द= देह, दरद और दिल! - विभा रानी

कई बार किसी किताब के कठिन या अलग़ से शीर्षक को देख कर अथवा लेखक की बड़े नाम वाली नामीगिरामी शख़्सियत को देख कर स्वतः ही मन में एक धारणा बनने लगती है कि..इस किताब को पढ़ना वाकयी में एक कठिन काम होगा अथवा किताब की बातें बड़ी गूढ़..ज्ञान से भरी एवं रहस्यमयी टाईप की होंगी। अतः इसे आराम से पहली फ़ुरसत में तसल्लीबख्श ढंग से पढ़ा जाना चाहिए। मगर तब घोर आश्चर्य के साथ थोड़ा अफ़सोस सा भी होने लगता है जब हम उस किताब को पढ़ने बैठते हैं कि.. 'उफ्फ़ इतने अच्छे कंटेंट से अब तक हम खामख्वाह ही वंचित रहे।'

दोस्तों आज मैं प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं लेखिका विभा रानी जी के कहानी संकलन 'द= देह, दरद और दिल!' की। बहुमुखी प्रतिभा की धनी विभा रानी जी हिन्दी एवं मैथिली की लेखिका, ब्लॉगर एवं अनुवादक होने के साथ साथ एक प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं फ़िल्म कलाकार भी हैं। फोक प्रैज़ेंटर होने के साथ साथ वे एक कॉर्पोरेट ट्रेनर, मोटिवेशनल स्पीकर एवं 'अवितोको रूम थिएटर' की प्रणेता भी हैं। विभिन्न पुरस्कारों की स्वामिनी, विभा रानी जी कला क्षेत्र से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों में ख़ासी सक्रिय हैं एवं इनकी अब तक 22 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। 


इसी संकलन की रामायण काल को आधार बना कर लिखी गयी एक काल्पनिक कहानी के माध्यम से अपनी बेटे को खो चुकी उस हिरणी की व्यथा व्यक्त की गई है जिसके अबोध बच्चे का राम जन्म के जश्न के दौरान होने वाली शाही दावत में परोसे जाने के लिए शिकार कर लिया गया। 
 
