"मेरी प्रेम कहानी-मेड फॉर ईच अदर"

"मेरी प्रेम कहानी-मेड फॉर ईच अदर"

***राजीव तनेजा***

a-love-story

"हैलो"...
"मे आई स्पीक टू मिस्टर राजीव तनेजा?"
"यैस!...स्पीकिंग"
"सर!..मैँ 'रिया' बोल रही हूँ 'फ्लाना एण्ड ढीमका' बैंक से"
 "हाँ जी!...बोलिए"
 "सर!...वी आर प्रोवाईडिंग होम लोन ऐट वैरी रीज़नेबल रेटस"
 "सॉरी मैडम!..आई एम नाट इंटरैस्टिड"
 "सर!...बहुत अच्छी स्कीम दे रही हूँ आपको"...
 "हाँ जी!...बताएँ"...
"सर!..हम आपको बहुत ही कम ब्याज पे लोन प्रोवाईड कराएँगे"...
 "अभी कहा  ना आपको...कि नहीं चाहिए"...
"सर!...पहले मेरी पूरी बात सुन लें"..
"प्लीज़"...
"अच्छा फटाफट बताएँ...मैँ रोमिंग में हूँ"...
"सर!...आप अगर हमारे से लोन लेते हैँ तो उसका सबसे बड़ा फायदा तो ये है कि समय पे किश्त ना चुका पाने की कंडीशन में हम आपके घर अपने गुण्डे और लठैत नहीं भेजते हैँ"...
"ओह!...अच्छा"..
"फिर तो ठीक है"...
"एक्चुअली!...मुझे गुण्डों से और उनकी मार-कुटाई से बड़ा डर लगता है"..
"यू नो!... एक बारी मेरे दोस्त कम...पड़ोसी कम...रिश्तेदार के घर पे काफी तोड़फोड़ और हंगामा कर गए थे"...
"सर!...वो उस कमीना एण्ड कुत्ता कम्पनी के रिकवरी एजेंट होंगे"...
"ये तो पता नहीं"...
"दरअसल!..वो हैँ ही बड़े कुत्ते लोग"..
"बिलावजह कस्टमरज़ को तंग करते हैँ"...
"ये भी नहीं जानते कि ग्राहक तो भगवान का रूप होता है और कोई अपनी मर्ज़ी से थोड़े ही फँसता है बैंको के जाल में"...
"ऊपर से बाज़ार में मन्दा-ठण्डा तो चलता ही रहता है"...
"जी"...
"थोड़ा सब्र तो उन्हें रखना ही चाहिए कि कोई उनके पैसे खा थोड़े ही जाएगा?"....

"ऐक्चुअली!...सच कहूँ तो कुछ लोगों को बेवजह फाल्तू के काम करने की आदत होती है"....
"इतनी सब मेहनत करने की ज़रूरत ही क्या है?"...
"हमारे बैंक से लोन लेने के बाद तो वैसे भी आदमी किश्तें चुकाते-चुकाते अपने ही कष्टों से मर जाता है"....
"ही...ही....ही"...
"क्या?"...
"प्लीज़!...आप माईन्ड ना करें"...
"आप इतना सब उल्टा-सीधा बके चली जा रही हैँ और मुझे कह रही हैँ कि माईंड ना करें?
"एक्चुअली!...इट वाज़ से पी.जे"..
"पी.जे माने?"...
"प्योर जोक...प्रैक्टिकल जोक"...
"ओह!...फिर तो आप बड़े ही खतरनाक जोक मारती हैँ....मिस...पिंकी"....
"ये तो सर!...कुछ भी नहीं..मेरे जोक्स के आगे तो बड़े-बड़े हिल जाया करते हैँ"...
"ओह!...रियली?"...
"जी"...
"और सर!...मेरा नाम 'पिंकी' नहीं बल्कि 'रिया' है"...
"ओह!...फिर तो आपने ठीक किया"....
"क्या ठीक किया...सर?"...
"यही...कि अपना नाम बता के"...
"वर्ना खामख्वाह कंफ्यूज़न क्रिएट होता रहता"...
"किस तरह का कंफ्यूज़न...सर?"..
"एक्चुअली!..फ्रैंकली स्पीकिंग...इस तरह के दो-चार फोन तो रोज़ ही आ जाते हैँ ना"...
"तो?"...
"तो सबके नाम याद करने में अच्छी-खासी मुश्किल पेश आ जाया करती है"...
"सर!...जब आप हमसे एक बार लोन ले लेंगे ना...तो फिर कभी भी मेरा नाम नहीं भूल पाएंगे"... 
"और वैसे भी मैँ भूलने वाली चीज़ नहीं हूँ ...सर"...
"जी!...वो तो आपकी बातों से ही मालुम चल गया है"...
"क्या मालुम चल गया है...सर?"...
"यही कि आप बातें बड़ी दिलचस्प करती हैँ"...
"थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट...सर"...
"एक्चुअली!...फ्रैंकली स्पीकिंग..यू हैव ए वैरी..वैरी स्वीट एण्ड सैक्सी वॉयस"...
"झूठे!...
फ्लर्ट करना तो कोई आप मर्दों से सीखे"..
"प्लीज़!...इसे झूठ ना समझें"...
"सच में!...आपकी आवाज़ बड़ी ही मीठी और सुरीली है"
"तुम्हारी कसम"..
"अच्छा जी!...अभी मुझसे बात करते हुए सिर्फ आपको यही कोई दस-बारह मिनट हुए हैँ और आप मेरी कसमें भी खाने लगे"...
"एक्चुअली!...रिया...
वो क्या है कि किसी को समझने में पूरी उम्र बीत जाया करती है और किसी को जानने के लिए सिर्फ चन्द सकैंड ही काफी होते हैँ"...
"यू नो!...जोड़ियाँ ..ऊपर स्वर्ग से ही बन कर आती हैँ"...
"जी!..बात तो आप सही कह रहे हैँ"...
"सर!...वैसे आप रहते कहाँ हैँ?"...
"जी!...शालीमार बाग"...
"वहाँ तो प्रापर्टी के बहुत ज़्यादा रेट होंगे ना सर?"...
"जी!...यही कोई सवा लाख रुपए गज के हिसाब से सौदे हो रहे हैँ आजकल और अभी परसों ही डेढ सौ गज में बना एक सैकैंड फ्लोर बिका है पूरे अस्सी लाख रुपए का"
"गुड!...मैँ भी सोच रही थी कोई सौ-पचास गज का प्लाट ले के डाल दूँ"...
"आने वाले टाईम में कुछ ना कुछ मुनाफा दे के ही जाएगा"...
"बिलकुल सही सोचा है आपने"...
"किसी भी और चीज़ में इनवैस्ट करने से अच्छा है कि कोई प्लाट या मकान खरीद के रख लिया जाए"..
"लेकिन मुझे ये फ्लोर-फ्लार का चक्कर बेकार लगता है"...
"ये भी क्या बात हुई कि नीचे कोई और रहे और ऊपर कोई और?"...
"ऊपर छत पे सर्दियों में धूप सेकनी हो या फिर पापड़-वड़ियाँ सुखाने हों तो बस दूसरों के मोहताज हो गए हम तो"...
"जी!..ये बात तो है".
"इसमें कहाँ की अक्लमन्दी है कि ज़रा-ज़रा से काम के लिए दूसरों को डिस्टर्ब कर उनकी घंटी बजाते रहो"...
"जी!...बिलकुल सही कहा सर आपने"...
"सर!...आप बुरा ना मानें तो एक बात पूछूं?"...
"अरे यार!...इसमें बुरा मानने की क्या बात है?"...
"हक बनता है आपका"..
"आप एक-दो क्या पूरे सौ सवाल पूछें तो भी कोई गम नहीं"..
"ये नाचीज़!..आपकी सेवा में हमेशा हाज़िर रहेगा"...
"टीं...टीं...बीप...बीप......बीप"...
"ओह!...लगता है कि बैलैंस खत्म होने वाला है"..
"मैँ बस दो मिनट में ही रिचार्ज करवा के आपको फोन करता हूँ"...
"हाँ!...चिंता ना करें मैँ नम्बर सेव कर लूँगा"..
"नहीं!...आप रहने दें"...मैँ ही कर लूंगी"..
"हमें वैसे भी अपना दिन का टॉरगैट पूरा करना होता है"..
"ओ.के"...
(दस मिनट बाद)
"हैलो!..राजीव?"...
"हाँ जी!..."
"और सुनाएँ!..क्या हाल-चाल हैँ?"...
"बस!...क्या सुनाएँ?..कट रही है जैसे के तैसे"..
"ऐसे क्यों बोल रही हो यार?"...
"बस ऐसे ही!...कई बार लगता है कि जैसे जीवन में कुछ बचा ही नहीं है"...
"चिंता ना करो!...मैँ हूँ ना?"...
"सब ठीक हो जाएगा"..
"कुछ ठीक नहीं होने वाला है"...
"थोड़ी-बहुत ऊँच-नीच तो सब के साथ लगी रहती है"...
"इनसे घबराने के बजाए इनका डट कर मुकाबला करना चाहिए"...
"जी"...
"खैर!...आप बताएँ!...क्या पूछना चाहती थी आप?"...
"नहीं!...रहने दें...फिर कभी...किसी अच्छे मौके पे"...
"आज से...अभी से अच्छा मौका और क्या होगा?"...
"आज ही आपसे पहली बार बात हुई और आज ही आपसे दोस्ती हुई"...
"और वैसे भी दोस्ती में कोई शक...कोई शुबह नहीं रहना चाहिए"...
"जी!...सही कहा आपने"...
"सर!...मैँ ये कहना चाहती थी कि...
"पहले तो आप ये सर...सर लगाना छोड़ें"...
"एक्चुअली!...टू बी फ्रैंक...बड़ा ही ऑकवर्ड और अनडीसैंट सा फील होता है जब कोई अपना इस तरह फॉरमैलिटी भरे लहज़े में बात करे"...
"आप मुझे सीधे-सीधे राजीव कह के पुकारें"...
"जी!...सर...ऊप्स सॉरी राजीव"...
"हा हा हा हा"...
"एक्चुअली क्या है 'राजीव' कि मैँने कभी किसी से ऐसे ओपनली फ्री हो के बात नहीं करी है"...
"हमें हमारे प्रोफैशन में सिखाया भी यही गया है कि सामने वाला बन्दा  कैसा भी घटिया हो और कैसे भी...कितना भी रूडली बात करे लेकिन हमें अपनी पेशेंस...अपने धैर्य को नहीं खोना है और अपने चेहरे पे हमेशा मुस्कान बना के रखनी है"...
"हमारी आवाज़ से किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि हमारे अन्दर क्या चल रहा है"...
"यू नो प्रोफैशनलिज़म"...
"सही ही है..अगर आप लोग अपने कस्टमरज़ के साथ बतमीज़ी के साथ पेश आएँगे तो अगला पूरी बात सुनने के बजाए झट से फोन काट देगा"...
"वोही तो"...
"हाँ तो आप बताएँ कि आप क्या पूछना चाहती थी?"...
"राजीव!...किसी और दिन पे क्यों ना रखें ये टॉपिक?...
"देखो!...जब मैँने तुम्हें दिल से अपना मान लिया है तो हमारे बीच कोई पर्दा ...कोई दिवार नहीं रहनी चाहिए"..
"जी"...
"तो फिर पूछो ना यार...क्या पूछना है आपको?"...
"मैँ तो सिम्पली बस यही जानना चाहती थी कि यहाँ शालीमार बाग में आपका अपना मकान है या फिर किराए का?"...
"किराए का?"...
"यार!...ये किराया-विराया देना तो मुझे शुरू से ही पसन्द नहीं"...
"इसलिए तो पाँच साल पहले पिताजी का जमा-जमाया टिम्बर का बिज़नस छोड़ मैँ अमृतसर से भाग कर दिल्ली चला आया कि कौन हर महीने किराया भरता फिरे?"...
"और आज देखो!...अपनी मेहनत...अपनी हिम्मत से मैँने सब कुछ पा लिया है...ये मकान...ये गाड़ी"...
"ओह!..तो इसका मतलब खूब तरक्की की है जनाब ने दिल्ली आने के बाद"...
"बिलकुल!...लाख मुश्किलें आई मेरे सामने लेकिन ज़मीर गवाह है मेरा कि मैँने कभी हार नहीं मानी और कभी ऊपरवाले पर अपने विश्वास को नहीं खोया"...
"उसी ने दया-दृष्टि दिखाई अपनी"...
"वर्ना!...मैँ तो कब का थक-हार के टूट चुका होता और आज यहाँ दिल्ली में नहीं बल्कि  वापिस बैक टू दा पवैलियन याने के अमृतसर लौट गया होता"...
"यहाँ...इस निष्ठुर और अनजान शहर में मेरा है ही कौन?"...
"शश्श!...ऐसे नहीं बोलते"...
"चिंता ना करो"....
"अब मैँ हूँ ना तुम्हारे साथ"...
"तुम्हारे हर दुख..हर दर्द की साथिन"...
"वैसे कितने कमरे हैँ आपके मकान में?"..

"क्यों?...क्या हुआ?"...
"कुछ नहीं!...वैसे ही नॉलेज के लिए पूछ लिया"..
"पूरे छै कमरों का सैट हैँ"......
"छै कमरे?"......
"वाऊ!....दैट्स नाईस(Wow!...That's Nice)....
"लेकिन आप इतने कमरों का क्या करते हैँ?"...
"क्या बीवी...बच्चे?"

"कहाँ यार?...अभी तो मैँ कुँवारा हूँ"...

