किसी भी देश..राज्य..इलाके अथवा समाज के उद्धार के लिए ये बहुत ज़रूरी है कि वहाँ के ज़्यादा से ज़्यादा लोग पढ़े लिखे यानी कि समझदार हों। क्योंकि सिर्फ़ पढ़ा लिखा समझदार व्यक्ति ही अपने दिमाग का सही इस्तेमाल कर अपने अच्छे बुरे का फ़ैसला कर सकता है। लेकिन ये भी सार्वभौमिक सत्य है कि किसी भी इलाके का कोई भी शासक ये कदापि नहीं चाहेगा कि उसके क्रिया कलापों पर नज़र रख उससे सवाल करने वाला..उसकी आलोचना कर उसे सही रास्ते पर पर लाने या लाने का प्रयास करने वाला कोई मौजूद हो।
ऐसे में हमारे भारत जैसे देश में जहाँ राजनीति की बिसात ही जाति.. धर्म और बाहुबल के आधार पर बनती-बिगड़ती और बिछती-बिखरती हो, भला कौन सी सरकार..नेता या हुक्मरान चाहेगा कि उसके किए फ़ैसलों पर कोई उँगली उठा..उसे ही कठघरे में खड़ा कर सके? ऐसे में सभी राजनैतिक पार्टियों के हुक्मरानों और अफ़सरशाही ने मिल कर ऐसा कुचक्र रचा कि बस जनता की संतुष्टि के लिए मात्र इतना भर दिखता रहे कि कुछ हो रहा है मगर असल में कुछ हो ही नहीं रहा हो।
दोस्तों..आज मैं हमारे देश में शिक्षा की हो रही इस दुर्गति..इस दुर्दशा से जुड़ी बातों का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि आज मैं इसी विषय पर आधारित एक उपन्यास 'मास्टरबा' का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे गहन शोध..मेहनत और अध्यन के बाद लिखा है कुमार विक्रमादित्य ने।
मूलतः इस उपन्यास में कहानी है शिक्षा को एक ध्येय..एक पवित्र कार्य की तरह लेने वाले ईमानदार शिक्षक कुंदन सर की। जिनकी राह में बार-बार रोड़े अटकाने के काम को बखूबी अंजाम दिया है स्कूल के प्रधान कहे जाने वाले प्रधानाध्यापक ने। इस उपन्यास में एक तरफ़ बातें हैं उस राज्य सरकार की जिसने जहाँ एक तरफ़ माँग होने के बावजूद भी शिक्षकों की भर्ती पर ये कहते हुए रोक लगा दी कि उनके पास इस काम के लिए बजट नहीं है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में बातें हैं उस सरकार की जिसने शिक्षा की ज़रूरत को बहुत ही कम आंकते हुए महज़ रिक्त स्थानों को पूरा करने के बिना किसी योग्यता को जाँचे हर गधे घोड़े को इस आधार पर नौकरी दे दी कि उसके पास, जायज़ या नाजायज़, किसी भी तरीके की डिग्री होनी चाहिए। भले ही वो बिना किसी योग्यता के महज़ पैसे दे कर क्यों ना खरीदी गयी हो।
इसी उपन्यास में एक तरफ़ आनंद जैसे पढ़ने लिखने के शौकीन कई बालक दिखाई देते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ ऐसे बच्चों की भी कमी नहीं है जिन्हें स्कूल जाना ही किसी आफ़त..किसी मुसीबत से कम नहीं लगता। इस उपन्यास में एक तरफ़ कुंदन और संतोष जैसे अध्यापक हैं जिनके लिए बच्चों को अच्छी शिक्षा देना किसी ध्येय..किसी मनोरथ से कम नहीं तो वहीं दूसरी तरफ इस उपन्यास में प्रधान और मीनू मैडम जैसे अध्यापक भी दिखाई देते हैं जिनकी बच्चों की पढ़ाई में कोई रुचि नहीं।
इसी उपन्यास में कहीं नियोजित शिक्षक की व्यथा व्यक्त की जाती दिखाई देती है कि समाज द्वारा सभी नियोजित शिक्षकों, योग्य/अयोग्य को एक ही फीते से नाप उन्हें हेय की दृष्टि से देखा जाता है। इसी किताब में कहीं नकली डिग्री के आधार पर नौकरी मिलने की बात नज़र आती है तो कहीं पैसे दे के डिग्री खरीदने की।
