***राजीव तनेजा***
"गज़ब हो गया...कमाल हो गया...जनता के टूटे दिलों पर भीषण आघात हो गया"...
"क्या हो गया शर्मा जी?...आप इस कदर डरे-डरे से...सहमे-सहमे से क्यों हैँ?"...
"दरअसल...
"शहर में कहीं दंगे...कर्फ्यू वगैरा की आशंका तो नहीं?"मैँ संशकित हो घबराए स्वर में बोला...
"नहीं-नहीं!...बिलकुल नहीं"...
"तो फिर?"...
"परम पूज्य संत श्री श्री नाग नागेश्वर जी नहीं रहे"...
"क्या?"...
"जी!...
"ये तो बड़े दुख की बात है"...
"जी"...
"लेकिन कब?"...
"मरणासन्न अवस्था में तो वो कल रात 9.00 बजे के करीब ही पहुँच गए थे लेकिन प्राण उन्होंने 11.00 बजे के आस-पास त्यागे"...
"ओह!...तो क्या किसी बिमारी वगैरा की वजह से?"...
"जी नही!..अपने अंत समय तक तो वो पूरी तरह से तंदुरस्त...सकुशल एवं भले-चंगे थे और कल सुबह तो उन्होंने मेरे साथ जिम में टोट्टे ताड़ने(लड़कियाँ देखने) के अलावा थोड़ी-बहुत वर्जिश वगैरा भी की थी"..
"कहीं ऐसा तो नहीं?...कि ज़्यादा देर तक दण्ड पेलने से उनके बदन में हरारट सी पैदा हो गई हो और उसी थकान के चलते....
"नहीं-नहीं!...बिलकुल नहीं...उसके बाद उन्होंने अपने हरम में 'सौना बॉथ' भी लिया था?"...
"और 'स्टीम बॉथ'?"...
"जी!...वो भी लिया था बल्कि मैँने तो खुद ही अपने गीले तौलिए से उनका बदन पोंछा था"...
"गुड!...ये आपने बहुत ही अच्छा काम किया"...
"जी!...उनके काम मैँ नहीं आता तो और भला कौन आता?"...
"मतलब?"...
"उस दिन मैँ ही तो वो अकेला शक्स था जो सुबह से लेकर रात तक उनके साथ था"...
"पक्का?"...
"जी!...बिलकुल पक्का....यहाँ तक कि उनके अंत समय में भी मैँ उनके बगल वाले सिंहासन पे विराजमान था"..
"गुड!...फिर तो काम बन गया"...
"क्या?"...
"शर्मा जी!...आप एक काम कीजिए"...
"हुक्म करें"...
"कल के दिन घटित हुई सारी घटनाओं को आप एक बार फिर से याद कीजिए...शायद...कहीं कोई अहम सूत्र हमसे छूट रहा हो"...
"जी"...
"स्टैप बॉय स्टैप याद कीजिए पूरे वाकये को फिर से...कहीं आपसे कुछ मिस तो नहीं हो रहा है?"...
"ओ.के!...लैट मी थिंक अगेन"शर्मा जी अपने माथे पे ऊँगलियाँ फिराते हुए सोचने लगे...
"यैस्स!....यैस...यैस-यैस...याद आया...मेरे बार-बार आग्रह करने के बावजूद वो 'जकुज़ी' बॉथ लेने के लिए मना कर रहे थे"वो उछलते हुए बोले...
"वो किसलिए?"...
"पानी की तीव्र बौछारों से होने वाली गुदगुदी के डर से"..
"ऑर यू श्योर?...आपको पूरा विश्वास है?"...
"100% पक्का तो नहीं लेकिन शायद...हो भी सकता है"...
"वैसे लगभग अपने हर सतसंग में वो यही कहा करते थे कि 'जकुज़ी' में नहाने से आदमी को यथासंभव बचना चाहिए"...
"और औरतों को?"...
"उनके इतिहास के सिमटे हुए पन्नों को फिर से पलट के देखता हूँ तो पाता हूँ कि...'औरतें...ना नहाएँ'.. ऐसा फतवा तो उन्होंने अपने पूरे जीवन काल में कभी जारी नहीं किया"...
"ओह!...
"औरतों से उन्हें भरपूर प्यार जो था"...
"लेकिन आदमियों से उनकी क्या दुश्मनी थी?"...
"मतलब?"...
"आदमियों के द्वारा जकुज़ी के इस्तेमाल को वो हतोत्साहित क्यों करना चाहते थे?"..
