***राजीव तनेजा***
"तू मायके मत जईयो...मत जईयो मेरी जान"...
"तनेजा जी!...ये सुबह-सुबह आप गुनगुनाते हुए कहाँ चले जा रहे हैँ?"...
"ससुराल"...
"अभी पिछले हफ्ते भी तो आप वहीं गए हुए थे ना?"...
"जी!...बच्चों की दो दिन की छुट्टी थी तो मैँने सोचा कि...
"सोचा कि वहीं जा के डेरा जमा लिया जाए"...
"जी"...
"वैसे कितने साल हो गए आपकी शादी को?"...
"मेरी शादी को?"...
"जी!...आपकी शादी को"...
"ओ.के!...लैट मी कैल्कुलेट"मैँ अपनी ऊँगलियों पे हिसाब लगाता हुआ सोच में डूब गया..
"यही कोई!...दस या बारह साल"...
"दस?...या फिर बारह?...ठीक-ठीक बताईए"...
"ग्यारह!...ग्यारह साल हो गए हमारी शादी को...क्यों?...क्या हुआ?"...
"इन ग्यारह सालों में भी आपको अक्ल नहीं आई?"...
"क्या मतलब?"...
"आप हर हफ्ते कोई ना कोई बहाना ले के अपनी ससुराल पहुँच जाते हैँ...कभी साली के बर्थडे के नाम पर तो कभी उनके पड़ौसी की मातमपुर्सी के नाम पर और एक बार...एक बार तो आपने हद ही कर दी थी"..
"कब?"...
"जब आप अपने साले का तलाक कराने के लिए एक हफ्ते तक वहाँ डटे रहे थे"....
"तो क्या अपनों से मिलने भी ना जाऊँ?....उनके अलावा इस भरी-पूरी दुनिया में मेरा और है ही कौन?"...
"माना तनेजा जी!...माना कि इस पूरी दुनिया में उनके अलावा आपकी किसी से बनती नहीं है लेकिन ज़रा समझिए मेरी बात को....ऐसे एक ही जगह पे बार-बार मुँह उठा के जाना ठीक नहीं"..
"गुप्ता जी!..आप बड़े हैँ...बुज़ुर्ग हैँ...इस नाते बात तो आप सही ही कह रहे हैँ लेकिन शर्म औ हया नाम की भी कोई चीज़ होती है कि नहीं?"...
"होती क्यों नहीं है?...बिलकुल होती है"...
"तो फिर जा के उन्हें अपने मुँह से कैसे कहूँ?"..
"क्या?"...
"यही कि हर महीने-दो महीने बाद वो अपना ठिकाना बदलते रहा करें?"...
"नहीं-नहीं!...मेरा ये मतलब नहीं था...मै तो बस इतना कहना चाहता था कि ऐसे बार-बार एक ही जगह जाने से इज़्ज़त कम हो जाती है"..
"अरे वाह!...ऐसे-कैसे कम हो जाती है?...आप रोज़ टॉयलेट जाते हैँ कि नहीं?"..
"तनेजा जी!...मेरी बात को हँसी-ठट्ठे में मत टालिए...किसी दिन लेने के देने पड़ गए तो फिर आप पछताएँगे"...
"मैँने आज तक उन्हें कभी कुछ दिया है जो अब दूँगा?...हमेशा लिया ही लिया है"...
"तनेजा जी!..आप सचमुच के पँजाबी हो या फिर ऐसे ही डुप्लीकेट...बस नाम के?"...
"ओए..की गल्ल करदा एँ तूँ?"...
"आपां शेर दे पुत्त...आपां मुच्छाँ-शुच्छाँ तान देयांगे"....
"क्या मतलब?"...
"पक्का पँजाबी हूँ जी...असली कट्टर वाला पँजाबी"...
"तो फिर ऐसे पँजाबी हो के आप ऐसी नासमझी भरी बात कर रहे हैँ?"..
"क्या मतलब?"...मैँ आपकी बात का मतलब नहीं समझा"...
"मेरा मंतव्य बिलकुल साफ है कि ससुराल में ज़्यादा दिन नहीं टिकना चाहिए"...
"वो किसलिए?"...
"आप ही में तो कहा करते हैँ ना कि....
सौरेयाँ घर जवाईँ...कुत्ता...अते बहन घर भाई कुत्ता(ससुराल में जमाई कुत्ते के बराबर होता है और बहन के घर में भाई कुत्ते के बराबर होता है)
"तो?"...
"तनेजा जी!..आप खुद समझदार हैँ और समझदार को तो बस इशारा ही काफी होता है"...
