***राजीव तनेजा***
"हाँ!..तो शर्मा जी..आप चल रहे हैँ ना?"...
"कहाँ?"..
"हरिद्वार"...
"किसलिए?"...
"बस ऐसे ही!...एक छोटी सी ब्लॉगरज़ मीट रख रहे हैँ...अपना घूमना-फिरना भी हो जाएगा और साथ ही साथ हर की पौढी पे नहाती हुई षोडशी बालाओं को देख के कुछ साहित्य का चिंतन टाईप वगैरा हो जाएगा"
"आईडिया तो अच्छा है लेकिन इस सब के लिए इतनी दूर जाने की ज़रूरत ही क्या है?"...
"क्या मतलब?"...
"अपना यहीं पे... प्रेमबाड़ी वाली नहर पे चलते हैँ"...
"वहाँ किसलिए?"...
"वहाँ पर भी ऐसे मनोहारी एवं मनमोहक दृष्यों का आनंद लिया जा सकता है...वो भी बिना किसी प्रकार का कोई खर्चा किए"...
"याने के मुफ्त में?"...
"जी!...बिलकुल मुफ्त में"...
"लेकिन शर्मा जी!...हम तो आपको गंगा की गहराईयों में धंसा-धंसा के मारना चाहते हैँ और आप हैँ कि यहाँ चुल्लू भर पानी से ही अपने जीवन की डूबती नैय्या को पार लगाना चाहते हैँ"..
"मैँ भला क्यों डूब के मरने लगा?...डूबें मेरे दुश्मन...मैँ तो अपना एक बार में ही सीधा फाँसी पे लटक के...
"नहीं-नहीं!..शर्मा जी..आप गलत समझ रहे हैँ...मेरा ये मतलब नहीं था"...
"तो फिर क्या मतलब था?"...
"मैँ तो ये कहना चाहता था कि हम तो आपको 'पूर्णिमा' के पूरे वाले चाँद के दर्शन करवाना चाहते हैँ और आप हैँ कि उसकी एक ज़रा सी...फांक को पा कर ही संतुष्ट होने की बात कर रहे हैँ"...
"ओह!...लेकिन इस सब के लिए इतनी दूर?"....
"जी!...दूर का ही तो मज़ा है...ना किसी किस्म की कोई टैंशन...ना ही किसी और चीज़ का कोई फिक्र... अपना आराम से शांति के साथ दो पल गुज़ारने को मिलेंगे"...
"तो क्या वो भी चल रही है?"...
"कौन?"..
"आपकी काम वाली बाई"...
"नहीं-नहीं...उसको भला किसलिए ले के चलना है?...उसे तो मैँ यहीं पे....
"ओ.के!...ओ.के....लेकिन मैँ तो सीरियल वाली 'शांति' याने के 'मन्दिरा बेदी' की बात कर रहा था कि शायद वो भी आपकी ब्लॉगर मीट में शामिल हो के खुद को गौरांवित करना चाहती है"...
"शर्मा जी!...ये तो आप मेरे बाल सखा हैँ...पुराने मित्र हैँ...इसलिए मैँने आपको साथ चलने के लिए कह दिया वर्ना...
"वर्ना क्या?"...
"वर्ना हमारे ग्रुप में नॉन ब्लॉगरज़ के लिए ना ही कोई इज़्ज़त है और ना ही कोई जगह"...
"ओह!...लेकिन जब बाकी कर रहे हैँ तो ये क्यों नहीं?"...
"क्या मतलब?"...
"ये 'मन्दिरा' ब्लॉगिंग क्यों नहीं कर रही?"...
"शर्मा जी!...आपने ब्लॉगिंग को क्या हँसी-ठट्ठा समझा कि हर कोई ऐरा-गैरा ..नत्थू-खैरा इसमें हाथ आज़माने चला आए?"..
"लेकिन उस दिन तो आप ही कह रहे थे कि बहुत आसान है"...
"आसान उनके लिए है जिनके पास अपना...खुद का...'खुदा' का दिया हुआ दिमाग होता है"...
"तो क्या ये बिलकुल ही पैदल?"..
"और नहीं तो क्या?"...
"लेकिन कैसे?"...
"पागल नहीं तो और क्या है?...ऐसी-ऐसी जगह ये बावली 'टैटू' गुदवाती है कि गुरुद्वारों तक से इसके लिए फरमान जारी होने लग जाते हैँ...फतवे निकलने शुरू हो जाते हैँ"...
"ओह!...
