वो फ़ोन कॉल- वंदना बाजपेयी

जब भी हम किसी लेखक या लेखिका की रचनाओं पर ग़ौर करते हैं तो पाते है कि बहुत से लेखक/लेखिकाएँ अपने एक ही सैट पैटर्न या ढर्रे पर चलते हुए..एक ही जैसे तरीके से अपनी रचनाओं का विन्यास एवं विकास करते हैं। उनमें से किसी की रचनाओं में दृश्य अपने पूरे विवरण के साथ अहम भूमिका निभाते हुए नज़र आते हैं। तो किसी अन्य लेखक या लेखिका की रचनाओं में श्रंगार रस हावी होता दिखाई देता है। कुछ एक रचनाकारों की रचनाएँ  बिना इधर उधर फ़ालतू की ताक झाँक किए सीधे सीधे मुद्दे की ही बात करती नज़र आती हैं। खुद मेरी अपनी स्वयं की रचनाओं में दो या तीन से ज़्यादा किरदार नहीं होते जो संवादों के ज़रिए अपनी बात को पूरा करते हैं। 

ऐसे में अगर कभी आपको विविध शैलियों में लिखने वाले किसी रचनाकार की रचनाएँ पढ़ने को मिल जाएँ तो इसे आप सोने पे सुहागा समझिए। 
दोस्तों.. आज मैं अपने आसपास के माहौल से प्रेरित होकर लिखी गई रचनाओं के एक ऐसे कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'वो फ़ोन कॉल' के नाम से लिखा है वंदना बाजपेयी ने।

इस संकलन की प्रथम कहानी में अपने अवसाद ग्रसित भाई, विवेक को पहले ही खो चुकी रिया के पास जब एक रात अचानक किसी अनजान नम्बर से मदद की चाह में एक अनचाही कॉल आती है तो वो खुद भी बेचैन हो उठती है कि दूसरी तरफ़ कोई अनजान युवती, आत्महत्या करने से पहले उससे अपना दुःख..अपनी तकलीफ़.. अपनी व्यथा सांझा करना चाहती है। ऐसी ही मानसिक परिस्थितियों को अपने घर में स्वयं देख चुकी रिया क्या ऐसे में उसकी कोई मदद कर पाएगी?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में तरह-तरह के व्यंजन बनाने में निपुण ज्योति चाहती है कि उसका पति उसके बनाए खाने की तारीफ़ करे मगर उसे ना अपने पति से और ना ही बेटे से कभी किसी किस्म की तारीफ़ मिलती है। कहानी के अंत तक आते आते उसे अपने बनाए खाने की तारीफ़ मिलती तो है मगर..

तो वहीं एक अन्य कहानी उन मध्यमवर्गीय परिवारों की उस पित्तात्मक सोच को व्यक्त करती नज़र आती है जिसके तहत बेहद ज़रूरी होने पर भी घर की स्त्रियों को कभी झिझक..कभी इज़्ज़त तो कभी आत्म सम्मान के नाम पर बाहर काम कर के कमाने के लिए अनुमति नहीं दी जाती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की प्रेरणा देती अपने अंत तक पहुँचते पहुँचते भावुक कर देती है। तो वहीं एक अन्य कहानी छोटे शहर से दिल्ली में नौकरी करने आयी उस वैशाली की बात करती है जो ऑफिस में अपने बॉस द्वारा खुद को लगातार घूरे जाने से परेशान है। नौकरी छोड़ वापिस अपने शहर लौटने का मन बना चुकी वैशाली क्या इस दिक्कत से निजात पा पाएगी या फ़िर इस सबके के आगे घुटने टेक यहीं की हो कर रह जाएगी? 

