या तो नूँ ऐ चालेगी

“हद हो गयी ये तो एकदम पागलपन की…नासमझ है स्साले सब के सब….अक्ल नहीं है किसी एक में भी…लाठी..फन फैलाए..नाग पर भांजनी है मगर पट्ठे..ऐसे कमअक्ल कि निरीह बेचारी जनता के ही एक तबके को पीटने की फिराक में हाय तौबा मचा…अधमरे हुए जा रहे हैं"…

“किसकी बात कर रहे हैं तनेजा जी?”…

“हर एक को बस..अपनी ही पड़ी हुई है..बाकी सब जाएँ बेशक…भाड़ में…(मेरा बडबडाना जारी था)

“हुआ क्या तनेजा जी?…कुछ बताइए तो सही"…

“पेट पे लात लगी तो लगे अम्मा..अम्मा चिल्लाने…यही अगर पहले ही अक्ल से काम लिया होता तो काहे को इतनी दिक्कत…इतनी परेशानी आती?”मैं मेज़ पर पड़े गिलास को उठा..पानी पीता हुआ बडबडाया…

“किसे पानी पी..पी कर कोस रहे हैं तनेजा जी?…कुछ बताइए तो सही"शर्मा जी के स्वर में असमंजस भरी उत्सुकता थी….

“अरे!..उन्हीं बावलों को कोस रहा हूँ जो इन नए…जगह जगह कुकुरमुत्तों के माफिक उग आए ई-रिक्शों पर बैन लगाने की सिफारिश कर रहे हैं"मैं आवेश में हाँफते हुए अपने माथे पे चुह आई पसीने की बूंदों को रुमाल से पोंछता हुआ बोला..

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“सही ही तो कर रहे हैं बेचारे…ना कोई लाईसेंस…ना कोई नंबर…

“फिर भी कमाई बंपर…भय्यी..वाह…बहुत बढ़िया”…

“वोही तो"…

“सीधी बात ये कि किसी से किसी की कमाई देखी नहीं जाती"…

“वोही तो…अच्छे भले ये पैडल वाले..आम यात्रियों को लूट..कमा धमा रहे थे लेकिन वो स्साले चुपचाप..दबे पाँव..जाने कहाँ से आसमानी फ़रिश्ते बन टपक पड़े और 10 रूपए में हवादार सवारी का होका लगा बेडागर्क कर के रख दिया पूरी लोकल ट्रांसपोर्ट जमात का"…

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“और वो जो पहले दो..दो किलोमीटर के चालीस..चालीस रूपए माँग रहे थे?…वो जायज़ था?”…

“माना कि जायज़ नहीं था…नाजायज़ था लेकिन डॉक्टर ने नहीं कहा है कि नवाबों की तरह ठाठ से..हिचकोले खा..अपने पिछवाड़े की ऐसी तैसी करवाते हुए रिक्शे की ही सवारी करो…अपना..ग्रामीण सेवा में भी तो…

“धक्के खा…पसीने से लतपथ हो..खुद को खुडढल लाइन लगाया जा सकता है?”…

“जी!..बिलकुल"…

“हुंह!…बड़ी सेवा…सेवा की बात करते हैं….अरे!…काहे की सेवा?…किस बात की सेवा?..किस चीज़ की सेवा?..सब स्साले..एक नंबर के हरामी….पहले ब्लू लाईनों से आतंक मचा रखा था और अब इस तथाकथित सेवा(?) के जरिए अंधेरगर्दी मचा रखी है सरासर”….

“हम्म!…

“छह की जगह बारह-पंद्रह तक सवारियाँ ऐसे ठूसते हैं दडबे में जैसे हम लोग इनसान ना हुए…मरियल..बीमारी खाए चूजे या मुर्गियाँ हो गयी कि..होने दो ऐसी तैसी…हमरे बाप का क्या जाता है?”..

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“हम्म!…ये बात तो है"…

“और बेशर्मी तो देखो ऐसी पट्ठों की कि..चेहरे पे शिकन तक नहीं"…

“हम्म!…

“कुछ कहो तो ठठा कर हँसते हुए उलटा हमें ही धमका के कहते हैं… ‘आगे से चढ़ मति जाईओ’"…

“हम्म!…

“यही अगर पहले से ही अक्ल से काम लिया होता बावलों ने तो ऐसे दुर्दिन दिन देखने की नौबत तो ना आती कि कोर्ट कचहरी के चक्कर दिहाड़ी गुल होती फिरे?”…

“हम्म!..

“मगर पहले?…पहले तो नवाबों जैसी अकड़ कि…या तो भाई…नूँ ऐ चालेगी…पाड़ सकै तो पाड़ ले म्हारा पुंज्जा”…

“वैसे…देखा जाए तो इसमें..उनका भी कसूर नहीं है..सबसे पहले तो ग्रामीण सेवा का मालिक ही मुँह फाड़ के खड़ा हो जाता है कि..मुझे तो भय्यी… शाम को हज़ार रूपए का कड़कड़ाता हुआ नोट चाहिए…बाकियों से खुद निबटो"…

“बाकी कौन?”…

“अपने ट्रैफिक पुलिस और पाँच नंबर  वाले…और कौन?..सबको मंथली चाहिए बेशक कमाई हो या ना हो"…

“पहली बात तो ये सिरे से ही गलत है कि ग्रामीण सेवा को किराए पे चलाया जाए…अपना…जिसके नाम परमिट है..वही चलाए"…

“क्क..क्या?…क्या कहा?…परमिट वाले खुद चलाएँ?…कुछ होश में तो हो या फिर बिलकुल ही बौरा गए?”…

“क्यों?…क्या हुआ?”…

“कुछ पता भी है…इन जर्जर…कंडम…अधमरी सी हालत वाली..लगभग मृतप्राय हो चुकी गाड़ियों के मालिक…असल में हैं कौन?”…

“कौन हैं?”…

“कई कई आलीशान कोठियों और बंगलों के मालिक”..