"क्या ज़रूरत पड़ गई थी बावली त्रेड़(दरार)को ऐसी जगह पे 'टैटू' गुदवाने की?...और फिर चलो!...अगर गलती से गुदवा भी लिया तो क्या ज़रूरत थी उसे ऐसे सरेआम...पब्लिक में इस सब का ढिंढोरा पीटने की?"...
"जी!...इन लड़कियों में सबसे बड़ी कमी ही ये होती है कि इन्हें कोई बात नहीं पचती"...
"और फिर ये ब्लॉगिंग-शलॉगिंग ...तो सब हम जैसे वेल्लों का काम है और उसे तो साँस लेने तक की फुरसत नहीं"...
"लेकिन फुरसत तो अमिताभ बच्चन..आमिर खान और मनोज बाजपेयी को भी नहीं है लेकिन वो सब भी तो ब्लॉगिंग कर रहे हैँ ना?"...
"वो मर्द हैँ...चर्चा में बने रहने के लिए उन्हें इस तरह के टोटकों की ज़रूरत पड़ती रहती है"...
"लेकिन मेरे ख्याल से आदमियों के मुकाबले औरतों को चर्चा में रहने का ज़्यादा शौक होता है"...
"जी!...होता तो है"...
"तो क्या उन्हें ज़रूरत नहीं होती इस सब टोने-टोटके की?"...
"जी नहीं!...लड़कियों को खबरों में बने रहने के लिए इन सब बेकार की चीज़ों की आवश्यकता नहीं होती"...
"तो फिर लाईम लाईट में बने रहने के लिए उन्हें किस चीज़ की ज़रूरत होती है?"...
"उन्हें ज़रूरत होती है...खूबसूरत चौखटे की...मस्त चाल की...लम्बे..घने...काले सुन्दर बालों की और पुष्ट पिछवाड़ों...ऊप्स सॉरी!... विचारों की"...
"जी!..लेकिन उनकी एक सबसे महत्तवपूर्ण क्वालिटी बताना तो आप भूल ही गए"...
"कौन सी?"...
"उनके ठोस एवं उन्नत.....
"जज़्बातों की?"...
"ज्जी!...जी...बिलकुल सही पहचाना"...
"सही तो पहचानना ही था...इस सब को देखते-समझते ही तो अपनी तमाम ज़िन्दगी गुज़ार दी"...
"लेकिन जैसे महिलाओं को चर्चा में रहने के लिए इस सब की आवश्यकता होती है तो क्या हम मर्दों को पॉपुलर होने के लिए किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं होती?"...
"होती है ना"...
"किस चीज़ की?"...
"आदमियों को ज़रूरत होती है ठोस...सख्त एवं मज़बूत...
"इरादों की?"...
"जी!...बिलकुल"....
"ओ.के"...
"तो फिर आप चल रहे हैँ ना?"...
"आने-जाने का कोई इंतज़ाम?"
"जी!..है ना...यहाँ से आपको लग्ज़रियस बस में ले जाया जाएगा"....
"और वापिस रिक्शे से छोड़ा जाएगा?"...
"क्या मतलब?"...
"इतने पैसे कहाँ से लाओगे?"...
"उसकी चिंता आप ना करें...सब इंतज़ाम हो चुका है"...
"पैसों का?"...
"नहीं!...बस का"...
"कैसे?"...
"एक ट्रांसपोर्टर मित्र हैँ अपनी जान-पहचान के...
"तो?"...
"उन्हीं से रिकवैस्ट की है"...
"साथ चलने की?"...
"नहीं!...बस देने की"...
"क्या वो तैयार हो गए?"...
"नहीं!...तैयार तो वो उसी दिन होंगे ना...जिस दिन जाना है....इतनी पहले से तैयार हो के क्या करेंगे?"....
"तनेजा जी!...मैँ तो ये पूछना चाह रहा था कि वो अपनी बस देने के लिए तैयार हो गए हैँ?"...
"जी!...तेल के खर्चे पे वो अपनी बस देने को तैयार हो गए हैँ"...
"अरे वाह!...ये तो बहुत बढिया बात है लेकिन...कौन से तेल के खर्चे पर?"...
"क्या मतलब?"...
"नारियल के?...सरसों के?..या फिर अलसी के?"....
"ओह!...ये पूछना तो मैँ भूल ही गया लेकिन चिंता की कोई बात नहीं..अपना जो भी तेल सस्ता सा मिलेगा...वही बाज़ार से ला के पकड़ा देंगे"...
"क्या मतलब?"...
"एक शीशी ही तो पकड़ानी है....मँहगी हो या सस्ती...क्या फर्क पड़ता है?".."...