इसी किताब में कहीं लाखों रुपए की सरकारी तनख्वाह ले कर भी बच्चों को पढ़ाने के लिए कभी क्लास में ना जाने वाला अध्यापक दिखाई देता है। तो कहीं बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए दिन रात प्रयासरत रहता अध्यापक दिखाई देता है। कहीं कोई दबंग अभिभावक अपने बच्चे के अध्यापक को महज़ इसलिए धमकाता दिखाई देता है कि उसने,उसके बच्चे को भरी क्लास में डाँट दिया था।
इसी उपन्यास में कहीं बच्चों के शैक्षिक भ्रमण की अनुदान राशि आपसी बंदरबाँट के चलते अध्यापकों में ही बँटती दिखाई दी तो कहीं महज़ खानापूर्ति के नाम पर पूरा भ्रमण ही हवाहवाई बन सरकारी फाइलों में गुम होता दिखाई दिया। कहीं विद्यालयों में शिक्षकों की कमी तो कहीं किसी अन्य विद्यालय में महज़ पाँच विद्यार्थी ही महज़ शिक्षा ग्रहण की औपचारिकता निभाते दिखाई देते हैं।
इसी किताब में कहीं किसी सरकार की छत्रछाया में शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय खामख्वाह के खर्च कह करबन्द किए जाते दिखाई दिए तो कहीं प्रतियोगिता के माध्यम से चुने गए शिक्षक भी उचित प्रशिक्षण के अभाव में अपने काम को सही से कर पाने में असफल रहने पर अन्य सरकारी विभागों में खपाए जाते नज़र आए।
कहीं बड़े अफ़सरों के मातहत तबादला करवाने या तबादला ना करवाने की एवज में अन्य शिक्षकों से पैसे ऐंठते दिखाई दिए। तो कहीं नौकरी जाने का डर दिखा शिक्षकों को जबरन चुनाव ड्यूटी करने के लिए मजबूर किया जाता दिखाई दिया।
इसी उपन्यास में कहीं पिछले घोटालों को छुपाने के लिए घटिया फर्नीचर और बच्चों की उत्तर पुस्तकें आग में जलाई जाती दिखीं तो कहीं बिना आंसर शीट जाँचे ही परीक्षा परिणाम घोषित कर बच्चे पास किए जाने की बात भी उजागर होती दिखाई दी।कहीं सिफ़ारिश और रिश्वत के दम पर अयोग्य व्यक्तियों के ऊँचे पदों पर आसीन होने की बात दिखाई देती है।
इसी उपन्यास में कहीं नाजायज़ होते हुए भी सरकार की नीति और ग्रामीण अभिभावकों के दबाव के चलते पढ़ाई में कमज़ोर बच्चों को फेल करने के बजाय पास करने की बात दिखाई देती है।
तो कहीं कोई सरकार महज़ खानापूर्ति के लिए स्कूलों में अध्यापकों की खाली जगहों को भरती दिखाई देती है।
यह उपन्यास कहीं इस बात की तस्दीक भी करता दिखाई देता है कि चपरासी..क्लर्क..अध्यापक और प्रधानाचार्य से ले कर ऊपर तक के सभी अफ़सर इस हमाम में इस हद तक नंगे हैं कि शरीफ़ आदमी का जायज़ काम भी बिना कमीशन खिलाए या रिश्वत दिए हो पाना असंभव है।
तो कहीं महज़ पाँच रुपए के खर्च पर बच्चों के मध्याह्न भोजन के तैयार होने की बात कही जाती दिखाई देती है। कहीं स्कूल में बच्चों से प्रैक्टिकल एग्ज़ाम की एवज में ऐंठे गए पैसे की बंदरबाँट की प्लॉनिंग चलती दिखाई देती है। तो कहीं गढ़े मुर्दे खोदने की तर्ज़ पर हर पास हुए बिल में विधायक से ले कर ऊपर..अफ़सर तक अपना हिस्सा खोजते दिखाई देते हैं।
इस पूरे उपन्यास में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के साथ साथ जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। साथ ही ज़रूरत होने के बावजूद भी बहुत सी जगहों से अल्पविराम (,) नदारद दिखे। इसके साथ ही संवादों की भरमार होने के बावजूद मुझे उनके इन्वर्टेड कौमा ("___°) में ना होने की कमी काफ़ी खली। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर
पेज नंबर 29 में दिखा दिखाई दिया कि..
