घंटा…मेरे बाबा जी का

***राजीव तनेजा***

 old man

“ठक्क……ठक्क- ठक्क”….

“ओ….कुण्डी ना खड़का …सोणया सिद्धा अन्दर आ"…

“ठक्क……ठक्क- ठक्क”….

“अरे!…कौन है भाई?….ज़रा रुको तो सही…अभी खोलता हूँ…..पहले ज़रा नाड़ा तो ठीक से बाँध लूँ”…

“ठक्क……ठक्क- ठक्क”….

“तनेजा जी!…दरवाज़ा खोलिए……खोलिए ना"…..

“ठक्क……ठक्क- ठक्क”….

“ओफ्फो!…क्या मुसीबत है?”मैं अपने सरकते हुए पायाजामे को ऊपर खींच नाड़ा बाँधने की कोशिश करते हुए बोलता हूँ …

“ठक्क……ठक्क- ठक्क”….

“अमां यार!…काठ का दरवाज़ा है कोई ईंट-पत्थर का नहीं जो इस कदर बेरहमी से बजाए चले जा रहे हो ….थोड़ा सब्र तो करो”….

“ठक्क……ठक्क- ठक्क”….

“अरे!…तोड़ ही डालोगे क्या?……कहा तो है कि…रुको…अभी खोलता हूँ नाड़ा बाँध के"….

[चरमरा कर दरवाज़ा खुलने की आवाज़]

“ओह्हो!…गुप्ता जी आप?….आज ये अचानक् ईद का चाँद दिवाली के मौके पे कैसे निकल पड़ा?”…

“कम्म पै गया ऐ तेरे नाल थोड़ी देर दा …वे मैं जित्थों-जित्थों कहणा हां तू क्यों नय्यी छेड़दा”… 

“क्यों मजाक करते हैं गुप्ता जी?…ये भी कोई छेड़ने-छिड़वाने कि उम्र है हमारी?”…

“बात तो यार तुम सही कह रहे हो"…

'”कहिये!…कैसे याद किया?”…

“बस!…ऐसे ही…यहाँ से गुज़र रहा था तो सोचा कि आज का दिन अच्छा है….आपको नाड़ा खोल के बांधते हुए भी देख लूँगा और…

“हें….हें…हें….गुप्ता जी आप तो काफी अच्छा मजाक कर लेते हैं"….

“थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट लेकिन आज मैं अपने स्वभाव से ठीक उलट … मजाक के मूड में बिलकुल नहीं हूँ"….

“बिलकुल भी नहीं?”…

“कतई नहीं”….

“ओह!…तो फिर ये आपने कैसे सोच लिया कि मैं ऐसी निकृष्ट और ओछी हरकत आपके  सामने कर खुद को अहोभाग्य समझूँगा?”…

“इसमें गुमान कि क्या बात है?…मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास है कि…..

“मैं आपके सामने नाड़ा खोल के बांधूंगा?”…

“जी"…

“इतना निकम्मा समझ रखा है क्या?”…

“क्या मतलब?”…

“मैं इतना गलीच भी नहीं जनाब कि हर किसी ऐरे-गैरे …नत्थू-खैरे आगे अपना पायजामा खोल नुमाईश करता फिरूं"… …..

“ओ.के बाय…मैं चलता हूँ"…

“अरे!…गुप्ता जी…क्या हुआ?…अभी-अभी तो आप आए हैं और अभी से जाने की जल्दी?….ज़रा आराम से बैठ के चाय-कॉफी….

“बिलकुल नहीं"….

“कोकाकोला…फैंटा?”…

“ठीक है…मंगा लो"….

“मंगाना कहाँ से है?…हमेशा फ्रिज में धरी रहती हैं चिल्ड होने के लिए…ये लीजिए"मैं बोतल का ढक्कन खोलने का उपक्रम करता हुआ बोला…

“नहीं!…रहने दो…मैं जा रहा हूँ"…

“क्या हुआ?…ठंडा पीकर तो जाइए”…

“तुम्हारे हाथ का तो पानी पीना भी हराम है मेरे लिए"…

“क्यों?…क्या हुआ?…मैं कुछ समझा नहीं”मेरा हैरानी भरा स्वर

“रहने दो!…इतने भोले और नादान भी नहीं हो तुम कि अपनी खुद की कही हुई बातों का मतलब ना समझ सको"….

“सच्ची!…कसम से गुप्ता जी…मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया “…

“जब तुम मुझे ऐरा-गैरा …नत्थू-खैरा समझ कर मेरे सामने अपने तन-बदन की तनिक सी नुमाईश ही नहीं कर सकते तो मेरा यहाँ वेल्ले बैठे रह कर झक्क मारने से फायदा क्या?”…

“लेकिन….

'”सिर्फ नाड़ा खोल के ही तो बांधना था और तुम….

“मैं भला ऐसा क्यों कहने लगा?”….

“मुझे क्या पता?”…

“क्या मतलब?”…

“अभी कुछ देर पहले आप खुद ही तो कह रहे थे कि…..रुको!….मैं नाड़ा खोल के बाँध लूँ"…

“ऐसा मैंने कब कहा?”…

“जब मैं दरवाज़ा खटखटा रहा था”…

“एक मिनट!…आपको गलती लग रही है जनाब ….मैंने कहा था कि….अभी खोलता हूँ नाड़ा बाँध के"…

“एक ही बात है"…

“अरे वाह!…एक ही बात कैसे है?…आप कह रहे हैं कि मैंने कहा…"’नाड़ा खोल के बाँध लूँ’?”…

“जी!...

