चेहरा उदास हो चला था मेरा…माथे से पसीना रुकने का नाम नहीं ले रहा था…कंपकपाते हुए हाथों से फोन को वापिस रख मैँ निढाल हो वहीं सोफे पे धम्म जा गिरा|सोच-सोच के परेशान हुए जा रहा था कि..क्या होगा?….कैसे होगा?…कैसे मैनेज करुंगा सब का सब? कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या किया जाए? और कैसे किया जाए? बार-बार ऊपरवाले को याद कर यही प्रार्थना किए जा रहा था कि… “काश!…ये होनी टल जाए किसी तरह|उनका आना कैंसल करवा दे भगवान|इक्यावन!… पूरे इक्यावन रुपए का प्रसाद चढाउंगा” सच ही तो कहा है किसी नेक बन्दे ने कि …”जब आफत लगी टपकने…तो खैरात लगी बटने”
अन्दर ही अन्दर सोच रहा था कि… “पहले काम तो बने …फिर देखुंगा कि ‘इक्यावन’ का चढाऊँ के ‘इक्कीस’ का?..या फिर ‘ग्यारह’ में भी क्या बुराई है आखिर? भोग ही तो लगाना है बस। बाकी पाड़ना तो उसे अपुन जैसे हाड-माँस के इनसानों ने ही है।सो!….कुछ कम या ज़्यादा से क्या फर्क पडने वाला है?वैसे भी पत्थर की मूरत को क्या खबर कि ‘देसी’ की खुशबू क्या है और ‘डाल्डा’ कि क्या?”
हाँ!…मुझ पागल को ही फोन उठाना था उनका…मति तो मेरी ही मारी गयी थी ना जो फ्री इनकमिंग के लालच में चार-चार फोन लगवा डाले और रौब झाडने के चक्कर में मामाजी को उन सभी के नम्बर थमा बैठा।अब एक पैसा प्रति सैकैंड का कॉल हो तो बंदा तो बेवाकूफी कर ही बैठेगा ना? सो!…मैँ भी कर बैठा…इसमें कौन सी बड़ी बात है?क्या ज़रूरत पड़ गई थी मुझे इतनी जल्दी उनका एहसान उतारने की? अच्छे-भले मुम्बई में बैठे-बैठे ‘राज ठाकरे’ के आंतक का मज़ा ले रहे थे…लगने देता उनकी वाट…मेरा क्या जा रहा था?.. लेकिन नहीं…पागल कुत्ते ने काटा था ना मुझे जो मैँ उन्हें उसके ताप से बचने के लिए कुछ दिन दिल्ली में आ हमारे साथ…हमारे घर में बिताने की युक्ति सुझा बैठा।सुनते ही बांछे खिल उठी थी उनकी…उसके बाद तो लगे दे पे दे फोन करने लगे एक के बाद एक…मुझे तभी समझ जाना चाहिए था कि बेटा राजीव…तू तो गया काम से…अब भुगत…
अब अगर किसी बन्दे से अनजाने में कोई गलती हो भी गई तो बच्चा समझ के माफ कर दो उसे…ये क्या कि उसकी बात को गाँठ में बाँध..पत्थर की लकीर समझ लो और पड़ जाओ हाथ थो के उसके पीछे? अपने…खुद के..सगे वालों का ही तो बच्चा है… कोई पराई औलाद तो नहीं कि…ले बेटा…तू ये भी और वो भी?…
उफ!..अब स्साला…एक फोन ना उठाओ तो मिनट से पहले दूजे की घंटी बज उठती है….दूजा ना उठाओ तो तीजे पे और तीजा ना उठाओ तो चौथा गला फाड़ चिंघाड़ने लगता है।मैँ तो तंग आ गया हूँ इन मुसीबत के मारे मोबाईल फोनों से।स्सालों!…ने एक पैसा पर सैकेंड का पंगा डाल पंगू बना डाला पूरी इनसानी जमात को।पहले कितना अच्छा था ना कि रीचार्ज ना करवाओ तो पट्ठे तुरंत ही लाईन कट कर डालते थे कि…”ले बेटा!…हो जा आज़ाद… कोई तंग नहीं करेगा अब”
और अब?…अब भले ही जेब में इकलौती चवन्नी गुलाटियाँ मार कलाबाज़ियाँ खाने में शर्म महसूस कर रही हो लेकिन फोन वही ढीठ का ढीठ….सुसरा…चालू का चालू…बन्द होना तो जैसे भूल ही गया हो।अब इसे …बैलैंस हो ना हो से कोई फर्क नहीं पड़ता।किसी को गोली देने लायक भी तो नहीं छोड़ा पट्ठों ने कि….”भैय्या मेरे…’फोन’ में बैलैंस नहीं था….सो!..बन्द हो गया…कैसे बात करता आपसे?”
