मृगया- अभिषेक अवस्थी

साहित्य क्षेत्र के अनेक गुणीजन अपने अपने हिसाब से व्यंग्य की परिभाषा को निर्धारित करते हैं। कुछ के हिसाब से व्यंग्य मतलब..ऐसी तीखी बात कि जिसके बारे में बात की जा रही है, वह तिलमिला तो उठे मगर कुछ कर ना सके। वहीं दूसरी तरफ मेरे जैसे कुछ व्यंग्यकार मानते हैं कि व्यंग्य में तीखी..चुभने वाली बात तो हो मगर उसे हास्य की चाशनी में इस कदर लपेटा गया हो कि उपरोक्त गुण के अतिरिक्त सुनने तथा पढ़ने वाले सभी खिलखिला कर हँस पड़ें।

आज व्यंग्य की बात इसलिए दोस्तों कि आज मैं अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपने वाले अभिषेक अवस्थी जी के प्रथम व्यंग्य संग्रह 'मृगया' की बात करने जा रहा हूँ। तत्कालीन अख़बारी सुर्खियों और मीडिया जगत की ख़बरों को आधार बना लिखे गए उनके व्यंग्य खासे प्रभावित करते हैं।

जहाँ एक तरफ़ कुछ नए व्यंग्यकारों को आजकल अपने विषय से भटक खामख्वाह में बात में से बात निकालते देखा जा सकता है। जिसे कुछ लोगों के द्वारा अब व्यंग्य मान एवं स्वीकार कर लिया गया है। सुखद आश्चर्य के रूप में अभिषेक अवस्थी जी की लेखनी इस सब से बची नज़र आती है। 

उनके व्यंग्यों की चपेट में जहाँ एक तरफ़ बड़े सेलिब्रिटीज़ नज़र आते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ मीडिया भी उनके छोटे से छोटे फंक्शन को कवर करने को दीवाने आशिकों की भांति हर पल बेताब दिखाई देता है। कहीं उनके व्यंग्य में स्मार्टफोन का इस्तेमाल ना करने वालों को पिछड़ा या दोयम दर्ज़े का मान लिया गया है। तो कहीं दिलफैंक टाइप के चलते पुर्ज़े लोग अपनी फ्लर्टी नेचर की वजह से इनकी जद में आए दिखते हैं।

कहीं हर जगह..हर मौके पर नुक्ताचीनी करने मामा या फूफ़ा टाइप के लोग दिखते हैं तो कहीं हिंदी दिवस के मौके पर जगह जगह कुकुरमुत्तों की फौज की तरह उग आए मौकापरस्त हिंदी सेवकों  का जमावड़ा नज़र आता है। कहीं इसमें बिहार की परीक्षाओं में टॉप करने वालों के स्कैम की बात है तो कहीं भारतीय रेल की लेटलतीफी और टीटी वगैरह की मनमानी नज़र आती है।

कहीं इसमें शिकायतों के पुलिंदे को ओपन लैटर के माध्यम से खोलने के चलन और स्कूल की शरारतों..मार इत्यादि का मज़ेदार चित्रण है। तो कहीं देश की राजनीति में बाहुबलियों..मुजरिमों..चोर..डाकुओं के पदार्पण पर गहरा कटाक्ष करती रचना दिखाई देती है। कहीं इसमें मसालेदार खबरों के फेर में पड़े तथाकथित टाइप के कमाई खोजते..खोजी पत्रकार नज़र आते हैं। तो कहीं इसमें चुनाव से पहले नेताओं के शराफ़त का चोगा ओढ़ जनता के समक्ष आने की बात है। 

कहीं "बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा?" 
वाली उपरोक्त कहावत की तस्दीक करने की तुरत फुरत चर्चा में आने के उलटे सीधे उपाय खोजते एवं आज़माते लोग नज़र आते हैं। तो कहीं कोई फेसबुक पर लाइक्स के कम आने या बहुत ज़्यादा आने से होने वाली चिंता..परेशानीसे घिरा बैठा है।
कहीं इसमें भारतीय रेल की तीनों श्रेणियों शताब्दी- राजधानी, एक्सप्रेस और पैसेंजर ट्रेनों तथा उनमें सफ़र करने वाले यात्रियों के बीच के फ़र्क को इंगित किया गया है। तो कहीं पक्ष विपक्ष की जुगलबंदी से नेताओं की चार गुणा तक बढ़ी वेतनवृद्धि को निशाना बनाया गया है। 

कहीं इसमें आलोचना सहन ना कर पाने वाले लोगों की खिसियाहट युक्त  बौखलाहट के आधार पर लिखा गया व्यंग्य नज़र आता है। तो कहीं इसमें खोखली संवेदनाएं प्रकट करते नेता दिखाई देते हैं। कहीं सदा दुखी रहने वाले लोग दिखाई देते हैं। तो कहीं राजनीति में सफलता प्राप्ति हेतु अनिवार्य रूप से किए जाने वाले मज़ेदार योगासनों का वर्णन है। कहीं इसमें सरकारी अध्यापकों को कभी मतगणना ड्यूटी..तो कभी चुनाव ड्यूटी में झोंकने के सरकारी आदेशों पर कटाक्ष किया गया है। तो कहीं इसमें ऐसे लोगों पर कटाक्ष दिखाई देता है जो एक तरफ़ बढ़ती महंगाई का रोना रोते हैं और दूसरी तरफ लाइनों में खड़े होकर ₹72000 से ले कर एक-सवा लाख तक के आईफोन बुक करवा रहे होते हैं। 

कहीं इसमें आरक्षण माँगने वालों की बढ़ती तादाद और अनियंत्रित इच्छाओं पर कटाक्ष किया गया है। तो कहीं इसमें झूठी सच्ची तारीफ करने के गुण सिखाए गए हैं। कहीं इसमें दहेज लोलुपों पर मज़ेदार ढंग से कटाक्ष किया गया है। तो कहीं इसमें होली की मस्ती अपने चरम पर दिखाई देती है। कहीं इसमें छोटी उम्र में ही बच्चों पर कोचिंग का बोझ डालते अभिभावक दिखाई देते हैं। तो कहीं पर्यावरण दिवस पर अपने ए. सी कमरों से बाहर निकल कुकुरमुत्ते की भांति यहाँ वहाँ से उभरते पर्यवरण प्रेमी दिखाई देते हैं। 

कहीं इसमें राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं की व्यथा पर प्रकाश डाला गया है कि किस प्रकार उन्हें कार्यकर्ताओं और नेताओं द्वारा की गई गंदगी को ढोना पड़ता है। तो कहीं अन्ना आंदोलन के उठने..ढहने और केजरीवाल के सरकार बनाने पर गहरा कटाक्ष किया गया है। कहीं पानी की कमी और उसे व्यर्थ बहाने वालों पर निशाना साधा गया है। तो कहीं इसमें संकट की घड़ी में कुछ ठोस कर दिखाने के बजाय महज़ उच्चस्तरीय बैठकें करने वाली सरकारों और अफ़सरों की बात है।