इसी संकलन की एक अन्य रचना में लेखिका ने विभिन्न पत्रों के माध्यम से एक माँ के अपने बेटे के साथ जुड़ाव और उसमें आए बदलाव को बेटे के जन्म से ले कर उसके (बेटे के) प्रौढ़ावस्था तक पहुँचने की यात्रा के ज़रिए वर्णित किया है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में माँ समेत सभी बच्चे पिताजी के गुस्से की वजह से सहमे और डरे हुए हैं कि माँ, अपनी बार बार भूलने की आदत की वजह से, इस बार भी अपने हाथ की दोनों अँगूठियों को कहीं रख कर भूल कर चुकी है। जो अब एक हफ़्ते बाद भी लाख ढूँढने के बावजूद भी नहीं मिल रही हैं। क्या माँ समेत सभी बच्चों की उन्हें ढूँढने की सारी मेहनत..सारी कवायद रंग लाएगी अथवा अब उन अँगूठियों को इतने दिनों बाद भूल जाना ही बेहतर होगा? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी  एक ऐसे दंपत्ति की बात करती दिखाई देती देती है जो, समाज में दिखावे के लिए खरीदे गए, बड़े फ्लैट और महँगी गाड़ी इत्यादि की ई.एम.आई भरने की धुन में दिन रात ओवरटाइम कर पैसा तो कमा रहे हैं। मगर इस चक्कर में वे अपने इकलौते बेटे तक को भी उसकी परवरिश के लिए ज़रूरी समय और तवज्जो नहीं दे पाते। नतीजन टी.वी, मोबाइल और लैपटॉप  के ज़रिए अपने अकेलेपन से जूझ रहा उनका बेटा एक दिन आत्महत्या को उकसाती  एक भयावह वीडियो गेम के चंगुल में फँसता चला जाता है। अब देखना ये है कि क्या समय रहते उसके माँ-बाप चेत पाएँगे अथवा अन्य हज़ारों अभिभावकों की तरह वे भी अपने बच्चे की जान से हाथ धो बैठेंगे? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी ऑर्गेनिक फल-सब्ज़ियों से होती आजकल के तथाकथित फ़टाफ़ट वाले डिस्पोजेबल प्यार के ज़रिए इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि कई बार हम सब कुछ पास होते हुए ख़ाली हाथ होते हैं। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हुए उस सफ़ल व्यवसायी नीरज की बात करती है जिसे उसके बचपन में दादा ने अपने बेटे की अचानक हुई मौत के बाद ये कहते हुए उसकी माँ के साथ घर से दुत्कार कर निकाल दिया था कि वो उसके बेटे को खा गयी और ये एक नाजायज़ औलाद है। तो वहीं एक अन्य कहानी घर भर के सारे काम करती उस छोटी बहू, राधा की बात करती है जिसकी सौतेली माँ और पिता ने उसे , उसके ब्याह के बाद बिल्कुल भुला ही दिया है। घर में बतौर किराएदार रखे गए कुंवारे जीवन की निस्वार्थ भाव से मदद करने की एवज में उस पर घर की जेठ-जेठानियों द्वारा झूठे लांछन लगाए तो जाते हैं मगर अंततः सच की जीत तो हो कर रहती है। 

इसी संकलन की एक कहानी एक ऐसी नयी लेखिका की व्यथा व्यक्त करती नज़र आती है जो एक तरफ़ अपनी रचनाओं के लगातार अस्वीकृत होने से परेशान है तो दूसरी तरफ़ लोगों की साहित्य के प्रति अरुचि के चलते फुटपाथ पर रद्दी के भाव बिकती साहित्यिक किताबों को देख कर टूटने की हद तक आहत है। 

इस संकलन की एक आध कहानी मुझे थोड़ी फिल्मी लगी। कुछ कहानियाँ जो मुझे ज़्यादा बढ़िया लगी। उनके नाम इस प्रकार हैं।