"लेकिन खुदा ना खास्ता अगर गलती से उन्होंने कहीं 'साण्डेह' का तेल माँग लिया तो?"...
"ओह!...ये बात तो मैँने सोची ही नहीं"...
"तो फिर सोचनी चाहिए थी...ज़्यादातर लोगों की आदत होती है कि वो पहले ऊँगली पकड़ते हैँ...बाद में पूरा का पूरा हाथ ही हज़म करने की सोचने लगते हैँ"...
"ओह!...
"भगवान ना करे...अगर कहीं उन्होंने सचमुच ही उसकी डिमांड कर दी तो रात-बिरात कहाँ-कहाँ भटकते फिरोगे?"...
"रात-बिरात क्यों?...दिन में क्यों नहीं?"...
"अरे बेवाकूफ!...ये वाला तेल ज़्यादातर रात-बिरात ही काम आता है"...
"ओह!...इस ओर तो मैँने ध्यान ही नहीं दिया"...
"तो फिर देना चाहिए था"...
"एक मिनट!..मुझे ज़रा सोचने दें"....
"क्या?"...
"शश्श!...एक मिनट...बिलकुल चुप"....
"ओ.के!...लैट मी कीप मम"..शर्मा जी अपने मुँह पर ऊँगली रख कर खड़े हो जाते हैँ...
"शर्मा जी!..मुझे लगता है कि हमें गलती लग रही है...तेल से उनका मंतव्य ज़रूर डीज़ल या फिर पैट्रोल रहा होगा"...
"तुम्हें पक्का यकीन है?"..
"जी"...
"फिर तो फिक्र की कोई बात नहीं है"...
"जी!...लेकिन एक दिक्कत है"...
"क्या?"...
"मैँ बातों ही बातों में उन्हें कह दिया कि साथ में कुछ महिला ब्लॉगरज़ भी चल रही हैँ"...
"अरे वाह!...ये तो बड़ी ही अच्छी बात है...खूब एंजॉय करेंगे फिर तो हम-तुम और आपकी वो महिला ब्लॉगरज़"...
"लेकिन यही तो मुश्किल है"...
"कैसे?"...
"अभी तक कोई तैयार नहीं हुई"...
"क्या?"शर्मा जी चौंक पड़े.....
"जी"मैँ मायूस होते हुए बोला...
"तुम एक काम करो"...
"क्या?"...
"मेरा नाम कैंसिल कर दो"...
"लेकिन क्यों?"...
"कुछ ज़रूरी काम याद आ गए हैँ...वही निबटाने हैँ"...
"वाह!...शर्मा जी...वाह...दोस्त हो तो आप जैसा...ज़रा सी मुसीबत पड़ी नहीं कि लगे दुम दबा के भागने?"..
"ऐसी कोई बात नहीं है मित्र..मुझे कुछ ज़रूरी काम...
"शर्मा जी!..काम-वाम तो बाद में भी होते रहेंगे...पूरी ज़िन्दगी पड़ी है इनके लिए"...
"लेकिन...
"गोल्डन चाँस खो रहे हैँ आप...ऐसे मौके बार-बार नहीं आते"...
"आपकी बात सही है लेकिन मुझे अपने बाकी मैटर भी तो सुलझाने हैँ...फिर कभी सही"...
"ठीक है!...जैसी आपकी मर्ज़ी लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि इस तरह बड़े-बड़े नामी साहित्यकारों/ब्लॉगरों से पर्सनली मिलने का मौका किस्मत वालों को ही मिलता है"...
"सच पूछो तो यार...मेरा मन नहीं है"...
"चलिए ना प्लीज़!...बड़ा मज़ा आएगा"...
"यार!..तुम तो लेखक टाईप के बन्दे हो...अपने काम में बिज़ी हो जाओगे...और मैँ ऐसे ही बेकार में वहाँ इधर-उधर झख मारता फिरूँगा"...
"और भी तो ब्लॉगरज़ होंगे वहाँ...आप उन्हीं के साथ...
"तुम्हारे इन छड़े-मुस्टंडों ब्लॉगरों के साथ क्या मैँ वहाँ पे गिल्ली डण्डा खेलूँगा?"...
"व्हाट ऐन आईडिया!...सर जी...व्हाट ऐन आईडिया"...
"क्या मतलब?"...
"साथ ले के चलते हैँ"...
"लड़कियों को?"...
"नहीं!...गिल्ली-डण्डे को"...
"मुझे नहीं जाना"...
"मान जाईए ना शर्मा जी!...प्लीज़"...
