"अब तक छ्प्पन"

"अब तक छ्प्पन"

***राजीव तनेजा***

"ये साला!.....कम्प्यूटर भी गज़ब की चीज़ है ....गज़ब की क्या?......

बिमारी है साला....बिमारी"

"एक बार इसकी लत पड गयी तो समझो कि....बन्दा गया काम से"

"कुछ होश ही नहीं रहता" .....

"ना काम-धन्धे की चिंता" .....

"ना यार-दोस्तों की यारी"

"यहाँ तक की बीवी-बच्चों के लिये भी टाईम नहीं होता" ....

"बस हर वक़्त क्म्प्यूटर ही कम्प्यूटर"

"शुरु में तो खाना-पीना तक छूट गया था"

"ना दिन को चैन और ना ही रात को आराम",....

"हर वक़्त बस काम ही काम"...

"अब अपने मुँह से कैसे कहूँ कि ....

क्या काम करता था मैँ?"

"अरे कुछ खास नहीं,बस वही सब जो आप अपने बुज़ुर्गों से ...

'छुप-छुप के'...

'चोरी से' ......

"समझ गये ना?"

"बीवी बेचारी की तो समझ में ही नहीं आता था कि पूरी-पूरी रात जाग-जाग कर आखिर ये बन्दा करता क्या है ?"

"बेचारी को क्या मालुम कि कमप्यूटर तो मानो जैसे 'अलादीन' का जिन ...

जो मुराद माँगो....

देर-सवेर पूरी हो ही जाती है"

"जब अपुन ने कम्प्यूटर खरीदा तो ख्वाईश थी कि...

किसी भी तरीके से...

कुछ भी उलटा-पुलटा दिख जाये"

"बहुत सुन जो रखा था कि ...

ये भी दिखता है और वो भी दिखता है"

सो आज की तारीख में 'माशा-अल्लाह'पूरी की पूरी'हार्ड-डिस्क'ही भरी पडी है ऐसे जल्वों से"

"लेकिन क्या करें जनाब,ये दिल है कि मानता नहीं"

"रोज़-रोज़ नए-नए जलवों की तलाश रहती है "

"बीवी बेचारी को तो रोज़ कोई ना कोई गोली दे देता कि ...

'प्रोजैक्ट वर्क' है...पूरा करना है"

"उस बावली को क्या पता कि मैँ कौन से प्रोजैक्ट पर काम कर रहा था"

"कुछ दिन बाद सब जलवे बेमानी से लगने लगे"...

"दिल अब कुछ'हाई लैवल'की डिमांड करने लगा था"

"कुछ ना कुछ तो असलियत में भी होना चाहिए"


"है ना?"


"सिर्फ आँखे सेंक-सेंक के कौन कमबख्त गर्म होता फिरे?"

"अब क्या करें?"...

"तसल्ली नहीं होती ना"

"सो मैने अपनी गड्डी का स्टेयरिंग 'सर्फिंग'से चैटिंग की तरफ मोड दिया"

"बस गड्डी का मुडना था कि अपनी तो निकल पडी....

"रोज़ कोई ना कोई टकराने लगी"...

'कभी 'गोरी'तो कभी'काली'...

'कभी कोई'मोटी-ताज़ी'तो कभी एक्दम'दुबली-पतली'....

"कभी-कभार किस्मत कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हुई तो एक-आध...

'छम्मक-छ्ल्लो'टाईप भी टकराने लगी"

"अपुन अपनी गड्डी का मीटर फुल स्पीड पर'टाप-ओ-टाप'खींचे जा रहा था कि ...

'ज़ोर का झटका' सचमुच बडी ज़ोर से लगा"

"अब तो दिल बस यही गा रहा था कि...

"हो... मै निकला गड्डी ले के...हर रोज़ कोई 'होर'आया....

हाय!...मैँ 'ओथे'....अपना फोन नम्बर कोयं छोड आया?"


"आखिर गल्ती तो मेरी ही थी ना...

फिर भला किसी और को क्या दोष देना ?"

"क्या ज़रूरत पड गयी थी,उस बावली को अपना फोन नंबर देने की?"

"उस नौटंकी ने भी आव देखा ना ताव....

दे दनादन घंटी पे घंटी खडकाने लगी"

"पता नहीं उसे मेरे चेहरे में ऐसे कौन से 'सुरखाब'के पर लगे दिखाई दिए कि . ...

'फुल-फ्लैज' सैंटी हो उठी"

"ये तो भला हो उन कम्पनी वालों का जो ...

'सैक्सी-सैक्सी' आवाज़ वाली लडकियों से लोगों को बारम्बार..

फोन कर-कर के परेशान करते रहते हैँ....

कभी'लोन'के नाम पे,...

तो कभी 'क्रैडिट-कार्ड' के नाम पर ...

तो कभी'इंशयोरैंस'के नाम पर"...

"कभी कुछ तो कभी कुछ"

"उनकी आड में असलियत को आसानी से छुपा गया मैँ"

"लेकिन मुसीबत कभी अकेले नहीं आती...

आठ-दस को हमेशा अपने साथ लाती है "

"वही हुआ जिसका मुझे डर था ...

"एक दिन सब की सब बावलियों को पता नहीं क्या सूझी कि...

बारी-बारी जो सबकी घंटी खड्कनी शुरु हुई तो रुकने का नाम ही नहीं लिया"

"एक से निबटूँ तो कंभखत दूजी टपक पडे"...

"दूजी से निबटूँ तो तीजी का फोन घनघना उठे"

"बीवी के कान खडे हो गये"....

"अब यार... ये तो ऊपरवाला जाने कि कैसे उसने हमारी बातें सुन ली और...

भडक खडी हुई"

"हाँ-हाँ ले आओ इन्ही को और बिठा दो चौके में"

"मेरे तो करम ही फूट गये थे जो तुमसे ब्याह रचाया"

"लाख मना किया था बाबूजी ने कि ...

लडके का चाल-चलन ठीक नहीं है"...

"ढीले करैक्टर का है"लेकिन मति तो मेरी ही मारी गयी थी जो तुम्हारे इस मरदूद चौखटे पे मर मिटी"

"शशि कपूर जो दिखता था मुझे तुम्हारे इस नास-पीटे चेहरे में"

"अकल पे पत्थर पड गये थे मेरी"

"पता होता कि तुम ऐसे-ऐसे गुल खिलाओगे तो तुमसे शादी करने के बजाए चुल्लू भर पानी में डूब मरती"

"मुझ बेवाकूफ को पता नहीं क्या सूझी और झट से पानी भरा गिलास थमा दिया"

"बस जैसे मानों जलती आग में घी पढ गया हो"

"आगबबूला हो उठी"....


"सम्भालो अपनी पलटन को"....

"मै तो चली मायके"....

"और हाँ...कान खोल के सुन लो ....

लाख मनाओ फिर भी वापिस नहीं आने वाली "

"अब दूसरी वाले को ही बिठा लेना....

देखती हूँ कितने दिन तक पका-पका के खिलाती है ?"

"नानी ना याद आ जाए तो कहना"


"हाँ-हाँ ले आउंगा"....

"एक नहीं सौ लाउंगा"...

"एक से एक 'टाप' की लाउंगा"....

"बीवी ऐसी तडपी कि फिर ना रुकी"...

"छोटे वाले को साथ ले चल दी मायके"

"मैने भी रोकना मुनासिब नहीं समझा"....

"आखिर बरसों बाद जो दिली ख्वाईश जो पूरी हो रही थी"

"खुली हवा में साँस लेने का मौका कैसे गवां देता?"

"उसके जाते ही सब्र कहाँ था मुझे?"

"जा पहुँचा सीधे'पाठक जी'के यहाँ"

"अरे वही 'पाठक जी'जिनके गली-गली ,...

हर मोड हर चौराहे पे पोस्टर लगे नज़र आते है"

"रिश्ते ही रिश्ते"..."मिल तो लें"

"तो हमने भी सोचा कि अब तो मिल ही लें"

"देखें कौन सा तीर मारते हैँ ये"

"उनका नाम तो यहाँ दिल्ली का बच्चा-बच्चा मुँह ज़बानी रटे बैठा है ...

पट्ठे ने कोई जगह भी तो नहीं बक्शी ..

क्या 'गली'....

क्या 'नुक्कड'...

क्या 'बस अड्डा'...

क्या 'रेलवे स्टेशन'...

"हर जगह बस 'रिश्ते ही रिश्ते'का बोर्ड टंगा नज़र आता है"

"जब इतना नाम है तो कोई ना कोई बात तो ज़रूर ही होगी बन्दे में"

"सो मैँ भला कहीं और क्यों जाता?""

"और मज़े की बात तो देखो कि....

साला!....खुद अभी तक कुँवारा बैठा है"...

"किसी जानकार ने बताया था कि कमीशन के लालच में अपनी तरफ तो ध्यान ही नहीं है बस...

दूसरों की वाट लगाता फिरता है हर् दम"

"नाम रजिस्टर करवाया"....

"काम होने की पूरी गारैंटी मिली तो एडवांस भी जमा करवा दिया"

"मेरी उमर और चौखटा देख के हर लडकी दिखाने की फीस अलग से माँगी उन्होने"

"मैने राज़ी-राज़ी हामी भर दी"....

"नाम-पता और फोन नम्बर सब नोट करा के मैँ घर की तरफ चला ही था कि...

बीच रासते में ही फोन आ गया कि....

"लौट आओ'..एक आई है तुम्हारे मतलब की"

"सब्र कहाँ था मुझे?"

"सो फटाफट जा पहुँचा"....

"पहुँचते ही सारा का सारा जोश 'रफूचक्कर' हो गया"

"लडकी क्या वो तो 'अम्मा'थी'अम्मा'"

"हुह!...इससे शादी करूँगा मैँ?"

"इतना बावला नही हुआ हूँ अभी कि किसी को भी गले बाँध डालो"

"अरे कोई टाप की आईटम है तो दिखाओ"....

"खर्च-पानी की चिंता ना करो"...

"बस आईटम ज़बरदस्त होनी चाहिए...एकदम धाँसू"

"बस मैँ जेब ढीली करता गया और वो रोज़ कोई ना कोई लडकी दिखाते चले गये"

"अब तक छ्प्पन देख चुका हूँ लेकिन...

कोई साली!...सैट होने का नाम ही नहीं ले रही"

"यूँ तो जवानी में घाट-घाट का पानी चखा है मैँने...

(अब क्या करूँ यार दिल ही कुछ ऐसा दिया है ऊपरवाले ने कि ...

अपुन से किसी को निराश नहीं देखा जाता")

"क्या पतली?"...

"क्या मोटी?"....

"क्या काली?"...

"क्या गोरी?"...

"क्या जवान?"...

"क्या बुड्ढी?"

"सब बराबर थी मेरे लिये"...

"कोई छोटा-बडा नहीं"...

"सब एक समान"

"किसी को कभी भूल के भी ना नही कहा"

"लेकिन जैसे ही शादी करने की बारी आई...अपुन के नखरे चालू हो गये कि...

'ठिगनी' नहीं होनी चाहिए...

'मोटी'नहीं चलेगी....

'काली'का तो सवाल ही नहीं पैदा होता...

'सरकारी नौकरी' वाली होना तो लाज़मी था ही और...

'उमर' बस यही कोई 'सोलह' और 'सत्रह'के बीच की हो जाए तो बल्ले-बल्ले"

"कई रिश्ते देखे लेकिन किसी में कोई नुक्स तो किसी में कोई"

"किसी का 'रंग' पसन्द आता तो 'चौखटा'नहीं"...

"किसी का 'चौखटा' पसन्द आता तो 'चाल'नहीं"...

"किसी में एक 'खूबी'नज़र आती तो किसी में दूसरी"....

"कहीं एक बात अच्छी लगती तो सौ कमियाँ भी दिखाई दे जाती"

"जहाँ लडकी पसन्द आती वहाँ 'खानदान'नहीं"...

"हर जगह कोई ना कोई पंगा खडा हो ही जाता"

"वक़्त गुज़रता जा रहा था लेकिन शादी का महूर्त ही नहीं निकल रहा था"

"कई बार तो बात बनते-बनते बिगड जाती"

"कभी लेन-देन के नाम पे तो कभी किसी और बात पे "

"और मै था कि शादी के लिये मरा जा रहा था"

"अब रोज़-रोज़...

'जली-कटी'...

'कच्ची-पक्की'....

रोटियाँ बनते और खाते हुए मैँ तंग आ चुका था"

"दुखी हो...यही ठान लिया कि अब की बार कोई नखरा नहीं"

"जैसी भी मिलेगी...जैसे-तैसे निभा ही लूंगा"

"इस बार लगा मानो किस्मत जाग उठी"

"लडकी देखने गया तो वहाँ लडकी 'टाप-ओ-टाप' थी"...

"खास बात ये कि उसकी माँ बडी ही सीधी थी ..

'एकदम गऊ के माफिक'

"कहाँ आजकल की सासू माँ और कहाँ ये एकदम सीधी"

"एकबार तो देख के विश्वास ही नहीं हुआ कि...

ऐसे लोग भी बसते हैँ आज के ज़माने में"

"अपुन ने भी भी ठाना हुआ था कि इस बार कोई गलत कदम नहीं उठाना है...

"सो अपुन ने आईडिया लगाया कि ...

अगर लडकी की माँ को राज़ी कर लूँ तो बात बनी समझो"

"ये सोच मैँ उसकी 'लल्लो-चप्पो' पे उतर आया"

उसने ममता भरी निगाहों से मेरी तरफ देखते हुए कहा"चिंता ना करो,ऊपरवाले ने चाहा तो बात बन जायेगी"

"लडकी भी चोर नज़रों से मेरी तरफ ही ताके जा रही थी"

"लेकिन उसका बाप... साला!...खडूस की औलाद...

पूरा टाईम मुझ पर ही नज़र गडाए बैठा रहा"

"एक सैकैण्ड के लिये भी अलग नहीं हुआ"

"लाईन मारने का कोई चांस ना मिलता देख अपुन ने कलटी होना ही बेहतर समझा"

"जाते-जाते अपने मोबाईल नम्बर की पर्ची वहीं जानबूझ के छोड आया"

"तीर सही निशाने पर जा लगा और अगले ही दिन फोन आ गया"

"मिलने की जगह और वक़्त फिक्स हुआ"

"सही जगह और सही वक़्त पर मैँ हाज़िर था"

"बस वो थोडा लेट हो गयीं आने में...

"फिर क्या हुआ?"