*वो फ़ोन कॉल
*तारीफ़
*अम्मा की अँगूठी
*ज़िन्दगी की ई.एम.आई
*बददुआ
*वज़न

इस कहानी संकलन की जो कॉपी मुझे पढ़ने को मिली, उसमें बाइंडिंग के स्तर पर कमी दिखाई दी कि पेज एक तरतीब में सिलसिलेवार ढंग से लगने के बजाय अपने मन मुताबिक आगे पीछे लगे हुए दिखाई दिए जैसे कि पेज नम्बर 52 के बाद सीधे पेज नम्बर 65 और 68 के बाद 77 दिखाई दिया। इसके बाद पेज नम्बर 80 के बाद पेज नम्बर 61 लगा हुआ दिखाई दिया। ठीक इसी तरह आगे भी आगे के पेज पीछे और पीछे के पेज आगे लगे हुए दिखाई दिए। जिस पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। 

वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का इस्तेमाल ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी काफ़ी जगहों पर 'कि' की जगह पर 'की' लिखा हुआ नज़र आया। इसके अतिरिक्त पेज नंबर 50 पर लिखा दिखाई दिया कि..

एक दिन निशा की एक सहेली उससे मिलने आयी और छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए बोली'

यहाँ निशा की सहेली ने निशा को छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए देख कर बोला है यह वाक्य बोला है जबकि वाक्य पढ़ने से ऐसा लग रहा है जैसे निशा की सहेली ने ही छोटे फोन का इस्तेमाल किया है जबकि ऐसा नहीं है। इसलिए यह वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..

'एक दिन निशा की एक सहेली उससे मिलने आयी और उसे छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए देख बोली'


पेज नंबर 122 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'मजाल है दफ़्तर जाने में किसी को देर ना हो जाए'

यहाँ घर की छोटी बहू के काम की पाबंद होने की बात कही जा रही है लेकिन ये वाक्य इसी बात को काटता दिखाई दिया। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'मजाल है दफ़्तर जाने में किसी को देर हो जाए' 

इसी संकलन की एक कहानी का प्रसंग मुझे तथ्यात्मक रूप से सही नहीं लगा जिसमें पति की अचानक हुई मृत्यु के बाद अपने पाँच वर्षीय बेटे के भविष्य की चिंता में उसे ले कर जब उसकी माँ अपने गुस्सैल ससुर के पास जाती है। तो उनके अंतरजातीय विवाह से नाराज़ उसका ससुर उसे व उसके बेटे यानी कि अपने पोते को ये कह कर दुत्कारते हुए भगा देता है कि "वो उसके बेटे को खा गयी है और ये उसकी नहीं बल्कि किसी और की नाजायज़ औलाद है।" अपनी माँ को रोता गिड़गिड़ाता हुआ देख पोता, अपने दादा से इस अपमान का बदला लेने की कसम खाते हुए गुस्से में वहाँ से अपनी माँ के साथ लौट जाता है और ईंटों के एक भट्ठे पर काम कर के अपना तथा अपनी माँ का पेट भरने के साथ साथ दसवीं तक की पढ़ाई भी करता है। 

यहाँ मेरे ज़ेहन में ये सवाल कौंधा कि क्या मात्र पाँचवीं में पढ़ने वाला बच्चा स्वयं में इतना सक्षम था या हो सकता है कि पढ़ने के साथ- साथ वो कड़ी मेहनत से अपना व अपनी माँ का पेट भी भर सके?  हो सकता है जिजीविषा और हिम्मत के बल पर ऐसा हो पाना संभव हो मगर फ़िर यहाँ सवाल उठ खड़ा होता है कि अगर ऐसा संभव है 
भी तो क्या उसकी माँ स्वयं, खुद हाथ पे हाथ धरे बैठ, अपने बेटे को कड़ी मशक्कत कर पसीना बहाते देखती रही? 

