जब भी आप कोई कहानी पढ़ते हैं तो कभी मुस्कुराते हैं, कभी खिलखिलाते हैं, कभी चौंकते हुए किसी गहन सोच में डूब जाते हैं। कई बार आप किसी कहानी को पढ़ते समय उसमें इतना खो जाते हैं कि कहानी के खत्म होने के बाद भी आप उससे..उसके असर..उसके ताप से बाहर नहीं निकल पाते और अगली कहानी तक पहुँचने से पहले आपको, अपनी दिमागी थकान और मन में उमड़ रहे झंझावातों से उबरने के लिए एक विश्राम, एक अंतराल की आवश्यकता पड़ती है।
ऐसा ही कुछ इस बार मेरे साथ हुआ जब मुझे प्रसिद्ध कहानीकार विवेक मिश्र जी की कहानियों की किताब "पार उतरना धीरे से" पढ़ने का मौका मिला। इस किताब की कहानियाँ कहीं पर हमें राजे-रजवाड़ों की..उनकी शानो शौकत की..उनकी अकड़, उनके घमंड..उनके द्वारा किए गए दमन से रूबरू कराती हैं तो कहीं बीहड़ में अन्याय के विरुद्ध अपने समूचे पतन तक इधर उधर विचरती हुई दिखाई देती हैं। कहीं भ्रष्टाचार और उसकी अंतिम परिणति को एक पागल के माध्यम से दर्शाया गया है तो कहीं सपने के भीतर ही सपने की सैर कराई गयी है। कहीं आस्था-अनास्था के बीच बालमन का सहज सुलभ विचरण है तो किसी कहानी में जीवन की क्षणभंगुरता और प्रेम को आधार बना थर्टी मिनट्स जैसी कहानी के ज़रिए रोमांच, प्रेम और डर के समिश्रण से आप..आपका पूरा वजूद झूझ रहा होता है। कहीं अपने सहज मन के सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद में सबकुछ मटियामेट होते दिखता है तो कहीं प्रेम और अनुराग में डूबी युवती रीतियों कुरीतियों के चक्कर में फँस अपने नए जन्मे बच्चे से हाथ धो बैठती है।
विवेक मिश्र जी की कहानियाँ अपने अलग विषय एवं कलेवर से युक्त ट्रीटमेंट की वजह से देर तक अपना असर बनाए रखती हैं और आपके अन्तर्मन में कहीं ना कहीं अपनी पैठ बना लेती हैं।
सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित उम्दा क्वालिटी एवं कंटैंट की इस 120 पेज की किताब में कुल दस कहानियाँ हैं और इसका मूल्य मात्र Rs.100/- है। जो कि बहुत कम होने की वजह से पाठकों को अपनी तरफ आकर्षित करने में पूर्णतः सक्षम है।
2 comments:
किताब रोचक लग रही है। पढ़ने की कोशिश रहेगी।
बहुत सुंदर
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