"नहीं!...बिलकुल नहीं...तुम्हारे बस का नहीं है लड़कियों को साथ चलने के लिए राज़ी करना और उनके बिना तो मैँ बिलकुल नहीं चलने वाला"...
"शर्मा जी!...क्यों बेकार में टैंशन मोल लेते हैँ?...अभी तो कई दिन पड़े हैँ"...
"तो?"...
"इस समस्या का कोई ना कोई हल तो निकल ही जाएगा"...
"कैसे?"...
"क्या पता किसी बावली की मति भ्रष्ट हो जाए"..
"तुम्हें पक्का यकीन है?"...
"जी"...
"तो ठीक है!...जब उम्मीद पे दुनिया कायम रह सकती है...तो मैँ क्यों नहीं?"..
"तो फिर आप चलने के लिए तैयार हैँ?"...
"जी"...
"शुक्रिया"...
"पता नहीं इन बावलियों को हम मर्दों के साथ घूमने-फिरने में इतना औक्खापन क्यों लगता है?"...
"जी!...मेरी समझ में भी ये बात बिलकुल नहीं आती है"...
"चलो एक पल के लिए मान भी लिया जाए कि कोई ना कोई तैयार हो जाएगी लेकिन कल को खुदा ना खास्ता ...बॉय चाँस...अगर कोई भी तैयार नहीं हुई...तो?"...
"इसीलिए तो आपको कांटैक्ट किया है"...
"मुझे कांटैक्ट किया है..से क्या मतलब?...मैँ कोई लड़की तो नहीं"...
"जी!...लेकिन मैँ तो ये कह रहा था कि अगर आप भाभी जी को भी साथ ले लें तो बड़ा मज़ा आएगा"...
"किसे?"...
"म्मुझे....आपको...हम सभी को"मैँ हकलाता हुआ बोला...
"तो फिर इतना घुमा-फिरा के कहने की क्या ज़रूरत थी...अपना साफ-साफ कह देना था कि हम मियाँ-बीवी...दोनों को चलना है"...
"जी"...
"ओ.के!...आज मेरी पत्नि तुम्हारे काम आ रही है तो कल को तुम्हारी पत्नि भी मेरे काम आएगी"...
"जी ज़रूर!...इसमें कहने की भला क्या बात है?"...
"इस हाथ दे और उस हाथ ले वाली पॉलिसी तो हमेशा कामयाब रहती है"...
"जी बिलकुल"...
"वैसे अगर पत्नि ना हो..तो भी चलेगा...बस सुन्दर से चौखटे वाली महिला होनी चाहिए"...
"अरे!...ये बात तुम्हें सबसे पहले बतानी चाहिए थी...मैँने कल ही तो 'स्वीटी' को चार दिनों के लिए गुप्ता के साथ शिमला भेजा है"..
"ओह!...तो फिर कैसे?"...
"लेकिन चिंता की कोई बात नहीं...ऑन दा स्पॉट सैटिंग करने में बस...थोड़ा सा खर्चा ज़्यादा आ जाता है"....
"ओह!...मनी नो प्राबल्म...उसकी तरफ से तो आप बेचिंत हो जाईए लेकिन बस...पीस एकदम लेटेस्ट एवं सॉलिड क्वालिटी का होना चाहिए...मुझे और कुछ नहीं चाहिए"...
"कभी आपने मुझे किसी को गलत माल सप्लाई करते देखा है?"...
"जी नहीं!...लेकिन दिन जायसवाल जी बता रहे थे कि...
"वो?...वो स्साला!...कँजूस मक्खीचूस...वो क्या बताएगा?...उसकी कहानी तो मैँ बताता हूँ...अभी भी मेरा बारह सौ पच्चीस रुपया बकाया है उस पर और...बात करता है?"...
"क्या सच?"...
"और नहीं तो क्या?...आप कहो तो अभी के अभी बहीखाता ला के सारी की सारी ऐंट्रीयाँ चैक करा दूँ?"...
"नहीं-नहीं!...इसकी कोई ज़रूरत नहीं...आप भला क्यों झूठ बोलने लगे?"...
"मैँ तो बस यही चाहता हूँ कि हमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए"...
"उसकी ओर से तो मेरे होते हुए आप कोई चिंता ही ना करो जी...अपना अभी पिंकी को फोन किए देता हूँ"....
"तो फिर किसी और से मैँ कोई बात ना करूँ?"...
"ज़रूरत ही नहीं है जी...वैसे!...आप करना चाहो तो बेशक लाख ट्राई करो"...
"मुझसे बढिया..और मुझ से सस्ता ...कोई और सप्लाई कर दे?"....
"सवाल ही नहीं पैदा होता"...