"Wow!..
"व्हाट ए लवली को इंसीडैंस...मैँ भी अभी तक कुँवारी हूँ"...
"फिर तो खूब मज़ा आएगा जब मिल बैठेंगे कुँवारे दो"...
"जी बिलकुल"..
"लेकिन आप अकेले इतने कमरों का करते क्या हैँ?"...
"दो तो मैँने अपने पास रखे हैँ और एक मेहमानों के लिए"...


"और बाकी के तीन कमरे?"...
"बाकी के तीन कमरे?"...
"हाँ!...याद आया"...
"वो क्या है कि कई बार मैँ अकेला बोर हो जाता हूँ इसलिए फिलहाल किराए पे चढा रखे हैँ"...

"ठीक किया"...
"अपना थोड़ी-बहुत आमदनी भी हो जाती होगी और अकेले बोर होने से भी बच जाते होगे"..
 "जी"...
"लेकिन अब चिंता ना करें...मैँ आपको बिलकुल भी बोर ना होने दूंगी"...
"जब भी..कभी भी ज़रा सा भी लगे कि आप बोर हो रहे है तो आप कभी भी..किसी भी वक्त मुझे फोन कर दिया करें"...
"मेरा वायदा है आपसे कि आप मेरी कम्पनी को पूरा एंजाय करेंगे"...
"जी...ज़रूर"...
"शुक्रिया"....
"दोस्ती में...प्यार में...नो थैंक्स...नो शुक्रिया"...
"ध्यान रहेगा ना?"...
"जी!...ज़रूर"....
"ओ.के"...
"यार!...बातों ही बातों में मैँ ये पूछना तो भूल ही गया कि आप कहाँ रहती हैँ?"...
"घर में कौन-कौन है वगैरा...वगैरा"...
"अब क्या बताऊँ? "...
"घर में माँ-बाप और बस हम तीन बहनें"....
"सबसे छोटी...सबसे लाडली और सबसे नटखट मैँ ही हूँ"...

"और घर?"...
"रहने को फिलहाल मैँ जहाँगीर पुरी में रह रही हूँ"...
"वो जो साईड पे लाल रंग के फ्लैट बने हुए हैँ?"...
"नहीं यार!...जे.जे.कालौनी में रह रही हूँ"...
"गुस्सा तो मुझे बहुत आता है अपने मम्मी-पापा पर कि उन्हें यही सड़ी सी कालौनी मिली थी रहने के लिए लेकिन क्या करूँ माँ-बाप हैँ मेरे"...
"बचपन से पाला-पोसा..पढाया-लिखाया उन्होंने"...
"उनके सामने फाल्तू बोलना ठीक नहीं"...
"जी"...
"खैर !..आप बताएँ...क्या-क्या आपकी हाबिज़ हैँ?"...
"हाबिज़ माने?"...
"क्या-क्या आपके शौक हैँ?"..
"ओह!..अच्छा"...
"मुझे बढिया खाना...बढिया पहनना....बड़े-बड़े होटलों में घूमना-फिरना...स्वीमिंग करना...फिल्में देखना और फाईनली देर रात तक डिस्को में अँग्रेज़ी धुनों पे नाचना-गाना पसन्द है"...
"गुड"...
"म्यूज़िक तो मुझे भी बहुत पसन्द है"....
"लेकिन मुझे ये रीमिक्स वाले गाने तो बिलकुल ही पसन्द नहीं"...
"ये क्या बात हुई कि मेहनत करनी नहीं...रियाज़ करना नहीं और बैठ गए पहले से रेकार्ड की हुई रैडीमेड धुनों को कि चलो..इनको मिक्स करके एक नया रीमिक्स बनाएँ"...
"अरे!...गीत-संगीत का इतना ही शौक है तो उठाओ हॉरमोनियम और बजाओ  दिल से सारंगी"...
"नई धुन.....नया गीत तैयार ना हो तो कहना"...
"लगता है कि आपको संगीत की...सुरों की काफी समझ है"...
"अरे!..म्यूज़िक तो मेरी जान है...मेरा पैशन है और कई इंस्ट्रूमैंट्स मैँ खुद बजाना जानता हूँ"...
"Wow!...That's nice"...
"जब तक सुबह उठ के मैँ घंटे दो घंटे रियाज़ ना कर लूँ...चैन ही नहीं पड़ता"...
"गुड"...
"संगीत के अलावा और क्या-क्या शौक हैँ आपके"...
"म्यूज़िक के अलावा मुझे हार्स राईडिंग पसन्द है...लॉग ड्राईव....गैम्ब्लिंग पसन्द है...हॉलीवुड मूवीज़ पसन्द हैँ"...
"इसके अलावा और भी बहुत कुछ पसन्द है...जब मिलोगी...तब बताऊँगा"...
"ओ.के"...
"तो फिर कब मिल रही हैँ आप?"...
"देखते हैँ"...
"बताओ ना!...प्लीज़"...
"क्या बात है?...बड़े बेताब हुए जा रहे हो मुझसे मिलने को"...
"ऐसा क्या है मुझमें?"...
"और नहीं तो क्या?....जिसकी आवाज़ ही इतनी खूबसूरत हो..उसे पर्सनली मिलना भी तो चाहिए"...
"पता तो चले कि ऊपर वाले ने मेरी किस्मत में कौन सा नायब तोहफा लिखा है?"...
"इतना ऊपर ना चढाओ मुझे कि कभी नीचे उतर ही ना पाऊँ"...
"बताओ ना यार!...कब मिल रही हो?"...
"ओ.के....कल तो मुझे शापिंग करने करौल बाग जाना है"...
"क्यों ना आप भी मेरे साथ चलें"...
"जी...बिलकुल"...
"आप बताएँ..कितने बजे मिलेंगी?"....
मैँ आपको ..आपके घर से ही पिक कर लूँगा"...
"नहें!...आस-पड़ोस वाले फाल्तू बाते बनाएंगे...क्या फायदा?"...
"फिर?"...
"सुबह मुझे अपनी सहेली के साथ शालीमार बाग में ही काम है...वहीं से निबट के मैँ आपके घर आ जाऊँगी"...
"कोई प्राब्लम तो नहीं है ना आपको?"..
"नहीं!...मुझे भला क्या प्राब्लम होनी है?"...
"मैँ तो वैसे भी अकेला रहता हूँ"...
"गुड!...यही ठीक रहेगा"....
"मैँ आपके पास सारे काम निबटा के ...यही कोई बारह-साढे बारह तक पहुँच जाऊँगी"...
"ओ.के"...

"उसके बाद घंटे दो घंटे सुस्ता के तीन-चार बजे तक चलेंगे शापिंग के लिए"...
"तब तक मौसम भी सुहाना हो जएगा"...
"यू नो!..मुझे तो धूप में घूमना-फिरना बिलकुल भी पसन्द नहीं"...
"बेकार में मज़े-मज़े में कांप्लैक्शन खराब हो जाए...क्या फायदा?"..
"जी"...
"तो फिर कल मिलते हैँ"...
"ओ.के...मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहेगा"...
"मुझे भी"...
"अपना ध्यान रखना"...
"आप भी"...

"ओ.के...बाय"...
"बाय...ब्बाय"...
"ट्रिंग..ट्रिंग"...
"हैलो"...
"अरे!...आपने अपना पता तो बताया ही नहीं".....
"कैसे पहुँचूगी आपके घर?"...
"ओह!...बातों-बातों में ध्यान ही नहीं रहा"...
"आप नोट करें"...
"हाँ!..एक मिनट"...
"हाँ जी!...बताएँ"...
"आपने ये केला गोदाम देखा है शालीमार का?"...
"जी!...अच्छी तरह"..
"बस!...उसी के साथ ही है"...
"क्या BK-1 Block में?"...
"नहीं...नहीं...उस तरफ नहीं"...
"दूसरी तरफ तो A-Pocket है"...
"हाँ!...उसी तरफ"...
"इसका मतलब AA Block है आपका"...
"नहीं यार"...
"फिर कहाँ?"...
"AA Block के साथ वो फॉर्टिस वालों का अस्पताल बन रहा है ना?"...
"जी"...
"बस!...उसी के साथ जो झुग्गी बस्ती है"...
"हाँ!..है"..
"बस!...उसी में...उसी में घर है मेरा"...
"क्या?"...
"जी"...
"लेकिन तुम तो कह रहे थे कि अपना मकान है छै कमरों का"...
"अरे!...दिल्ली में अपनी झुग्गी होना मतलब अपना मकान होना ही है"...
"पूरी छै झुग्गियों पे कब्ज़ा है मेरा"...
"और उन्हीं में से तीन किराए पे उठाई हुई होंगी?"..
"जी"...
"तुम तो ये भी कह रहे थे कि अमृतसर में तुम्हारे पिताजी का टिम्बर का बिज़नस है?"...
"हाँ!...है ना"...
"वहीं सदर थाने के पास वाले चौक पे 'दातुन' बेचने का बरसों पुराना ठिय्या है हमारा"...
"क्या?"...
"और ये जो तुम म्यूज़िक और घुड़ सवारी के शौक के बारे में बता रहे थे....वो सब भी क्या धोखा था?"...
"जानू!...ना मैँने तुम्हें पहले कभी झूठ कहा और ना ही अब कहूँगा"...
"ये सच है कि म्यूज़िक का मुझे बचपन से बड़ा शौक है और इसी वजह से मैँने दिल्ली आने के बाद शादी-ब्याहों में ढोल बजाने का काम शुरू किया"...
"ओह!...इसका मतलब ...तभी बैंड-बाजे वालों की सोहबत में रहते हुए कई तरह के म्यूज़िक इंस्ट्रूमैंटस को बजाना सीख लिया होगा? जैसे पीपनी...सारंगी...बाँसुरी वगैरा...वगैरा"...
"जी"...

"और ये घुड़सवारी?"...वो भी आपने वहीं से सीखी?"...

"जी!...वो दर असल क्या है कि बैंड-बाजे वालों के यहाँ घोड़ी वाले भी आते रहते थे"...
"तो उनसे ही ये हुनर सीख लिया"...
"जी"...
"ओ.के"...
"तो फिर कल कितने बजे आ रही हो?"...
"आ रही हूँ?"...
"सपने में भी ऐसे ख्वाब ना देखिओ"...
"क्यों?...क्या हुआ?"...
"स्साले!...कंगले की औलाद"...
"मेरे साथ डेट पे जाना चाहता है?"...
"स्साले!..ऐसी-ऐसी जगह चक्कू-छुरियाँ पड़वाऊँगी कि ना किसी को दिखाते बनेगा और ना किसी को बताते बनेगा"...
"एक मिनट!...चुप्प...बिलकुल चुप्प"...
"मुझे इतना बोल रही है तो तू कौन सा आसमान से टपकी है?"...
"जानता हूँ!...अच्छी तरह जानता हूँ"...
"जहाँ तू रहती है ना?...वहाँ की एक-एक गली से...एक-एक चप्पे से वाकिफ हूँ मैँ"...
"तुम्हारे यहाँ किसी की भी सौ रुपए से ज़्यादा की औकात नहीं है"...
"आऊँगा...आऊँगा तेरी ही गली आऊँगा और तुझसे नहीं बल्कि तेरी पड़ौसन के साथ रात भर रंगरलियाँ मनाऊँगा"
उखाड़ ले इय्य्यो मेरा!...जो उखाड़ना हो"...
"शटअप!...यू ब्लडी @#$%ं&*
"भाड़ में जाओ"....
 

""यू ऑल सो शटअप... ब्लडी @#$%ं&%#
"गो टू हैल"...

***राजीव तनेजा*** 


Rajiv Taneja
Delhi,India
http://hansteraho.blogspot.com
+919810821361
+919896397625

महिमा मंडन एक ग्राम सेवक का

 

"महिमा मंडन-एक ग्राम सेवक का"

भारत किसानों का..खेत-खलिहानों का देश है।हमारे देश की 70% से ज़्यादा आबादी खेती पर निर्भर है।ज़ाहिर है कि जब इतने ज़्यादा लोग एक ही काम में....एक ही मकसद में जुटे होंगे तो उन्हें कई तरह की मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता होगा।लेकिन राई के दाने बराबर छोटी मुश्किलों को पहाड़ बराबर बताने का हुनर तो कोई इन भोले किसानों से सीखे।मेरे ख्याल से तो ये बेकार की ड्रामेबाज़ी सबका ध्यान अपनी तरफ खींचने की कवायद भर ही है क्योंकि..

  • जहाँ एक तरफ किसान रोना रोते हैँ खेतो में बिजली ना होने का.... तो यहाँ शहर में ही कौन सा हरदम लट्टू(बल्ब)चमचमियाते रहते हैँ?लाईट जैसी वहाँ जाती है..ठीक वैसी ही यहाँ भी जाती है।
  • वो कहते हैँ कि गाँवों में खेतों को प्रचुर मात्रा में पानी नहीं मिल रहा है तो यहाँ शहर में ही कौन सा हम स्विमिंग पूल में आए दिन डुबकियाँ लगा...पिकनिक मना रहे होते हैँ?
  • वो समय पे 'खाद' इत्यादि के ना मिलने से दुखी रहते हैँ तो यहाँ हम ही कौन सा सब कुछ पाकर सुखी हो गए हैँ?
  • अगर कभी वो अपने आपसी झगड़ों से त्रस्त नज़र आते हैँ तो यहाँ कौन सा हम आपस में गलबहियाँ डाल फूले समा रहे होते हैँ?
  • किसानों का कहना है कि उन्हें आए दिन एक से एक दिक्कत पेश आती रहती है और वो सदा परेशानियों से घिरे रहते हैँ लेकिन इसमें कौन सी बड़ी बात है?यहाँ शहर में ही कौन चैन से बेचिंत हो...वेल्ला बैठ मूँगफली चबा रहा होता है?