 कहीं इसमें मॉब लिंचिंग को उतारू उन्मादी भीड़ इसमें नज़र आती है। तो कहीं इसमें कोई राजनीतिक ग्रुप अपने चेले चपाटों को लूटपाट और भ्रष्टाचार की शिक्षा देता नजर आता है। कहीं किसी व्यंग्य में इस बात की तस्दीक होती दिखाई देती है कि जीते जी जिसकी लोग बुराई करते हैं। मरने के बाद उसी की तारीफ़ करते हैं कि.."भला आदमी था।"

विषयों की विविधता लिए इस संकलन में ज़्यादातर व्यंग्य बढ़िया लगे मगर कहीं कहीं कुछ व्यंग्य अपने विशेष से भटकते हुए भी दिखाई दिए। कुछ एक व्यंग्यों के सतही होने तथा कुछ के महज़ अख़बारी कॉलम भरने के लिए ऑन डिमांड तुरत फुरत में लिखे जाने जैसा भान हुआ। 

अंत में चलते चलते एक सुझाव कि.. अख़बारी कॉलम तक तो ठीक लेकिन अगर व्यंग्यों का संग्रह निकालना हो तो छपने से पहले थोड़े संयम और तसल्ली के साथ फाइनल एडिटिंग भी कम से कम एक मर्तबा करने की ज़रूर सोचें। इससे उन्हीं व्यंग्यों में जहाँ एक तरफ़ नए..चुटीले पंचेज़ जुड़ेंगे। वहीं दूसरी तरफ़ अवांछित मैटीरियल एवं बिना ज़रूरत शब्दों की छँटनी भी हो सकेगी। साथ ही क्वांटिटी के बजाय कंटैंट पर फोकस करते हुए कोशिश करें कि व्यंग्य की हर पंक्ति में कुछ ना कुछ खास हो। भले ही वो तीखी..चुभने वाली बात हो अथवा हास्य मिश्रित मज़ेदार तंज हो। 

बढ़िया कागज़ एवं बाइंडिंग के साथ छपे इस 152 पृष्ठीय व्यंग्य संग्रह के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 400 रुपए। जो कि एक आम पाठक की जेब के हिसाब से काफ़ी ज़्यादा है। आम पाठकों तक किताब की पहुँच को बढ़ाने के लिए ज़रूरी है कि इसका पेपरबैक संस्करण जल्द से जल्द निकाला जाए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

नक़्क़ाशीदार कैबिनेट- सुधा ओम ढींगरा

अपनी सहज मनोवृति के चलते हर लेखक चाहता है कि उसकी किताब ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक असरदार ढंग से पहुँचे। किताबों की बेइंतिहा भीड़ में उसे पाठकों की ज़्यादा से ज़्यादा तवज्जो..ज़्यादा से ज़्यादा आत्मिकता..ज़्यादा से ज़्यादा स्नेह मिले। अपने मुनाफ़े को देखते हुए ठीक इसी तरह की ख्वाहिश रखते हुए प्रकाशक भी चाहते हैं कि उनकी किताब दूर-दूर तक और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचे। 

इसी वजह कई बार लेखक एवं प्रकाशक अपनी किताबों को कभी समीक्षा के मकसद से तो कभी अन्य मित्रों इत्यादि को उपहार स्वरूप भेंट कर खुश हो लेते हैं कि इससे उनके भावी पाठकों/ग्राहकों की संख्या में अच्छा खासा इज़ाफ़ा होगा। मगर उसके बाद उन किताबों की गति उस पाठक(?) के पास पहुँच कर क्या होती है? इसे बस 'बन्दर के हाथ उस्तरा' वाली कहावत के आधार पर राम भरोसे छोड़ दिया जाता है कि अब उसकी मर्ज़ी चाहे इस तरह पेश आए या फिर उस तरह। 

 ऐसे में जब उसी लेखक या प्रकाशक को आने वाले समय में किसी तरीके से पता चलता है कि उसकी किताबें किसी फलाने फलाने कबाड़ी के पास तौल के भाव धक्के खा रही है। तो आप खुद ही अनुमान लगा सकते हैं कि उस बेचारे लेखक या प्रकाशक पर क्या बीतती होगी? ऐसा नवांगतुक लेखकों के साथ ही नहीं बल्कि प्रतिष्ठित..पुराने एवं जमे हुए स्थापित लेखकों के साथ भी होता है।

इन सब बातों का जिक्र यहाँ. इस समीक्षा में इसलिए कि लगभग तीन महीने पहले मुझे दिल्ली के दरियागंज इलाके में प्रसिद्ध लेखिका सुधा ओम ढींगरा का लगभग मिंट कंडीशन वाला उपन्यास 'नक़्क़ाशीदार कैबिनेट' महज़ 40 रुपए में मिला। जिसे लेखिका या फिर प्रकाशक ने बड़े चाव से कोलकाता की किसी लाइब्रेरी को उपहारस्वरूप भेंट किया था। 

खैर..अब बात करते हैं उपन्यास की तो इसमें कहानी है विकसित अमेरिका में अक्सर आने वाले तूफ़ानों और उनसे होने वाले जान माल के भारी नुकसान की। इसमें बात है उन तूफ़ानों से लड़ने वाले लोगों की हिम्मत भरी जिजीविषा की। इसमें बात है जाति.. धर्म और स्टेटस को भूल..आपसी भाईचारे और सोहाद्र की।

इस उपन्यास के मूल में कहानी है पंजाब के गांवों और नशे की गिरफ्त में कैद होते वहाँ के युवाओं की। इसमें बात है बेरोज़गारी के चलते प्रलोभन वश युवाओं के आतंकी बन..यहाँ वहाँ.. हर जगह क़हर बरपाने की। इसमें बात है फ़र्ज़ी शादियों के ज़रिए भोली भाली लड़कियों को विदेश ले जा..जबरन ड्रग और देहव्यापार में धकेलते माफ़िया की।

इसमें बात है लालच..लंपटता और आपसी द्वेष के बीच जूझती सोनल की। उस सोनल की, जिसका ननिहाल ही लालचवश उसके खानदान का सर्वनाश करने को तुला था। इसमें बात है अवैध कब्ज़ों की नीयत से होते कत्लों और लंपटता भरे व्यभिचार की।

इसमें बात है महलों..हवेलियों से ग़ायब हुए राजसी ख़ज़ाने और उसे हड़पने को ललचाते लोगों की। इसमें बात है अमानत में ख़यानत..लालच..द्वेष और बदले से ओतप्रोत क्रूर भावनाओं की। इसमें बात है भर्ष्टाचार में आकंठ डूबी लापरवाह भारतीय पुलिस के कोताही भरे रवैये और अविवेकपूर्ण फैसलों की। साथ ही इसमें बात है संजीदा..सजग एवं मुस्तैद अमरीकी पुलिस की कर्तव्यपरायणता की। 

इसमें बातें हैं उस पंजाब की, जिसके गांवों का आधा जीवन लड़ाई झगड़े में और आधा जीवन कोर्ट कचहरी में बीत जाता है। इसमें बात है 1970 के दशक के प्रमुख पंजाबी कवि 'पाश' की जिसका असली नाम अवतार सिंह संधू था और जिसकी 23 मार्च 1988 को खालिस्तानी चरमपंथियों ने हत्या कर दी थी।