" औरतों का तो जन्म्-सिद्ध अधिकार है लेट आना"

"आस-पास नज़र दौडाई तो पाया कि ...

बहुत सी सुन्दर-सुन्दर तितलियाँ मानो मेरे ही इंतज़ार में आस-पास मँडरा रही थी लेकिन...

मजाल है जो मैने उनकी तरफ ठीक से नज़र उठा के देखा भी हो तो"

"अरे बाबा डर जो था कि मलाई के चक्कर में दूध ही ना गवां बैठूँ हाथ से कहीं"

"सो चुपचाप नज़रें झुकाए खडा-खडा बस इंतज़ार करता रहा"

"देखूँ या ना देखूँ?"

"इसी उधेड्बुन में पता ही नहीं चला कि कितना वक़्त गुज़र गया"

"पता नहीं कब से दोनो माँ-बेटी मुझ पर ही नज़र रखे बैठी थी"

"ऊपरवाले का शुक्र है कि आज अपुन कंट्रोल में था"

"नज़रें मिली तो वो दोनो हिचकिचाते हुए सामने आ गयी"

"इधर-उधर की बातें हुई"

"आखोँ ही आखोँ में माँ-बेटी ने कुछ बातें की"..

"फिर माँ मेरी तरफ मुखातिब होते हुए बोली..."एक-मिनट... साईड में आओ ...ज़रूरी बात करनी है"

"दहेज-वहेज के लिये ही पूछेगी और क्या?"

"अभी तो यही कह दूंगा कि..."बस दो कपडोँ मे ही विदा कर दो"...

"बाद में अपना जलवा दिखाता रहूँगा आराम से"

"क्या जल्दी है?"

"अभी तो बस कैसे भी कर के शादी हो जाए किसी तरह"

"तभी बीवी के मुँह पे तमाचा जो लगेगा तगडा सा"

"हुह.. बडी आई कहने वाली कि "देखती हूँ कौन पका के खिलाता है?"

"अब पता चलेगा बच्चू को"

"यही सब सोचता हुआ 'सासू माँ'के साथ चल दिया"


"मुझे पसन्द तो तुम पहली ही नज़र में आ गये थे ...लेकिन....


"लेकिन?"


"अभी जिस तरह से तुम चुप-चाप सर झुकाए खडे थे"...

"जी"


"मुझे और बेबी को तो शक होने लगा है"...


"शक?"


"हाँ शक"


"कैसा शक"


"कि कहीं तुम मेरी बेटी के लायक हो भी या नहीं?"


"जी मै समझा नहीं..ज़रा खुल के बताएँ"


"अरे यार सीधी सी बात है जब तुम इतनी...

'तितलियोँ के बीच रहकर भी ना पिघले ....

कुछ ना कर सके....

तो मेरी बेटी को क्या खाक राज़ी रखोगे?"


"क्या मतलब?"

"मतलब क्या है आपको?"


"अरे मतलब को मार गोली"....

"सीधे सीधे बता कि कुछ दम-शम भी है या नहीं?"

"लेकिन तुम हो बडे ही 'क्यूट' और 'हैंड्सम"वो शरारती मुसकान चेहरे पे लाती हुई बोली

"काश....तुम कुछ साल पहले पैदा हुए होते "

"खैर कोई बात नही ...अब भी कुछ खास नहीं बिगडा है "

"पहले मै खुद ही 'प्रैक्टली' चैक करूँगी कि तुम मेरी बेटी के लायक हो भी या नहीं"


"क्या बक रही हैँ आप ?"


"बक नहीं रही हूँ...सही कह रही हूँ मैँ"...

"कहीं बाद में मेरी बेटी पछ्ताती फिरे"...

"वैसे भी हमारे यहाँ का तो रिवाज़ है ये" ...

"पहले माँ चैक करती है बाद में बेटी"

"अभी परसों ही तो हम माँ-बेटी ने एक को रिजैक्ट किया है"...

"चौखटे से तो वो भी ठीक-ठाक ही था तुम्हारे जैसा ...पर.....


"मेरे तो प्राण ही सूखे जा रहे थे उन माँ-बेटी की बातें सुन-सुन के" ...

"घोर कलयुंग"

"सो आव देखा ना ताव ...

दुम दबाई और सीधा नौ दो ग्यारह हो लिया"

"जान बच्ची तो लाखों पाए...लौट के बुद्धू घर को आए"

"मैँ तो यही सोचे बैठे था कि मैँ ही 'ढीले करैक्टर' का हूँ लेकिन ....

यहाँ तो माँ-बेटी दोनो का करैक्टर ढीला निकला"

"अक्ल आ चुकी थी कि इध-उधर मुँह मारे से कोई फायदा नहीं"

"आज बीवी बडी याद आ रही थी...

"दिन ढल जाए...हाए रात ना जाए...तू तो ना आए ...तेरी याद सताए"


"थोडा-बहुत डांट्ती थी तो क्या हुआ?"...

"आखिर बीवी है मेरी"...

"इतना हक़ तो बनता ही है उसका"

"मैँ खुद भी तो सही कहाँ था"

"बस अब रुका ना गया...

जा पहुँचा सीधा ससुराल"

"जाते ही हाथ-पाँव जोडे"

"वो मानो मेरा ही इंतज़ार कर रही थी"

"चुप-चाप चल दी मेरे साथ"


***राजीव तनेजा***

"मेरा नाम करेगा रौशन"

"मेरा नाम करेगा रौशन"

***राजीव तनेजा* **


"तुझे क्या सुनाऊँ ए दिल्रुरुबा...तेरे सामने मेरा हाल है"

"मेरी हालत तो छुपी नहीं है तुझसे" ....

सोच-सोच के परेशान हो उठता हूँ कि....
"उसे क्या नाम दूँ?"

"क्या कह के पुकारूँ उसे?"

दिल में कंभी ये ख्याल उमडता है तो कभी वो कि...

"मैँ उसे क्या नाम दूँ?"

"उसे दोस्त कहूँ या के दुशमन?"

"उसे अच्छा कहूँ या फिर बुरा?"

"या फिर उसे 'देव' कहूँ या फिर 'दानव'...

"कभी वो 'अच्छा' लगता है तो कभी 'बुरा'...

"कभी 'पागल' लगता है तो कभी 'स्याना'..

"कभी वो 'अपना' सा लगता है तो कभी 'पराया'...

"कभी 'मेहनती' लगता है तो कभी एक्दम 'आलसी'...

"कभी वो 'जवान' लगता है तो कभी एक्दम 'बुढा'....

"कभी वो 'सही' लगता है तो कभी 'गलत'...

"कभी वो 'नायक' लगता है तो कभी 'खलनायक'..

"कभी ये भी सोचता हूँ कि उसने आखिर एसा किया क्यों?"

"कभी-कभी दिल में ख्याल आता है कि अच्छा ही किया हो शायद उसने"

"मेरा भला ही सोचा हो शायद"

"अब ये तो पता नहीं कि उसके दिल में आखिर था क्या?"


"कभी-कभी ये भी सोचता हूँ कि इस सब से उसे मिलेगा आखिर क्या?"

"शायद किसी दूसरे को इतना....

'बेबस',....

'मजबूर',.

'तन्हा',...

'अकेला',...

'लाचार',देख चेहरा खिल उठता होगा उसका"


"खुशी के मारे बावला हो उठता होगा शायद वो"

"ये भी हो सकता है कि इंसानी फितरत है .....

खाली नहीं बैठा गया होगा उससे तो सोचा होगा कि..

"चलो आज इसी पे हाथ आज़मा लिया जाए"

आखिर पता तो चले खुद को कि ....

"कितने पानी में हूँ मैँ?"

साथ ही साथ पूरी दुनिया को भी पता चल जाएगा कि...

"हम में है दम"

खुद को बार-बार तसल्ली देता रहता हूँ मैँ कि ...

"ऊपरवाले के घर देर है पर अन्धेर नहीं"

"और भला कर भी क्या सकता हूँ मैँ?"


"कभी तो पुकार सुनी जाएगी मेरी भी उस 'परवर् दिगार के दरबार में"

"कभी-कभी गुस्सा बहुत आता है और दिल ये कह उठता है कि..

'कोई ना कोई'...

'कभी ना कभी'...

'सवा सेर' तो उससे भी टकराएगा और तभी फैसला होगा कि ...

"किस में कितना है दम?"

"कभी तो ऊँट पहाड के नीचे ज़रूर आएगा"

"कई बार तो गुस्से से भर उठता हूँ मैँ और जी चाहता है कि ...

कहीं से बस घडी भर के लिये ही सही ...

कैसे भी ...

किसी भी तरह से मिल जाए...

'36' या फिर '47'


"कर दूँ अभी के अभी शैंटी-फ्लैट "

"हो जाएगा फुल एण्ड फायनल"

"कोई कसर बाकि नहीं रहेगी"

"बडा तीसमार खाँ समझता है ना खुद को ....

सारी हेकडी निकल जाएगी बाहर "


"अरे अगर वार करना ही था तो सामने से आकर करता ...

"ये क्या? कि पीठ पीछे वार करता है"

"बुज़दिल कहीं का"

"लेकिन फिर सोच के रह जाता हूँ कि शायद वो अपने दिमाग का इम्तिहान ले रहा हो कि ...

कुछ है भी उसमें?"...


"या फिर खाली डिब्बा खाली ढोल"

"लेकिन फिर दिल तडप उठता है कि इस भरी पूरी दुनिया में क्या मैँ ही मिला था निठल्ला?"

"जो मुझ पर ही हाथ साफ कर गया"

"लेकिन एक बात की तो दाद देनी पडेगी कि बन्दा है बडा ही चलाक"

"शातिर दिमाग है उसका"

"खुली आँखो से ऐसे काजल चुरा ले गया कि ...

"कब मेरा सब कुछ अब मेरा नहीं रहा"

"बडे अरमान संजोए थे मैने "

"क्या-क्या सपने नहीं देखे थे मैने कि उसके पहले जन्मदिन पर एक बडा सा केक मँगवाउंगा"

"खूब पार्टी -शार्टी करूँगा"

"इसको बुलाउंगा और उसको भी बुलाउंगा"

"बडे ही जतन से पाला-पोसा था मैने उसे "

"अभी तो उसने अपने पैरों पे चलना भी नहीं सीखा था ढंग से "

"नन्हा सा जो था अभी"

"मैँ तो ये सोच-सोच के खुश हुए जा रहा त हा कि एक दिन...

"हाँ एक दिन ...

"मेरा नाम करेगा रौशन...जग में मेरा राजदुलारा"

"मुझे क्या पता था कि एक दिन...

'मेरी सारी मेहनत'...

'मेरे सारे ओवर टाईम' पर कोई पानी फेर जाएगा मिनट दो मिनट में"


"पता नहीं मै कैसे रात-रात भर जाग-जाग कर....

पाल-पोस कर बडा कर रहा था उसे"

"यहाँ तक कि मैने किसी की भी परवाह तक नहीं की"

"बीवी की भी नहीं"

"किस-किस के आगे माथा नहीं टेका?"

"कहाँ-कहाँ नहीं गया मैँ?"

"किस-किस जगह सर नहीं झुकाया?"

'मन्दिर',..

'मस्जिद',.

'चर्च',...

'गुरुद्वारा',..सभी तक तो हो आया था मैँ


'ओह'...

'ओह'.....

'ओह माय गाड'

"देखा?"...

"देखा तुमने?"

"हाँ....हाँ देखो "

"ऊपरवाले ने मेरी पुकार सुन ली "

"आखिर पसीज ही गया वो "

"दया आ ही गयी उसे मुझ गरीब पर"

"बाल भी बांका नहीं होने दिया उसने मेरी अमानत का "

"जस की तस"...

"वैसी की वैसी"...

"दूध में धुली"...

मेरी 'याहू आई.डी'('Yahoo ID')लौटा कर उस हैकर ने मुझे दिल की हर खुशी दे दी"


"हे ऊपरवाले तेरा लाख-लाख शुक्र है"

"आज यकीन हो चला है कि इस दुनिया में तू है ज़रूर"


"अगर सिर्फ 'आई डी' की बात होती तो कोई बडी बात नहीं थी,..

उनका आना-जाना तो चलता ही रहता है"


"इतना परेशान नहीं हो उठता मैँ,...

बहुत कुछ जुडा हुआ था उस 'आई डी'के साथ जैसे....

"बहुत सी प्यारी-प्यारी लडकियों के मेल अड्रैस" ,....

"लव लैटर्स" वगैरा-वगैरा और ...

वो सब उलटी-पुलटी मेल्ज़ भी जिन्हे मैँ सबकी नज़रों से छुपा के रखता था"

"यहाँ तक कि अपनी बीवी को भी हवा तक ना लगने दी थी "

"सबसे बडी बात कि मेरा याहू ग्रुप भी तो हैक हो गया था ना"

http://movies.groups.yahoo.com/group/fun_m...yguid=242693898

"छिन गया था वो मुझ से "

"हैकर के पास जा पहुँचा था उसका कंट्रोल "

"उसी को तो मैने जन्म दिया था"

"अपनी औलाद से बढ कर माना था उसे "

"रात-रात भर जाग-जाग के मैँ मेलज़ लिखता था"

"इधर-उधर से नकल मार दूसरों के माल को अपना बना फारवड किया करता था "

"हाँ हाँ ....

अब यकीन हो चला है कि एक ना एक दिन....

"मेरा नाम करेगा ...रौशन जग में मेरा राजदुलारा"


***राजीव तनेजा***

हँसते रहो Hanste Raho: "पूरे चौदह साल"#links

"पूरे चौदह साल"

"पूरे चौदह साल"

***राजीव तनेजा***


"आज वक़्त नहीं था मेरे पास",..
"इधर-उधर भागता फिर रहा था" ,...
"सारे काम मुझे ही जो संभालने थे"...

"मेहमानों का जमघट लग चुका था,...
"उनकी खातिर् दारी में ही फंसा हुआ था सुबह से"

"खूब रौनक-मेला लगा था"...
"बच्चे उछल कूद रहे थे"...

"मैँ कभी टैंट वाले को,तो कभी हलवाई को फोन घुमाए चला जा रहा था"..

"साले पता नहीं कहाँ मर गये सब के सब ?"

"कम्भखत जब से फ्री इनकमिंग का झुनझुना थमाया है इन मुय्ये मोबाईल वालों ने जिसे देखो....

कान पे लगाए लगाए तमाशबीनी करता फिरता है गली गली"

"मानो फोन ना हुआ माशूका का लव-लैटर हो गया"

"जी ही नहीं भरता सालों का "

"और ऊपर से कुछ कंपनियों ने आपस में अनलिमिटिड टाक टाईम दे के तो...