"ओ.के!...तो फिर डील पक्की"...
"101 %"...
"थैंक्स फॉर दा सपोर्ट"..
"इसमें थैंक्स की क्या बात है?...दोस्त ही दोस्त के काम आता है"...
"बस आपको एक चीज़ का ध्यान रखना है"...
"किस चीज़ का?"...
"यही कि किसी को ये पता नहीं लगना चाहिए कि वो मेरी बीवी नहीं बल्कि प्रोफैशनल है"..
"वो किसलिए?"...
"क्या तनेजा जी!...मेरी भी कोई इज़्ज़त है कि नहीं?"...
"ज्जी!...जी बिलकुल है"...
"है क्यों नहीं?...बहुत है"..
"बस सबको यही लगना चाहिए कि ये मेरी पत्नि है"...
"आप चिंता ना करें...पत्नि साबित करना तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है"...
"कैसे?"...
"उसे किसी बात पे आपके खिलाफ भड़का दूँगा"...
"तो?"...
"वो बात-बात में आपसे लड़ती-भिड़ती रहेगी तो सब समझेंगे कि...
"व्हाट ऐन आईडिया सर जी!....व्हाट ऐन आईडिया"...
"लेकिन एक बात समझ नहीं आ रही"...
"क्या?"...
"लड़कियाँ तो मैँ आपको...जितनी कहें...जैसी कहें...यहीं...दिल्ली में ही उपलब्ध करवा सकता हूँ...वो भी वाजिब दामों पर"...
"अरे!...उनकी तो मुझे खुद भी कोई कमी नहीं है...एक को मैसेज करूँ तो दस दौड़ी चली आती हैँ"...
"एक को मैसेज करूँ तो दस दौड़ी चली आती हैँ?...मैँ कुछ समझा नहीं"...
"दरअसल क्या है?...कि बॉय डिफाल्ट...मैँने अपनी सभी माशूकाओं के नम्बरों को एक ही फोन ग्रुप में सेव किया हुआ है"...
"तो?"...
"एक को मैसेज करूँ तो सभी के पास मैसेज पहुँच जाता है"...
"ओह!...फिर तो बड़ी ही क्रिटिकल सिचुएशन पैदा हो जाती होगी?"...
"जी!...दो-चार बार तो मैँ पिटते-पिटते बचा"...
"और बाकी बार?"...
"ऐज़ यूयुअल!...खूब धुनाई हुई"...
"ओह!...
"अब तो बस सबक ले लिया है"...
"क्या?"..
"यही कि इन लड़कियों से किसी किस्म का कोई कनैक्शन ही नहीं रखना है"...
"जब किसी किस्म का कोई कनैक्शन ही नहीं रखना है तो फिर आप ये हरिद्वार का प्रोग्राम किसलिए रख रहे हैँ?"...
"हिन्दी के उत्थान के लिए"...
"क्या मतलब?"..
"हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है"...
"तो?"..
"इसके उत्थान के लिए हम जैसे स्वयंसेवकों को ही आगे आना होगा"...
"इसके लिए तो सरकार है ना?...और सुना है कि करोड़ों खर्च कर रही है हर साल"...
"खर्च तो हम सब ब्लॉगर भी कर रहे हैँ अपने पल्ले से"...
"हिन्दी के उत्थान के लिए?"..
"जी"...
"कैसे?"...
"ये जो पूरा-पूरा दिन हमारा कम्प्यूटर ऑन रहता है"...
"तो?"...
"उसका बिजली का बिल भी तो हमीं भरते हैँ"...
"उससे क्या होता है?...नैट पे तो आप चैटिंग से लेकर डाउनलोडिंग वगैरा भी तो करते हैँ"...
"वो भी हिन्दी के उत्थान के लिए"...
"कैसे?"...
"चैटिंग भी तो हम हिन्दी में ही करते हैँ और फिल्में भी ज़्यादातर हिन्दी की ही डाउनलोड करते हैँ"...
"फिल्में डाउनलोड करते हैँ आप अपनी ...अपने यार-दोस्तों...अपने बीवी-बच्चों की खुशी के लिए....अपने पैसे बचाने के लिए"...
"तो कौन सा बुरा करते हैँ?...अनलिमिटेड नैट कनैक्शन के पैसे भी तो भरते हैँ"...
"तो?"...
"और फिर बाज़ार में फिल्म की 'सी.डी' या 'डी.वी.डी आखिर मिलती ही कितने की है?...बीस या तीस रुपए की ना?"...
"तो?"...