इस बात के लिए लेखिका की तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने अमेरिका में आने वाले तूफ़ान और टॉरनेडो का जीवंत वर्णन इस प्रकार किया है मानों सब कुछ हमारी आँखों के सामने ही घटित हो रहा हो। साथ ही पाठकों की सुविधा के लिए उन्होंने स्थानीय भाषा के संवादों के साथ ही साथ उनका हिंदी अनुवाद भी दिया है। 

उपन्यास के शीर्षक 'नक्काशी दार कैबिनेट' से पहलेपहल भान हुआ कि ज़रूर कोई रहस्यमयी गुत्थी इस केबिनेट से जुड़ी होगी। जिसे अंत तक आते आते सुलझाया जाएगा। लेकिन इस उपन्यास का इसके शीर्षक 'नक़्क़ाशीदार केबिनेट'  से बस इतना नाता है कि उसमें से पहले एक डायरी और बाद में एक पुराना पत्र मिलता है जो कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता है। 

बतौर पाठक मेरा मानना है उपन्यास की हर छोटी बड़ी घटना का आपस में कोई ना कोई गहरा संबंध..जुड़ाव या अगली घटना से उसका कोई ना कोई लिंक होना बहुत ज़रूरी है। किसी भी घटना को ऐसा नहीं होना चाहिए कि वो..बस ऐसे ही घटने के लिए घट गयी। इस हिसाब से अगर देखें तो भारी तूफ़ान के बाद घर में चोरों के आने वाले दृश्य की उपन्यास में ज़रूरत ही नहीं थी। हालांकि इससे भले बुरे लोगों की मनोवृत्ति को समझने का मौका ज़रूर मिला।

साथ ही मेरे हिसाब से उपन्यास में कहानी वहीं समाप्त हो जानी चाहिए थी, जहाँ पर सोनल का चैप्टर खत्म होता है। बाद में उसी केबिनेट में माँ के नाम बेटी के एक भावनात्मक पत्र का मिलना, मुझे बस उपन्यास की तयशुदा सीमा के पृष्ठ भरने या फिलर जैसा लगा। जिन्हें आसानी से बतौर तोहफ़ा कोई एक छोटी कहानी पाठकों को दे कर आसानी से भरा जा सकता था।

धाराप्रवाह शैली में लिखा गया यह उपन्यास शुरू से ही अपनी पकड़ बना कर चलता है और पाठकों को आसानी से उसके अंत तक पहुँचा पाने में सक्षम है। 
120 पृष्ठीय इस उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है शिवना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

अंधेरे कोने@फेसबुक डॉट कॉम- अरविंद पथिक

जिस तरह एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हम लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए आपस में बातचीत का सहारा लेते हैं। उसी तरह अपनी भावनाओं को व्यक्त करने एवं उनका अधिक से अधिक लोगो  तक संप्रेषण करने के लिए कवि तथा लेखक,गद्य अथवा पद्य, जिस भी शैली में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में सहज महसूस करते हैं, को ही अपनी मूल विधा के रूप में अपनाते हैं। मगर कई बार जब अपनी मूल विधा में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में खुद को असमर्थ पाते हैं भले ही इसकी वजह विषय का व्यापक होना हो अथवा अत्यंत संकुचित होना हो। तब अपनी मूल शैली को बदल, वे गद्य से पद्य या फिर पद्य से गद्य में अपने भावों को स्थानांतरित कर देते हैं।

ऐसे में पद्य छोड़ कर जब कोई कवि गद्य के क्षेत्र में उतरता है तो उम्मीद की जाती है कि उसकी लेखनी में भी उसकी अपनी शैली याने के पद्य की ही किसी ना किसी रूप में बानगी देखने को मिलेगी और उस पर भी अगर वह कवि, वीर रस याने के ओज का कवि होगा तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके गद्य लेखन में भी जोश खरोश और ओज की कोई ना कोई बात अवश्य होगी। मगर हमें आश्चर्यचकित हो तब आवाक रह जाना पड़ता है जब अपनी मूल विधा याने के पद्य का लेशमात्र भी हमें उनके गद्य में दिखाई नहीं देता।

दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ ओज के जाने माने मंचीय कवि अरविंद पथिक जी और उनके लिखे नए उपन्यास "अंधेरे कोने@फेसबुक डॉट कॉम" की। पहले उपन्यास और फिर उसके लेखक के रूप में अरविंद पथिक जी के नाम को देख एक सहज सी जिज्ञासा मन में उठी कि आखिर एक ओज के कवि को उपन्यास जैसी कठिन विधा में उतरने के लिए बाध्य क्यों होना पड़ा? दरअसल उपन्यास का कैनवास ही इतना बड़ा एवं विस्तृत होता है कि  उसमें हमें शब्दों से खेलने के लिए एक विस्तृत एवं व्यापक विषय के साथ साथ उसमें मौजूद ढेरों अन्य आयामों की आवश्यकता होती है। 

जिस तरह पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं ठीक उसी तरह उपन्यास के शुरुआती पन्नों को पढ़ने से ही यह आभास होने लगता है लेखक इस क्षेत्र में भी लंबी रेस का घोड़ा साबित होने वाला है। भावुकता से लबरेज़ इस उपन्यास में कहानी है फेसबुक चैट/मैसेंजर से शुरू हुई एक हिंदू-मुस्लिम प्रेम कहानी की। इसमें कहानी है एक ऐसे प्रौढ़ प्रोफेसर की जो अपनी विद्वता...अपने ज्ञान, अपनी तर्कशीलता, अपनी वाकपटुता, अपने व्याख्यानों एवं अपने वक्तव्यों  की वजह से शहर के बुद्धिजीवी वर्ग में एक खासा अहम स्थान रखने के बावजूद भी अपने से बहुत छोटी एक युवती के प्रेम में गिरफ्त हो जाता है। इसमें कहानी है ज़ोया खान नाम की एक मुस्लिम युवती की जो अपने से 15 साल बड़े एक प्रोफेसर को अपना सब कुछ मान चुकी है और उसके लिए हर बंधन...हर पाबंदी से किसी भी कीमत पर निबटने को आमादा है।

इसमें कहानी है फेसबुक जैसे सोशल मीडिया की वजह से कुकुरमुत्तों के माफिक जगह जगह उपजते एवं ध्वस्त होते प्रेम संबंधों की। इसमें कहानी है उज्जवल भविष्य की चाह में बीसियों लाख की रिश्वत देने को तैयार युवक और  शिक्षा माफिया की। इसमें कहानी है सोशल मीडिया के आकर्षण और उससे मोहभंग की। इसमें कहानी है प्यार, नफरत और फिर उमड़ते  प्यार की। इसमें कहानी है ज़िम्मेदारी का एहसास होने पर अपने वादे से पीछे हट अपने प्यार को नकारने की...अपनी भूल को सुधारने और अपने प्रायश्चित की। इसमें कहानी है अलग अलग जी रहे प्रेमी युगल को जोड़ने वाली लेखक रूपी कड़ी की।

इस उपन्यास को पढ़ते वक्त एक अलग तरह का प्रयोग देखने को मिला कि  पूरी कहानी कृष्ण और मीरा के अमिट प्रेम की शक्ल अख़्तियार करते हुए लगभग ना के बराबर वर्तमान या फिर पुरानी चिट्ठियों, डायरियों अथवा फ्लैशबैक के माध्यम से आगे पीछे चलती हुई कब संपूर्ण कहानी का रूप धर लेती है...आपको पता भी नहीं चलता। 