अपनी और साथ-साथ दूसरों की भी वाट लगा डाली"

"अरे बेवाकूफो अपना...लिमिट में बातें करो"

"ये क्या कि...माशूका से मतलब की बातें करने के बजाय...

'क्या बनाया है'या फिर...

'क्या पकाया है ?'....

'कौन से कपडे पहने हैँ?"...

"कितने बजे सोई थी?"

"और जब कुछ ना मिले कहने को तो 'और सुनाओ'....

'और सुनाओ'करके गेंद सामने वाले के पाले में डाल दो कि....

ले बेटा अब तू ही नई-नई बातें ढूंढ करने के लिये"

"अपना कोटा तो हो गया पूरा"

"उफ: कितना बिज़ी रखते हैँ फोन?"


"ढोलवाला पूरी लगन से मगन हो ढोल बजाए चला जा रहा था और. ...

बजाता भी क्यों न?" ...

"मनमानी दिहाडी जो मिल रही थी"...

"सब मेहमान ढोल की ताल पे नाचे चले जा रहे थे

"इंगलिश की पेटियाँ तो एडवांस में ही मंगवा ही चुका था मैँ,....

इसलिए दारू-शारू की कोई चिंता नहीं थी कि ...

बीच में ही खत्म हो गयी तो मज़ा किरकिरा ना हो जाए कहीं"

"दुलहन की तरह सजा हुआ था मेरा बंगला"

"मज़े ले ले कर तर माल पे हाथ साफ किया जा रहा था"...

"किसी की बाप का कुछ जा जो नहीं रहा था"

"जा तो अपुन का रहा था ना?

"लेकिन बरसों बाद मिली खुशी के आगे सब कुर्बान"

"बस सबके चेहरे पे एक ही सवाल घूमडता दिखाई दे रहा था कि ...

आखिर माजरा क्या है ?"

"ये कंजूस-मक्खी चूस आखिर इतना दिलदार कैसे हो गया?"

"कहीं कोई लाटरी तो नहीं लग गयी ?

"कहीं ना कहीं दाल में काला है ज़रूर"

"अरे तुम क्या जानो यहाँ तो पूरी दाल ही काली है" मैँ मन ही मन खुश हुए जा रहा था

"मुफ्त में माल जो मिल रहा था तो सभी खामोश थे कि... .

"अपुन को क्या?"

"कोई मरे या जिए"वाला भाव उनके चेहरे पर था

"क्या कोई लाटरी लगी है?"

"किस खुशी के मौके पे दावत दी जा रही है जनाब?"कोई ना कोई इस तरह के बेतुके सवाल दागे ही दे रहा था बीच-बीच में

"अरे तुम्हें टटटू लेना है?"

"अपना खा-पी और मौज कर "

"क्यूं फटे छेद में से बोरी के भीतर घुसने में वक्त ज़ाया कर रहे हो ?"

"कुछ समझ्दार इंसान भी थे जो खाओ-पिओ और अपना रास्ता नापो की पालिसी पे चल रहे थे "

"बीच-बीच में कोई ना कोई ढीठ बन के पूछ ही बैठता तो उसे जवाब तैयार मिलता कि...

"ये सब ना पूछो,बस मौज करो"

"मेहमान-नवाज़ी के चक्कर में थकान के मारे हालत पतली हुए जा रही थी लेकिन...

खुशी का मौका ही ऐसा था कि उछलता फिर रहा था मैँ"

"आखिर खुश क्यों नहीं होता मैँ?"

"पूरे चौदह साल बाद खुशी के ये पल जो नसीब हुए थे"

"लगता था जैसे चौदह साल का वनवास काट मैँ राजगद्दी संभाल रहा हूँ "

"खुशी से मन ही मन इस गीत के बोल फूट रहे थे ....

"दुख:भरे दिन बीते रे भईया ,अब सुख: आयो रे"...

"नौकर-चाकर भी तो कम ही पड गये थे आज"

"सब के सब मेरी खातिर पूरे जी-जान से हर काम में हाथ बटा रहे थे,....

अच्छे ईनाम का लालच जो था"

"इस सब आपा-धापी के चक्कर में शायद कही मैँ कुछ भूले जा रहा था",

"कहीं कोई यार-दोस्त,रिश्तेदार बुलाए जाने से तो नहीं रह गया है कहीं कि बाद मे ताने सुनने पडें सो अलग "

"बडी ही बारिकी से लिस्ट को चैक करने के बाद भी कहीं कोई गल्ती या कमी नज़र नहीं आ रही थी"

"लेकिन कुछ ना कुछ तो छूटा है ज़रूर"मैँ अपने आप से बातें करता हुआ बोला

माथे पे ज़ोर डाल मैँ सोचे चला जा रहा था कि अचानक सब याद आ गया...

"ओह!"..

"हे भगवान!अब क्या होगा?....

"ये मैने क्या किया?"

"कहाँ मति मारी गयी थी मेरी जो इतनी ज़रूरी बात दिमाग से उतर गयी?"

"बेवाकूफी के भी हद होती है"

"इतना ना-समझ मैँ कैसे हो गया?"

"रौंगटे खडे होने को आए थे"

"लेकिन हिम्मत तो करनी ही होगी"....

"जितने जल्दी हो सके इस काम को निबटा ही दूँ"

"साँप के बिल से निकलने से पहले ही लाठी भांज देता हूँ"

"बस यही सोचकर फोन घुमा दिया"...

"वही हुआ जिसका मुझे डर था",

"सामने से कडकती हुई अवाज़ आई,..

"कब?"...

"कहाँ?"...

"कितने बजे?"

"पहले फोन क्यों नहीं किया?"


"पता नही साला दिमाग को क्या हुए बैठा था जो वहाँ भी यही निकल पडा...

"तुम्हें टट्टू लेना है? अपना खाओ-पिओ और मौज करो"

"साले!...सीधी तरह बताता है कि नहीं?"उधर से गुर्राते हुए अवाज़ आई


"और ये बैण्ड बाजे का क्या शोर हो रहा है ?"

"मैँ सकपका गया और धीरे से बोला "जी मेरी बीवी भाग गयी है ना...सो थोडा बहुत इंजाय कर रहे थे"


"जल्दी से पूरा नाम-पता बता, अभी तेरी खबर लेते हैँ "

"साले जब रिमांड के आगे तो अच्छों के बोल बचन फूट पडते हैँ तेरी क्या औकात ?"

"बैण्ड तो अब तेरा बजेगा बच्चू"

"हमें बरगलाता है "कहते हुए दूसरी तरफ से फोन पटक दिया गया


"कुछ और नहीं बक सकता था मैँ?"

"शेर की दहाड सुन हिरन बावला हो उठा"

"कंठ सूखे जा रहा था ",...

"मन ही मन काँप रहा था कि पता नहीं साले क्या -क्या पूछेगे?"

"और मै क्या-क्या जवाब दूंगा?"

"टटटू जवाब दूगा?"

"फ़टी तो अपनी पहले से पडी है"

"इसी उधेड्बुन में ही था कि पुलिस का सायरन सुनाई दिया",


"क्या सिर्फ हिन्दी फिल्मों में ही पुलिस देर से आती है?"

"असल ज़िन्दगी में पुलिस इतनी तेज़ होती है ?"

"इस से तो फिल्में ही अच्छी हैँ "

"कम से कम ,कुछ पल के लिये ही सही लेकिन दर्द-ओ-गम तो भुला देती हैँ"


"एस.एच.ओ'साहब खुद ही दल-बल के साथ ही पधारे थे"

"एक कडक अवाज़ सुनाई दी "ओए ..ये राजीव का बच्चा कौन है?"

"कोई नहीं बोला"..

"'एस.एच.ओ'चिल्लाया "ओए राजीव के बच्चे ...बाहर निकल"

"मैँ डरते -डरते आहिस्ता से सामने आया"

"सर्दी के मौसम मे भी पसीने छूटे चले जा रहे थे"

"जी....मै ही हूँ राजीव "

"चल तेरे से प्राईवेट मेँ कुछ बात करनी है"वो मेरा हाथ थामे कोने में ले गया

"इधर-उधर देखने के बाद फुसफुसाते हुए बोला"यार!... ये कमाल तूने कैसे कर दिखाया?"

"जी वो...जी वो...."


"अबे ये जी वो...जी वो से आगे भी बढेगा या वहीं चिपक गया?"पुलसिया रौब झाडता हवलदार बोल पडा


"चुप...बिलकुल चुप" एस.एच.ओ' हवलदार इशारा करा हुआ बोला


"तुम बताओ" एस.एच.ओ. की मीठी अवाज़ सुनाई दी


"बात दर असल ये है कि"....मेरी ज़ुबान लडखडा रही थी

"एस.एच.ओ. साहब ने इधर-उधर देखते हुये चुपचाप हज़ार-हज़ार के दो कडकडाते हुए नोट मेरी हथेली पे धर दिए"

"मै मना करता रहा लेकिन वो नहीं माना"

"मेरी ना-नुकर देखते हुए उन्होंने आँखो ही आँखो में आपस में बात की और फिर ....

खुद 'एस.एच.ओ' साहब ने आठ नोट और मेरी जेब के हवाले कर दिए और बोले...

"आज तो बस इतनी ही दिहाडी बनी है " ....

"समझा करो"...

"ये भी मैँ और चारों हवलदार मिलकर दे रहे हैँ"

"कौन कहता है कि अपने देश में एकता नहीं है ?"

"यहाँ सब मिल-बांट के खाते हैँ"

"हाथ-कंगन को आरसी क्या?" और ...

"पढे लिखे को फारसी क्या?"

"जीता-जागता नमूना तो मैँ खुद अपनी खुली आँखो देख रहा था"


"आजकल मंदा बहुत चल रहा है यार "

"कोई दे के राज़ी ही नहीं है"

"ये भी किसी गरीब मानस के ड्ण्डा चढाया तो जा के बडी मुशकिल से इक्ट्ठा हुए हैँ"

"इसी भर से काम चला लो गुरू"


"हम सब की यही प्राबल्म है ....कोई जुगाड बताओ "

"अरे आप तो मेरे ही भाई-बन्धु निकले.....

आपको तो बताना ही पडेगा"खिसियाते हुए मैँ नोट अपनी जेब के हवाले करता हुआ बोला

"कुछ ना कुछ आप हर रोज़ ऐसा करें कि मुसीबत खुद ही एक ना एक दिन ...

परेशान हो के अपने आप ही भाग जाये"


"किसको पढा रहे हो गुरू?"

"ये सब तो हमें भी पता है"...

"आज़मा चुके हैँ कई बार"

"लेकिन क्या करें?.....

"साली .. अपनी है कि भागने का नाम ही नहीं लेती है"वो सब के सब एक साथ बोल पडे


"अरे यार पहले पूरी बात तो सुन लो....
लगे बीच में ही टोका-टाकी करने "
"जहाँ करनी है टोका-टाकी वहाँ तो बोल नहीं फूटते होंगे ज़बान से "

"सब चुप ....लगे टकटकी बाँध मेरी तरफ देखने"

"उसके हर काम में 'टोका-टाकी' करो ....

"घडी भर भी चैन से बैठने ना दो"

"कभी 'ये ...ला'.... तो कभी....

'वो...ला' करते रहो"...

"खाना जितना मर्ज़ी स्वादिष्ट बना हो लेकिन एक बात गांठ बांध लो कि....

तारीफ तो कभी भूल के भी करनी ही नहीं है ना"

"खाने की तरफ देख के नाक-भोहं ज़रूर सिकोडो"....

"पडोसन की बार-बार और... जी भर तारीफ करो".....

"राह में आती-जाती हर किसी की....माँ-बहन एक करो "


"इस सब में तो हम सभी एकदम एक्सपर्ट हैँ"एक हवलदार बोल पडा


"उसकी बात को अन-सुना करता हुआ मैँ आगे बोला "हर लडकी/औरत को छेडो...

"चाहे वो उमर में तुमसे दुगनी ही क्यों ना हो"

"बेशक माँ बराबर हो, फिर भी उसे ज़रूर घूरो"

"बीवी की कोई बहन या सहेली हो तो उसे बिना नागा लाईन मारो"..

"उलटी-सीधी फब्तियाँ कसो "


"अपने लिये नए-नए कपडे खरीदो और उसके लिये फूटी-कौडी भी नहीं खर्चा करो "

दहेज के नाम पे बार-बार तंग करो"

"उसके हर काम में कोई ना कोई नुक्स ज़रूर निकालो"

"इससे बात नहीं करनी है, उसको नहीं देखना है" वगैरा वगैरा अपने पैट डायलाग बना लो"

"उसके रिश्तेदारों को हर् वक्त बे-इज्जत करो"

"और सबसे इम्पोर्टैंट बात कि ...

चाहे उसका मन (*&ं%$#@ के लिये करे ना करे लेकि न तुम (*&ं%$#@ .... तुम ज़रूर करो"


"अरे यार ये सब तरीके तो आज़माए हुये है लेकिन....कोई फायदा नहीं"एस.एच.ओ.बोला

"कोई नया जुगाड बताओ जिसके काटे का इलाज ना हो "


"अरे अगर ऐसी बात है फिर 'पुल्सिया हाथ'है आपका ....

दिखा दो...

एक-दो में ही शैंटी-फ्लैट हो जाएगी "...

"दो सीधा खींच के ...कान के नीचे.....

"झटाक...."कहते हुए मैने गलती से 'एस.एच.ओ.'साहब के ही कान पे एक धमाकेदार रसीद कर दिया


"साले!.....पुलिस पे हाथ उठाता है" ....

"ले 'थपाक'....और ले ...'थपाक'...

"गाल पे पाँचो उंगलियाँ छप चुकी थी"

"पता नहीं मार का असर था के फिर कुछ और....

'एस.एच.ओ.'साहब की अवाज़ कुछ-कुछ ..बदली-बदली सी लगने लगी थी

"शायद कुछ-कुछ 'ज़नाना' सी"

"ध्यान से आँखे मिचमिचाते हुए देखा कि मैँ गाल पे हाथ धरे धरे पलंग से नीचे गिरा पडा हूँ और...

सर पे बीवी खडी-खडी चिल्ला रही है ....

"उठ ...उठ...'कुंभकरण' की औलाद... उठ ....

"किसको शैंटी-फ्लैट कर रहे थे?"

"और ये किसे उल्टी पट्टी पढाई जा रही थी?"

"मैँ घडी दो घडी के लिये बाहर क्या गयी....