“लेकिन मैंने कहा था कि ‘अभी खोलता हूँ नाड़ा बाँध के’"…

“तो?….क्या फर्क है इसमें और उसमें?”…

“ज़मीन-आसमान का फर्क है"…

“कैसे?”…

“मैं खुले हुए को बाँधने की बात कर रहा हूँ और आप पहले खोल कर फिर उसे बाँधने की बात कर रहे हैं"…

“ओह!….तनेजा जी…आप भी…बातों में से बात पकड़ लेते हैं"….

“क्या करूँ?…मेरा तो स्वभाव ही कुछ ऐसा है"मैं कुछ शरमाते हुए बोला…

“हम भी कुछ कम नहीं हैं तनेजा जी”….

“क्या मतलब?”…

“मैं भी आज आपके यहाँ कुछ पकड़ने-पकड़ाने आया हूँ"…

बाबा जी का घंटा?”…bell-tall-temple-the-holy 

“जी!…बिलकुल….सही पहचाना"…

“अपनी मर्ज़ी से या फिर हमारी मर्ज़ी से?”मेरा शंकित स्वर

“आफकोर्स!…आपकी मर्ज़ी से"…

“गुड!…फिर तो बड़े शौक से …आप ही का है….जब जी चाहे"….

“थैंक्स!….

“एक्चुअली!…ये तो मेरा सौभाग्य है कि आप जैसे नामी-गिरामी और प्रबुद्ध लोग भी मेरे…

‘बाबा जी के घंटे’ के मोहपाश से नहीं बच पाए”…

“दरअसल!…आपके ‘बाबा जी के घंटे’ का नूर और जलाल ही कुछ ऐसा रूहानी टाईप का है कि मैं क्या?…कोई भी इसके वाईब्रेशन और हीलिंग टच से वशीभूत होकर अपने आप इसकी तरफ खिंचा चला आएगा"…

“हुंह!…अपने आप खिंचा चला आएगा….आएगा तो आता रहे ..मेरी बला से…मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता"…

“क्या मतलब?”….

“मैंने कोई धर्मशाला या सराय तो नहीं खोल रखी जनाब कि हर किसी ऐरे-गैरे को अपना घंटा बजाने का मौक़ा देता फिरूं”….

“अपना नहीं…बाबा जी का"गुप्ता जी मेरी भूल सुधारते हुए बोले ….

“यैस!….यू  आर राईट….बाबा जी का"…

“मेरे हिसाब से कोई भी चीज़ अगर ज़रूरत से ज्यादा हो जाए तो उसकी वैल्यू कुछ खत्म सी होने लगती है"…

“जी!…ये बात तो है….अब गोविंदा को ही लें …हर तीसरी फिल्म में ठुमके लगा के कर दी ना अपनी मिटटी आप ही खराब"…

“जी!….और दूसरी तरफ अपने ‘आमिर खान’ को देखें…पट्ठे की साल में एक ही फिल्म रिलीज़ होती है…वो भी आखिरी महीनों में और ऐसा कमाल कर जाती है…ऐसा कमाल कर जाती है कि बस पूछो मत"…

“जी!…ये बात तो है"….

“तो मैं बात पक्की समझूँ?”…

“बिलकुल पक्की….आप पहली बार हमारे यहाँ आए हैं…इसलिए कुछ ना कुछ कम-ज्यादा कर के आपको मौक़ा तो देना ही पड़ेगा"….

“थैंक्स!….

“इसमें थैंक्स की क्या बात है?…आप एक जिम्मेदार बुज़ुर्ग होने के साथ-साथ हमारे परम मित्र भी हैं”…

“जी"…

“हम अपने ‘बाबा जी का घंटा’  आपको नहीं पकड़ाएंगे तो क्या गैरों के हाथ में पकड़ायेंगे?”…

“शुक्रिया"…

“आपके हाथ में हमारे ‘बाबाजी का घंटा' पूर्णत्या सुरक्षित एवं महफूज़ रहेगा…ऐसा मेरा विश्वास है"…

“और मैं आपके विश्वास पे तनिक भी आंच नहीं आने दूँगा"……

“गुड!…तो फिर कहिये…कब से बजाना चाहेंगे?”…

“क्या?”…

बाबा जी का घंटा….और क्या?"…

“जब से आप हुक्म करें"…

“तो फिर नेक काम में देरी कैसी?….आज ही से शुरू कर दें"….

“जी!…ज़रूर"…

“एक मिनट!…मैं ज़रा पहले शैड्यूल चैक कर लूँ”…

“जी!…ज़रूर लेकिन ज़रा जल्दी”….

“क्यों?…क्या हुआ?…कहीं जाना है क्या?”…

“नहीं!…ऐसी तो कोई बात नहीं…मैं पूरी तरह से फ्री हो कर आया हूँ"….

“तो फिर …ऐसी भी क्या जल्दी है?"…

“कहीं ऐसा ना हो कि इधर हम ऐसे ही बेकार में इधर-उधर की बातें कर मस्त होते रहे और उधर कोई दूसरा मुझसे पहले ही घंटा बजा अपना हाथ साफ़ कर जाए"….

