सांता ज़रूर आएगा"

"सांता ज़रूर आएगा"


***राजीव तनेजा***

"यूँ तो अभी भी कुछ महीने बाकि थे'बडा दिन'आने में लेकिन...

बच्चे तो बच्चे होते है....

"उनके लिए क्या आज और क्या कल?"

"स्कूल की डायरी में क्या पढ लिया कि....

तीन महीने बाद'बडे दिन'की छुट्टियाँ आने वाली हैँ,

सो ....अभी से चहकना चालू हो गया उनका कि....

"सांता क्लाज़ आएगा"....

"सांता क्लाज़ आएगा"...और...

"नए-नए तोहफे लायेगा"

"उन बेचारों को क्या मालुम कि'ग़िफ्ट'तो हर साल चुपके से तकिए के नीचे उनके'मामू'ही रख जाते थे हमेशा"

"वो मासूम तो यही समझते कि ये सब'सांता'करता है"...

सो...उसी का गुणगान करते नहीं थकते थे"



"मैँ इसी उधेड्बुन में फंसा था कि कैसे समझाऊँ बच्चों को कि....

इस बार कोई'सांता'नहीं आने वाला"

"वजह!..उनका मामा जो इस बार इंडिया में नहीं.. बल्कि'अमेरिका'में है"

"सो...'गिफ़्ट्स'का तो सवाल ही नहीं पैदा होता"

"मेरे हिसाब से तो उन्हें सच्चाई से रुबरू करवा ही देना ही बेहतर रहता,

इसलिये मैने भी दो टूक जवाब दे दिया कि ...

"कोई'सांता-वांता'नहीं आने वाला है इस बार,लेकिन...

बच्चे तो बच्चे ...विश्वास ही नहीं हुआ मेरी बात पर "

"उन्हें अपने विश्वास पे कायम देख,मैँ भी पूरी तरह से ज़िद पे अड बैठा कि....

"मैँ तो दुअन्नी भी नहीं खर्चा करूँगा अपने पल्ले से"

"रोते हैँ तो बेशक रोएँ"

"अगर वो ज़िद पर अड सकते हैँ तो मैँ क्यों नहीं?"

"आखिर बादशाह हूँ मैँ इस घर का ....कोई ऐंवे ही नहीं"

"कह दिया तो बस कह दिया"

"अपने टाईम पे हमने कौन सा ऐश कर ली जो इन्हें करवाता फिरूँ?"

"लेकिन दिल के किसी कोने में एक सवाल सा उठ रहा था बार-बार कि..

"क्या मेरी औलाद भी उस सब के लिए तरसती रहेगी?....

जिस-जिस के लिए मै तरसा?"

"क्या इन मासूमों ने पैदा होकर गुनाह किया है?"

क्या इनकी कोई हसरतें नहीं हो सकती?"

"क्या इनको भी मेरी तरह ही घुट-घुट कर जीना पडेगा?"

"क्या इनके अरमान सिर्फ अरमान ही बनकर रह जाएँगे?"

"कभी पूरे नहीं होंगे इनके सपने?"

"ध्यान पुरानी यादों की तरफ जाता जा रहा था...

"हमारे बाप-दादा ने कभी हमें ऐश नहीं करवाई"....

"वो खुद तो पूरी ज़िन्दगी नोट कमा-कमा के थक गये लेकिन...

एक दुअन्नी भी खर्चा करना जैसे हराम था उनके लिये"

"तो भला कैसे लुटाते फिरते किसी दूसरे पे अपनी दौलत?"

"निन्यानवे के फेर में जो पड चुके थे"

"सो लगे रहे उसी चक्कर में"

"कभी बाहर ही नहीं निकल पाए"

"लेकिन क्या फायदा?"

"जब बाड ही खेत को खा गयी"

"जिन पर भरोसा किया...उन्होने ही बेडा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोडी"

"जिसके हाथ जो लगा,उसने उसी को सम्भाल लिया"

"किसी ने'गोदाम'तो किसी ने'खेत',...

"किसी ने'प्लाट'पे कबज़ा जमा लिया...

तो कोई'नकदी'पे नज़र गडाए बैठा था"

"तो कोई दूर का अनजाना सा रिश्तेदार'सेवा'करने के नाम पे चिपका बैठा था"

"तो कोई मन्दिर बनवा स्वर्ग जाने का रास्ता सुझा रहा था"

"आखिर मन्दिर का ट्रस्टी उसे ही जो बनना था"

"असल में तो सबको अपनी-अपनी ही पडी थी"...

"तगडा माल जो हाथ लगने की उम्मीद थी"

"लेकिन ऊपरवाले के घर देर है पर अन्धेर नहीं...

"जाको राखे साईयाँ...मार सके ना कोए"

"ऐन मौके पर सब कुछ हाथ से निकलता देख हमारे बुज़ुर्गों में सुलह हो गयी"...

"आखिर उनकी आपसी फूट का ही तो ये सब नतीज़ा था कि....

घरवाले खडे देखते रह गये और कुत्ते मलाई चाटते चले गये"

"इतना सब कुछ होने के बाद भी हालत कुछ खास बुरे नहीं थे हमारे,...

काफी कुछ अब भी बचा रह गया था लेकिन...

शायद इतना सबक काफी नहीं था हमारे बुज़ुर्गों के लिये"...

"अब भी पैसे के पीर बने बैठे हैँ"...