सब काम-धन्धा छोड अराम फरमाया जा रहा है "

"बरतन कौन मांजेगा?"

"तुम्हारा बाप?"

"और ये कपडे कैसे धोए हैँ?...

"किसी पे 'नील'नहीँ लगा है और किसी का 'कालर' गंदा "

"पूरे चौदह साल हो चुके हैँ तुम्हें समझाते-समझाते लेकिन ...

दिमाग जैसे घास चरने गया रहता है हर-दम "

"लगता है जब ऊपरवाला अक्ल बांट रहा था तब भी तुम सो ही रहे होगे"

"हुँह!....बडे आए 'शैंटी-फ्लैट' करने"


***राजीव तनेजा***

"खेल खिलाडी का "

***राजीव तनेजा*** 



ज्योतिषी बनने के चक्कर में जेल की हवा खाने पडी…कोई खास नहीं…बस यही कोई तीन महीने की हुई…बोरियत का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि अपने सभी यार-दोस्त तो वहाँ पहले से ही मौजूद थे| कोई दो साल के लिए अन्दर था तो कोई पाँच साल की चक्की अपने नाम लिखवा के आया था| ये तो मैँ ही था जो अपने ज़मीर के चलते कुछ ले-दे के सस्ते में छूट गया था वरना  बाकि सब के सब स्साले!...कंगाल....सोचते थे कि बाहर निकल के तो फिर कोई ना कोई काम-धन्धा करना पड़ेगा .. सो!...यही ठीक है...अपना..दो वक्त की आराम से मिल जाती है..और क्या चाहिए किसी बदनसीब बंदे को? सही कहा है किसी भले-मानस ने कि... "जब मुफ्त में मिले खाने को तो कद्दू जाए कमाने को" 
                                  सब के सब स्साले!...निठल्ले....कामचोर की औलाद...मुफ्त में जेल की रोटियाँ तोडे जा रहे थे दबादब। बाकि सब तो खैर ठीक ही था लेकिन एक ख्याल दिल में उमड़ रहा था बार-बार कि..."आखिर!...जेल से छूटने के बाद मैं करूँगा क्या?" अब कोई छोटा-मोटा काम-धंधा करना तो अपने बस का था ही नहीं शुरू से। इसलिए अपुन का इरादा तो फुल्ल बटा फुल्ल लम्बा हाथ मारने का था लेकिन कोई भी आईडिया स्साला!..इस भेजे में घुसने को राज़ी ही नहीं था और घुसता भी कैसे? आदत तो अपुन को थी हमेशा तर माल पाडने की और यहाँ...ये स्साला!...जेल का खाना...माशा-अल्लाह। अब क्या बताऊँ?...ये अफसर लोग ही सब का सब हडप जाते हैँ खुद ही और डकार तक नहीं लेते...छोड़ देते हैं हम जैसों के लिए मूंग धुली का बचा-खुचा पानी और कुछ अधजली...कच्ची-पक्की रोटियाँ।
                                  बाहर किसी कुत्ते को भी डालो तो वो भी कूँ ...कूँ कर किंकियाता हुआ काटने को दौड़ेगा और अपनी हालत तो ऐसी थी कि काटना तो दूर...सही ढंग से भौंक भी नहीं सकते थे। भौंकना और काटना सब अफसर लोगों के जिम्मे जो था।लेकिन एक दिन अचानक सब काया-पलट होते नज़र आया...चकाचक सफेदियाँ कर पूरी बैरक को चमकाया जा रहा था...'फ्रिज'.....'सोफा'...'प्लाज़मा टीवी'....'गद्देदार पलंग' और ना जाने क्या-क्या?... मैने मन ही मन सोचा कि "ये सब स्साले...इतना सुधर कैसे गये? किसी से पता किया तो जवाब मिला....
"इतना परेशान ना हो....एक 'वी.आई.पी' आ रहा है कुछ हफ्तों के लिये। उसी की खातिरदारी के लिए ये सब इंतज़ाम हो रहा है...तेरे बाजू वाली बैरक में ठहरने का इंतज़ाम किया गया है उसका" 
                                   इन दिनों एक ठुल्ले से अपुन ने अच्छे ताल्लुकात बना लिए थे। बस!...कुछ खास नही...वही पुराने ज्योतिष के हथकण्डे अपनाते हुए आठ-दस उल्टे-सीधे डायलाग मारे...तीन-चार का तुक्का फिट बैठा और हो गया एक नया चेला तैयार। बस!...फिर क्या था?...उसी को मस्का लगाया कि... "एक बार...बस!...एक बार...किसी भी तरह से इंट्रोडक्शन भर करवा दो...बाकि सब मैँ अपने आप सलट लूँगा"  कुछ खास मुश्किल नहीं था ये सब उसके लिए। उसी की ड्यूटी जो लगी थी उस 'वी.आई.पी' के साथ। सो!...अगले दिन ही भगवान को हाज़िर-नाज़िर मान अपुन उसके दरबार में हाज़िर था। 
                                       "ये लो!...उसे तो मैँ पहले से ही जानता था और जानता भी क्यूँ नहीं?...'वी.आई.पी'  बनने से पहले पट्ठा!...अपनी ही कॉलोनी में मिट्टी का तेल ब्लैक किया करता था और करता भी क्यों नहीं?.. तेल का डिपो जो था उसके सौतेले बाप का। मंदी में भी खूब नोट छापे पट्ठे ने और आज ठाठ तो देखो...बन्दे को बन्दा नहीं समझता है। लेकिन अपुन भी कोई भूलने वाली चीज़ नय्यी है ...  देखते ही झट से पहचान गया। गले मिलते ही मैने भी फट से पूछ लिया कि...
"अरे!...नेताजी...आप यहाँ कैसे?"... 
"अरे यार!...कुछ ना पूछ...सब इन मुय्ये चैनल वालों का किया धरा है"... 
"स्साले!...सोचते हैँ कि मैँ यूँ ही मुफ्त में सवाल पूछता फिरूँ...पागल है स्साले!...सब के सब".....
"और नहीं तो क्या?...आपको क्या किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो आप ऐसे ही ...फोकट में अपनी ज़बान काली करते फिरें?"मैं जोश में आ नेताजी की साईड लेता हुआ बोला...
"इन स्सालों को ज़रा भी गुमान नहीं कि कितने खर्चे हैँ?...किस-किस को हफ्ता पहुँचाना पड़ता है?...किस-किस को मंथली दे के आनी पड़ती है?..
"किस-किस को?"मेरे स्वर में उत्सुकता थी...
"अरे!...ये पूछ कि किस-किस को नहीं?...ऊपर से नीचे तक...स्साला!...कोई भी बिना लिए रहता नहीं है" 
"ऊपर से नीचे तक?"... 
"हाँ!...भय्यी ...ऊपर से नीचे तक...इस हमाम में सभी नंगे हैँ"...
"ओह!...
"यहाँ तो गांव स्साला!...बाद में बसता है...कूदते-फाँदते भिखमंगे कटोरा हाथ में लिए पहले टपक पड़ते हैं"... 
"आपको पता भी ना चला कि कब स्साले!...फोटू खींच ले गये?" मेरे स्वर में हैरानी का पुट था.. 
"पता होता तो स्सालों का टेंटुआ ना दबा देता वहीं के वहीं?"नेताजी लगभग गुस्से से दाँत पीसते हुए  बोले ... 
"जी!...ये तो है"
आज लग रहा था कि जैसे नेताजी चुप नहीं बैठेंगे...कोई सुनने वाल जो मिल गया था। जब से संसद में सवाल पूछने के नाम पर बवाल हुआ था...कोई इनकी सुन ही कहाँ रहा था?...और मैँ भी तो अपने अन- महसूसे मतलब की खातिर उनकी लल्लो-चप्पो किए जा रहा था। मैने मस्का लगाते हुए कहा... "नेताजी!...आपका तो तेल का डिपो था ना?"....
"हाँ!...था तो सही...क्यों?...क्या हुआ?"नेताजी प्रश्नवाचक  दृष्टि से मेरी तरफ ताकते हुए बोले
"अच्छा-भला कमाई वाला काम छोड़ के आप इस नेतागिरी जैसी टुच्ची लाईन में कैसे आ गये?"... 
"अरे!..तुझे नहीं पता...इससे बढ़िया कमाई वाला तो कोई काम ही नहीं है पूरे हिंदोस्तान मैं"नेताजी आहिस्ता से फुसफुसाते हुए बोले...
"लेकिन कोई स्टेटस-वटेटस भी तो होना चाहिए?...ऐसे बे-इज्जत हो के नोट कमाए तो क्या खाक कमाए?"...
"अरे!..खाली फ़ोक्के स्टेटस को क्या चाटना है?...अपुन को तो कमाई दिखनी चाहिए...कमाई...भले ही कोई बेशक हमसे पैसों के बदले अपने बच्चे तक पिटवा ले...हमें कोई ऐतराज़ नहीं"नेताजी गर्व से छाती फुलाते हुए बोले   
"ओह!...
"तेल के डिपो की वजह से अपनी जान-पह्चान बहुत थी"...
"जी!...वो तो थी"..
"थी क्या?...अब भी है"नेताजी आँखे तरेरते हुए बोले...
"जी!..बिल्कुल"...
"जान-पहचान तो अपुन की भी बहुत है"मैँ मन ही मन सकुचाते हुए मुस्काया लेकिन ऊपर से एकदम अनजान बनता हुआ बोला...
"लेकिन खाली जान-पहचान से होता क्या है?"... 
"अरे बुद्धू!...उसी से तो सब कुछ होता है"..
"वो कैसे?"...
"यार!...गली-मोहल्ले में सबसे वाकिफ होने कि वजह से इलैक्शन के टाईम पे सभी पार्टी वाले अपुन को ही तो याद करते थे कि नहीं?"..
"जी!...करते तो थे"...
"चाहे वो 'भगवे' वाले हों...या फिर 'हाथी' वाले...या फिर 'हाथ' वाले या फिर किसी भी अन्य ठप्पे वाले ...सभी अपुन के दरबार में हाजिरी बजाते थे"..
"जी"मैंने मन ही मन लपेटना शुरू कर दिया था ... 
"उनसे जो माल-मसाला मिलता था पब्लिक में बांटने के लिए...उसका आधे से ज़्यादा तो मै अकेला ही डकार जाता था और चूँ तक नहीं करता था"..
"ओह!...तो फिर इस सब का हिसाब-किताब कैसे देते थे उनको?".. 
"हिसाब-किताब?" 
"जी"....
हा...हा...हा...हा" 
"अरे बुद्धू!...ये सब दो नम्बर के धन्धे होते हैँ...इनका हिसाब-किताब नहीं रखा जाता"...
"लेकिन फिर भी...थोडी-बहुत लिखा-पढी तो कर के देनी ही पड़ती होगी?..
"हाँ!...खानापूर्ति के नाम पर थोडी-बहुत लिखा-पढी तो कर के देनी ही पड़ती थी लेकिन उसके लिए तो मैंने परमनेंटली एक CA रख छोड़ा था ना...वही उल्टे-सीधे खर्चे लिखवा दिया करता था उनके हिसाब में"...
"जैसे?"...
"जैसे... 'दारू की पेटियाँ'......'जूते-चप्पल'.. लुंगी ...धोती और साड़ियाँ ..... 'झण्डे'....'बैनर'...... 'ड्ण्डा घिसाई' वगैरा वगैरा"....
"डण्डा घिसाई?...ये कौन सा खर्चा होता है?" मैं मन ही मन मुस्काता हुआ बोला ... 
"तू नहीं समझेगा...ये थोड़ा वयस्क टाईप का ...दो नंबर का खर्चा होता है"...
समझ तो मैं सब रहा था लेकिन मुँह से बस यही निकला "ओह!...
"आज नेताजी अपने आप ही सब कुछ उगलते जा रहे थे और मैँ किसी आज्ञाकारी शिष्य की भाँति बिना उन्हें टोके सब कुछ ग्रहण करने में ही अपनी भलाई समझ रहा था। आज चुप रह कर मतलब निकालने की मेरी कला काम आ ही गई। अब गर्व से सीना तान बताउंगा बीवी को कि..."देख!...चुप रहने के कितने फायदे होते हैँ।हर वक़्त बकती रहती थी कि..."सिर्फ मेरे आगे ही ज़ुबान लडाते हो...कभी बाहर जा के किसी के आगे मुँह खोलो तो जानूँ"...
अब बोल के देखियो ना कि... "बाहर तो घिघ्घी बंध जाती है जनाब की ....ज़ुबान तालु से चिपक...खुद को ताला लगा...चाबी ना जाने कहाँ गुम कर देती है?"...मुँह ना तो तोड़ दिया तो मेरा भी नाम राजीव नहीं। 
"कहाँ खो गये मित्र?" नेताजी की अवाज़ सुनाई दी तो हकबकाते हुए जवाब दिया कि... "बस ऐसे ही"
"कई बार तो ऐसा होता था कि मैँ अकेला ही पूरा का पूरा माल हज़म कर जाता था" नेताजी बात आगे बढाते हुए बोले
"पूरा?"... मैने हैरानी से पूछा 