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में लोकल ट्रेन के सफ़र के दौरान नबीला को उसके धर्म की वजह से छीटाकशी और ताने झेलने पड़ते हैं। ऐसे में फ़ौरी सहानुभूति के तहत उसकी तरफ़ से उसके हक़ में आवाज़ उठाने वाली आवाज़ें भी क्या सही मायनों में उसकी तरफ़दार थीं? तो वहीं एक अन्य कहानी सरकारी रेडियो स्टेशन में नवनियुक्त हुई रोहिणी के माध्यम से हमें आगाह करती हुई नज़र आती है कि रेडियो स्टेशन जैसे बड़े..प्रतिष्ठित संस्थान भी यौन शोषण के मामलों में अपवाद नहीं हैं। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ अस्पतालों में डॉक्टरों एवं स्टॉफ की लापरवाही को इंगित करते हुए, मरीज़ के डॉक्टर के नाम पत्र के माध्यम से, मौत की कगार पर खड़ी उस युवती की व्यथा को व्यक्त करती है जो प्रेग्नेंसी के दौरान संक्रमित खून के चढ़ाए जाने से स्वयं भी एच. आई.वी पॉज़िटिव हो चुकी है। तो वहीं एक अन्य कहानी एक तरफ़ घरों में काम कर अपना गुज़ारा करने वाली उस जवान सुरजी की बात करती है जिसका, कमाने के लिए शहर गया, पति वापिस आने का नाम नहीं ले रहा। तो वहीं दूसरी तरफ़ यही कहानी छोटी सोच के कुंठित प्रवृति वाले उस सुरजबाबू की बात करती है, जो अपनी पत्नी को इसलिए पसन्द नहीं करता कि वो सुन्दर एवं पढ़ी लिखी है। सुरजबाबू और सुरजी के बीच अवैध संबंध संबंध पनप तो उठते हैं मगर एक दिन सुरजी के इनकार करने पर उसे भी सुरजबाबू के अहं और कुंठा का खामियाज़ा पिटाई..प्रताड़ना एवं ज़िल्लत के रूप में झेलना पड़ता है। थोड़ी सहानुभूति की चाह में वह मालकिन के पास जाती तो है मगर मालकिन भी तो अपने पति के रंग में रंग कुछ कुछ उसके जैसी ही हो चुकी है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ उन अभागी स्त्रियों की व्यथा कहती है जिनके पतियों ने उनसे अलग हो कर अपनी नयी दुनिया बसा ली और अब, पहली पत्नी से प्राप्त हुए अपने बच्चों को भूल नयी पत्नी के पेट में ही मर चुके बच्चे का मातम ये कह कर मना रहे हैं कि.. वो उनका पहला बच्चा था। तो वही दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी समाज के अलग़ अलग़ तबके से आने वाली जयलक्ष्मी और नागम्मा के माध्यम से प्रदेश की राजनीति के घरों की देहरी तक खिसक आने की बात कहती है कि किस तरह घर का मुखिया चाहता है कि उसकी मर्जी से..उसकी पसंद के व्यक्ति को ही वोट दिया जाए। मगर कहानी के अंत में नागम्मा और जयलक्ष्मी का अपनी अपनी समझ से ठठा कर हँसना तो कुछ और ही कहानी कहता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी चित्रकार प्रवृति के उन राधारमण बाबू की बात करती है जो पारिवारिक दबाव के चलते अपनी मर्ज़ी की लड़की से ब्याह नहीं कर पाए। अवसाद..बिछोह एवं पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते छूट चुका उनका कलाप्रेमी मन उस वक्त फ़िर सिर उठाने लगता है जब उनके बच्चे, बतौर पेंटर, अपना बड़ा नाम बना चुके होते हैं। क्या अब इस रिटायर बाद की अवस्था में उनकी तमन्ना..उनका शौक पूरा हो पाएगा अथवा वे अपनी पत्नी..अपने बच्चों की नज़र में मात्र उपहास का पात्र बन कर रह जाएँगे? 

इसी किताब की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ पढ़ी लिखी उस नसीबा की बात करती है जिसने अपनी मर्ज़ी के पढ़े लिखे..तरक्की पसन्द रियाज़ खान से निकाह पढ़वाने के लिए अपने घरवालों को मना..अपने नाम, नसीबा अर्थात नसीब वाली को सार्थक तो कर दिया मगर क्या वाकयी वह उस वक्त नसीबों वाली रह पाती है जब उसका शौहर महज़ इस बात पर उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने को उद्धत हो उठता है जब वह ग़रीब बच्चों को पढ़ाने के बारे में बात करती है? अब देखना यह है कि अपनी अस्मिता..अपने मान सम्मान को बचाने के लिए नसीबा क्या करती है? तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में खूबसूरत जवां मर्द मेजर रंगाचारी को, उसके पिता के निजी स्वार्थ के लिए, सामान्य  शक्ल सूरत की मीनाक्षी से नाजायज़ दबाव डाल ब्याह दिया जाता है। बिन माँ का बेटा रंगाचारी ना पिता की इच्छा का विरोध कर पाता है और ना ही मीनाक्षी को दिल से अपना पाता है। पति- पत्नी के इस बर्फ़ समान ठंडे हो जम चुके रिश्ते में गर्माहट लाने का संयुक्त प्रयास, उनकी बेटी, प्रीति एवं मेजर के अधीन काम कर रहा शंकरन, करते तो हैं मगर देखना यह है कि उन्हें इस काम में सफलता प्राप्त हो पाती है या नहीं। 

इसी संकलन की अंतिम कहानी कुदरती कमी से अधूरे जन्में ट्रांसजेंडर बच्चों की समाज में स्वीकार्यता को बनाने एवं बढ़ाने के प्रयास के साथ साथ इस समस्या का हल भी सुझाती दिखाई देती है। 

धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस संकलन की कहानियाँ कहीं सोचने पर मजबूर करती दिखाई देती हैं तो कहीं किसी अच्छे की आस जगाती दिखाई देती हैं। इस प्रभावी कहानी संकलन में मुझे दो चार जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ स्थानों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। एक दो जगह प्रूफरीडिंग की कमियाँ भी दिखाई दी जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 88 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'हाँ, मैं थर्ड रेड टॉर्चर में यकीन रखता हूँ'

यहाँ 'हाँ, मैं थर्ड रेड टॉर्चर में यकीन रखता हूँ' की जगह 'हाँ, मैं थर्ड डिग्री टॉर्चर में यकीन रखता हूँ' आएगा। 

इसी तरह पेज नंबर 89 के दूसरे पैराग्राफ़ में  लिखा दिखाई दिया कि..

'दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज से एमए, अँग्रेज़ी की स्टूडेंट नसीबा, मिसेज़ आईएएस नसीबा'

यहाँ नसीबा को मिसेज़ आईएएस बताया जा रहा है जबकि लेखिका इसके पहले पेज पर नसीबा के पति को आईपीएस अफ़सर बता चुकी हैं।


इसके साथ ही इसी संकलन की रेडियो स्टेशन वाली कहानी मुझे अपनी तमाम खूबियों के बावजूद कुछ अधूरी या थोड़ी कम असरदार लगी। कहानी के अंत में रोहिणी को कल्पना करते दिखाया गया है कि काश.. वो सरेआम रेडियो पर एनाउंसर की भूमिका निभाते वक्त अपने सभी बड़े लंपट अफ़सरान की पोल खोल दे। 

यहाँ "काश'..के बजाय अगर सच में दृढ़ निश्चय के साथ उसके कदम इस ओर बढ़ते हुए दिखाए जाते तो मेरे ख्याल से कहानी का इम्पैक्ट ज़्यादा नहीं तो कम से कम दुगना तो हो ही जाता। 

यूँ तो प्रभावी लेखन से जुड़ा ये कहानी संकलन मुझे प्रकाशक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस 120 पृष्ठीय उम्दा कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू- रश्मि रविजा


70- 80 के दशक के तक आते आते बॉलीवुडीय फिल्मों में कुछ तयशुदा फ़ॉर्मूले इस हद तक गहरे में अपनी पैठ बना चुके थे कि उनके बिना किसी भी फ़िल्म की कल्पना करना कई बार बेमानी सा लगने लगता था। उन फॉर्मूलों के तहत बनने वाली फिल्मों में कहीं खोया- पाया या फ़िर पुनर्जन्म वाला फंडा हावी होता दिखाई देता था तो कोई अन्य फ़िल्म प्रेम त्रिकोण को आधार बना फ़लीभूत होती दिखाई देती थी।

 कहीं किसी फिल्म में नायक तो किसी अन्य फ़िल्म में नायिका किसी ना किसी वजह से अपने प्रेम का बलिदान कर सारी लाइम लाइट अपनी तरफ़ करती दिखाई देती थी। कहीं किसी फिल्म में फिल्म में भावनाएँ अपने चरम पर मौजूद दिखाई देतीं थी तो कहीं कोई अन्य फ़िल्म अपनी हल्की फुल्की कॉमेडी या फ़िर रौंगटे खड़े कर देने वाले मार धाड़ के दृश्यों के बल पर एक दूसरे से होड़ करती दिखाई देती थी। 

उस समय जहाँ बतौर लेखक एक तरफ़ गुलशन नंदा  सरीखे रुमानियत से भरे लेखकों का डंका चारों तरफ़ बज रहा था तो वहीं दूसरी तरफ़ सलीम-जावेद की जोड़ी को भी उनकी मुँह माँगी कीमतों पर एक्शन प्रधान फिल्मों की कहानी लिखने के लिए अनुबंधित किया जा रहा था। ऐसे ही दौर से मिलती जुलती एक भावनात्मक कहानी को प्रसिद्ध लेखिका, रश्मि रविजा हमारे समक्ष अपने उपन्यास 'स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू'  के माध्यम से ले कर आयी हैं। 