उपन्यास की भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है और पाठक को अपनी रौ में अपने साथ बहाए ले चलने में पूरी तरह से सक्षम है। अंत तक रोचकता बनी रहती है। हालांकि कुछ जगहों पर एक पाठक के नज़रिए से मुझे कहानी थोड़ी सी खिंची हुई सी भी लगी। उपन्यास में दिए गए प्रोफ़ेसर के व्याख्यानों को थोड़ा छोटा या फिर जड़ से ही समाप्त किया जा सकता था लेकिन उन्हें मेरे ख्याल से उपन्यास के मुख्य किरदार को डवैलप करने के लिहाज़ से रखा गया हो सकता है या फिर उपन्यास की औसत पृष्ठ संख्या को पूरा करने के हिसाब से भी शायद कहानी को बढ़ाया गया हो। 

उपन्यास में लेखक की भूमिका पर नज़र दौड़ाने से पता चलता है कि यह उपन्यास उन्होंने 2019 में लिखा और कहानी के माध्यम से हमें पता चलता है कि उसमें पिछले 15 से 20 वर्षों की कहानी को समाहित किया गया है। यहाँ पर इस हिसाब से देखा जाए तो उपन्यास में तथ्यात्मक खामी नज़र आती है कि...कहानी की शुरुआत सन 2000 के आसपास होनी चाहिए जबकि असलियत में फेसबुक की स्थापना ही सन 2004 में पहली बार हुई थी। इस खामी को अगर छोड़ भी दें तो दूसरी ग़लती यह दिखाई देती है कि फेसबुक ने पहली बार चैट की सुविधा सन 2008 में शुरू की थी और उसके मैसेंजर वाले वर्ज़न को महज़ 8 साल और दस महीने पहले ही पहली बार लांच किया गया था। जब आप आप अपनी कहानी में कहीं किसी चीज़ का प्रमाणिक ढंग से उल्लेख कर रहे होते हैं  तो आपका तथ्यात्मक रूप से भी सही होना बेहद ज़रूरी हो जाता है। इस ख़ामी को दूर करने के लिए उनके बीच की बातचीत को पहले याहू मैसेंजर, फिर गूगल टॉक और बाद में फेसबुक चैट से फेसबुक मैसेंजर की तरफ बढ़ते हुए दिखाया जा सकता है। उम्मीद है कि इस उपन्यास के आने वाले संस्करणों में इस कमी को दूर करने की तरफ लेखक तथा प्रकाशक, दोनों ध्यान देंगे।

160 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है यश पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य ₹199/- मात्र रखा गया है जो कि उपन्यास की क्वालिटी एवं कंटेंट को देखते हुए जायज़ है।आने वाले भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री- वेद प्रकाश शर्मा

लुगदी साहित्य याने के पल्प फिक्शन का अगर आपको एक बार चस्का लग जाए तो फिर इसकी गिरफ्त से निकलना नामुमकिन तो नहीं लेकिन बड़ा मुश्किल है। आजकल की तरह हर जगह आसानी से उपलब्ध मनोरंजन के तमाम साधनों से पहले एक समय ऐसा भी था जब खाना पीना सब भूल, हम लोग लगभग एक ही सिटिंग में, आड़े तिरछे या फिर पोज़ बदल बदल कर बैठते हुए, पूरे के पूरे उपन्यास को एक तरह से चाट जाया करते थे। 

अब समयानुसार अपनी व्यस्तताओं और समय के बदलाव की वजह से बेशक़ कुछ समय के लिए इन्हें बिसरा भले ही दिया गया हो लेकिन अंतस में कहीं ना कहीं इनकी याद अब भी बनी रहती है। और ऐसे ही किसी उपन्यास के अचानक सामने आ जाने पर फिर से ज़िंदा हो..प्रस्फुटित हो जाया करती है। 

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ थ्रिलर उपन्यासों के बेताज बादशाह दिवंगत श्री वेदप्रकाश शर्मा जी के 2014 में आए "सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री" नामक थ्रिलर उपन्यास की। इस उपन्यास में कहानी है उस राजन सरकार दंपत्ति की, जिन्हें पुलिस द्वारा गढ़ी गयी एक पुख्ता कहानी सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स के आधार पर अदालत, उन्हीं के इकलौते बेटे और नौकरानी के कत्ल में, मुजरिम करार दे चुकी है। जबकि वे दोनों खुद को निर्दोष बता रहे हैं। 

तमाम सबूतों के उनके ख़िलाफ़ होने के बावजूद जब वे खुद को बेगुनाह कहते हैं। तो उनके बार बार आग्रह एवं अपने पिता की सिफारिश के बाद प्राइवेट जासूस विजय इस मामले की रीइंवेस्टिगेशन के लिए राज़ी हो जाता है। विजय-विकास सीरीज़ से अनजान पाठकों के लिए यहाँ यह बताना जरूरी है कि प्राइवेट जासूस विजय, दरअसल भारतीय सुरक्षा एजेंसी का चीफ़ है।

अपने भांजे, विकास और धनुषटंकार के साथ मिल कर जब विजय तफ़्तीश में जुटता है तो मामले की तहें खुलने के बजाय तब और अधिक उलझती जाती हैं जब एक के बाद एक कत्ल होने शुरू हो जाते हैं। रहस्य..रोमांच और उत्सुकता से लबरेज़ इस उपन्यास में कहीं आप गहरी साज़िश से तो कहीं धोखे से रूबरू होते हैं। कहीं इसमें कोई साजिशन हुए जानलेवा हमले से त्रस्त नज़र आता है तो कहीं कोई अमानत में ख़यानत का मंसूबा अपने मन में पाले बैठा है।

रौंगटे खड़े कर देने वाला उपन्यास शुरू से आखिर तक अपनी पकड़ बनाए रखता है और क्लाइमेक्स तक पहुँचते पहुँचते आप आश्चर्यमिश्रित चेहरे के साथ भौंचके रह जाते हैं। अगर आप थ्रिलर उपन्यासों के शौकीन हैं तो यह उपन्यास आपको कतई निराश नहीं करेगा। एक के बाद एक ट्विस्ट्स एण्ड टर्न्स से भरे इस मज़ेदार उपन्यास में विजय-विकास और धनुषटंकार की तिकड़ी क्या क्या गुल खिलाती है, यह सब तो आपको इस मज़ेदार उपन्यास को पढ़ कर ही पता चलेगा।

आमतौर पर थ्रिलर फिल्में या उपन्यास अपनी तेज़ रफ़्तार में आपको सोचने..समझने का मौका दिए बिना अपने साथ..अपनी रौ में बहाए लिए चलते हैं। मगर सुखद आश्चर्य के रूप में यह उपन्यास अपने लॉजिक..अपने तर्कों के साथ आपको दिमाग़ी कसरत करने एवं ज़हनी घोड़े दौड़ाने के अनेकों मौके देता है। 

