***राजीव तनेजा***
"क्या बात तनेजा जी?...आजकल आप बड़े ढीले-ढाले से नज़र आ रहे हैँ"..
"आजकल से क्या मतलब?...मैँ तगड़ा और फुर्तीला था ही कब?...
"हे...हे...हे तनेजा जी...आप भी कमाल करते हैँ...सुबह-सुबह कोई और नहीं मिला क्या?"...
"क्यों?...क्या हुआ?"...
"आप तो मेरा ही फुद्दू खींचने लगे"...
"जी!...सच में...कसम से...मैँ तो ढूँढ-ढूँढ के थक गया...आज तो कोई मिला ही नहीं...इसीलिए तो मैँने सोचा कि...
"सोचा कि...शर्मा तो सॉफ्ट टॉरगैट है...आज इसे ही बलि का बकरा बनाया जाए?"...
"ज्जी!...जी बिलकुल...सही पहचाना आपने"...
"ओह!...दैन इट्स ओ.के...आई डोंट माईंड...कैरी ऑन"....
"थैंक्स फॉर दा सपोर्ट"...
"इसमें थैंक्स की क्या बात है?...हक बनता है आपका"..
"सो नाईस ऑफ यू...आप कितने अच्छे हैँ"...
"हाँ तो शर्मा जी!...बताईए...क्या कह रहे थे आप?"...
"मैँ तो बस यही जानना चाह रहा था कि आपको किसी किस्म की कोई दिक्कत या परेशानी तो नहीं?"...
"नहीं-नहीं!..बिलकुल नहीं लेकिन आपको ऐसा क्यों महसूस हुआ कि मैँ किसी दिक्कत या परेशानी से गुज़र रहा हूँ?"...
"इस बार ब्लॉगजगत में 'हिन्दी दिवस' के मौके पे आपकी कोई रचना नहीं दिखी ना"...
"ओह!...वो तो बस ऐसे ही...मन ही नहीं हुआ"...
"और ना ही हिन्दी से सम्बन्धित किसी पोस्ट पे आपकी कोई बेबाक टिप्पणी ही दिखी"...
"सब बकवास है...बकवास...निरी बकवास...इसके सिवा कुछ नहीं"..
"लेकिन....
"अजी!...मैँ कहता हूँ कि हिन्दी को लेकर ये पोस्टरबाजी...ये भाषणबाज़ी....ये बेकार की लफ्फाज़ी...सब कूड़ा है कूड़ा...निरा कूड़ा"..
"जी!..वो तो है"...
"और फिर तुम तो जानते ही हो कि गन्दगी से मुझे कितनी नफरत है?"...
"जी!...गन्दगी से तो मुझे भी सख्त नफरत है...इसलिए तो जहाँ कहीं भी...ज़रा सा भी कूड़ा-करकट देख लेता हूँ...तुरंत अनजान बन....आँखे फेरता हुआ... झट से पलट के दूसरी तरफ मुँह फेर लेता हूँ"...
"बस?...इतना भर करने से ही आप अपने कर्तव्य को तिलाँजली दे डालते हैँ?"...
"अजी!...इतने में बस कहाँ?...हाथ कँगन को आरसी क्या?...और पढे-लिखे को फारसी क्या?...
"मतलब?"...
"आज इसी चक्कर में तो मैँ एक दफा नहीं...दो दफा नहीं ...पूरे तीन दफा कचरे के ढेर पे लम्बलेट होते-होते बचा"...
"ओह!...लेकिन कैसे?"...
"कैसे...क्या?...बस ऐसे ही शौक-शौक में शॉक लगने वाला था"...
"ओह!...लेकिन चलो शुक्र है ऊपरवाले का कि कपड़े गन्दे होने से तो बच गए"...
"अजी!..ऐसे-कैसे बच गए?...आपने कहा और हो गया?"...
"तो क्या?....