"उससे से ज़्यादा का तो हम बिजली का बिल ही भर देते हैँ उन्हें डाउनलोड करने के लिए...और दिन-रात कम्प्यूटर ऑन रहने से जो उसमें टूट-फूट होती है...उसका नुकसान अलग से सहते हैँ"...
"बस!...हो गया हो तो मैँ कुछ कहूँ?"...
"जी नही!..इतने में ही बस कैसे हो गया...मैँ खुद...अकेला...हिन्दी के उत्थान के लिए हर महीने कम से कम बीस हज़ार रुपए खर्च करता हूँ?"...
"ब्बीस हज़ार?...अपने पल्ले से?...आप खुद?"...
"जी!...जी हाँ..अपने पल्ले से..और मैँ अकेला ही क्यों?...पूरा हिन्दी ब्लॉगजगत हर महीने लाखों रुपए फूंक रहा है हिन्दी के विकास के लिए...वो भी सरकार द्वारा खर्च किए जा रहे रुपयों से अल्हदा"...
"क्या मतलब?"...
"ये तो आप जानते ही हैँ कि मेरा रैडीमेड दरवाज़ों का बिज़नस है"..
"जी"...
"तो आप बताईए कि हर महीने मैँ अन्दाज़न कितना कमा लेता होऊँगा?"...
"मुझे क्या पता?...कि आप अपने ग्राहकों की सेवा करते हैँ या फिर उनकी खाल उतारते हैँ?"...
"फिर भी!...कुछ तो अन्दाज़ा होगा"...
"आपके खर्चों को देखते हुए तो यही लगता है कि आप पच्चीस से तीस हज़ार के बीच हर महीने अवश्य ही कमाते होंगे"...
"सही जवाब!..आपको तो ये दल्लागिरी छोड़ कर इनकम टैक्स विभाग में होना चाहिए"...
"हे...हे...हे... क्यों शर्मिन्दा करते हैँ?...क्यों शर्मिन्दा करते हैँ?...तनेजा जी"...
"इनकम टैक्स विभाग में जा के मैँ भला क्या करूँगा?...उससे बढिया तो मैँ यहीं...अपने इसी धन्धे में हूँ"...
"क्या मतलब?"...
"बन्दे को जीने के लिए क्या चाहिए?"...
"क्या चाहिए?"...
"दो वक्त की रोटी...सर पे छत और तन ढकने के लिए कपड़ा...बस!...यही ना?"...
"जी!...लेकिन...
"यहाँ मैँ खुद अपनी मर्ज़ी का मालिक बन जी रहा हूँ..ना किसी की 'जी हजूरी' का कोई चक्कर और ना ही विजिलैंस वालों के लपेटे में आ जाने का कोई अन्देशा"...
"इससे ज़्यादा किसी नेक इनसान को और क्या चाहिए?"...
"जी"...
"और फिर इनकम टैक्स वाले भी तो अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए मेरे ही शरण में आते हैँ"...
"क्या?"...
"जी!..और कहाँ जाएँगे बेचारे?...और फिर हिन्दू होने के नाते शरणागत की सेवा करना...रक्षा करना तो अपना धर्म हे...कर्तव्य है"...
"जी"...
"लेकिन तनेजा जी!...आप ब्लॉगर लोग हर महीने हिन्दी के विकास के लिए अपना पर्सनल...खुद का पैसा कैसे खर्च कर रहे हैँ?...ये समझ में नहीं आया"...
"जैसा कि मैँने आपको पहले बताया कि हर महीने मैँ यही कोई पच्चीस से तीस हज़ार रुपए कमाता हूँ"...
"जी"...
"और औसतन हर ब्लॉगर भी कम से कम इतना तो कमाता ही होगा"...
"जी!...महँगाई का ज़माना है...इससे कम में तो किसी का क्या गुज़ारा होता होगा?"...
"जी"...
"तो आपके हिसाब से आप ब्लॉगर लोग हर महीने लगभग बीस से पच्चीस हज़ार हिन्दी के विकास के नाम पर खर्च कर देते हैँ?"...
"जी"...
"और रोटी गुरूद्वारे के लँगर से छकते हैँ?"...
"क्या मतलब?"...
"अभी आपने बताया कि आप पच्चीस से तीस हज़ार के बीच हर महीने कमाते हैँ"...
"जी"...
"उसमें से आप बीस हज़ार हर महीने हिन्दी के नाम पे फूंक डालते हैँ?"...
"नही!...उसमें से नहीं...उससे अल्हदा"...
"तो क्या ओवरटाईम वगैरा?"...
"यही समझ लीजिए"...
"कैसे?"...
