"आदमी गर आदमी"
***प्रभाकर***
(मेरे अँकल द्वारा लिखी एक और गज़ल)
आदमी गर आदमी को ही न जाने लगे
खुदा की ज़ात को वो कैसे पहचाने लगे
तेरी रहमत ने बदल डाले रुख रिन्दों के
मयखाना छोड अब तो शिवाले जाने लगे
खुदापरस्त, राजा-रंक में फर्क क्या जाने
सोना मिट्टी समझ,मिट्टी में ही मिलाने लगे
खुमारी-ए-खुदा की में हुए मदहोश इस कदर
कि बेखबरी में हम सब कुछ लुटाने लगे
न नहा सके तेरी चाँदनी में हम एक बार
इस ख्याल से अब हम घबराने लगे
गिला ना शिकवा है किसी से अब'प्रभाकर'
कि हर बशर में नज़र खुदा अब आने लगे
रिन्द=गुनाहगार, रहमत=कृपा
मयखाना=शराबखाना, खुदापरस्त=ईश्वर को चाहने वाले
बशर=व्यक्ति
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