कहा जाता है कि किसी को हँसाना सबसे मुश्किल काम है और वही लोग सबको हँसा पाते है जो स्वयं भीतर से बहुत दुखी होते है। सबको हँसा हँसा कर लोटपोट कर देने वाले महान अभिनेता चार्ली चैप्लिन ने भी एक बार कहा था कि..
"मैं अक्सर बारिश में भीगना पसंद करता हूँ कि उस वक्त कोई मेरे आँसू नहीं देख पाता है।"
दोस्तों..आज मैं आपके समक्ष चार्ली चैप्लिन को अपना आदर्श मानने वाले बॉलीवुड के एक ऐसे दिग्गज अभिनेता, निर्देशक, एडिटर, प्रोड्यूसर के बारे में लिखी गयी किताब के बारे में बात करने जा रहा हूँ जो कभी हमारे समक्ष शोमैन बन कर...तो कभी 'आवारा' बन कर तो कभी 'श्री 420' बन कर या फिर 'छलिया' बन कर हम सबके दिलों पर राज करता आया है।
जी!...हाँ.. सही पहचाना आपने..मैं हरदिल अज़ीज़ अभिनेता राजकपूर के बारे में लिखी गयी उनकी एक ऐसी जीवनी की बात कर रहा हूँ जिसे शब्दों का जामा पहना..उनकी अपनी ही बेटी 'रितु नंदा' ने मूर्त रूप दिया है।
जिस तरह 'चार्ली चैप्लिन' ने अपनी फिल्मों में एक तरफ़ लोगों को जी भर हँसाया तो वहीं दूसरी तरफ़ अपनी हर फिल्म में उन्होंने समाज में व्याप्त विभिन्न विसंगतियों एवं सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों को भी ज़ोरदार ढंग से उठाया। कमोबेश यही सब बातें बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता, निर्देशक, एडिटर, प्रोड्यूसर राजकपूर पर भी लागू होती हैं कि सामाजिक सरोकारों से जुड़ी अपनी फिल्मों में उन्होंने खुद की इमेज एक मसखरे..एक जोकर के रूप में डवैल्प की और लोगों को जहाँ एक तरफ़ जी भर हँसाया तो वहीं दूसरी तरफ़ अहम मुद्दों के बारे में संजीदा हो कर सोचने को भी मजबूर किया।
इस किताब में कहीं अपने बचपन की यादों को ताज़ा करते हुए राजकपूर अपने चटोरेपन के बारे में बात करते नज़र आते हैं कि किस तरह दो आने का जेब खर्च भी उनके खाने के शौक के आगे कम पड़ जाता था और वे एक के बाद एक अलग अलग दुकानों से उधार ले कर खाना चालू कर देते थे। जब तक कि वह स्वयं ही उन्हें उधार देना बंद ना कर दे।
इसी किताब में एक जगह राजकपूर अपनी फिल्मों के चयन पर बात करते हुए नज़र आते हैं कि उन्होंने अपनी फिल्मों में कभी भी अपने गोरे रंग और नीली आँखों को बतौर खूबसूरती नहीं भुनाया अपितु इसके ठीक उलट वे अपनो फिल्मों में आम आदमी के उस तरह के किरदार निभाते रहे जिनसे देश की आम जनता उन्हें अपने में से ही एक समझ सके..कनैक्ट कर सके।।
इस किताब में कहीं उनके कम पढ़े लिखे होने के की बात पता चलती है तो कहीं फिल्मों को ले कर उनकी ग़हरी समझ..ललक एवं प्रतिबद्धता के बारे में पता चलता है। कहीं फिल्मों के प्रति उनके जज़्बे और ज़ुनून के बारे में जानकारी मिलती है कि किस तरह साधन-संसाधन ना होने के बावजूद भी उन्होंने बतौर निर्माता, निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म 'आग' फ़िल्म का निर्माण कर दिखाया। जबकि उस वक्त स्वयं उनकी माँ अपने पति याने के राजकपूर के पिता, पृथ्वीराज कपूर से कटाक्ष स्वरूप यह व्यंग्योक्ति कहती थी कि..