अच्छा झुनझुना थमाया है पट्ठों ने ये लाईफ टाईम वाला …पता भी है इस संसार में हर चीज़ नश्वर है…हमारे…आपके …सबके समूचे कुल ने नाश हो जाना है एक दिन… लेकिन इन्हें अकल हो तब ना…कोई जा के इनसे पूछे तो सही कि “क्या ज़रूरत थी इनको मोबाईल की लाईफ अनलिमिटिड करने की?”….”डॉक्टर ने ऐसा करने को कहा था या फिर कमाई हज़म नहीं हो रही थी?”…अगर नहीं हो रही थी तो मुझसे से कहते..मैँ काम आ जाता तुम्हारे…अपना चुपचाप आपस में मिल बाँट के खा लेते और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती लेकिन वो कहते हैँ कि देवर को नहीं ….भले ही खूंटे से….
खैर!…लाईफ अनलिमिटिड कर दी..सो कर दी…जब चिड़िया चुग गई खेत तो अब किया ही क्या जा सकता है? लेकिन कोई मुझे बताएगा कि.. “क्या ज़रूरत पड़ गई थी इन्हें कॉल रेट कम करने की?…बेवाकूफ के बच्चे!…इतना भी नहीं जानते कि कॉलें सस्ती करने से भी लोगों की नीयत में फर्क नहीं पड़ता।मिस्ड कॉल मारने वाले तो अभी भी मिस्ड कॉलें ही मार रहे हैँ ना? कि ले बेटा!..अपना काम तो कर दिया हमने…अब तू भी अपना कर्तव्य निभा” …
“स्साले!…दुअन्नी छाप कहीं के”…
“पैसे कौन भरेगा?…तुम्हारा बाप?”…
“कान खोल के सुन लो सब के सब…पैसे पेड़ पर नहीं उग रहे मेरे और ना ही मेरा बाप कोई चलता मिल छोड़ गया है कि… “ले बेटा …तू उड़ा…मौज कर…मैँ हूँ ना”..
अब अगर कोई लडकी मिस्ड काल करे तो बात समझ में भी आती है कि लिपिस्टिक-पाउडर के लिए पैसे बचा रही होगी और फिर उनका फोन हम उठाएँ भी तो किस मुँह से?…शर्म नहीं आएगी हमें?…
गर्ज़ जो अपनी है कि कहीं पट्ठी नाराज़ हो के किसी और के साथ ही चोंच लड़ाने में मस्त ना हो जाए।
“बड़ी ही कुत्ती शै है ये औरत ज़ात भी…इनकी ‘हाँ’ में भी कहीं ना कहीं ‘ना’ छुपी रहती है…कोई भरोसा नहीं इनका…हम इस मुगालते में भरी दोपहरी सड़क किनारे..सींक कबाब बन खड़े-खड़े काट देते हैँ कि अब आएगी…अब आएगी और बाद में खुफिया सूत्रों के जरिए पता चलता है कि महारानी साहिबा आज किसी नए पंछी के साथ कम्पनी बाग के कोने वाले झुरमुट में कुछ गैर ज़रूरी मसलों पर गुटरगूं करते हुए ज़मीन पे बिछी हुई मखमली खास का बेरहमी से कत्लेआम कर रही थी”…
“इसलिए भइय्या!…ये चाहे मिस्ड कॉल करें या फिर फिस्ड कॉल करें और चाहें तो कुछ भी ना करें…हम तो इन्हें ज़रूर फोन करेंगे…बिलकुल करेंगे…डंके की चोट पे करेंगे ..अब ऐतने बुरबक्क तो नहिए हैँ ना हम कि रुपिय्या दो रुपिय्या बचावे की खातिर पूरा लड्डू ही हाथ से गवाँ बैठें?”..