“बाप का माल समझ रखा है क्या?…मेरी इजाज़त के बिना तो वहाँ परिंदा तक परवाज़ नहीं भर सकता…आप घंटा बजा…हाथ साफ़ करने की बात करते हैं…..वो तो बहुत दूर की कौड़ी है जनाब ….बहुत दूर की कौड़ी"…

“कौड़ीयाँ नूं कि सिर विच्च मारणा ऐ?…. मैनूँ ते त्वाडे ‘बाबा जी दा घंटा’ वजाणा ऐ…घंटा"… (कौडियों को क्या सर में मारना है?…मुझे तो आपके ‘बाबाजी का घंटा बजाना है …घंटा)

“ते फेर मैं कदों इनकार कर रेहा हाँ?…वजाओ…वजाओ…जी भर के वजाओ" …(तो फिर मैं कब इनकार कर रहा हूँ….बजाओ…बजाओ…जी भर के बजाओ)

“ते फेर दस्सो नां यार कि….कदों वजावां?…किवें वजावां?:”(तो फिर बताओ ना यार कि कब बजाऊं?…कैसे बजाऊं?)

“भावें हत्थां नाल वजाओ…भावें मुंह नाल वजाओ…जिवें वी त्वाडा दिल करे….उवें वजाओ"…(चाहे हाथ से बजाओ…चाहे मुंह से बजाओ …जैसे आपका दिल करे …वैसे बजाओ)

“फेर वी कोई टाईम-टेबल…कोई शैड्यूल ते होणा ही चाहीदा ऐ नां?”…(फिर भी कोई टाईम-टेबल …कोई शैड्यूल तो होना ही चाहिए ना?)

“ओही ते चैक कर रेहा सी कि तुस्सी विच्च फ़ालतू दी दूजी गलां लै के बै गए"…(वही तो चैक कर रहा था और आप बीच में फ़ालतू की दूसरी बातें ले के बैठ गए)

“ओ.के जी”…

“सोमवार को ‘शर्मा जी’…..मंगल को और ‘बावला जी’…ब्रहस्पत को ‘वर्मा जी’ के साथ ‘छप्पन छुरी जी’ और ब्रहस्पत को ………

“बड़ा टाईट शैड्यूल है"गुप्ता जी के चेहरे पे प्रशंसा के भाव थे …

“जी!…बहुत"….

“टाईट तो किसी ज़माने में अपना भी बहुत हुआ करता था तनेजा जी पर क्या करें?…वक्त की मार ने निकम्मा बना उसे ढीला कर दिया"गुप्ता जी पुराने दिनों को याद कर उदासी भरे स्वर में बोले …

“वक्तों को क्यूँ दोष देते हैं गुप्ता जी…सब आप ही का किया-धरा है"….

“मेरा किया-धरा?”….

“जी!…सब आप ही की लापरवाही का नतीजा है"…

“मेरी लापरवाही का?…बताइए…क्या गलत किया मैंने उसके साथ?…अच्छी-भली अहमियत दे के सर आँखों पर तो बिठाया था उसे”…

“हाँ!…जिस शान से आपने उसे सर पे बिठाया था…उसी शान से उसे नीचे धकियाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी आपने”….

“तो क्या हर जगह…हर मौके पे उसी के साथ चिपका रहता?”…..

“मैंने कब कहा कि हमेशा चिपके रहो…अपना जेब में संभाल के भी तो रख सकते थे कि जब चाहा बाहर निकाल बजा लिया और जब चाहा वापिस अन्दर कर मीठी नींद सुला दिया"…

जेब में?”…

मेरा मतलब संभाल के तो रख सकते थे"….

“बात तो आप सही ही कह रहे हैं लेकिन अब क्या फ़ायदा जब चिड़िया चुग गई खेत?"…

“गुप्ता जी!…बीती ताही बिसार के आगे की सोचिए"….

“जी!…इसीलिए तो आपके पास आया हूँ"…

“ओ.के"….

“हाँ!…तो हम बात कर रहे थे टाईट शैड्यूल की"…

“जी!….

“कई बार तो वर्कलोड इतना ज्यादा होता है कि बात एक के बूते से बाहर की हो जाती है”…

“ओह!….तो फिर ऐसी स्तिथि में आप क्या करते हैं?”…

“करना क्या होता है?…अपना एक दिन में तीन-तीन को पकड़ा देता हूँ…सिम्पल"…

“अपना या ‘बाबा जी’ का?”…

“अरे!…अपना काहे को?….उसके लिए तो मैं अकेला ही काफी हूँ….ये तो ‘बाबा जी का घंटा' ही है जो अपने विशालकाय एवं वटवृक्षीय वजूद की वजह से मुझ अकेले से संभाले नहीं संभल रहा है"…

“ओह!…तो फिर कैसे मैनेज करते हैं आप ये सब?”…

“अभी कहा ना कि एक ही दिन में तीन-तीन को पकड़ा देता हूँ"….

“और रात में?”…

“रात को तो कोई चांस नहीं …कोई स्कोप नहीं”…

“वो किसलिए?”…

“रात को तो अपना…खुद का बनाया हुआ स्वेदेशी मेड उसूल काम करता है”…

“कैसा उसूल?”…

“रात को सिर्फ मौजां ही मौजां”….

