वे अपने एक कान से दूसरे कान तक तक आहिस्ता आहिस्ता उँगली फिराते रहे। जिसके द्वारा वे यह दर्शाना चाहते थे कि हर डकैत या मुज़रिम को अंततः फाँसी लगने या फिर किसी के द्वारा गला रेत कर मार दिए जाने का ख़तरा सताता रहता है। 

इसी किताब में कहीं प्राण बताते हैं कि किस तरह उन्होंने मनोज कुमार की फ़िल्म 'शहीद' के डाकू कहर सिंह वाले रोल को इसलिए ठुकरा दिया था कि रोल बहुत छोटा था और उस वक्त उनका नाम भारतीय सिनेमा के बड़े नामों में शुमार हो चुका था। बाद में मनोज कुमार के ये कहने पर कि..

 "इस रोल को मैंने सिर्फ़ आपको ज़हन में रख कर ही लिखा था। अगर आप इस रोल को नहीं करेंगे तो मैं इस रोल को ही फ़िल्म से हटा दूँगा।" 
 
अपने प्रति मनोज कुमार के इस विश्वास को देखते हुए उन्होंने अपने निर्णय पर पुनर्विचार किया और इस अविस्मरणीय रोल को पूरी शिद्दत से निभाया। 

इस फ़िल्म की रिलीज़ के बाद एक समीक्षक ने लिखा कि फ़िल्म में जेल के दृश्य वास्तविक नहीं लगे जबकि सच्चाई तो यह थी कि इस फ़िल्म में शामिल जेल के दृश्यों को किसी सेट के माध्यम से नहीं बल्कि लुधियाना की वास्तविक जेल में शूट किया गया था। 

इसी फ़िल्म से जुड़े एक रोचक संस्मरण में प्राण बताते हैं कि पहली तीन रील बनने पर उसके रश प्रिंट्स देखने के बाद एक प्रोड्यूसर ने मनोज कुमार के सामने दावा किया था कि..

"पहली बात तो तुम ये फ़िल्म पूरी नहीं कर पाओगे और अगर पूरी कर भी तो बेच नहीं पाओगे और अगर किसी तरीके से बेच भी ली तो ये फ़िल्म कभी नहीं चलेगी और यदि यह फ़िल्म चल गई तो मैं अपना नाम बदल लूँगा।"

अब इस बात का तो खैर..इतिहास गवाह है कि फ़िल्म रिलीज़ हुई तो कितनी बड़ी हिट हुई।

एक अन्य संस्मरण में उपकार फ़िल्म के हिट गीत 'कसमें वादे प्यार वफ़ा' के बारे में पता चला है कि संगीतकार कल्याण जी-आनंद जी ने प्राण की नकारात्मक भुनिकाओं से बनी इमेज से आशंकित हो..अपनी तरफ़ से भरसक प्रयास किया कि इस गीत को मनोज कुमार, अभिनेता प्राण पर फिल्माने के बजाय इसे बेशक़ बैकग्राउंड म्यूज़िक की तरह इस्तेमाल कर लें लेकिन मनोज कुमार अपने निर्णय के प्रति पूर्णतया आश्वस्त थे। यहाँ तक कि प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार ने भी प्राण के लिए ये गीत गाने से इनकार कर दिया। बाद में खैर..इस सफ़ल गीत को मन्नाडे ने गाया। 

इसी किताब में अभिनेता अशोक कुमार के साथ अपने सामंजस्य के बारे में बताते हुए प्राण बताते हैं कि 'कठपुतली' फ़िल्म से हुए घाटे से उबरने के लिए निर्माता निर्देशक ब्रज सदाना द्वारा 'विक्टोरिया नम्बर 203' फ़िल्म को आनन फानन में बिना स्क्रिप्ट के बस कलाकारों की सहमति से शुरू किया गया और फ़िल्म के सेट पर ही तुरंत प्राण और अशोक कुमार द्वारा मिल कर चुटीले संवाद लिखे गए। उनकी आपसी कैमिस्ट्री और निर्देशक की समझदारी से यह मनोरंजक फ़िल्म सुपरहिट हुई। 

इसी किताब से पता चलता है कि 'बेईमान' फ़िल्म में बेस्ट सह कलाकार की भूमिका के लिए प्राण को फिल्मफेयर अवार्ड देने की घोषणा हुई मगर उन्होंने इस अवार्ड को लेने से इसलिए इनकार कर दिया कि उसी वर्ष रिलीज़ हुई फ़िल्म 'पाकीज़ा' के संगीतकार 'ग़ुलाम मोहम्मद' को श्रेष्ठ संगीत के लिए एवं इसी फिल्म के लिए श्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार, काबिलियत होने के बावजूद 'मीना कुमारी' को नहीं बल्कि 'सीता और गीता' के लिए 'हेमा मालिनी' को दिया गया क्योंकि उस वक्त गुलाम मोहम्मद और मीना कुमारी का देहांत हो चुका था। 