"मैँ एक दिन में औसतन पाँच या फिर छै घंटे तक ब्लॉगिंग करता हूँ और इस वक्त को मैँ दूसरों के लिखे को पढने में और अपने लिखे को व्यक्त करने में बिताता हूँ".....
"तो?"...
"अगर यही वक्त मैँ अपने काम-धन्धे को फैलाने के लिए...उसे और बढाने के लिए खर्च करूँ तो क्या मैँ कुछ ज़्यादा पैसा नहीं कमा पाऊँगा?"...
"जी!...बिलकुल कमा पाएँगे"...
"तो बस!...ब्लॉगिंग कर के एक तरह से मैँ अपने उस अ-कमाए पैसे को हिन्दी के उत्थान के लिए खर्च कर रहा हूँ कि नहीं?"...
"जी!...कर तो रहे हैँ लेकिन....
"लेकिन क्या?"...
"सभी आप जैसे कर्मठ थोड़े ही हैँ?"...
"क्या मतलब?"...
"आप तो चलो...मान लिया कि बिज़नस वाले हैँ..एक्स्ट्रा काम करेंगे तो ज़्यादा पैसे कमा लेंगे लेकिन सभी ब्लॉगरज़ थोड़े ही बिज़नस वाले हैँ"...
"तो?"...
"कई सरकारी नौकरी वाले भी तो होंगे"....
"कई क्या?...बहुत हैँ"...
"और वो अपने सरकारी टाईम पे ब्लॉगिंग से लेकर चैटिंग जैसे नेक काम करते रहते हैँ"...
"जी!...करते हैँ"..
"तो वो कैसे अपना पैसा?...हिन्दी के नाम पे...
"ये आपने बहुत ही सही और इंटैलीजैंट सवाल पूछा"...
"जी"...
"वो ब्लॉगिंग और चैटिंग जैसे कामों में बिज़ी रहते हैँ तो यकीनन उन्हें ऊपर की कमाई तो नहीं ही हो पाती होगी...या फिर बहुत ही कम हो पाती होगी"...
"जी"...
"तो एक तरह से वो भी अपना अ-कमाया पैसा हिन्दी के नाम पर फनाह कर रहे हैँ"...
"जी!...ये तो है लेकिन आप सभी ब्लॉगरों को जो सरकारी या फिर प्राईवेट नौकरी कर रहे हैँ...को एक ही फीते से कैसे नाप सकते हैँ?"...
"क्या मतलब?"...
"सभी थोड़े ही रिश्वत लेते हैँ"...
"जी"...
"तो फिर ईमानदार ब्लॉगर कैसे हिन्दी की सेवा कर पाते हैँ?"...
"उनके लिए तो सरकार सबसिडी देती है ना"..
"क्या मतलब?"..
"उन्हें बिना काम किए की तनख्वाह देती है कि नहीं?"...
"जी!...देती तो है"...
"तो वही तनख्वाह इन-डाईरैक्ट वे में हिन्दी के उत्थान के लिए खर्च कर दी जाती है"...
"ओह!...लेकिन जब हिन्दी के उत्थान के नाम पे हर महीने आप लोगों का लाखों रुपया बरबाद हो रहा है तो आप इस घाटे को पूरा करने की सोचते क्यों नहीं?"...
"सोचते हैँ ना"...
"कैसे?"...
"तभी तो ये हरिद्वार जाने का प्रोग्राम बनाया है"...
"क्या मतलब?"...
"फी ब्लॉगर पंद्रह सौ रुपए की टिकट रखी है"...
"और खर्चा?"...
"कुछ भी नहीं"...
"मतलब?"...
"आने-जाने के लिए तो बस का इंतज़ाम हो ही गया है"...
"जी!...लेकिन वहाँ रहने का...खाने-पीने का खर्चा वगैरा...वो सब कैसे?".....
"एक बँगले के चौकीदार से सैटिंग हो गई है...दो हज़ार रुपए लेगा...तीन दिनों के लिए"...
"बँगले का कोई मालिक वगैरा?"...
"है ना!...फिनलैंड में रहता है...अपना दो-चार साल में एक-आध बार आता है गंगा नदी में गोते लगाने के लिए"...
"गुड!...वैरी गुड"...
"और खाना?"...
"उसके लिए तो आए दिन हरिद्वार में भंडारे वगैरा तो लगते ही रहते हैँ"...
"व्हाट ऐन आईडिया सर जी...व्हाट ऐन आईडिया"...