“क्या मतलब?”…

“रात को कोई टेंशन नहीं….अपना फुल आराम ही आराम"…

“ओह!…दैट्स नाईस लेकिन एक बात समझ में नहीं आई"…

'”क्या?”….

“यही कि आप दिन में बारी-बारी से सबको पकडाते हैं या फिर सभी एक साथ टूट पड़ते हैं?”…

“कमाल करते हैं गुप्ता जी आप भी…अगर सभी एक साथ टूट पड़ेंगे तो फिर उसके छिन्न-भिन्न हो बिखरने में भला कितनी देर लगेगी?”…

“ओह!…कुछ ज्यादा ही नाज़ुक है वो शायद"…

“नहीं!…..नाज़ुक तो वो किसी भी एंगल या कोण से नहीं है..मैंने खुद अच्छी तरह से ठोक-बजा के चैक किया है”..

“इन्हीं हाथों से?”गुप्ता जी ने मेरे हाथों की तरफ देखते हुए प्रश्न किया…

“जी हाँ!…इन्हीं नायाब हाथों से"मैं गर्व से फूल कर कुप्पा होता हुआ बोला …

“जब आपने खुद ही अच्छी तरह से चैक कर लिया है तो फिर दिक्कत किस बात की है?”…

“दिक्कत तो खैर किस बात की होनी है?”…

“तो फिर?”…

“फिर भी…रिस्क किसलिए लेना?…दुर्घटना हो….उससे तो देरी भली है कि नहीं?"…

“जी!….बात तो सही ही कह रहे हैं….अपना सारे बारी-बारी से बजाते रहे…लुत्फ़ का लुत्फ़ आएगा और मज़ा भी किरकिरा नहीं होगा"…

“बिलकुल….हम खेल खेलते हैं जनाब…खेल का सत्यानाश नहीं करते"…

“आप हमेशा ऐसा करते हैं या फिर …..?”…..

“आमतौर पर तो एक टाईम में एक ही बन्दा काफी होता है सारा मैटर खुद अकेले ही टैकल करने के लिए लेकिन कई बार जब वर्कलोड कुछ ज्यादा हो…तभी सेकेंड आप्शन की तरफ सोचना पड़ता है"…

“ओह!…

“अब एक-दूसरे के साथ को-आपरेट करके थोड़ा-बहुत आगे-पीछे करना तो हमारे सभी संगी-साथी अच्छी तरह से जान गए हैं लेकिन दिक्कत तब आती है जब …

“वर्कलोड बहुत ज्यादा हो?"…

“ऐग्जैकटली"…

"तो मेरे लिए क्या हुक्म है?”…

“अजी!…हुक्म काहे का?…आप तो हमारे मालिक हैं…सरताज हैं…आपकी बात भला हम कैसे टाल सकते हैं?”…

“रहने दीजिए तनेजा जी…रहने दीजिए…ये सब बेकार की…बेफिजूल की चापलूसी भरी बाते हैं…असलियत की काँटों भरी जिंदगी में इन सब का मोल नहीं…कोई औचित्य नहीं"…

“अरे!…कमाल करते हैं आप भी…एक बार आजमा के तो देखी…ये तनेजा….ये तनेजा आपके लिए अपना दिल हथेली पर निकाल कर ना रख दे तो कहना"…

“दिल नूं कि अस्सी चटना ऐ?….सानूं ते…..(दिल को क्या मुझे चाटना है?…मुझे तो…..)

“सानूं ते?”….(मुझे तो?)….

“स्सानूं ते!…सानूं ते तुस्सी अपना ऐ ‘बाबा जी दे घंटे' वाला ब्लॉग ही दे देयो"… (मुझे तो…मुझे तो आप ये अपना ‘बाबा जी के घंटे’ वाला ब्लॉग ही दे दो)….

“क्क्या?…क्या मतलब?”…

“आप ये अपने ‘बाबा जी के घंटे' वाले  ब्लॉग के एडमिनिस्ट्रेटिव राईटस मुझे दे दें या फिर…..

“या फिर?”….

“इसे हमेशा के लिए डिलीट ही कर दें तो ज्यादा अच्छा रहेगा”…

“हमेशा के लिए डिलीट कर दूँ?”….

“जी!…

“और खुद हाथ में कटोरा ले के अपना तानपुरा बजाऊं?”मेरा तैश भरा स्वर…

“जैसा आप उचित समझें”…

“लेकिन किसलिए?…अपना अच्छा भला खुद का घंटा होते हुए मैं इतनी ज़हमत उठाऊं ही क्यों?”..

“आपके बस का नहीं है इसे ठीक से संभाल पाना"….

“ये आपसे किसने कहा?”…

“अगर आपके बस का होता तो अपने ब्लॉग ‘बाबा जी का घंटा' के जरिए चिट्ठाचर्चा करने के लिए आप तमाम ऐरे-गैरे उठाईगीरों को न्योता ना देते"…

“तो?….उसमें क्या दिक्कत है?…मेरा अपना…खुद का निजी ब्लॉग है”…

“तो फिर इसे निजी तक ही रखिए ना…क्यों दूसरों को इसके फटे में टांग अडाने की इजाज़त देते हैं?”..