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है
कॉलेज में एक साथ पढ़ रहे शची और अभिषेक की। इस कहानी में जहाँ एक तरफ़ बातें हैं कॉलेज की हर छोटी बड़ी एक्टिविटी में बड़े उत्साह से भाग लेने वाले मस्तमौला तबियत के अभिषेक की तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें बातें हैं साधारण नयन- नक्श की सांवली मगर आकर्षक व्यक्तित्व की प्रतिभाशाली  युवती शची की। मिलन और बिछोह से जुड़े इस उपन्यास में शुरुआती नोक-झोंक के बाद शनैः
शनैः उनमें आपस में प्रेम पनपता तो है लेकिन कुछ दिनों बाद शची, अभिषेक को अचानक नकारते हुए उसके प्रेम को ठुकरा देती है और बिना किसी को बताए  अचानक कॉलेज छोड़ किसी अनजान जगह पर चली जाती है। 

किस्मत से बरसों बाद उनकी फ़िर से मुलाकात तो होती है मगर क्या इस बार उनकी किस्मत में एक होना लिखा है या फ़िर पिछली बार की ही तरह वे दोनों अलग अलग रास्तों पर चल पड़ेंगे? 

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस भावनात्मक उपन्यास में प्रूफरीडिंग के स्तर पर कुछ कमियाँ भी दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 13 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'वैसे यह भी ज्ञात हुआ कि एक्स्ट्रा करिकुलर 'सुबह सवेरा' काफ़ी हैं उसकी।'

इस वाक्य में लेखिका बताना चाह रही हैं कि 'शची  की रुचि एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ में काफ़ी रुचि है लेकिन वाक्य में ग़लती से 'एक्टिविटीज़' या इसी के समान अर्थ वाला शब्द छपने से रह गया। इसके साथ ही त्रुटिवश 'सुबह सवेरा' नाम के एक अख़बार का नाम छप गया है जिसकी इस वाक्य में  ज़रूरत नहीं थी। 

सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

वैसे यह भी ज्ञात हुआ कि एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ काफ़ी हैं उसकी।'


इसी तरह पेज नंबर 36 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'सारा गुस्सा, मनीष पर उतार दिया। मनीष चुपचाप उसकी  स्वगतोक्ति सुनता रहा। जानता था, यह अभिषेक नहीं उसका चोट खाया स्वाभिमान बोल रहा है। उसने ज़रा सा रुकते ही पूछा, "कॉफी पियोगे?"

"पी लूँगा".. वैसी ही मुखमुद्रा बनाए कहा उसने और फिर शुरू हो गया।'

इसके पश्चात एक छोटे पैराग्राफ़ के बाद मनीष, अभिषेक से कहता दिखाई दिया कि..

'ऐसा तो कभी कहा नहीं शची ने..चल जाने दे..चाय ठंडी हो रही है..शुरू कर।'


अब यहाँ ये सवाल उठता है कि जब कॉफ़ी के लिए पूछा गया और हामी भी कॉफ़ी पीने के लिए ही दी गयी तो अचानक से कॉफी , चाय में कैसे बदल गयी? 


इसके आगे पेज नंबर 44 में कॉलेज के प्रोफ़ेसर अपने पीरियड के दौरान अभिषेक से कोर्स से संबंधित कोई प्रश्न पूछते हैं और उसके प्रति उसकी अज्ञानता को जान कर भड़क उठते हैं। इस दौरान वे छात्रों में बढ़ती अनुशासनहीनता, फैशन परस्ती, पढ़ाई के प्रति उदासीनता, फिल्मों के दुष्प्रभाव इत्यादि को अपने भाषण में समेट लेते हैं जो बेल लगने के बाद तक चलता रहता है।