"और नहीं तो क्या अधूरा?"...
"फिर बांटते क्या थे?....टट्टू?"... 
"अरे!...पूरे इलाके में अपुन की धाक जम चुकी थी...सो!...सभी काम-धन्धा करने वालों के यहाँ..."पार्टी फ़ंड के नाम पर चंदा दो" का फरमान जारी कर अपने गुर्गे भेज देता था.... और सारा का सारा काम खुद ब खुद निबटता जाता था"..
"ओह!...लेकिन सब के सब भला कहाँ देते होंगे?...कोई न कोई तीसमारखां तो...  
"अरे!...है कोई माई का लाल पूरे इलाक़े में जो अपुन को इनकार कर सके?...स्साले का जीना हराम ना कर दूंगा?"नेताजी अपनी आस्तीन ऊपर कर आवेश में आते हुए बोले  
"लेकिन फिर भी कोई ना कोई अड़ियल टट्टू तो मिल ही जाता होगा?" मैँ फिर बोल पड़ा 
"ऐसे घटिया इनसान तो थोड़े-बहुत हर कहीं भरे पड़े हैं यार"..
"तो फिर उनसे कैसे निबटते थे?"मेरे स्वर में उत्सुकता का पुट खुद ब खुद शामिल हो चुका था... 
"हर बार दो-चार शरीफ़ज़ादों के यहाँ 'इनकम टैक्स वालों का छापा पड़वा देता था और  नकली माल बनाने वालों के लिए तो मेरा एक फोन कॉल ही काफी होता था"...
"स्साले!..अगले ही दिन अपनी नाक रगड़ते हुए आ पहुँचे थे कि..
"हमसे भूल हो गई...हमका माफी दई दो" नेताजी फिल्मी तर्ज़ पे गाते हुए बोले ...
"ओह!...
"लेकिन एक स्साला!...फैक्ट्री मालिक ऐसा अड़ियल निकला कि लाख समझाए पर भी टस से मस ना हुआ"... 
"ओह!..फिर क्या हुआ?"... 
"अपुन भी कौन से कम हैं?...हर साँप के काटे का इलाज है अपने पास"... 
"क्या मतलब?"..
"इस जोड़ का भी तोड़ निकाल ही लिया"...
"वो कैसे?".. 
"एक तरफ स्साले की फैक्ट्री में हड़ताल करवा दी लाल झण्डे के तले और दूसरी तरफ अपना फर्ज़ समझ लेनदारों का डंडा पूरा का पूरा अंदर करवा दिया उसके कि... "हमें तो फुल एण्ड फ़ाइनल अभी चाहिए"... 
"ओह!..
"थोड़ी-बहुत कसर बाकी लगी तो प्लेन के तहत दो-चार वर्करों को चाकू मरवाया और ताला लगवा दिया हरामखोर की फैक्ट्री में"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?" मेरे माथे पे चिंता कि रेखाएं अपना डेरा जमा चुकी थी ... 
"जब हफ्ते भर ताला लटका रहा तो खुद-बा-खुद सारी हेकडी ढीली हो गयी पट्ठे की"...
"गुड!...ये बहुत बढ़िया तरकीब सोची आपने" मेरे स्वर में प्रशंसा और हिकारत का मिलाजुला पुट था...  
"और नहीं तो क्या?" अपनी तारीफ सुन नेताजी की छाती गर्व से फूल चुकी थी ...
"तो क्या सारा का सारा माल-पानी बांट देते थे?"मुझ से अपनी उत्सुकता छुपाए न चुप रही थी 
"इतना येढा समझा है क्या?...अपुन भिण्डी बाज़ार की नहीं...दिल्ली की पैदाइश है....दिल्ली की"... 
"अगर सब कुछ बांट दूंगा तो मैँ क्या गुरुद्वारे जाउंगा?"...
"ये 'बंगला-गाडी'....ये 'नौकर-चाकर'...ये मॉल...ये 'शोरूम'...ये 'फार्म हाऊस'.... ये 'फैक्ट्री'...
सब का सब क्या आसमान से टपका है कि मन्तर मारा और सब हाज़िर?"...
 

"क्या मतलब?"मैं उनकी बात का मतलब ठीक से समझ नहीं प रहा था...
"अरे बुद्धू!...नोट खर्चा किए हैँ नोट...और नोट जो हैँ....वो पेड़ों पे नहीं उगा करते कि जब चाहा.. हाथ बढाया और तोड लिए हज़ार-दो-हज़ार"...
"तो फिर?"...
"थोडा-बहुत तो बांटना ही पडता था झुग्गी-बस्तियों वगैरा में...आखिर!...वोट बैंक जो थे"... 
"लेकिन इतनी बड़ी बस्ती...इतने सारे लोग...कैसे मैनेज करते होंगे आप ये सब?"...
"अरे!...कुछ खास मुश्किल नहीं है ये सब....बस...बस्ती के प्रधान को अपनी मुट्ठी में कर लिया तो किला फतेह समझो"... 
"यही तो सबसे मुश्किल काम होता होगा ना?" 
"कोई भी काम मुश्किल नहीं है अपुन के लिए....बस!...मुन्नी बाई को इशारा किया और पहुँच गई अपने पूरे दल-बल के साथ"...
"ओह!...उसके लटके-झटकों पे तो पूरी दिल्ली फिदा है तो इन प्रधानों-वरधानों की क्या मजाल जो काबू में नहीं आते"...

"और नहीं तो क्या?"... 
"उनमें बाँटने के लिए देसी की पेटियाँ तो हम पहले से ही मँगवा के रख लेते थे अपने गोदामों में"...
"देसी?" मैँ मुँह बिचकाता हुआ सा बोला 
"हाँ भाई!...'देसी'".....
"इंग्लिश आप अफफोर्ड नहीं कर सकते या... मैंने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया
"अरे नहीं!...ऐसी कोई बात नहीं है...अफफोर्ड तो मैं अंग्रेज़ी के बाप को भी आसानी से कर सकता हूँ लेकिन इन स्सालों की औकात ही नहीं है इसकी"...
"क्या मतलब?...फ्री में मिले तो मुझ जैसे डीसंट लोग शैम्पेन को भी ताड़ी की तरह डकारने लगते हैं?" अपनी औकात पे हमला होता देख मैं पूरी तरह भड़क चुका था...
"शांत!...गदधारी भीम...शांत...इतना काहे को भड़कता है?"...
"अरे!..कमाल करते हैं आप भी...इस तरह सरेआम अपनी अस्मिता पे हमला होते देख मैं भड़कूँ नहीं तो और क्या करूँ?" मैं लगभग सफाई सी देता हुआ बोला...
"ओह!...इटस नोट ए बिग थिंग...दरअसल क्या है कि ...इन हरामखोरों को इंगलिश पचती नहीं है आसानी से...इसलिए ऐसा कहा"...
"ओह!...
"पागल कहीं के...कहते हैँ कि..."बोहत आहिस्ता-आहिस्ता चढती है बाबू...सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है " 
"बात तो आपकी सही है लेकिन गधों को और घोड़ों को ...सभी को आप एक ही फीते से कैसे नाप सकते हैं?...सभी एक ही थैली चट्टे-बट्टे थोड़े ही हैं?"मेरे स्वर में आक्रोश का पुट साफ़ दिखाई दे रहा था"...
"ओह!...मी मिस्टेक...मुझे डग और अल्सेशियन में फर्क रखना चाहिए था"..
"बिल्कुल!...कुछ एक तो मेरी तरह के ठेठ मोलढ़ होते हुए भी 'इंग्लिश' को भरपूर एंजॉय करते हैं"...
"सही कहा तुमने...लेकिन चंद ऐसे गिने-चुने नमूनों के लिए बाकी सारी जमात के साथ भेदभाव तो नहीं किया जा सकता ना?"...
"बात तो आप सही कह रहे हैं लेकिन क्या हम जैसे चंद गिने-चुने उच्च कोटि के पियक्कड़ों के लिए कुछ न कुछ अलग से अररंगेमेंट किया जाना जायज़ नहीं है?"..
"लेकिन जो बीत गया...सो बीत गया....उसके लिए अब किया ही क्या जा सकता है?"...
"अरे वाह!...वर्तमान बिगड़ रहा है तो क्या?...भविष्य तो अपने ही हाथ में है ना?"...
"क्या मतलब?"..
"उसे तो सँवारा ही जा सकता है"...
"लेकिन कैसे?"...
"हम जैसों को 'इंग्लिश' की पेटी उपलब्ध करवा के"...
"हें...हें...हें...वैरी फन्नी "...
"जी!...वो तो मैं शुरू से ही....मेरी बीवी भी यही कहती है"....
"ठीक है!...तो फिर बीती ताही बिसार के मैं आगे बढ़ते हुए अब आगे की सोचता हूँ और इस बार के इलैक्शन में पहले से ही कुछ खास लोगों के लिए दो-नम्बर का माल तैयार करवा लूँगा आर्डर पे" मेरे चेहरे के भावों से अनभिज्ञ नेताजी अपनी रौ में बोलते चले गए  ... 
"तैयार करवा लेंगे?...आर्डर पे?...मैं कुछ समझा नहीं...ज़रा खुल के बताएं"... 
अब नेताजी चौकन्ने हो इधर-उधर देखने के बाद आहिस्ता से बोले..."अरे यार!...दो-नम्बर का माल माने ...  'बोतल असली...माल नकली' ...
"लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है?...
"माल नकली?" मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था 
"अरे बेवाकूफ!...बोतल से असली माल सिरिंज के जरिए बाहर और सिरिंज से ही नकली माल अन्दर" 
"ओह!..लेकिन क्या अपने खास बंदों के साथ ऐसी धोखाधड़ी करना आपको शोभा देता है?"..मैं पूरी तरह उखड़ चुका था  
"अरे!...नहीं-नहीं ...तुम समझे नहीं...तुम जैसे कुछ खास गिने-चुने बन्दो के लिए डाइरैक्ट फैक्ट्री से ही खालिस माल मँगवा लूँगा "नेताजी मानों लीपापोती सी करते हुए बोले  
"लेकिन वो तो काफी मँहगा पड़ेगा ना?"मैं भी अनजान बनने की कोशिश करता हुआ बोला...
"अरे यार!...ये सब मँहगा होता है तुम जैसों सिम्पल लोगों के लिए...हमारे लिए नहीं"...  
"क्या मतलब?...दाम तो सबके लिए एक ही होता है...कोई भी खरीदे"...
"अरे!...नहीं रे..तुम लोगों के लिए देसी...देसी ही होता है और अपने लिए क्या 'देसी' और क्या विलायती?...सब बराबर"...
"क्या मतलब?...आपके लिए देसी और विलायती में कोई फर्क ही नहीं होता है"...
"बिल्कुल"...
"लेकिन कैसे?"मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था
"अरे यार!...डाइरैक्ट फैक्ट्री से ही निकल आता है अपना माल...बिना एक्साइज़ ड्यूटी के"नेताजी फुसफुसाते हुए से बोले  
"ब्ब्...बिना एक्साइज़ ड्यूटी के?".. 
"हाँ यार!...एक अफसर को जो अन्दर होने से बचा दिया था एक बार.....पट्ठा आज तक नहीं भूला.....फुल रिगार्ड करता है अपना ...यारी जो हो गयी अपनी उसके साथ"... 
"लेकिन यारी हर किसी की कहाँ हो सकती है?" मैँ उदास मन से बोला 
"क्यों?...अगर कृष्ण और सुदामा की हो सकती है...मेरी और तुम्हारी हो सकती है...तो तुम्हारी..उसकी .. क्यों नहीं?"नेताजी मुझे हिकारत भरी नज़र से देखते हुए प्रतीत हुए...
गुस्सा तो इतना आ रहा था कि अभी के अभी मुँह तोड़ दूँ स्साले का लेकिन व्यावसायिक मजबूरी के चलते मुझे सिर्फ मनमसोस कर रह जाना पड़ा ...ऊपर से अनजान बनते हुए बोला "कहाँ वो राजा भोज और कहाँ मैं गंगू तेली?"..
"अरे!..होने को तो सब कुछ हो सकता है....बस पैसा फैंको और तमाशा देखो"
"हम्म!...बात तो सही कह रहे हैं आप" मैँ ऐसे मुण्डी हिलाता हुआ बोला जैसे सब कुछ समझ आ गया हो लेकिन कुछ शंकाए मन में ग्लेशियर कि बर्फ की भाँति जम चुकी थी और उनके पिघले बिना मुझे चैन नहीं पड़ने वाला था ...इसलिए बिना किसी लाग-लपेट के मैंने पूछ ही लिया कि...

"पिछली बार तो अपोज़ीशन वालों का ज़ोर था ना?...फिर आप और आपके साथी कैसे जीत गये?".. 
"अरे!..ये ज़ोर-वोर सब बे-फिजूल...बे-मतलब की बातें हैँ इनका भारतीय राजनीति के पटल पे कोई मतलब नहीं..कोई स्थान नहीं"....
"क्या मतलब?....ये सब बेकार कि बातें हैं?..इनका असलियत से कोई सरोकार नहीं?".. 
"बिल्कुल नहीं"...
?...?..?..?..?..
"असल मुद्दा ये नहीं होता कि किसका ज़ोर चल रहा है इलाक़े में?...असल मुद्दा ये होता है कि...तमाम धींगामुश्ती के बाद आखिर में जीता कौन?....और अंत में जीते तो हम ही थे ना?"नेताजी मेरा मुँह ताकते हुए बोले... 
"ओह!..बात तो आप सोलह आने दुर्रस्त फरमा रहे है लेकिन ये कमाल आपने कैसे कर दिखाया?"मेरे चेहरे पे छायी उत्सुकता हटने का नाम नहीं ले रही थी   
"अब यार!...तुम तो जानते ही हो कि अपुन को जवानी के दिनों से ही दण्ड पेलने का बड़ा शौक था" 
"जी!...ये तो मोहल्ले का बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन उससे होता क्या है?"... 
"सो!...दिन भर अखाडे में ही पडे रहते थे"....
"ओ.के"... 
"बस!...वहीं अपनी यारी आठ-दस छटे हुए पहलवानों से हो गयी"...
"तो?"..
"उन्हीं का इस्तेमाल किया और  मार लिया मैदान"अपनी इस उपलब्धि से वशीभूत नेताजी गर्व से फूले नहीं समा रहे थे 
"हुंह!...मैं नहीं मानता"....
"क्या मतलब?"...
"वो 'एम.एल.ए' का चुनाव था कोई ‘R.W.A’ का नहीं कि ज़रा सी उठा-पटक से मार लिया मैदान"...
"R.W.A?…माने?"...
"'रेसिडेंट वेलफेयर असोशिएशन'"...
"मैं तुम्हारी बात का मतलब नहीं समझा"...
"महज़ आठ-दस पहलवानों से इतने बड़े इलैक्शन में भला किसी का क्या उखड़ा होगा?"चेहरे पे असमंजस के भाव लाता हुआ मैँ बोला 
"गुड क्वेस्चन!...सही कह रहे हो...इतने बड़े इलैक्शन में आठ-दस सूरमाओं से तो किसी का बाल भी बांका नहीं होना था"...
"तो फिर?"... 
"इन सबके भी अपने-अपने लिंक होते हैँ यार...उन्हीं के जरिए और भी मँगवा लिए पड़ोसी शहरों से ठेके पे...आखिर!...पड़ोसी भला किस दिन काम आएंगे?"...
"काम आएंगे?"... 
"यार!...सीधा सा हिसाब है ....'इस हाथ दे और उस हाथ ले' का.. जब उनको काम पड़ता है तो इन्हें बुलवा लिया जाता है और जब इन्हें ज़रूरत आन पड़ती है तो वो सर के बल दौड़े चले आते हैं"...
"ओह!..लेकिन आप तो कह रहे थी कि ठेके पे?"मेरे स्वर में असमंजस साफ़ दिखाई दे रहा था 
"हाँ!...भय्यी हाँ...ठेके पे...अब घड़ी-घड़ी कौन हिसाब रखता फिरे कि....
  • कितनों की टांगे तोड़ी और कितनों के सर फ़ोड़े?...
  • कितनो को पीट-पाट के अस्पताल पहुँचाया? और ...
  • कितनों को सरेआम शैंटी-फ्लैट किया? 
"लेकिन इन सारे कामों में तो अलग-अलग महारथ के लोगों की आवश्यकता होती है...तो फिर रेट वगैरा कैसे फिक्स करते थे?"... 
"हर काम का अलग-अलग रेट होता है जैसे...
टांग तोडने के इतने पैसे  और... मुँह तोडने के इतने पैसे'... हाथ-पैर अलग-अलग तोड़ने के और एक साथ तोड़ने के इतने पैसे ...धमकाने के इतने पैसे वगैरा...वगैरा " 
"और बूथ-कैप्चरिंग के और बोगस वोटिंग के ?"मैने सवाल दाग दिया 
"ये की ना तुमने हम नेताओं जैसी बात...कहीं मेरी ही वाट लगाने का इरादा तो नहीं है?" ..
"ही...ही...ही....जी मेरी क्या औकात तो मैँ आपके सामने सैकण्ड भर को भी ठहर सकूँ"मैँ खिसियानी हँसी हँसता हुआ बोला 
"हम्म!...फिर ठीक है"नेताजी का संतुष्ट जवाब...  
"हाँ!...तो बात हो रही थी 'बोगस वोटिंग' और 'बूथ कैप्चरिंग की"... 
"जी".. 
"तो यार...इन सब के लिए तो अलग से पैकेज देना पडता है कि...इस इलाके के लिए इतने खोखे और उस इलाके के लिये इतने खोखे"...
"ओह!...लेकिन उन्हें कैसे पता होता है की किस इलाक़े में कितने लुडकाने पड़ेंगे?..और किस इलाक़े में कितने?"..