“क्या मतलब?…टांग अडाने की इजाज़त देता हूँ?…मैं कुछ समझा नहीं"…

“क्यों ‘बाबा जी के घंटे' में आपके साथियों द्वारा हमारी और हमारे हितचिंतकों की एक से बढ़कर एक सार्थक एवं उम्दा पोस्टों को खुड्डल लाइन लगा अपने हिमायतियों की जर्जर….फटी-पुरानी एवं  खस्ताहाल पोस्टों को सबसे आगे कर…दूधिया रौशनी की लाईमलाईट भरी रौशनी से चकाचौंध कर हाईलाईट कर दिया जाता है?”…

“उन्होंने रूपा फ्रंटलाइन जो पहना होता है"…

“ओह!…

“वैसे आप क्या पहनते हैं?”…

“म्म…मैं तो….मैं तो…..

“मैं तो?”….

“मजाक छोडिये और सीधी तरह बताइए कि आप शराफत से मानेंगे या नहीं?”…

“बिलकुल नहीं"….

“सोच लीजिए ….बाद में कहीं ऐसा ना हो के आपको पछताते हुए कहना पड़े कि गुप्ता जी ने पहले चेताया नहीं था”…

“आप मुझे धमकी दे रहे हैं?”…

“मेरी इस प्यार भरी चेतावनी को अगर आप धमकी समझ रहे हैं तो …धमकी ही समझ लीजिए"…

“कमाल है!….ब्लॉग मेरा…मैं किसी को भी इसमें लिखने के लिए इनवाईट करूँ…आप होते कौन है मुझे रोकने वाले?”…

“लेकिन वो कौन होते हैं हमारे चिट्ठाचर्चा वाले ब्लॉग का भट्ठा बिठाने की धमकी देने वाले?”

“भट्ठा तो आपके वाले ब्लोग का बैठना ही है…आज बैठे…अभी बैठे…या फिर दो-चार महीने में बैठे…अपनी नीतियों के चलते बैठना तो उसकी नियति में ही लिखा है”….

“आप मुझे चैलेन्ज कर रहे हैं?”….

“बिलकुल"…

“ठीक है!…तो फिर मिलते हैं ब्रेक के बाद…इंतज़ार कीजिएगा एक से बढ़कर एक धमाकों का…ब्लास्टों का"…

“मुझे इंतज़ार रहेगा"…

“इस मुगालते में मत रहिएगा कि सिर्फ आपके ‘बाबा जी’ के पास ही घंटा हो सकता है"..

“क्या मतलब?”…

“मेरे ‘बाबा जी’ के पास भी एक अदद घंटा था और वो उसे बखूबी बजाया करते थे"…

“क्क…क्या?…क्या मतलब?…मतलब क्या है आपकी बात का?”मेरा बौखलाता हुआ स्वर…

“यही कि जल्द ही हम भी अपना खुद का निजी घंटा बजाने जा रहे हैं"…

“तो फिर बजाईए ना…कौन रोकता?”…

“संयोग से उसका नाम भी ‘बाबाजी का घंटा' ही है"…

“क्क्या?”…

“ओह!…माय मिस्टेक….ये मैं क्या कह गया?”…

“क्या कह गया से मतलब?”…

“सॉरी!…मैं तो सोच रहा था कि आप मेरे बालसखा हैं…..पुराने मित्र हैं….इसलिए जोर का झटका आपको धीरे से लगना चाहिए लेकिन आपने भी ना मुझे ताव दिला के ….

?…?…?…?…?…मैं कुछ समझा नहीं”….

“हमने ‘बाबाजी का घंटा' के  नाम से डोमेन खरीद लिया है”…

“क्या?…ऐसा कैसे हो सकता है?”…

“ऐसा ऐसे हो सकता है बेट्टे मूंजीराम कि एक तरफ तुम मुफ्त के ‘ब्लॉग स्पोट’ से चिपके रहे और दूसरी तरफ हमने नोट खर्चा कर ‘डॉट कॉम’ को अपना लिया और बन गए तुम्हारे ‘बाबा जी के घंटे' के सूधम सुद्धा मालिक…वो भी एकदम शुद्ध एवं निखालिस"….

“ओह!…माय गाड"….

“याद आया ना अब आपको गाड…..जब *&^%$#$#$ लगी फटने तो खैरात लगी बटने"…

“य्ये…ये आप ठीक नहीं कर रहे हैं"…

“आप लोगों ने तो जैसे आज तक सब कुछ ठीक ही किया है ना हमारे साथ?”…

“लेकिन ये गलत है…नाजायज़ है"…

“अरे वाह!…कैसे गलत है?…कैसे नाजायज़ है?……हमने कानूनन इसे खरीदा है"….

“लेकिन नैतिकता भी तो कोई चीज़ होती है कि नहीं?…इसपे पहला हक तो हमारा बनाता है …हम बरसों से ‘बाबाजी का घंटा' नाम से चिट्ठाचर्चा चला रहे हैं"…

“लेकिन मुफ्त में"…

“तो?”…

“तो क्या?…अब भुक्तो"…

“लेकिन ये गलत है…आप हमारी बरसों की मेहनत पे पानी फेरने की कोशिश कर रहे हैं"…

“फेरने की कोशिश नहीं कर रहे हैं…हमने फेर दिया है"…

“लेकिन ये गलत है…सही नहीं है"…

“तो हम कौन सा इनकार कर रहे हैं?”….