पहली बार विजय-विकास सीरीज़ के उपन्यास को पढ़ने वाले पाठकों को शुरुआती पृष्ठों में मुख्य किरदार विजय का मज़ाकिया लहज़ा थोड़ी उकताहट पैदा कर सकता है लेकिन हर बढ़ते पेज के साथ थोड़ी ही देर में इस शैली के साथ आसानी से अपना सामंजस्य बिठा..इसे एन्जॉय किया जा सकता है। मेरे हिसाब से शीर्षक को सार्थक करते इस उपन्यास को यकीनन सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री कहलाने का पूरा पूरा हक है। 

धाराप्रवाह शैली के इस तेज़ रफ़्तार उपन्यास की बाइंडिंग कुछ जगहों पर उखड़ती हुई दिखी। प्रकाशक को चाहिए कि इस तरह की कमी को यथाशीघ्र दूर करने का प्रयास करे। संग्रहणीय क्वालिटी के 350 पृष्ठीय उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजा पॉकेट बुक्स ने और इस पैसा वसूल उपन्यास का मूल्य रखा गया है 150/- रूपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

अधूरा..अव्यक्त किंतु शाश्वत- पराग डिमरी


कई बार जब हमें किसी नए लेखक का लेखन पढ़ने को मिलता है तो उस लेखक की शाब्दिक एवं विषय के चुनाव को ले कर समझ के साथ साथ वाक्य सरंचना के प्रति उसकी काबिलियत पर भी बरबस ध्यान चला जाता है। ऐसे में अगर किसी लेखक का लेखन आपको उसका लिखा पढ़ने के लिए बार बार उकसाए अथवा किताब को जल्द से जल्द पढ़ कर खत्म करने के लिए उत्साहित करे तो समझिए उस लेखक का लेखन सफ़ल है। 

दोस्तों..आज मैं ऐसे ही एक लेखक पराग डिमरी के कहानी संकलन "अधूरा..अव्यक्त किंतु शाश्वत" की बात करने जा रहा हूँ। इसी संकलन की एक कहानी में सुदूर ग्रामीण इलाके में बतौर शिक्षक नियुक्त एक युवक का आभासी दुनिया के ज़रिए अपने से दो साल बड़ी विवाहित युवती से इस हद तक लगाव हो जाता है कि वह उसके साथ जीने मरने तक की सोचने लगता है। अब देखना ये है कि मन ही मन उसे चाहने वाली वह युवती क्या अपने दुखी दांपत्य जीवन से बाहर निकल उसका साथ निभा पाएगी अथवा नहीं? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि जहाँ अपने सगे काम नहीं आते..वहाँ पराए..अपनों से भी बढ़ कर साथ निभा जाते हैं। जिसमें जहाँ एक तरफ़ रिटायर हो चुके बुज़ुर्ग की अंत्येष्टि में शामिल ना हो पाने की उसकी अपनी बेटी और बेटे की अपनी अपनी मजबूरियाँ हैं। वहीं एक चाय वाला उनका कुछ ना होते हुए भी उनके सगे बेटे की तरह उनके सब संस्कार पूरे करता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी संकलन की एक अन्य रचना में बेहद गर्मी और उमस भरे माहौल में पैदल 15 किलोमीटर दूर नदी में कूद कर आत्महत्या करने जा रहे युवक की एक अन्य बहुत ही अजब गज़ब तरीके से मदद करता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ निजी कंपनी में बतौर सेक्रेटरी नियुक्त हुई एक ऐसी मध्यमवर्गीय खूबसूरत युवती, सौम्या की बात करती है जो पैसे..पद..ओहदे..रुतबे और ऐशोआराम की चाह में अपने रूपजाल में अपने बॉस मयंक को फँसा बहुत जल्द ही कम्पनी में डायरेक्टर की कुर्सी पर काबिज हो जाती है। बिना सोचे समझे अनाप शनाप पैसा उड़ाने और मयंक के नौसिखिए होने के कारण बेशुमार कर्ज़ों के साथ अब कम्पनी दिवालिया होने की कगार पर तैयार खड़ी है। इस बुरी हालत के लिए एक दूसरे को ज़िम्मेदार मानने वाले दोनों अब एक दूसरे से छुटकारा पाना चाह तो रहे हैं मगर...

तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में भीड़ भरी मेट्रो में सफ़र के दौरान अचानक हुई मुलाक़ात उन दोनों की औपचारिक बातचीत से शुरू हो कर पहले दोस्ती और फिर लगाव की सीढ़ी चढ़ते हुए आपसी नज़दीकी तक जा पहुँचती है। दोनों के परिवार वाले भी दोनों को एक साथ देख कर खुश हैं मगर उन दोनों की किस्मत में तो ऊपरवाला कुछ और ही लिख कर बैठा है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में पंद्रह साल  पहले रूममेट्स रह चुकी दो सहेलियों का जब फिर से एक रेस्टोरेंट में मिलने का प्लान बनता है। तो उनमें से एक अपराधबोध से ग्रसित हो स्वीकार करती है कि उसकी चालबाज़ियों की वजह से ही उसके बॉयफ्रेंड ने उसे छोड़ उससे शादी कर ली थी। ऐसे में अब देखना ये है कि अब इस स्वीकारोक्ति के बाद भी क्या उनके रिश्ते की गरमाहट बची रह पाएगी अथवा नफ़रत की आग में सब कुछ स्वाहा हो जाएगा? इसी संकलन की एक अन्य महत्त्वपूर्ण रचना में लेखक अपनी कल्पना और  सच्चाई के मिश्रण से बॉलीवुड का वह समय फिर से रचता दिखाई देता है जिसमें प्रसिद्ध संगीत निर्देशक ओ. पी. नैय्यर और पाश्र्व गायिका आशा भोंसले में अच्छी खासी अनबन चल रही थी।

आमतौर पर देखा गया है कि आजकल बहुत से लेखक वाक्य सरंचना करते हुए स्त्रीलिंग एवं पुल्लिंग में तथा एकवचन और बहुवचन में भेद नहीं कर पाते हैं। ऐसी ही कमियाँ इस संकलन में भी दिखाई दीं। समाज में चल रहे विभिन्न मुद्दों को ले कर रची गयी इस संकलन की कहानियों में वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर काफ़ी कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 53 से शुरू अंतिम वाक्य में, जो कि अगले पेज पर भी गया, लिखा दिखाई दिया कि..