"तुम थूक में पकोड़े नहीं तल सकते।"
अर्थात बिना साधनों और पैसे के कभी फ़िल्म नहीं बना सकते। मगर उनके पिता ने राजकपूर पर विश्वास जताते हुए दावा किया कि मेरा बेटा फ़िल्म बना कर रहेगा।
इसी फिल्म से जुड़े एक अन्य संस्मरण में पता चलता है कि राजकपूर अपनी आधी बनी फिल्म 'आग' के प्रिंट ले कर एक वितरक से दूसरे वितरक के यहाँ धक्के खाते थे कि कोई उनकी फिल्म खरीदने के लिए तैयार हो जाए मगर फ़िल्म के प्रिव्यू देख कर जहाँ एक तरफ़ सभी वितरकों से अपने हाथ खड़े कर दिए कि..'ये एक बेकार..वाहियात फ़िल्म है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य वितरक ने फ़िल्म के बजाय उनकी काबिलियत पर अपना विश्वास जताया और बतौर फ़िल्म के सौदे के उन्हें चाँदी का एक सिक्का एडवांस स्वरूप दिया। इसी विश्वास के बलबूते पर उस वितरक राजकपूर की फिल्में जीवनपर्यंत मिलती रही।
इसी किताब में कहीं अपनी फिल्मों के ज़रिए खुद पर अश्लीलता फैलाने के आरोपों के मद्देनजर वे यह स्वीकारोक्ति करते हुए नज़र आते हैं कि उन्हें अपनी माँ, जो कि काफ़ी खूबसूरत थी, के साथ बचपन में कई बार नहाते हुए उन्हें निर्वस्त्र देखने का मौका मिला। जिससे उनके ज़हन में खूबसूरत महिलाओं की वैसी ही इमेज कैद हो कर गयी। इसी वजह से फिल्में बनाते वक्त नायिकाओं की खूबसूरती को दर्शाने का यह उनका एक तरीका हो गया कि उन्हें कम वस्त्रों में या फिर बारिश में भीगते अथवा स्नान करते हुए दिखाया जाए।
फिल्मों के प्रति उनके ज़ुनून की एक अन्य कड़ी के रूप में 'शशि कपूर' के बेटे 'कुणाल कपूर', राजकपूर के बारे में बात करते हुए बताते हैं कि 'आवारा' फ़िल्म की शूटिंग के दिनों में वे बादलों से संबंधित एक दृश्य फिल्माना चाहते थे लेकिन उन्हें उसका सही तरीका नहीं सूझ रहा था। उन्हीं दिनों एक बार उनके 'आर.के.स्टूडियो' में अचानक आग लग गयी तो लोग बाल्टियों में पानी ला ला कर आग बुझाने का प्रयास करने लगे जबकि राजकपूर ने अग्निशामक यंत्र के ज़रिए आग बुझाने के अपने प्रयास के दौरान पाया कि इसे चलाने से धुएँ और धूल के गुबार से हवा में ठीक वैसा ही बादलों का दृश्य उत्पन्न हो रहा है जैसे वे अपनी फ़िल्म के लिए चाहते थे। बस फिर क्या था..वे आग बुझाना भूल, उसी अग्निशामक यंत्र से खेलते हुए मन ही मन फ़िल्म के दृश्य की कल्पना करते रहे।
इस किताब के ज़रिए अपनी फिल्मों में विश्वसनीयता की चाह रखने वाले राज कपूर के फिल्मों के प्रति ज़ुनून की बात का इस तरह पता चलता है कि वे 'श्री 420' फ़िल्म के निर्माण के दौरान सूर्यास्त के एक सीन को फिल्माने के लिए 'खंडाला' से शुरू होने के बाद वहाँ से सैकड़ों मील दूर 'ऊटी' तक अपनी पूरी यूनिट के साथ पहुँच गए थे जब तक कि उन्हें, उनकी फिल्म के लिए परफेक्ट शॉट नहीं मिला। इसी तरह फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' के लिए उन्होंने अपनी साँस की दिक्कत के बावजूद उसे गंगा के उद्गम स्थल याने के 'गंगोत्री' में ही फिल्माने का निर्णय लिया जबकि वे यह भली भांति जानते थे कि ऊँचाई वाले स्थानों पर जाने से उनकी साँस की दिक्कत और ज़्यादा बढ़ने वाली है।