"स्सालों ने पूरा सर्वे किया होता है कि फलाने इलाके में ...इतने पटाखे फोडने पड़ेंगे और फलाने इलाके में इतने"... 
"खोखे?" मेरा मुँह खुला का खुला ही रह गया... 
"और तुम इसे क्या दस-बीस पेटी का खेल समझे बैठे थे?"... 
"ज्जी!...
"अरे!...पच्चीस-पचास से तो मेरे 'पी.ए' की भी दाढ गीली नहीं होती है तो अपना तो सवाल ही पैदा नहीं होता" 
"ओह!...
अब मुझे हर तरफ खोखे ही खोखे दिखाई दे रहे थे...दिल रह-रह कर ख्वाब देखने लगा था कि...कब मैं छूटूँ और कब कूद पड़ूँ मैँ भी इस खेल में?... 
आखिर!...खोखों का सवाल जो था..
***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja
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"रुखसाना को नहीं छोडुंगा"

"रुखसाना को नहीं छोडुंगा"

***राजीव तनेजा***


"चाहे कुछ भी हो जाए मैँ इस रुखसाना की बच्ची,दाल-दाल कच्ची को छोडने वाल नहीं"

"दो दिन में ही तारे दिखा दिए इसने तो मुझे ,कहीं का नहीं छोडा"

बडे मज़े से मेल भेजा कि "आपकी तो इतनी लंबी मेलिंग लिस्ट है ,कैसे मैनेज करते हैम ये सब ?"

"मेरा भी एक छोटा सा 'याहू'ग्रुप है , प्लीज़ जायन कर लें "

"मैने सोचा कि औरत ज़ात है और अपुन की तारीफ भी कर रही है .....

अब इसको क्या मना करूँ?

जहाँ इतने सही वहाँ एक और सही लेकिन ..

किंतु....

परंतु...

"मुझे क्या पता था कि ये मैम्बर बना के अपने ग्रुप की रौनक बढाने के बजाय मेरे ही जीवन में अन्धेरा कर डालेगी"

"इसने एक तो जो मेल पे मेल भेजना शुरू किया तो फिर रुकने का नाम नहीं लिया और ...

मेल भी ऐसी ऐसी कि बन्दा तो बस अपनी माशूका की तारीफों में ही पूरा जीवन गुज़ार दे"...


"पता नहीं दुनिया भर की शायरी कहाँ से बटोर लाती थी ?"

"हमें जैसे कोई काम ही नहीं है ना दुनिया में?बस उसी की ये नासपीटी शायरी ही पढते रहें "


"बच्चे कौन पालेगा?"

"इन मेल्ज़ को पढने के चक्कर में जो काम बचे रह गये हैँ ,उनको शायद ये मोहतरमा .....

सीधे क्ज़ाकिस्तान से दिल्ली की फ्लाईट पकड कर आएंगी और पूरा करेंगी(वहीं रहती है ना वो)"


"आ जाए अगर कसम से तो एयरपोर्ट पर ही गिन-गिन के बदले ले लूं"

"मेरी ज़िन्दगी जो कभी जन्नत से कम नहीं थी ,इस मुई का ग्रुप जायन करते ही नर्क से भी बद्तर हो गयी"

"बेडा गर्क कर के रख दिया"

अब आप पूछेंगे कि "इसमें उस बेचारी रुखसाना का क्या कसूर?"

"और लो!.... पूछ रहे हैँ कि क्या कसूर?"

"अरे मेरी इक्लौती बीवी ने गल्ती से उसकी एक मेल जो पढ ली,...

"पड गयी हाथ धो के मेरे पीछे कि अब मैँ उसकी तारीफ में कोई....

'गज़ल',....

'शेर'.... या फिर कोई ....

'डायलाग' ही बोल दूँ"


"अब यार क्या बताऊँ कि इन सब मामलों में अपुन पूरे के पूरे फिसड्डी हैँ और बीवी थी कि वहीं के वहीं अटक के खडी हो

गयी"

"एक ना सुनी",बोली कि "आज से चाय-नाश्ता सब बन्द"

"क्या करता मैँ बेचारा?कुछ तो बोलना ही पडा और गल्ती से कहो कि मैँ उसको उसी के ऊपर एक 'चुटकला' सुना बैठा"

"बस चुटकला सुनना था और उसका भडकना था, तपाक से बोली ...

"मैँ तो चली मायके,अब उसी कलमुँही 'रुखसाना' को ही बुला लो रोटियाँ सेंकने"


"उसको मनाने की कोशिश कर ही रहा था कि तभी उस'रुखसाना'की बच्ची ने बीवी के जलते हुए सीने पर धडाक से एक

और मेल दाग दी"


"पता नही किस जन्म का बदला ले रही थी"


"बीवी का पारा सातवें आसमान तक जा पहुँचा और गुस्से में 'मोगैम्बो' की तरह फुफकारते हुए बोली ...

"अभी कम्प्यूटर उठा के पटक दूँगी ,फिर करते रहने मज़े इस 'रुखसाना' की बच्ची से "


लाख मनाया पर न मानी,काफी जी-हजूरी करने के बाद बोली...

"पहले मेल तो खोलो,देखूँ तो सही कि क्या ऊट-पटांग भेजती रहती है ये मुसटंडी आपको?"


"मैने डरते-डरते मेल खोली कि पता नहीं इस बार क्या निकल आए और मेरी आफत खदी हो जाए "

"लेकिन मेल खुलते ही बीवी का चेहरा खिल उठा,"

"बांछे खिल उठी"


"ये रुखसाना तो बहुत अच्ची है"

"मैँ तो नाहक ही गरम हुए जा रही थी"

"आप भी तो समझा सकते थे ना मुझे ?"

"आप एक काम करो इसे ही ले आओ"

"किसको?"

"रुखसाना को ?"


"मेरे तो करम ही फूट गये जो इस बावले संग ब्याह रचाया,किस्मत ही फूटी थी मेरी "

"अरे बेवाकूफ आँखे हैँ कि बटन?दिखाई भी नहीं देता कि क्या भेजा है मेरी बहन ने ?"


"बहन? यहाँ तो रिश्तेदारी तक बात पहँचने वाली है

झट से मेल देखा तो मेरे होश उड गये,

माथा पकड के बैठ गया,

दिमाग सुन्न हुए जा रहा था

"कम्भखत मारी ने मेरी वाट लगाने की पूरी तैयारी से मेल भेजी थी"

"ऐसी-ऐसी फोटू देखी कि सर चकराने लगा

बीवी बोली चलो "अभी के अभी"

कोई चारा भी तो ना था ,हाँ में हाँ मिलानी पडी

ना मन होते हुए भी वो सब करना पडा जिससे मैँ कतराया करता था

पूरे बीस हज़ार का फटका लगा तभी बिगडी बात बनी,बीवी मायके जाने को जो तैयार बैठी थी वरना मैँ और नोट खर्चा?

"बाप रे बाप"


कम्भखत मारी रुखसाना ने मेल में ऐसी ऐसी मँहगी 'बनारसी साडियों' के फोटू भेजे कि बीवी से रहा नहीं गया और..