"कल वैंकुवर से आए उनके एक परम श्रधालु भक्त ने भी उनसे यही प्रश्न पूछा था"..
"तो फिर क्या जवाब दिया उन्होंने?"..
"अपने आखिरी सतसंग में उन्होंने अपने इस अनन्य भक्त की शंका और जिज्ञासा का निवारण करते हुए इसी बात पर प्रकाश डाला था कि 'जकुज़ी' में पानी की तेज़ बौछारों की वजह से मन के संयम के टूटने की संभावना बनी रहती है...उल्टे-पुल्टे ख्यालात दिमाग के भँवर में गोते लगाने लगते हैँ"...
"जी!...ये तो है"...
"उनके इस उपदेश के बाद इतनी तालियाँ बजी...इतनी तालियाँ बजी कि मैँ ब्याँ नहीं कर सकता"...
"ओह!...तो इसका मतलब बहुत ही बढिया तरीके से उन्होंने सारी साध-संगत का मार्गदर्शन किया?"...
"जी!...लेकिन मेरे मन में उनकी फिलॉसफी या थ्योरी के प्रति कुछ शंकाए हैँ"...
"क्या?"...
"यही कि जो चीज़ महिलाओं के उत्तम हो सकती है...वो पुरुषों के लिए अति उत्तम क्यों नहीं?"...
"मतलब?"...
"मतलब कि एक ही कार्य को करने से हमें बहुत कुछ होता है...और उन निगोड़ियों को कुछ नहीं?"...
"तुम्हारी शंका निर्मूल है वत्स!...मैँ खुद...इस सब का भुक्तभोगी हूँ"...
"मतलब?"...
"इस सारे क्रिया-कलाप का तुम्हारे समक्ष खड़ा प्रत्यक्ष उदाहरण हूँ"...
"कैसे?"...
"हम मियाँ-बीवी ने जब कभी भी सावन के महीने में एक साथ 'जकुज़ी' के बॉथ को लिया....तो मैँने खुद को हमेशा परेशान और उसको सदा मस्त पाया"...
"ओह!...लेकिन कैसे?"...
"जहाँ एक तरफ बॉथटब में नहाने के बाद मेरे दिल में बरसों से कुँभकरण की नींद सोए अरमाँ रह-रह कर उठने और मचलने लगते थे..और वहीं दूसरी तरह...सारी की सारी इसी क्रिया को...सेम टू सेम...इसी तरीके से करने के बावजूद भी मेरी अपनी...खुद की बीवी...घोड़े बेच के सोने का उपक्रम सा करने लगती थी"...
"ओह!...दैट्स स्ट्रेंज..बड़ी अजीब बात है"...
"वैसे आम आदमी के नज़रिए से अगर देखा जाए तो ये 'सौना बॉथ'...ये 'स्टीम बॉथ' और ये 'जकुज़ी' वगैरा .... सब हम जैसे अमीरों के चोंचले हैँ"....
"मिडल क्लॉस या फिर लोअर मिडल क्लॉस को इन सब चीज़ों से कोई मतलब नहीं होता...कोई सरोकार नहीं होता"...
"अजी छोड़िए!...मतलब कैसे नहीं होता?...आप एक बार इन्हें किसी हैल्थ क्लब का फ्री पैकेज थमा के तो देखिए...कच्छे समेत...बॉथ टब में छलांग मार सबसे पहले इन्हें ही कूदते पाएँगे"...
"कच्छे समेत?"..
"जी हाँ!...कच्छे समेत"...
"यही तो कमी होती है इन छोटे लोगों में कि इन बेवाकूफों को इतना भी नहीं पता होता कि ऐसे स्नानघरों में निर्मल आनंद को प्राप्त करने के लिए कपड़ों का तन पे ना होना निहायत ही ज़रूरी और आवश्यक होता है"...
"वो किसलिए?"...
"वो बाधक जो बनते हैँ...रुकावट जो बनते हैँ"...
"ओह!...लेकिन मेरे ख्याल में इसमें इन बेचारों की कोई गलती नहीं होती"...
"वो कैसे?"...
"अब अगर कोई चीज़ आपको मुफ्त में मिलने लगेगी तो आप उसे लेने के लिए झपटेंगे कि नहीं?"...
"बिलकुल झपटूँगा!...ज़रूर झपटूँगा....सौ बार झपटूँगा...आदमी की फितरत ही ऐसी होती है"...