यूँ तो धारा प्रवाह शैली में लिखा गया ये उम्दा कहानी संकलन मुझे लेखिका से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 167 पृष्ठीय बढ़िया कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 225/- रुपए जो कि क्वॉलिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।

मास्टरबा- कुमार विक्रमादित्य

किसी भी देश..राज्य..इलाके अथवा समाज के उद्धार के लिए ये बहुत ज़रूरी है कि वहाँ के ज़्यादा से ज़्यादा लोग पढ़े लिखे यानी कि समझदार हों। क्योंकि सिर्फ़ पढ़ा लिखा समझदार व्यक्ति ही अपने दिमाग का सही इस्तेमाल कर अपने अच्छे बुरे का फ़ैसला कर सकता है। लेकिन ये भी सार्वभौमिक सत्य है कि किसी भी इलाके का कोई भी शासक ये कदापि नहीं चाहेगा कि उसके क्रिया कलापों पर नज़र रख उससे सवाल करने वाला..उसकी आलोचना कर उसे सही रास्ते पर पर लाने या लाने का प्रयास करने वाला कोई मौजूद हो। 

ऐसे में हमारे भारत जैसे देश में जहाँ राजनीति की बिसात ही जाति.. धर्म और बाहुबल के आधार पर बनती-बिगड़ती और बिछती-बिखरती हो, भला कौन सी सरकार..नेता या हुक्मरान चाहेगा कि उसके किए फ़ैसलों पर कोई उँगली उठा..उसे ही कठघरे में खड़ा कर सके? ऐसे में सभी राजनैतिक पार्टियों के हुक्मरानों और अफ़सरशाही ने मिल कर ऐसा कुचक्र रचा कि बस जनता की संतुष्टि के लिए मात्र इतना भर दिखता रहे कि कुछ हो रहा है मगर असल में कुछ हो ही नहीं रहा हो। 

दोस्तों..आज मैं हमारे देश में शिक्षा की हो रही इस दुर्गति..इस दुर्दशा से जुड़ी बातों का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि आज मैं इसी विषय पर आधारित एक उपन्यास 'मास्टरबा' का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे गहन शोध..मेहनत और अध्यन के बाद लिखा है कुमार विक्रमादित्य ने। 

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है शिक्षा को एक ध्येय..एक पवित्र कार्य की तरह लेने वाले ईमानदार शिक्षक कुंदन सर की। जिनकी राह में बार-बार रोड़े अटकाने के काम को बखूबी अंजाम दिया है स्कूल के प्रधान कहे जाने वाले प्रधानाध्यापक ने। इस उपन्यास में एक तरफ़ बातें हैं उस राज्य सरकार की जिसने जहाँ एक तरफ़ माँग होने के बावजूद भी शिक्षकों की भर्ती पर ये कहते हुए रोक लगा दी कि उनके पास इस काम के लिए बजट नहीं है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में बातें हैं उस सरकार की जिसने शिक्षा की ज़रूरत को बहुत ही कम आंकते हुए महज़ रिक्त स्थानों को पूरा करने के बिना किसी योग्यता को जाँचे हर गधे घोड़े को इस आधार पर नौकरी दे दी कि उसके पास, जायज़ या नाजायज़, किसी भी तरीके की डिग्री होनी चाहिए। भले ही वो बिना किसी योग्यता के महज़ पैसे दे कर क्यों ना खरीदी गयी हो।

इसी उपन्यास में एक तरफ़ आनंद जैसे पढ़ने लिखने के शौकीन कई बालक दिखाई देते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ ऐसे बच्चों की भी कमी नहीं है जिन्हें स्कूल जाना ही किसी आफ़त..किसी मुसीबत  से कम नहीं लगता। इस उपन्यास में एक तरफ़ कुंदन और संतोष जैसे अध्यापक हैं जिनके लिए बच्चों को अच्छी शिक्षा देना किसी ध्येय..किसी मनोरथ से कम नहीं तो वहीं दूसरी तरफ इस उपन्यास में प्रधान और मीनू मैडम जैसे अध्यापक भी दिखाई देते हैं जिनकी बच्चों की पढ़ाई में कोई रुचि नहीं। 

