अपनी सी रंग दीन्ही रे- सपना सिंह

देशज भाषा..स्थानीयता और गांव कस्बे के हमारे आसपास दिखते चरित्रों से सुसज्जित स्त्रीविमर्श की कहानियों की अगर बात हो तो इस क्षेत्र में सपना सिंह एक उल्लेखनीय दखल रखती हैं। कई प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं तथा अंतर्जाल में छपने के अलावा उनके अब तक तीन एकल कहानी संग्रह और एक उपन्यास के अतिरिक्त उनके संपादन में वर्जित कहानियों का एक साझा संकलन 'देह धरे को दंड' भी आ चुका है। 

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ हमारे समय की समकालीन लेखिका सपना सिंह के नवीतम कहानी संग्रह 'अपनी सी रंग दीन्ही रे' की। स्त्री विमर्श और उससे जुड़े विभिन्न मुद्दों को अपने केंद्र में समेटे इस संकलन की शुरुआती कहानी मे एक युवती अपनी मान प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए किसी की पत्नी होते हुए भी, बिना किसी रिश्ते के, किसी अन्य युवक की बस नाम के लिए रखैल बनना स्वीकार कर लेती है। 

तो कहीं किसी कहानी में 'ना घर का ना घाट का' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए अवैध संबन्धों की अंतिम परिणति के रूप में दर्शाया गया है। इसी संकलन की एक अन्य कहानी कामवाली बाइयों पर हमारी निर्भरता जैसे आम मुद्दे के साथ साथ नशे की लत और उसके पीछे की वजहों जैसे विस्तृत एवं व्यापक मुद्दे पर भी नयी सोच और अलहदा नज़रिए से हमें सोचने को मजबूर करती है।

कहीं किसी कहानी में अपनी बड़ी बहन की असमय मृत्यु के बाद उसके छोटे छोटे बच्चों का ख्याल कर के ममतावश छोटी बहन अपने ही जीजा से ब्याह करने के लिए हामी भर देती है
मगर क्या पढ़ी लिखी, कमाऊ एवं ममतामयी होने के बावजूद उसे, उस घर में कभी माँ का दर्ज़ा मिल पाता है अथवा वह उन सबके साथ साथ अपने इकलौते बेटे के लिए भी महज़ एक दुधारू गाय बन कर रह जाती है?

तमाम विस्मय एवं आश्चर्य के किसी दिन कहानी में एक कम पढ़ी लिखी औरत अचानक फर्राटेदार अँग्रेज़ी बोलना शुरू कर देती है। तो घर के सदस्यों का एकदम चौंकना लाज़िमी हो जाता है। 

इस संकलन की कोई कहानी लड़के की चाह में कोख में ही होते लड़कियों के कत्ल की बात के साथ साथ देश दुनिया की तमाम बढ़ती आबादी और आसमान छूते खर्चों की बात करती है। जिसकी वजह से आज के युवा, पुरानी वंशवृद्धि वाली सोच को दकियानूसी करार दे..अब बस एक बच्चे में ही यकीन कर रहे हैं। मगर ऐसे भी लोगों की कमी नहीं जो ज़िम्मेदारी से बचने की चाह में एक भी बच्चा नहीं चाहते।  सपना सिंह जी की कहानी मानवता के लिए एक ऐसे ही बड़े खतरे की तरफ अभी से इशारा कर रही है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में औसत रंग रूप की एक 48 वर्षीय अध्यापिका को जब, अपनी कमाई पर, अपना हक़ चाहने की वजह से उसका पति छोड़ देता है। उसे अब कोई और उसके बच्चे समेत अपनाना चाहता है तो काफी झिझक..असमंजस और नानुकर के बाद वो आगे बढ़ने का फैसला करती है।

शीर्षक कहानी 'अपनी सी रंग दीन्ही रे' 
शुरुआती बिखराव के बाद अपनी पकड़ बना तो लेती है मगर इसमें काफ़ी किरदारों की कन्फ्यूज़ करती भरमार दिखी। जिनमें से कुछ की बिल्कुल भी आवश्यकता ही नहीं थी। इसके अतिरिक्त कहानी में गडमड करते किरदारों के आपसी रिश्तों को ठीक से समझने के लिए भी काफ़ी मशक्क़त करनी पड़ी। अगर यहाँ साथ में फ्लो चार्ट दिया जाता तो ज़्यादा बेहतर था। 

किसी भी रचना के सही संदर्भ एवं मायने में उसके पाठकों तक जस का तस पहुँचने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि उसमें वर्तनी की त्रुटियाँ बिल्कुल ना हों। इसके अतिरिक्त अल्पविराम, पूर्णविराम जैसे ज़रूरी चिन्ह भी सही जगह पर सही मात्रा में लगे हों। इस लिहाज से अगर देखें तो इस संकलन में प्रूफरीडिंग की कमी के चलते 
बहुत सी जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ दिखाई दी। इसके अतिरिक्त अलग अलग किरदारों के संवाद भी इनवर्टेड कौमा में नहीं दिखे। बहुत सी जगहों पर पूर्णविराम, अल्पविराम इत्यादि के चिन्ह भी नदारद दिखे। इन सब कमियों की तरफ ध्यान दिया जाना बेहद ज़रूरी है। 

96 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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