"तो फिर इन निरीह बेचारों को क्यों दोष दे रहे हैँ?"..
"लेकिन फिर लोग अमेरिका से क्यों भाग रहे हैँ?"...
"मतलब?"..
"वहाँ भी 'स्वाईन फ्लू' फ्री में मिल रहा है"...
हे...हे...हे...आप भी कमाल करते हैँ शर्मा जी"...
"मतलब?"...
"ऐसी दुखदायी घड़ी में भी आपको मज़ाक की सूझ रही है"...
"अब क्या करूँ?...मेरा तो स्वभाव ही कुछ ऐसा है"...
"लेकिन इतने बड़े संत-महात्मा के निधन पे ऐसी छिछोलेदार हरकतें हम जैसे प्रबुद्ध जनों को शोभा नहीं देती"...
"जी!...ये तो है"...
"सॉरी!....इटस मॉय मिस्टेक...आईन्दा से ऐसी गलती फिर कभी नहीं होगी"...
"लेकिन एक बात तो ज़रूर है"...
"क्या?"...
"स्नान करने के बाद स्वामी जी बहुत खुश थे"...
"ओ.के"...
"वैसे लाख बुराईयाँ सही इस तथाकथित 'सौना' और 'स्टीम बॉथ' में लेकिन उनके चक्कर में हम इनकी अच्छाईयों को नकार नहीं सकते ना?"...
"जी!...'सौना' और 'स्टीम बॉथ' वगैरा के बाद आदमी तरोताज़ा तो हो ही जाता है"...
"जी!...
"तो इसका मतलब उनकी खुशी का कारण भी यही था?"...
"नहीं!...उनकी खुशी की वजह तो कुछ और ही थी"...
"क्या?"...
"आज फिर उन्होंने लेडीज़ बॉथरूम के रौशनदान से.....
"क्या सच?"...
"जी!..बिलकुल लेकिन इस सब के बीच एक छोटी से ना-काबिलेतारीफ घटना घट गई थी उनके साथ"...
"क्या?"...
"जिस बाँस की सीढी पर चढ कर वो रौशनदान में से झाँक रहे थे...वो बीच में से ही टूट गई थी"....
"ओह!...
"टूटना तो उसकी नियति में लिखा था ही लेकिन ये नहीं पता था कि वो इतनी जल्द अपने अंत समय को प्राप्त कर लेगी"...
"ओह!...लेकिन कैसे?"..
"पुरानी हो के जो गल-सड़ चुकी थी"..
"वैसे कुल कितनी उम्र रही होगी उसकी?"...
"पिछले बारह बरस से तो मैँ खुद स्वामी जी को उस के जरिए ऊपर-नीचे होते देख रहा था लेकिन शायद मेरे ख्याल से वो इससे भी ज़्यादा पुरानी थी"...
"ऐसी दकियानूसी सोच की वजह?"...
"एक दिन अपनी मधुर वाणी में स्वामी जी खुद ही बता रहे थे कि...वो लालकिले के पीछे लगने वाले कबाड़ी बाज़ार से इसे पूरे सवा सात रुपए में...खूब मोल-भाव कर के लाए थे"...
"ओ.के"...
"उनकी यही खूबी मुझे सबसे ज़्यादा पसन्द थी"...
"कौन सी खूबी?"...
"यही कि वो कोई भी चीज़ अच्छी तरह मोल-भाव करने के बाद ही लेते थे"..
"गुड!...अच्छी आदत है ये तो"...
"जी!...उनकी बीकानेर वाली चेली भी तो एक दिन खूब इतराते हुए...पूरी संगत के सामने...मजे से बता रही थी कि...गुरू जी हर चीज़ को अच्छी तरह से ठोक-बजा के जाँचने-परखने बाद ही अपनाते हैँ...उनकी इसी खूबी के चलते तो मैँ अपना घर-बार...खेत-मकान...बच्चे...सब कुछ छोड़-छाड़ के अपने अढाई मन गहनों की पोतली के साथ इन्हीं की शरण में चली आई थी"...
"लेकिन जब उनको पता होता है कि रोज़ का चढना-उतरता है...तो सीढी बदलवा क्यों नहीं ली थी?"...
"मैँने भी कई बार उन्हें यही समझाया कि महराज!...ऊपरवाले की खूब दया है आप पर...अब तो ये कँजूसी छोड़ें लेकिन कोई मेरी सुने...तब ना?"...
"कई बार तो नींद में भी मेरा मन शंकित हो खुद से ही कह उठता था कि...समझाओ!...स्वाजी जी महराज को कि..."जो ऐश करनी है...यहीं...इसी धरती पे कर लें...ऊपर साथ कुछ नहीं जाने वाला लेकिन कोई मेरी सुने...तब ना?"...
"आपको प्यार से समझाना चाहिए था"..
"कई बार चेतावनी देते हुए समझाया भी कि किसी दिन लेने के देने पड़ जाएँगे लेकिन....
"कोई आपकी सुने...तब ना?"...
"ज्जी!...सही पहचाना"...
"तो क्या सीढी से गिरने की वजह से ही?...
"नहीं-नहीं!...इस सब में उस बेचारी को क्यों दोष दें?...उसके गिरने की वजह से तो बिलकुल नहीं"...
"तो फिर?"...
"गिरने के बाद तो वो एक झटके से ऐसे उठ गए थे कि मानो कहीं कुछ हुआ ही ना हो"..
"ओह!...लेकिन...
"हमें परेशान देख उलटा हमारा मज़ाक उड़ाते हुए खी...खी...खी...कर हँसते हुए खिसियाने लगे"...
"ओह!...उसके बाद क्या हुआ?"...
"होना क्या था?...सतसंग के लिए तो पहले से ही देर हो चुकी थी...सो!...बिना किसी और प्रकार की देरी किए वो व्याख्यान देने के लिए सतसंग भवन जा पहुँचे और हँस-हँस कर अपने भक्तोंजनों की शंकाओं का निवारण करने लगे"...
"तो फिर अचानक कैसे?"...
"अब होनी को कौन टाल सकता है तनेजा जी?"...
"यूँ समझ लें की शायद इस धरती पर समय पूरा हो गया था उनका"..
"जी"...
"मुझे तो अभी तक विश्वास नहीं हो रहा कि ऐसी महान पुण्यात्मा अब हमारे बीच नहीं रही"...
"लेकिन ऐसे बिना किसी एडवांस बुकिंग के वो अचानक लुढक कैसे गए?"...
"लुढक गए?...मतलब?"....
"वो दरअसल...
"आपके होश कहाँ गुम हैँ तनेजा जी?"...
"क्यों?...क्या हुआ?"...
"वो किसी ढलान या पठार पर से नहीं लुढके थे बल्कि बारह फुट ऊँची...ये लम्बी सीढी से गिर पड़े थे"...
"ज्जी...वही...मेरा मतलब भी वही था"...
"लेकिन आप तो कुछ और ही बात कह रहे थे कि कैसे वो लुढक गए"...
"मेरा कहने का तात्पर्य था कि अचानक उनकी मृत्यु कैसे हो गई?"...
"मौत कभी पूछ कर आती है क्या?...और फिर अचानक कहाँ?...मौत तो कई दिनों से उनके जीवन की कॉलबैल बजाए चली जा रही थी"...
"मतलब?"..
"पिछले कई दिनों से ही तो उन्हें दुबई और शारजाह से सुपॉरी किलर 'चाचा चक्रम चौधरी' चौधराहट वाले' के धमकी भरे फोन आ रहे थे कि..."बन्द कर अपना ये रोज़ का डुगडुगी बजाना"...
"डुगडुगी बजाना?"...
"जी!...डुगडुगी बजाना"...
"ये काम उन्होंने कब शुरू किया?"...
"कौन सा काम?"...
"डुगडुगी बजाने का"...
"कब से क्या?...जब से दिल्ली आए थे...तभी से डुगडुगी बजा रहे थे"...
"ओह!...लेकिन मैँने तो सुना था कि वो रोज़ाना खुद को जहरीले साँपों से कटवाते थे...कभी बाज़ू पे...तो कभी अपनी टाँग पे"...
"बाजू की बात तो झूठ है लेकिन टाँग वाली बात सच है"...
"इस महात्मायी के धन्धे में उतरने से पहले तो वो सड़कों पे अपने बन्दर के साथ मदारी का खेला दिखाया करते थे"...
"तो फिर उसे क्यों छोड़ दिया?"...
"किसे?...बन्दर को?"...
"हाँ!...उसी को"...
"मेनका के डर से"...
"मतलब?"...
"हर जगह "जानवरों के प्रति अन्याय नहीं सहेंगे...नहीं सहेंगे" .... के नारे जो नुलन्द करती फिरती थी"...