'उसका चौड़ा सपाट' शक्तिशाली बाहें, बालों भरा बलिष्ठ सीना, उसे बहुत ललचाती भड़काती थी।'

यह वाक्य बिल्कुल भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'शक्तिशाली बाहों वाला उसका चौड़ा सपाट सीना उसे बहुत ललचाता एवं भड़काता था।'

यहाँ किताब के मूल वाक्य में एक और अंतर्विरोध नज़र आया कि एक तरफ़ कहा जा रहा है कि..'चौड़ा सपाट सीना' और दूसरी तरफ़ उसे बालों से भरा याने के बाल रूपी अवरोधों से भरा बताया जा रहा है। 

इसके बाद पेज नंबर 77 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'ऐसे कमेंट भी आने लगे "परफेक्ट कपल",  "एक जिस्म दो जान"

असली कहावत "एक जिस्म दो जान" नहीं है और ना ही बिना किसी कुदरती ग़लती के ऐसा हो पाना संभव है। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

"दो जिस्म एक जान"

इसी पेज की अंतिम पंक्ति जो कि अगले पेज पर भी गयी में भी यही "एक जिस्म दो जान" वाली ग़लती फिर से दोहराई जाती दिखाई दी।

इसके अतिरिक्त पेज नंबर 118 और पेज नंबर 119 में प्रसिद्ध संगीतकार ओपी नय्यर एवं आशा भोसले से जुड़े एक संस्मरण में लेखक बताते हैं कि निम्नलिखित प्रसिद्ध इस जोड़ी का आखिरी गीत था।

"चैन से हमको कभी,
आपने जीने ना दिया
ज़हर भी चाहा अगर, पीना 
तो पीने ना दिया"

इसके बाद दोनों में अनबन हो गयी और इस गीत को प्रसिद्ध फिल्मफेयर पुरस्कार मिलने के बावजूद भी इसे आशा भोंसले ने ग्रहण नहीं किया तो मंच पर जा कर ओ.पी नैय्यर ने इस पुरस्कार को ग्रहण किया और वहाँ से घर की तरफ़ लौटते हुए कार की खिड़की से बाहर सुनसान सड़क पर उछाल कर फेंक दिया। एक अन्य धारणा यह भी है कि उन्होंने इसे सड़क पर नहीं बल्कि समुद्र की लहरों के हवाले कर दिया था। 

खैर अब बात असली मुद्दे की तो इसके बाद लेखक लिखते हैं कि..

'वैसे भी नदी की नियति समुन्दर में जा कर मिलने की ही तो होती है।' 

अब सवाल यह उठता है कि ओ.पी नैय्यर ने या तो कार से अपने घर जाते हुए पुरस्कार को सड़क पर फेंका अथवा उसे समुन्दर में फैंका लेकिन उपरोक्त वाक्य में लेखक बेध्यानी में नदी का जिक्र अपने वाक्य में कर गए हैं। 

उम्मीद है कि इस तरह की त्रुटियों को लेखक अपनी अगली किताब एवं इसी किताब के आगमो संस्करण में दूर करने का प्रयास करेंगे। 

यूं तो यह कहानी संकलन मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूंगा कि 127 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स में और इसका मूल्य रखा गया है 140/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

कारवां ग़ुलाम रूहों का- अनमोल दुबे

आज के टेंशन या अवसाद से भरे समय में भी पुरानी बातों को याद कर चेहरा खिल उठता है। अगर किसी फ़िल्म या किताब में हम आज भी कॉलेज की धमाचौकड़ी..ऊधम मचाते यारी-दोस्ती के दृश्यों को देखते हैं। या इसी पढ़ने या देखने की प्रक्रिया के दौरान हम, मासूमियत भरे झिझक..सकुचाहट से लैस उन  रोमानी पलों से गुज़रते हैं। जिनसे कभी हम खुद भी गुज़र चुके हैं। तो नॉस्टेल्जिया की राह पर चलते हुए बरबस ही हमारे चेहरे पर एक मुस्कुराहट तो आज भी तैर ही जाती है।

आज प्रेम भरी बातें इसलिए दोस्तों..कि आज मैं महज़ तीन कहानियों के एक ऐसे संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जो आपको फिर से उन्हीं सुहाने पलों में ले जाने के लिए अपनी तरफ़ से पूरी तैयारी किए बैठे हैं। इस कहानी संग्रह का नाम 'ग़ुलाम रूहों का कारवां ' है और इसे लिखा है अनमोल दुबे ने।

सीधी..सरल शैली में लिखी गयी इन कहानियों में कहीं कैरियर की तलाश में अपने प्रेम को बिसराता युवक है तो कहीं इसमें लापरवाही भरे फैसले की कीमत किसी को अपनी जान दे कर चुकानी पड़ती है। कहीं कोई अपने एकतरफ़ा प्यार में ही मग्न हो..डायरी के साथ अपनी सारे दुःख.. सारी खुशियाँ बाँट रहा है। कहीं इस संकलन में कोई किसी के इंतज़ार में अपना जीवन होम कर देता है। तो कोई अनजाने में ही बदनाम हो उठता है।

इस संकलन की कहानियों में कहीं विरह..वेदना और इंतज़ार में तड़पती युवती दिखाई देती है तो कहीं इसमें कैरियर की चाह में विदेश जाने को आतुर युवा प्रेम..लगाव..मोह..सबको भूल अपनी ही धुन में मग्न दिखाई देता है। कहीं इसमें बनारस के मनोरम घाटों के संक्षिप्त विवरण के दौरान यह भी पता चलता है कि बनारस एकमात्र ऐसी जगह है जहाँ गंगा दक्षिण से उत्तर की तरफ़ बहती है। इसमें कहीं गंगा की विश्वप्रसिद्ध आरती तो कहीं वहाँ के दशाश्वमेध घाट की बात है। कहीं इसमें बनारस में 84 घाटों के होने का पता चलता है। तो कहीं इसमें काशी विश्वनाथ मन्दिर और उसकी विश्वप्रसिद्ध आरती की बात है। कहीं इसमें 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक के वहाँ होने का पता चलता है। तो कहीं बेवजह परेशान रूहों के लिए प्रसिद्ध उस अस्सी घाट का जिक्र है जहाँ बैठ कर कभी गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की थी। 
कहीं इसमें मोक्ष की प्राप्ति हेतु चौबीसों घंटे जलती चिताओं के लिए प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट का तो कहीं इसमें ललिता घाट के नेपाली मंदिर का जिक्र आता है। 

कहीं इसमें ओरछा के उस राम मंदिर के बारे में जानकारी मिलती है जहाँ राम को भगवान नहीं बल्कि एक राजा के रूप में पूजा जाता है। तो कहीं हरदौल के मंदिर की मान्यता के बारे में पता चलता है कि उस इलाके में होने वाली हर शादी का कार्ड वहाँ जा कर ज़रूर दिया जाता है कि हरदौल, शादी ब्याह में आने वाली तमाम रुकावटों..दिक्कतों..परेशानियों को दूर करते हुए तमाम व्यवस्था करते हैं। 

शुरुआती कुछ पन्नों में कहानी के सपाट या सतही होने सा भान हुआ मगर बाद में कहानियों से साथ पाठक थोड़ा जुड़ाव महसूस करने लगता है। अंत का पहले से भान करने वाली इस संकलन की कहानियाँ शुरुआती लेखन के हिसाब तो तो ठीक हैं लेकिन अभी और मंजाई याने के फिनिशिंग माँगती हैं। बतौर पाठक और एक लेखक के मेरा मानना है कि हम जितना अधिक पढ़ते हैं..उतना ही अधिक परिपक्व एवं समृद्ध हमारा लेखन होता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि निकट भविष्य में लेखक की कलम से बेहतरीन रचनाएँ और निकलेंगी। 

वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त इसमें संवादों के शुरू और अंत में इनवर्टेड कॉमा ("...") की कमी दिखी। पूर्णविराम,अल्पविराम,प्रश्नचिन्ह इत्यादि से ख़ासा परहेज़ नज़र आया। फ़ॉन्ट्स के बीच गैप और पेज सैटिंग में साइड मार्जिन ज़्यादा होने से लगा कि जबरन किताब की मोटाई को बढ़ाया जा रहा है। 189 पृष्ठों की इस किताब को आसानी से 160 पृष्ठों में समेटा जा सकता था। 