इसी किताब में और आगे बढ़ने पर पता चलता है कि फ़िल्म बनाने के ज़ुनून में अपना सब कुछ झोंक देने वाले राजकपूर को अक्सर आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा मगर बाज़ार के चक्कर में उन्होंने कभी भी अपनी रचनात्मकता अथवा अपनी रचनाधर्मिता से समझौता नहीं किया और हर फिल्म..हर हाल में वैसी ही बनाई जैसी वे उसे बनाना चाहते थे।
फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली' के निर्माण के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ कि वे अपने सभी वितरकों से पूरे पैसे एडवांस में ले चुके थे और फ़िल्म का काम अभी पूरा नहीं हुआ था कि बैंक से कुर्की की चेतावनी आने लगी। लेकिन वितरकों के इनके काम..इनके हुनर पर विश्वास होने की वजह से सबने जैसे तैसे मिल कर इस दिक्कत को दूर किया और अब तो खैर.. इतिहास गवाह है कि 'राम तेरी गंगा मैली' उस साल की सबसे बड़ी हिट साबित हुई।
इसी किताब में सुपरहिट फिल्म 'संगम' से जुड़े एक रोचक संस्मरण में राजकपूर बताते हैं कि 'संगम' फ़िल्म को मूलतः 'घरौंदा' के नाम से लिखा गया था और इसी फिल्म के लिए राज कपूर चाहते थे कि एक खास हीरोइन उनकी इस फिल्म में काम करे जो कि उस वक्त मद्रास में किसी अन्य फ़िल्म की शूटिंग कर रही थी। उन्होंने उसे तार भेजा कि..
'बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं?'
कुछ दिनों बाद प्रत्युत्तर में जवाब आया कि..
'होगा..होगा..होगा।'
जिस वक्त यह तार आया उस समय गीतकार शैलेंद्र राज कपूर के साथ बैठे थे और उन्होंने तुरंत इस गीत को लिखा कि..
'मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमना का..बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं'
प्रत्युत्तर में नायिका कहती है कि..
'होगा..होगा..होगा।'
इसी किताब में एक जगह गायक 'नितिन मुकेश' 'राजकपूर' को याद करते हुए बताते हैं कि किस तरह उनके पिता गायक 'मुकेश' का निधन हो जाने के बाद राज कपूर ने उनकी तथा उनके परिवार की मदद की। उन्हें अपनी फिल्म 'सत्यम शिवम सुंदरम' में गाने का मौका दिया जिसकी वजह से उनके नाम के साथ यह जुड़ गया कि नितिन मुकेश ने राजकपूर की फिल्म के लिए गाना गाया है। साथ ही एक बार नितिन मुकेश के एक म्यूजिकल शो में अध्यक्ष बनने के लिए उन्होंने अपनी उस दिन की शूटिंग तक रोक दी थी कि इस कार्यक्रम से नितिन मुकेश को इतने पैसे मिल जाएँगे कि उसके घर का एक साल तक का खर्चा बड़े आराम से निकल जाएगा। इसी संस्मरण में नितिन मुकेश आगे बताते हैं कि औरों की देखा देखी उनके पिता गायक मुकेश ने भी वितरक बनने की ठानी और 'मेरा नाम जोकर' फ़िल्म के राजस्थान के अधिकार खरीद लिए। जिसमें उन्हें बुरी तरह से नुकसान झेलना पड़ा और जिसकी भरपाई बाद में राज कपूर ने अपनी फिल्म 'बॉबी' के सुपरहिट हो जाने के बाद की जबकि मुकेश का बॉबी फिल्म से कोई लेना-देना भी नहीं था।