ठीक है!...माना कि किसानों को कई परेशानियाँ है....कई मुश्किलें हैँ।तो क्या इन छोटे-मोटे कामों के लिए सरकार खुद या फिर उसके कोट-पैंट पहने सूटेड-बूटेड मातहत अफसर रोज़ाना कीचड़ और गोबर की दुर्गन्ध भरे माहौल से दो चार होते रहें?
"नहीं ना?"...
वैसे अगर मेरी राय मानें तो आप ऐसे घिनौने सपने देखना तो छोड़ ही दें कि सरकार के बड़े-बड़े शाही अफसर खुद सीधे सीधे...पर्सनल तौर पर गाँव के निपट गँवारों से आ के संपर्क साधेंगे।लेकिन फिर भी दरियादिली देखिए इन फुली 'ए.सी' के 'वैल फर्निशड' दफ्तरों में बैठने वाले 'इंगलिश स्पीकिंग' अफसरों की कि उन्होंने देश की खातिर...किसानों की खातिर  'ग्राम सेवक' नामक अपने नुमाईन्दे को उनकी सेवा में अर्पित कर दिया कि "लो!...खुश हो जाओ और सम्भालो इसे...यही है तुम्हारा ग्राम सेवक"...

"अब करते रहो आराम से  इसकी सेवा।"

अब करने को तो सरकारी बाबुओं ने इस 'ग्राम सेवक' नामक पद को क्रिएट कर दिया लेकिन फिर उनके सामने ये यक्ष प्रश्न मुँह उठाए खड़ा हो गया कि इन स्थानों पर रखा किसे जाए?अर्थात किसकी भर्ती की जाए इस मलाईदार पद के लिए?तो किसी समझदार ने पूरी ईमानदारी से अपनी समझदारी दिखाते हुए कहा होगा....

" इसमें क्या है?....जो करारे-करारे नोट खिलाएगा वही साँवली-सलौनी नौकरी पाएगा....सिम्पल"और फिर सबने सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव को पारित कर इस पर 'आफिशियल' की अनधिकारिक मोहर लगा दी होगी।इसके बाद उन सभी स्थानों पर अपने आदमियों को पैसे ले-ले फिट किया गया।अब आप पूछेंगे कि अचानक इतने सारे अपने आदमी कहाँ से टपक पड़े?...
तो भय्यी!...जब उन्होंने पैसे दे दिए...तो वो पराए कहाँ रहे?...अपने ही हो गए ना?...
खैर!...नौकरी तो दे दी गई लेकिन फिर सवाल उठा कि..."ये ग्राम सेवक नाम का जंतु आखिर करेगा क्या?"

क्या इसे ऐसे ही भोले-भाले किसानों को मुफ्त में ठगने का लाईसैंस दे खुला छोड़ दिया जाए?...

"नहीं ना?"...

"और अगर कुछ नहीं करेगा तो उसे पैसा किस बात का दिया जाए?...

तनख्वाह किस बात की दी जाए?"

क्योंकि पुराना उसूल जो बना हुआ है कि...आराम ...हराम है।
इसलिए उसका पहला काम जो उसे सौँपा गया वो था कि अलसुबह पँचायत भवन को खोलना और साँझ ढलते ही उसे बन्द करना।अलसुबह इसलिए खोलना कि ताश पीटने वालों और दारू पी अपना मनोरंजन करने वालों को धूप या बारिश में बाहर खड़े हो इंतज़ार ना करना पड़े।यू नो?  इंतज़ार करना ही सबसे मुश्किल काम होता है।...अब अगर माशूका-वाशूका का इंतज़ार करना पड़े तो कोई करे भी।...
अब यहाँ उनकी माशूका याने ताश की गड्डी या दारू की बोतल...अद्धा पव्वा तो उनके खीसे में पहले से ही मौजूद होता है तो फिर इंतज़ार कौन कम्बख्त करता फिरे?

असल में सरकारी बाबुओं ने एक सोची समझी रणनीति के तहत इस 'ग़्राम सेवक' नामक चमचे की रचना की जो बिना किसी लाग-लपेट के उनके उल्लू को सीधा करता रहे।और ये सब इस तरह किया गया कि इस से देश और देश की किसान लॉबी में सीधे-सीधे ये संदेश गया कि यह 'ग्राम सेवक' किसानों के बीच का है और उनके हालात को...उनकी परेशानियों को समझ कर उनका हल ढूँढने में सक्षम है।

"सही ग्राम सेवक वो   जो सेवा कर   दिल जीत

खेत की   खलिहान की   आवाम की  सबकी पीड़ा हरे"

खैर!...ये तो हुई 'ग्राम सेवक' शब्द की सरकारी परिभाषा लेकिन असलियत इसके बिलकुल ही उलट है।असलियत में ग्राम सेवक वो होता है जो सरकारी एड का...सरकारी फण्डों का एक-एक ग्राम तक नोच ले..लूट-खसोट ले।कहने को तो लिखत्तम में उसके काम कुछ और होते हैँ और बखत्तम में कुछ और...जैसे सरकारी तौर पे तो इनका काम होता है....

  • ग्राम पंचायतों के रिकार्ड मेनटेन रखना..उनके बही-खाते अप टू डेट रखना वगैरा वगैरा लेकिन असल में पहले वो अपनी सेहत...अपना स्टैंडर्ड...अपना बैंक बैलैंस मेनटेन करता है और अपनी आमदनी को एकदम एकूरेट याने के अप टू दा मार्क रखता है।
  • उसका दूसरा काम होता है पंचायतों की महीने भर में हुई बैठकों का ब्योरा रखना लेकिन उसका इंटरैस्ट इन कामों के बजाय इस सब में होता है कि...फलाने फलाने पंच ने इस महीने कितने रुपए कूटे और कितने नहीं।
  • उसके जिम्मे एक और निहायत ही ज़रूरी काम होता है कि वो ग्रामीण विकास और उन्नति के कार्यक्रमों को सुचारू रूप से लागू करने में ग्राम पंचायत की हरसंभव मदद करे।तो इसके लिए वो(ग्राम सेवक) और पंच दोनों अपने विकास और अपनी उन्नति के लिए एक दूसरे की पूरी ईमानदारी...मेहनत और लगन के साथ जी भर मदद करते हैँ।
  • ग्राम सेवक का एक और काम होता है कि वो 'पंचायत' और 'बी.डी.पी.ओ' के बीच में बिचौलिए की तरह काम करे।तो इस काम को बखूबी पूरा करते हुए वो इधर की बातें उधर और उधर की बातें इधर करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है।

लेकिन वो पुरानी कहावत सुनी है ना कि "कुत्ते को घी हज़म नहीं होता है"...ठीक वैसे ही किसानों को ये ग्राम सेवक हज़म नहीं होता है।हाज़मा खराब रहता है उनका हरहमेशा। पचा नहीं पाते हैँ कि कोई उन्हें...सरकार को  यूँ ही दिनदहाड़े ठगता चला जाए।वो कहते हैँ ना कि "एक तो करेला...ऊपर से नीम चढा"...एक तो कभी ना संतुष्ट होने वाला उनका  स्वभाव ...ऊपर से ये औरतों वाली चुगलखोरी की आदत।बाप रे!...कभी इसकी चुगली तो कभी उसकी चुगली...वो शिकायत करते हैँ कि...

  • ग्राम सेवक अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं करते और ज़्यादातर गैर हाज़िर रहते हैँ।...
    अरे!..ऐसी कौन सी खेत-खलिहानों में गोली चल रही है जो वो रोज़-रोज़ सावधान मुद्रा में हाज़िर हो अपनी ड्यूटी बजाएँ?
  • किसान कहते हैँ कि ग्राम सेवक पंचायत के साथ मिलकर सरकारी ऐड और सरकारी फण्ड का एक-एक ग्राम तक लूट कर देश को तबाह करने में लगे हैँ...बरबाद करने में लगे हैँ।लेकिन उनसे पूछो तो ग्राम-मिलीग्राम नहीं बल्कि हर माईक्रोग्राम तक का उनका हक बनता है।आखिर कौन बक्श रहा है देश को? सभी तो लूटने-खसोटने में जुटे हैँ।तो ऐसे में ये कहाँ का इंसाफ है कि वो अकेला  साधू-महात्मा बन दूर बैठे खाली तमाशा देखता रहे?

खैर ये सब शिकवे-शिकायतें तो लगी ही रहेंगी लेकिन इनके चक्कर में कहीं असली बात ना छूट जाए कि आज के आधुनिक युग में नारी की शक्ति को...नारी की महत्ता को नकारा  नहीं जा सकता।वो कहते हैँ ना कि हर सफल आदमी के पीछे एक नारी का हाथ होता।ये सच्चाई ही तो है कि वर्तमान सरकार के पीछे 'सोनिया गाँधी' का हाथ है...इसलिए ये चल रही है।

पुरानी सरकारों ने भी नारी जाति की महत्ता को पहचाना और उसका  पूरा सम्मान करते हुए उसे 'ग्राम सेविका' के पद पे सुशोभित किया।जहाँ इनका काम....

  • लिपस्टिक पाउडर और बिन्दी लगा सजने संवरने के अलावा अपने इलाके में महिला मण्डलों का निर्माण कर उन्हें चलाना होता है।लेकिन सार्वभौमिक तथ्य ये है कि भला अकेली बेचारी औरत इतना सब कैसे कर पाएगी?कैसे झेल पाएगी काम के भारी दबाव और टैंशन को?इसलिए उसके हर काम में उनके घर के मर्दों का पूरा-पूरा दखल रहता है और जो कुछ कुँवारी या चिर कुँवारी टाईप की होती हैँ तो उनकी मदद के लिए
    बुड्ढों से लेकर जवान तक...कुँवारों से लेकर शादीशुदा तक..
    यहाँ तक कि तलाकशुदा और रंडुए तक...सभी मदद को तत्पर रहते हैँ
    वैसे देखा जाए तो ये सब सही भी है क्योंकि इन बेचारी ग्राम सेविकाओं के जिम्मे मर्दों को रिझाने के अलावा महिला उद्धार जैसे कठिन शब्दों सरीखे  कठिन काम सौँप उनका जीना मुहाल कर दिया है सरकार ने।
  • सरकार कहती है कि ग्राम सेविकाएँ महिला मण्डलों के जरिए औरतों में जागरूकता ला उन्हें आत्मनिर्भर बनाएँ।लेकिन कौन कहता है कि महिलाएँ जागरूक नहीं हैँ?महिलाएँ आत्मनिर्भर नहीं हैँ?

आज की नारी सब जानती है...सब पहचानती है।विडंबना देखिए कि 'ग्राम सेविका' वो लेकिन सेविका जैसा एक भी गुण मुझे उनमें दिखाई नहीं देता क्योंकि...उसे सब पता रहता है कि...

  • कैसे अपने रूपजाल में..अपने मोहपाश में फँसा मर्दों को उल्लू बना अपने स्वार्थ सिद्ध किए जाते हैँ?
  • कैसे रोनी सूरत बना मर्दों को इमोशनली ब्लैकमेल कर मर्दों से बर्तन और कपड़े धुलवाए जाते हैँ?
  • कैसे भोली सूरत बना शापिंग मॉलों में मर्दों की जेबें खाली करवाई जाती हैँ?
  • कैसे दहेज के झूठे केसों में भोले पतियों को फँसा डराया-धमकाया जाता है?वगैरा वगैरा...

जय हो नारी शक्ति की...

जय हो 'ग्राम सेवक' की  और साथ ही जय हो 'ग्राम सेविका' की भी 

अरे हाँ!...याद आया किसानों को इन 'ग्राम सेवकों' से ताज़ी-ताज़ी शिकायत ये भी है कि ये आजकल बात-बेबात 'लाल झंडा' उठा हड़ताल पे जा इधर-उधर की हाँकने के बजाय काम ठप्प करने में ज़्यादा रुचि...ज़्यादा इंटरैस्ट लेने लगे हैँ।वैसे आप ये बताएँ कि वे पहले ही बैठ के कौन सी घुय्यियाँ ही छीला करते थे जो अब आपको तकलीफ होने लगी।क्या आपके ऐतराज़ के चलते वो हड़ताल पे भी ना जाएँ?क्या उन्हें आपके इस सड़ेले समाज में जीने का हक नहीं?

"क्या कहा?...नहीं?"....

"हद हो यार आप भी!....यहाँ अपने हिन्दुस्तान में जो कर्मचारी अपने जीवन मे कभी हड़ताल पे ना गया हो उसे किसी भी हालत में सच्चा देशभग्त नहीं माना जा सकता। इसलिए आप इस बारे में इलज़ाम लगाना तो छोड़ ही दें कि 'ग्राम सेवक' आलसी हैँ...काम नहीं करना चाहते वगैरा वगैरा।कुछ पता भी है कि हाथ में झण्डा लगा"सरकार...हाय-हाय... सरकार...हाय-हाय" के नारे लगाने में गला कैसे सूख के सिकुड़ जाता है?...कैसे बाज़ुएँ अकड़ के दोहरी हो जाती हैँ?...कैसे सीना पिचक के पस्त हो जाता है?आपको तो इन हड़तालियों की हिम्मत की दाद देनी चाहिए कि वो ताश-बीड़ी और तीन पत्ती का लालच छोड़ कड़कती धूप में प्रशासन से...मैनैजमैंट से दो-दो हाथ कर अपने हक की लड़ाई लड़ रहे होते हैँ।इसलिए आपको तो चाहिए कि आप अपने सब वैर-भाव भुला के इन बेचारे मज़लूम 'ग्राम सेवकों'  का साथ दें और ज़ोर से जयकारा लगाएँ 

"जय हो कृपा निधान....आँधी में उड़ते तूफान की"...