"ये देखिए...यहाँ से...यहाँ पीछे से देखिए...मेरे ये कपड़े कीचड़ से नहीं तो क्या गुलाबजामुन की चासनी में सन के लिबलिबे हो रहे हैँ?"...
"ओह मॉय गुडनैस्स!...लेकिन कैसे?"....
"कैसे क्या?...कचरे के ढेर से बच गया लेकिन गटर में जा गिरा"...
"ओह!...
"लेकिन फिर भी मैँ शुक्र मनाता हूँ उस अल्लाह का...उस रब्ब का...उस परवरदिगार का कि उसने मुझे औंधे मुँह नहीं बल्कि पीठ के बल गिराया...नहीं तो तनेजा जी!...ये शर्मा...ये शर्मा आज आपको अपना मुँह दिखाने के काबिल नहीं होता"...
"जी"...
"लेकिन एक बात नहीं समझ में आती"...
"क्या?"...
"यही कि...ये स्साले!....'एम.सी.डी' वाले नालियों से सारी की सारी गाद निकाल के आखिर साबित क्या करना चाहते हैँ?"...
"यही कि "पधारो...म्हारे देस..यहाँ की नालियों में..और सड़कों में कोई फर्क नहीं है"...
"जी!...ये तो है...दोनों एक जैसे ही लगते हैँ"...
"मुझे तो लगता है कि इस दुनिया में 'एम.सी.डी' वालों के बाद अगर किसी को गन्दगी से सख्त नफरत है तो वो मुझे है...मेरे अलावा किसी और को नहीं है"...
"अरे वाह!...ऐसे-कैसे नहीं है?...मुझसे बड़ा....गन्दगी से नफरत करने वाला तो तुम्हें पूरे जहाँ में भी ढूँढे से भी ना मिलेगा"...
"आपने कह दिया...और मैँने मान लिया?"...
"मतलब?"...
"साबित कर के बताईए"...
"तो...यू वाँट मी टू प्रूव इट?"...
"जी!..बिलकुल"...
"ठीक है!...तो फिर सुनो"...
"जी"...
"मुझे गन्दगी से इतनी नफरत है...इतनी नफरत है कि मैँ ब्याँ नहीं कर सकता"...
"ना तनेजा जी...ना...आपके ब्याँ किए बिना मैँ नहीं मानने वाला"..
"ओ.के!...अगर सुनना ही चाहते हो तो फिर सुनो"...
"जी"..
"मुझे गन्दगी से इतनी नफरत है...इतनी नफरत है कि सालों-साल से मैँने अपने कीबोर्ड और माउस पे जमी धूल की...ये मोटी परत को इसलिए नहीं हटाया कि कौन कम्बख्त उस में धूल-धूसिरत होता फिरे?"...
"ओह!...तो फिर आप टाईप वगैरा कैसे करते हैँ?"...
"दातुन से"...
"मतलब?"...
"दातुन से ही कीबोर्ड के बटनों को टकटकाता हूँ"..
"ओह!...लेकिन दातुन से?"...
"जी!...बिलकुल"...
"लेकिन...ये इतनी सब....बेकार की मगजमारी किसलिए?"..
"मतलब?"..
"अपना...कोई और डण्डी भी तो इस्तेमाल की जा सकती है"...
"जैसे?"...
"जैसे कोई 'सरकंडा'...'कमल ककड़ी' का सूखा हुआ ठूँठ वगैरा...कुछ भी इस्तेमाल किया जा सकता है"...
"नहीं!...बिलकुल नहीं...'कमल ककड़ी का ठूँठ'...वो भी सूखा हुआ?...वो तो बिलकुल नहीं"...
"कमाल है!..बटन ही तो टकटकाने हैँ...'दातुन' हो...'ठूँठ' हो या फिर हो कोई 'सरकंडा'...क्या फर्क पड़ता है?"...
"अरे वाह!...तुमने कह दिया और हो गया?"...