“तो फिर?”…

“फिर क्या?…उखाड सकते हो तो उखाड लो ‘घंटा…मेरे बाबाजी का"…

दफा हो जाओ यहाँ से”…

“रुकना ही कौन चाहता है ऐसे घुटन भरे माहौल में?”…

तो फिर जाओ…जाते क्यों नहीं?”…

एक मिनट!…पहले ये कोकाकोला तो खत्म कर लूँ"…

“चल!…भाग यहाँ से…..ना ‘कोकाकोला’…ना ‘फैंटा’ ..पकड़ लिया जो तूने मेरा घंटा"… 

 

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

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रूपचंद शास्त्री जी…शब्दों के साथ ऐसा खिलवाड क्यूँ?…क्यूँ?…क्यूँ?

roopchand shaastri ji

आदरणीय एवं माननीय  रूपचंद शास्त्री जी ,नमस्कार

सबसे पहले तो मैं तहेदिल से आपका शुक्रगुजार हूँ और जीवनपर्यंत रहूँगा कि आपने मुझ जैसे अदना से ब्लॉगर द्वारा… आपके ब्लॉग पर की गई कुछ निरर्थक (आपके हिसाब से) एवं तीखी टिप्पणियों(मेरे हिसाब से) का जवाब देने के लिए अपना कीमती समय खर्च कर मुझे पत्र …ऊप्स!…सारी ईमेल भेजा…

उसी सन्दर्भ में मैं आपको ये पोस्ट लिख रहा हूँ  

आपका ये कहना १०० % सही है कि मैं सदैव ‘हँसते रहो’ का नारा बुलंद करता हूँ और इसके लिए मुझे खुद पर कुछ-कुछ गर्व भी है कि मैं अपनी लेखनी के जरिए लोगों के नीरस जीवन में हंसी के कुछ पल लाने का प्रयास करता हूँ लेकिन आपका मुझ पर ये इलज़ाम कि…’मैं विवाद पैदा करता हूँ’…ये कतई सही नहीं है ….उलटा विवाद तो आपने पैदा किया उक्त पोस्ट को लिख कर….अगर आप ये पोस्ट लिखते ही नहीं तो मेरा-आपका ये वैचारिक मतभेद किसी कीमत पर भी होता ही नहीं…

roop chand shastri

आज ब्लॉगजगत में विचरण करते हुए मुझे तकरीबन तीन साल या इस से कुछ अधिक समय होने को आया है …जहाँ तक मुझे याद है और इतिहास भी गवाह है कि आज से पहले मेरा कभी किसी ब्लॉगर से…किसी भी प्रकार का वैचारिक मतभेद नहीं हुआ है(शायद!…एक-आध किस्से को छोड़ कर) और उम्मीद करता हूँ कि आगे होगा भी नहीं…

आप कहते हैं कि… ’आपको मेरी टिप्पणियों की आवश्यकता नहीं है’ …. अगर ऐसा सच में सही है तो आपने अपनी उस पोस्ट से मेरी उन तथाकथित अवाँछनीय टिप्पणियों को हटाने के बावजूद उन्हीं तथाकथित बेफिजूल की टिप्पणियों को अपनी अगली याने कि इस पोस्ट में ससम्मान स्थान क्यूँ दिया? …यहाँ भी मैं आपका तहे दिल से शुक्रगुजारहूँ कि आपने मेरे द्वारा की गई टिप्पणियों को अलग चटख रंग से सुसज्जित कर उन्हें हाईलाईट करते हुए मुझ जैसे सुप्तावस्था में सो रहे अदना से ब्लॉगर को लाईमलाईट में आने का मौक़ा दिया …ये मैं नहीं जानता कि आपने अपनी किस मज़बूरी के चलते ऐसा किया….क्या आपने अपने ब्लॉग की ‘टी.आर.पी’ बढाने की गरज से ऐसा किया?…या फिर इसके पीछे कोई और ही मंशा थी? …

आप ये भी सही कहते हैं कि ब्लॉग की दुनिया बहुत बड़ी है और मुझे कोई दूसरा यूआरएल देखना चाहिए

वाकयी …ये ब्लॉग की दुनिया सच में बहुत बड़ी है लेकिन ये भी तो निर्विवाद सत्य है ना कि …दुनिया गोल है?….इसलिए ना चाहते हुए भी मुझे फिर-फिर लौट कर आपके ब्लॉग पर आना पड़ा..और ये मेरा दावा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि इसी प्रकार की उत्कंठा मेरी इस पोस्ट को पढ़ने के बाद आपके मन में भी बार-बार…बारम्बार उत्पन्न होगी और आप भी लौट-लौट कर मेरे ब्लॉग पर ये जानने के लिए आएंगे कि वहाँ पर …..किस प्रकार की?… एवं कैसी हलचल हो रही है?…या फिर ये जानने कि जिज्ञासा आपको मेरे ब्लॉग पर स्वत: ही खींच लाएगी कि वहाँ पर हँसते-हंसाते हुए किसी घिनौने षड्यंत्र को जन्म दे उसे अंजाम तक तो नहीं पहुंचाया जा रहा? 