इसी उपन्यास में कहीं नियोजित शिक्षक की व्यथा व्यक्त की जाती दिखाई देती है कि समाज द्वारा सभी नियोजित शिक्षकों, योग्य/अयोग्य को एक ही फीते से नाप उन्हें हेय की दृष्टि से देखा जाता है। इसी किताब में कहीं नकली डिग्री के आधार पर नौकरी मिलने की बात नज़र आती है तो कहीं पैसे दे के डिग्री खरीदने की। 

इसी किताब में कहीं लाखों रुपए की सरकारी तनख्वाह ले कर भी बच्चों को पढ़ाने के लिए कभी क्लास में ना जाने वाला अध्यापक दिखाई देता है। तो कहीं बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए दिन रात प्रयासरत रहता अध्यापक दिखाई देता है। कहीं कोई दबंग अभिभावक अपने बच्चे के अध्यापक को महज़ इसलिए धमकाता दिखाई देता है कि उसने,उसके बच्चे को भरी क्लास में डाँट दिया था। 

इसी उपन्यास में कहीं बच्चों के शैक्षिक भ्रमण की अनुदान राशि आपसी बंदरबाँट के चलते अध्यापकों में ही बँटती दिखाई दी तो कहीं महज़ खानापूर्ति के नाम पर पूरा भ्रमण ही हवाहवाई बन सरकारी फाइलों में गुम होता दिखाई दिया। कहीं विद्यालयों में शिक्षकों की कमी तो कहीं किसी अन्य विद्यालय में महज़ पाँच विद्यार्थी ही महज़ शिक्षा ग्रहण की औपचारिकता निभाते दिखाई देते हैं।

इसी किताब में कहीं किसी सरकार की छत्रछाया में शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय खामख्वाह के खर्च कह करबन्द किए जाते दिखाई दिए तो कहीं प्रतियोगिता के माध्यम से चुने गए शिक्षक भी उचित प्रशिक्षण के अभाव में अपने काम को सही से कर पाने में असफल रहने पर अन्य सरकारी विभागों में खपाए जाते नज़र आए।

कहीं बड़े अफ़सरों के मातहत तबादला करवाने या तबादला ना करवाने की एवज में अन्य शिक्षकों से पैसे ऐंठते दिखाई दिए। तो कहीं नौकरी जाने का डर दिखा शिक्षकों को जबरन चुनाव ड्यूटी करने के लिए मजबूर किया जाता दिखाई दिया। 

इसी उपन्यास में कहीं पिछले घोटालों को छुपाने के लिए घटिया फर्नीचर और बच्चों की उत्तर पुस्तकें आग में जलाई जाती दिखीं तो कहीं बिना आंसर शीट जाँचे ही परीक्षा परिणाम घोषित कर बच्चे पास किए जाने की बात भी उजागर होती दिखाई दी।कहीं सिफ़ारिश और रिश्वत के दम पर अयोग्य व्यक्तियों के ऊँचे पदों पर आसीन होने की बात दिखाई देती है। 

इसी उपन्यास में कहीं नाजायज़ होते हुए भी सरकार की नीति और ग्रामीण अभिभावकों के दबाव के चलते पढ़ाई में कमज़ोर बच्चों को फेल करने के बजाय पास करने की बात दिखाई देती है। 
तो कहीं कोई सरकार महज़ खानापूर्ति के लिए स्कूलों में अध्यापकों की खाली जगहों को भरती दिखाई देती है। 

यह उपन्यास कहीं इस बात की तस्दीक भी करता दिखाई देता है कि चपरासी..क्लर्क..अध्यापक और प्रधानाचार्य से ले कर ऊपर तक के सभी अफ़सर इस हमाम में इस हद तक नंगे हैं कि शरीफ़ आदमी का जायज़ काम भी बिना कमीशन खिलाए या रिश्वत दिए हो पाना असंभव है। 