'आज क्या तो पोशाक के पैसे, आज क्या साइकिल के पैसे, आज नैपकिन, आज छात्रवृत्ति, आज प्रीमैट्रिक, तो आज पोस्ट मैट्रिक, आज पोस्ट इंटरमीडिएट तो आज प्री इंटरमीडिएट, ऐसे कितने सारे स्कीम हैं जो रह-रह कर आते रहते हैं'
इस वाक्य में बार बार 'आज' शब्द का प्रयोग वाक्य विन्यास को कमज़ोर कर रहा है। यहाँ 'आज' शब्द के बजाय 'कभी' शब्द का इस्तेमाल किया जाना ज़्यादा उचित रहेगा।
पेज नम्बर 37 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'तब तक विद्यालय का मुख्य द्वार आ चुका था, बस वाले ने बस रोक दी, आनंद उसे पैसे दिए और अपने विद्यालय की तरफ बढ़ गया।'
कायदे से तो बस का टिकट, बस में चढ़ते वक्त ही लिया जाना चाहिए लेकिन यहाँ, इस उपन्यास में लिखा जा रहा है कि बस से उतरते वक्त आनंद ने बस वाले को पैसे दिए।
पेज नंबर 178 की प्रथम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि...
'खैर हमारे शिक्षकों को भी कुछ दिनों के बाद मज़ा आने लगा, जो कल तक अलग-थलग थे वह भी हमारा साथ देने लगे। अब उपस्थिति पचहत्तर प्रतिशत ही नहीं थी, सौ प्रतिशत का आंकड़ा भी कम पड़ने लगा था।'
यहाँ ये ध्यान देने वाली बात है कि सौ प्रतिशत मतलब संपूर्ण यानी कि चाहे गिनती सैंकड़ों..हज़ारों अथवा लाखों..करोड़ों या फ़िर अरबों..खरबों तक जा पहुँचे, सौ प्रतिशत का मतलब सब कुछ इसमें आ गया। ऐसे में ये कहना कि..'सौ प्रतिशत का आंकड़ा भी कम पड़ने लगा था', एक तरह से बेमानी ही है। इसलिए इस वाक्य की यहाँ ज़रूरत ही नहीं थी।
पाठकीय नज़रिए से अगर कहूँ तो पूरा उपन्यास मुझे कई जगहों पर उपन्यास के बजाय किसी वृतचित्र यानी कि डॉक्यूमेंट्री जैसा लगा।
मेरे हिसाब से पूरी कहानी एक ही फॉरमैट में कही जानी चाहिए या तो लेखक के हवाले से या फ़िर पात्रों के हवाले से लेकिन इस उपन्यास में लेखक कहीं स्वयं ही कहानी के सूत्रधार पर कहानी को आगे बढ़ाते दिखाई दिए तो कहीं स्वयं उन्होंने ही कहानी के मुख्य पात्र, कुंदन सर का लबादा ओढ़ लिया। जो कि थोड़ा अटपटा सा लगा। पूरी कहानी को अगर स्वयं कुंदन सर ही अपने नज़रिए से पेश करते तो ज़्यादा बेहतर होता।
साथ ही किसी भी कहानी या उपन्यास में विश्वसनीयता लाने के लिए ये बेहद ज़रूरी होता है कि लेखक अपने किरदारों के हिसाब से परकाया प्रवेश कर उन्हीं की तरह बोले-चाले.. उन्हीं की तरह सोचे-समझे और उनकी समझ एवं स्वभाव के हिसाब से ही अपने बर्ताव को रखे। अगर इन कसौटियों पर कस कर देखें तो मुझे ये उपन्यास इस कार्य में पिछड़ता हुआ दिखाई दिया कि छोटे बच्चे से ले कर माँ बाप..सेना के अफ़सर.. अध्यापक..प्रधानाचार्य तक सभी के सभी एक जैसी भाषा में बोलते..बतियाते और सोचते हुए दिखाई दिए। बहुत सी जगह पर ऐसा भी प्रतीत हुआ कि उपन्यास के सभी पात्र अपने स्वभाविक चरित्र या भाषा के बजाय लेखक की ही ज़बान में उसके ही एजेंडे को पेश कर रहे हों।