"उसी के चक्कर में रिहा करना पड़ा बन्दर को"...
"बेचारा बन्दर!...ना जाने क्या हुआ होगा उस निरीह के साथ?"....
"वोही तो!...अपना पहले आराम से खा-कमा रहा था...अब दिन-रात खाने-पीने के जुगाड़ में मारा-मार फिर रहा होगा"..
"उसका तो होना होगा...वही हुआ होगा...आप बताएँ कि उसके बाद क्या हुआ?"...
"जी!...उसके बाद जनाब...बन्दर तो चला गया था अपने रस्ते और बस डुगडुग...डुगडुग करती हुई बेचारी डुगडुगी ही अकेली रह गई थी अपने स्वामी जी के पास"...
"ओह!...
"उसके अकेलेपन को दूर करने के लिए ये जँगल से कुछ जहरीले साँप जैसे...पॉयथन...कोबरा और नाग वगैरा को पकड़ लाए...
"और उन्हीं का खेला दिखाने लगे?"...
"जी!...बिलकुल...एक से एक अनोखे खेल दिखाने लगे"...
"अनोखे?...मतलब?"...
"उनके द्वारा दिखाया जाने वाला एक मशहूर खेल था...'बीन के आगे मंत्रमुग्ध हो के नाचने वाला"...
"इसमें अनोखे वाली क्या बात है?...सभी सपेरे तो यही खेल दिखाते हैँ"...
"यही तो सबसे खास बात होती थी हमारे स्वामी जी महराज द्वारा दिखाए जाने वाले खेलों की कि वो आम होते हुए भी निहायत ही खास होते थे"...
"सब बकवास!...इस खेल तो बचपन से लेकर जवानी तक मैँ खुद कई मर्तबा देख चुका हूँ...मुझे तो इसमें कोई खास बात नज़र नहीं आई"...
"ओ.के!...तो क्या आपने कहीं देखा है कि बीन को तो नाग देवता लयबद्ध तरीके से खुद बजा रहे हों और उसकी धुन के आगे मदारी झूम-झूम कर नाच रहा हो?"..
"ओह!...दैट्स स्ट्रेंज...बड़ी अनोखी बात बताई आपने"..
"उनके सारे ही कार्य अनोखे होते थे"...
"मतलब?"...
"आपने सुना या फिर देखा होगा कि साँप आदमी को काट लेते हैँ"...
"जी"...
"लेकिन अपने स्वामी जी तो खुद कई बार साँपों को कटखने कुत्ते की तरह काटते हुए पर भर में ही चट कर जाते थे"...
"बिना पकाए हुए?"...
"जी!..बिना पकाए हुए"...
"ओह!...लेकिन ये सब कैसे?"..
"उन्होंने कभी किसी को पराया नहीं समझा ना"...
"मतलब?"...
"उनके शिष्यों के जमात में जहाँ एक तरफ पढे-लिखे और सभ्य समझे जाने वाले इनसान थे तो दूसरी तरफ निहायत ही अनपढ-गँवार और असभ्य किस्म के भी लोग भी शामिल थे"..
"मतलब?"...
"होनोलुल्लू के जँगलों आए कुछ आदिवासी भी उनके शिष्य थे"...
"ओह!...
"उनका द्वारा दिखाया जाने वाला दूसरा सबसे प्रसिद्ध खेल था...खुद को साँपों द्वारा कटवाना"...
"ओ.के"..
"यही खेल उन्हें ले डूबा"...
"वो कैसे?"...
"कुदरत का करिश्मा देखिए कि विगत बारह वर्षों में उन्होंने हज़ारों दफा खुद को एक से बढकर एक...जहरीले से जहरीले साँपों से कटवाया होगा लेकिन कभी कुछ भी नहीं हुआ लेकिन कल...
"कल क्या हुआ था?"...
"एक छोटे से साँप की ज़रा सी...प्यार भरी फुफकार नहीं झेल पाए और...
"और?"...
"एक ही झटके में राम नाम सत्य"...
"ओह!...
"लेकिन मेरा इशारा एक बार भी अगर वो समझ पाते तो उनकी जान बच सकती थी लेकिन कोई मेरी सुनें तब ना?"...
"क्या सच?"...
"जी!...बिलकुल सच"...
"लेकिन कैसे?"...