lalit ji cartoon

खैर!…ये तो हुआ आपके जवाब का जवाब …अब चलते हैं असल मुद्दे की तरफ…तो असल मुद्दा कुछ यूँ था कि आपने ललित शर्मा जी के द्वारा ब्लॉग्गिंग को त्यागने की बात पर फूल चढाते हुए ससम्मान उनकी ब्लॉग्गिंग के ताबूत में आखिरी कील ठोकने से गुरेज़ नहीं किया(मुझे काफी अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आपका ये सपना इस जन्म में तो पूरा होने वाला नहीं है)…ये सही है ललित जी ने अपनी मर्ज़ी से ब्लॉग्गिंग छोड़ने का मन बनाया था लेकिन ये भी तो सच है ना कि कई बार हम भावावेश में ऐसा बहुत कुछ करने की सोच लेते हैं जिसे असल जिंदगी में करना या अमल में लाना हमारे लिए कतई श्रेयस्कर नहीं होता…उदहारण के तौर पर कुछ वर्ष पहले किसी व्यासायिक निराशा के चलते कई बार मेरे मन में ख़ुदकुशी करने तक जैसे कुत्सित विचार बारम्बार उत्पन्न हो रहे थे लेकिन देख लीजिए अपने जीवट के चलते मैं मरा नहीं …और आज भलीभांति अपना तथा अपने बीवी-बच्चों का भरण-पोषण करते हुए आपके समक्ष ये माईक्रो पोस्ट लिख रहा हूँ…:-)

आइए!…अब हम बात करते हैं शुरू से…शुरुआत से….तो आप अपनी ताजातरीन पोस्ट में अपनी पिछली पोस्ट का उद्धरण देते हुए पूछते हैं कि मेरी इस पोस्ट में आपत्तिजनक क्या है? तो मैं आपको ये बता देता हूँ कि आपकी पोस्ट में आपत्तिजनक क्या-क्या नहीं है?…आपत्तिजनक बताने के लिए तो पूरी पोस्ट पड़ी है …क्यों!…है कि नहीं? 

आपने शुरू में ‘ललित जी’ की और उनके लेखन की तारीफ़ की …ये बिलकुल भी आपत्तिजनक नहीं है…मैं इसके लिए आपका तहेदिल से आभारी हूँ …लेकिन उसके बाद आपने अपने सारे अच्छे किए पे ये कह के भांजी मार दी कि आप उनके ब्लॉग्गिंग छोड़ने के निर्णय का स्वागत करते हैं (बेशक भारी मन से ही सही)….यही वह बात है जो मुझे एवं अन्य कुछ साथियों के मन में शूल बन के चुभी और कांटे की तरह खटकी…और उसी से व्यथित हो के मैंने भावावेश में वो कथित तीन तीखी टिप्पणियाँ कर दी जिन्हें अपने सपनों में भी कभी आप याद करना पसंद नहीं करेंगे |यकीन मानिए ऐसी कड़वी टिप्पणियाँ करना ना ही मेरी फितरत है और ना ही ऐसा मेरा स्वभाव है |ऐसा कर के मैं आपके या किसी अन्य के दिल को ठेस पहुंचा…उसके मन को दुखाना नहीं चाहता था लेकिन क्या करूँ?…मेरे सीने में भी तो एक धडकता हुआ दिल है ना?….वो ललित भाई के साथ होते हुए इस गलत बर्ताव को झेल नहीं पाया और व्यथित हो ऐसी….दिल में नश्तर की भांति चुभने वाली नकारात्मक टिप्पणियाँ कर बैठा| यकीन मानिए उन टिप्पणियों को लिखते वक्त मेरे मन में इस बात को लेकर रत्ती भर भी संशय नहीं था कि आप मेरी उन टिप्पणियों का खुले दिल से स्वागत कर…उन्हें सर-माथे से लगाएंगे…उन्हें तो शहीद होना था और वो हो गई…शायद!…किस्मत ही कुछ ऐसी थी उनकी

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मैंने अपनी पहली टिप्पणी में आपसे कहा था कि… “आप एक ही समय में अपने दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं”….

तो बताइए मैंने क्या गलत कहा?….

पहली पंक्ति में आप ललित जी के दुःख में दुखी हो उनके साथ सहानुभूति जता रहे हैं …उसके ठीक विपरीत अगली ही पंक्ति में आप उनके ब्लॉग्गिंग छोड़ने के निर्णय का स्वागत करते हुए उनके विरोधियों को खुश करने का प्रयत्न कर रहे है और फिर इसके ठीक उलट उससे अगली पंक्ति में आप पुन:पलटी खाते हुए उन्हें सान्तवना दे …उनके उज्जवल भविष्य की कामना कर रहे हैं…मैं पूछता हूँ कि शब्दों के साथ ऐसा खिलवाड क्यूँ?…क्यूँ?…क्यूँ?