बस यही बुदबुदाते हुए पता ही नहीं चला कि कब आँख लग गयी।जाने कैसा शोर था? कि मैँ अचानक चौंक के उठ खडा हुआ।वही हुआ जिसका मुझे डर था…मोबाईल ही घनघना रहा था।’डेट’…’कन्फर्म हो चुकी थी उनके आने की।निर्दयी…निर्मोही ऊपरवाले ने एक ना सुनी और कर डाली अपनी मनमानी।लाख माथा फोड़ा उसके आगे लेकिन कोई फायदा नहीं…
“कर ली उसने अपने दिल की पूरी…निकाल ली अपनी भड़ास”…
“मैँ तो बस ऐसे ही मज़ाक-मज़ाक में मज़ाक कर रहा था कि ‘इक्यावन’ या ‘इक्कीस’ और इन्होंने झट से बुरा भी मान लिया।भला!…’डाल्डा’ का प्रसाद भी कोई चढाने लायक होता है?….जो मैँ चढाता?”…
“अब ये क्या बात हुई कि…वो खुद…पूरी ज़िन्दगी हमसे मज़ाक पे मज़ाक करता फिरे तो कोई बात नहीं?…हमने ज़रा सी ठिठोली क्या कर ली,…यूँ मुँह फुला के बैठ गये जनाब जैसे मैने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर डाला हो…पाप कर डाला हो।अच्छी तरह!…अच्छी तरह मालुम है मुझे भी और उन्हें भी कि चलेगी तो उनकी ही….सर्वशक्तिमान जो ठहरे…इसीलिए चौड़े हो रहे हैँ”…
“हाँ-हाँ!…और चौड़े होओ…खूब चौड़े होओ।इस अदना से बन्दे की रज़ा पूछने की ज़रूरत ही क्या है?…वो लगता ही क्या है तुम्हारा?…और फिर इन्हें फर्क भी क्या पडता है कि इनके राज में कोई मरे या जिए?”
इनकी बला से मैँ कल का मरता आज मर जाऊँ…इन्हें कोई फिक्र नहीं…कोई परवाह नहीं।
“हुँह!..खुद तो ऊपर…मज़े से…गद्देदार सिंहासन पे विराजमान बैठे हैँ सबकी ज़िन्दगियों का फैसला करने के लिए और यहाँ?…यहाँ नीचे वालों की कोई चिंता ही नहीं…कोई सुध ही नहीं है जनाब को”
“अरे!…जो आपका काम है…उसे ही मस्त हो के करो ना भाई..काहे को दूसरे के फटे तंबू में अपना बम्बू फँसाते हो?”…
“नेकी करते जाओ और कुँए में डालते जाओ”…बचपन से यही सुनते-सुनते कान पक गए हैँ हमारे।अपनी सीख हमें सिखाते हैँ और खुद ही भूले बैठे हैँ जनाब।पूरी ज़िन्दगी का ठेका इन्होंने ही ले लिया हो जैसे।हर बंदे का हिसाब-किताब ऐसे सम्भाल के रखते हैँ मानो गर्ल-फ्रैंड्ज़ के मोबाईल नम्बर कि…एक भी ना छूट जाए कहीं भूले से भी।
“अब फलाने ने ये-ये अच्छा किया और ये-ये बुरा…तुम्हें इससे टट्टू लेना है? अगले की मर्ज़ी …जो जी में आए…करे लेकिन नहीं!…तुम्हें चैन कहाँ?…बस हर एक के पीछे ही पड़े रहा करो हाथ धो के…और कोई काम-धाम तो है ही नहीं ना तुम्हें?