ज़िद पे अड बैठी कि लेनी है तो बस यही वाली लेनी है

आ...बताएँ तुझे कि कैसे होता है बच्चा



बड़े दिन हो गए थे खाली बैठे बैठे… कोई काम-धाम तो था नहीं अपने पास.. बस कभी-कभार कंप्यूटर खोला और थोडी-बहुत ‘चैट-वैट’ ही कर ली। सच पूछो तो यार बेरोज़गार था मैं और इसमें अपनी सरकार का कोई दोष नहीं, दरअसल!…अपनी पूरी जेनरेशन ही ऐसी है। अब कोई छोटी-मोटी नोकरी तो हम करने से रहे क्योंकि हर किसी ऐरे-गैरे…नत्थू-खैरे को घड़ी-घड़ी कौन सलाम बजाता फिरे ? और फिर कोई छोटा- मोटा धंधा करना तो अपने बस की बात नहीं इसलिए बाप-दादा जो थोडी-बहुत पूंजी छोड गए थे…वो भी आहिस्ता-आहिस्ता खत्म होने को आ रही थी। आखिर!…वो भी भला कब तक साथ देती ? बीवी के तानों का तो शुरू से ही मुझ पर कोई असर होता नहीं था। उसकी हर बात को मैं एक कान से सुनता और दूसरे से बाहर निकाल देता। कई बार तो कान में घुसने तक ही ना देता।
पहले नकदी खत्म हुई फिर  गहने-लत्तों का नंबर भी आ गया। एक-एक करके चीज़ें खत्म होती जा रही थीं लेकिन मेरी अकड़ ढीली होने का नाम ही नहीं ले रही थी। एक दिन मज़े से टीवी पर ‘ नो-एंट्री ‘ फिल्म देखते-देखते अचानक मैं खुशी के मारे उछल पडा। इसलिए नहीं कि फिल्म अच्छी थी बल्कि…अपुन के भेजे मे आइडिया आ गया था नोट कमाने का। अरे नोट कमाने का क्या,?…वो तो नोट छापने का आइडिया था। जैसे ही बीवी को बताया कि…
“एक आइडिया मिला है नोट छापने का”…तो वह गश खा कर धड़ाम करती हुए ऐसे गिरी कि वहीं के वहीं बेहोश हो गई। होश मे आने के बाद बोली….
“बस जेल जाने की कसर ही बाकी रह गई थी …. नोट छाप कर वह भी पूरी करने का इरादा है जनाब का? ”
मेरी हंसी रोके ना रुकी। बोला,…
“अरी भागवान!…नोट छापने का असली मतलब सचमुच में नोट छापना नहीं है”..
“तो फिर?”
“देखा नहीं, फिल्म में उस ज्योतिषी को?…. कितनी सफाई से ‘सलमान’ से पैसे ऐंठ लेता है और अनिल कपूर को बेवकूफ बनाता है”
“तो क्या हुआ?”
” अपुन का भी बस यही आइडिया है” …
” तुम्हारे पूरे खानदान में भी कोई ज्योतिषी हुआ है जो तुम बनोगे?”..
” हुआ तो नहीं लेकिन हमारी आनेवाली नस्लें ज़रूर ‘राज ज्योतिषी’ कहलाएगी”…
“पर ये सब करोगे कैसे?”…
“अरे!…कुछ खास मुश्किल नहीं है ये सब…बस…थोड़ा-बहुत त्याग मुझे करना होगा” …
“तो क्या दारू छोड़ दोगे?”बीवी के चेहरे पे खुशी के बादल आने को थे…
“पागल हो गई है क्या?…वो भी कोई छोड्ने की चीज़ है?”…
“तो फिर?” बीवी कुछ मायूस सी होती हुई बोली
“अरे!…ये हीरो-कट बाल छोड़ सीधे-सीधे लम्बे बाल रखूंगा”
“अरे वाह!..उसमें तो नाई का खर्चा भी बचेगा” बीवी चहक उठी
“कर दी ना तुमने दो कौड़ी वाली बात?…. अरे!…मैं लाखों में खेलने की सोच रहा हूं और तुम इन छोटी-छोटी बातों पर नज़र गड़ाए बैठी हो”मैं आगबबूला होने का नाटक सा करता हुआ बोला
“लेकिन आता-जाता तो तुम्हें कुछ है नहीं…खाली वेष बदलने से क्या होगा?” बीवी फिर बोल पड़ी
“अरे यार!..पहले पूरी प्लानिंग तो सुन ले…बाद मे अपनी बकबक करती रहिओ”
“जी!…बताऒ” बीवी आतुर नज़रों से मेरी तरफ ताकते हुए बोली
“हां!…तो मैं त्याग करने की बात कह रहा था…तो दूसरा त्याग ये करना पडेगा कि….ये गोविंदा-छाप चटक-मटक वाले कपड़े छोड़ सिम्पल धोती-कुरता पहनना पड़ेगा”
“वो तो शादी का पड़ा-पड़ा अभी तक सड़ रहा है अलमारी में” बीवी चहकते हुए फिर बोल पड़ी
“चलो!…ये काम तो आसान हुआ…अब कोने वाले कबाड़ी की दुकान से रद्दी छांटनी पड़ेगी”
“आय-हाय।…अब क्या रद्दी भी बेचोगे?” बीवी हैरान हो परेशान होती हुई बोली
“जब पता नहीं होता …तो बीच में चोंच मत लड़ाया कर” मैं आँखे तरेर गुस्से से लाल-पीला होता हुआ बोला
“बेवाकूफ!..पुराने अखबारों में जो भविष्यफल आता है… उन्ही की कतरनों को सम्भालकर रखूंगा, वक्त-बेवक्त काम आएंगी और अगर एस्ट्रॉलजी से रिलेटेड कोई किताब मिल गई तो…अपनी पौ-बारह समझो”
“पौ-बारह मतलब?”…
“अरी बेवकूफ!… पौ-बारह मतलब…लॉटरी लग गई समझो”…
“लेकिन ये ’जन्तर-मन्तर’ वगैरा कहां से सीखोगे भला?”
“कोई खास मुश्किल नहीं है ये सब भी…बस!…’बल्ली सागू’ या फिर ‘बाबा सहगल’ के किसी भी पुराने रैप सॉन्ग को कुछ इस अन्दाज़ से तेज़ी से…होंठो ही होंठो मे बुदबुदाना होगा कि किसी के पल्ले कुछ ना पड़े”…
?…?….?…?….बीवी कि समझ मे कुछ नहीं आ रहा था
“बस!…हो गया…. ‘ जन्तर-मन्तर काली कलन्तर”…
“ऒह!…समझ गई…समझ गई”..बीवी का ट्यूबलाईटी अचनक फक्क  से रौशन हो उठा
बस!..फिर क्या था?…मोटी कमाई के चक्कर में बीवी के बटुए का मुंह खुल चुका था। इसलिए ज़रूरी सामान इकट्ठा करने के बहाने उससे पैसे ले मैं चल पड़ा बाज़ार। पहले ठेके से दारू की बोतल खरीदी और फिर जा पहुंचा बाज़ू वाले कबाड़ी की दुकान पर। एक-दो पेग मरवाए उसे और अपने मतलब की रद्दी छांट लाया। अब दिन-रात एक करके हम मियां-बीवी उन कतरनो का एक-एक अक्षर चाट गए और इस नतीजे पर पहुंचे कि…पूरी दुनिया में इससे आसान काम तो कोई और हो ही नहीं सकता।
अब आप पूछोगे कि….”वो भला कैसे?”
तो ये भाला मैं आपको क्यों बताऊं और अपने पैरों पे ख़ुद ही कुलहाड़ी मार लूं?….कहीं मुझसे ही कॉम्पिटीशन करने का इरादा तो नहीं है ना आपका?”..
“क्या कहा?…. चिंता ना करूँ?
“ठीक है!…जब बीवी पर विश्वास करते हुए उसे सब कुछ सच बता दिया था तो आपसे क्या छिपाना?…आपको भी उसी टोन…उसी लैंगवेज़ मे सब कुछ वैसे ही समझा देता हूँ जैसे बीवी को समझाया था”..
“आप भी तो अपने ही हैं…कौन सा पराए हैं?”.
“कुछ ख़ास मुश्किल नहीं है ये सब…. बस!…सिम्पल-सी कुछ बातें गांठ बांध लो कि…
  • हर बंदा अपने को अच्छा और बाक़ी सबको बुरा समझता है…
  • हर-एक को यही लगता है कि वह सही है और बाक़ी सब ग़लत…
  • कोई उसे सही ढंग से समझ ही नहीं पाया आज तक…
  • वह अपनी तरफ़ से कड़ी मेहनत करता है लेकिन उसे उसका पूरा फल नहीं मिलता…
  • सब के सब उसकी कामयाबी से जलते हैं…
  • कोई उसका भला नहीं चाहता…
  • दोस्त-यार…रिश्तेदार…भाई-बहन…पड़ोसी…सब के सब मतलबी हैं…कोई उसकी ख़ुशी से ख़ुश नहीं हैं…
  • वह सब पर तरस ख़ाता है, लेकिन कोई उस पर नहीं…
  • किसी ने उस पर कोई जादू-टोना किया हुआ है… या फ़िर…
  • उसकी दुकान या मकान को बांध दिया है…
“सामने वाले का चौख़टा देख कर अंदाज़ा लगाओ कि उस पर कौन-कौन से डायलॉग फ़िट बैठेंगे?..बस!…चौखटा देखो और मार दो हथौड़ा”…
“यहाँ मेरी इस बात से कहीं ये मतलब ना निकाल लेना कि सामने वाले का चौखटा देखते ही उस पर ज़ोर से हथौड़ा धर देना है…ऐसा करने कि कभी सोचना भी मत…हमेशा के लिए अंदर हो जाओगे”…
“समझ गए ना कि चौखटा देख के सिर्फ डायलाग ही मारने हैं..ईंट-पत्थर या हथौड़े नहीं?”…
“ओ.के!…मुझे आपसे यही उम्मीद भी थी”..
“अगर तीर सही निशाने पर लगा तो समझो कि अपनी तो निकल पड़ी”..
“अब आप पूछेंगे कि …अगर निशाना ग़लत लगा तो?”
“तो उसके लिए…फिकर नॉट… घुमा-फिरा कर 2-4 डायलॉग और मार दो बस…कोई ना कोई तो अटकेगा ज़रूर”..
“और हाँ!… अगर ऊंचे लैवल का गेम खेलना है…तो दो-चार चेले-चपाटे भी साथ रख लो…एक-आध चेली भी मिल जाए तो कहना ही क्या?”…
“अगर कोई ना मिले तो?”..
“चौक से ही दिहाड़ी पर पकड़ लाओ…बड़े बे-रोज़गार हैं अपने देश मे…कोई ना कोई अपने मतलब का मिल ही जाएगा पर हाँ!…इतना ज़रूर ध्यान रखना कि….चेला रखना है…गुरु नहीं”…
?…?…?..?..
“कहीं ऐसा ना हो कि अगले दिन ही वो तुम्हारे सामने तेल की शीशी और चटाई लिए बैठा…तुम्हारा ही बंटाधार करता नज़र आए”…
“एक ज़रूरी बात…चौक पर बिकने वाला तोता अगर मिल जाए, तो धंधे में और रौनक आ जाएगी”…
“वो कैसे?”…
“कुछ खास नहीं..बस!..तोते को भूखा रखना है और… भविष्य की पर्चियों पर अनाज का दाना चिपका देना है।पंछी बेचारा तो भूख के मारे अनाज के दाने वाली पर्ची उठाएगा और बकरा बेचारा बस यही समझेगा कि मिट्ठू महाराज ने उसका नसीब बांच दिया है”..
“और उस पर्ची के अंदर लिखा क्या होगा?” …
” हे भगवान!…आप तो हूबहू मेरी बीवी के ही अंदाज़ मे पूछ रहे हैं…इरादा तो ठीक एव नेक है न आपका?…
“कमाल है!…जैसे पूरी रामायण खत्म होने के बाद वो पूछ रही थी कि …” सीता…राम की कौन थी?”
“आप भी उसी टोन …उसी लय मे पूछ रहे हैं कि पर्ची के अंडा क्या लिखा होगा?”…
“मेरा सर लिखा होगा”..
“चढ़ा दिया न बिना बात के गुस्सा?….अब खुश?”….
“ठंडक मिल गई न आपके कलेजे को?”..
“क्या कहा?…खामख्वाह नाराज़ हो रहा हूँ मैं?…गुस्से को थूक दूँ?”…
“ठीक है!…जब कभी मैं अपनी बीवी कि बात नहीं टाल सका तो आपकी कैसे टाल दूँ?”…
“ओ.के!..जैसे मैंने उसे टुट्टा सा जवाब दिया था…आपको भी वैसे ही दे देता हूँ”….
“अरी भागवान!…अभी ऊपर इतने सारे मन्तर तो बताता आया हूँ…उन्ही मे से कोई ना कोई तो ज़रूर फ़िट बैठेगा” मैं दाँत किटकिटा का उन्हे गुस्से से पीसता हुआ बोला
“हम्म!…
“लगता है कि आपकी भी समझ मे बात आ चुकी है”…
“जी”…
“तो फिर आगे कि कथा बांचू?”…
“जी”..
कैसे लोगों का फुददु खींचना है?…ये सब तरीका तो अब तक समझ आ ही चुका था इसलिए बिना किसी प्रकार के देरी किए एक दिन ऊपरवाले का नाम ले बीच बाज़ार पहुँच…ऊँचे वाले बरगद के पेड़ के नीचे अपना डेरा जा जमाया।  कोई न कोई कोई असामी रोज़ टकराने लगी। किसी को कुछ , तो किसी को कुछ इलाज बताता उसकी हर तक़लीफ़ या बीमारी का। एक से तो मैने एक ही झटके में पूरे बारह हज़ार ठग डाले थे। बड़ी आई थी मज़े से कि…
“महाराज!…बच्चा नहीं होता है…कोई उपाय बताओ”
मैंने सोचा कि…”अगर नहीं होता है तो कुछ ‘ओवर-टाइम’ लगाओ….’माल-शाल’ खाओ और अगर फिर भी बात नहीं बनती है तो किसी अच्छे डॉक्टर-शॉक्टर के पास जाओ। ये क्या कि सीधे मुंह उठाया और ज्योतिषी के पास चली आई?”
“अब यार!..अपने घर की ड्यूटी तो ढंग से बजाई नहीं जाती अपुन से,…ऊपर से ओवरटाइम कौन कमबख्त करता फिरे??”…
“लेकिन मंदा है…फिर भी…धंधा तो धंधा है”…
“सो!…उस बेचारी को कुछ उलटी-पुलटी चीज़ें बताई लाने के लिए जैसे…
  • काली शेरनी का दूध…
  • जंगली भैंसे का सींग …
  • शुतुर्मुर्ग का कलेजा और न जाने क्या-क्या…
मुँह उतर आया उस बेचारी का कि…”मैं अबला नारी…ये सब लाना मुझे पड़ेगा बहुत भारी”…
“कहाँ से लाऊंगी ये सब?”…
“मौके कि नज़ाकत को भाँप मैंने उसे ढांढस बंधाते हुए कहा…” आप चिंता ना करें…परसों…मेरा शागिर्द नेपाल कि तराई के जंगलो से आनेवाला है…उसे ही संदेशा भिजवा देता हूँ…वही लेता आएगा”…
उसने हामी भर दी…और चारा भी क्या था उसके पास? नकद गिन के पूरे बारह हज़ार धरवा लिए…फिर जाने दिया उसे। मोटी-कमाई तो हो ही चुकी थी…सो!…मैंने भी वक्त गँवाना ठीक नहीं समझा और झट से अपना झुल्ली- बिस्तरा संभाल चल पड़ा घर की ओर। रस्ते में विलायती की पेटी ले जाना नहीं भूला। ख़ुश बहुत था मैं उस दिन, बस!…पीता गया, पीता गया। कुछ होश नहीं कि कितनी पी और कितनी नहीं पी?…जब होश आया तो बीवी ने बताया कि…
” पूरे तीन दिन तक टुल्ली रहे आप…ख़ूब उठाने की कोशिश की लेकिन कोई फ़ायदा नहीं…इधर से उठाऊँ तो उधर जा के पसर जाओ…उधर से उठाऊँ तो इधर आ के लंबलेट हो जाओ”
“तो क्या?…पूरे तीन दिन दुकान बन्द रही?”
“और नहीं तो क्या?”…
“ओह!…मैं एक झटके से खुद को झटक कर उठ खड़ा हुआ और भाग लिया सीधा दुकान की ओर। पूरे रास्ते यही सोचे जा रहा था कि तीन दिन में पता नहीं कितने का नुक़सान हो गया होगा? कुछ दिनो कि जीतोड़ मेहनत के बाद हाथ कुछ जमने सा लगा था। नतीजन!…गलती से या पता नहीं कैसे मेरे तुक्के सही निशाने पे लगने लगे थे”…
मैंने भी सोच जो लिया था कि….
“लग गया तो तीर…नहीं तो तुक्का सही…बीड़ी नहीं…तो हुक्का सही”..
“मेरे अजीबोगरीब इलाजों से किसी-किसी को थोड़ा-बहुत फ़ायदा भी होने लगा लेकिन 8-10 बार शिकायत भी आई कि…
“महाराज!…आपकी तरकीब तो काम न आई…कोई और जुगाड बताओ”…
ऐसे बकरों का तो मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता था। एक ही पार्टी को दो-दो दफा जो शैंटी-फ्लैट करने का मज़ा कुछ और होता है। उनके द्वारा किए गये इलाज में कोई न कोई कमी ज़रूर निकालता और नये सिरे से बकरा हलाल होने को तैयार। पुरानी कहावत भी तो है कि…
“खरबूजा चाहे छुरी पर गिरे या फ़िर छुरी खरबूजे पर… कटना तो खरबूजे को ही पड़ता है”…
अपुन का कॉन्फिडेंस ‘टॉप-ओ-टॉप’ बढता ही जा रहा था कि एक दिन अचानक एक ‘जाट-मोलढ’ टकरा गया….
पूरी राम कहानी सुनने के बाद मैंने उससे…उसकी परेशानी का इलाज बताने के नाम पर 2 हज़ार माँग लिए। जाट ठहरा जाट…पट्ठा..सौदेबाज़ी पर उतर आया। खूब हील-हुज्जत के बाद आख़िर में सौदा 450 रुपये में पटा। उसने धोती ढीली करते हुए जो नोट निकाले, तो जनाब…मेरी आंखें तो फटी की फटी ही रह गईं। नज़र धोती में बंधी नोटों की गड्डी पर जो जा अटकी थी लेकिन अब क्या फ़ायदा?…जब चिड़िया चुग गयी खेत। मैं तो यही सोचे बैठा था कि बेचारा ग़रीब मानुस है…इसे तो कम से कम बख्श ही दूं”…
“आख़िर!…ऊपर जाने के बाद वहाँ भी तो अपने हर अच्छे-बुरे कर्म का हिसाब देना पड़ेगालेकिन यह बांगड़ू तो मोटी आसामी निकला”…
“उफ़!…यहीं तो मार खा गया इंडिया”…
साढ़े चार सौ जेब के हवाले करते हुए मुंह से बस यही निकला…”ताऊ!…काम तो करवा रहे हो पूरे अढाई हज़ार का और नोट दिखा रहे हो टट्टू?”
“बेटा!…टट्टू तो तुमने अभी देखा ही कहाँ है?..वो तो अब मैं तुम्हें दिखाऊंगा” कहते हुए उसने किसी को इशारा किया और तुरंत ही मेरे चारों तरफ़ पुलिस ही पुलिस थी…
“स्साले हरामखोर!…पब्लिक का फुद्दू खींचता है?….अब बताएंगे तुझे…चल थाने”…
“बड़ी शिकायतें मिली हैं तेरे खिलाफ़”…
“स्साले!…वो S.H.O साहेब की मैडम थीं, जिससे तूने बारह हज़ार ठगे थे”…
“चल!…चल अब थाने…हम तुझे बताएंगे कि ….
“बच्चा कैसे होता है?”…
राजीव तनेजा

"घूमती है दुनिया घुमाने वाला चाहिए"

"घूमती है दुनिया घुमाने वाला चाहिए"

***राजीव तनेजा***


"आय हाय .....

