किसी भी काम को करने या ना करने के पीछे हर एक की अपनी अपनी वजहें..अपने अपने तर्क..कुतर्क हो सकते हैं। साथ ही यह भी ज़रूरी नहीं कि हमारे किए से दूसरा भी हमारी ही तरह सहमत हो या हम भी दूसरे के किए से उसी की तरह इत्फ़ाक रखते हों। अपनी अपनी जगह सभी खुद को सही और दूसरे को ग़लत समझते हैं। जैसे कि अगर रामायण का उदाहरण लें तो जो श्रूपनखा के साथ लक्ष्मण ने किया, उसे लक्ष्मण ने सही माना जबकि शूर्पणखा ने ग़लत या फिर रावण ने सीता का हरण करते वक्त खुद को सही माना जबकि राम समेत बहुतों ने इसे ग़लत करार दिया। इसी तरह विभीषण ने राम का साथ दे कर खुद को सही माना जबकि रावण, मेघनाथ और कुम्भकरण समेत कइयों ने इसे ग़लत करार दे, उसे ग़द्दार तक कह दिया। याने के अपने अपने नज़रिए से सभी खुद को सही और दूसरे को ग़लत मानते हैं।
ऐसा ही एक दृष्टांत सुनने एवं पढ़ने को मिलता है जब हम सन 1858 में ग्वालियर रियासत के महाराज रहे 23 वर्षीय जयाजी राव सिंधिया की बात करते हैं। उस जयाजी राव सिंधिया की जिन्हें पूरा देश तब से ले कर आज तक इस वजह से ग़द्दार कहता आया है कि अँग्रेज़ों के साथ युद्ध में उन्होंने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का साथ देने के बजाय अँग्रेज़ों का साथ दिया। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ऐसा कर के उन्होंने सही किया अथवा ग़लत।
दोस्तों..आज मैं एक ऐसे लघु उपन्यास के बारे में बात करने जा रहा हूँ जिसमें महाराज जयाजी राव सिंधिया के नज़रिए से उस समय के पूरे घटनाक्रम का वर्णन किया गया है। इसे लिखा है राकेश अचल ने। देश के विभिन्न अखबारों के अतिरिक्त आज तक चैनल पर काम कर चुके राकेश अचल जी की इससे पहले कई किताबें आ चुकी हैं।
इस उपन्यास के मूल में एक तरफ कहानी है ग्वालियर और झाँसी के मध्य स्थित एक अन्य रियासत 'दतिया' के उस बालक भागीरथ की जिसे 8-10 वर्ष की उम्र में ही ग्वालियर रियासत का भावी वारिस मान उसके पिता सरदार हनुमंत राव से इसलिए गोद ले लिया गया कि ग्वालियर के महाराज जनकोजी राव और महारानी ताराबाई का अपना कोई पुत्र नहीं था जो उनके बाद गद्दी संभाल सके। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है ताकत और बुद्धि के बल पर देश की विभिन्न रियासतों को अपनी उंगलियों पर नचाने को आमादा ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके उन शातिर अफ़सरान की जिनका हस्तक्षेप रियासतों की दैनिक कार्यप्रणाली एवं कार्यपद्धति पर बढ़ता ही जा रहा था।
इस उपन्यास में कहानी है महाराज जयाजी राव सिंधिया की बेबसी..असमंजस और लाचारी भरे पशोपेश की कि एक तरफ़ उन पर अँग्रेज़ अफसर मेजर जनरल कपर्सन का दबाव और दूसरी तरफ़ राज्य के दीवान दिनकर राव राजवाड़े की मनमानी। जयाजी राव सिंधिया के द्वारा किए जाने वाले तमाम फैसलों के पीछे दरअसल इन्हीं दोनों का हाथ था।
अब ग्वालियर की दुविधा ये है कि वो लक्ष्मीबाई की मदद कर अँग्रेज़ों के कोप का भाजन बने या फिर अपने पूर्वजों की भांति शरणागत की रक्षा करने के लिए अँग्रेज़ों के साथ युद्ध में अपनी सेनाएँ भी झोंक दी।
धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस लघु उपन्यास के प्रारंभ में लेखक ने प्रसिद्ध कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी' दी है जो इस लघु उपन्यास को और ज़्यादा प्रभावी बनाती है। प्रूफरीडिंग के स्तर पर कुछ छोटी छोटी ग़लतियाँ दिखाई दी जैसे कि..
पेज नंबर 78 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'राजमाता बैजाबाई डेढ़ दशक तक सत्ता में वापस आने के लिए भटकरती रही।'
यहाँ 'भटकरती रही' की जगह 'भटकती रही' आएगा।
इसी तरह पेज नंबर 83 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'राजमाता ने बताया कि एक लेखिका फ़ैनी पार्केस उन्हें वहाँ मिली। फ़ैनी ने मराठा पोशाक पहन कर मराठा शैली में घुड़सवारी कर उन्हें आशीर्वाद दिया।'
यहाँ 'फ़ैनी' ने मराठा पोशाक पहनीं राजमाता की घुड़सवारी देख उन्हें आशीर्वाद दिया है जबकि इस वाक्य से भान हो रहा है कि फ़ैनी ने स्वयं ही मराठा पोशाक पहन कर घुड़सवारी की और राजमाता को आशीर्वाद दिया। अतः सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'फ़ैनी ने मराठा पोशाक पहन उन्हें मराठा शैली में घुड़सवारी करते देख कर आशीर्वाद दिया।'
आगे बढ़ने पर पेज नंबर 86 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'जून महीने का पहल सप्ताह ऊहापोह में निकला।'
यहाँ 'पहल सप्ताह' के बजाय 'पहला सप्ताह' आएगा।
यूँ तो यह रोचक उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर फिर भी मैं अपने पाठकों की जानकारी के लिए बताना चाहूँगा कि 110 पृष्ठीय इस बढ़िया उपन्यास के पैपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 160/- जो कि कंटैंट को देखते हुए ज़्यादा नहीं है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को ढेरों ढेर शुभकामनाएं।
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