“ठीक है!…माना कि पैदा करने वाला ‘वो’…और मारने वाला भी ‘वो’ लेकिन ये जो बीच का वक्त है ‘ज़िन्दगी’ और ‘मौत’ के…उसे तो अपनी मर्ज़ी से जी लेने दो हमें कम से कम”
“क्या ज़रूरत पड़ जाती है आपको जो ऐसे मुँह उठा के टांग अडाने चले आते हो हमारी निजी ज़िन्दगियों के बीच में?..कोई और काम-धाम है कि नहीं?”मन ही मन ‘उसे’ कोसते हुए पता ही नहीं चला कि वक़्त कैसे तेज़ी से सरपट दौडे चला जा रहा था। रौंगटे खडे होने को आए थे कि वो भी एक-एक चीज़ का बदला ज़रूर लेंगे।
कोई कसर बाकी नहीं रहने देंगे।आज महसूस हो चला था कि एक ना एक दिन सेर को सवा सेर ज़रूर मिलता है।सही या गलत…सब का हिसाब यहीं…इसी धरती पर ही चुकाना पडता है।ये सब अगला जन्म- वन्म सब बेकार की…बेफिजूल की बातें हैँ।इनका कोई मतलब नहीं…असलियत से इनका कोई सरोकार नहीं।जिसका जैसा मौका लगता है वो वैसा दाव चले बगैर नहीं रहता।अन्दर ही अन्दर मेरा चोर दिल कह रहा था कि…
“आखिर तुमने भी भला कौन सी कसर छोडी थी जो अब उसकी तरफ ऐसे कातर नज़रों से टुकुर-टुकुर ताक रहे हो?… क्या अपना खुद का माल होता तो इस बेदर्दी से उडाते?”…
“नहीं ना?”…
“तो फिर?”…
“अब भुगतो”…
“जैसा करोगे…वैसा तो भरना ही होगा मित्र”…
बोया पेड बबूल का तो फल कहाँ से होय?.. जैसी करनी वैसी भरनी”…
“खुद तो दूसरों के घर में ‘नवाब सिराजुदौला’ बने बैठे थे ना जनाब?…अब क्यों साँप सूँघ गया आपको?”..
“बाप का माल समझ के उड़ा रहे थे ना सब का सब?”…
“अरे!…अगर सचमुच बाप का समझा होता तो आज ये नौबत ही नहीं आती कि खुद अपनी ही करतूतों से मुँह छुपाते फिरते”
“उस वक्त अक्ल क्या घास चरने गयी थी जब फोकट का माल समझ…’राम नाम जपना…पराया माल अपना’ की पालिसी पर चल रहे थे?…. हर चीज़ तो तोड-ताड के बन्ने मारी थी तुमने और तुम्हारी नालायक औलादों ने।कोई कंट्रोल-शंट्रोल भी होता है कि नहीं? या फिर बस…खुले साँड की तरह खोल डालो अपने नमूनों को कि….
“लो बच्चो!…सामने पराया खेत है….मनमर्ज़ी से रौंद डालो…कुचल डालो…तहस-नहस कर डालो”…
“क्या सोचा था उस वक्त कि…कौन सा अपने बाप का है?”…
“सैल्फ कंट्रोल भी कोई चीज़ होती है कि नहीं?…अब भुगतो”…
गलती से ‘मुम्बई’ आने का न्योता क्या दे बैठे मामा जी…खुद ही अपने पाँव पे कुल्हाडी चला डाली उन्होंने। उन्हें भी क्या पता था कि पक्के बेशर्मों से पाला पडा है?…न्योता मिला और पहुँच गये सीधा अगली ही ट्रेन से अपने सात बच्चों की पलटन लेकर लेकिन एक बात की तो दाद देनी ही पडेगी मित्र…माथे पे एक शिकन तक नहीं आई थी उनके और एक तुम हो कि अभी से साँसें फूलने लगी? “बारिश के आने से पहले ही तंबू के छेद तक गिनने बैठ गये?”…
“कैसे मर्द हो तुम?…किस सोच में डूबे हो?”..
“अरे-अरे!…कहीं मेरी कही इन बातों का तुम पर उलटा असर तो नहीं हो रहा है ना मित्र?”…
“मेरी बातों में आ के कहीं तुम उनके स्वागत की तैयारी के बारे में तो नहीं सोचने लगे ना?”…
“क्या कहा?”…
“अक्ल कहीं घास चरने तो नहीं चली गई तुम्हारी?…पता भी है कि कितने की वाट लगेगी?”…
“तो फिर तुम्हीं बताओ कि मैँ क्या करूँ?”…
“ये?…ये तुम मुझ से पूछ रहे हो?”…
“यूँ!…यूँ हाथ पे हाथ धरे रहने से कुछ नहीं होगा जनाब…कुछ सोचो”..