"आज फ़िर् कबाड उठा लाए? बीवी 'वी.सी.डी' भरे लिफ़ाफे को ..

पलंग पे पटकते हुए बोली


"कुछ अकल-वक्ल भी है कि नहीं?

"अभी पिछ्ली वाली तो देखी नहीं गयी ढंग से .....

ऊपर से और उठा लाए "...


"फ्री में बंट रही थी क्या ?"


"हमेशा 'पैसे उजाडने' की ही सोचा करो ....

ये नहीं की कुछ ऐसा काम करो कि ....

'नोटों की बारिश'हो ."


"उल्टे जो थोड़े-बहुत हैं उनका भी ...

'बँटाधार' करने पे तुले हो"

बीवी जो एक बार शुरू हुई तो बिना रुके बोलती चली गयी....

"अरे यार सस्ती मिल रही थी तो मैं ले आया "


"हुँह ...सस्ती मिल रही थी तो पूरी दुकान ही उठा लाए जनाब ?"

"अब तुम भी ना"..

"पता नहीं क़ब् अकल आएगी तुम्हे ?"..

"जो चीज़ देखते हो सस्ती .....

'थोक के भाव'उठा लाते हो"....


"भले ही बाद मैं पडी पडी सड्ती फिरे ....तुम्हारी बला से."


"अब उस दिन आलू क्या दो रुपए किलो मिल गये .....

'पूरी बोरी' ही लाद लाए."


"मैं तो तंग आ चुकी हूँ....

दिन भर् 'आलू'बनाते और खाते".....


"यार बच्चों को पसंद है".....


"तो क्या उन्हें भी अपनी तरह तोन्दुमल बना डालोगे?"


"कुछ तो ख़्याल किया करो अपनी सेहत का"......


"कोई फ़िक्र है ही नहीं ".....


"सब् की सब् टैंशन मेरे ही ज़िम्मे जो सौंप रखी हैं....


"ये नहीं की कोई अच्छा काम करते और ...


नोट कमाने का बढिया सा जुगाड़ ढूढते "



"ये क्या की हर वक़्त बस नोट फूँकने के तरीक़े तलाशते रेहते हो?"....


"अरे पूरी दुनिया लखपति हुए जा रही है और ....

तुम हो कि करोड्पति से लखपति पे आ गये.".....


"अब क्या कंगाल होने का इरादा है?"


मुझसे रहा ना गया और दाँत पीसते हुए बोला...

"बडी अपने को अकलमंद समझती हो तो फ़िर्...

तुम ही कोई आईडिया क्यूं नहीं दे देती खुद ही कि....

कैसे रातों-रात लखपति बना जाए."



"इसमें भला कौन सी बडी बात है ?" बीवी ने तपाक से उत्तर दिया....

"रेडियो',टीवी ना देख के इन मुई फिल्मों के चक्कर मैं रातें काली करते फ़िरोगे तो यही होगा ना ."


"ना दींन-दुनिया की ख़बर ना ही किसी और चीज़ की फ़िक्र."..


"बस खोए रहते हैं इस मुई 'ऐश्वर्या' के चक्कर में."


"अरे बीस-बीस बार एक ही फिल्म देखने से गोद में नहीं आ बैठेगी."

"तुम्हारी किस्मत मैं मैं ही लिखी हूँ बस ".....

"ख़बरदार जो किसी की तरफ़ आँख उठा के भी देखा तो....

"वहीं के वहीं खींच के बेलन मारूंगी कि सर पे पट्टी बांधे डोलते फ़िरोगे इधर उधर"

वो फ़िर् जो शुरू हुई तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी कि ....


मुझे मजबूरन बीच मैं टोकना पडा.....

"तुम तो लखपति बनने के 'जुगाड़' बता रही थी....

"क्या हुआ ?"

"कहाँ गया आइडिया?"

"बस निकल गई हवा ?"

"हा !... कहना कितना आसान है ....

बस मुँह खोला और झाड़ दिए दो-चार लेक्चर"...


"इसमें कौन सा टैक्स लग रहा है?"....


बीवी ग़ुस्से से मेरी तरफ़ देखती हुई बोली

"अरे बेवकूफ़ अकल लडा और 'एस.एम.एस'भेज....."


"एस.एम.एस' भेज के अक्ल लडाऊं?"

"ये कौन सा तरीक़ा है लखपति बनने का ?"


"अरे बाबा रोज़ तो आ रहा होता है टीवी पे कि फलाना और ढीमका लिख के .....

फलाने -फलाने नंबर पे 'एस.एम.एस'करो और लाखों के ईनाम पाओ "


"अब कल ही तो आ रहा था कि 'जैकपाट' लिखो और फलाने नंबर पे 'एस.एम.एस' करो ...

"पता नहीं कितने लखपति बन चुके होंगे अभी तक और हम हैं कि बैठे हैँ वहीं के वहीं "

"कुछ का तो नाम भी बार-बार अनाउंस कर रहे थे और एक-दो क फोटू भी छपा देखा था अखबार में"



"पता है कितना खर्चा है एक 'एस.एम.एस' का?मैने 'तिरछी नज़र' से देखते हुए कहा......

"पूरे दस क नोट स्वाहा हो जात है एक ही बार में "

"अरे कुछ नहीं है बस 'फुद्दू' खींच डाल रहे हैं सरासर और ...

पब्लिक है कि मानो जन्म से ही तैयार बैठी हो जैसे कि

"आओ भाईजान... आ जाओ ,तुम ही बताओ कि कहाँ माथा टेकना है ?"


"अरे घूमती है दुनिया घुमाने वाला चाहिए"


"दस-दस करके पता नहीं कितने का गेम बजा डालते है रोज़ के रोज़ " और ....

बाँट डालते हैँ आठ-दस लाख दिखावे की खातिर"....

"इनके बाप का जाता ही क्या है आखिर?"


"बाक़ी सब् का क्या होता है?" बीवी उत्सुकता से मेरी तरफ ताकती हुई बोली


"सब् का सब् डकार जाते हैं साले खुद ही"


"लेकिन पैसा तो मोबाइल कंपनी वालों को मिलता है ....


'रेडियो-टीवी वालों को भला इसमें क्या फ़ायदा?"


"अच्छा ? साले सब के सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैँ ".....

"मिलीभगत है सबकी "

"इस हमाम में सभी नंगे हैँ"

"टी वी वाले या फिर कोई और"

"सब मिल-बांट के खाते हैँ"

"सबका हिस्सा होता है "

"हाँ... लेकिन एक बात की तो दाद देनी पडेगी "....

"वो भल्ला क्या?"

"होते साले बडे ही ईमानदार हैँ "


"ईमानदार ?"

"भांग तो नहीं चढ़ा रखी कहीं?.....

'अभी-अभी तो केह रहे थे कि......

सब् साले चोर हैं और अब ये क्या बके चले जा रहे हो ?"

"किसी एक बात पे तो टिका करो "


"अरे तो क्या ईमानदारी का ठेका सिर्फ हमने या फिर तुमने ही लिया हुआ है ?"

"ये किसने कह दिया कि चोर ईमानदार नहीं होते ?"


"पाई-पाई क हिसाब एकदम एकूरेट रखते हैँ साले "

"जिसका जितना बनता है ...

बिना मांगे ही पहुँच जाता है उसके 'खाते' मैं ."


"और लो.....

अब तो इन मुए अखबार वालों को भी चाव चढ चुका है इस कंभखत मारी'एस.एम.एस' नाम की बिमारी का"

"वो भी कूद पडे हैँ इस गोरख-धन्धे में"


"बस कोई बात हो या ना हो 'एस.एम.एस के जरिए सबकी वाट लगाने को तैयार बैठे रहते हैँ हरदम"

"अब तू खुद ही बता कि एक भाई ने दूसरे को गोली मार दी तो इसमें'एस.एम.एस'भला कहाँ से आ गया?"....

"फिर भी ये साले टीवी वाले कहते हैँ कि 'एस.एम.एस' भेजो कि बंदा बचेगा कि नहीं ? "


"अगर बचेगा तो 'Y' टाईप करो और . ..

अगर लुडकेगा तो 'N' टाईप करो "

"अब भले ही वो बचे ना बचे लेकिन इनका तो बचत खाता खुल ही गया मलाई मार के "

"चाहे प्रोग्राम कोई रोने-धोने वाला सास-बहू टाईप हो या कोई हँसाने वाला या फिर कोई ...

खबरों का सबसे 'तेज़ चैनल'ही क्यों ना हो ,.. .

सभी के सभी लूटने में मस्त हैँ"

"इनका बस चले तो निचोड ही डालें आम आदमी को "

"थोडे से ईनाम का झुनझुना दिखा के लार टपका डालते हैँ और फिर जेब का ढीला होना तो लाज़मी ही समझो "

"अब पहले तो किसी एक बंदे को पूरे एक करोड का लालीपाप दिखाओ और बाँध डालो एग्रीमैंट के चक्कर में कि ....

ले बेटा अब तू गा और बजा आराम से पूरे साल,इंडिया का आईडल जो है तू"


"मानो इनसान ना हुआ कोई गाय-भैंस हो गयी कि पूरे एक साल तक जी भर के दुहो "


"बाप का राज़ जो है "

"लेकिन किस्मत तो जाग उठी न उसकी? मेरा भी फेवरेट है वो" बीवी कह उठी ...


"चलो माना कि किस्मत जाग उठी उसकी , लेकिन किनकी जेबों की कीमत पर?"

"हमारी तुम्हारी ही जेबों पर पानी फिरा है ना?"


"पता नहीं कितनो की जेबें ढीली हुई और कितनो ने तिज़ोर्रियाँ भरी"

"इसको बताने वाला कोई नहीं".......

"अगर कुछ बांट भी दिया तो कौन सा उनके बाप का गया?"

"चैनल की 'टी.आर.पी' बडी सो अलग "

"सालों ने अपनी खुद ही किस्मत बना डाली है और पब्लिक है कि ...

ऊपरवाले के भरोसे बैठी है कि वो ही आएगा और उनकी किस्मत संवारेगा एक दिन "


"अरे बेवाकूफो .. कोई नही आने वाला"

"सरेआम लूट है लूट."

"कोई 'रोकने' वाला नहीं"...

"कोई 'टोकने' वाला नहीं"

सब एक-दूसरे का फुद्दू खींच रहे हैँ "


"मैँ तो यही सोच रहा था कि सिर्फ हिन्दोस्तान में ही फुद्दू बसते हैँ लेकिन ...

अब तो ये जग-जाहिर हो गया है कि पूरी दुनिया ही भरी पडी है ऐसे बावलों से "


"वो भला कैसे?" बीवी असमंजस भरी निगाहों से मेरी तरह देखते हुए बोली


"अब तुम खुद ही देखो ना...

"कुछ गिने-चुने बंदो ने दिमाग लडाया और पूरी दुनिया को ही एक झटके में शीशे में उतार डाला....

साले खुली आँखो से ऐसे काजल चुरा ले गये कि जागते हुए भी सोते ही रह गए सब के सब "

"कोई कुछ भी उखाड नही पाया उनका"

"वो भला कैसे?"

"साले कुछ गिने-चुने नमूनो ने 'सात अजूबों' के नाम पे एक वैब साईट बनाई और ...

पूरी दुनिया को चने के झाड पे चढा पे चढा के कहते हैं कि ...

'वोट'करो और साबित करो कि दुनिया के सात अजूबे कौन कौन से हैँ?"

"इन साले नमूनो के चक्कर में 'एस.एम.एस' भेज भेज के पूरी दुनिया खुद ही नमूना बन बैठी"

"पैसे तुम्हारा बाप देगा 'एस.एम.एस' के ?

"और तुम गवर्नर हो जो तुम्हें साबित करें?"

"आखिर तुम होते कौन हो ये सब तय करने के लिये?"

"किसने तुम्हें अधिकार दिया?"

"ना तुम 'यू.एन.ओ' से हो न ही किसी और 'विश्व-व्यापी' संस्था से "


"ये तो माना कि दूसरे की जेब से पैसा निकालना आसान नहीं लेकिन....

इन सालों ने मिल कर ऐसा फूल-प्रूफ जुगाड़ बना डाला है कि....

सब के सब मरीज़ बने बैठे हैँ इस 'एस.एम.एस' रूपी बिमारी के"


"जेब से नोट खिसकते जा रहे हैं लेकिन ....

किसी को कोई फिक्कर-ना-फाका"

"उलटे साले बंदे को ये खुश-फहमी और दे डालते हैँ कि ...

'ये हुआ' तो या फिर 'वो जीता' तो सिर्फ और सिर्फ उसके 'एस.एम.एस' की वजह से

और बंदा बेचारा फूल के कुप्पा हुए जाता है कि चलो एक नेक काम तो किया "


"खाक अच्छा काम किया?"

"सरे बाज़ार कोई कपडे उतार ले गया और साहब को इल्म ही नहीं"

"उलटे खुशी से अगले 'एस.एम.एस' की तैयारी में जुटे दिखाई देते हैँ जनाब"

लगता था कि आज सारा का सार गुस्सा इन चोरों पर ही निकल पडेगा कि अचानक...

कॉल बेल बजी और साले सहब के चहकने की आवाज़ सुनाई दी

मिठाई का डिब्बा हाथ में लिए ख़ुशी के मारे उछल् रहे थे


"लो जीजा जी मुँह मीठा करो"

मिठाई देखते ही मुँह में पानी आ गया....

टूट पडा मिठाई पर

दो-चार टुकडे मुँह में ठूसने के बाद डकार मारता हुआ बोला...

"जनाब किस खुशी में मिटाई बांटी जा रही है?"

इस पर बीवी बोल पडी ...

"इतनी देर से यही तो गा रही हूँ लेकिन तुम्हारे पल्ले बात पडे तब ना "


"ईनाम निकला है मेरे भाई का "

'एस.एम.एस' भेजा था"


"अच्छा..."


"कितने का ईनाम निकला है ?"


"पूरे पचास हज़्ज़र का"


"ओह...ज़रा टीवी तो ओन करना "मैँ मोबाईल संभालता हुआ बोला


"क्यूँ?"...

"क्या इरादा है जनाब का?" बीवी मंद-मंद मुस्काते हुए बोली


"एस.एम.एस' का ही इरादा होना है और भला किसका " मैँ झेंपता हुआ बोला
 
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