“ओह!…

“और तुम चाहते हो कि..वो खुद होका लगा 5-5…10-10 रूपए इकट्ठे करते फिरें?”…

“लेकिन ग्रामीण सेवा तो गाँव के गरीब लोगों के लिए….

“हुंह!..गरीब लोगों के लिए…गरीब आदमी बस..इन्हें चला सकता है..इनका मालिक नहीं बन सकता”…

“ओह!…

“ये ब्लू लाइन वाले रसूखदार तबके के ही बिगड़े हुए लोग हैं…राजनैतिक दबाव के चलते जब ब्लू लाईनों पर बन आई तो दिल्ली की ऐसी तैसी करने के लिए इन्होने ये ग्रामीण सेवा रुपी जुगाड़ निकाल लिया"…

“ओह!…इसका मतलब इन्हीं की शह पर कोर्ट में ई रिक्शों के खिलाफ उलटा सीधा केस दर्ज कर उन्हें रस्ते से हटाने की तैयारी है"…

“हम्म!…लगता तो यही है लेकिन ये जो तुम्हारे इस ई रिक्शे वाले की टक्कर से बच्चा खौलती चासनी की कढाई में जा गिरा और बेमौत मर गया….उसका क्या?”…

“तो इसके लिए उस हलवाई को पकड़ो जो सरेआम सड़क पर मौत का सामान लिए अपना ठिय्या जमा के बैठा था"…

“ये क्या बात हुई?…ऐसे तो पूरी दिल्ली में दुकानदारों ने…रेहडी पटरी और खोमचे वालों ने सड़क किनारे अवैध कब्ज़े कर रखे हैं…उन सबको पकड़ के अन्दर कर दें?”…

“बिलकुल कर देना चाहिए"…

“फिर तो हो लिया गुज़ारा….हर तरफ अराजकता नहीं फ़ैल जाएगी?”…

“ऐसे कौन सी कम अराजकता फ़ैली हुई है?…पैदल चलने वालों की जगह पर दुकानदारों ने कब्ज़ा कर रखा है…सड़कों पर मोटर गाड़ियों ने ऐसी तैसी कर रखी है…पैदल चलने वाला बेचारा चले तो फिर चले कहाँ पर?…

“लेकिन क़ानून नाम की भी कोई चीज़ होती है…अपना क़ानून के हिसाब से तो….

“क़ानून के हिसाब से यहाँ चलता ही कौन है जनाब?…ना कोई यहाँ सही से ट्रैफिक के नियमों का पालन करता है?…ना कोई यहाँ सही से टैक्स भरता है?…ना ही कोई यहाँ सही से किसी भी नियम का अक्षरश पालन करता है?”…

“हम्म!..ये बात तो है"..

“सीधी बात ये कि ये पूरा देश ही भगवान भरोसे चल रहा है…इसका भगवान ही मालिक है"…

“जी!..बिलकुल..ये पूरा देश ही भगवान् भरोसे चल रहा है"…

“हम्म!…

“लेकिन एक बात समझ नहीं आई"…

“क्या?”…

“यही कि आपको इन ई रिक्शा वालों से इतनी क्यों हमदर्दी है?”…

“भला क्यों नहीं होगी?…कुछ पता भी है कैसे बेचारों ने पाई पाई जोड़ के पैसे जमा किए होंगे रिक्शे खरीदने के लिए?….कैसे उन्होंने बेरोजगारी से तंग आ कर..उज्जवल भविष्य की चाह में 10-10% ब्याज पर रुपया उधार लेकर अपनी ऐसी तैसी करवाई होगी?…कैसे वो बेचारे अपना पेट काट काट कर रोजाना का चार चार सौ रूपए किराया भरते होंगे?….

“लेकिन इसमें हम आप भला क्या कर सकते हैं?…अगलों की किस्मत…अगले जाने"…

“अरे!…वाह…ऐसे कैसे अगले जाने?….पैसा तो मेरा…मेरे बाप का लगा है ना ब्याज पे…मूल डूबेगा तो मेरा ही डूबेगा…किसी और का थोड़े ही डूबेगा"…

“ओह!…

“वैसे आपको क्या लगता है..ऊँट किस करवट बैठेगा?”…

“मतलब?”…

“कोर्ट का फैसला किसके पक्ष में होगा?”…

“मेरे हिसाब से तो पूरी तरह से बैन लगाना तो मुमकिन नहीं…लगाना भी नहीं चाहिए…पब्लिक को इनसे बड़ा आराम है"…

“जी!…ये बात तो है"…

“हाँ!…इनके लिए कोई ट्रेनिंग प्रोग्राम वगैरा ज़रूर होना चाहिए कि…कैसे चलाएँ…कितनी सवारियाँ बिठाएँ वगैरा वगैरा”…

“जी!…

“चिंता ना करें…आपका मूल नहीं डूबेगा"…

“ओह!…थैंक यू…आपके मुँह में घी शक्कर"…

“बस!…ये ई-रिक्शे..किसी को मारे ना टक्कर"……    

हा….हा…..हा…हा…

{कथा समाप्त}

 
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