संस्मरणों से जुड़ी इस किताब में राजकपूर के बारे में बात करते हुए देव आनंद बताते हैं कि किस तरह वे अपनी खोज, 'ज़ीनत अमान' को 'राजकपूर' के द्वारा उनके सामने ही किस किए जाने से आहत हो उठे थे जबकि उस समय तक वे उसके प्रेम में पड़ चुके थे और उसे अपने दिल की बात बताना चाहते थे। उन्होंने 'ज़ीनत अमान' को प्रपोज़ करने के लिए दिन.. जगह और समय भी तय कर लिया था। मगर उससे ठीक एन पहले एक पार्टी में उन्हें यह देख कर झटका लगा कि उनकी नायिका, ज़ीनत तो राजकपूर की फ़िल्म, 'सत्यम शिवम सुंदरम' के लिए अपना स्क्रीन टैस्ट भी दे चुकी है और उनके साथ काम करने के लिए उतावली हुई जा रही है।
इसी किताब में एक जगह लता मंगेशकर, राजकपूर के बारे में बात करते हुए बताती हैं कि उन्होंने याने के राजकपूर ने खुद उनसे, उनके भाई 'हृदयनाथ मंगेशकर' को फ़िल्म 'सत्यम शिवम सुंदरम' का संगीत तैयार करने के लिए कहा था जबकि उनके भाई की इसमें बिल्कुल भी रुचि नहीं थी। बड़ी मुश्किल से उनके भाई इसके लिए तैयार हुए और जब फ़िल्म का संगीत लगभग अपने अंतिम चरणों पर था तो अचानक उन्हें पता चला कि फ़िल्म 'हृदयनाथ मंगेशकर' के बजाय संगीतकार 'लक्ष्मीकांत- प्यारेलाल' की जोड़ी को दे दी गयी है। इस वजह से लता मंगेशकर, राजकपूर से बेहद खफ़ा रही और उन्होंने राजकपूर की फिल्मों के लिए गाने तक से इनकार कर दिया। साथ ही उन्होंने उनसे अपने गए गानों के बदले रॉयल्टी माँगनी भी शुरू कर दी। ख़ैर.. बाद में काफ़ी मान मनौव्वल के बाद वे अपनी शर्तों पर मानी और उन्होंने बहुत नखरों और लंबे समय तक लटकाने के बाद आखिरकार उनकी फिल्मों के लिए फिर से गाना शुरू किया।
इसी किताब में रशिया और चीन में राजकपूर की फिल्मों को मिली अपार सफलता के बारे में पता चलता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्टॅलिन के नेतृत्व में 14 अलग अलग गणतंत्रों को मिला कर बने सोवियत संघ ने एक तरह से खुद को बाहरी दुनिया से अलग थलग कर लिया था। 1954 में पहली बार अपने खोल से बाहर निकल कर सोवियत संघ ने भारतीय फिल्मकारों को लेखक..निर्देशक 'ख्वाजा अहमद अब्बास' के नेतृत्व में उनके यहाँ आ..अपनी फिल्मों के प्रदर्शन करने के लिए आमंत्रित किया। जिनमें एक सदस्य के रूप में राजकपूर भी शामिल थे। उससे पहले सोवियत संघ के सिनेमा और टेलिविज़न पर सरकारी नियंत्रण होने की वजह से सिर्फ वही दिखाया जाता था जो वहाँ की सरकार चाहती थी। वहाँ की आम जनता ने जब प्यार मोहब्बत, गीत संगीत और नृत्य से भरी हमारे यहाँ की फिल्में देखी तो वे उन पर दीवानों की तरह टूट पड़े। एक समय वहाँ पर राजकपूर के प्रति लोगों की दीवानगी इतनी ज़्यादा बढ़ गयी कि हमारे प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू तक उनसे रश्क करने लगे।