तो कहीं महज़ पाँच रुपए के खर्च पर बच्चों के मध्याह्न भोजन के तैयार होने की बात कही जाती दिखाई देती है। कहीं स्कूल में बच्चों से प्रैक्टिकल एग्ज़ाम की एवज में ऐंठे गए पैसे की बंदरबाँट की प्लॉनिंग चलती दिखाई देती है। तो कहीं गढ़े मुर्दे खोदने की तर्ज़ पर हर पास हुए बिल में विधायक से ले कर ऊपर..अफ़सर तक अपना हिस्सा खोजते दिखाई देते हैं। 


इस पूरे उपन्यास में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के साथ साथ जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। साथ ही ज़रूरत होने के बावजूद भी बहुत सी जगहों से अल्पविराम (,) नदारद दिखे। इसके साथ ही संवादों की भरमार होने के बावजूद मुझे उनके इन्वर्टेड कौमा ("___°) में ना होने की कमी काफ़ी खली। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर 

पेज  नंबर 29 में दिखा दिखाई दिया कि..

'आज क्या तो पोशाक के पैसे, आज क्या साइकिल के पैसे, आज नैपकिन, आज छात्रवृत्ति, आज प्रीमैट्रिक, तो आज पोस्ट मैट्रिक, आज पोस्ट इंटरमीडिएट तो आज प्री इंटरमीडिएट, ऐसे कितने सारे स्कीम हैं जो रह-रह कर आते रहते हैं' 

इस वाक्य में बार बार 'आज' शब्द का प्रयोग वाक्य विन्यास को कमज़ोर कर रहा है। यहाँ 'आज' शब्द के बजाय 'कभी' शब्द का इस्तेमाल किया जाना ज़्यादा उचित रहेगा। 

पेज नम्बर 37 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'तब तक विद्यालय का मुख्य द्वार आ चुका था, बस वाले ने बस रोक दी, आनंद उसे पैसे दिए और अपने विद्यालय की तरफ बढ़ गया।'

कायदे से तो बस का टिकट, बस में चढ़ते वक्त ही लिया जाना चाहिए लेकिन यहाँ, इस उपन्यास में लिखा जा रहा है कि बस से उतरते वक्त आनंद ने बस वाले को पैसे दिए। 

पेज नंबर 178 की प्रथम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि...

'खैर हमारे शिक्षकों को भी कुछ दिनों के बाद मज़ा आने लगा, जो कल तक अलग-थलग थे वह भी हमारा साथ देने लगे। अब उपस्थिति पचहत्तर प्रतिशत ही नहीं थी, सौ प्रतिशत का आंकड़ा भी कम पड़ने लगा था।'

यहाँ ये ध्यान देने वाली बात है कि सौ प्रतिशत मतलब संपूर्ण यानी कि चाहे गिनती सैंकड़ों..हज़ारों अथवा लाखों..करोड़ों या फ़िर अरबों..खरबों तक जा पहुँचे, सौ प्रतिशत का मतलब सब कुछ इसमें आ गया। ऐसे में ये कहना कि..'सौ प्रतिशत का आंकड़ा भी कम पड़ने लगा था', एक तरह से बेमानी ही है। इसलिए इस वाक्य की यहाँ ज़रूरत ही नहीं थी। 


पाठकीय नज़रिए से अगर कहूँ तो पूरा उपन्यास मुझे  कई जगहों पर उपन्यास के बजाय किसी वृतचित्र यानी कि डॉक्यूमेंट्री जैसा लगा। 

मेरे हिसाब से पूरी कहानी एक ही फॉरमैट में कही जानी चाहिए या तो लेखक के हवाले से या फ़िर पात्रों के हवाले से लेकिन इस उपन्यास में लेखक कहीं स्वयं ही कहानी के सूत्रधार पर कहानी को आगे बढ़ाते दिखाई दिए तो कहीं स्वयं उन्होंने ही कहानी के मुख्य पात्र, कुंदन सर का लबादा ओढ़ लिया। जो कि थोड़ा अटपटा सा लगा।  पूरी कहानी को अगर स्वयं कुंदन सर ही अपने नज़रिए से पेश करते तो ज़्यादा बेहतर होता।