यूं तो यह किताब मुझे उपहारस्वरूप मिली मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है राजमंगल प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 201/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

कोस कोस शब्दकोश- राकेश कायस्थ

जब भी हम समाज में कुछ अच्छा या बुरा घटते हुए देखते हैं तो उस पर..उस कार्य के हिसाब से हम अपनी अच्छी-बुरी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं या फिर करना चाहते हैं। अब अगर कभी किसी के अच्छे काम की सराहना की जाए तो जिसकी वो सराहना की जा रही है, वह व्यक्ति खुश हो जाता है। मगर इससे ठीक उलट अगर किसी के ग़लत काम की बुराई करनी हो तो या तो हम पीठ पीछे उसकी बुराई कर उससे झगड़ा मोल ले लेंगे या फिर ऐसा कुछ भी करने से गुरेज़ करेंगे कि..खामख्वाह पंगा कौन मोल ले? लेकिन जब आपका मंतव्य किसी की पीठ पीछे नहीं बल्कि उसके सामने ही उसकी बुराई करने का हो तो व्यंग्यात्मक शैली का इस्तेमाल किया जाना ही सबसे उत्तम और श्रेष्ठ रहता है। 

व्यंग्यात्मक तरीके से अपनी बात कहने से सामने वाला भी समझ जाता है कि उसे ही परोक्ष रूप से निशाना बनाया जा रहा है मगर चूंकि वह बात उसे सीधे सीधे ना कह कर हँसी मज़ाक में घुमा फिरा कर कही जा रही है तो प्रत्यक्ष में वह व्यक्ति चाहते हुए भी अपना क्षोभ नहीं जता पाता। दोस्तों..आज मैं व्यंग्य से जुड़ी बातें इसलिए कर रहा हूँ कि आज मैं राकेश कायस्त के व्यंग्य संग्रह 'कोस-कोस शब्दकोश' के बारे में बात करने जा रहा हूँ। 

अपने इस व्यंग्य संकलन के ज़रिए कहीं वे सरकारी दफ़्तरों में व्याप्त लालफीताशाही को निशाना बनाते नज़र आते हैं तो कहीं देश के अवसरवादी राजनीतिज्ञों पर अपनी कलम से प्रहार करते दिखाई देते हैं। कहीं वेन अन्ना आंदोलन से ले कर कागज़ी लोकपाल बिल तक की धज्जियाँ उड़ाते नज़र आते हैं। कहीं वे आम आदमी और जन समाज से जुड़े उल्लेखनीय मुद्दों पर बात करते नज़र आते हैं। उनके लिखे व्यंग्यों को पढ़ कर आसानी से जाना जा सकता है कि वे अपने आसपास के माहौल एवं घट रही राजनैतिक गतिविधियों इत्यादि पर ग़हरी एवं सजग नज़र रखने के साथ साथ हास्य में भी ख़ासा दख़ल रखते हैं। 

इसी संकलन में जहाँ एक तरफ़ सरकारी एवं प्राइवेट कंपनियों के बड़े अफ़सरों पर याने के बॉस पर गहरे कटाक्ष होते नज़र आते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य व्यंग्य रचना में ठोस कार्यों के बजाय महज़ मीटिंगों में समय..पैसा व्यर्थ करने की बन चुकी संस्कृति या फिर आदतों पर गहरा तंज कसा जाता दिखाई देता है। इसी संकलन में जहाँ एक तरफ़ मूर्खता का महिमामंडन..यशोगान होता दिखाई देता है तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य व्यंग्य रचना में किसी भी काम को ना करने या उसके करने को ले कर टालमटोल करने के लिए ही 'विकल्प खुले हैं' नामक वाक्य की रचना होती दिखाई देती है।

इसी संकलन में कहीं हमारी संसदीय प्रणाली एवं उसकी बेहद लचर कार्यशैली पर सवाल उठता दिखाई देता है तो कहीं सांसदों के चुने जाने की प्रक्रिया से ले कर उनके उज्जड बर्ताव पर गहरा कटाक्ष होता नज़र आता है। कहीं संसद की कैंटीन के उम्दा खाने की बेहद कम कीमतों को ले कर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं अन्ना आंदोलन के वक्त उनकी लोकपाल की मांग के धराशायी होने को ले कर होता हुआ तंज अन्ना हज़ारे..कांग्रेस..भाजपा समेत केजरीवाल तक को अपने चपेट में लेता दिखाई देता है। 

इसी संकलन में कहीं अंतरात्मा की आवाज़ के नाम पर सभी ग़लत कामों को जायज़..पाक..साफ़ बताया जाता नज़र आता है तो कहीं अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए दंगे करवाने वालों और उनमें शामिल होने वालों के मंतव्यों को ले कर उन पर गहरा..तीखा तंज कसा जाता दिखाई देता है। इसी किताब में कहीं नौकरी और उसकी प्रकृति को ले कर बहुत ही मज़ेदार व्यंग्य पढ़ने को मिलता है तो कहीं हमारे देश में हिंदी को हो रही दुर्दशा को ले कर गहरा कटाक्ष किया जाता नज़र आता है। कहीं आम के बहाने आम आदमी की बेचारगी से होते हुए केजरीवाल समेत राज और उद्धव ठाकरे पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं एक अन्य व्यंग्य रचना में कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में हुए घपलों को ले कर गहरा ..मारक तंज कसा जाता दिखाई देता है।

इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में उधार लेने वालों और उधार देने वालों की दशा..मनोदशा के बारे में विचार किया जाता दिखाई देता है तो किसी अन्य व्यंग्य में जगह जगह खुले शराब के वैध अवैध ठेकों के औचित्य पर चिंतन होता दिखाई देता है। इसी किताब के किसी अन्य व्यंग्य में सोशल मीडिया के तगड़े औज़ार याने के फेसबुक के लाइक्स/फ़ॉलोअर्स के पीछे पागल हो रही दुनिया पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में जहाँ एक तरफ़ भव्य राम मंदिर निर्माण की वैतरणी  पर भाजपा की नैय्या पर लगती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी तरफ़ सुखद बुढ़ापे की चाह में तेल पिला पिला कर मज़बूत की गयी लाठी अब अपने संभालने वाले को ही आँखें दिखाती नज़र आती है। इसी संकलन की एक अन्य रचना जहाँ एक तरफ़ हमारे देश के निरपेक्षता के सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ा..गुटनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता  को अपने लपेटे में लेती नज़र आती है तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना में गठबंधन सरकार की गति..दुर्गति का मज़ेदार विवरण पढ़ने को मिलता है। 

इसी संकलन की एक अन्य रचना जहाँ एक तरफ़ बेटी और बेटे में फ़र्क ना करने की सीख देने के साथ साथ बेटे की चाह में भ्रूण जाँच और गर्भपात के ज़रिए होते बेटियों के कत्ल जैसी कुत्सित सोच एवं मानसिकता पर गहरा तंज कसती नज़र आती है। तो वहीं दूसरी एक अन्य व्यंग्य साझा न्यूनतम कार्यक्रम के तहत मिल बाँट कर खाने की हिमाकत भरी हिमायत करता नज़र आता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य व्यंग्य दाग़ी नेताओं को मंत्रिमंडल में लिए जाने के चलन पर कटाक्ष करता दिखाई देता है।