इसी किताब में यश चोपड़ा, राजकपूर की प्रसिद्धि के बारे में बात करते हुए बताते हैं कि 1976 में रूस में हुए ताशकंद फिल्म समारोह के दौरान उन्होंने पहली बार किसी भारतीय को दूसरे देश में इतना ज़्यादा सम्मानित होते हुए देखा मानो वे उनकी धरती के सम्राट हों। जहाँ एक तरफ़ बाकी सभी फिल्मकारों के लिए विशेष बस का प्रबंध था मगर राज कपूर को एक निजी कार और एक दुभाषिया प्रदान किया गया था। इसी तरह जहाँ बाकी सभी फिल्मकारों को लंच और डिनर के लिए नाम लिखवाने पर खाने के कूपन दिए गए वहीं राजकपूर के लिए ऐसी कूपन प्रथा न थी। बाकी सभी फिल्मकारों को ताशकंद से समरकंद तक के सफर के लिए ट्रेन में एक साथ जगह दी गयी जबकि राजकपूर एक अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें एक अलग से कूपा दिया गया। उन्हीं की वजह से एक जगह फ्लाइट पर देर से पहुँचने के बावजूद भी हवाई जहाज़ तब तक उनका इंतज़ार करता रहा जब तक कि वे पहुँच नहीं गए।
इस पूरी किताब में कहीं राज कपूर से जुड़े उनके पारिवारिक सदस्य उनके बारे में बात करते दिखे तो कहीं उनके सहकर्मी अथवा प्रतिस्पर्धी उनके साथ अपने रिश्तों के बारे में बात करते दिखाई दिए। कहीं वे स्वयं अपने पुराने साक्षत्कारों के ज़रिए अपनी फिल्मों पर बात करते दिखाई दिए। लेखिका रितु नंदा ने इस किताब के लिए राजकपूर से जुड़े हर व्यक्ति से निजी तौर पर संपर्क कर राज कपूर के प्रति उनके विचारों को सबके समक्ष रखने का श्रमसाध्य कार्य को कर के दिखाया। जिसके लिए वे बधाई की पात्र तो हैं। मगर इसके साथ ही अगर लेखिका का अपना लेखन कौशन भी पाठकों के समक्ष आता तो ज़्यादा बेहतर था।
राज कपूर के द्वारा विभिन्न पत्र पत्रिकाओं अथवा टीवी चैनलों को दिए गए उनके साक्षत्कारों को यहाँ.. इस किताब में जस का तस छाप दिया गया। जिससे उनकी फिल्मों के प्रति एक जैसी काफ़ी बातें बार बार रिपीट होती भी दिखी। राज कपूर के देखे-अनदेखे चित्रों से सुसज्जित इस रोचक किताब को मूल रूप से रितु नंदा ने अँग्रेज़ी में लिखा है और जिसका हिंदी में अनुवाद किया है 'सुरेश कुमार सेतिया' ने। अनुवाद थोड़ा और ज़्यादा बेहतर होता तो बढ़िया था। कुछ जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला।
अगर आप भारत के प्रसिद्ध निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, शोमैन राज कपूर के जीवन को नजदीक से जानना चाहते हैं तो यह किताब आपके मतलब की है। 288 पृष्ठीय इस रोचक किताब के पैपरबैक संस्कारंबको छापा है प्रभात पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 400/- रुपए। अमेज़न पर फिलहाल इसका पैपरबैक संस्करण 319/- रुपए और हार्ड बाउंड संस्करण 519/- रुपए में उपलब्ध है। अगर आप इसका किंडल वर्ज़न खरीदना चाहें तो आप इसे 303/- रुपए में खरीद सकते हैं। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाशक को ढेरों ढेर शुभकामनाएं।
*असका- उसका
*छत्रच्छाया- छत्रछाया
*मजबूज- मजबूर
*मुसकराया- मुस्कुराया
*पंख (मैंने ऐसा कभी नहीं किया) - पर (मैंने ऐसा कभी नहीं किया)
*महारत- महारथ
*दरशाने- दर्शाने
*दरशा- दर्शा
SHOWMAN : RAJ KAPOOR (PB) https://www.amazon.in/dp/9353225418/ref=cm_sw_r_apan_i_GJE85VARR7FJTST7QK3M
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पुस्तक के प्रति उत्सुकता जगाता आलेख।
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