"लेडीज़ फर्स्ट"

"लेडीज़ फर्स्ट"

***राजीव तनेजा***


"आज घडी-घडी रह-रह कर दिल में ख्याल उमड रहा था कि..

"जो कुछ हुआ....क्या वो सही हुआ?"

"अगर सही नहीं हुआ तो फिर...आखिर क्यूँ नहीँ हुआ?और...

या फिर यही सही था तो फिर...

ऐसा क्यूँ हुआ?"

"आखिर'ऊपरवाले'से मेरी क्या दुशमनी थी?

"किस जन्म का बदला ले रहा था वो मुझसे?....

जो उसने मुझे'लडका'बनाया"....


"अगर लडकी बना देता तो...उसका क्या घिस जाता?"


"उसका तो कुछ बिगडा नहीं और मेरा कुछ रहा नहीं"


"तबाह करके रख दी मेरी पूरी ज़िन्दगी उसके इस लापरवाही भरे फैसले ने"


"अगर दुनिया में एक'लडका'कम हो जाता...या फिर...

एक'लडकी'ज़्यादा हो जाती तो कौन सा'ज्वालामुखी'फूट पडता?"


"या कोई'ज़लज़ला'ही आ जाता?"


"तंग आ चुका था मैँ इस'लडके'के ठप्पे से"...

"लगता था जैसे हम'लडकों'की किस्मत में दुख ही दुख लिखे डाले हैँ ऊपरवाले ने"


"तकदीर ही फूटी है हमारी"


"हमारी किस्मत में बस...'काम ही काम'और...

इन कम्भख्त मारियों कि किस्मत में...'आराम ही आराम'"


"ऊपर से रही सही कसर ये मुय्या...

'लेडीज़ फर्स्ट'का बोर्ड ही पूरी किए देता है"


"इसे कहते हैँ...जले पे नमक छिडकना"


"साला!..जहाँ जाओ वहीं ये'बोर्ड'टंगा मुँह चिढा रहा होता है कि...

"बेटा सुबह-सवेरे उठा करो"...

"तब जा के कहीं तुम्हारा नम्बर आएगा"....

"फिलहाल...तो सिर्फ'लेडीज़'ओनली"


"क्या ये'लेडीज़'आसमान से टपकी हैँ और..हम'ग़टर'की पैदाईश?"


"चाहे'बिजली'का बिल हो या फिर हो'सिनेमा'का टिकट"..

"या फिर हो कोई'सरकारी'काम"...

"इन'मेमों'के लिये तो बस'आराम ही आराम'...


'बस'में चढो तो...'लेडीज़ फर्स्ट'


'ट्रेन'में सफर करो तो भी...'लेडीज़ फर्स्ट'और तो और ..इनके लिए'स्पैशल'डिब्बा


"गल्ती से अगर'जान-बूझ'के'आपा-धापी'में चढ भी जाओ तो ....

'ठुल्ला डण्डा लिए तैयार'...


"पहले अपना'सैक्स'तो देख ले'मरदूद'...फिर लहरा'डण्डा'...

"भाई ही भाई का दुशमन...

"वाह! रे ऊपरवाले...तेरा इंसाफ"

"तेरी लीला अपरंपार है प्रभू!..."


"आखिर!..क्या होता जा रहा है पूरी'सोसाईटी'को?"....

"पूरे समाज को?"...


"जिसे देखो'तलवे'चाटने को बेताब"


"कोई इज्जत-विज्जत भी है कि नहीं?"


"ये जीना भी कोई जीना है?"

"इस से तो अच्छा है कि...'चुल्लू'भर पानी में डूब मरो"


"कभी-कभी'जी'में आता है कि खुद्कुशी कर लूँ"...

"कुतुबमिनार से कूद्कर आत्महत्या कर लूँ...लेकिन...फिर ये सोच के रुक जाता हूँ कि ...

क्या मालुम वहाँ भी'लेडीज़ फर्स्ट'का बोर्ड टंगा नज़र आए और....