आप कहते हैं कि ….’ब्लॉगजगत को श्री ललित शर्मा जी के  पुनरागमन की बेसबरी से सदैव प्रतीक्षा रहेगी’…

अरे!…ख़ाक प्रतीक्षा रहेगी?…. जिस आदमी को आप अंतिम विदा दे उसके मनोबल को पूर्ण रूप से तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं…उसे अंत में आप नाम भर के लिए पुचकार भी दें तो ऐसी मिथ्या…खोखली….निरर्थक सी पुचकुराहट का फायदा क्या?…

मेरी इस पोस्ट के जवाब में आप इस पर पलटवार करते हुए ये कह सकते हैं कि….”आपने नहीं कहा था ललित जी से ब्लॉग्गिंग छोड़ने के लिए और वो इसे अपनी मर्जी से छोड़ रहे थे वगैरा…वगैरा”…

ठीक है!…मानी आपकी बात कि उन्होंने ऐसा अपनी मर्ज़ी से…स्वेच्छा से कहा था लेकिन उन्होंने आपको भी तो भावभीनी विदाई देने के लिए नहीं कहा था ना? …फिर आपने क्यूँ दी?….  आपसे किसने कहा कि वो अपनी मर्ज़ी से….स्वेच्छा से रिटायर हो रहे थे?……क्या आप अपनी मर्ज़ी से रिटायर होना चाहेंगे?… शायद!…नहीं… आप क्या?…मुझ समेत कोई भी…तब तक रिटायर नहीं होना चाहेगा जब तक वो अपनी मंजिल …अपनी सारी खुशियों को ना पा ले….और अभी ललित जी ने तो बहुत कुछ लिखना था…बहुत कुछ पढ़ना था …लेकिन क्या करें?……घटनाक्रम कुछ ऐसा घटा कि यार ने ही लूट लिया घर यार का…

अगर आप जानते कि …अपनों द्वारा कही गई कड़वी बात कितनी पीड़ा…कितना दुःख देती है?… तो अपने आप समझ जाते कि ललित भाई ने ब्लॉग्गिंग छोड़ने का निर्णय किन परिस्तिथियों में? और क्यूँ लिया? और आप उनके इस कटु निर्णय का स्वागत करने के बजाय उनसे उसे वापिस लेने की मार्मिक अपील करते जैसी कि मुझ समेत बाकी के ब्लॉगर साथियों ने की थी लेकिन इसके उलट आपने तो ललित जी को रोकने…मनाने के बजाय उन्हें भावभीनी विदाई ऐसा पुख्ता इंतजाम कर दिया कि वो अपने फैंसले पर पुनर्विचार कर अगर यूटर्न लेना भी चाहें तो आसानी से ना ले सकें… 

कोई नौसिखिया या नया ब्लॉगर अगर ऐसा करता तो मैं उस नासमझ को नासमझ समझ कर उसकी बात को इग्नोर भी कर देता लेकिन आप जैसे वरिष्ठ ब्लॉगर द्वारा ऐसा किया जाना मुझे क्या?…किसी भी संवेदनशील ब्लॉगर को रास नहीं आया और ना ही आएगा…हाँ!…जिनकी आँख का पानी ही मर चुका हो …उनके बारे में क्या कहें?

मेरा आपसे सिर्फ इसी पोस्ट को लेकर मतभेद है…इसके अलावा ना मैंने आपकी भैंस खोली है और ना ही आपने मेरे खेत में अपने डांगर घुसाए हैं …हमारा-आपका कोई खानदानी…कोई पुश्तैनी वैर नहीं….जन्म-जन्मांतर से आप मेरे बुज़ुर्ग हैं….और सर्वदा रहेंगे …..इस नाते आपकी इज्ज़त करना मेरा धर्म ही नहीं बल्कि कर्त्तव्य भी है ….ब्लॉगजगत में आपकी इज्ज़त एवं रुतबे को देखते हुए मैं उम्मीद ही नहीं बल्कि आशा भी करता हूँ कि आप मेरी भावनाओं को समझते हुए मुझ नादान से हुआ सब कहा-सुना माफ कर अपने खुले दिल का परिचय देंगे

 

विनीत:

राजीव तनेजा

अंत में एक मार्मिक अपील फिर अपने ललित भाई से……कि वो सारे गिले-शिकवे भूल वापिस हमारे बीच लौट आएं…हिंदी के विकास और उत्थान के लिए सभी हिंदी प्रेमियों को उनके योगदान की आवश्यकता है

जय हिंद

ब्रेकिंग न्यूज़: अभी-अभी विश्वसनीय सूत्रों से अपुष्ट खबर मिली है कि ललित शर्मा जी ने वापिस ब्लॉग्गिंग करने का फैंसला किया है …आपका पुन: स्वागत है

नहीं परहेज़ मुझे किसी से सभी मुझको प्रिय सभी मुझको प्यारी

***राजीव तनेजा***

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मैँ हूँ बाल ब्रह्मचारी...

कन्या हो या हो कुंवारी

ब्याहता हो,,,

या हो परित्यक्ता नारी

नहीं परहेज़ मुझे किसी से

सभी मुझको प्रिय

सभी मुझको प्यारी

हलकी हो  या हो भारी

चौरसी हो  या हो ऑरी

मिर्ची चलेगी तेज़ करारी

मिलूँगा सबको बारी-बारी

नहीं परहेज़ मुझे किसी से

सभी मुझको प्रिय

सभी मुझको प्यारी

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गोरी हो या हो काली

हो बस जो मस्त औ मतवाली

बनेगी वही मेरी घरवाली

खेलूँगा मैँ सबसे लम्बी पारी

आओ चलो

करें हम सेहरे की तैयारी

हाँ!..मैँ हूँ बाल ब्रह्मचारी...

कन्या हो या हो कुंवारी

सभी मुझको प्रिय

सभी मुझको प्यारी

***राजीव तनेजा***

 
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