"मतलब?"...
"पहली बात तो ठूँठ की कोई औकात ही नहीं है कि मैँ उसके साथ मगज़मारी करने को अपना सौभाग्य समझूँ"...
?...?...?...?...
"और आपके कहने से क्या 'दातुन' और 'सरकंडे' की सारी खूबियाँ...सारी दूरियाँ मिट गई?"...
?...?...?..?..?...
"जनाब!..कौन सी मायावी दुनिया में रहते हैँ आप?...हमारे यहाँ तो 'दातुन'...'दातुन' होता है...और 'सरकंडा'...'सरकंडा'"...
"आप उन्हें एक समान नहीं मान सकते"....
"ओ.के!...वैसे आप 'नीम' का?...या फिर 'कीकर' का?...कौन सा 'दातुन' इस्तेमाल करते हैँ?....
"ऑफकोर्स 'नीम' का...आप तो जानते ही हैँ कि 'नीम' हमारे स्वास्थ्य के लिए कितना लाभदायक है?"...
"ज्जी!..
"लेकिन क्या है कि आजकल 'नीम' की थोड़ी शार्टेज चल रही है तो ना चाहते हुए भी कभी कभार 'कीकर' से भी काम चलाना पड़ जाता है"...
"ओह!...'नीम' की तो आप बिलकुल भी चिंता ना करें...वो तो मैँ आपको ला दिया करूँगा"...
"रियली?"...
"जी!..बिलकुल...हमारी गली में 'नीम' के बहुत से गाछ हैँ"...
"ओह!...थैंक्स फॉर यूअर काईन्ड सपोर्ट"...
"इसमें थैंक्स की क्या बात है?...दोस्त ही दोस्त के काम आता है"...
"जी!...वैसे 'नीम' का इक्का-दुक्का पेड़ तो हमारी गली में भी है लेकिन मुझे उन पे चढने बहुत डर लगता है"...
"जी!...डर तो मुझे भी बहुत लगता है"...
"तो फिर आप कैसे?....
"उसकी चिंता आप बिलकुल भी ना करें...ये मेरा काम है...मैँ आपको ला के दूँगा"...
"लेकिन कैसे?"...
"अपने बाँकेलाल तिवारी जी हैँ ना...वो भला किस दिन काम आएँगे?"...
"ये बाँकेलाल तिवारी कौन?"...
"अपना पड़ौसी...और कौन?"...
"तो क्या वो..ऐसे ..आसानी से दातुन देने के लिए मान जाएँगे?"...
"वो कँजूस मक्खीचूस भला आसानी से कहाँ मान जाएगा??"...
"तो फिर?"...
"मैँने कहा ना कि मेरा काम है...आप व्यर्थ में परेशान हो के चिंता ना करें"...
"लेकिन कुछ समझ भी तो आए कि कैसे?"...
"दरअसल क्या है कि ये बाँकेलाल ना...तीसरी मँज़िल पे रहता है"...
"तो?"...
"वहीं से दातुन करता है"...
"तो?"...
"मेरी कैचमकैच की प्रैक्टिस भला किस दिन काम आएगी?"...
"ओह!...तो क्या?...
"जी!...जैसे ही उसने दातुन करने के बाद उसे नीचे फैंकना है...
"आपने झट से बन्दर की तरह कलाबाज़ी खाते हुए उसे लपक लेना है?"...
"ज्जी!...बिलकुल...आपने एकदम से सही पहचाना"...
"थैंक्स"..
"अभी मैँने कहा ना कि दोस्ती में नो थैंक्स...नो शुक्रिया"...
"ओ.के"..
"लेकिन एक शिकायत तो मुझे आपसे हमेशा रहेगी"...
"वो क्या?"...
"यही कि इस बार आपने 'हिन्दी दिवस' के मौके पे ...
"अरे!..कहा ना यार कि बस..ऐसे ही मन ही नहीं किया"...