यहाँ लेखिका ने पीरियड समाप्त होने की घंटी के लिए 'बेल बजने' में 'Bell' जैसे अँग्रेज़ी शब्द का इस्तेमाल किया जबकि 'Bell' हिंदी उच्चारण के लिए 'बेल' शब्द का प्रयोग किया जो कि संयोग से 'Bail' याने के अदालत से ज़मानत लेने के लिए प्रयुक्त होता है। 

अब अगर 'Bell' के उच्चारण के हिसाब से अगर लेखिका यहाँ हिंदी में 'बैल' लिखती तो अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती कि एक घँटी जैसी निर्जीव चीज़ को सजीव जानवर, बैल में बदल दिया जाता। 

अतः अच्छा तो यही रहता है कि ऐसे कंफ्यूज़न पैदा करने वाले शब्द की जगह देसी शब्द जैसे 'घँटी बजने' का ही प्रयोग किया जाता।


अब चलते चलते एक महत्त्वपूर्ण बात कि जब भी हम कोई बड़ी कहानी या उपन्यास लिखने बैठते हैं तो हमें उसकी कंटीन्यूटी का ध्यान रखना होता है कि हम पहले क्या लिख चुके हैं और अब हमें उससे जुड़ा हुआ आगे क्या लिखना चाहिए। लेकिन जब पहले के लिखे और बाद के लिखे के बीच में थोड़े वक्त का अंतराल आ जाता है तो हमें ये तो याद रहता है कि मूल कहानी हमें क्या लिखनी है मगर ये हम अक्सर ये भूल जाते हैं कि हम पहले क्या लिख चुके हैं। 

पहले के लिखे और बाद के लिखे में एक दूसरे की बात को काटने वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए। इसी तरह की एक छोटी सी कमी इस उपन्यास में भी मुझे दिखाई दी। उदाहरण के तौर पर  पेज नंबर 125 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'जब वह 'कणिका' को याद नहीं कर पा रहा था तो बड़ी गहरी मुस्कुराहट के साथ बोली थी, 'कभी तो तुम्हारी बड़ी ग़हरी छनती थी उससे' इसका अर्थ है वह भूली नहीं है कुछ।'

यहाँ शची, अभिषेक को कणिका के बारे में बताती हुई उसे याद दिलाती है कि कणिका से कभी उसकी यानी कि अभिषेक की बड़ी ग़हरी छना करती थी। 

अब यहाँ ग़ौरतलब बात ये है कि इससे पहले कणिका का जिक्र पेज नम्बर 121 की अंतिम पंक्तियों में आया और जो पेज नम्बर 122 तक गया लेकिन इस बीच कहीं भी उपरोक्त बात का जिक्र नहीं आया जो पेज नंबर 125 पर दी गयी है।

इस उपन्यास में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। मनमोहक शैली में लिखे गए 136 पृष्ठीय इस बेहद रोचक एवं पठनीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है प्रलेक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- जो कि कंटेंट एवं क्वालिटी के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

कर्ज़ा वसूली- गिरिजा कुलश्रेष्ठ

आमतौर पर आप सभी ने कभी ना कभी देखा होगा कि आप किसी को कोई बात याद दिलाएँ या पूछें तो मज़ाक मज़ाक में सामने से ये सुनने को मिल जाता है कि हमें ये तक तो याद नहीं कि कल क्या खाया था? अब बरसों या महीनों पुरानी कोई बात भला कोई कैसे याद रखे? अच्छा!..क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि आप अचानक अपने किसी परिचित से मिलें और बात करते करते उसका नाम भूल जाएँ? ऐसा औरों के साथ तो पता नहीं मगर मेरे साथ तो एक आध बार ज़रूर हो चुका है।

ख़ैर.. इनसानी यादाश्त में वक्त के साथ इतनी तब्दीली तो ख़ैर आती ही है कि देर सवेर हम कुछ न कुछ भूलने लगते हैं। इसलिए बढ़िया यही है कि जहाँ तक संभव हो काम की बातें हम लिख कर रखा करें। 