"जय हो भारतीय संविधान की"

***राजीव तनेजा***

 

नोट:इस लेख को लिखने की प्रेरणा मुझे श्री अविनाश वाचस्पति जी से मिली

 

Rajiv Taneja

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"व्यथा-बिचौलियों की"

"व्यथा-बिचौलियों की"

 

***राजीव तनेजा***

मैँ भगवान को हाज़िर नाज़िर मान आज अपने पूर्ण होशोवास तथा  सही मानसिक संतुलन में अपने तमाम साथियों कि ओर से ये खुलेआम ऐलान करता हूँ कि मैँ एक बिचौलिया हूँ और लोगों के रुके काम...बिगड़े काम बनवा...पैसा कमाना हमारी  हॉबी...हमारा पेशा...हमारी फितरत है।ये कहने में हमें  किसी भी प्रकार का कोई संकोच..कोई ग्लानि या कोई शर्म नहीं कि ...कई बार अपने निहित स्वार्थों के चलते हम पहले दूसरों के बनते काम बिगड़वाते हैँ और बाद में अपना टैलैंट...अपना हुनर दिखा उन्हें  चमत्कारिक ढंग से हल करवाते हुए अपना...अपने दिमाग का लोहा मनवाते हैँ।दरअसल!..यही सब झोल-झाल हमारे जीने का..हमारी आजीविका का साधन हैँ।

"क्या कहा?"...

"हमें शर्म आनी चाहिए इस सब के लिए?"...

"हुँह!... "जिसने की शर्म ...उसके फूटे कर्म"...

"और वैसे भी जीविकोपार्जन में कैसी शर्म?

वैसे तो हम कई तरह के छोटे-बड़े काम करके अपना तथा अपने बच्चों का पेट पालते हैँ जैसे हम में से कोई प्रापर्टी डीलर है...

 

तो कोई शेयर दलाल...कोई सिमेंट-जिप्सम-कैमिकल वगैरा की दलाली से संतुष्ट है तो कोई....अनाज और फल-सब्ज़ियों से मगजमारी कर बावला बना बैठा है...कोई कोयले की दलाली में हाथ-मुँह सब काले करे  बैठा है ...तो कोई लोगों के ब्याह-शादी और निकाह करवाने जैसे पावन और पवित्र काम को छोड़ कमीशन बेसिस पे या फिर एकमुश्त रकम के बदले उनके तलाक करवाने के  ठेके ले अपनी तथा अपने परिवार की गुज़र-बरस कर रहा है।

हमारी व्यथा सुनिए कि हम में से कुछ को ना चाहते हुए भी मजबूरन ऐसे काम में हाथ डालना पड़ता है जिसका जिक्र यहाँ इस ब्लॉग पर यूँ ओपनली करना उचित नहीं क्योंकि आप पढने वाले और हम लिखने वाले दोनों के ही घरों में माँ-बहनें हैँ।

 

लेकिन क्या करें?...पैसा और ऐश..दोनों की लत हमें कुछ इस तरह की लग चुकी है कि लाख चाहने के बावजूद भी हमें कोई और काम-धन्धा रास ही नहीं आता।इन सब कामों के अलावा और भी बहुत से काम-धन्धे हैँ जिनमें हमारे कई संगी-साथी हाथ आज़माते हुए आगे बढने की कोशिश कर रहे हैँ लेकिन अगर सबकी लिस्ट यहीं देने लग गया तो इस पोस्ट के कई और पन्ने तो इसी सब में भर जाएंगे जो यकीनन आपको नागवार गुज़रेगा।लेकिन हाँ!...अगर आप फुर्सत में हैँ और तसल्ली से हमारे बारे में कोई शोध-पत्र या निबन्ध वगैरा तैयार करने की मुहिम में जुटे हैँ या जुटना चाहते हैँ तो आपका तहेदिल से स्वागत है। तो ऐसे में आप मुझे मेरी पर्सनल मेल पर मेल भेज कर मुझसे मेल कर सकते हैँ।मेरा ई.मेल आई.डी है दल्ला नम्बर वन@बिचौलिया.कॉम  

हाँ!..आपको मेल आई.डी देने से याद आया कि आप लोगों ने ना जाने किस जन्म का बदला लेने की खातिर हमें नाहक बदनाम करते हुए  हमें 'बीच वाला'..'बिचौलिया'...'दल्ला'...'दलाल' इत्यादि नाम दिए हुए हैँ जबकि ना तो हमें ढंग से ताली बजाना आता है और ना ही उचक-उचक कर भौंडे तरीके से कमर मटकाना पसन्द है।ठीक है!...माना कि हम कई बार जल्दी बौखला के शोर शराबा शुरू कर देते हैँ ..हो हल्ला शुरू कर देते हैँ ...तो क्या सिर्फ इसी बिनाह पे आप हमें 'दल्ला' कहना शुरू कर देंगे?"...

क्या हम आपके साथ इज़्ज़त से...तमीज़ से पेश नहीं आते?हम आपको हमेशा जी...जी कह कर पुकारते हैँ...पूरी इज़्ज़त देते हैँ।जब आप हमारे पास आते हैँ तो ना चाहते हुए भी हम आपको चाय नाश्ते के लिए पूछते हैँ।वैसे ये अन्दरखाने की बात है कि अगर हम एक खर्चा करते हैँ तो उसके बदले सौ वसूलते भी हैँ।जब हम आपके लिए ना चाहते हुए भी इतना सबकुछ कर सकते हैँ तो क्या आप हमें इज़्ज़त से नहीं बुला सकते ?और अच्छे भले सलीकेदार नाम भी तो हैँ...हमारे लिए उनका प्रयोग भी तो किया जा सकता है जैसे... 'मीडिएटर'...'एडवाईज़र'....'कँसलटैंट' वगैरा...वगैरा...

आप कहते हैँ कि हम एक नम्बर के फ्राड हैँ और अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से आप लोगों को बहला-फुसला के अपना उल्लू सीधा करते हैँ।

चलो!..माना कि कई बार हम एक ही प्लाट या मकान को कई-कई बार बेच आप लोगों को चूना लगाने से भी नहीं चूकते हैँ।लेकिन क्या आपको डाक्टर कहता है कि आप हमारी मीठी-मीठे...चिकनी-चुपड़ी बातों में आ अपना धन...अपना पैसा..अपना चैन और सुकून गवाएँ?"

क्या कहा?..अनैतिक है ये?...

अरे!...अगर हम कम समय में अकृत पैसा इकट्ठा करना चाहते हैँ तो इसमें आखिर गलत ही क्या है? वैसे आप ये बताएँगे कि यहाँ कौन किसको नहीं लूट रहा है जो हम साधू-संत...महात्मा बनते हुए सबको बक्श दें?

क्या डाक्टर और कैमिस्ट फ्री सैम्पल वाली दवाईयों को मरीज़ों को चेप अँधा पैसा नहीं कमा रहे हैँ?या... प्राईवेट स्कूल वाले ही अभिभावकों को लूटने में कौन सी कसर छोड़ रहे हैँ?...

क्या हलवाई मिठाई के साथ डिब्बा तौल कर पब्लिक को फुद्दू नहीं बना रहे हैँ?..

या सरकारी कर्मचारी काम के समय को हँसी-ठट्ठे में उड़ा मुफ्त में तनख्वाह हासिल नहीं कर रहे हैँ?

किस-किस को रोकोगे तुम?...किस-किस को कोसोगे तुम?

अरे!..फफूंद है ये हमारे सिस्टम पर...जितनी आप साफ करोगे..उससे कई गुणा रातोंरात और उग कर फैल जाएगी।इसलिए ये सब बेकार की दिमागी कसरत और धींगामुश्ती छोड़ आप ध्यान से मेरी आगे की बात सुनें।...

 

हमारे काम करने ढंग आप जैसे सीधे-सरल लोगों के जैसा एकदम 'स्ट्रेट फॉरवर्ड' नहीं बल्कि आप सब से अलग...सबसे जुदा है।कई बार हम सूट-बूट पहन एकदम सोबर...जैंटल मैन टाईप 'मीडिएटर' का रूप धारण कर लेते हैँ... तो कभी समय की नज़ाकत को भांपते हुए 'एडवाईज़र'  वगैरा का भेष भी बदल लेते हैँ और कई बार अपनी औकात पे आते हुए एकदम नंगे हो...अपनी जात दिखाने से भी नहीं चूकते हैँ।

एक्चुअली!...हमें अपनी हर चाल को(सामने दिखाई देती सिचुऐशन के हिसाब से)..ऊपर से नीचे तक और...आगे से पीछे तक...अच्छी तरह सोचते-समझते हुए चलना होता है क्योंकि पासा पलटने में देर नहीं लगती। सच ही तो कह गए हैँ बड़े-बुज़ुर्ग कि....

"दुर्घटना से देरी भली" और....

 'सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी'

कभी हम नरम रह कर क्रिटिकल सिचुएशनज़ को संभालते हैँ तो  कभी बौखला के गर्म होते हुए अपना काम साधते हैँ।दरअसल!...ये सब हमारे विवेक पर नहीं बल्कि सामने वाले के व्यवहार पर निर्भर करता है...डिपैंड करता है कि हम उसे अपना कौन सा रूप दिखाएँ?"..सरल वाला ठण्डा रूप?...या खौल कर उबाले खाता हुआ रौद्र रूप?

दरअसल पहले तो हम आराम से...प्यार से...मेल-जोल की ही बात करते हैँ और आपसी मनुहार से ही अपना काम निकालने की कोशिश करते हैँ लेकिन जब इस तरह के हमारे सारे प्रयास...सारी कोशिशें  फेल हो जाती हैँ या  विफल कर दी जाती हैँ।तब कोई और चारा ना देख हमें ना चाहते हुए भी कमीनियत पे उतरते हुए टुच्चेपन का सहारा लेना पड़ता है।

आज इस ब्लाग के माध्यम से हम ये 'शपथ-पत्र' भी साथ ही साथ दे देना चाहते हैँ कि... "हम 'बिचौलियों' की पूरी कौम हर प्रकार से भलीभांति स्वस्थ...तन्दुरस्त और हट्टी-कट्टी है"...

"क्या कहा?"...

"विश्वास नहीं है आपको हमारी इस काली ज़बान पर?"...

"अरे!..रोज़ाना ही तो लाखों-करोड़ों के सौदे हमारी इस ज़बान के नाम पर  ही स्वाहा हो इधर-उधर हो जाते हैँ।मतलब कि टूट  कर...बिखर कर छिन्न-भिन्न हो जाते हैँ।दरअसल!...ऐसा तब होता है जब हम अँधाधुँध कमाई के चलते...दारू के साथ-साथ...दौलत के नशे में भी चूर होते हैँ या फिर...बाज़ार में छाई तेज़ी के चलते....आने वाले मंदी के दौर को ठीक से भांप नहीं पाते हैँ।

"क्या कहा?...ज़बान से फिरना गलत बात है"...

"नामर्दानगी की निशानी है ये?...

अरे!...ऐसी हालत में अपनी ज़बान से फिर कर बैकआउट हो जाना ही बेहतर रहता है।अब इसमें कहाँ की समझदारी है?कि...हम इस कलमुँही ज़बान के चलते लाखों-करोड़ों का घाटा बिला वजह सहते फिरें?और ये आप इतनी जल्दी कैसे भूल गए कि आप ही ने तो खुद अपनी मर्ज़ी से ही हमारा नामकरण कर हमें 'बिचौलिए' का नाम दिया है और 'बिचौलिया' माने...बीच वाला याने के!..ना औरत और ना ही मर्द"
तो ऐसी हालत में मर्दानगी का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है ना।"

वैसे एक बात कहूं?...

ये आप जो हम पर कोई ना कोई इलज़ाम लगाते रहते हैँ..थोपते रहते हैँ...वो सब निरे झूठ के पुलिन्दों के अलावा और कुछ नहीं है।अब आप हमें ये जो 'बिचौलिया-बिचौलिया' कह के चिढाते हैँ।तो ये मैँ आपको खुलेआम चैलैंज करता हूँ कि आप हमारे...हमारे बच्चों के जितना मन करे उतने 'एम.आर.आई' और  'डी.एन.ए. टैस्ट' करवा लें।इतने सब से तसल्ली ना हो तो बेशक 'सी.टी.स्कैन' और सौ दो सौ 'रंगी क्सरे' भी खिंचवा के देख लें।अगर हम में या...हमारी नस्ल में कोई कमी-बेसी निकल आए तो बेशक आप अभी के अभी गिरेबान पकड़ हमारा टेंटुआ दबा डालें।हम 'उफ' तक ना करेंगे।और ऐसा दावा हम किसी 'शिलाजीत' युक्त चूर्ण या फिर 'वियाग्रा' के रोज़ाना के सेवन के बल पर नहीं कह रहे हैँ।दरअसल ये सब चीज़ें तो हम ऐसे ही शौकिया इस्तेमाल कर लिया करते हैँ...जस्ट फॉर ए चेंज।

 

एक्चुअली!...ये जो चिंकी...मिंकी...टीना...मीना और नीना हैँ ना?...इस सब उठा-पटक और धींगामुश्ती की इतनी हैबिचुअल हो चुकी हैँ कि इन को बिना एक्स्ट्रा पावर या एक्स्ट्रा डोज़ के सैटिसफॉई करना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन होता है।

"जहाँ तक आपका आरोप है कि...हम मेहनत कर हलाल की खाने के बजाए आराम से बैठे-बैठे हराम की कमाई खाना चाहते हैँ।

तो इसके जवाब में बस यही कहना चाहूँगा कि आपका ये आरोप सरासर गलत और बेबुनियाद  है। दरअसल!...किसी भी देश का कोई भी कानून ये नहीं कहता कि पैसा कमाने के लिए पसीना बहाना ज़रूरी है।और जब बिना कोई काम-धाम किए...बैठे-बैठे सिर्फ ज़बान चलाने से ही हम पर लक्ष्मी मैय्या की फुल्ल-फुल्ल कृपा रहती है तो हम बेफाल्तू में क्यों धकड़पेल कर बावले होते फिरें?