साथ ही किसी भी कहानी या उपन्यास में विश्वसनीयता लाने के लिए ये बेहद ज़रूरी होता है कि लेखक अपने किरदारों के हिसाब से परकाया प्रवेश कर उन्हीं की तरह बोले-चाले.. उन्हीं की तरह सोचे-समझे और उनकी समझ एवं स्वभाव के हिसाब से ही अपने बर्ताव को रखे। अगर इन कसौटियों पर कस कर देखें तो मुझे ये उपन्यास इस कार्य में पिछड़ता हुआ दिखाई दिया कि छोटे बच्चे से ले कर माँ बाप..सेना के अफ़सर.. अध्यापक..प्रधानाचार्य तक सभी के सभी एक जैसी भाषा में बोलते..बतियाते और सोचते हुए दिखाई दिए। बहुत सी जगह पर ऐसा भी प्रतीत हुआ कि उपन्यास के सभी पात्र अपने स्वभाविक चरित्र या भाषा के बजाय लेखक की ही ज़बान में उसके ही एजेंडे को पेश कर रहे हों। 


उपन्यास की रोचकता बढ़ाने के लिए ये ज़रूरी है कि पूरे उपन्यास के बीच में कहीं कहीं रिलैक्सेशन के लिए राहत के छींटों के तौर पर कुछ दृश्यों के होने के ज़रूरत के हिसाब से पात्रों की भाव भंगिमाओं और उनकी बॉडी लैंग्वेज का भी उसमें विवरण ज़रूर हो लेकिन इस उपन्यास को पढ़ते वक्त ऐसा लगा जैसे पूरा उपन्यास एक टेंशन..एक तनाव के तहत बिना किस दृश्य बदलाव के एक ही सैट पर एक नाटक की तरह लिखा या खेला जाता दिखाई दिया। उपन्यास की शुरुआत में दिखाई देने वाला छोटा सा बालक, आनंद कब बड़ा हो कर उपन्यास के अंत तक पहुँचते-पहुँचते जिले का कलैक्टर बन गया, पता ही नहीं चला सिवाय उपन्यास के बीच में आयी एक पंक्ति के कि.. आनंद अब दसवीं में हो गया है। 


साथ ही विद्यालय की कक्षा को 'कक्षा' कहने के बजाय बार-बार 'वर्ग' कहना तथा इसी तरह के कई अन्य शब्दों का शुद्ध हिंदी या दफ़्तरी भाषा के नाम पर प्रयोग करना मुझे मेरी समझ से परे का लगा। ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक अपनी कृति को पहुँचाने के लिए ये आवश्यक है कि किसी भी कृति या किताब की भाषा आम आदमी या ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को समझ में आने के हिसाब से ही लिखी गयी हो। 

भड़ास या आत्मालाप शैली में लिखे गए इस उपन्यास में सीधी..सरल..सपाट बातों के अतिरिक्त कहानी के दृश्य भी आपस में गडमड हो..बिखरते दिखाई दिए लेकिन इसे मैं लेखक की कुशलता कहूँगा कि शिथिल या बोझिल तरीके से धीमे धीमे चलता हुआ यह उपन्यास अपने आधे रास्ते के बाद एकाएक रफ़्तार पकड़ रोचक होता चला गया।


अगर पुनः संपादन के प्रयास किए जाएँ तो आसानी से महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर लिखे गए इस बेहद ज़रूरी उपन्यास को 191 पृष्ठों के बजाय 150 पृष्ठों में समेट कर रोचक बनाया जा सकता है। 

यूँ तो शिक्षाजगत में हो रही धांधलियों को उजागर करता यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 191 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है अंजुमन प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 


 
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