"मैँ कुछ समझा नहीं"...
"ससुराल में ज़्यादा दिन टिकना ठीक नहीं होता...इज़्ज़त खत्म होने लग जाती है"..
"फट्टे ना चक्क देयांगा ओहणां दे?"...
"घसियारा समझ रखा है क्या उन्होंने मुझे?"...
?...?...?...?...
"गुप्ता जी!...पहली बात तो इज़्ज़त उसी की कम होती है जिसकी कोई इज़्ज़त हो और मुझे आपको ये बताते हुए गर्व महसूस हो रहा है कि वहाँ पर तो कोई मुझे ढंग से पानी भी नहीं पूछता है"...
"इसीलिए तो मैँ भी यही कह रहा हूँ"...
"क्या?"...
"यही कि आप पढे-लिखे और समझदार इनसान हैँ...इसलिए बार-बार ना जाया करें"...
"क्यों?"...
"ठीक है!...जब मेरी नहीं सुननी है तो फिर जाओ भाड़ में...मुझे कोई मतलब नहीं"...
"अपना!...जो जी में आए...करो"...
"ओ.के"...
"मैँ तो बस इतना ही कहूँगा कि सच्चा दोस्त होने के नाते मुझे आपकी चिंता होने लगी थी"...
"लेकिन यार!...आज तो मैँ वहाँ टिकने थोड़े ही जा रहा था?"..
"तो फिर?"...
"अपनी श्रीमति जी को वापिस लाने के लिए जा रहा था"...
"तो क्या भाभी जी अपने माएके गई हुई हैँ?"....
"जी!...पिछले दो दिन से वहीं टिकी हुई है"...
"आप दो-दो दिन के लिए उसे अकेला कैसे छोड़ देते हैँ?...अपुन तो भय्यी!...साथ जाते हैँ और साथ ही वापिस आते हैँ"...
"जी!...करता तो मैँ भी ऐसे ही हूँ लेकिन इस बार क्या है?..कि वो नाराज़ हो के गई है"...
"तो आप उसे मनाने जा रहे हैँ?"...
"जी"...
"तो फिर पहले रूठने ही क्यों दिया?"...
"मैँने कहाँ रूठने दिया?"...अपने आप ही नाराज़ हो के चलती बनी"...
"लेकिन क्यों?"...
"उसे मेरा तारीफ करना पसन्द नहीं आया"...
"क्या मतलब?"...
"मैँने उसके खाने की तारीफ कर दी तो भड़क खड़ी हुई"...
"कमाल है!..मैँ अगर कभी गलती से भी अपनी बीवी की ज़रा सी तारीफ कर दूँ तो अगले चार-पाँच दिनों मेरी ऐसी खातिर करती है...ऐसी खातिर करती है कि बस पूछो मत"...
"और चार-पाँच दिनों के बाद?"...
"वापिस झाड़ू-पोंछा पकड़ा देती है"...
"ओह!...
"लेकिन आपने बताया नहीं कि आपकी बीवी क्यों चली गई?"...
"अभी बताया तो कि मेरा तारीफ करना उसे पसन्द नहीं आया"...
"क्या मतलब?"...
"कोई खास बात भी नहीं हुई थी हम दोनों के बीच..ऐसे ही बस हम रात का खाना दिन में खा रहे थे"...
"रात का खाना ...दिन में खा रहे थे?"...
"जी"...
"लेकिन कैसे?"...
"मुँह से"...
"ओफ्फो!..मेरा मतलब है कि आप रात का खाना दिन में क्यों खा रहे थे?"...
"रात को बच जो गया था"...
"ओह!...दैन इट्स ओ.के...मुझे कोई ऐतराज़ नहीं"...
"फिर क्या हुआ?"...
"खाना बहुत स्वादिष्ट बना था तो मैँने लाड़ भरी नज़रों से अपनी पत्नि की तरफ देखते हुए बड़े ही प्यार से कहा कि...
डार्लिंग!...आज जिस किसी ने भी खाना बनाया है...इतना स्वादिष्ट बनाया है...इतना स्वादिष्ट बनाया है कि जी करता है कि...अभी के अभी उसका हाथ-मुँह...कान...गाल...सब चूम लूँ"..
"गुड!...वैरी गुड...बीवियों को ऐसे ही पटाना चाहिए"...
"खाक पटाना चाहिए!...मेरी इतनी बात सुनते ही भड़क खड़ी हुई और सारे के सारे बर्तन पटक-पटक के ज़मीन पे गिराने लगी"...