अब अगर ऊपरवाले ने!...हमसे प्रसन्न हो हमें ये तेज़ कैंची के माफिक कचर-कचर करती जिव्हा रूपी नेमत बक्शी है तो क्यों ना इससे भरपूर फायदा उठाया जाए?और ये आपसे किस गधे ने कह दिया कि दलाली करना गलत बात है?...पाप है?

सही मायने हमसे हमसे बड़ा और हमसे सच्चा देशभग्त आपको पूरे हिन्दोस्तान में नहीं मिलेगा।

"क्यों ज़ोर का झटका धीरे से लगा ना?"...

अरे!...हाथ कँगन को आरसी क्या और पढे-लिखे को फारसी क्या?"....

एक्चुअली!...आजकल की पढी-लिखी जमात को भी फारसी पढनी नहीं आती है लेकिन मुहावरा तो मुहावरा होता है...मुँह में आ गया तो बोल दिया।...

खैर!...आप खुद ही देख लें कि कैसे हमने एक मिमियाते हुए शासक को गरज कर बरसना सिखाते हुए अपने देश को गंभीर संकट और खर्चे से बचाया।

अब आप कहेंगे कि..."

"कैसा शेर?"...

"कैसा मिमियाना?"और...

" कैसा खर्चा?"...

"अब ये जो अपने मनमोहिनी सूरत वाले 'मनमोहन सिंह' जी हैँ...वो सोनिया जी के सामने मिमियाते ही हैँ ना?"

अब आप खुद अपने दिल पे हाथ रख के बताएँ कि अच्छी-भली मिमिया कर चलती 'मनमोहन सरकार' से समर्थन वापिस ले उसे गिराने की साजिश रच क्या वामपंथियों ने सही किया?

"नहीं ना?"...

 

"सुनो!...वो पागल के बच्चे किसे प्रधानमंत्री बनाने चले थे?

 

अपनी हाथी वाली बहन जी को...और हिमाकत देखो कि कुल जमा तेरह सांसदों के बल पर  वो देश की कमान संभाल उसकी प्रधानी करने के ख्वाब पालने लगी थी।...

सोचो..सोचो!...सोचने में कौन सा टैक्स लग रहा है?

लेकिन क्या चंद मच्छरों के किसी कटखनी मक्खी के साथ मिलकर छींकने से कभी छींका फूटा है जो अब फूटेगा?... 

हाँ!...लेकिन एक बात तो माननी पड़े इन बहन जी की कि इन्हें टैक्स वालों को बरगला बेनामी संपत्ति को दान में...गिफ्ट में मिली संपत्ति बता नामी बनाना अच्छी तरह आता है।

 

खैर !...जैसे ही हम में से एक को पता चला कि कलयुग में ऐसा घोर अनर्थ होने जा रहा है...तुरंत सक्रिय हो पहुँच गए मुलायम रूपी संजीवनी अमरबेल ले कर कि...

"बाल ना बांका कर सकेगा जो वामपंथ बैरी होय"...

"जाको राखे साईयाँ...मार सकै ना कोय"

"बस आते ही उन्होंने इसको...उसको...सबको संभालने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और जोर-शोर से जोड़-तोड़ की मुहिम में जुट गए।नतीजा आपके सामने है...जीजान की मेहनत और तिकड़मबाजी ने सही में बिना 'नवजोत सिंह सिद्धू'(भाजपा) के ये सिद्ध कर दिखाया कि "सिंह इज़ किंग"

अब आप कहेंगे कि..."इस सब जोड़-जुगाड़ से फायदा क्या हुआ?"...

"वो तमाम छोटे-बड़े  टीवी चैनलों पर जो खचाखच भरे सभा मंडप में बार-बार हज़ार-हज़ार के नोटों की गड्डियाँ गड्डमड्ड होती दीख रही थी...उसका क्या?"

"अब क्या बताऊँ?"...

"हमने तो अच्छी तरह से जाँच-परख सिर्फ और सिर्फ असली 'अरबी नस्ल के घोड़ों पर ही चारा फैंका था और उन्हें रिझाने में हम काफी हद तक कामयाब भी हुए थे लेकिन क्या पता था कि घोड़ों की इस भीड़ में तीन 'बहरुपिए गधे' भी धोखे से शामिल हो गए थे?जो चुपचाप मस्त हो चारा चबाने के बजाए बिना किसी परमिशन और इज़ाज़त के शोर मचाते हुए सरेआम हज़ार-हज़ार के नोटों की गड्डियों को लहरा रेंकने लगे।

"हद होती है नासमझी की भी"...

"स्सालों को!...हीरो बनने का चाव चढा हुआ था।अरे!...ये कोई फिल्लम नहीं जो यहाँ नायक ही जीतेगा ये कलयुग है कलयुग...यहाँ पाप की...अन्याय की हम जैसे बिचौलियों के माध्यम से जीत होती है।

"कुछ नहीं बिगाड़ पाओगे तुम हमारा"..

"देखा नहीं?कि हमारा अमरत्व प्राप्त चेला कैसे साफ मुकर गया मीडिया के तमाम फ्लैश मारते कैमरों के सामने और खुला चैलैंज दे डाला कि...

"अगर कोई भी आरोप साबित हो जाता है तो वह सार्वजनिक जीवन जीना छोड़ देगा"..

पहली बात तो ऐसी नौबत आएगी ही  नहीं और अगर कभी भूले-भटके आ भी गई तो उसमें इतने साल लग चुके होंगे कि किसी को कुछ याद नहीं रहना है।यू नो!...पब्लिक की यादाश्त बहुत कमज़ोर होती है।यहाँ गंभीर से गंभीर मुद्दा भी दो या चार महीने से ज़्यादा ज़िन्दा नहीं रहता।अब आप खुद ही देख लो ना कि....

"किसे याद है आग उगलते हुए 'तंदूर काण्ड' की?...या फिर....

"किसे याद है नरसिम्हाँ राव के नोट भरे सूटकेस की?"...

"किसे याद है बाल-कंकालों से लबालब भरे 'निठारी काण्ड' की?"या....

"किसे याद है हाँफ-हाँफ नाक में दम करता हुआ भोपाल का गैस काण्ड?"...

सच्चाई ये है मेरे दोस्त!...कि ये सारे काण्ड तो कब के पब्लिक की समृति से विलुप्त हो भ्रष्टाचार रूपी विशाल हवन कुण्ड की पवित्र और पावन अग्नि में स्वाहा हो गए और बाकियों की तरह इस घोटाले ने भी शांत हो जाना है और बस सबके दिल ओ दिमाग में बस यही याद रहना है कि.....  

"सिंह इज़ किंग"..."सिंह इज़ किंग"... "सिंह इज़ किंग"... "सिंह इज़ किंग

singh is king.....  .... .........

 

"बिचौलिया एकता".....

"ज़िन्दाबाद...ज़िन्दाबाद"...

"बिचौलिया एकता अमर रहे"...

"जय हिन्द"...

"भारत माता की जय"