दोस्तों..आज याददाश्त से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं जिस किताब के बारे में बात करने वाला हूँ। उसे मैंने 2 मई, 2022 को ही पढ़ लिया था लेकिन तब पता नहीं कैसे उस किताब में काफ़ी कुछ लिख लेने के बाद भी उस पर अपनो पाठकीय प्रतिक्रिया पोस्ट करना भूल गया। अब दो दिन पहले इस किताब को फ़िर से पढ़ने के लिए उठाया तो पहले दो पेज पढ़ते ही महसूस हुआ कि इस कहानी को तो मैं पहले भी पढ़ चुका हूँ। फ़िर लगा कि शायद किसी साझा कहानी संग्रह में ये कहानी पढ़ी हो। अपने नोट्स को खंगाला तो पाया कि इस पूरी किताब पर मेरे नोट्स की आख़िरी एडिटिंग की तारीख 2 मई, 2022 है। 

😊

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ लेखिका गिरिजा कुलश्रेष्ठ के 'कर्ज़ा वसूली' के नाम से आए एक उम्दा कहानी संकलन की। 

अपने आसपास के माहौल एवं समाज में घट रही घटनाओं को आधार बना कर धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस कहानी संकलन में कुल 13 कहानियाँ हैं जिन्हें पढ़ कर आसानी से जाना जा सकता है कि लेखिका, विस्तृत शब्दकोश के साथ साथ पारखी नज़र की भी स्वामिनी है।

इसी संकलन की एक कहानी जहाँ एक तरफ़ इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि मन में अगर किसी काम करने की जब तक ठोस इच्छा ना हो..तब तक वह कार्य सिद्ध नहीं हो पाता। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी इस बात को स्थापित करती नज़र आती है कि किसी को उधार देना तो आसान है मगर उस दिए गए ऋण की वसूली करना हर एक के बस की बात नहीं। 

इसी संकलन की किसी कहानी में जब अध्यापक स्वयं अपने बेटे की उच्च शिक्षा के लिए अपने प्रोविडेंट फंड का एक हिस्सा निकलवा पाने में नाकामयाब हो जाते हैं तो अंत में उन्हें बिगड़ते काम को बनवाने के लिए भ्रष्ट सरकारी तंत्र के आगे घुटने टेकने पर मजबूर हो जाना पड़ता है। तो वहीं एक अन्य कहानी में अपने छोटे..अबोध बच्चे को लिखना पढ़ना एवं अनुशासन सिखाने के लिए उसके माँ उसे जब तब मारने से भी नहीं चूकती। मगर एक दिन अपने बेटे की प्रथम मार्मिक अभिव्यक्ति, जो उसने कमरे के फ़र्श पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखी होती है, को देख कर वह चौंक जाती है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ स्कूल में नए एडमिशन के रूप में एक अनगढ़ या फैशन और नए जमाने के तौर तरीकों से अनजान लड़की को देख कर क्लास के बाकी विद्यार्थी इस हद तक उसकी खिल्ली उड़ाते..उसे तंग करते हैं कि आखिरकार वह स्कूल छोड़ कर चली जाती है। मगर भविष्य के गर्भ में भला क्या लिखा है..यह तो किसी को पता ना था। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी बूढ़े बाप के जवान बेटे की मौत के कारणों का विश्लेषण करते उन रिश्तेदारों और परिचितों की बात करती है जिनमें से कोई इसके लिए उसकी उसकी पत्नी को दोष देता है तो कोई पीलिया बीमारी से हुई मौत का हवाला देता दिखाई देता। कोई अत्यधिक शराब को इसका कारण बताता दिखाई देता है तो कोई घर में उसकी पत्नी के कदमों को अशुभ मानता नज़र आता है। मगर असली वजह तो सिर्फ़ मृतक या उसकी पत्नी ही जानती थी। 