"लेकिन हिन्दी के ब्लॉगरों में सबसे वरिष्ठ और पापुलर होने के नाते तो आपको कुछ ना कुछ तो ज़रूर लिखना चाहिए था"...
"क्यों?"....
"?...?...?...?..
"कोई जरूरी तो नहीं कि हर बार कलम घिस्सुओं की तरह मैँ ही अपने पैन की निबें घिस-घिस के तोड़ता फिरूँ?....बाकियों का भी कुछ फर्ज़ बनता है कि नहीं?"...
"ज्जी!..बनता तो है"...
"ये क्या बात हुई कि मैँ दिन-रात एक कर के कागज़ पे कागज़ काले करता फिरूँ और बाकी सभी...
हा-हा...ही-ही...हू-हू कर अपने में ही मशगूल रहें?"...
"ये तो आपके मन का वहम है तनेजा जी कि बाकी सब ब्लॉगर आराम कर रहे हैँ...वे सब भी कुछ ना कुछ तो लगातार लिख ही रहे हैँ"....
"तो लिखने दो...कौन रोकता है?..और फिर वैसे भी कौन सा अपना...खुद का..ओरिजिनल लिख रहे हैँ?... टीप ही रहे हैँ ना?"...
"लेकिन फिर ऐसे ब्लॉगरों को इत्ती ढेर सारी टिपणियाँ कैसे मिल जाती हैँ?"...
"हमारी तुम्हारी बदौलत?"...
"मतलब?"...
"हम जैसे नासमझ ब्लॉगर ही ऐसे चोरों के ब्लॉगज़ पे...कभी महिला होने के नाम पर..तो कभी 'एन.ऑर.आई बुज़ुर्ग होने के नाम पर टिपिया-टिपिया के उन्हें सर पे चढाते हुए उनका हौंसला बुलन्द करते हैँ".
"बिलकुल नहीं!...यहाँ मैँ आपसे सहमत नहीं हूँ...'एन.ऑर.आई' वाले मामले में तो बिलकुल नहीं"...
"अरे!...वो?...वो मैँने बस ऐसे ही कह दिया था"...
"इस तरह बिना सोचे समझे किसी के बारे में कुछ भी कह देना आप जैसे वरिष्ठ ब्लॉगर को शोभा नहीं देता?"...
"चलो माना कि ऐसा कहना मुझे शोभा नहीं देता लेकिन कोई बाकी के ब्लॉगरों को भी तो जा के यही शिक्षा दे ना"...
"क्यों?...क्या हुआ?"...
"आप मुझ से क्यों पूछ रहे हैँ?....उन्हीं से जा के पूछिए जिन्होंने टिप्पणी की थी"...
"किन्होंने टिप्पणी की थी?"...
"उन्होंने जो ब्लॉगर मीट में आए थे"...
"क्या टिप्पणी की थी?"...
"ये तो उन्हीं से पूछिए"...
"ओफ्फो!...क्या मुसीबत है?...आप मुझे सरल शब्दों में ये साफ-साफ बताएँ कि किन्होंने?...किस बात पर?...क्या टिप्पणी की थी?"...
"उन्होंने मेरी कविता बिना सुने....बिना समझे...उस पर टिप्पणी की थी"...
"तो?"...
"ऐसा करना उन्हें शोभा देता है?"...
"किन्हें?...'शोभा महेन्द्रु' जी को?"...
"नहीं-नहीं!...उन्हें तो सच में मेरी कविता बड़ी पसन्द आई थी"...
"तो फिर किन्हें?...मैँ कुछ समझा नहीं"...
"क्या मैँ आपको शक्ल से या फिर अक्ल से घसियारा दिखाई देता हूँ?"...
"?...?...?...?..
"या फिर किसी ऐंगल से मैँ आपको कोई जोकर...मसखरा या विदूषक दिखाई देता हूँ?"....