मेरा आपा...आपे में ना रहे"


"ना-उम्मीद हो सोचा कि अगर'दुशमन'से मुकाबला ना कर सको तो...

उस से'दोस्ती'करना ही बेह्तर है"


"इस सोच के दिमाग में आते ही यही सोच डाला कि...

अब से सारी'दुशमनी'...सारे 'वैर-भाव'खत्म....दोस्ती शुरू"


"पहला कदम बढाने के लिए'चैट-रूम'खोला और लगा....

'मैसेज'पे'मैसेज'दागने इन छोकरियों की'आई डी'पे लेकिन...

बहुत कोशिश करने पर भी जब किसी ने घास नही डाली तो...नाज़ुक दिल टूट के बिखर गया"


"पूरी दुनिया इन'लडकियों'के पीछे हाथ-धो के पडी थी और...

हम लडकों को कोई'मुफ्त भाव'भी खरीदने के लिए क्या..

'किराए'पर लेने के लिए भी तैयार नही"

"इतने गए-गुज़रे हैँ हम?"


"ऊपर से आप कहते हैँ.....'बी पाज़ीटिव'"


"खाक!...'बी पाज़ीटिव'"


"अब तो'टू-लैट'का बोर्ड भी टंगा-टंगा ज़ंग खाने लगा है".....


"कोई तो आ जाओ यार...प्लीज़"


"किसी का दिल नहीं पसीजा"

"उफ! ..ये बेदर्द ज़माना...उफ!..."


"दुखी हो दिल में कुछ अलग तरह के ख्यालात उमडने लगे...


"लडके अच्छे है या फिर लडकियाँ?"


"जिस तरह हम लडके सरेआम'गुण्डागर्दी'करते फिरते हैँ...

"क्या वो सब लडकी बनने के बाद मैँ कर पाउंगी?"


"नहीं!..."


"जिस तरह'पति'के मरने के बाद कभी उसकी'विधवा'को'सती'कर दिया जाता था...

"क्या उसी तरह मैँ खुद'सती'होने की कल्पना भी कर पाउंगी?"


"नहीं!..."


"हम तथाकथित'मर्द'लडकी पैदा होने से पहले ही उसे पेट में ही खत्म कर डालते हैँ...

"क्या वैसा मैँ अपनी होने वाली औलाद के बारे में सोच भी पाउंगी?"


"नहीं!..."



"हम'मर्द'लडकी को पढाने के बजाए,घर बैठा'चूल्हा-चौका'करवाने में राज़ी हैँ..

"क्या वैसा मैँ अपने या अपनी बच्ची के बारे में सोच भी पाउंगी?"


"नहीं!..."



"क्या मैँ सरेआम किसी लडकी का चलती'ट्रेन'या'बस'में'बलात्कार'कर पाउंगी?"


"नहीं!..."



"राह चलते जिस बेशर्मी से मैँ आज तक लडकियों को छेडते आया हूँ...

"ठीक उसी बेशर्मी के साथ क्या मैँ किसी लडके को छेड पाउंगी?"


"नहीं!..."



"जिस तरह हम'मर्द'आज तक औरत पे हाथ उठाते आए हैँ...

क्या लडकी बनने के बाद मैँ ऐसा'मर्दों'के साथ कर पाउंगी?"


"नहीं!..."



"क्या मैँ किसी'मर्द'को अपने'पैरों की जूती'बना पाउंगी?"



"नहीं!..."


"मेरे हर सवाल का जवाब...सिर्फ और सिर्फ'ना'में था"


"आखिर मैँ ऐसी सोच भी कैसे सोच कैसे सकता था?"

"जानता था कि आज तक जो-जो होता आया है...

सब गलत होता आया है लेकिन...अपनी'मूँछ'कैसे नीची होने देता?"


"मैँ भी तो आखिर एक'मर्द'ही था ना?"


"लडकी बनने का'फितूर'दिमाग से उतर चुका था"...


"मूँछ जो बीच में अपनी एंट्री मार चुकी थी"


***राजीव तनेजा***

1 comments:

Anonymous said...

ठीक

 
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