ज़ंज़ीर फ़िल्म से जुड़े एक रोचक संस्मरण में प्राण बताते हैं कि निर्देशक प्रकाश मेहरा की फ़िल्म की कहानी सुनने के बाद उन्होंने पठान शेरखान के रोल को करने के लिए हामी भर दी। उन्हीं दिनों मनोज कुमार भी 'शोर' फ़िल्म बनाने की तैयारियों में जुटे थे। उन्होंने भी अपनी फिल्म 'शोर' में उन्हें ज़ंज़ीर फ़िल्म के उनके पठान वाले रोल से मिलते जुलते रोल का ऑफर दिया। जिसमें उन्हें पठान ही बनना था। दोनों फिल्मों में एक जैसा ही रोल होने की वजह से उन्हें विनम्रतापूर्वक मनोज कुमार का ऑफर ठुकराना पड़ा कि वे एक वक्त में दो फिल्मों में एक जैसे ही रोल नहीं करना चाहते थे। 

ज़ंज़ीर फ़िल्म से जुड़े एक अन्य रोचक किस्से में प्रकाश मेहरा बताते हैं कि प्राण के कहने पर वे हीरो के रोल के लिए देव आनंद से जब मिले तो उन्होंने फ़िल्म में उन पर दो तीन गाने फिल्माने की शर्त रख दी जबकि फ़िल्म में स्क्रिप्ट के हिसाब से हीरो के लिए गानों की गुंजाइश ही नहीं थी। तब देव आनंद ने उनसे उनकी कहानी खरीदने और उस अपने बैनर नवकेतन के तले..उन्हीं के निर्देशन में फ़िल्म बनाने का ऑफर भी दिया। जिसे उन्होंने आपस में हँसी मज़ाक से टाल दिया। 

इसी किताब में एक जगह प्रसिद्ध अभिनेता/निर्देशक टीनू आनंद बताते हैं कि उन्होंने बतौर निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म 'कालिया' के लिए अमिताभ बच्चन को नायक तथा कठोर जेलर की भूमिका के लिए संजीव कुमार को चुना था लेकिन किसी ग़लतफ़हमी की वजह से संजीव कुमार ने हाँ करने के बाद भी काम करने से इनकार कर दिया। अंततः यह दमदार भूमिका प्राण ने निभाई। 

इसी किताब में अगर कहीं प्राण के दयालु प्रवृति के होने के बारे में तो कही कारों के प्रति उनके गहरे शौक के बारे में पता चलता है। तो कहीं किसी अन्य जगह पर उनके एक दिन में औसतन तीन पैकेट सिग्रेट ( 20 सिग्रेट ) पीने और तम्बाकू पीने में इस्तेमाल होने वाले पाइप इकट्ठा करने के शौक का पता चलता है। रंगीन तबियत और मिज़ाज़ के प्राण साहब को विभिन्न प्रकार के बियर ग्लास इकट्ठा करने तथा सहारा ले कर चलने में इस्तेमाल होने वाली छड़ियाँ इकट्ठी करना भी बहुत पसंद था। के शौक का पता चलता है। 

ऐसे ही अनेक रोचक किस्सों से सजी इस किताब के बीच में जगह जगह विभिन्न फ़िल्मी साथियों के साथ प्राण साहब के पुराने चित्र एवं उनके द्वारा निभाए गए फिल्मी चरित्रों की पेंटिग्स, किताब की शोभा को और अधिक बढ़ाने में मददगार साबित होती हैं। 

धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी इस 510 पृष्ठीय रोचक किताब के अंतिम 40 पृष्ठ 1940 में उनके लाहौर में शुरू हुए फिल्मी सफर से लेकर 2001 तक की उनकी फ़िल्मी यात्रा को बयां करते हैं। हालांकि यह किताब अपने आरंभ से ले कर अंत तक प्रभावित करती है लेकिन बहुत सी जगहों पर एक जैसी बातें मसलन उनकी अनुशासनप्रियता ..उनकी प्रभावी एक्टिंग..अथवा किस फ़िल्म के लिए उनकी किस समीक्षक या पत्रिका ने क्या तारीफ़ की इत्यादि जैसी बातें या फिर एक फ़िल्म से जुड़े अलग अलग व्यक्तियों से संबंधित बातें बार बार अलग अलग जगहों पर आ मानों पाठक का इम्तिहान सा लेती दिखाई देती हैं। अगर समझदारी एवं विवेक से काम ले इस किताब को सही से संपादित किया जाता तो आसानी इस किताब के कम से कम 100 पृष्ठ कम कर पाठकों का थोड़ा समय और पैसा बचाया जा सकता था। 

संग्रहणीय क्वालिटी की इस मनोरंजक किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्द पॉकेट बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 375/- रुपए। अमेज़न पर फिलहाल यह डिस्काउंट के बाद मात्र 249/- रुपए में मिल रही है।

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