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ  अध्यापकों द्वारा कम समय में अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ के मद्देनज़र उत्तर पुस्तिकाओं की जाँच में हो रही भारी लापरवाही के ख़िलाफ़ जब वसन्तलाल आवाज़ उठाता है। तो उसे ही कठघरे में खड़ा कर उसकी मामूली सी ग़लती को बलन्डर मिस्टेक करार दे उसे ही सस्पैंशन लैटर थमाने की कवायद शुरू होने के आसार दिखने लगते हैं। तो वहीं एक अन्य कहानी में घर की मेहनती.. सब काम काज संभालने वाली सुघड़ बड़ी बहू सीमा को ससुराल में हमेशा छोटी बहु की बनिस्बत पक्षपात झेलना पड़ता है कि उसकी देवरानी, अमीर घर से है जबकि वह स्वयं गरीब घर से। ऐसे में जब एक बार उसकी गरीब माँ अपनी ज़रुरतों को नज़रंदाज़ कर उसके ससुरालियों के लिए बहुत से गिफ्ट भेजती तो है मगर क्या इससे उसे ससुराल में वैसा ही सम्मान प्राप्त हो पाता है जैसा कि छोटी बहू को शुरू से मिलता आया है?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि नाकारा और शराबी व्यक्ति अगर सही बात भी कर रहा हो तो भी ना कोई उसे गंभीरता से लेता है और ना ही उसकी बात का विश्वास करता है। तो एक अन्य कहानी परदेस में भाषा की दिक्कत के साथ महानगरीय जीवन की उन सच्चाइयों को उजागर करती है कि यहाँ सब अपने मतलब से मतलब रखते हैं और कोई अपने आस पड़ोस में रहने वालों के नाम तक नहीं जानता।

धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी इस रोचक किताब में काफी जगहों पर शब्द आपस में जुड़े हुए या फ़िर ग़लती से दो दो बार छपे हुए दिखाई दिए। जिससे कुछ एक जगहों पर तारतम्य टूटता सा प्रतीत हुआ और एक जगह अर्थ का अनर्थ भी होता दिखाई दिया। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर 124 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अब भी उसने छुट्टी मनाली थी और कथरी बिछा कर बरांडे में पड़ा था।' 

वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी छोटी छोटी खामियाँ दिखाई दी जिन्हें दूर किए जाने की ज़रूरत है।

यूँ तो सहज..सरल भाषा में लिखी गयी रोचक कहानियों से लैस ये कहानी संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस बढ़िया कहानी संग्रह के 172 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 175/- जो कि क्वालिटी एवं कंटेंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभ कामनाएँ।

यू पी 65- निखिल सचान

कई बार पढ़ते वक्त कुछ किताबें आपके हाथ ऐसी लग जाती हैं कि पहले दो चार पन्नों को पढ़ते ही आपके मुँह से बस..."वाह" निकलता है और आपको लेखक की लेखनी से इश्क हो जाता है। यकीनन कुछ ना कुछ अलग...कुछ ना कुछ दिलचस्प..कुछ ना कुछ अनोखा तो ज़रूर ही होता होगा उनके लेखन में जब कोई किताब दिलकश अंदाज़ में आपका सुख चैन...आपकी नींद उड़ा...आपको अपने साथ..अपनी ही रौ में बहा ले चलते हुए ..एक ही दिन में खुद को पूरा पढ़वा डाले। और उस पर सोने पे सुहागा ये कि हर दूसरा-तीसरा पेज कोई ना कोई ऐसे पंच लाइन खुद में समेटे हो कि औचक ही आप पढ़ना छोड़...हँसना शुरू कर दें।

दोस्तों!...आज मैं बात करने जा रहा हूँ "यूपी 65" नामक उपन्यास और उसके लेखक निखिल सचान की जो आए तो हिंदी साहित्य में एक बाहरी व्यक्ति के तौर पर ही लेकिन आते ही उन्होंने अपनी तथाकथित 'नई वाली हिंदी' के ज़रिए हज़ारों लोगों को हिंदी साहित्य से जोड़..उन्हें अपना मुरीद बनाते हुए अपने लेखन की धूम मचा दी।