***राजीव तनेजा***
नोट:ये कहानी पूर्णत्या काल्पनिक है
Rajiv Taneja
Delhi(India)
rajivtaneja2004@gmail.com
rajiv.taneja2004@yahoo.com
http://hansteraho.blogspot.com
14 comments:
राजीव भाई, ब्लॉगर्स मीट में मंदिरा को ला रहे हैं, तो अपने दूसरे सारे प्रोग्राम आज से ही कैंसिल...पहले मंदिरा दर्शन, फिर किसी दूसरे काम का अर्पण, बस पत्नीश्री की ऐ जी सुनने से डर रहा हूं...ऐ जी क्या...जानना चाहते हैं, मेरी आज की पोस्ट के स्लॉग ओवर में है...
ऐसा है क्या....मुझे तो सोचने को मजबूर कर दिया आपने. :)
राजीवजी आप बहुत अच्छा लिखते हैं, पर क्या ये द्विअर्थी संवाद जरूरी है।
ई-मेल द्वारा प्राप्त टिप्पणी :
from:प्रदीप श्रीवास्तव sri_pradeepin@indiatimes.com
आप ने समाज पर करार तमाचा
अपनी लेखनी के माध्यम से दिया
है.एक -एक लाइन चोट करती हैं.
बधाई,बहुत-बहुत बधाई.
इस सुन्दर रचना के लिए .
प्रदीप श्रीवास्तव
निजामाबाद
ई-मेल द्वारा प्राप्त टिप्पणी:
from:ashok khatri khatri
ashok.khatri56@gmail.com
subject what an idea
namaskar vaSTAV MAI SAMAJ KE UPAR KARARA VYANG KIYA HAI AAPNE. HARIDWAR HO AUR KOI ISTHAN LOGO KI MANSIKTA MAUJMASTI KARNE KI ADHIK HOTI HAI.DHARM KARNE KI KUM.MERA AAPSE EK ANURODH HAI KI AAP ISI TAREH SEY SAMAJIK BURAIO KOP MUDDA BANATE RAHE, EK VINTI BHI KI THODA KUM SHABDO MAI APNI BAAT RAKHEY . AAPSAI SEHYOG MILTA RAHEGA ISI UMEED KE SATH. DHANYAVAD
राजीव भाई....कित्ते किते को लपेट देते हो....यदि इता हम एक दिन में लिख दें तो कसम से ....लंब लेट पड जायेंगे ....और सचमुच ही हरिद्वार की यात्रा पर निकलना पडेगा..लगता है भाभी सचमुच मायके से अभी वापस नहीं आई हैं...उनके आने के बाद ...क्या होगा आपका और आपकी शांति का.......?
shandar hai jee. hamesha ki tarah lamba hone ke baavjood pure vyang mein punches kkafi acche hai. :)
लाजवाब अँदाज़ है करारी चोट एक ही झटके मे इतने लोग लपेट लिये बहुत बडिया आभार और बधाई
व्हाट ऐन आईडिया bas yahee kahoonag what an idea sir jee
Anil
@ प्रतिभा
अच्छा भी और खूब लंबा भी लिखते हैं
पढ़ते पढ़ते दिमाग का दही बन जाता है
आजकल वही ज्यादा बनता है
जो कि मदर डेयरी पर भी नहीं मिलता है
द्विअर्थी संवादों से बचना जरूरी है
पर ये बतलायें कि
शर्मा जी कौन हैं तनेजा जी
वरना हम शर्मा जी को तो
बतला देंगे आपका पता।
प्रतिभा जी की सलाह पर गौर नहीं किया जाये
बल्कि उनकी सलाह पर अमल किया जाये।
आपने नोट लिख दिया की ये कहानी काल्पनिक है वर्ना मैं तो सही में आपके साथ तेल के खर्चे में जाने और भंडारे में खाने की तैयारी करने लग गया था.....
बहुत ही बढ़िया चोट, ऐसे ही लिखते रहे.....
"जय गंगा मैय्या"
व्हाट ऐन आईडिया सर जी!....व्हाट ऐन आईडिया"...
rajiv ji
hamesha ki tarah
aapka kataksh ..hamesha lajavab hota hai.
ज़रूरत होती है...खूबसूरत चौखटे की...मस्त चाल की...लम्बे..घने...काले सुन्दर बालों की और पुष्ट पिछवाड़ों...ऊप्स सॉरी!..
हा हा हा-क्या वर्णन है?
काली दास भी सोच रहे होगें कि इतना धांसू नखशिख वर्णन कैसे करते हैं लोग्।
इतना लम्बा.........
पढना भी मजबूरी है क्योंकि बहुत धांसू लपेटे हो।
मजा आ गया।
khatarnaak kaalpnikta hai !!!
आर्यावर्त
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