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

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व्यथा-एक कहानी चोर की

***राजीव तनेजा***

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हाँ!..मैँ चोर हूँ..एक कहानी चोर।अपने बिज़ी शैड्यूल के चलते इतना वक्त नहीं है मेरे पास कि मैँ आप जैसे वेल्लों के माफिक बैठ के रात-रात भर कहानियाँ या आर्टिकल लिखता फिरूँ।इसलिए अगर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए मैँने कॉपी-पेस्ट का सिम्पल और सीधा-सरल रास्ता अख्तियार  कर लिया तो कौन सा गुनाह किया? फॉर यूअर काईन्ड इंफार्मेशन!...मैँ सिर्फ उन्हीं लेखों और कहानियों को चुराता हूँ जो मुझे...मेरे दिल को अन्दर तक...भीतर तक छू जाती हैँ।वही कहानियाँ...वही लेख मेरा ध्यान अपनी तरफ खींच मुझे अट्रैक्ट करते हैँ जो मेरी भावनाओं के...मेरे दिल के बेहद करीब होते हैँ।यूँ समझ लो कि ऐसी कहानी या फिर ऐसे लेख को चुराते वक्त मुझे अर्जुन की तरह मछली की आँख के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देता जैसे… लेखक का नाम...उसके ब्लाग का नाम...उसकी साईट का पता वैगरा वगैरा...इसलिए बस झट से अपने मतलब का आर्टिकल कापी करता हूँ और उसे फट से अपने ब्लाग या फिर अपनी साईट पे पेस्ट कर डालता हूँ।
"क्या कहा?"...
"हमें किसी का डर नहीं है?"...
"हाँ सच!..सच कहा आपने हमें किसी का डर नहीं है।कौन सा हमें इस जुर्म में फाँसी लग जाएगी जो हम खाम्ख्वाह डरते रहें?.. भयभीत होते रहे?  
अरे!...हमारे देश का कानून ही इतना लचर है कि यहाँ कत्ल से लेकर ब्लात्कार करने वाले सभी खुलेआम ...सरेआम घूमते रहते हैँ और कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर पाता है।और...यहाँ तो हमने किया ही क्या है?...कौन सा हमने कोई बैंक लूटा है या फिर कोई डकैती डाली है?...
thief yellow
हाँ!…हम जानते हैँ कि कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता है या बिगाड़ पाएगा लेकिन फिर भी इतने बेवाकूफ नहीं हैँ हम कि अपने हर जुर्म..हर गुनाह के पीछे सुराग छोड़ते चले जाएँ।पहली बात तो हम अपने असली नाम..असली पते का प्रयोग ही नहीं करते हैँ।अब ऐसी हालत में आप अपनी जी भर कोशिश करने के बाद भी हमारा क्या उखाड़ लेंगे?दूसरे हम छद्म नाम...छद्म आई.डी इस्तेमाल करते हैँ।हाँ!...एक खतरा तो रहता ही है हमें इस सब में कहीं कोई हमारे 'आई.पी अड्रैस' के जरिए हम तक ना पहुँच जाए।इसलिए हमें मजबूरन एक नहीं बल्कि अलग-जगह से अलग-अलग कम्प्यूटरों के इस्तेमाल से अपना ब्लाग....अपनी साईट चलानी पड़ती है जो कि यकीनन काफी खर्चीला साबित होता है लेकिन नेम और फेम की इस गेम में हम इस तरह के छोटे-मोटे खर्चों की परवाह नहीं करते। कल को नाम हो जाएगा तो कमी तो अपने आप होने ही लगेगी| क्यों?…सही कहा ना मैंने?
आप क्या सोचते हैँ कि हमने झट से यूँ चुटकी बजाते हुए ये सब कह दिया तो ये आसान काम हो गया?अरे!...सुबह से लेकर शाम तक...आगे से लेकर पीछे तक और...ऊपर से लेकर नीचे तक बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैँ...बहुत सोचना पड़ता है कि इस सब में..कहीं हम खुद अपनी किसी छोटी या फिर बड़ी गलती के चलते फँस ना जाएँ।हमेशा दिल में धुक्कधुक्की सी बजती रहती है कि किसी को हमारी कारस्तानी...हमारी शरारत का पता तो नही चल जाएगा?और वैसे पता चल भी जाए तो बेशक चल जाए...  हमारे ठेंगे से ...हमें कोई परवाह नहीं।हमारी तरफ से ये खुला चैलैंज ..ओपन ऑफर है हर किसी खास औ आम के लिए कि जिस किसी भी माई के लाल में दम हो और जो कोई हमारा कुछ बिगाड़ना चाहे वो बेशक!...बिना किसी शर्म के बेखटके बिगाड़ ले।
क्या कहा?...सब बकवास है ये?
अरे!..कब तक यूँ आँखें मूंद हमारे वजूद को नकारोगे रहोगे तुम?..है हिम्मत तो खत्म कर के दिखाओ हमें। हम में  से एक को मिटाओगे तो दस और रावण….सर उठा शेषनाग की भांति फन फैला..सीना तान सामने खड़े हो जाएँगे।किस-किस के फन को  कुचलोगे तुम?…किस-किस के नापाक दंश को झेलोगे तुम?… किस-किस को पकड़वाओगे तुम...किस-किस की पोल खोलोगे तुम?"
और हाँ!..अब जब बहस शुरू हो ही गई है तो लगे हाथ मैँ एक और बात साफ करता चलूँ कि ना मैँ कोई बिल्ली हूँ और ना ही चार पैरों पे चलने वाला कोई अन्य चौपाया।इसलिए बेहतर यही होगा कि आप ये मुझे बच्चों की तरह 'कॉपी कैट'... 'कॉपी कैट' कह पुकारना छोड़ें और अपने मतलब से मतलब रखें।
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और अगर सही लगे तो मेरा कहना मान आप किसी भी तरह की गलतफहमी या मुगाल्ते को अपने दिल में ना पालें कि आपके रूठ जाने या आपके नाराज़ होने से  हम अपनी करनी छोड़...महात्मा बनते हुए सुधर जाएँगे? अगर फिर भी आप अपनी इस बेहूदी सोच के चलते ऐसा कुछ उल्टा-पुल्टा सोचने भी जा रहे हैँ तो अभी के अभी...यहीं के यहीं अपने बढते कदमों को थाम..इसी क्षण रुक जाएँ क्योंकि पहली बात तो ये कि खुली आँखो से ख्वाब नहीं देखे जाते और जाने-अनजाने..भूले-भटके कभी देख-दाख भी लिए जाते हैँ तो वो कभी हकीकत का जामा पहन असलियत नहीं बन पाते हैँ।वो कहते हैँ ना कि रस्सी जल जाती है लेकिन उसकी ऐंठन..उसके बल नहीं जाते हैँ|
क्या आपने कभी किसी कुत्ते की पूँछ को सीधे होते देखा है?
नहीं ना?
अगर मेरी बातों से...मेरे विचारों से आपको तनिक भी सच्चाई का आभास होता है तो आप मेरी बात मानें और ऐसे बेतुके...बेसिरपैर के विचारों को अपने दिल में जगह दे उन्हें अपना स्थाई घरौंदा ना बनाने दें।आप कह रहे हैँ कि हम आपका हक छीन अपनी झोली भरने की सोच रहे हैँ..तो आपकी सोच एकदम सही एवं सटीक दिशा की ओर अग्रसर होने में अपनी तरफ से कोई कसर …कोई कोशिश बाकी नहीं रख रही है और वैसे भी इसमें गलत ही क्या है?  कामयाबी हासिल करने का सबसे पहला और सबसे गूढ मंत्र भी तो शायद यही है ना कि...
  •  तुम्हारे रास्ते में जो भी आए...जैसा भी आए उसे रौँदते हुए कुचल कर बेपरवाह आगे बढते चलो?"..
और यही गूढ महामंत्र हमें हमारे गुरू ने लुच्चापन सिखाते वक्त कहा था कि…
  •  एक ना एक दिन मंज़िल तुम्हारे करीब होगी और तुम लिक्खाड़ों के बादशाह ही नहीं अपितु शहंशाह बनोगे...आमीन
और हाँ!..अब जब हमारी-आपकी दोस्ती हो ही गई है…तो इसमें अब लुकाव कैसा?…छुपाव कैसा?…इसलिए मैँ अब आपको खुला आमंत्रण देता हूँ कि आप जब चाहे...जितने बजे चाहें...दिन में या रात में कभी भी अपनी इच्छानुसार मेरे ब्लॉग पर आ…..सजदे में अदब से अपना सर झुका विनीत भाव से मत्था टेक सकते हैँ। भूलिएगा नहीं…आईएगा ज़रूर...मुझे आपका और आपकी विनम्र टिप्पणियों का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।
ब्लॉग पर आने के बाद
अब जैसा कि मेरे ब्लॉग पर आने के बाद ..और उसे ध्यानपूर्वक टटोलने-खंगालने  के बाद  आप सभी ने ये अच्छी तरह जान-बूझ और समझ लिया है कि साहित्य में मेरी कितनी रुचि है?...कितना इंटरैस्ट है? हाँ!...ये सही है कि आप ही की तरह मुझे भी अच्छे लगते हैँ ये किस्से...ये कहानियाँ और मैँ भी कुछ मौलिक ..कुछ क्रिएटिव...कुछ अलग सा लिख आप सभी के दिलों पे धाक जमाते हुए अपने काम की अनूठी छाप छोड़ना चाहता हूँ लेकिन क्या ये जायज़ होगा?.. कि काम-धन्धे से थके-मांदे घर लौटने के बाद हम अपने बीवी-बच्चों से प्यार भरी..शरारत भरी अटखेलियाँ करने के बजाय इस मुय्ये कम्प्यूटर में आँखे गड़ा अपने काले-काले  मृग नयनी डेल्लों(आँखों) को सुजाते फिरें?
आपका कहना सही है कि हमें हिन्दी भाषा के उत्थान के लिए कुछ ना कुछ समय तो ज़रूर ही देना चाहिए।लेकिन दोस्त!...ऊपर  हाई-लाईट किए गए सभी गैर ज़रूरी कामों से निबटने के बाद जो रहा-सहा थोड़ा-बहुत टाईम बचता भी है तो मेरी लाख कोशिशों के बावजूद ये मुय्या  टी.वी का बच्चा मेरे ध्यान को अपने अलावा कहीं और...इधर-उधर पल भर के लिए भी भटकने नहीं देता।कई बार...कई मर्तबा इस इडियट बाक्स को समझा-बुझा कर भी देख लिया और रिकवैस्ट कर के भी थक लिया कि….
“कम्बख्त!...अब तो जाने दे और मुझे  कुछ अच्छा सा...सटीक सा लिखने-लिखाने दे।...समझा कर!...मान ले मेरी बात...वर्ना..लोग क्या कहेंगे?"
लेकिन कैसे बताऊँ आपको  अपने हाल-ए-दिल की व्यथा कि ये पागल का बच्चा ठीक उसी वक्त कभी ‘बिपाशा' ...तो कभी उस कलमुंही ‘कैटरीना’ के ठुमके लगवा मेरे एकाग्र होते हुए चित्त को भंग करने में कोई कसर...कोई कमी नहीं छोड़ता है।
अब जहाँ एक तरफ 'विश्वामित्र' सरीखा दिग्गज साधु भी ‘मेनका’  की मनमोहिनी अदाओं के  मोहपाश से ना बच सका और कामवासना के चलते अपनी तपस्या भंग कर पाप का भागीदार बन बैठा।वहीं दूसरी तरफ मैँ तो खुद एक मामुली सा..तुच्छ सा...अदना सा प्राणी हूँ।मेरी क्या बिसात?...कि मैँ इन तमाम कलयुगी अप्सराओं के रूप सौन्दर्य को अनदेखा कर उनके सभी जायज़-नाजायज़ प्रयासों को असफल बना...धत्ता बता चुपचाप आगे बढ जाऊँ?
अब ऐसे में सब कुछ जाने-समझने के बाद आपका …हमारे गिरेबान को पकड़ हमें कोसने से बेहतर यही रहेगा कि आप हमारे समाज से इस 'टी.वी' रूपी विष बेल को ही जड़ उखाड़ फैंके।ससुरी..बहुत दिमाग खराब करत रही|
क्या हक बनता है किसी चैनल वाले का कि वो ऐसे-ऐसे गर्मागरम...सड़ते-बलते म्यूज़िक विडियो परोस हमारा धर्म...हमारा ईमान बिगाड़ें?
अब तक आप मेरी दशा-मनोदशा समझ ही गए होंगे।अब ऐसे कठिन हालात में हम लाख चाहने और लाख कोशिशें करने के बावजूद  कुछ मौलिक ...कुछ ओरिजिनल लिखने के लिए वक्त नहीं निकाल पाते तो इसमें हमारा  क्या कसूर? और हाँ!…आपका ये कहना सरासर झूठ और फरेब के अलावा कुछ नहीं है कि हम में अच्छा लिखने की इच्छा शक्ति नहीं है या फिर हम कुछ रुचिकर लिखना  ही नहीं चाहते हैँ। वो कहते हैँ ना कि सावन के अँधे को हर तरफ हरा ही हरा नज़र आता है।इसी तरह आप सभी महान गुणी जनों को हम में सिर्फ कमियाँ ही कमियाँ दिखाई देती हैँ।आपके इन आरोपों में रत्ती भर भी सच्चाई नहीं है बल्कि सीधी...सरल और सच्ची बात तो ये है कि हम हक-हलाल की खाने के बजाए आराम से घर बैठे-बैठे हराम की कमाई डकारने में ज़्यादा विश्वास रखते हैँ।
आप कहते हैँ कि हम समाज के नाम पर कलंक हैँ....धब्बा हैँ लेकिन यहाँ मैँ आपकी बात से कतई सहमत नहीं ।जितना नुकसान हम आपकी कहानियों को...आपके लेखो को चुरा कर कर रहे हैँ...उससे कहीं ज़्यादा नुकसान तो आप इन कहानियों  और लेखों  को लिख कर कर रहे हैँ इस देश का…इस समाज का|
क्यों झटका लगा ना?...खा गए ना चक्कर?…
जानता हूँ...जानता हूँ अच्छी तरह जानता हूँ कि सच अक्सर कड़वा होता है और आप मेरी लाख कोशिशों के बाद भी इस पर विश्वास नहीं करेंगे लेकिन क्या सिर्फ आप भर के विश्वास ना करने से सच...सच नहीं रहेगा?...झूठ हो जाएगा?...
अगर आप में सच सुनने की हिम्मत नहीं है तो बेशक अपने कान बन्द कर लें और अगर सच देखना नहीं चाहते हैँ तो बिना किसी भी प्रकार की कोई देरी किए  तुरंत प्रभाव से अपनी आँखे भी बन्द कर लें।...

उफ्फ!…कितने ढीठ हैं आप कि अभी भी मानने को तैयार नहीं?...क्या आपको इल्म भी है कि आपकी इस दिन रात की बेकार की  टकाटक से....
  • कितना साऊँड पाल्यूशन होता है?..
  • कितने कीबोर्ड और माऊस टूटते हैँ?...
  • कितनों की नींदे खराब होती हैँ? और...
  • असमय जाग जाने के कारण कितनों के सपने धराशायी हो…वास्तविकता के धरातल पे पलक झपकते ही टूटते हैँ?"....
आपके इस कहानियाँ और लेखों को लिखने...लिखते चले जाने के ज़ुनून की कारण  ही आज भारत  जैसे स्वाभिमानी देश को  अमेरिका जैसे घमंडी और नकचढे देश का पिछलग्गू बन उसके आगे अपनी झोली फैलानी पड़ रही है।अफसोस!...क्या आपके दिल में स्वाभिमान नाम की कोई चीज़ नहीं है?...या कोई यूँ ही कोई आपके देश की अखंडता के साथ…उसकी अस्मिता के साथ खिलवाड़ करता फिरे...आपको कोई फर्क नहीं पड़ता?
क्या कहा?...
विश्वास नहीं हो रहा आपको मेरी बात का?…
बड़े अचरज की बात है कि आप जैसे इतने पढे-लिखे और ज़हीन इनसान भी इतनी छोटी और कमज़ोर टाईप की समझदानी लिए बैठे हैँ…कभी सोचा ना ।इसलिए…हाँ…इसीलिए मैँ हर किसी नए-पुराने लेखक से ये कहता फिरता हूँ कि…
“यूँ रात-रात भर जाग-जाग कर कीबोर्ड के साथ ये बेसिरपैर की उठापटक अच्छी नहीं”
ओह!…रह गए ना फिसड्डी के फिसड्डी..पल्ले नहीं पडी ना बात?
खैर छोड़ो!...मैँ ही समझा देता हूँ आप जैसे महान लिक्खाड़ों को कि ..दूधिया ट्यूब लाईटों और बल्बों की चटखदार रौशनी में आप जैसों की लेखनी के रात-रात भर चलने से आज हमारा देश गंभीर ऊर्जा संकट का सामना कर रहा है।खेतों  को...फैक्ट्रियों को प्रचुर मात्रा में बिजली नहीं मिल रही है…पानी नहीं मिल रहा है…
“क्या कहा?”…
“बिजली की बात तो समझ में आ गई लेकिन पानी की बात…
?…?…?…?…
सर के ऊपर से निकल गई?
सदके जाऊँ तुम्हारे इस मोटे दिमाग के
हद हो गई है यार अब तो..आप लोगों के..जी हाँ!…आप लोगों के ही दिन-रात लिखते..लिखते रहने से देश की ऊर्जा याने के बिजली के काफी बड़े हिस्से का अपव्यय हो रहा है …क्षय हो रहा है और आप हैं कि आपको कोई खबर ही नहीं?…कोई इल्म ही नहीं? आप ही के इन अनैतिक कृत्यों की वजह से आज पूरे देश को शर्मसार होना पड़ रहा है| आप ही के घृणित एवं नाजायज़ कारनामों की वजह से आज कृषि-प्रधान देश होते हुए भी हम अन्न के मामले में  आत्मनिर्भर होने के बजाए दाने-दाने को मोहताज हुए बैठे हैँ। अरे भाई!…जब खेतों को परचुर मात्र में बिजली नहीं मिलेगी…तो पानी कहाँ से मिलेगा? और पानी नहीं मिलेगा तो खेत में उगाएंगे क्या?…
“कद्दू?”…
बिजली की कमी के चलते सभी तरह के उत्पादन कार्य...विकास कार्य ठप्प हुए पड़े हैँ।कल-कारखानों को एक के बाद एक ताले लगते जा रहे हैँ।जिसकी वजह से हमारे देश में बेरोज़गारी जैसी अत्याधिक गंभीर समस्या भी सिर उठाए खड़ी है ।आज ऊर्जा की कमी के चलते हमें ना चाहते हुए भी मजबूरन रशिया का साथ छोड़ अमेरिका का हाथ थाम उसके साथ परमाणु समझौता करना पड़ रहा है।
अब आप कहने को ये भी कह सकते हैँ कि..."ये समझौता तो हमारे देश के लिए हितकारी है...फायदेमन्द है"...
चलो!...मानी आपकी बात कि इस सौदे के बाद से हमें यूरेनियम की प्रयाप्त सप्लाई होगी जिससे देश में बिजली की कोई कमी नहीं रहेगी लेकिन ये भी तो देखें आप कि इस समझौते के बाद से हमारे हर काम पर निगरानी रखने का अधिकार मिल जएगा चन्द मगरूर...मगर अकड़बाज देशों को। 
"अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है ...समय रहते चेत जाओ और ओरिजिनल और मौलिक लिखने के बजाए हमारी तरह कॉपी-पेस्ट की सरल और सुलभ तकनीक को अपनाते हुए देश को संकट और मुसीबत से बचा आत्मनिर्भर एवं सबल बनाओ।
तो आओ दोस्तो!...हम सब इस लिखने-लिखाने की बेकार की माथापच्ची को छोड़ …दूर कहीं शांति से पहाड़ियों की रमणीय गुफाओं और कंदराओं में ये गीत गाते हुए कि…
“आ जा गुफाओं में आ…..आ जा गुफाओं में आ"….एकांत जीवन बिताएँ और मिल के ये शपथ लें कि... "आज से..अब से  कोई मौलिक कहानी नहीं ...कोई ओरिजिनल लेख नहीं"..
आखिर!..देश का...देश की अस्मिता का…अखंडता का सवाल जो ठहरा।
"जय हिन्द"....
"इंकलाब ज़िन्दाबाद"...
"ज़िन्दाबाद...ज़िन्दाबाद"...
"भारत माता की जय"
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
Delhi(India)
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"व्यथा-चालू चिड़िया की"