"लाख इशारे किए...लाख इशारे कि कि महराज!...साँप के आगे दायीं नहीं....बाँयी टाँग आगे कीजिए लेकिन कोई मेरी सुने..तब ना?"....
"लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है कि टाँग ..दायीं नहीं बल्कि बाँयी आगे करनी चाहिए थी?"...कोई सी भी हो...टाँग...टाँग होती है"...
"अरे वाह!..टाँग...टाँग होती है....तुमने कह दिया...और हो गया?"...
"मतलब?"...
"उनकी दायीं और बाँयी टाँग में कोई फर्क ही नहीं था?"...
"क्या फर्क था?"...
"यही कि उनकी दाँयी टाँग असली और बाँयी टाँग नकली थी"...
"क्या?"...
"जी!...लेकिन कोई मेरी सुने..तब ना?"...
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
Delhi(India)
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+919810821361
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18 comments:
राजीव भाई... बाथ टब, जकुजी ये सब सुनकर फिर मक्खन का एक किस्सा याद आ गया...
मक्खन अपने परम सखा ढक्कन से...यार मेरी मक्खनी पानी से बड़ा डरती है...
ढक्कन...भला वो कैसे...
मक्खन...अरे बाथ टब में भी सिक्योरिटी गार्ड को साथ लेकर बैठती है...
हा हा!१ क्या बात करते हैं..हम सुन तो रहे हैं. :)
बहुत ही मजेदार!!!
"परम कूज्य संत श्री श्री नाग नागेश्वर जी को हमारी तरफ़ से नर्काजलि, अब संत जी अपनी जान से गये ओर मजा हमे आ रहा है, क्या करे....
बहुत अच्छे....
आजकल के बाबा साधुओ के ढोंगीपने पर अच्छा कटाक्ष...
हा....हा...हा....इन बाबा जी को उस दिन ब्लोग्गर्स सम्मेलन में क्यों नही लाये राजीव भाई....तब तो बेचारे जिवित होंगे...जकूजी बाथ की सार्थकता आज ही पता चली..आप तो बस गज़ब लिखते हैं...और क्या समा बांध देते हैं...एक एक लाईन पढ के मजा आता है...बहुत बढिया...ये टीप बाबा जी को डेडीकेट की जाये.....
बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति रोचक पोस्ट....
वाह वाह
क्या खूब लिखा है
मजा आ गया
किस्सा भा गया
एक बात तो बताओ
ये कार्टून कहां से टीपते हो
या अपने बनाते हो
aaj bhee ek bahut achee vishay ko bahut achhee tarah se sadha hai tum ne rajeev badhayee ho
बहुत चुटीला।
आपसे एक अनुरोध है कि नेट पर रचना लंबी न हो। इससे पाठक कम आता है चीज अच्छी रहने पर भी। पहले मैभी लंबी लिखता था पर बाद मेम अनुभव हुआ।
मजेदार है जी. बाबाजी की बैंड बजायी है आपने. नहाने वाली बातें जानकारीपरक लगी!!! :D आपके वहां इतने तरह के बाथ होते हैं !!!??? कमाल है ... हमारे यहाँ तो पानी की ऐसी किल्लत रहती है की बाल्टी बाथ हो जाये वोई गनीमत.
और हाँ सुशीलजी की बात से सहमत.
BAHUT ACCHI KAHANI .. AAPKO BADAHAI
BAHUT ACCHI KAHANI .. AAPKO BADAHAI
मजेदार पोस्ट। ऐसे ही जमकर लिखते रहिए राजीव जी। आजकल समय की कमी है इसलिए आपके ब्लोग पर देर से आना हो पाता है।
बस पढ़ते गए पढ़ते गए और हंसते गए...ये कमाल जादा बड़ा हुआ... :P
जारी रहें.
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Till 25-09-09 लेखक / लेखिका के रूप में ज्वाइन [उल्टा तीर] - होने वाली एक क्रान्ति!
टांग का रांग होना
जीवन का सांग
म्यूट कर गया।
बहुत सारे जादूगर
अब यही करेंगे
अपनी नकली
टांग, हाथ आदि
फिक्स करवा कर
जादू भरेंगे।
हा हा हा हा हा हा
___हाय हाय हाय
आनन्द गया.......
हँसते हँसते जबड़े दुखने लगे हैं ..लेकिन मन तृप्त हो गया.............
अभिनन्दन गुरु !
" सहसा पानी की एक बूँद के लिए " पढ़े
प्यार की बात और भी बहुत कुछ Online.
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