"ऐसे डीपली(गहराई से)तो मैँने कभी आपको ध्यान से नहीं देखा है लेकिन...यू डोंट वरी...बी हैप्पी"...
"मतलब?"...
"अभी दूध का दूध औअर पानी का पानी किए देता हूँ"...
"वो कैसे?"...
"अभी चैक किए लेता हूँ...बस दो मिनट का ही तो काम है"...
"क्या?"...
"यही कि आप कोई मसखरा या...विदूषक तो नहीं"...
"ओ.के...ओ.के...
"बस दो मिनट ही लगेंगे"...
"दो मिनट क्या?..आप तीन मिनट ले के आराम से चैक कीजिए...घर ही की तो बात है....मैँ स्टिल खड़ा हो जाता हूँ"...
"ओ.के...तो यूअर टाईम स्टार्ट्स नाओ...
9...8...7...6...5...4...3...2...1...
स्टैच्यू
{मैँ बुत बन के खड़ा हो जाता हूँ}
"हम्म!...कद भी आपका ठीकठाक है...रंग भी माशा अल्लाह खूब गोरा चिट्टा दिया है भगवान ने"....
"जी"...
"चीटिंग...चीटिंग...आप बीच में बोल पड़े"...
"ओह!...मॉय मिस्टेक...चलो आप फिर से काउंटिंग शुरू करो...मैँ फिर से स्टैच्यू बनता हूँ"...
"ध्यान रहे...बीच में बिलकुल भी हिलना-डुलना नहीं"...
"जी बिलकुल"...
"ओ.के...तो यूअर टाईम स्टार्ट्स नाओ...
9...8...7...6...5...4...3...2...1...
"स्टैच्यू"...
{मैँ फिर बुत बन के खड़ा हो जाता हूँ}
"हम्म!...स्मार्टनैस में भी ऊपरवाले की दया से कोई कमी नहीं है"...
{मैँ खुश हो के मुस्कुराने ही वाला होता हूँ कि शर्मा जी को अपनी तरफ घूरते पा कर मनमसोस कर चुप रह जाता हूँ}...
"आप तो मुझे किसी भी ऐंगल से मसखरे नहीं दिखाई दे रहे"...
"तो फिर उन नामाकूलों ने ऐसे-कैसे मेरी और मेरी रचना की तौहीन कर दी?"...
"लेकिन मैँने तो सुना था कि हर कोई उसकी तारीफ कर रहा था"...
"शर्मा जी!...आप बुरा ना मानें तो एक बात कहूँ?"...
"जी!...ज़रूर"...
"आप खुदा नहीं है"..
"मतलब?"...
"आपके सुनने से झूठ...सच नहीं हो जाता"...
"क्यों?...क्या हुआ?...सभी तो हँस-हँस के बता रहे थे कि राजीव ने ...
"यही तो दुख है शर्मा जी"...
"मतलब?"...
"शर्मा जी!..बेशक मेरे ब्लॉग का नाम 'हँसते रहो' सही ...और बेशक मेरा काम अपनी रचनाओं के जरिए अपने पाठकों को हँसाना सही लेकिन ये कोई ज़रूरी तो नहीं कि मैँ हरदम हँसी-ठट्ठे के मूड में रहूँ?"...
"नहीं बिलकुल नहीं...बन्दे का मूड हमेशा 'भैंसे' जैसा थोड़े ही रह सकता है कि हर वक्त बस रंभाते रहो...बस रंभाते रहो"...
"तो फिर उस दिन 'ब्लॉगरज़ मीट' में मेरे द्वारा एक नकारात्मक सोच वाली सीरियस कविता सुनाए जाने पर भी सबने वाह-वाह करते हुए अपनी रिपोर्ट में ये कैसे लिख दिया कि 'हँसते रहो' वाले राजीव तनेजा ने एक मज़ेदार हास्य कविता सुनाई?" ...