"व्यथा-चालू चिड़िया की"

***राजीव तनेजा***

"लो कर लो बात..पहले तो आप खुद ही मुझे इस कोर्ट-कचहरी के झमेले में घसीट लाए और अब आपको ही डर लग रहा है कि माननीय अदालत में जज साहिबा के एक महिला होने के कारण आपके साथ इंसाफ नहीं होगा"...
"चलो!...मानी आपकी बात कि कभी-कभी हमदर्दी  या फिर जाति भेद के चलते माननीय न्यायधीशों से कुछ गल्तियाँ भी हो जाती हैँ लेकिन ऐसी अनोखी और विरली घटनाएँ तो यदा-कदा सावन के महीने में ही घटा करती हैँ"
"बाकि ज़्यादातर केसों में तो पैसो का लँबा-चौड़ा हेर-फेर ही इस सब के पीछे असली कारण..असली वजह होता है"
"क्या कहा?...आपको विश्वास नहीं है हमारी न्याय प्रणाली पर और आपको शुबह है कि फैसला आपके हक में नहीं बल्कि मेरे हक में होगा?"
"अगर यही सब सोच के पहले ही अदालत के बाहर फैसला कर लिया होता तो आज आपको यूँ शर्मिन्दा हो सर तो ना झुकाना पड़ता"...
"ठीक है!...अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है...इस केस-कास के चक्कर को रहने ही देते हैँ"...
"आप भी क्या याद करेंगे कि सुबह-सुबह किसी दिलदार से पाला पड़ा है"..
"चलो!...हम कोर्ट के बजाय यहीं...बाहर...खुले में ही बैठ के आराम से......इत्मीनान से अपने सारे विवाद...सारे फसाद  सुलझा लेते हैँ"...
"वैसे भी हम लड़कियाँ!...नफरत और दुश्मनी में नहीं बल्कि प्यार और मोहब्बत में यकीन करती हैँ"...
"ऊपरवाले ने इस सब का सन्देश देने के लिए ही हमें इस निष्ठुर धरती पे भेजा है"...
"वैसे ये और बात है कि ज़्यादातर झगड़े...ज़्यादातर फसाद भी हमारी ही वजह से होते हैँ"...
"खैर!...अपवाद कहाँ नहीं है?...इन्हें छोड़ असल मुद्दे पे आते हुए हम काम की बात करते हैँ"...
"लो!...चलो मैँने तो सब कुछ आप पर ही छोड़ दिया....आप खुद शिकायतकर्ता...आप ही मुवक्किल...और खुद आप  ही माननीय दण्डाधिकारी"....
"अब खुश?"...
"मेरे ख्याल से यही ठीक भी रहेगा"...
"तो फिर शुरू करें मुकदमा?"....
"ओ.के".…
  • "तो आपका पहला इलज़ाम हम लड़कियों पर ये है कि हम लड़कों के भोलेपन का फायदा उठा ...उन्हें पागल बना...अपना उल्लू सीधा करती हैँ"
"एक मिनट!...बीच में टोकने के लिए मॉफी चाहूँगी लेकिन ये आपसे किस गधे ने कह दिया कि उल्लू टेढा होता है?...ध्यान से देखा जाए तो सही मायने में टेढा तो 'कुरकुरे' होता है"....
"सभी टुकड़े टेढे...एकदम टेढे ना निकलें तो बेशक मेरा नाम 'चालू चिड़िया' से बदल के 'चालू' कबूतरी' रख देना"...
"मैँ!...उफ तक ना करूँगी"...
"और हाँ...याद आया!...पहले तो आप मुझे साफ-साफ ..एकदम क्लीयर शब्दों में समझाएँ कि ये 'चालू चिड़िया' आखिर होती क्या है?"...
"हद है आप लोग भी"....
"अच्छी भली दो-दो सुरमई...काजल भरी...कजरारी आँखों के होते हुए भी दिन-दहाड़े जानबूझ कर अँधे बने बैठे हैँ"..."
"मज़ा आता है ना आपको इस सब में?
"सच-सच बताएँ कि क्या आपने मुझे कभी पँख फैला उड़ते देखा है?"...
"नहीं ना?"...
"तो फिर मैँ चिड़िया कैसे हो गई?"...
"क्या आपने मुझे मोटर की तरह ढुर्र ढुर्र कर के कभी 'चालू' ...तो कभी ढ़ुप्प ढ़ुप्प कर के बन्द होते हुए देखा है?"...
"नहीं ना?"...
"क्या मेरे ये दोनों हाथ.....हाथ नहीं...पँख हैँ?"...
"नहीं ना?"...
"मेरे तीनों ही सवालों के जवाब में आपने नकारत्मक उत्तर दिया है"..
"नहीं!...किसी और सफाई की ज़रूरत नहीं है"....
"आप खुद ही अपने दिमाग पे ज़ोर डाल उसे अच्छी तरह झकझकोरें और  मुझे ये साफ-साफ बताएँ कि किस कोण या ऐंगल से मैँ आपको कोई पँछी या जानवर दिखती हूँ?"....
"क्या हुआ?"...
"बोलती क्यूँ बन्द हो गई?"...
"अगर कोई जवाब नहीं है आपके पास मेरी बात का तो फिर ऐसे ही...बेफाल्तू में क्या किसी अबला का ...किसी बेसहारा नारी का यूँ अपमान करना आपको शोभा देता है?"...
"मैँ भी आप ही की तरह जीती-जागती ज़िन्दा इनसान हूँ कोई खिलौना नहीं कि जब जी चाहा खेल लिया और जब जी चाहा  पलट के मुँह फेर लिया"
"क्या यही सिखाया है?...आपको आपके सभ्य होते समाज ने कि किसी असहाय अबला...किसी निर्बल नारी का यूँ ही  मज़ाक उड़ा उसे 'चालू चिड़िया...चालू चिड़िया' कह सरेआम अपमानित करो"
"वो भी बिना किसी ठोस कारण या वजह के"
"प्लीज़!...एक रिकवैस्ट है मेरी आपसे कि आप मुझे या तो 'चालू' कह लें या फिर सिर्फ 'चिड़िया' ही कह कर पुकार लें"...
"एक साथ दो-दो तोहमतों के बोझ को मैँ अकेली अबला नारी झेल नहीं पाऊँगी और दुखी हो टूट जाऊँगी...बिखर जाऊँगी"...
"अगर आप मेरी इस विनती को स्वीकारें तो ठीक और ना स्वीकारें  तो भी ठीक"...
"मुझे परवाह नहीं"...
"दरअसल में मैँ खुद अपने ऊपर लगे हुए इस लेबल को...इस ठप्पे को भरपूर एंजाय करती हूँ और इसे पसन्द भी करती हूँ"...
"लेकिन वो कहते हैँ ना कि लाज और शर्म औरत का गहना होता है...इसलिए मैँ आपसे इतना सब कहने का ड्रामा कर रही थी"...
"समझे कि नहीं?"..
"चलो!..मैँ आप पर ही छोड़ती हूँ"...
"अब आप ही बताओ कि क्या निस्वार्थ भाव से किसी का मनोरंजन कर उसे खुश करना ..प्रसन्न रखना गुनाह है?...पाप है?"
"अगर ये सब गुनाह है...पाप है तो हम 'चालू लड़कियाँ' प्रण लेती हैँ कि ये गुनाह..ये पाप हम हर रोज़ करेंगी...बार बार करेंगी"
"है आप में हिम्मत तो हमें रोक के दिखाओ"...
"चैलैंज है मेरा कि कुछ नहीं बिगाड़ पाओगे तुम हमारा  क्योंकि मशहूर शायर 'गालिब' की 'चची जान' भी तो कह गई हैँ कि ...

"हम को मिटा सके...ये लड़कों में दम नहीं"...
"लड़के हम से हैँ.....हम लड़कों से नहीं"
"अरे!...हमें रोकने से....हमें मिटाने से पहले ही आप में से ही बहुत से लोग पाला बदल हमारी तरफ...हमारे फेवर में...हमारा साथ देने को आ खड़े होंगे"
"यकीन नहीं है तो बेशक!...आज़मा के देख लो"...
"कोशिश कर के देख ले....नदियाँ सारी...पर्वत सारे"ड्रामैटिकल अंदाज़ मे एक दूजे के लिए फिल्म का गीत गाते हुए
"बेशक हमारे पँख नहीं है और हम खुले आसमान में ऊँचा उड़ नहीं सकती हैँ"...
"ऐक्चुअली हम ऊँचा क्या?...हम तो बिलकुल ही नहीं उड़ सकती हैँ लेकिन अब 'ऊँचा उड़ना' मुहावरा बन गया तो बन गया"...
"इसमें आप या मैँ भला कर ही क्या सकते हैँ?...लेकिन भगवान को हाज़िर-नाज़िर मान कर मैँ इतना ज़रूर कहना चाहूँगी कि शुरू से ही हम में ऊँची..बहुत ऊँची उड़ान उड़ने की तमन्ना रहा करती थी""
"बेशक!...हमारे पँख नहीं है"...
"तो क्या हुआ?...कोई ज़रूरी तो नहीं कि ऊँची उड़ान उड़ने के लिए पँख लाज़मी हों"...
"क्या बिल गेट्स या अंबानियों को या फिर टाटा-बिड़ला के पँख है?"...
"नहीं ना?"...
"लेकिन फिर भी देखो कितनी ऊँची उड़ान उड़े चले जा रहे हैँ"...
"अब इस लक्ष्मी मित्तल को ही लो...विदेश में रहते हुए भी इसने भारत के नाम का डंका पूरे विश्व भर में बजा दिया"...
"विश्व का सबसे बड़ा...सबसे आलीशान बँगला भी तो इसी के नाम है"...
  • आपका एक आरोप ये भी है कि हम जींस ...कैपरी ..स्कर्ट और बदन दिखाऊ कपड़े पहनती हैँ और बिना बात  लड़कों से खिलखिला कर हँसती-बोलती हैँ?"...
"तो.... आखिर! आपको इसमें दिक्कत ही क्या है?"....
"हमारा बदन है....हम चाहे इसका जो भी करें"...
"हमारी मर्ज़ी...हम कुछ पहनें या ना पहनें"
"इसमें आपको क्या तकलीफ?"...
"फॉर यूअर काईंड इंफॉरमेशन!..जिन कपड़ों में हम खुद को कंम्फर्टेबल फील करती हैँ...वही पहनती हैँ"...
"और वैसे भी ये कौन सी पोथी या ग्रंथ में लिखा है कि लड़कों के साथ  हँसी-मज़ाक करना गुनाह है....पाप है?"...
"या कानून की ही कौन सी धारा हमें तंग कपड़े पहनने-ओढने से प्रतिबन्धित करती है?"...
"आप अपना रोना रोते हो लेकिन कोई ये नहीं देखता कि हम जिस किसी से थोड़ा-बहुत खुल के हँस-बोल लेती हैँ...
मुस्कुरा के घड़ी दो घड़ी बात कर लेती है...वही हमें अपनी अपनी प्रापर्टी...अपनी जायदाद समझ हम पर हुकुम चलाना शुरू कर देता है"...
"इसीलिए पूरी सावधानी और एतिहात बरतते हुए हम इस बात का पूरा ध्यान रखती हैँ कि हम किसी से दो-चार महीने से ज़्यादा कांटैक्ट में ना रहें"..
"क्योंकि यू नो!...हम भी इनसान हैँ और हमारे भी कुछ जज़बात होते हैँ"...
"लेकिन मनी मैटर्ज़ फर्स्ट"...
"इसलिए हमें जानबूझ कर ऐसी बातों को इगनोर करना पड़ता है"...
  • आप हमारे ऊपर एक और इलज़ाम लगाते हैँ कि हमारे कारण  घर टूट रहे हैँ.....दोस्त दुश्मन बनते जा रहे हैँ....और माहौल खराब हो रहा है"...
"तो क्या हम किसी को कहती हैँ कि आ के हमारे से चिपको?...
"फॉर यूअर काईन्ड इंफार्मेशन...हम किसी के पास नहीं जाती बल्कि सभी हमारे पास खुद अपने आप खिंचे चले आते हैँ"...
  • "आप हम पर इलज़ाम लगाते हैँ कि अगर कोई हम से चिपकने की कोशिश करता है तो बाकि लड़कियों की तरह हम उन्हें डांट-डपट कर भगाती क्यों नहीं हैँ?"...
"तो इसके जवाब में मैँ बस इतना ही कहना चाहूँगी कि ये कहाँ की समझदारी है? कि ट्रेन में या बस में...ऑटो में या रिक्शे में...होटल में या ढाबे में या कभी किसी हाई-फाई रैस्टोरैंट में कोई हमसे सटकर...चिपक कर बैठना चाहे तो हम उसे दुत्कार अपना ही नुकसान कर लें?
"अगर हमारे साथ सट कर बैठने से उसमें  करैंट दौड़ने लगता है"...
"उसे वाईब्रेशन का सा मीठा-मीठा अनुभव होने लगता है"...
"कई दिनों से बन्द पड़ी बैटरी अपने आप चार्ज होने लगती है"..
"उसका दिन अच्छा और आराम से  गुज़रता है"...
"उसे खुशी के दो पल नसीब होते हैँ'....
"तो आखिर इसमें आपको दिक्कत ही क्या है?"
"हर्ज़ा  ही क्या है?"...
"वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि ज़्यादतर हमारे शिकार नासमझ नहीं बल्कि निहायत ही समझदार और पढे-लिखे इनसान होते हैँ"...
"ये वो लोग होते हैँ जो अपनी पत्नियों से…अपनी प्रेमिकाओं से किसी ना किसी कारण दुखी होते हैँ..त्रस्त होते हैँ"..
"इनमें कुछ ऐसे किस्म के इनसान भी होते हैँ जिन्हें घर की दाल में कोई इंटरैस्ट नहीं बचा होता और कुछ एक तो अच्छा-भला सब कुछ होते हुए अपनी आदत से मजबूर  होते हैँ
"आपको हमारी गल्तियाँ ...हमारी कमियाँ तो तुरंत दिख जाती हैँ और आप हमें तुरंत बिना सोचे-समझे 'चालू'...चालू कहना शुरू कर देते हैँ"...
"ये भी नहीं सोचते कि हमारी भी कोई ना कोई मजबूरी हो सकती है इस सब के पीछे"...
"आपको क्या पता कि हमें पैसे की कितनी ज़रूरत होती है?"...
"कभी हमारे मोबाईल में बैलैंस नहीं होता तो कभी हमें लेटेस्ट ट्रैंड के कपड़े खरीदने होते हैँ"...
"कभी हमारा लिपस्टिक-पाउडर खत्म हुआ रहता है कभी फिल्म देखने को हमारा मन तरस रहा होता है"...
"कभी हमें डिस्को जा नाचना-गाना होता है तो कभी फन एण्ड फूड विलेज के झूलों में हिचकोले खाने को मन कर रहा होता है"...
"कभी कोई सहेली अपनी नई चेन या अँगूठी दिखा हमें चिढाती हुई उकसा रही होती है"...
  • आप ये अनोखा और विचित्र आरोप भी हम पर लगाते हैँ कि ...हम जान बूझ कर बसों वगैरा में लेडीज़ सीट पर नहीं बैठती हैँ या ट्रेनों के लेडीज़ कोच में सफर नहीं करती हैँ"...