"ओह!...लेकिन ऐसा उन्होंने आखिर किया क्यों?"..
"दरअसल!...क्या है कि उस दिन खाना बीवी ने नहीं बल्कि नौकरानी ने बनाया था"...
"क्या?"...
"जी"...
"तू मैके मत जईयो...मत जईयो मेरी जान"...
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
http://hansteraho.blogspot.com
+919810821361
+919213766753
18 comments:
तनेजा जी आप वाकई खुशकिस्मत हो जो खाना नौकर से बनवाया जाता है. हमारे यहाँ भी खाने की तारीफ करने से कयामत आ जाती है -- हर बार यही जवाब मिलता है खुद की तारीफ अच्छी नही होती.
चैट के दौरान प्राप्त टिप्पणी
shefaliii: हँसते रहो मत जईयो मेरी जान
तनेजा जी ...शुक्र मनाइए..सिर्फ बर्तन ही पटके गए ज़मीन पर ...वर्ना ऐसे शाइनी स्टेटमेंट पर बहुत कुछ हो सकता था ....
कहानी बहुत ही मजेदार है ...और रोचक भी
तनेजा जी,
बहुत खूब..मजेदार!!
धन्यवाद भाई बहुत सुंदर घटना बेहद मजेदार अंदाज में परोसा..बधाई
आप तो जरूर पिटोगे किसी दिन...मुझे तो लगता है आपको जरूर ही पता होगा कि उस दिन खाना भाभी ने नहीं बनाया था...तभी जानबूझ कर आप उसे स्वादिष्ट बता रहे थे....भाभी मायके चली गयीं...तो अब खाना कौन.......क्या फ़िर से स्वादिष्ट खाना खा रहे हैं...तैयार रहिये...अबकी बर्तनों के साथ साथ...पता नहीं क्या क्या चलने वाला है
ग्यारह सालों में अक्ल आई नहीं
सचमुच में नौ दो ग्यारह हो गई
@ अजय कुमार झा
पिटोगे से मतलब
रोज ही पिटते हैं
इसलिए अपने ब्लॉगों पर
हंसते रहो
हंसाते रहो
कहते हैं
ये अंदर की बात है।
बहुत सुंदर, ससुराल मे बार बार जाने का झंझट ही क्यो वही बोरी बिस्तर डाल लो अच्छा है...
वाह बहुत सुन्दर शुभकामनायें
बहुत बढिया, पढकर आनन्द आ गया।
दुर्गा पूजा एवं दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ।
( Treasurer-S. T. )
क्माल की पोस्ट दी है आपने।
उपसंहार - खाने की प्रशंसा तब तक नहीं करनी चाहिए जब तक पत्नी का खाना बनाते देखा न हो.
ई-मेल पर प्राप्त टिप्पणी
from:ramesh chandra soni
rcsoni184@gmail.com
श्री राजीव जी,
आपका व्यंग मत जईयो मेरी जान बहुत अच्छा लगा |खासकर भाषा शैली ,
एवं उसका प्रस्तुतीकरण निसंधेह तारिफेकाबिल है |
आर सी soni
बहुत अच्छे, मजा आ गया.....
क्या ऐसा सही में हुआ है आपके साथ ???
ऐसे ही (इसी लम्बाई की ) पोस्ट लिखे !!!!
ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी
from:Shrddha Jain
shrddha8@gmail.com
मैंने तो सुना था कि पति बीबी के मायके जाने का इंतज़ार करते रहते हैं
आप है कि उल्टा गाना गा रहे हैं
एक बात तो दोस्त ने सही कही
ज़यादा जाने से इज्ज़त कम हो जाती है
बहुत अच्छी कहानी
वाह तनेजा साहब लकी हैं आप
आनन्ददायी पोस्ट देर तक खुद ब खुद हंसता रहा हूं
राजीवजी, जानते हैं पत्नियां पतियों को एजी कह कर क्यों बुलाती हैं...जानना चाहते हैं क्यों...वैसे मैं अपनी अगली दूसरी पोस्ट में साफ़ कर दूंगा...आपसे अगर ये जानने के लिेए रुका न जाए तो मुझसे फोन पर पूछ लीजिएगा...
"तो फिर जा के उन्हें अपने मुँह से कैसे कहूँ?"..
"क्या?"...
"यही कि हर महीने-दो महीने बाद वो अपना ठिकाना बदलते रहा करें?"...
kya baat hai bahut mazedaar kisee late ho kamal hai
बहुत बढ़िया लगा! अत्यन्त सुंदर! विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें!
बहुत खूब। मजेदार, पसंद आई।
Post a Comment