उपन्यास की रोचकता बढ़ाने के लिए ये ज़रूरी है कि पूरे उपन्यास के बीच में कहीं कहीं रिलैक्सेशन के लिए राहत के छींटों के तौर पर कुछ दृश्यों के होने के ज़रूरत के हिसाब से पात्रों की भाव भंगिमाओं और उनकी बॉडी लैंग्वेज का भी उसमें विवरण ज़रूर हो लेकिन इस उपन्यास को पढ़ते वक्त ऐसा लगा जैसे पूरा उपन्यास एक टेंशन..एक तनाव के तहत बिना किस दृश्य बदलाव के एक ही सैट पर एक नाटक की तरह लिखा या खेला जाता दिखाई दिया। उपन्यास की शुरुआत में दिखाई देने वाला छोटा सा बालक, आनंद कब बड़ा हो कर उपन्यास के अंत तक पहुँचते-पहुँचते जिले का कलैक्टर बन गया, पता ही नहीं चला सिवाय उपन्यास के बीच में आयी एक पंक्ति के कि.. आनंद अब दसवीं में हो गया है।
साथ ही विद्यालय की कक्षा को 'कक्षा' कहने के बजाय बार-बार 'वर्ग' कहना तथा इसी तरह के कई अन्य शब्दों का शुद्ध हिंदी या दफ़्तरी भाषा के नाम पर प्रयोग करना मुझे मेरी समझ से परे का लगा। ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक अपनी कृति को पहुँचाने के लिए ये आवश्यक है कि किसी भी कृति या किताब की भाषा आम आदमी या ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को समझ में आने के हिसाब से ही लिखी गयी हो।
भड़ास या आत्मालाप शैली में लिखे गए इस उपन्यास में सीधी..सरल..सपाट बातों के अतिरिक्त कहानी के दृश्य भी आपस में गडमड हो..बिखरते दिखाई दिए लेकिन इसे मैं लेखक की कुशलता कहूँगा कि शिथिल या बोझिल तरीके से धीमे धीमे चलता हुआ यह उपन्यास अपने आधे रास्ते के बाद एकाएक रफ़्तार पकड़ रोचक होता चला गया।
अगर पुनः संपादन के प्रयास किए जाएँ तो आसानी से महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर लिखे गए इस बेहद ज़रूरी उपन्यास को 191 पृष्ठों के बजाय 150 पृष्ठों में समेट कर रोचक बनाया जा सकता है।
यूँ तो शिक्षाजगत में हो रही धांधलियों को उजागर करता यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 191 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है अंजुमन प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
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