"तो इसके जवाब में मैँ बस इतना ही कहना चाहूँगी कि शायद आप नहीं जानते हैँ कि औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन है"
"उन्होंने ने जैसे ही हमें आते देखना है...बस तभी झट से फैल के पूरी की पूरी सीट पे कब्ज़ा जमा लेना है...मानो उनके बाप का राज हो"...
" वहीं दूसरी तरफ मर्द बेचारे!...हमें देखते ही खुद कोने में खिसक के हमारे बैठने का जुगाड़ कर देते हैँ"...
"भले ही इस सब में उनका निहित स्वार्थ छिपा होता है लेकिन हमें इससे क्या?"...
"हमें तो बैठे-बिठाए ही बैठने को सीट मिल गई..अब बेशक कोई मरे चाहे जिए"...
"क्या फर्क पड़ता है?"..
"लेकिन कुछ एक बेशर्म टाईप के इनसान(वैसे क्या इन्हें इनसान कहना उचित होगा?)इसके अपवाद भी होते हैँ...जो बेफाल्तू में चौड़े हो हमें सीट देने से साफ-साफ नॉट जाते हैँ"...
"ऐसे बेवाकूफों के चलते हमें कई  मर्तबा खिसियाते हुए चुपचाप खड़े रह कर भी सफर करना पड़ता है"..
"खैर इनसे तो इनका खुदा निबटेगा"...
"बस!...बहुत हो गया...भतेरे लगा लिए आपने इलज़ाम-शिलज़ाम"...
"अब चुपचाप आप हमारी सुनें"...
"आप हमारे ऊपर आरोप-प्रत्यारोप लगाते फिरते हैँ लेकिन कभी आईने में भी झाँक के देखा है आपने खुद को?"...
"मैँ तो दावे के साथ खम ठोक के कह सकती हूँ कि 'चालू' हम लड़कियाँ नहीं बल्कि आप मर्द होते हैँ चालू......महा चालू"...
"हम ज़रा सा किसी से हँस-बोल क्या लेती हैँ तो आप जैसे दूर से तमाशा देखने वाले तुरंत ही ईर्ष्या और जलन की पावन अग्नि में जल उठते हैँ"...
"अरे!...जल क्या उठते हैँ?"...
"ऊपर से नीचे तक...अन्दर से बाहर तक अच्छी तरह से जलभुन के पूर्ण रूप से कोयला बन सुलग उठते हैँ"...
"कँजूस कहीं के"...
"क्या आप जैसे समझदार...मैच्योर्ड इनसान को ऐसा करना शोभा देता है?"...
"नहीं ना?"...
"हा...हा...हा...
देखा!...बातों ही बातों में मैँने आपको मैच्योर्ड करार दे दिया और आप हैँ कि कोई इल्म ही नहीं...कोई गुमान ही नहीं कि हवा किस ओर बह चली"...
"अरे!...यही तो शब्दों का खेला है और ऐसे तीन सौ बाईस खेल हम रोज़ाना खेला करती हैँ"..
"कभी इसके साथ..तो कभी उसके साथ"...
"वैसे ये हमारा दावा ही नहीं बल्कि खुला चैलैंज है कि जिस किसी भी ऐरे-गैरे...नत्थू-खैरे से हमने एक बार दिल खोल...हँसकर... मुस्कुरा कर बोल-बतला लिया ...वो तो समझो कि गया काम से"...
"याने के...फुल्ल टू शैंटी फ्लैट"...
"हा...हा...हा"...
"अरे!...हम तो वो हैँ जो बीच बाज़ार खुली आँखों से काजल चुरा लें"..
"अब आपको अगर हमारे टैलेंट ...हमारे हुनर की कद्र नहीं है तो ना सही लेकिन इस सबसे हमारी वैल्यू...हमारी कीमत कम नहीं हो जाती"...
"अगर हमारे बारे में सही मालुमात करना चाहते हो तो जा के उनसे पूछो जो हमसे...
किस तरह चिपकना है?...
कैसे चिपकना है?...की घंटो रिहर्सल करने के बाद बावले हो रोज़ाना मिलने की जुगत में रहते हैँ"...
"अगर किसी दिन हम उन्हें ना दिखें या किसी कारण उनकी बाट देखती आँखो से ओझल हो जाएँ तो...
मुँह उतर आते हैँ उनके...चेहरे मायूसी से लटके मिलते हैँ"...
"अरे!...हमारा असर ही इतना तगड़ा है कि हमारे चले जाने के घंटो बाद भी हमारा वाईब्रेशन कम नहीं होता और वो बाद में...अकेले में भी मन्द-मन्द मुस्काते रहते हैँ"...
"बेवाकूफ बेचारे!..कलयुग के ज़माने में भी लैला-मजनू के किस्सों को हकीकत समझते हैँ और ये सोच-सोच फूल के कुप्पा हो...मस्त हुए जाते हैँ कि अपनी तो फुल्ल-फुल्ल सैटिंग हो गई"...
"हुँह!...बड़े देखे हैँ ऐसे सैटिंग करने-कराने वाले"...
"अरे!..हम कोई प्लास्टर ऑफ पैरिस की फटी हुई थैली या बोरी नहीं कि पल भर में ही ज़रा सा नमी लगते ही सैट हो जाएँ"...
"अरे!...ऐसे सड़कछाप मजनू तो मैँ रोज़ाना छत्तीस से सैंतालिस तक देखती हूँ"...
"जहाँ कोई ढंग की लड़की दिखी नहीं कि झट से लाईन लगाना चालू"...
"तो ऐसे में अब आप ये बताएँ  कि 'चालू' कौन हुआ?"...
"आप या फिर हम?"...
"हो गया ना डब्बा गोल?"..
"खैर !..ये सब तो मैँ मज़ाक कर रही थी"...
"दरअसल ऊपर से मैँ आपको जितनी भी खुश...जितनी भी सुखी नज़र आऊँ लेकिन अन्दर ही अन्दर मैँ बहुत परेशान..बहुत चिंतित...बहुत दुखी हूँ"...
"वैसे ऊपरी तौर पर देखा जाए तो मुझे कोई दुख नहीं है"...
"अच्छा खा...अच्छा पहन के मज़े-मज़े में लाईफ को धक्के दे अपनी मर्ज़ी से जिए चली जा रही हूँ लेकिन...
मुझे अपनी नहीं बल्कि अपनी आने वाली नसलों...आने वाली पीढियों की चिंता है कि इस बढती मँहगाई के ज़माने में वो कैसे अपने
वजूद को ज़िन्दा रख हमारे टैलैंट...हमारी कला को आगे बढा पाएँगी?"...
"मेरी तो यही दिली इच्छा है  कि मैँ अपने जीते जी आने वाली नस्लों के लिए ऐसा कुछ कर जाऊँ कि उन्हें किसी के आगे हाथ ना फैलाना पड़े...झोली ना फैलानी पड़े"...
"इसी अहम बात को मद्दे नज़र रख मैँने अपने जीवन में कुछ कड़े फैसले लेने का निर्णय लिया है जैसे...
  • अब से...आज से कोई बेफिजूल खर्ची नहीं"...
  • "जब तक ज़रूरी ना हो तब तक कोई फैशन नहीं"...

  • "कोई होटल या रैस्टोरैंट में में डिनर या लँच नहीं"...

  • "कोई डिस्को...कोई नाच-गाना नहीं"...
"याने के फुल बचत ही बचत"...
"मैँने तो ये फैसला भी लिया है कि अपने बचाए पैसो से मैँ अपने जीते जी एक सामाजिक संस्था का निर्माण करूँगी"...
"जो हमारी सभी साथिनों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहेगी"...
"मैँने तो अभी से उस संस्था का नाम भी सोच लिया है"...
"संस्था का नाम होगा...'चालू चिड़िया उत्थान समिति"...
"इस संस्था की चेयर पर्सन ऑफकोर्स...आजीवन मैँ खुद ही रहूँगी"...
"बस!..एक बार मेरा नाम हो जाए...उसके बाद तो एक से एक इलैक्शन होते ही रहते हैँ हमारे देश में"...
"कभी कार्पोरेशन के...तो कभी एम.एल.ए के"...
"धीरे-धीरे...सीढी दर सीढी आगे बढते हुए मैँने एक ना एक दिन अपनी मंज़िल...अपनी ख्वाईश को पा के ही दम लेना है"...
"वैसे एक राज़ की बात बताऊँ?"...
"मेरी नज़रें तो ना जाने कब से प्रधान मंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक....सभी पदों पर लगी हुई हैँ"...
"लेकिन आप ये ना समझें कि प्रधान मंत्री या फिर राष्ट्रपति बन जाने के बाद मैँने अपनी औकात भूल जानी है"...
"बल्कि मैँने तो ऊँचा पद पाने के बाद अपनी सभी नई-पुरानी सभी साथिनों के उद्धार के लिए एक ट्रस्ट का गठन करना है जिसके अंतर्गत देश भर में कई डिग्री कॉलेजों और विद्यालयो का निर्माण किया जाएगा और जहाँ सिर्फ और सिर्फ 'चालू चिड़ियाओं' के उत्थान से रिलेटिड विष्य ही पढाए जाएँगे जैसे...
"नई लड़कियों को चालू बनने के तौर-तरीके और लेटेस्ट गुर सिखाना"...
"लेटेस्ट फैशन से रुबरू करवा उन्हें एकदम अप टू डेट रखना"...
"एक से एक नौटंकी...एक से एक ड्रामा करना सिखाना वगैरा वगैरा..."..
"मैँ अच्छी तरह जानती हूँ कि जितना मैँ सोच रही हूँ...काम उतना आसान नहीं है लेकिन मेरे हिसाब से इस मायावी दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं है"...
"ये भी मुझे मालुम है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता"...
"काम बहुत ज़्यादा है और समय बहुत ही कम है"...
"इसलिए ना चाहते हुए भी मुझे मजबूरन आप जैसे महानुभावों की मदद लेनी पड़ेगी"...
"तो लीजिए ये रसीद बुक और बताएँ कि आप कितने की पर्ची कटवाना पसन्द करेंगे?"...
"क्या कहा?"...
"सिर्फ इक्यावन की?"...
"हट!...परे हट स्साले......
और सीधे-सीधे निकाल पाँच सौ का कड़कड़ाता हुआ हरा पत्ता अपने जेब से...वर्ना अभी के अभी शोर मचा दूँगी"...
"स्साले!...इस से ज़्यादा के मज़े तो तू ले ही चुका है पिछले दो घंटे में मुझसे  चिपके-चिपके"...
"जय हिन्द"...
"भारत माता की जय"...
"जय हो...चालू चिड़िया उत्थान समिति की...जय हो"
***राजीव तनेजा***
 
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