"ओह!..दरअसल क्या होता है कि कई बार हम लिफाफे को देख की उसके अन्दर लिखे मज़मून को भांपने की कोशिश कर लेते हैँ और वहीं गलती हो जाती है"...
"जी!...लेकिन ये कहाँ का इंसाफ है कि गलती आप लोग करें और उसे भुक्तूँ मैँ?"...
"जी!...लेकिन जैसे वाणी से निकली हुई बात को वापिस नहीं लिया जा सकता...वैसे ही आपके केस में भी अब क्या किया जा सकता है?"...
"जी!...ये तो है..मेरे ख्याल से हमें बीती बातों पे मिट्टी डालते हुए नई शुरूआत करनी चाहिए"...
"जी ज़रूर"...
"तो फिर कीजिए"...
"क्या?"...
"नई शुरूआत"..
"ज्जी!...बिलकुल...मेरे दिमाग में एक बात और आ रही थी"...
"क्या?"...
"यही कि 'एन.आर.आई' वाले मामले में तो चलो आप ऐसे ही बातों-बातों में बोल गए थे"...
"जी"...
"तो क्या महिला ब्लॉगर की बारी में भी आप मज़ाक ही कर रहे थे?"...
"नहीं!...बिलकुल नहीं...उस वक्त तो मैँ पूरा सीरियस था"...
"लेकिन एक महिला के साथ आपका ऐसा सौतेला व्यवहार...ऐसा दोगला व्यवहार किसलिए?"...
"क्योंकि वो एक महिला थी"...
"तो इसका मतलब उसकी जगह अगर कोई पुरुष होता तो आप इतना हो-हल्ला नहीं मचाते?"...
"यकीनन"..
"आप मज़ाक कर रहे हैँ ना?"..
"बिलकुल नहीं!..ना मैँ अब मज़ाक कर रहा हूँ और ना ही उस वक्त मैँ मज़ाक कर रहा था"...
"लेकिन क्यों?"...
"क्यों से क्या मतलब?...मैँ सीरियस था तो...सीरियस था"...
"लेकिन महिलाएँ तो इतनी प्यारी...इतनी भोली होती हैँ कि...
"सबकी झोली से उनका माल उठा झट से अपना बना...उस पे टिप्पणियों के रूप में वाहवाही प्राप्त कर लेती हैँ"...
"लेकिन वो इतनी प्यारी भी तो होती हैँ".....
"उनके चौखटे को क्या मुझे चाटना है जो मैँ उनके बुरे कृत्यों में साझीदार बन के उनकी तारीफ करता फिरूँ?"...
"लेकिन महिला होने के नाते...
"महिला तो मेरी बीवी भी है तो क्या हर वक्त मैँ उसकी तारीफ में गीत गुनगुनाता रहूँ?"..
"जी तनेजा जी!...ये सही कहा आपने...बीवी तो मेरी भी एक महिला ही है लेकिन मजाल है जो मैँने कभी भूले से भी उसकी तारीफ करी हो?"..
"गुड!...वैरी गुड"...
"एक्चुअली क्या है कि ज़्यादा तारीफ कर देने से उनका दिमाग चढ जाता है...कच्चा-पक्का...ताज़ा-बासा...सब खिलाने लगती हैँ कि बन्दा बेचारा तो फुल्लटू लट्टू है...जैसे मर्ज़ी नचाती फिरें...कुछ नहीं कहेगा"...
"मानी आपकी बात की बीवियों की तारीफ नहीं करनी चाहिए लेकिन परायी नार की तो...
"नहीं...बिलकुल नहीं...आज परायी हैँ तो क्या?...कल को संजोग बदलते भला कितनी देर लगती है?"...
"जी!...ये तो है"...
"कल को ना जाने ऊपरवाले ने हमारी किस्मत में कितने दुख झेलने और लिखे हों?"...
