बावली बूच- सुनील कुमार

आमतौर पर किसी व्यंग्य कहानी या उपन्यास में समाज..सरकार..व्यक्ति अथवा व्यवस्था की ग़लतियों एवं कमियों को इस प्रकार से चुटीले अंदाज़ में उजागर किया जाता है कि सामने वाले तक बात भी पहुँच जाए और वह खिसियाने..कुनमुनाने.. बौखलाने..बगलें झाँकने के अलावा और कुछ ना कर पाए। व्यंग्यात्मक उपन्यास?..वो भी हरियाणा के एक छोरे की कलम से? बताओ..इससे बढ़ कर सोने पे सुहागा और भला इब के होवेगा? 

*जी..हाँ...वही हरियाणा..जित दूध दही का खाणा।

* वही हरियाणा, जहाँ बात बात में हास्य अपने खड़े और खरे अंदाज़ में कभी भी औचक..बिना किसी मंशा एवं बात के खामख्वाह टपक पड़ता है।

 दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ लेखक सुनील कुमार जी के उपन्यास "बावली बूच" की। बावली बूच माने मूर्ख या ऐसा  पागल जिसे दुनियादारी की खबर या समझ नहीं है। सच कहूँ तो मुझे इस बात की उम्मीद थी कि इस उपन्यास में हरियाणा की ठेठ शैली याने के लट्ठमार भाषा में एक से एक हाज़िरजवाबी से भरे ऐसे पंच होंगे जिनका मनोरंजन के अलावा कहानी से कोई खास लेना देना नहीं होगा। मगर मेरी आशा के ठीक विपरीत एवं एक सुखद आश्चर्य के रूप में इस उपन्यास में एक ऐसी कहानी का ताना बाना बुना गया है जो शुरुआती कुछ पृष्ठों के बाद ही भक्क से आपकी आँखें खोल...आपको संजीदा होने पर मजबूर कर देती है। 

इस उपन्यास में कहानी है एक ऐसे नायक की, जो अंत तक लड़ा याने के अंतक चौधरी। वो अंतक चौधरी, जिसे उसकी माँ ग्रैजुएशन के बाद भी तीन साल तक इस आस में घर बिठा के रखती है कि कुछ ले दे के ही सही, मगर अपने छोरे को सरकारी नौकरी में लगवा के ही मानेगी। भले ही वो सरकारी अस्पताल में जानवरों के डॉक्टर का कंपाउंडर बन,भैंसों की रंबाहट और उनके गोबर से लथपथ होता रहे। मगर होनी को भला कौन टाल सका है जो अंतक या उसकी माँ टाल जाती? अब उस बेचारी को भला क्या पता था कि उसका लाडला 'अंतक' एक दिन मीडिया जगत में अपने नाम का..तेल पिला लट्ठ गाड़ के रहेगा। 

जी...हाँ..दोस्तों, ये उपन्यास मीडिया जगत के अच्छे-बुरे..काले-सफ़ेद..धूसर-चटख चमकीले..हर रंग से हमें रूबरू करवाता है। एक ऐसा उपन्यास, जो एक तरफ मीडिया जगत की भीतरी पड़ताल कर..उसकी ढुलमुल करती..लचर पचर व्यवस्था एवं दिन पर दिन डांवाडोल हो..डगमगाती अर्थव्यवस्था की पोल खोलता है। तो वहीं दूसरी तरफ, टीवी चैनलों के भीतर रोज़ पनपती साजिशों..साहूलियतों एवं जायज़ नाजायज़ समझौतों से भरी कारगुजारियों को सामने लाता है। इसके साथ ही ये उपन्यास, आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते, छुटभैये चैनलों द्वारा दूसरे चैनल्स की खबरों को चोरी करने एवं उनके स्टॉफ में सेंध लगाने के जायज़ नाजायज़ कारणों एवं मंशाओं को उजागर करता है। 

एक ऐसा उपन्यास जो हमें बताता है कि किस तरह से दिवास्वप्न दिखा..आम मध्यमवर्गीय युवाओं को सुनहरे कैरियर के झांसा दे उनसे लाखों रुपया एक ही झटके में झट से झटक कर..फट से अपने काबू में कर लिया जाता है। इसके साथ ही ये हमें बताता है कि आपको, आपके काम के बारे में सही से मालूमात होने से भी ज़्यादा ज़रूरी है कि आपको तलवे चाटने की कला का सही एवं भरपूर मात्रा में उच्च स्तरीय ज्ञान हो। एक ऐसा उपन्यास जो बताता है कि उच्च प्रतियोगिता वाली सरकारी नौकरियों को भी आपसी सोहाद्र एवं लेन देन की परिभाषा से लैस गोटियों को सैट करने से आसानी से हासिल किया जा सकता है।

वैसे तो बहुत सी पंच लाइन्स एवं कोटेशन्स से भरा ये मनोरंजक उपन्यास शुरू से ही अपनी पकड़ बनाता हुआ चलता है लेकिन एक सजग पाठक की हैसियत से मुझे इसका अंत कुछ कुछ फिल्मी या फिर देखा भाला एवं धीमा लगा। क्लाइमैक्स में साक्षात्कार के बजाय कोई तगड़ा..जान जोखिम में डालने वाला..थ्रिलर टाइप स्टिंग ऑपरेशन होता तो और भी बेहतर होता। कुछ जगहों पर छोटी छोटी मात्रात्मक ग़लतियाँ दिखाई दी जिन्हें आसानी से दूर किया जा सकता था। उपन्यास की क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से मुझे इसके कवर पेज का डिज़ायन थोड़ा अँधेरे में डूबा डूबा सा लगा। इसे थोड़ा और चटख या चमकदार याने के आकर्षित करने वाला होना चाहिए था। 

इसके अलावा उपन्यास में ज़्यादा किरदार होने की वजह से काफ़ी देर तक कंफ्यूज़न बना रहा कि कौन सा किरदार, कौन सा काम या रोल कर रहा है? ऐसी स्थिति में अच्छा रहता कि उपन्यास के शुरू या अंत के भीतरी पन्नों पर किरदार के नाम और ओहदे के हिसाब से एक फ्लो चार्ट बना होता कि कौन सा किरदार..क्या काम कर रहा है और उसका दूसरे किरदार से रिश्ता या नाता क्या है। 

यूँ तो इस उपन्यास में जगह जगह हास्य अपने छोटे छोटे रूपों..स्वरूपों में इधर उधर बिखरा पड़ा है मगर इसमें फौजी बनाम पुलिस सैल्यूट का एक ऐसा दृश्य भी मेरी आँखों के सामने आया जिसने मुझ जैसे हास्य व्यंग्य लेखक को भी पढ़ना छुड़वा, इस कदर हँसने पर मजबूर कर दिया कि हँसते हँसते मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े। बधाई मित्र..इस ऊर्जा को बनाए रखें।

175 पृष्ठीय इस मज़ेदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण के प्रकाशक हैं हिन्दयुग्म ब्लू और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

1 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

उपन्यास के प्रति रूचि जगाता आलेख। पढ़ने की कोशिश रहेगी।

 
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