“सोचो कुछ…दिमाग के घोडे दौड़ाओ…कोई तो तरकीब होगी इस मुसीबत से निकलने की”…
“याद रखो…इस दुनिया में नामुमकिन कुछ भी नहीं है…कोई ना कोई हल तो निकलेगा इस मुसीबत का”…
“हाँ!…ज़रूर निकलेगा”..
“क्या करूँ?…कहाँ जाऊँ?..कुछ समझ नहीं आ रहा है”…
“यैस्स!…यैस…यैस…एक आईडिया है”..
“हाँ!…
“हाँ-हाँ!…यही ठीक भी रहेगा..घर को ही ‘ताला’ लगा खिसक लेता हूँ कहीं बच्चों समेत…ना होगा बाँस और ना ही बजेगी मेरी बाँसुरी”…
“उफ!…ये स्साला…ऐन टाईम पे कुछ सूझ ही नहीं रहा है कि कहाँ जाऊँ?…किसके घर जा के डेरा जमाऊँ?”… “कम्बख्त!…किसी का न्योता भी तो नहीं आया इस बार कि वहाँ जा के लौट लगाऊँ”…
“हाँ-हाँ!..पिछले साल का भूला नहीं हूँ मैँ..बिना न्योते के ही जा पहुँचे थे चाचा जी के घर….आगे मुँह चिढाता ताला लटका मिला था। लेने के बजाए देने पड गए थे…आमदनी दुअन्नी भी नहीं और खर्चा चोखा…पूरे रास्ते बीवी के ताने सुनने पडे…सो अलग” …
“या एक काम क्यों नहीं करता मैँ?…यहीं-कहीं…आस-पास ही जा के छुप जाता हूँ…कैसा रहेगा?”… “नहीं!…बिलकुल नहीं…ये ठीक ना होगा…अपने घर से ही मुँह छिपाता फिरूँ?”…
“लोग क्या कहेंगे?..और फिर इसमें समझदारी ही कहाँ की है कि मैँ अपने ही घर में छुप-छुपाई खेलता फिरूँ?”..
“तो फिर तुम्हीं बताओ कि मैँ क्या करूँ?”….
“क्या करूँ?…क्या करूँ?…करने से कुछ नहीं होगा…कोई ना कोई चक्कर तो ज़रूर चलाना पडेगा और वो तुम्हें ही चलाना पड़ेगा”…
“हाँ!…मैँ तुम्हारा लगता ही कौन हूँ?…तुम तो मेरी मदद करने से रहे”…
“मुझे ही कुछ करना पड़ेगा”…
“तो फिर सोच क्या रहे हो?…कुछ करते क्यों नहीं?”…
“इतनी देर से सोच ही तो रहा हूँ…झक्क थोड़े ही मार रहा हूँ”…
“ठीक है!…तो फिर सोचो…सोचो!…खूब सोचो”…
“हाँ!…एक आईडिया और है”…
“क्या?”..
“हाँ!…यही ठीक है और…यही ठीक भी रहेगा”…
“हमेशा के लिए ही रास्ता बन्द… नंगपना दिखा के एक ही बार में पक्का बेशर्म बन जाता हूँ”…
“पैसे बचाने में कैसी शर्म?”
“अगर समझदार होंगे तो तुरंत ही अपना ‘झुल्ली-बिस्तरा’ सम्भाल ‘मुम्बई’ वापसी का टिकट कटवा लेंगे”…
“और अगर तुम्हारी तरह बेवाकूफ हुए तो?”…
“तो फिर किसी नई जगह पर…नए लोगों से …नई तरह की रिश्तेदारी गांठने की कोशिश कर रहे होंगे…मेरे यहाँ तो शरण मिलने से रही”…
“गुड!…वैरी गुड लेकिन ऐसे सर्दी के मौसम में वो आखिर जाएँगे कहाँ?”…
“क्या बात?…तुम्हें बड़ी चिंता हो रही है”…
“म्मुझे?…मुझे भला क्यों चिंता होने लगी…रिश्तेदार तो तुम्हारे हैँ”…
“और तुम किसके हो?”..