इसी संकलन के एक अन्य व्यंग्य में जहाँ एक तरफ़ भारतीय राजनीतिज्ञों की हास्यास्पद बातों से ले कर अलग अलग मौकों के हिसाब से बदलती उनकी हँसी की किस्म की बात की जाती दिखाई देती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य मज़ेदार व्यंग्य में मानहानि का फंडा परत दर परत उधड़ता..खुलता दिखाई देता है। इसी संकलन में कहीं आसाराम बापू और भगवान के बीच मज़ेदार वार्तालाप होता नज़र आता है। तो कहीं जुर्म करने के बाद पकड़े जाने पर प्रायश्चित करने की बात कह सज़ा से बचने की बात होती नज़र आती है। 

इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में चुक चुके नेताओं का मोल रद्दी के भाव आंका जाता नज़र आता है तो किसी अन्य मज़ेदार व्यंग्य में 'किस ऑफ लव' जैसे सार्वजनिक चुंबन कार्यक्रमों के बहाने से रिचर्ड गेर- शिल्पा शेट्टी और राखी सावंत- मिक्का(मीका) के विवादों सहित कई अन्य चुंबन विवादों की बात की जाती नज़र आती है। इसी संकलन के एक अन्य रोचक व्यंग्य में लेखक पुस्तक विमोचन की पूरी प्रक्रिया की बखिया उधेड़ता नज़र आता है। तो एक अन्य व्यंग्य में लेखक परोपकार के अजब गज़ब फंडों से अपने पाठकों को रूबरू करवाता दिखाई देता है।

 इसी संकलन का एक अन्य व्यंग्य जहाँ एक तरफ़ कांग्रेस और भाजपा के चुनावी वादों, फ़ूड बिल और शौचालयों, की बात करता दिखाई देता है कि आम जनता के लिए पहले पेट भरना ज़रूरी या फिर पेट खाली करना? तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य व्यंग्य में अच्छे दिनों के चाहत में अपना वोट गंवा बैठी जनता अब प्रत्यक्षतः देख रही है कि सचमुच में अच्छे दिन तो उन्हीं के आए हैं जिन्होंने उन्हें अच्छे दिनों का झुनझुना थमाया था।

इसी संकलन के एक अन्य व्यंग्य में जहाँ एक तरफ़ सिनेमाघरों में राष्ट्रगान कंपलसरी करने के आदेश पर लेखक उस वक्त दुविधा में फँसता दिखाई देता है जब सिनेमाघर में राष्ट्रगान से पहले बोल्ड फ़िल्म का ट्रेलर और राष्ट्रगान के एकदम बाद देसी गालियों की बरसात करती एक रियलिस्टिक फ़िल्म शुरू होती है। 

आमतौर पर बहुत से व्यंग्यकारों को मैंने एक ही व्यंग्य में विषय से अलग हट कर भटकते हुए देखा है मगर राकेश कायस्थ जी इस मामले में अपवाद सिद्ध हुए हैं। वे अपने प्रत्येक व्यंग्य में शुरू से ही अपने विषय को पकड़ कर चले हैं। इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। 

मज़ेदार शैली में लिखे गए इस उम्दा व्यंग्य संकलन में कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ ग़लतियाँ दिखी। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब के आने वाले संस्करणों में इस तरह की कमियों से बचा जाएगा। 


** पेज नंबर 25 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'जनता दुखी होती है कि सांसद छप्पन भोग उड़ाते हैं और उन्हें हमें दो जून के लाले हैं।'

इस वाक्य में 'और उन्हें हमें दो जून के लाले हैं की जगह 'और हमें दो जून के लाले हैं' आएगा।

पेज नंबर 30 पर लिखा दिखाई दिया कि...

'लेकिन अंतरात्मा ना तो मेल करती है, ट्वीट ना एसएमएस।'

यहाँ 'ट्वीट ना एसएमएस' की जगह 'ना ट्वीट ना एसएमएस' आएगा। 

पेज नंबर 39 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'दरोगा जी काम डंडे खिलाने का रहा होगा।'

यहाँ 'दरोगा जी काम' की जगह 'दरोगा जी का काम' आएगा। 

पेज नम्बर 84 पर लिखा दिखाई दिया कि...

'आखिर कौन है, जो आपको डरा है?'

इस वाक्य में 'जो आपको डरा है' की जगह 'जो आपको डरा रहा है' आएगा। 

पेज नंबर 88 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'शिशु के पोपले में मुँह एक भी दांत नहीं है।'

यहाँ 'पोपले में मुँह' की जगह 'पोपले मुँह में' आएगा। 

पेज नम्बर 94 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'हे नारायण! तुम कहा हो?'

यहाँ 'तुम कहा हो' की जगह 'तुम कहाँ हो' आएगा। 


पेज नंबर 102 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'प्रधानमंत्री की कुर्सी गई तो देवेगौड़ा कर्नाटक की लोकल पॉलिटिक्स में सक्रिय गए।'

यहाँ 'पॉलिटिक्स में सक्रिय गए' की जगह 'पॉलिटिक्स में सक्रिय हो गए' आएगा। 

पेज नंबर 105 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'यह बेहद दृश्य उत्तेजक और अश्लील हैं' 

यहाँ 'यह बेहद दृश्य उत्तेजक और अश्लील हैं' की जगह 'यह दृश्य बेहद उत्तेजक और अश्लील है' आएगा। 

पेज नंबर 108 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'परंपरागत विवाह समारोह में दिखाई देने वाले लड़की की बाप की तरह जिसे पंडित से लेकर हलवाई तक सब का इंतजाम करना पड़ता है।'

इस वाक्य में 'लड़की की बाप की तरह' की जगह 'लड़की के बाप की तरह' आएगा। 


पेज नंबर 137 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'कई लोग ऐसे हैं, जो कचरा उठाने की तैयारी कर रही रहे होते हैं कि मोबाइल की बैटरी टें बोल जाती है।' 

यहाँ 'कचरा उठाने की तैयारी कर रही रहे होते हैं' की जगह 'कचरा उठाने की तैयारी कर रहे होते हैं' आएगा। 


पेज नंबर 138 पर लिखा दिखाई दिया कि...

'2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी यह कह सकता है कि'

यहाँ 'बीजेपी यह कह सकता है' की जगह 'बीजेपी यह कह सकती है' आएगा।

पेज नंबर 144 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'दिल का रास्ता पेट से हो कर जाता है, मुहावरा इंसानों ने हमारी की खातिर ही इजाद किया है।'

यहाँ 'मुहावरा इंसानों ने हमारी की खातिर ही इजाद किया है' की जगह 'मुहावरा इंसानों ने हमारी ही खातिर इज़ाद किया है' आएगा। 

*जाये- जाए
*फीलगुड़- फीलगुड
*बाटोगे- बाँटोगे
*कूड़- कूड़ा


144 पृष्ठीय इस मज़ेदार व्यंग्य संकलन को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 100 रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही कम है। किंडल अनलिमिटेड के सब्सक्राइबर्स के लिए यह फ्री में उपलब्ध है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

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