"छाती से लगाए बैठे हैँ दौलत को"...

"ये भी भूले बैठे हैम कि ..

एक ना एक दिन तो सभी को ऊपर जाना है "

"फिर ये सब भला किस काम आएगा?"

"कौन मज़े लूटेगा इसके?"

"क्या फायदा ऐसी दौलत का जो किसी काम ना आए?"

"खर्च ना कर सको जिस दौलत को,ऐसी नकारा दौलत वो बे मतलब की है"

"अभी जोडते रह जाओ ,..बाद में पराए लूट ले जाएँ सब"

"बस घडी-घडी ताकते फिरो अपनी तिजोरी को...

बाद में पता चले कि बाहर तो ताला लटका रह गया और...

अन्दर ही अन्दर माल-पानी कोई और ले उडा"

"अरे समझो कुछ ....पैसा बना ही खर्च करने के लिए है"....

"तो फिर खर्च करो ना यार!..."

"किस घडी का इनतज़ार है आपको?"

"मेरा पूरा बचपन खिलौनों के लिए तरसता रहा लेकिन....नहीं मिले"

"जवान हुआ तो मोटर बाईक के लिये तरसता रहा लेकिन....

नहीं मिलनी थी,...सो नहीं मिली"

"उल्टा जवाब मिला कि..."पूरी दुनिया बसों में धक्के खाती फिरती है....

सो...तुम भी खाओ"

"पढाई में भी तो इसी चक्कर में पिछड गया था मैँ....

जब'नई किताबों'और'ट्यूटर'लगवाने की बात की तो जवाब मिला...

'सैकेंड हैंड'मिलती हैँ बाज़ार में...ले आओ..."

"और ये'ट्यूटर-ट्यूटर'क्या लगा रखा है?"

"अपने आप पढो"

"हमने भी अपने आप पढाई की है'लैम्प पोस्ट'के नीचे बैठे-बैठे"

"शुक्र करो कि तुम्हारे सर पे छत तो है "

"बच्चू!...गनीमत समझो कि तुम्हे इतना भी नसीब हो रहा है"

"हमारे बाप ने हमें इतना भी नहीं दिया जितना तुम'खा-पहन'रहे हो"

"खुद कमाने जाओ तो'आटे-दाल'का भाव पता चले"

"जैसे अपने बाप-दादा के चक्कर में फंस कर हम ऐश नहीं कर पाए....

ठीक वैसे ही तुम भी नहीं कर पाओगे....हमारे जीते जी"


"आखिर क्या नाजायज़ मांग लिया था मैने?"

"क्या मुझे खिलौनों से खेलने का शौक नहीं रखना चाहिये था?"

"या फिर....सब दोस्तों को'बाईक'चलाते देख'बाईक'के बारे में सोचना भी नहीं चाहिये था?"

"'बाईक'ना होने की वजह से ही तो मेरी'गर्ल फ्रैंड'...

मेरी ना रही"

"छोड कर चली गयी मुझे किसी दूसरे की खातिर"

"उसके पास नई'यामाहा'जो थी और मेरे पास पुराना'प्रिया'स्कूटर"

"स्कूटर या बस में बैठना पसन्द जो नहीं था उसे और....

'बाईक'कहाँ से लाता मैँ?"

"डाका डालता क्या कहीं?"

"पता ही नहीं चला कब आँखो से'झर-झर'जल की धारा बह निकली"

"ये भला क्या बात हुई कि...

बेशक'तिजोरी'भरी पडी सडती फिरे लेकिन....

रहना फटेहाल ही है"

"बडे-बूढे सोचते हैँ कि वो आने वाली नस्ल के लिए जोड रहे हैँ"...

"तो एक बात बताओ यार कि...आने वाली नस्ल क्या आसमान से टपकेगी?"

"जो सीधे तौर पर उनके वारिस हैँ"....

"उनसे'डाईरैक्टली'जुडे हैँ"...

"वो तो तरसते फिरें ..और ये महाशय चले हैँ जोडने आने वाली नसलों के लिए"


"हुह!...

उनका ख्याल है इन्हें ...

जिन्हें ना इनका'नाम'मालुम होगा और ना ही'रिश्ता'

"और ना ही होगी छोटे-बडे की कोई कदर"

"अरे ये पुरानी कहावत भी तो इन्ही की ज़बानी सुनी थी कभी हमने कि...


"पूत'कपूत'तो क्यों धन संचय?"...

"पूत'सपूत'तो क्यों धन संचय?"

"मतलब कि..अगर औलाद'नालायक'निकली तो फिर जोड के क्या फायदा?"

"वो तो सब उजाड ही देगी"

"और अगर औलाद'लायक'निकली तो फिर'जोड-जोड'के क्या फायदा?

"वो तो अपने आप पहले से भी कहीं ज़्यादा'कमा-खा'लेगी"

"बस ये ख्याल दिल में आते ही मैने मन ही मन ठान लिया कि....

"अब ऐसा नहीं होगा"...

"मैँ अपने बच्चों की हर'जायज़'फरमाईश को पूरा करूंगा"

"अपने जीते जी उनको किसी चीज़ के लिये तरसने नहीं दूंगा"

"और मैँ बच्चों को बुला कह रहा था कि ...

"सांता...ज़रूर आएगा"...हाँ...

"सांता...ज़रूर आयेगा"

***राजीव तनेजा***

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