"जी!...लेकिन कोई बेचारी अगर अपना 'बबली' सा फेस लेकर हमें अपने ब्लॉग पे आने का निमंत्रण दे तो आप चाहते हैँ कि हम उसकी करुण पुकार को अनसुना कर...अनजान बनते हुए अपने फर्ज़ से आँखे मूंद लें?"..
"किसी के ब्लॉग पे जाना या ना जाना हमारा अपना पर्सनल मैटर होता है...निजी ख्याल होता है.... इसमें फर्ज़ कहाँ से आ गया?"...
"क्यों?....आपात स्तिथि में फँसी किसी महिला की मदद करना हमारा फर्ज़ नहीं है?"...
"बिलकुल है"...
"तो फिर?"...
"मतलब?"...
"आपको पता है कि चोरी करने में कितनी मेहनत लगती है...कितना बड़ा कलेजा चाहिए होता है इस सब के लिए?"...
"तो?"...
"कोई बेचारी अगर अपनी...खुद की मेहनत से...दिन-रात एक कर के पूरे मकड़जाल की धूल फांकती है और उसमें से कुछ नगीने चुन कर अपने ब्लॉग में पिरो लेती है तो इसमें भी आपको ऐतराज़ है?"...
"बिलकुल ऐतराज़ है"...
"होना तो नहीं चाहिए"...
"क्यों नहीं होना चाहिए?...हमारा-तुम्हारा लिखा कोई लँगर में मिलने वाला मुफ्त का प्रसाद नहीं है कि कोई भी ऐरा-गैरा ...नत्थू-खैरा उसे मुँह लगा चखता फिरे"...
"जी"...
"आज किसी दूसरे का माल चोरी हो रहा है...कल को हमारा भी होगा"...
"ओह!...ये बात तो मैँने सोची ही नहीं"...
"मैँ तो यही सोच रहा था कि चलो इसी बहाने हिन्दी तो फल-फूल रही है"...
"जी नहीं!...हिन्दी ऐसे नहीं फैलेगी...हिन्दी फैलेगी तो असली माल से..मौलिक माल से फैलेगी"...
"जी"...
"हमें इस सब के विरुद्ध एकजुट हो आवाज़ उठानी ही होगी"...
"जी"...
"तो फिर उठाओ"...
"क्या?"...
"अपनी आवाज़"...
"लेकिन कैसे?"...
"अर्रे!..इसमें क्या बड़ी बात है?...ज़ोर से ...हलक से ज़ोर लगाते हुए नारा बुलन्द करो कि...
"तानाशाही नहीं चलेगी...नहीं चलेगी"...
"चोरों की...मुँहज़ोरों की अब नहीं चलेगी...नहीं चलेगी"...
***राजीव तनेजा***
नोट:अपने सभी पाठकों से मेरा ये विनम्र निवेदन है कि ये सिर्फ एक व्यंग्य है...इसे अन्यथा ना लें
Rajiv Taneja
Delhi(India)
http://hansteraho.blogspot.com
+919810821361
+919213766753
14 comments:
राजीव भाई, दातुन के प्यानो पर वार से निकले इस व्यंग्य ने स्टैच्यू बना दिया है...अब स्टैच्यू से ओवर कब होना है,समझ नहीं आ रहा है...छायावाद के ज़रिए बेहतरीन उदगार...बधाई
रोचक बातचीत के द्वारा हास्य व्यंग्य प्रस्तुत करने का आपका ढंग निराला है ..!!
रोचक
बहुत ही रोचक.........
हाँ.....विषय से मैं अनजान था इसलिए भीतर तक गोटा नहीं लगा पाया लेकिन मज़ा पूरा उठाया..........
बधाई आपको इस चुटीले आलेख के लिए.........
भाई ! ये बबली वाला मामला क्या है ?
क्या आप बबलीजी यानी उर्मि चक्रवर्ती की बात कर रहे हैं.......?
मैं कुछ भांप नहीं पा रहा हूँ ...........
खैर,,,,,,,,,
अभिनन्दन !
लगे रहो भापे !
बहुत गज़ब वार्तालाप होता है आपके आलेख में |
दातुनों से कीबोर्ड टकटकाना
इससे नीम की तरह
तीखा व्यंग्य ही निकलेगा
और तीखा होगा तो
चोरी तो होगा ही
वैसे आपको तो हमेशा
हंसी ठठ्ठे के मूड में
रहना चाहिए अन्यथा
ब्लॉग का नाम बदलकर
.........
यदि आप सदा से ढीले ढाले है तो चूरू वलों पंडित स्पेशल च्यवनप्राश रोजाना दूध के साथ लें रही बात टीप्पणी की तो आपने ही इसी प्रहसन मे टिप्पणी को निरी बकवास कहा है तो मै भी नही करता साथ ही न तो आप महिला है ओर न ही एन. आर. आई. ,वार्ता के समय भाभी जी का घर न होना आपके लिये ठीक रहा वर्ना अपनी खिलाफत कैसे सहन करती मूल में साहित्य चोरो के खिलाफ कर भी क्या सकते है ? चलो एसा मान ले की यह हमारी खुशनसीबी है कि हमारे चौर भी लगते है, यह भी सम्पन्नता का ही पर्याय है
शेफाली जी से चैट के दौरान प्राप्त टिप्पणी
हँसते रहो चोरों की...मुँहज़ोरों की….नहीं चलेगी...नहीं चलेगी
आपकी चिर प्रतीक्षित पोस्ट आखिरकार आ ही गयी ....रोते तो हम भी हैं कि कोई तो हमारी पोस्ट चुरा लो ....लेकिन किसी को इस लायक लगती ही नहीं ...
बेचारी बबली जी .....गुलदस्ता का मतलब ही होता है विभिन्न बागों से लाए हुए फूल जिसमे लगे हुए हों ....गलती से एक टिप्पणी मिट गयी तो हंगामा हो गया ....
फिलहाल सारे विवाद समाप्त हो जाएं ..इसके लिए प्रार्थना ...
दातुन से की-बोर्ड पर खटका :-)
व्हाट एन आईडिया!
महिला-एन आर आई-रामपुत्र पात्रों का हंसते हुए किया गया शब्द चित्रण खूब रहा।
टिप्पणी हटाऊ बातों पर
मुझे वो फिल्मी गाना याद आ गया
... मैंने होंठों से लगाई तो ... हंगामा हो गया
यहाँ तो मॉडरेट कर डकार भी नहीं ली जाती, महिला द्वारा :-)
बी एस पाबला
hasya vaynagya dono ka achha put hai lekhan men is rachana men bhee dikh raha hai bahut khoob
्बाप रे बाप...बात से बात ..निकालना तो कोई आप से सीखे...कैसे कैसे खींचा है..कमाल है..कितनों को लपेट दिया आपने....हा....हा.....हा....मजा आ गया..
हां नीम के दातुन से हम भी अपना लैपटोप चलाने की सोच रहे हैं...जल्दी ही एक पोस्ट दातुन से लिखी जाये..
हम भी देखेंगे दातुन से टाईप करके...
हा.. हा.. हा..
मीत
राजीव भाई आपने तो हमारी दुखती रग पर हाथ रख दिया। अब ये मत सोचने लगना कि मैने भी कुछ चोरी किया है। बात यूँ है जी कि हमारी छत पर एक गमले में एक नीम का पेड था जिसने गमला तोड दिया और घरवालों ने पेड ही किसी को दे दिया। और हमारी दातुन जिससे हम टाईप करते थे वो चली गई। अब किससे टाईप करे। उसकी आद्त हो गई थी। वैसे नारा अच्छा दिया है।
bejod...vyang
haqiqat se ru-b-ru karatii
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