“ये क्या बात हुई कि तुम किसके हो?”…पता भी है कि मैँ तुम्हारा अंतर्मन हूँ…तुम्हारी आत्मा हूँ..जब तक तुम जीवित हो याने के परमात्मा से मिल नहीं जाते ..तब तक मैँ तुम्हारे साथ…साथ ही रहने वाला हूँ”…
“तो फिर मेरी मदद क्यों नहीं करते?”…
“कर ही तो रहा हूँ”…
“कैसे?”…
“ये जो तुम्हारे दिमागी भंवर में एक से एक बढकर चिंताएँ जो उमड़-घुमड़ कर उफान पैदा कर रही हैँ”….
“तो?”…
“इस उफान को परवान चढा…ऊंचा उठाने वाला मैँ ही तो हूँ”…
“ओह!…मुझे लगा कि तुम मेरी साईड नहीं बल्कि मामा जी की तरफ हो?”…
“ऐसा तुमने सोच भी कैसे लिया वत्स?”…
“तुम्हें ही तो बड़ी चिंता सता रही थी कि…ऐसे सर्दी के मौसम में वो कहाँ जाएँगे?…क्या करेंगे?”….
“तो?…तुम्हारी तरह इतने निर्मोही भी नहीं हम…थोड़ी-बहुत इनसानियत तो हम आत्माओं में भी होती ही है…चाहे ऊपरी तौर पर ही सही”…
“ओ.के…ओ.के लेकिन इसे बस ऊपरी ही रहने देना….असलियत में इसका कोई वजूद नहीं होना चाहिए हमारी ज़िन्दगी में”…
“बिलकुल”…
“हाँ!…तो मामा जी से छुटकारा पाने का तुम कौन सा आईडिया सुझा रहे थे?”..
“मैँ तो ये कह रहा था कि रोज़-रोज़ के टंटे से मुक्त होने के लिए बेहतर यही होगा कि सारी शर्म औ हया त्याग हम एक बार में ही मुँहफट हो जाएँ”…
“गुड!…वैरी गुड…हमारी अच्छी सेहत के लिए मुँहफट हो जाना ही बेहतर होगा”…
“बिलकुल”…
“तो फिर सीधे-सीधे फोन कर के ही कहे देता हूँ उनसे कि…”हम तो खुद ही जा रहे हैँ दो महीने के लिए ‘बाबाजी’ के आश्रम…बीवी की तबियत जो ठीक नहीं रहती…शायद!..’योगा-वोगा’ से ही ठीक हो जाए”
“गुड!..वैरी गुड….समझदार को इशारा ही काफी रहेगा….नासमझ नहीं हैँ वो दोनों कि इतनी सी भी बात पल्ले ना पड़े..सब अपने आप समझ जाएंगे और आने से पहले ही चलते बनेंगे”…
“बिलकुल”..
“तो फिर मैँ चलूँ?”…
“हाँ-हाँ !..ज़रूर”….
“ओ.के…बॉय”…
“बॉय”…
“अपना ध्यान रखना”…
“तुम भी”..
अपनी मुश्किल का इतना आसान हल होता देख खुशी भरी मुस्कान अभी ठीक से चेहरे पे आयी भी नहीं थी कि मुय्या फोन फिर से घनघना उठा।मोबाईल वालों को सौ-सौ गाली बकते हुए फोन उठाया तो जो खबर मिली…सुन के…फीकी पडती मुस्कान चेहरे पे फिर से खिल उठी थी…
मामा जी का ही फोन था।खबर ही कुछ ऐसी थी कि मेरी बाँछो ने तो खिलना ही था…सो!…बिना किसी प्रकार की देरी किए वो खिल उठी। उनका आना कैंसिल जो हो गया था ….’बाबाजी’ के आश्रम जा रहे थे वे दोनों…मामी की तबियत जो ठीक नहीं रहती थी आजकल
“सचमुच!…’बाबाजी’ के ‘योगा’ में बड़ा चमत्कार है…बडी-बडी बिमारियाँ…भीषण से भीषण विकार भी जड़ से मुक्त हो जाते हैँ…कुछ ही महीनों में”…
“अब मैँ ‘मामाजी’ को ‘बाबा’ के योगा के गुण बढ-चढ कर बता रहा था”
जय हिंद”…
***राजीव तनेजा***
Rajiv Tanejahttp://hansteraho.blogspot.com
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मझेदार
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