किसी ने उन्हें हिंदी साहित्य के युवा तुर्क की उपाधि दी तो किसी ने अपकमिंग ऑथर ऑफ द ईयर के अवार्ड से भी उन्हें नवाजा। किसी ने उन्हें हिंदी साहित्य के सुनहरे दिनों को लौटा लाने का श्रेय दिया तो किसी ने उन्हें हिंदी साहित्य का नया सितारा कहा। किसी ने उनके द्वारा लिखी गयी तीनों किताबों का बेस्टसेलर की गिनती में शुमार किया। 

कॉलेज/होस्टल लाइफ पर आधारित कई फिल्में, कहानियाँ और उपन्यास पहले भी पढ़..देख एवं समझ चुकने के बावजूद भी इस उपन्यास की कहानी में एक ताज़गी...एक नयापन साफ़ दिखाई देता एवं महसूस होता है जो आपको, अपनी तरफ आकर्षित करता है। इस उपन्यास की कहानी कहीं आपको होस्टल एवं कॉलेज के शरारतों से भरे मस्त जीवन से रूबरू कराती है तो कहीं रुमानियत से भरे प्यार के एहसास से दो चार भी कराती हैं। 

कहीं इसमें दार्शनिक हो..जीवन दर्शन आप में समाने लगता है तो कहीं खिलंदड़ हो इसमें..आपका मन भी किरदारों संग हुड़दंग मचाने को मचल उठता है। ताज़ातरीन राजनैतिक हालातों के प्रति संजीदा...जागरूक विद्यार्थी इसमें नज़र आते हैं तो कहीं हर बात को बस धुएँ, बियर, शराब और नशे के ज़रिए तफ़रीह में उड़ाने को आतुर युवा भी दिखाई देते हैं। कहीं इसमें धीर गंभीर हो पढ़ाई की बातें हैं तो कहीं इसमें सामूहिक हड़ताल के ज़रिए परीक्षाएँ रद्द करवाने की जुगत भरी चालें हैं। 

कहीं महज़ मस्ती के लिए फ्लर्टिंग का बोलबाला है तो कहीं इसमें सुंदर लड़की को ले..खिलंदड़पने से भरी, लड़कों की आपस की ईर्ष्या..जलन एवं मारामारी है। कहीं इसमें प्यार में संजीदगी समेटे भावुकता अपने चरम पर है तो कहीं माहौल को हल्का करती किसी को पाने को लेकर होती हास्यास्पद हरकतें हैं। 

कहीं इसमें कबाड़ के ढेर पे बैठ कोई सबके ज्ञानचक्षु खोल..अपनी समझ बाँटता दिखाई देता है तो कहीं इसमें ठेठ बनारसी अंदाज़, लहज़े और ठसक में ज्ञान बघारते/पेलते युवा भी दृष्टिगोचर होतें हैं। कहीं कोई प्रोफ़ेसर नशे में भावुक हो..विद्यार्थियों के बिगड़ते भविष्य पर चिंता जताता है तो कहीं दमदार..मारक पंच लाइनें आपका स्वागत करने को बेताब नज़र आती हैं। 

कहीं इसमें बनारस के घाटों की खूबसूरती वर्णन है तो कहीं उन्हीं घाटों के आसपास बने उन होटलों का जिक्र है जो अपने यहाँ...खुद की क़ुदरती मौत का इंतज़ार करने वालों का स्वागत करते नज़र आते हैं। 

160 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को मिल कर छापा है 'हिन्दयुग्म' और 'वेस्टलैण्ड पब्लिकेशंस' ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र ₹150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। कम दामों पर बढ़िया कंटैंट पेश करने का फंडा अगर सभी प्रकाशकों की समझ में आ जाए तो हिंदी साहित्य के सुनहरे दिनों के आने में कोई देर..कोई कोताही नहीं। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
 
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