अकाल में उत्सव- पंकज सुबीर

कई बार कुछ ऐसा मिल जाता है पढ़ने को जो आपके अंतर्मन तक को अपने पाश में जकड़ लेता है। आप चाह कर भी उसके सम्मोहन से मुक्त नहीं हो पाते। रह रह कर आपका मन, आपको उसी तरफ धकेलता है और आप फिर से उस किताब को उठा कर पढ़ना शुरू कर देते हैं जहाँ से आपने उसे पढ़ना छोड़ा था। ऐसा ही इस बार मेरे साथ हुआ जब मैंने पंकज सुबीर जी का उपन्यास "अकाल में उत्सव" पढ़ने के लिए उठाया। इस उपन्यास को पढ़ कर पता चलता है कि पंकज सुबीर जी ने विषय को ले कर कितना गहन..कितना विस्तृत चिंतन एवं शोध किया होगा कि हर बात एकदम सटीक, कहीं कोई वाक्य..कहीं कोई शब्द बेमतलब का नहीं। 224 पृष्ठ का लंबा उपन्यास होने के बावजूद कहीं कोई भटकाव नहीं। सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ते हुए उपन्यास अपनी तयशुदा मंज़िल तक बिना किसी अवरोध, हिचकिचाहट अथवा दिक्कत के पहुँचता है।

इस उपन्यास के ज़रिए उन्होंने बताया है हमारे देश में अफसरशाही किस तरह अपने मतलब के लिए सबका इस्तेमाल करती है। किस तरह किसी राज्य में शासन तंत्र काम करता है। पक्ष विपक्ष सब वक्त और ज़रूरत के हिसाब से एक ही थैली के चट्टे बट्टे हो जाते हैं। इस उपन्यास से ज़रिए उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक अफसरों और दलालों की आपसी मिलीभगत से होने वाले किसान क्रेडिट कार्ड जैसे घोटालों को उजागर किया है। जिनमें जाली दस्तावेजों के आधार पर किसानों के नाम से सीमित समयावधि के लिए, उन्हें बताए बिना, अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु  चुपके से लोन ले लिए जाते हैं और समय सीमा पूरी होने से पहले ही उन्हें, अपने इस्तेमाल में लेने के बाद,  उसी तरह चुपचाप भर भी दिया जाता है मगर कई बार लोन ना चुकाने पर बैंक की शिकायत पर एक्शन लेते हुए सरकार गरीब किसानों के यहाँ कुर्की का नोटिस भेज किसान का घर, खेत-खलिहान सब कुछ जब्त कर नीलामी करने से भी नहीं चूकती है। ऐसे स्तिथि में दलाल तो चुपचाप खिसक जाता है और बैंक अधिकारी ऐसे घोटालों को छुपाने या फिर लीपापोती करने में जुट जाते हैं।

इस उपन्यास के ज़रिए उन्होंने ये भी बताया है कि किस तरह सरकार द्वारा किए जा रहे सांस्कृतिक कार्यक्रम के बजट को बड़े अफसरों द्वारा अपने निजी हितों के लिए मोबिलाइज़ किया जाता है और अपने रसूख एवं दबाव से कार्यक्रमों को क्रियान्वित करवाने की ज़िम्मेदारी दूसरों के कंधों पर जबरन डाल दी जाती है। 

इसी उपन्यास के ज़रिए उन्होंने छोटे गरीब किसानों की व्यथा को भी प्रभावी ढंग से दिखाया है कि किस तरफ दिन रात जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी उसका परिवार को दाने दाने के लिए तरसने को मजबूर होना पड़ता हैं। इस उपन्यास के ज़रिए उन्होंने किसानों और फसलों को लेकर बनाई गयी समर्थन मूल्य की धांधली को भी स्पष्ट किया है। इसी उपन्यास में किसान बनाम मल्टी नैशनल कंपनी में कंपनियों के हितों को पूरा करने में साथ देती आढ़तों और अनाज मंडियों की काली नीयतों, अकाल के समय मुआवज़ा निर्धारित करने में मनमर्ज़ी तथा भेदभाव की बात को भी ज़ोरदार तरीके से उठाया है।

कम शब्दों में अगर कहना चाहें तो इस उपन्यास में उन्होंने गरीब किसानों की खेत, फसल, सिंचाई, खाद,ऋण,सूद,भूख तथा मरने जीने पर रखे जाने वाले भोज जैसी समग्र समस्याओं का अपनी रचना में इस तरह समावेश किया है कि आप भावावेश में व्याकुल हो उठते हैं। इसी उपन्यास में उन्होंने कलेक्टर से लेकर पटवारी तक के उनके सभी मातहतों की कार्यशैली, उनकी भाषा, उनकी चालढाल का इस तरह सजीव एवं हूबहू वर्णन किया है कि ऐसा लगता है जैसे सबकुछ आपके सामने विश्वसनीय ढंग से घटित हो रहा हो। कोई आश्चर्य नहीं कि आपको जल्द ही इस पर कोई सीरियल , फ़िल्म अथवा वेब सीरीज़ बनती दिखाई दे।

224 पृष्ठीय इस संग्रहणीय उपन्यास को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसके अब तक कई हार्ड बाउंड एवं पेपरबैक संस्करण आ चुके हैं। इस पेपरबैक संस्करण का मूल्य ₹ 150/- मात्र रखा गया है जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही कम है। कम कीमत पर अच्छी किताब देने के लिए प्रकाशक को बहुत बहुत धन्यवाद एवं आने वाले भविष्य के लिए लेखक (जो कि स्वयं प्रकाशक भी हैं) को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

0 comments:

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz