इन्तिहा हो गई…हर बात की(अंतिम भाग) राजीव तनेजा

दोस्तों…जैसा कि इस कहानी के पिछले भाग में आपने पढ़ा कि कैसे ‘दुबे’ नाम का एक अनजाना शख्स मुझे चने के झाड पे चढाते हुए मेरी कहानी पर फिल्म बनाने का ऑफर देता है और कई दिलचस्प मोड़ों के बाद  बदलते घटनाक्रम के दौरान वो मेरी किताब भी छपवाने का वादा करता है…

  • क्या सच में मेरी कहानी पर फिल्म बन सकती है या जाएगी?
  • या किताब के रूप में मेरी कहानियों को उनके असली कद्रदान याने के पाठक मिल जाएँगे?

जानिये ये सब और इसके अलावा बहुत कुछ मेरी इस हिन्दी ब्लोगजगत में छुपे हुए सफेदपोशों के चेहरे से उनके नकाब को उधेड़ कर फेंकती हुई कहानी के माध्यम से…

राजीव तनेजा

“उफ्फ!…आज तो मैं थक गया फोन पे बात कर-कर के…ये दुबे भी ना…पक्का चिपकू है चिपकू"…

“अरे!…हाँ…याद आया…शर्मा जी को फोन कर के खुशखबरी तो दे दूँ…बाद में नहीं तो शिकायत करते फिरेंगे कि….मुझे क्यों नहीं बताया

“क्या?…क्या नंबर था उनक?…..हाँ!…याद आया….. नाइन…एट…टू…फाईव….xxxxxxx

“हाँ!…हैलो…शर्मा जी?…

एक खुशखबरी है…वो….वो मैंने आपको बताया था ना किताब छपवाने के बारे में?…

हाँ!…उसका इंतजाम हो गया है…अजी!…देने कहाँ?…लेने की बात कीजिये…लेने की…पूरे साठ हज़ार में डील फाईनल हुई है…हाँ!…बीस परसेंट रायल्टी भी अलग से देने की बात कर रहे हैं"…

“अरे!…हाँ यार…मैं भला आपसे क्यों झूठ बोलूँगा?….हाँ!…ये ठीक रहेगा….आप खुद ही आ के देख लीजिए कि बन्दा जेन्युइन है कि नहीं?”…

“ना!…अभी बात नहीं की है मैंने आपके बारे में….आप सामने होंगे तो खुद ही तय कर लेना"…

“जी!…

“अच्छा!…अब मैं फोन रखता हूँ….कल बात करते हैं"…

“अरे!…यार…समझा कर…पूरे तीन घंटे से रोक के बैठा हूँ"….

“क्या मतलब….क्यों?…तुम्हारे फूफ्फा से बात जो कर रहा था…

हाँ!…भय्यी…पूरे तीन घंटे तक चिपका रहा वो मुझसे…मैं क्या करता?…..थोड़ी देर के लिए चुप होता तो फिर वो कोई ना कोई नया फूत्ती-फँगा छेड़ के शुरू हो जाता"…

“अच्छा!…यार पहले मुझे निबट के तो आने दे कम से कम..फिर बात करते हैं आराम से"…

“हाँ!…भय्यी हाँ…याद रहेगा मुझे…तुम फोन मत करना"…

“ओ.के…बाय"…

(फोन एक बार फिर डिस्कनेक्ट हो जाता है)…

ट्रिंग-ट्रिंग…ट्रिंग…ट्रिंग….

(कुछ मिनट के मौन के बाद एक बार फिर से फोन की घंटी वातावरण में गूँज उठती है)

“हैलो!…कौन?”…

“सर!…मैं दुबे….जज्ज…जौनपुर से”…

“क्या हुआ दुबे जी?…आपकी आवाज़ इस तरह क्यों कांप रही है?”…

“अब क्या बताऊँ तनेजा जी?…मैं तो लुट गया…बरबाद हो गया”…

“हुआ क्या?”…

“क्या बताऊँ तनेजा जी…चोर के पीछे मोर पड़ गए”……

“आप साफ़-साफ़ बताइए ना दुबे जी की आखिर…हुआ क्या?”…

“होना क्या था तनेजा जी?…इधर मैं फोन पर आपसे बतियाता रहा और उधर दूसरी तरफ मुझे इल्म ही नहीं कि मेरी लुटिया डूब रही है"…

“ओह!…ये तो बहुत गलत हुआ"…

“जी!…

“आप नहा तो चुके हैं ना?”…

“जी!…वो तो मैं सुबह ही नहा लिया था"..

“तो फिर अब…इस समय आपने लुटिया का क्या करना है?”…

“अरे!…यार…मेरे यहाँ चोरी हो गई है और आपको मजाक सूझ रहा है?”…

“च.च..चोरी?”…

“जी!…चोरी….कुछ भी नहीं छोड़ा कम्बख्तमारों ने…मेरा लैपटाप …मेरा कैश…मेरा क्रेडिट कार्ड…ज्वैलरी….सबकुछ तो ले उड़े हरामखोर”…

“ओह!…

“मैं तो कहीं का नहीं रहा तनेजा जी…बरबाद हो गया"…

“हिम्मत से काम लें दुबे जी….सब ठीक हो जाएगा"…

“ख़ाक ठीक हो जाएगा?…कुछ ठीक नहीं होगा…किस्मत ही मेरी खराब है…एक-एक ईंट कर के….पाई-पाई कर के…मैंने अपना भानुमती का कुनबा जोड़ा था…और सब एक ही बार में साफ़?…बिलकुल साफ़?…विश्वास नहीं हो रहा है मुझे"…

“विश्वास तो जी…मुझे भी नहीं हो रहा है"…

“तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ?”….

“न्न्…नहीं तो…मैंने ऐसा कब कहा?”…

“और क्या मतलब था आपके कहने का?”…

“म्म…मैं तो बस….ऐसे ही….

“ये म्म…करके मेरे सामने मिमियाइये मत और अगर कुछ कर सकते हैं तो मेरी मदद कीजिये"…

“जी!…ज़रूर…लेकिन म्म..मैं इतनी दूर से…कैसे?”…

“आप एक काम कीजिये"…

“जी!…

“मैं आपको अभी एक नंबर दे रहा हूँ"…

“जी!…

“उसमें फटाफट चालीस हज़ार रूपए जमा करवा दीजिए"…

“अभी?”…

“जी!…अभी"…

“अभी तो फिलहाल….

“आपके पास नहीं हैं?"…

“जी!…लेकिन आपको कैसे पता?”…

“मुझे पता था कि यही जवाब दोगे तुम..भरोसा नहीं है ना तुम्हें मुझ पर?…खा जाऊँगा ना मैं तुम्हारे पैसे?”…

“न्न्…नहीं!…ऐसी बात नहीं है…दरअसल…

“अरे!…विश्वास नहीं है तो सीधे-सीधे बोल ना…बहाने क्यों बना रहा है?”…

“सच्ची!…कसम से…मेरे पास…नहीं हैं"…

“नहीं हैं या फिर देना नहीं चाहते?”…

“नहीं!…सच में मेरे पास नहीं है फिलहाल"…

“तो फिर बैंक से निकाल लो"…

“नहीं निकाल सकता"…

“क्यों?”…

“जितने निकाल सकता था…वो तो सुबह ही निकाल लिए"…

“तो वही दे दो"…

“वो तो बीवी ले गयी"…

“किसलिए?”…

“शापिंग करने की कह के गयी है”…

“उसे फोन करो…कुछ भी करके…कैसे भी रोको”….

“फोन नहीं है उसके पास"…

“ओह!…शिट…ये औरते भी ना…पता नहीं क्या मज़ा आता है इन्हें शापिंग करने में?”…

“ये तो मुझे भी नहीं पता कि क्या मज़ा आता है इन कम्बख्मारियों को शापिंग में?”…

“इसका मतलब मुझे पैसे नहीं मिलेंगे?”…

“आज तो मुश्किल है"…

“तो फिर कल?”…

“हाँ!…कल तो मैं कैसे ना कैसे करके इंतजाम कर ही लूँगा"…

“पक्का?”…

“जी!….आप मेरी इतनी मदद कर रहे हैं तो फिर मुझे भी तो कुछ ना कुछ तो करना ही पड़ेगा ना?"…

“कुछ से काम नहीं चलेगा तनेजा जी…मुझे पूरे चालीस हज़ार चाहिए…अर्जेंट पेमेंट करनी है कहीं"…

“ओ.के…पूरे चालीस हज़ार ही कर दूँगा लेकिन….

“ब्याज लोगे तुम मुझसे?…बोलो!…कितने परसेंट का ब्याज चाहिए तुम्हें?…दो-तीन…चार…पाँच या फिर दस?…अगले महीने सूद समेत वापिस कर दूँगा"…

“नं…नहीं!…ये बात नहीं है है दरअसल मेरे मन में कुछ चल रहा था तो मैंने सोचा कि आपसे पूछ लूँ"…

“पूछो"…

“मेरी किताब तो छप जाएगी ना?”…

“क्या बात?…विश्वास नहीं है तुम्हें मेरी बात का?”…

“नहीं!…विश्वास तो है लेकिन….

“अब भी लेकिन की कोई गुंजाईश रह गयी है?”…

“नहीं!…दरअसल…मैं ये पूछ रहा था कि चक्रपाणि जी आएँगे या नहीं?”…

“अरे!…आएँगे क्यों नहीं?…ज़रूर आएँगे…नहीं आएँगे तो क्या अपनी माँ……%$%^&*^&%

“जी!…

“लेकिन ध्यान रहे कि उन्हें भूल के भी कभी अपने घर आने का न्योता नहीं देना है"…

“जी!…

“ध्यान रहेगा ना?”…

“जी!…बिलकुल”…

“दैट्स लाईक ए गुड बॉय"…

“जी!…

“आप अपना पता नोट करवाएँ"…

“जी!…नोट कीजिए"…

“जी!…

“राजीव तनेजा, अक्कड-बक्कड़ बम्बे बो…

“अस्सी-नब्बे पूरे सौ?”…

“जी!…नहीं…अस्सी नब्बे पूरे सौ तो मैंने कब का खाली कर दिया….अब तो सिर्फ अक्कड-बक्कड़ बम्बे बो… ही मैंने आकुपायी किया हुआ है"…

“ओह!…ओ.के"…

“कल दोपहर तक मैं हर हालत में पहुँच जाऊँगा"…

“जी!…

“कहीं इधर-उधर मत खिसक जाइयेगा”…

“अरे!…क्या बात कर रहे हैं आप भी?…मैं डर कर खिसकने वालों में से नहीं…एक बार जो कमिटमैंट कर दी…तो कर दी…उसके बाद तो मैं अपनी बीवी की भी नहीं सुनता"…

“ओह!…रियली…दैट्स नाईस…सुननी भी नहीं चाहिए"……

“जी!…

“ओ.के…बाय…तो फिर मैं फोन रखता हूँ"…

“जी!…

(फोन फिर डिस्कनेक्ट हो जाता है)…

“उफ्फ!…अब जान में जान आई"मैं लंबी और गहरी साँस लेते हुए बोला…

“अरे!…शर्मा जी को तो बता दूँ"…

“हाँ!…तो क्या नंबर था उनका?…अरे!…हाँ….याद आया… नाइन…एट…टू…फाईव….xxxxxxx

“अरे!…हाँ…शर्मा जी…कुछ गडबड हो गई है प्रोग्राम में…परसों के बजाय कल की मीटिंग फिक्स हुई है उससे…हाँ-हाँ…आप भी आ जाइए…अरे!…टिकट नहीं मिलेगी तो क्या?….बेटिकट आ जाइए…ऐसा सुनहरा मौक़ा बार-बार नहीं मिलेगा"…

“जी!…जी…अभी के अभी चल दीजिए वहाँ से…अरे!…लुंगी की चिंता काहे करते हैं?…एक ठौ है ना हमरे पास….बारी-बारी से पहन लेंगे…आप बस कच्छा उठा के लेते आईए अपना….हाँ-हाँ…वही चितकबरे रंग वाला….दरअसल क्या है कि हमरा वाला फट गया था ना परसों आपकी भौजाई के हाथों….

अरे!…अरे..आप भी ना…बस…पता नहीं क्या-क्या सोच लेते हैं?…अरे!…नहीं भय्यी..ऐसा-वैसा कुछ नहीं हुआ था…पता नहीं किस बात का गुस्सा निकाल रही थी वो कपडे धोते वक्त?…हो जाता है कई बार…आप चिंता काहे करते हैं?…अरे!…भय्यी….है ना अपने पास वाशिंग मशीन….यहीं धो लेंगे…आप चिंता काहे करते हैं?”…

“जी!…जी अब मैं फोन रखता हूँ…आप बस तुरंत ही चले आइये…बिना किसी देरी के"…

“जी!…

“ओ.के बाय”…

(एक बार फिर फोन के डिस्कनेक्ट होने की आवाज़)

“उफ्फ!…सुबह से बहुत टाईम खराब हो गया…अब कुछ देर आराम कर लिया जाए"…

(मेरा धम्म से पलंग पर जा गिरना और कुछ ही देर में खर्राटों की आवाज़ से पूरे वातावरण का गुंजायमान हो जाना)

{अगले दिन…दोपहर बारह बजे का समय}

डिंग-डांग….डिंग-डांग…ओ बेबी…सिंग ए सोंग….

हाँ!…जी…कौन?”…

सर!…मैं दुबे"…

“जौनपुर से?”…

“जी!…

“ओह!…अच्छा…आप बड़ी जल्दी आ गए?”…

“जल्दी आ गए?…घड़ी देखिये जनाब…घड़ी…पूरे बारह बज चुके हैं"…

“ओह!…रात को कुछ देर से सोया तो सुबह का पता ही नहीं चला"…

“हद है…आपकी श्रीमती जी ने भी आपको नहीं उठाया?”…

वो तो सुबह छह बजे ही चली जाती है"…

पिकनिक?”…

नहीं!…दफ्तर"…

ओह!…अच्छा…फिर तो आपको खूब लिखने-लिखाने का टाईम मिल जाता होगा?”…

जी!…बहुत…कई बार तो मैं खुद ही लिखते-लिखते तंग आ जाता हूँ"…

ओह!…लेकिन एक बात की तो दाद देनी पड़ेगी"…

किस बात की?”…

आप लिखते बहुत बढ़िया हैं"…

शुक्रिया…ये सब तो आप जैसे पाठकों का प्यार है वर्ना मैं किस खेत की गाजर-मूली हूँ?”…

“नहीं!…वाकयी में आप बहुत बढ़िया लिखते हैं"…

“शुक्रिया"…

“जी!…

“मेरे एक मित्र खास तौर पर बत्तीस गढ़ से आए हैं कल रात को”…

“किस सिलसिले में?”…

“इसी…किताब वगैरा के सिलसिले में"…

“वो भी लेखक हैं?”…

“जी!…बत्तीस गढ़ के जाने-माने कलमकार हैं…वैसे पेशे से शिल्पकार हैं"…

“ओ.के"…

“जब उन्हें बताया कि आप मेरी किताब छाप रहे हैं और बाद में अगर किस्मत से साथ दिया और मौक़ा लगा तो आप मेरी कहानी पर फिल्म भी बनाएंगे"…तो वो तो आपसे मिलने को एकदम से उतावले हो उठे"…

“शायद क्या जी?…बिलकुल बनाएँगे…ज़रूर बनाएँगे"…

“पक्का?”…

“मुझे यहाँ…अपने सामने फेस टू फेस देख के भी आपको विश्वास नहीं हो रहा है?”…

“जी!…सच कहूँ तो अब भी मुझे ये सब सपना सा ही लग रहा है"…

“ओह!…आउच….ये क्या किया?”…

“आपका हाथ काट दिया"…

“लेकिन क्यों?”….

“ताकि आपको यकीन दिलाया जा सके"…

“किस बात का"…

“इसी बात का कि ये सब सपना नहीं बल्कि हकीकत है"…

“ओह!…ये तो सचमुच में ही हकीकत है"…

“जी!…

“आपके मित्र नहीं दिखाई दे रहे"दुबे जी इधर-उधर देखते हुए बोले…

“वो ज़रा बाज़ार तक गए हैं"…

“चाय-नाश्ते का इंतजाम करने के लिए?”…

“नहीं!…आपके लिए फिल्म की सी.डी लेने के लिए?”…

“उनकी कहानी पर फिल्म बनी है?"…

“नहीं!…वो बस आपको दिखाना चाहते हैं"…

“किसलिए?”…

“ये तो वही बता पाएंगे ठीक से…मुझे तो बस इतना कह रहे थे कि …तुम देखना उन्हें ये फिल्म बहुत पसंद आएगी"…

“कौन सी?”…

“लव…सैक्स और धोखा"…

“धत्त तेरे की…ये तो मैं पहले से ही देख चुका हूँ"…

“कोई बात नहीं…एक बार और देख लीजिएगा"…

“इतना समय नहीं है मेरे पास…आज ही मुझे वापिस लौट जाना है…कुछ अर्जेंट काम है"…

“कमाल करते हैं आप भी…वो आपके लिए इतनी दूर बत्तीस गढ़ से चल कर आया है…वो भी बिना टिकट और आप हैं कि बिना उसकी इच्छा पूरी किए ही वापिस लौट जाने की बात कर रहे हैं"…

“जी!…लेकिन मुझे तो आज ही…

“अजी!…लेकिन-वेकिन को मारिये गोली और हमारे साथ बैठ के मौज लीजिए"कहते हुए एक अन्य लंबी-लंबी मूछों वाले व्यक्ति का कमरे में प्रवेश…

“इनसे मिलिए…ये हैं हमारे मित्र शर्मा जी बत्तीस गढ़ से…खास आपके साथ फिल्म देखने की इच्छा ले के डाईरैक्ट…नॉन स्टाप आए हैं"…

“ओह!…अच्छा…थैंक्स…शुक्रिया"…

“जी!…तो फिर शुरू करें फिल्म?”…

“मेरे ख्याल से पहले बाकी के ज़रुरी काम निबटा लिए जाएँ….फिर आराम से फिल्म देखते हैं"…

“यू मीन…पहले मैं आपको रकम दे दूँ?”…

“जी!…जेब में जब नोट भरे पड़े हों तो फिर हर काम में मन भी लगता है"…

“जी!…सो तो है"…

“शर्मा जी!…एक काम कीजिये"…

“जी!…

“मेरी थोड़ी मदद कीजिये"…

“जी!..ज़रूर"…

“वो…वहाँ…कोने में उस झोले के नज़दीक कुछ सामान पड़ा है…हाँ…वहीँ…पीछे की तरफ….उसे ही ले आएं मेरे पास…दुबे जी को कुछ दिखाना है"…

“जी!…

“क्या?…क्या दिखाना चाहते हैं आप मुझे?”दुबे जी के स्वर में उत्सुकता थी…

“अभी!…बस एक मिनट में अपने आप पता चल जाएगा"…

“जी!…

धाड़…..धाड़…धाड़….थपाक-थपाक….धडाम….धडाम….

“ययय….ये क्या?…क्या कर रहे हैं आप?…छोड़….छोडिये मुझे…मार क्यों रहे हैं?”..

“स्साले बड़ा…लव…सैक्स और धोखा करता फिरता है ना आजकल लोगों के साथ….आज हम तुझे सही से ये फिल्लम दिखाएंगे…वो भी बड़े परदे पर सिनेमा हाल या टी.वी-कंप्यूटर पर नहीं बल्कि यहीं…इसी कमरे में सीधे…लाईव दिखाएंगे…एकदम लाईव"…

“ले…देख….धाड़…..धाड़…धाड़….धडाम….थपाक-थपाक….फटाक…फटाक"…

“आह!…आह…छोडो मुझे….कुत्तों…क्या बिगाडा है मैंने तुम्हारा जो मेरे साथ ऐसा सलूक कर रहे हो?”…

“देख क्या रहे हो शर्मा जी?….और दो खींच के स्साले को"…

“धाड़…धूड…धूड…धडाम…फटाक…फटाक….थपाक-थपाक”…

“आह!…आह…मार ही डालोगे क्या?…छोडो…छोडो मुझे…घर जाने दो"…

“हाँ-हाँ!…तुझे घर जाने देंगे बेटा …चिंता क्यों करता है?…..लेकिन पहले ज़रा ठीक से तेरी सेवा-पानी तो कर लें"…

“मुझे नहीं करवानी है कोई सेवा-पानी…मुझे बस…जाने दो"…

“लेकिन हमें तो करनी है ना बेट्टे…और तबियत से करनी है तेरी धुलाई"…

“ले!…ले…स्साले….और ले…फटाक…फटाक….धडाम….धडाम”…

“हाँ-हाँ!…टांग पे मार…टांग तोड़ दे स्साले की"…

“मुँह!….मुँह नोच ले इसका…छोड़ मत….कान…कान काट ले हरामखोर का"….

“उई!….उई…माँ…मर गया….छोड़…छोड़…मुझे कुत्ते….प्प…पागल हो गया है क्या?…कान छोड़"…

“हाँ!…हाँ…पागल हो गए है हम"….

“तो फिर जा के फिर किसी डाक्टर को दिखाओ ना…मुझे क्यों तंग कर रहे हो?…छोडो…छोडो मुझे….जाने दो”…

“डाक्टर से इलाज हम नहीं…बल्कि तू…करवाएगा…स्साले…तू”….

“साईको हो तुम लोग…दिमाग नहीं है तुम में…एकदम पागल हो गए हो तुम लोग…छोडो…छोडो मुझे…घर जाने दो"…

“दूसरों के घर जा के पैसे ऐंठने का तुझे बड़ा शौक हैं ना स्साले?…अब हमारे से पैसे नहीं ऐंठेगा?…बता….बता कितने चाहिए?…तीस हज़ार दूँ के चालीस हज़ार?”…

“बता…बता…ना स्साले…कि चैक दूँ या फिर कैश?”…

“तनेजा जी!…चैक-कैश को छोडिये…सीधा ड्राफ्ट ही ठोक के इसके मुँह पे मामला रफा-दफा कीजिये"…

“ओ.के…ये ले….साले…और ले"मैंने दुबे के मुँह पे खींच के लात मार दी….

“आह!…आह…मैं मर…गया…बचाओ…बचाओ…कोई तो मुझे बचाओ"…

“कोई नहीं बचाएगा तुझे…कोई नहीं छुड़ाएगा तुझे?”..

“स्साले…आज तू यहाँ से जिन्दा बच के नहीं जाएगा…समझता क्या है आपको?…फिल्लम बनाएगा मेरी कहानी पे?…किताब छपवाएगा मेरी?”…..

“व्व….वो तो आप खुद ही कह रहे थे कि…किताब छपवानी है तो मैंने इसमें आपकी मदद करने की सोची तो बताइए…बताइए ना कि इसमें मेरी क्या गलती है?”दुबे रुआंसा होता हुआ बोला……

“सच-सच बता…बता कि और किस-किस से तूने किताब छपवाने का झांसा देकर पैसे ऐंठे हैं?”…

“म्म…मैंने?”…

“ये म्म्म…करके मिमियाना छोड़ और सीधी तरह से ये बता कि अब तक कितने जनों को उल्लू बना के पैसे ऐंठ चुका है”…

“म्म…मैं?”…

“हाँ!…तू"…

“अ…अ….एक…..एक”…

“एक?”…

“ह…हाँ!….

“झूठ बोलता है स्साले…उस राम कुपत्ती से तूने कितने पैसे ठगे थे?…..

“प…पचास हज़ार”….

“और?”….

“और….तो…य…याद नहीं"…

“हम याद दिला देते हैं तुझे…चिंता क्यों करता है?….याद कर…किसको किताब का कवर डिजाइन दिखा कर तू ठगना चाहता था?”…

“म्म…मधु को"…

“स्साले…नाम के साथ जी लगा नहीं तो और मारूँगा"…

“म्म…मधु जी को"…

“कितने पैसे ठगना चाहता था?”…

“च…चालीस हज़ार"…

“स्साले!…चालीस हज़ार की तो तेरी औकात भी नहीं है…शक्ल देखी है कभी आईने में…सूअर के माफिक दिखता है…बिलकुल सूअर के माफिक"…

“स्साले…मेरी?…मेरी बहन को ठगता है?…शर्मा जी…देख क्या रहे हो…मारो…स्साले को"…

“म्म…मुझे माफ कर दो….आईन्दा से कभी ऐसी गलती नहीं होगी”…

“आईन्दा से कभी ऐसी गलती नहीं होगी…करने लायक रहेगा…तब तो करेगा ना गलती….स्साले…सब पता है हमें…सरकारी नौकर है तू…एक बार तेरी कलई खोल दी ना सबके सामने….फिर ना रहेगी  छोकरी और ना रहेगी नौकरी"……

“पप..प्लीज़…ऐसा मत करिये……मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं"…

“हाँ!…सब पता है मुझे…तेरा छोटा सा हँसता-खेलता परिवार है… कुछ मित्र हैं कार्पोरेट जगत में… उनके बीच अच्छी प्रतिष्ठा है...थोडा बिजनेस है.. छोटी सी नौकरी है...और बस….अब कुछ भी नहीं रहेगा"…

“तेरी हरकतों को देख-सुन बीवी तो वैसे भी तेरे साथ रहने से इनकार कर देगी….तू अपने मित्रों का कभी सगा हुआ है जो वो हो जाएंगे?”…

“म्म…मैंने क्या किया है?”…

“क्यों?…तूने अपने दोस्त की मेल आई डी का पासवर्ड चुरा के उसकी सालों की मेहनत पे पानी नहीं फेर दिया?"…

“उसने भी तो…..अ….आ…आपको कैसे पता इस सब बात का?”…

“पता तो बेटे हमें तेरी हर बात का…हर हरकत का लग चुका है कि….कैसे तू भोली-भाली लड़कियों को अपनी बातों के जाल में  फँसा कर…उन्हें सब्जबाग दिखा कर…ऊंचे-ऊंचे ख़्वाब दिखा कर उनके भोलेपन का नाजायज़ फायदा उठाता है…उनसे पैसे ऐंठता है"..

“ये सब झूठ है….बेबुनियाद इलज़ाम है मेरे ऊपर"……

“हाँ-हाँ…अब तो तू ये भी कहेगा कि तेरा उस राम कुपत्ती के साथ कोई चक्कर नहीं है….कोई लफडा नहीं है"…

“सच्ची…कसम से…कोई लफडा नहीं है…कोई चक्कर नहीं…आई शपथ"…

“तो फिर स्साले…देख…ये क्या है?”…

“क्क….क्या है?”…

“आँखें क्यों मिचमिचा रहा है स्साले?…देख ये तेरी ही चैट नहीं है क्या उस राम कुपत्ती के साथ?”…

“हह…है तो?…पर इससे साबित क्या होता है?”…

“यही कि तू स्साले…एक नंबर का औरतखोर है…हरामखोर है”….

“बता…बता अब तक कितनी लड़कियों की जिंदगी खराब कर चुका है?”…

“म्म….मैंने तो बस…ऐसे ही…अब तक यही कोई……

“तू…तू तो स्साले अब बचेगा नहीं…कहीं का नहीं छोड़ेंगे हम तुझे…तू जहाँ-जहाँ जाएगा…वहाँ-वहाँ जा के तेरी पोल खोलेंगे हम…समझता क्या है तू अपने आपको?”…

“म्म…मुझे माफ कर दो…गलती हो गयी मुझसे?”…

“हमसे क्या माफी मांगता है?…माफी तो तू जा के उन सबसे माँग जिन-जिन का जीवन तूने अपनी ओछी हरकतों से नर्क समान कर दिया है"……

“जी!…तो मैं जाऊँ?…उन सबके घर हो आऊँ?”…

“देख!…देख शर्मा…स्साले की नीयत अभी भी भरी नहीं है"…

“ओए!…कुछ तो शर्म कर….कुछ तो शर्म कर”…

“अगर थोड़ी-बहुत भी बची हुई है ना शर्म तेरे अंदर…तो जा के कहीं से चुल्लू भर पानी ले और उसमें डूब मर"…

“ये खेल जो तूने हमारी बहन के साथ खेला हैं ना?…बहुत भारी पड़ने वाला है तुझे”…

“क्या?…क्या कह रहा था कि एक झलक देखने के बाद तेरी हफ़्तों तक की नींद उड़ गयी है?”…

“नींद तो बेट्टे…हम उडाएंगे तेरी…तू अब अब…बस…देखता जा”….

“म्म…मुझे माफ कर दो"…

“ना…ना…किसी गुमान में मत रहियो कि ऐसे ही…इतनी आसानी से बक्श देंगे हम तुझे…याद रख आज के बाद एक भी फोन..S.M.S या मेल भेजी ना मेरी बहन को या फिर किसी भी अन्य लड़की को तो समझ ले कि तेरी खैर नहीं”…

“ज्ज…जी!…

“ये समझ ले कि एक फोन घुमा दिया ना हमने ढंग से तो तेरी तो नौकरी गयी बच्चू…फिर आराम से घंटियाँ खडका रिझाता रहियो औरतों को…बुढियों को"…

“सुना है कि तुझे औरतों के पैर चूमने में बड़ा मज़ा आता है?…क्यों?…आता है ना?”…

“नन्न…नहीं तो"…

“अब चूम के देखियो…खूब चूमने को…चाटने को मिलेंगे”…

“क्या सच में?”दुबे का प्रफुल्लित होता हुआ स्वर…

“हाँ!…सच लेकिन ऊपर से नहीं बल्कि नीचे से…वो भी साफ़-सुथरे नहीं बल्कि खास तेरे लिए कीचड में लिबड़े हुए”…

“ओह!…शिट”….

“हाँ!…शिट…वो भी मिल जाएगी तुझे चाटने को जो कभी तेरी किस्मत अच्छी हुई तो…घबराता काहे को है?….भरोसा रख…विश्वास रख ऊपरवाले पे…ये मुराद भी तेरी जल्द ही पूरी हो जाएगी"मैं दुबे की और वितृष्णा भरी नज़र से देखता हुआ बोला…

“म्म…मुझे माफ कर दो….मैं अपने किए पे पछता रहा हूँ…आप कहेंगे तो तो मैं हमेशा-हमेशा के लिए ब्लोगिंग छोड़ दूंगा…लिखना-पढना छोड़ दूंगा"…

“हम क्यों कहें तुझसे कि तू लिखना-पढ़ना छोड़ डे?…ब्लोगिंग छोड़ डे?…ये तो तू खुद अपने दिल पे हाथ रख के सोच कि तू इस लायक है भी या नहीं”…

“हमने जो करना था …कर लिया…अब तूने जो करना है…अपने आप सोच ले…हम फैसला तुझ पर छोड़ते हैं”…

“जा!…दफा हो जा यहाँ से और अपना खा-कमा और मौज कर"…

“जी!…

“लेकिन इतना ध्यान रखियो हमेशा कि इस हिन्दी ब्लॉगजगत में कोई भी लड़की अकेली नहीं है…उसके भाई…उसके दोस्त…उसके शुभचिन्तक  हम हैं हमेशा और रहेंगे सदा उनके साथ…जय हिंद"…

नोट: हिन्दी ब्लॉगजगत की एक सच्ची घटना और कल्पना का ये समिश्रण आपको कैसा लगा?…ज़रूर बताएँ

 

***राजीव तनेजा***

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इन्तिहा हो गयी...हर बात की(1)- राजीव तनेजा

नोट: दोस्तों….हाल ही में हिन्दी ब्लॉगजगत में घटित एक सच्ची घटना एवं कल्पना का ये समिश्रण आपको कैसा लगा?…ज़रूर बताएँ

“हैलो….तनेजा जी?”…

“हाँ!…जी बोल रहा हूँ…आप कौन?”…

“मैं दुबे…जौनपुर से"…

“जी!…दुबे जी…कहिये…क्या खिदमत कर सकता हूँ मैं आपकी?”…

“अजी!…खिदमत कैसी?…मैं तो धन्य हो गया जो आपसे बात हो गई"…

“हें…हें…हें…दुबे जी…आप भी कमाल करते हैं…मैं भला इस लायक कहाँ कि मुझसे बात कर के लोग धन्य होने लगे?”…

“अजी!…हीरे की कद्र भला हीरा खुद कहाँ जानता है?…ये तो जौहरी ही होता है जो उसकी सही कीमत का आकलन करता है"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“अभी जस्ट…आपका व्यंग्य ‘तीतर के दो आगे तीतर' पढ़ने के बाद मन हुआ कि आपसे बात की जाए"…

“जी!…शुक्रिया"…

“मैं तो धन्य हो गया प्रभु आपके व्यंग्यबाणों को…कटाक्षों को पढकर…क्या तो आपने खिंचाई की है उस नामाकूल नेता कि और क्या रगडा है उसके दिन पर दिन पीले होते हुए पी.ए हँस.के.लेले को"…

“जी!…शुक्रिया”…

“आप किसी टी.वी वगैरा के लिए क्यों नहीं लिखते?”…

“अजी!…ऐसी अपनी किस्मत कहाँ कि ये टी.वी …फी.वी वाले मुझको याद करें?”…

“क्या बात कर रहे हैं तनेजा जी आप ?भी…काफी समय से मैं आपको पढ़ रहा हूँ…हर्फ दर हर्फ़ मुझे आपके सभी ट्विस्ट याद हैं…एक अच्छी कहानी के लिए आखिर चाहिए ही क्या होता है?”…

“क्या होता है?”…

“थोड़े से टिवस्ट और ढेर सारे द्विअर्थी संवाद"…

“अरे!…वाह…ये तो मेरी हर कहानी में मौजूद होते हैं"…

“वोही तो…तभी तो मैं कह रहा हूँ कि आप फिल्म लाइन में ट्राई करें…इंशा अल्लाह कामयाबी ज़रूर मिलेगी और जल्द मिलेगी"…

“जी!…लेकिन….

“आपकी कोई-कोई रचना तो ऐसी है कि उस पे बिना किसी काट-छांट के तुरत-फुरत में पूरे अढाई घंटे की फिल्म बड़े आराम से बनाई सकती है"…

“जी!…मेरी कहानियाँ दरअसल होती ही इतनी लम्बी हैं कि मैं अगर थोड़ी सी कोशिश या फेरबदल और करूँ तो उन पे बकायदा एकता कपूर के सालों तक चलने वाले सीरियल बन सकते हैं"…

“जी!…वोही तो… तभी तो मैं हर एक से कहता फिरता हूँ कि ये राजीव तनेजा एक दिन बहुत ऊपर जाएगा…जन्मजात प्रतिभा है पट्ठे में स्टार राईटर बनने कि"…

“जी!…शुक्रिया"…

“इसीलिए तो मैंने आपको फोन किया है"…

“ओह!…अच्छा…तो बताइए…मेरी कौन सी रचना पर आप फिल्म बनाना चाहेंगे?”…

“हें…हें…हें..तनेजा जी…मैं इतना बड़ा आदमी तो हूँ नहीं…बस…ऐसे ही छोटा सा हँसता-खेलता परिवार है….कुछ मित्र हैं कार्पोरेट जगत में… उनके बीच अच्छी प्रतिष्ठा है...थोडा बिजनेस है.. छोटी सी नौकरी है...और बस….

“चल!….झूठे”…

“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…

“तुमने मुझसे झूठ क्यों कहा?”…

“क्या?”…

“यही कि…आपका…बस…ऐसे ही एक..छोटा सा हँसता-खेलता परिवार है”….

“तो?”…

“बातों से तो तुम इतने शरीफ नहीं लगते"…

“हें…हें…हें…तनेजा जी…आप भी ना बस….

“तो मैंने क्या झूठ कहा?”…

“नहीं!…झूठ तो नहीं…लेकिन पूरा सच भी नहीं"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“एक्चुअली!…मुझे शुरू से ही फ्लर्टिंग की आदत है”..

“ओह!…तो इसका मतलब इस कलयुगी सपूत के पाँव पालने में ही दिख गए होंगे इसके माँ-बाप को?”..

“जी!…

“कुछ और बताएँ अपने इस गुण के बारे में"…

“फ्लर्टिंग करते वक्त मैं कभी ये भी नहीं देखता कि सामने वाला मुझसे कितना बड़ा या छोटा है?”…

“जी!…छोटे-बड़े से तो वैसे भी कोई मतलब नहीं होता है…अठारह साल के बाद तो सभी व्यस्क की श्रेणी में आ जाते हैं"…

“जी!…

“आजकल कितने चल रहे हैं?”…

“चक्कर?”..

“जी!…

“कुछ खास नहीं…बड़ा मंदा चल रहा है आजकल"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“पता नहीं क्या चक्कर चल रहा है आजकल मेरे साथ?….कोई सैट हो के ही राजी नहीं है”…

“ओह!…

“जिस किसी को भी दाना डालता हूँ…पता नहीं कैसे बच के निकल जाती है?”…

“ओह!…कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई घर का भेदी ही आपकी लंका को ढहाने में अहम रोल निभा रहा हो"..

“नहीं!…बिलकुल नहीं…ऐसे कच्चे चावल नहीं पाल रखे हैं मैंने अपने दड़बे में”..

“हम्म!…तो फिर आजकल गुज़ारा कैसे चल रहा है?….कहीं अपने हाथ….जगन्नाथ जी की सेवा में तो नहीं लगा दिए हैं आपने?”….

“क्या बात कर रहे हैं तनेजा जी आप भी…जगन्नाथ जी की मैं सेवा करूँगा तो फिर मेरी सेवा कौन करेगा?”…

“वोही तो"…

“एक-आध से तो मेरी परमानेंट सेटिंग चलती रहती है हर हमेशा…उन्हीं के सहारे दिन काट रहा हूँ कैसे ना कैसे कर के"…

“दिन काट रहे हैं?”…

“जी!…रात को तो लौट कर बुद्धू को घर पे जाना ही होता है ना?”…

“उफ्फ!…मैंने आपको क्या समझा और आप क्या निकले?”…

“क्या निकले?”…

“आला दर्जे के बेवाकूफ और वो भी लाईसैंस शुदा"…

नोट: हिन्दी ब्लॉगजगत की एक सच्ची घटना और कल्पना का ये समिश्रण आपको कैसा लगा?…ज़रूर बताएँ

“वो कैसे?”…

“मैं तो आपकी बातों से आपको निहायत ही काईयाँ और चालाक समझ रहा था लेकिन आप तो वही ढाक के तीन पात के माफिक अव्वल दर्जे के बेवाकूफ निकले"…

“बनना पड़ता है तनेजा जी…बनना पड़ता है…घर में तो जानबूझ के बेवाकूफ बनना पड़ता है"…

“ओह!…अच्छा…दैट्स…नाईस ना?"…

“जी!…

“अच्छा तो फिर बताइए दुबे जी कि…मेरी कौन सी रचना पर आप अभी हाल-फिलहाल में फिल्म बनाना चाहेंगे?”…

“तनेजा जी…मेरा बस अगर चले तो कौन सी क्या?….मैं तो आँखें मूँद के आपकी कोई सी भी रचना उठा लूँ तो भी शर्तिया तौर पर उस पर एक ब्लाक बस्टर फिल्म ही बनेगी"…

“शुक्रिया!…आपने तो मुझे आत्मविश्वास से एकदम लबालब भर दिया है"…

“जी!….लेकिन…

“लेकिन?”…

“लेकिन क्या करूँ तनेजा जी मेरे लाख चाहने और कोशिशें करने के बावजूद भी मेरा ब्याज पे दिया पैसा वापिस लौट के नहीं आ पा रहा है"…

“ओह!…

“जी!…मंदा ही इतना है आजकल बाज़ार में कि कोई करे भी तो क्या करे?”…

“जी!…लेकिन दूसरों को भी तो सोचना चाहिए कम से कम कि अगले के सर पे भी बाल बचे हुए हैं…उसे भी तेल-कंघी और शीशे वगैरा के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ सकती है"…

“जी!…सो तो है लेकिन…

“दुबे जी!…मेरी बात मानिए तो इस लेकिन-वेकिन को गोली मार के सिर्फ और सिर्फ ऊपरवाले पे विश्वास और भरोसा रखिये….वही आपकी मदद करेगा और इंशा अल्लाह…ज़रूर करेगा"…

“जी!…बात तो की है उससे…पूरे दस परसैंट माँग रहा है गिन के नकद और वो भी एडवांस में"…

“ओह!…दस परसैंट की तो खैर कोई बात नहीं है जी….अगला वसूली के लिए इधर-उधर धक्के भी तो खाएगा”…

“जी!…मेहनत के बदले इनाम से तो मुझे भी कोई परेशानी नहीं है लेकिन काम करने से पहले ही एडवांस?….ये भला कहाँ की तुक हुई?”…

“अब क्या बताएँ दुबे जी?…इन मुय्ये गैंगस्टर्स के मुँह पे खून का स्वाद लग चुका है आजकल…बिना पेशगी लिए कोई काम ही नहीं करते"…

“जी!…लेकिन कोई पराया हो…उस पर भरोसा ना हो…तब तो कोई ऐसी बे ऐतबार भरी बातें करे…पता है अगले को कि उसके नीचे वाले फ्लोर पे रहता हूँ…भाग के कहाँ जाऊँगा?…लेकिन!…नहीं…इन जनाब को पहले पैसे चाहिए”…

“जी!…बेशक सामने वाले के पास कोई जुगाड ना हो…इधर-उधर…हक-मूत के बड़ी मुश्किल से गुज़ारा कर रहा हो लेकिन इन्हें तो पेशगी चाहिए सब कुछ"……

“जी!…भरोसा नहीं है स्सालों को हम पर….सोचते हैं कि हम अपनी बात से फिर जाएंगे…अपने कहे से मुकर जाएंगे"…

“जी!…और खुद अगर कोई काम नहीं कर पाएंगे ढंग से तो बेशर्मों की दीददे फाड़ते हुए उलटा हमें ही आँख दिखा सरेआम गुण्डागर्दी पे उतर आएंगे…निर्लज्ज ना हों तो किसी जगह के"…

“जी!…इसीलिए तो मैं अक्सर कहता रहता हूँ अपनी कहानियों के जरिये कि…हमारे जीवन से सहिष्णुता लुप्त होती जा रही है वगैरा…वगैरा"…

“जी!…

“कोई बात नहीं जी…मैं कौन सा गया वक्त हूँ जो लौट के ना आ सकूँ?….बहारें फिर भी आएंगी अपने चमन में…आप बस…दिल छोटा ना कीजिये"…

“जी!…

“आज आपके पल्ले दमड़ी नहीं है…पैसा नहीं है तो क्या हुआ?…कल को किस्मत आपकी भी ज़रूर करवट लेगी”…

“हाँ!…ज़रूर लेगी…नहीं तो ससुरी…कब तक एक ही तरफ मुँह कर के सोती रहेगी?”…

“जी!…आपका…अपनी मेहनत का…हक-हलाल का कमाया हुआ पैसा है…कोई उसे ऐसे ही थोड़े मुफ्त में हड़प लेगा?”…

“जी!…बड़ी मुश्किल से एक को फाँस…हलाल किया था…लेकिन जब किस्मत ही अपनी झंड हो…पास अपने श्रीखण्ड हो….तो कोई कर भी क्या सकता है?”…

“कोई बात नहीं जी…जब भी आपके पास पैसा आ जाए…मुझे याद कर लीजियेगा…मैं अपनी सभी रचनाओं समेत आपके दरबार में हाज़िर हो जाऊँगा"..

“क्यों शर्मिन्दा कर रहे हैं तनेजा जी…आप भला क्यों मेरे पास आएँगे?…गरज़ तो मेरी है…मुझे ही तो फिल्म बनानी है…मैं ही आ जाऊँगा आपके पास"…

“जी!..ज़रूर….बड़े शौक से…जब जी चाहे"…

“अब जी की क्या बताऊँ तनेजा जी…वो तो आपके साथ फिल्म करने को मरे जा रहा है"…

“जी!…दोनों तरह ही आग लगी है बराबर की"…

“क्या सच?”…

“जी!…बिलकुल"…

“मैं धन्य हो गया प्रभु…मैं धन्य हो गया प्रभु"…

“अरे!…यार…इतना भी ना चढाओ सर पे अपने कि मैं कभी उतर भी ना पाऊं"…

“अरे!…नहीं…बिलकुल सच कह रहा हूँ"…

“क्या सच?”…

“बिलकुल सच?”…

“फिर तो मैं भी धन्य हो गया हूँ आप जैसे हाड-माँस के चलते-फिरते फैन को पाकर"…

“जी!…दरअसल हम दोनों ही धन्य हो गए हैं एक-दूसरे को पाकर"…

“जी!…

हे!….प्रभु…हें पालनहार… हें सृष्टि के रचियता… जिसके सिर ऊपर तू स्वामी…सो दुःख कैसा पावै?”…

“जी!…बिलकुल"…

“अरे!…यार…तुम्हें कहीं देर तो नहीं हो रही?”..

“जी!…बिलकुल नहीं…पूरी तरफ से फ्री होकर ही तो मैंने आपको फोन लगाया है"…

“ओह!…लेकिन मुझे तो देर हो रही है…किसी जगह से अर्जेंट बुलावा आया हुआ है"…

“ओह!…तो फिर मैं फोन रखूँ?”…

“जी!…ज़रूर…बड़े शौक से"…

“ओ.के…बाय"…

“बाय…बाद में बात करते है"…

“जी!…ज़रूर…बाय"….

“बाय"…

(फोन डिस्कनेक्ट हो जाता है)

“उफ्फ!…बहुत पकाया स्साले ने…पट्ठा फिल्म बनाना चाहता है मेरी कहानी पर… ही…ही….ही”…

(कुछ क्षण का मौन और उसके बाद….ट्रिंग-ट्रिंग…ट्रिंग-ट्रिंग…ट्रिंग-ट्रिंग)

“हैलो!…कौन"…

सर!…मैं दुबे…

“जौनपुर से?”…

“जी!…

“कहिये दुबे जी…क्या मौत आन पड़ी जो इतनी जल्दी फिर फोन…(मैंने गुस्से में अपनी बात को अधूरा छोड़ दिया)

“जी!…वो…दरअसल क्या है कि मैंने आपको बताया था ना कि…मेरे कुछ मित्र हैं कार्पोरेट जगत में… उनके बीच अच्छी प्रतिष्ठा है?”…

“जी!…बताया तो था"…

“वोही तो…पता नहीं मेरे दिमाग में इतनी इम्पोर्टेंट बात आते-आते कैसे रह गयी?”....

“क्यों?…क्या हुआ?”..

“ये दोस्त लोग आखिर होते किसलिए हैं?”..

“किसलिए होते हैं?”…

“मुसीबत में एक-दूसरे के लिए काम आने के लिए ही ना?”…

“जी!…

“तो ये भला किस दिन काम आएँगे?”..

“मैं समझा नहीं"…

“बड़े भोले हैं आप…इनको पाल-पास के मैंने ऐसे ही थोड़े ना बड़ा किया है"…

“मैं अब भी नहीं समझा"मेरे स्वर से असमंजस साफ़ झलक रहा था..…

“डब्बू हो तुम"…

“वो कैसे??”…

“ट्यूबलाईट के माफिक देर से जलती है तुम्हारे दिमाग की बत्ती"…

“सच्ची?”…

“हाँ!…सच्ची"…

“ओह!…अच्छा…मैंने कभी नोटिस ही नहीं किया"…

“लेकिन मैंने तो नोटिस कर लिया ना?”…

“क्या?”…

“यही कि ये भले लोग भला किस दिन काम आएँगे जिन्हें मैंने….

“पाल-पास के बड़ा किया है?”..

“जी!…

नोट: हिन्दी ब्लॉगजगत की एक सच्ची घटना और कल्पना का ये समिश्रण आपको कैसा लगा?…ज़रूर बताएँ

“आपकी उम्र कितनी है?”…

“यही कोई सैंतीस-अडतीस साल"…

“और आपके दोस्तों की उम्र कितनी है?”…

“वो भी लगभग मेरे आस-पास के ही हैं"…

“फिर आपने उन्हें कैसे पाल-पास के बड़ा किया?"…

“ओह!….दरअसल कुछ साल पहले तक मैं उनके घर में नौकर था”…

“यू मीन…मुलाजिम?”…

“जी!…ठीक ढंग से उनकी परवरिश करना मेरी ड्यूटी थी”…

“तो फिर आप ऐसे…अचानक इतने अमीर कैसे हो गए?”…

“वही…पुराना….अमानत में खयानत वाला फंडा"…

“ओह!…

“जैसे-जैसे उनका ऐतबार मुझ पर बढ़ता चला गया…मैं चुपचाप उनके घर में सेंध दर सेंध लगाता चला गया"…

“ओह!…दैट्स नाईस"…

“जी! और अब किस्मत का सारा खेल देख लो…किसी भी सूरत या कंडीशन में मैं उनसे कम नहीं हूँ…इक्कीस ही हूँ"…

“जी!…

“वो अब लखपति हैं तो मैं भी लखपति हूँ"…

“जी!….ये बात और है कि आपके लखपति होने से पहले वो ज़रूर करोड़पति रहे होंगे"….

“हें…हें…हें…तनेजा जी….आपके भी सैंस ऑफ ह्यूमर का जवाब नहीं"…

“जी!…शुक्रिया"…

“जी!…

“अब कुछ मतलब की बात हो जाए?”…

“जी!…ज़रूर"…

“तो फिर कहिये कि दुबारा फिर से फोन क्यों किया है?”…

“आपका दिमाग खाने के लिए"…

“क्क…क्या?”….

“हा…हा…हा…डर गए ना?…..देखा मेरा भी सैंस ऑफ ह्यूमर कितना तगड़ा है?”…

“ये सैंस ऑफ ह्यूमर था?”…

“नहीं…था?”…

“नहीं!…!…

“ओह!…सॉरी….माय मिस्टेक"…

“फोन किसलिए किया था?”…

“मैंने?”…

“नहीं!…मैंने”…

“आपने कब फोन किया?…फोन तो मैंने किया है?”…

“फिर?”…

“फिर क्या?”…

“फिर बताओ ना भाई कि काहे को फोन किया है?”मैं उकताता हुआ बोला…

"आप अगर कहें तो मैं अपने मित्रों से बात करूँ?”…

“कारपोरेट जगत के?”…

“जी!…

“किस सिलसिले में?”..

“यही कि वो पैसा लगाएं"…

“सट्टे में?”…

“नहीं!…आपकी फिल्म में"…

“मैं फिल्म बना रहा हूँ?”…

“नहीं!…मैं"…

“फिर मुझसे क्यों पूछ रहे हो?”…

“आप ही की कहानी पर तो फिल्म बनानी है"…

“ओह!…

“तो फिर बताएँ ना"…

“क्या?”…

“यही कि मैं अपने दोस्तों से बात करूँ या नहीं?”…

“नेकी और पूछ पूछ?”…

“जी!…शुक्रिया"…

“लेकिन क्या वो मान जाएँगे?”…

“क्यों नहीं मानेगे?…मैं कनविन्स करूँगा उन्हें…भरोसा दिलाऊंगा उन्हें"…..

“प्राडक्ट के बारे में?”…

“नहीं!…आपकी कहानी के बारे में?”..

“ओह!…अच्छा…ये तो बहुत बढ़िया रहेगा"..

“जी!…

“जी!…तो फिर मैं आ जाऊँ?”…

“कहाँ?”…

“आपके घर"…

“किसलिए?”…

“कहानी लेने के लिए”…

“अरे!…उसके लिए इतना कष्ट उठाने की क्या ज़रूरत है?…वो तो मैं ऐसे ही मेल से भेज देता हूँ अभी…कोई अच्छी सी"…

“कर दी ना वही दो टके की फिसड्डियों वाली बात…आप लेखक लोग भी ना बस…जब भी मूतेंगे…छोटी धार ही मूतेंगे"…

“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…

“और समझोगे भी नहीं"…

“क्या मतलब?”…

“अरे!…भय्यी…इतने बड़े कारपोरेट हैं वो लोग…कोई छोटे-मोटे बजट की फिल्लम तो बनाएँगे नहीं”…

“जी!…

“पाँच-सात करोड से ज़्यादा का सट्टा तो वो ऐसे ही खेल जाते हैं हर साल दिवाली पे"…

“ओह!…लेकिन आप तो कह रहे थे कि वो सब लखपति हैं?”…

“तो?”…

“तो फिर ये पाँच-सात करोड का सट्टा …कैसे?”…

“माना कि आज की डेट में वो सब लखपति हैं लेकिन जहाँ…जिस पार्टनर के साथ वो काम करते हैं…वो तो पैदाईशी अरबपति-खरबपति है"…

“तो?”…

“तो क्या?…वहीँ पे टाँके लगते रहते हैं दिन-रात"…

“तो इस हिसाब से तो उन्हें भी अरबपति होना चाहिए"…

“हाँ!…कायदे से होना तो चाहिए लेकिन ये भी तो तुमने सुना होगा कि चोरी का माल हमेशा मोरी के जरिये ही बाहर निकल जाता है?”…

“ओह!…

“स्सालों की तिजोरी में पीछे से मोरी कर कोई सेंध लगा गया"..

“यू मीन…चोरों को मोर मिल गए?”…

“जी!…

“लेकिन मुझे डाउट है"…

“किस बात का?”…

“यही कि मोरी में से ज़्यादा से ज्यादा कोई क्या निकाल लेगा?…अठन्नी…चवन्नी?”…

“जी!…ये बात तो मैंने सोची ही नहीं”….

“वोही तो"…

“और चवन्नी को निकाल के फायदा भी क्या?…ना तो इसे भिखारी ही लेते हैं आजकल और ना ही सी.एन जी या बिग बाज़ार वाले इसे स्वीकार करने की हिम्मत दिखाते हैं"…

“जी!…

“और फिर अब तो ये बकायदा कानूनन बन्द भी हो चुकी है"…

“जी!…लेकिन फिर मोरी कर…वो भी तिजोरी में…इस अठन्नी-चवन्नी को चुरा के फायदा ही क्या?”…

“तुमने ये पुरानी कहावत सुनी नहीं है क्या कि…जिन्दा हाथी एक लाख का तो मरा हुआ सवा लाख का"..

“जी!…सुनी तो है लेकिन इस सन्दर्भ में इस सब की बात करके फायदा क्या?”…

“फायदा क्यों नहीं है?…बहुत फायदा है"…

“कैसे?”…

“चवन्नी उछाल के दिल माँगा जा सकता है"…

“किसका?”…

“तेरी मौसी का"..

“मेरी मौसी का?”…

“हाँ!…

“लेकिन उन्हें तो मरे हुए तो कई साल हो गए"…

“इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुम डब्बू हो"…

“वो कैसे?”…

“तुमने वो पुराना वाला गाना नहीं सुना है क्या?”…

“कौन सा?”…

“वही कि…राजा दिल माँगे चवन्नी उछाल के"…

“जी!…सुना तो है"…

“तो फिर दिल कैसे माँगा जाता है?”…

“चवन्नी उछाल के"…

“किसका माँगा जाता है?”…

“किसी का भी…बस…उसे लड़की ज़रूर होना चाहिए हर हालत में"…

“हाँ!…कहीं पता चले कि चवन्नी भी उछल गयी और फ़ोकट में लड़की के बजाय लड़का पीछे पड़ गया…अब बचाते रहो अपना पिछवाड़ा आराम से"…

“हें…हें…हें…बचाते रहो पिछवाड़ा आराम से….आपके भी सैंस ऑफ ह्यूमर का जवाब नहीं"…

“जी!…शुक्रिया….बेशक बाज़ार में आज की तारीख में चवन्नी की कोई कीमत ना हो..वैल्यू ना हो लेकिन उसने एक भरे-पूरे स्वर्णिम काल को जिया है…उसे बखूबी भोगा है"…

“जी!…सो तो है"…

“जी!…

“तो इसका मतलब आपके हिसाब से उनका पैसा मोरी के जरिये नहीं बल्कि बड़े से मोरे के जरिये बाहर निकला है"…

“ओफकोर्स"…

“ओह!…अय्याश हैं स्साले…सब के सब…समझा-समझा के थक गया हूँ मैं इन हरामखोरों को कि वक्त का कुछ पता नहीं…ऊँट कब किस करवट बैठ जाए…संभल लो अभी से और कुछ आड़े वक्त के लिए भी जोड़ लो"…

“जी!…

“एक्चुअली मैं उनसे बात भी कर चुका हूँ"…

“किस बारे में?”…

“इसी बारे में कि वो आपकी कहानी को लेकर फिल्म बनाएँ"…

“जी!…शुक्रिया लेकिन क्या वो ऐसे…मुझ जैसे अनजान शख्स के ऊपर इतना बड़ा दांव खेलने के लिए राजी हो जाएंगे?”…

“वो आपको नहीं मुझे देख रहे हैं…उनको मुझ पर पूरा विश्वास है और मुझे आपकी लेखनी पर…आपकी सोच पर पूरा विश्वास है"…

“जी!…शुक्रिया"…

“तो फिर मैं कब आऊँ?”…

“जब जी चाहे…आप ही का घर है"…

“परसों आप फ्री हैं?”…

“जी!..बिलकुल फ्री हूँ…और नहीं भी होऊंगा तो आपके लिए छुट्टी कर लूँगा…आखिर आप इतनी दूर से स्पेशल मेरे लिए ही तो आएँगे"…

“नहीं!…ऐसी बात नहीं है…दरअसल मैं वैष्णो माता का बड़ा भक्त हूँ और माता का बुलावा आ गया है कि…बेटे!… आ जा मेरे पास…तेरी राह तक रही हूँ"…

“जी!…माता भी उन्हीं को अपने पास बुलाती है जो उसके बड़े चहेते होते हैं…अब मुझे ही लो…दो बार कटरा तक पहुँच गया लेकिन पता नहीं वहाँ से आगे जाने का मन ही नहीं किया…होटल में पड़ा -पड़ा गर्मी में सडता रहा"…

“ओह!…लेकिन वहाँ तो मौसम बड़ा खुशगवार रहता है"…

“जी!…लेकिन मेरी ही बार उसे मौत पड़नी थी…पट्ठा इतना गरम हुआ…इतना गर्म हुआ कि बस…पूछो मत"…

“जी!…

“तो परसों आप कितने बजे तक पहुँच जाएंगे?”…

“जी!…दो-अढाई तो आराम से बज ही जाएंगे"…

“तो फिर ठीक है…हम लंच एक साथ ही कर लेंगे"…

“ये भी कोई कहने की बात है?…आप ना भी कहते तो भी मैंने ढीठ बन के बिना लंच किए वहाँ से नहीं हिलना था"…

“जी!…ज़रूर….मेरा अहोभाग्य"…

“तो फिर ठीक है…मिलते हैं परसों इस अल्प विराम के बाद"…

“जी!…ज़रूर”…

“ओ.के…बाय"…

“बाय…

“एक मिनट"…

“हुणण केहड़ी गोली वज्ज गय्यी?”…

“आपने कुछ कहा?”…

“नन्नहीं तो”…

“ओह!…मुझे लगा कि शायद आपने कुछ कहा"…

“न्न्…..नहीं तो"…

“ओ.के…तो परसों मेरे आने से पहले आप एक काम करके रखियेगा कि अब तक आपकी कहानियों की या कविताओं की जितनी भी किताबें छप चुकी हैं…उनकी एक-एक हार्ड बाउंड कॉपी को अच्छे से गिफ्ट पैक में रैप करके तैयार रखिएगा….मैं ज़्यादा देर रुकुंगा नहीं"…

“क्क….किताब?”…

“जी!…किताब…क्यों?…क्या हुआ?”…

“जी!…दरअसल…अब तक मेरी कोई किताब ही नहीं छपी है”…

“क्क…क्या?”…

“जी!..जो कुछ भी है…सब का सब नैट पर विद्यमान है…उपलब्ध है"…

“ओह!…श्श…शिट…ट….फिर तो हो गया काम….गयी भैंस अब तो पानी में….आप मुझे पहले नहीं बता सकते थे?”…

“क्या?”…

“यही कि आप निखट्टू हो?”…

“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…

“कितने साल हो गए हैं आपको नैट पर इस साहित्य की खर-पतवार को काटते-छांटते और छीलते हुए?”…

“यही कोई पाँच-सात साल"…

“और इन पाँच-सात सालों में आप कितनी कहानियाँ लिख चुके होंगे?”…

“ठीक से तो याद नहीं लेकिन यही कोई डेढ़-दो सौ तो हो ही जाएँगी कम से कम"…

“और इनमें से कितनो पर कोई सीरियल या फिल्म बनाई जा सकती है?”…

“अब ये मैं कैसे बता सकता हूँ?”…

“ये मैं बता सकता हूँ"…

“कैसे?”…

“कैसे क्या?…बहुत बड़ा फैन हूँ मैं आपका”….

“जी!…सो तो है"…

“मेरे हिसाब से तो कम से कम आपके आधे मैटीरियल पे फिल्म नहीं तो कम से कम कामेडी सीरियल तो बनाए ही जा सकते हैं कुछ दे-ले के"…

“जी!…

“तरस आ रहा है मुझे आप पर और आपकी नासमझी भरी सोच पर"…

“वो कैसे??”…

“इतने तगड़े हुनर…इतने बढ़िया टैलेंट के होने के बावजूद भी आपने कभी सोचा ही नहीं कि आपकी भी कोई किताब…कोई संग्रह वगैरा आना चाहिए मार्किट में?”…

“जी!…सोचा है ना…सोचा क्यों नहीं है"…

“वाह!…बहुत बढ़िया…ऐसे महज़ सोचने से सारे काम बनें और बनते चले जाएँ तो आज अम्बानी के सारे सितारे ज़मीन पर और उसकी सारी दुनिया मेरी मुट्ठी में होती"…

“जी!…

“सिर्फ सोचने भर से ही अगर सारे काम बनते चले जाएँ तो फिर कहना ही क्या?"…

“जी!…

“खाली जी-जी ही करते रहते हो हमेशा या फिर अपने सपनों को हकीकत में पाने के लिए कुछ प्रयास-वर्यास भी करते हो?”…

“करता हूँ ना…क्यों नहीं करता हूँ?…अभी पिछले हफ्ते ही तो उस भारत के वासी का फोन आया था"…

“किस सिलसिले में?”……

“पूछ रहा था कि क्या आप अपनी पुस्तक छपवाने में इंटरैस्टिड हो?”…

“तो तुमने क्या कहा?”…

“यही कि…हाँ…हूँ…बिलकुल हूँ"…

“गुड!…वैरी गुड….तो फिर उसने क्या कहा?”…

“यही कि दो सौ पेज की आपकी किताब छाप देंगे हार्ड बाउंड वाली"…

“तुमने उसको मैटीरियल दे दिया?”…

“नहीं!….

“क्यों?”….

“बस!…ऐसे ही"…

“हुँह!…बस…ऐसे ही…हद हो गयी ये तो लापरवाही की…सुनहरा मौक़ा खुद चल कर तुम्हारे पास आ रहा है और तुम हो कि उसे लात मार इतराए फिर रहे हो"…

“नहीं!…ऐसी बात नहीं है"…

“तो फिर कैसी बात है?”…

“दरअसल!…वो चालीस हज़ार के लिए कह रहा था”….

“एडवांस में?”…

“जी!…

“और तुम्हें क्या चाहिए था इसके अलावा?….वडेवें?”…

“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…

“तुम्हारी पहली किताब छप रही थी ना ये?”…

“जी!…

“और तुमने लात मार दी?”…

“किताब को?”…

“नहीं!…पैसे को"…

नोट: हिन्दी ब्लॉगजगत की एक सच्ची घटना और कल्पना का ये समिश्रण आपको कैसा लगा?…ज़रूर बताएँ

“पैसे को तो मैं भला क्यों लात मारूंगा…पैसे को तो उसने लात मारी है….अच्छे-भले बीस हज़ार के लिए मैंने हाँ कर दी थी लेकिन वो पट्ठा….

“चालीस हज़ार के बिना नहीं मान रहा था?”…

“जी!…

“भय्यी तुम कुछ भी कहो लेकिन मैं तो इसे उसका बड़प्पन और तुम्हारी मूर्खता ही कहूँगा कि तुमने अच्छे-भले आते हुए चालीस हज़ार को लात मार दी और उसने अपने बचते हुए बीस हज़ार को"…

“ओSsss…हैलो…उसने कहाँ से लात मार दी?…ये तो मैं ही था जिसने उसके ऑफर को लात मार दी"…

“बहुत बढ़िया काम किया"…

“जी!…बिलकुल"…

“बिलकुल के बच्चे…इतना भी ना गुमान में उड़ कि पैसे की कीमत को…उसकी अहमियत को समझने लायक भी ना रह पाए"…

“मैं?…मैं नहीं समझता…पैसे की कीमत को…उसकी अहमियत को?”…

“हाँ!…तुम पागल हो…बेवाकूफ हो….अच्छे-भले आते हुए चालीस हज़ार को ठोकर मार दी….इसके अलावा और क्या चाहिए था तुम्हें?…वडेवें?”…

“ओSsss…हैलो…फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन….चालीस हज़ार आ नहीं रहे थे बल्कि जा रहे थे"…

“जा रहे थे?”…

“हाँ!…जा रहे थे"…

“सट्टे में?”…

“मुझे क्या पता?”…

“तुम्हें नहीं पता?”…

“नहीं!…

“फिर किसे पता है?”…

“उसे जो मुझसे चालीस हज़ार माँग रहा था"…

“तुमने किसी का कर्जा देना था?”…

“बिलकुल नहीं…ऐसा बेहूदा शौक नहीं पाला है मैंने"…

“तो फिर कोई रंडीबाज़ी या फिर इससे मिलता-जुलता शौक?”…

“उसे?”…

“नहीं!…तुम्हें"…

“बिलकुल नहीं"…

“फिर कहाँ जा रहे थे पैसे?”…

“उसी भारत के वासी के जेब में"…

“क्यों?”…

“क्यों क्या?…हक बनता है उसका?”…

“तुम्हें लूटना?”…

“हाँ!…

“क्यों?”…

“क्यों?…क्या?…सभी पब्लिशर ऐसा कर रहे हैं"…

“कैसा कर रहे हैं?”…

“लेखकों को लूट रहे हैं"…

“उनकी रचनाएँ लेकर?”…

“सिर्फ रचनाएँ लेकर ही नहीं बल्कि उनके साथ-साथ बड़े जतन के साथ कमाया गया उनका पैसा भी लूट रहे हैं"…

“उन्हें रायल्टी ना देकर?”…

“अरे!…रायल्टी तो बहुत दूर की बात है…उससे पहले भी तो कुछ दें"…

“वो चालीस हज़ार दे तो रहा था"…

“तुम पागल हो?”…

“कैसे?”…

“वो चालीस हज़ार दे नहीं बल्कि ले रहा था"…

“तुमसे?”…

“हाँ!…

“विश्वास नहीं हो रहा"…

“किस बात का?”..

“इसी बात का कि तुम इतने बड़े भुसन्ड हो"…

“इसलिए कि मैंने उसका ऑफर ठुकरा दिया?”…

“नहीं!…बल्कि इसलिए कि तुम उसे बीस हज़ार देने के लिए तैयार हो गए थे"…

“और क्या करता?…जितनी जमा-पूँजी मैंने इस मद के लिए अलग से रख छोड़ी थी…उतनी ऑफर कर दी"…

“यही तो गलत किया तुमने"…

“हाँ-हाँ तुम तो यही कहोगे कि गलत किया”…

“और नहीं तो क्या?”…

“तो क्या तुम्हारे हिसाब से मैं अपनी किताब छपवाने के लिए कहीं डाके मारता या फिर चोरी करता?”…

“अब तो पक्का यकीन हो चला है”…

“किस बात का?”…

“इसी बात का कि तुम पक्के भुसन्ड हो"…

“भुसन्ड माने?”…

“पता नहीं"…

“पता नहीं?”…

“हाँ!…

“लेकिन क्यों?”…

“ऐसे ही निकल गया था"…

“मुँह से?”…

“हाँ!…

“ओ.के…तो तुम्हारे कहने का मतलब है कि मैं पागल हूँ?”…

“चलो!…शुक्र है…

“किस बात का?”…

“तुम माने तो सही"…

“क्या?”…

“यही कि तुम पागल हो…महा पागल"…

“वो कैसे?”…

“पागल नहीं तो और क्या हो तुम?”…

“क्या हूँ?”…

“भुसन्ड"…

“कैसे?”…

“कोई तुम्हें ऐसे…सरेआम पागल बनाने की कोशिश करता रहा और तुम इतने अहमक कि चुपचाप होते रहे?”..

“जी…

“क्या जी?”…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“वो तुमसे तुम्हारी कहानियाँ किताब छपवाने के लिए माँग रहा था जैसे मैं फिल्म बनाने के लिए माँग रहा था?”…

“जी!…

“और तुम उसे देने के लिए राजी भी हो गए थे जैसे मुझे भी फिल्म के लिए अपनी कहानी देने के लिए राजी हो गए थे?”…

“जी!…लेकिन वो तो चालीस हज़ार माँग रहा था"…

“और तुम उसे बीस हज़ार में पटाने की कोशिश कर रहे थे?”…

“जी!…

“तो तुम मुझे फिल्म बनाने की एवज में कितने दोगे?”….

“एक मिनट!…लैट मी थिंक…घर में नकद और बैंक का बचा-खुचा बैलेंस मिलाकर कुल जमा हो जाएंगे….…

“इसीलिए मैं तुम्हें डब्बू कहता हूँ"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“अरे बेवाकूफ…मैं या मेरे अलावा और कोई भी अगर तुमसे तुम्हारी कहानी किसी फिल्म …टी.वी सीरियल या किताब वगैरा के लिए मांगता है तो वो तुम्हें पैसे देगा ना कि तुम उसे"….

“क्क…क्या?…क्या कह रहे हैं आप?”…

“सही कह रहा हूँ…अगर तुम्हारी कहानी पे फिल्म…किताब या सीरियल बनाने से मैं या कोई और मुनाफा कमाता है तो उसमें एक हिस्सा तो तुम्हारा भी बनता है मेरे दोस्त”…

“ओह!…मैं तो सोच रहा था कि…एक बार बस किसी तरह से नाम हो जाए तो सब अपने आप देने लग जाएंगे"…

“अपने आप तो बेटे कुतिया भी अपने कत्तूरों को दूध नहीं पिलाती है…फिर तुम्हारी कहानियाँ तो इनसानों ने अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करनी हैं"…

“जी!…सो तो है"…

“अब क्या सोचा है?”…

“किस बारे में?”…

“यही किताब-विताब छपवाने के बारे में"…

“कोई ढंग का पब्लिशर मिल जाए तो…

“हुँह!…मिल गया…ढंग का पब्लिशर तो तुम्हें इस जन्म में ज़रूर मिल जाएगा?”…

“क्या सच?”…

“हाँ!…तब तक तुम बुड्ढे हो मर लोगे"…

“ओह!…

“ज़रा सी अक्ल है नहीं और बातें करेंगे"…

“अब यार इसमें मैं क्या कर सकता हूँ अगर कोई…..

“डूब के तो मर सकते हो?…या फिर मुझे ही तुम्हें धक्का देना पड़ेगा?”…

“पानी में?”…

“पानी मिल जाए तो पानी में नहीं तो इस साहित्य के महाकुम्भ में?”..

“वो कैसे?”…

“तुम्हारी किताब छपवा के"…

“मुफ्त में?”…

“नहीं!…पैसों में?”…

“फिर तुम में और उस भारत के वासी में फर्क ही क्या रहा गया?…तुम भी पैसे माँग रहे हो और वो भी पैसे माँग रहा था"…

“ओSsssहैलो…मैं पैसे माँग नहीं रहा बल्कि देने की बात कर रहा हूँ"…

“क्या सच में?”…

“हाँ!…

“कितने दोगे?”…

“कितने चाहिए?”…

“पैसे से भला किसी का पेट भरा है क्या आज तक?…जितने मन में आए…दे दो"…

“साठ हज़ार ठीक हैं?”…

“कुछ कम नहीं हैं?”…

“कम तो हैं लेकिन…..तुम्हें बीस परसेंट की रायल्टी भी तो मिलेगी अलग से"…

“ओह!…तो फिर ठीक है"….

“कब दे रहे हो?”…

“मैं दूंगा?”…

“और नहीं तो कौन देगा?”…

“लेकिन अभी-अभी तो तुमने कहा कि तुम मुझे साठ हज़ार दोगे"…

“हाँ!…दूंगा"…

“तो?”…

“तो क्या मुफ्त में दूँगा?”…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“अरे!…भले मानस मैं तुम्हें साठ हज़ार दूँगा तो उसके बदले में तुम मुझे अपनी कहानियाँ नहीं दोगे क्या?”…

“बिलकुल दूँगा"…

“वही तो मैं माँग रहा था तुमसे"…

“कब?”…

“जब मैंने कहा था कि …कब दे रहे हो?”…

“ओह!…मैंने तो सोचा कि उलटा आप मुझसे पैसे माँग रहे हैं"…

“इसीलिए तो मैं तुम्हें कहता हूँ"…

“भुसन्ड?”…

“हाँ!…भुसन्ड"…

“ओह!…अच्छा"…

“क्या अच्छा?”…

“यही कि वाकयी में मैं भुसन्ड हूँ…ना कम ना ज्यादा…पूरे एक नंबर का भुसन्ड"…

“हां…हा…हा…हा…

“एक काम करते हैं"…

“जी!…आज से ही आपकी किताब का काम शुरू कर देते हैं"…

“जी!…(मैं अलर्ट होता हुआ बोला)

“एक ग्राफिक डिजायनर है मेरी पहचान का…उसे ही कवर डिजाईन करने के काम पे लगा देता हूँ…दो-तीन घंटे में तैयार कर देगा"…

“जी…

“दो-चार अपने…खुद के निजी चेले-चपाटे हैं…लगे हाथ उनके हाथ की खुजली भी मिटा देता हूँ"…

“उनसे मार खा के?”…

“पागल हो गया है क्या?…मैं भला मार क्यों खाने लगा?…मार तो वो खाएंगे अगर काम ठीक से ना किया तो"…

“इससे तो आपके हाथ की खुजली मिटेगी?”…

“तो?”…

“लेकिन आप तो उनके हाथ की खुजली मिटाने की बात कर रहे थे"…

“अरे!…पागल…उन्हें कम्प्युटर पे लिखने का बड़ा शौक है"…

“तो?”…

“लिखने के लिए कुछ नहीं मिलता तो ऐसे ही खाली बैठे-बैठे कीबोर्ड पर बेफाल्तू में फोक्की उंगलियां चलाते रहते हैं"…

“तो?”..

“तो क्या?…उन्हें लिखने के लिए तुम्हारा मैटर पकड़ा देंगे"…

“लेकिन मेरा मैटर तो आलरेडी लिखा-लिखाया है"…

“इसीलिए तो मैं तुम्हें भुसन्ड कहता हूँ"…

“वो कैसे?”…

“अरे!…पागल तुम जो ब्लॉग पर लिखते हो…वो यूनीकोड में लिखा जाता है"…

“जी!…

“और जिन फॉण्टस की प्रैस में ज़रूरत होती है…वो अलग किस्म के होते हैं"…

“ओह!…

“उन्हीं ससुरों को सारा मैटर फिर से लिखने के लिए दे देता हूँ”…

“जी!…लेकिन क्या फॉण्टस वगैरा को परिवर्तित नहीं किया जा सकता है?”…

“किया जा सकता है ना…क्यों नहीं किया जा सकता है?”…

“वोही तो"…

“लेकिन कुछ गलतियाँ अगर पहले रह गयी होंगी भूलवश तो उन्हें भी तो दूर करना पड़ेगा"…

“जी!…

“स्ट्रिक्टली हिदायत दे दूंगा उनको कि जल्द से जल्द सारा काम पूरा करें…हमें इसी हफ्ते में किसी बड़े लेखक या साहित्यकार से तनेजा जी की किताब का विमोचन करवाना है”…

“क्या सच?…मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा है कि कोई बड़ा साहित्यकार मेरी….

“कहो तो चक्रपाणि से समीक्षा भी लिखवा दूँ?”…

“क्या ऐसा सचमुच में हो सकता है?”…

“अरे!…हो क्यों नहीं सकता है?…बिलकुल हो सकता है"…

“व्व…वो इतने बड़े लेखक…साहित्यकार"…

“उन्हें बड़ा किसने बनाया?”…

“किसने?”…

“मैंने"…

“क्या सच?”…

“खुद उन्हीं के मुँह से सुन लेना जब वो तुम्हारी किताब का विमोचन करने के लिए दिल्ली आएँगे”…

“क्या सच?…सच में वो मेरी किताब का विमोचन करने दिल्ली आएँगे?”…

“और नहीं तो क्या?”…

“लेकिन वो तो लन्दन में रह कर…..

“तो क्या हुआ?…आने-जाने की टिकट ही तो भिजवानी पड़ेगी पाँच दिन के फाईव स्टार होटल में स्टे के साथ"…

“फ्फ…फाईव स्टार होटल में….स्टे के साथ?”…

“और नहीं तो क्या अपने साथ…अपने घर में ही ठहराओगे उन्हें?”…

“व्व….वो मान जाएंगे?”…

“अरे!…वो बेशक भले ही मान भी जाए लेकिन मैं तुम्हें कभी भी उसे तुम्हारे साथ…तुम्हारे ही घर में ठहरने नहीं दूंगा"…

“लेकिन क्यों?..इतनी बड़ी हस्ती तो हैं वो…उनके मेरे घर में ठहरने से…….

“बड़ी हस्ती है तो क्या?…हमारे सर पे चढ के कुलांचे भरेगा?…ऐसे फिरंगपने के मुरीद लोगों को ज्यादा मुँह नहीं लगाना चाहिए…इनसे…

“एड्स हो जाता है?”…

“एड्स का तो पता नहीं लेकिन हाँ…बवासीर का खतरा ज़रूर बना रहता है इनके आस-पास रहने से…ससुरे…ना खुद ठीक से धोएंगे और ना ही ठीक से साफ़ करेंगे”…

“जी!…उलटा दूसरों के भी पाक-साफ़ दामन को ऐसा करने की प्रेरणा देकर दागदार करने की कोशिश करेंगे"…

“जी!..बिलकुल….मैं तो कहता हूँ कि आग लगा देनी चाहिए इन सैनीटेरी नेपकिनों को…पेपर नेपकिनों को"…

“इस्तेमाल करने के बाद?”…

“नहीं!…इस्तेमाल करने से पहले"…

“लेकिन इससे तो पोल्यूशन का स्तर…प्रदूषण का स्तर और ऊँचा….और ऊँचा होता चला जाएगा"…

“तो अभी कौन सा कम हो रहा है प्रदूषण?….जानते भी हो कि कितने लाख-करोड़ पेड़ हर साल शहीद हो जाते हैं इन फिरंगियों के पिछवाड़े साफ़ करते-करते?…

“जी!…लेकिन….

“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं…एक बार कह दिया तो कह दिया…तुम उसे अपने घर  में नहीं ठहराओगे"…

“जी!…लेकिन…

“तुम्हें अपनी किताब छपवानी है कि नहीं?”…

“जी!…छपवानी तो है लेकिन….

“फिर लेकिन?”…

“ओह!…सॉरी…

“दैट साउण्डज बैटर"…

“तो ठीक है…जैसा आप उचित समझें"…

“अब की ना तुमने समझदारी वाली बात"…

“जी!…

“अच्छा…अब मैं फोन रख रहा हूँ…पढ़ने वाले भी सोच रहे होंगे कि इतना लंबा फोन?”…

“जी!…सोच तो मैं भी यही रहा था कि….

“कि कोई इतनी देर तक फोन पे बात कैसे कर सकता है?”…

“जी!…अब तक आपका बिल ही इतना आ गया होगा कि….

“अरे!……बिल की चिंता तू ना कर…और बस…चुपचाप मौज कर….यहाँ का लाईनमैन अपना जिगरी दोस्त है….किसी ना किसी घर की लाइन अपने आप मेरे घर में ट्रांसफर कर देता है हर रोज”…

“ओह!…लेकिन इस चक्कर में कहीं उसकी नौकरी चली गयी तो…मुझे तो डर लग रहा है"…

“अरे!…काहे का डर?…कल की जाती बेशक आज चली जाए…उसे कोई परवाह नहीं"…

“क्या मतलब?”…

“ससुरे को ब्लोगिंग के कीड़े ने जो काट रखा है”…

“तो?”…

“सब कुछ छोड़-छाड के फुल टाईम लेखक बनने की सोच रहा है"…

“और उसकी सोच को हवा कौन दे रहा है?”मेरा शरारत भरा स्वर…

“ऑफकोर्स मैं …और भला कौन?”…

“दैट्स नाईस ना?"…

“जी!…बिलकुल"…

“तो मैं चलूँ?…बहुत काम निबटाने हैं”…

“जी!…एक हफ्ते का ही तो समय बचा है अब"…

“जी!…

“ठीक है तो फिर चलता हूँ और लौट के पुन: जल्दी ही मिलता हूँ…फेस टू फेस"…

“जी!…फेस टू फेस"…

“ओ.के…बाय”…

“ब्बाय…टेक केयर"…

“जी!…

(फोन डिस्कनेक्ट हो जाता है)…

क्रमश:

दोस्तों….हिन्दी ब्लोगजगत में हुई एक दुखद एवं निंदनीय घटना को मैंने अपनी इस कहानी का आधार बनाया है…उम्मीद है कि आपको मेरा ये अंदाज़ भी पसंद आएगा…कहानी के सभी पहलुओं और मुद्दों को समेटने के चक्कर में कहानी कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गई है..अत: इसे दो भागों में दिया जा रहा है …असली मुद्दे को…असली बात को जानने के लिए आप सभी से करबद्ध निवेदन है कि जहाँ तक संभव हो सके…इस कहानी के दूसरे भाग को भी पढ़ें …धन्यवाद
राजीव तनेजा
  

रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं और नाम है…?..?…?..?- राजीव तनेजा

क्या?…क्या है महान आखिर आपके इस देश में?…किस गुरुर में?…किस घमण्ड में इतराए चले जा रहे हैं आप लोग?…ले-दे के एक ताजमहल या फिर कुछ पुराने टूटे-टाटे…बाबा आदम के ज़माने के खंडहरों समेत ‘हँसते रहो' का rajeev Taneja  राजीव तनेजा

ही तो बचा है आपके इस अजब-गज़ब देश में देखने लायक चीज़.. किस?…किसकी बात कर रहे हैं आप?… उस ईंटनुमा बन्द गोल मीनार की?… नहीं!…मैं राजीव की नहीं बल्कि क़ुतुब…क़ुतुब मीनार की बात कर रहा हूँ…. है ही क्या बचा आखिर उसमें खास बस इसके अलावा कि उसे कुतुबद्दीन एबक द्वारा फलाने-फलाने सन में फलाने-फलाने राज मिस्त्री की निगरानी में चंद सौ या हज़ार मजदूरों से जबरन पल्लेदारी करवाते हुए बेइंतिहा मोहब्बत और लगन के साथ झकाझक….चकाचक  बनवाया गया था?… 

और आपका ये ताजमहल?…जानते भी हैं कि इसको बनाने वाले सभी मजदूरों के हाथ…सरों समेत कलम कर दिए गए थे…और आप लोग बात करते हैं ह्यूमन राईट्स की….दिन पर दिन लुप्त होते…मानव के अधिकारों की…अरे!…पहले अपने गिरेबाँ में तो झाँक के देख लें आप लोग…फिर बात करें दूसरों की …माना कि दूसरे भी सही नहीं है …गलत हैं लेकिन इसमें आखिर किया ही क्या जा सकता है?…दस्तूर ही कुछ ऐसा है इस दुनिया कि कभी-कभी ना चाहते हुए भी अपने फायदों के लिए आक्रामक होना पड़ता है…अग्रेसिव होना पड़ता है लेकिन अफ़सोस…कुछ आँख के अन्धों और कान के बहरों  को बड़े आराम से उनका आक्रामक होना…उद्दंड होना… अग्रेसिव होना दिख जाता है लेकिन उसके पीछे की असल वजह…असली कारण कोई नहीं देखता है और ना ही देखना-सुनना चाहता है…कोई ये क्यों नहीं देखता कि कई बार मौके की नजाकत को देखते…समझते और बूझते हुए वही लोग भीगी बन सिहरते हुए इधर-उधर कोनों में चुपके से सुबकते हुए दुबक भी तो जाते हैं?….

क्या?…क्या है महान आखिर आपके इस देश में?…बस इसके अलावा कि आप दुश्मन हो या दोस्त…सभी के साथ आदर से बात करते हैं…उनके नाम की माला जपते हैं….जी-जी करके हर किसी ऐरे-गैरे…नत्थू-खैरे से अपनी ऐसी-तैसी करवाते हैं…माना कि अच्छी बात है दूसरों के साथ इज्ज़त से पेश आना …उन्हें सम्मान देना लेकिन इसमें भला कहाँ की भलमनसत या समझदारी है कि सारी पोल खुलने के बाद भी आप 2 और 3 के साथ भी ‘जी' का संबोधन जोड़ …उन्हें 2 जी और 3 जी के नाम के साथ आदर सहित संबोधित करें?…

अब समझ में आ रहा है मेरी कि अभी तक आपके यहाँ कसाब या फिर अफजल गुरु क्यों ज़िंदा है?…दरअसल आप लोग खुद ही नहीं चाहते कि वो फांसी पे लटके…दरअसल…डरते हैं आप लोग हर आने-जाने वाले तूफ़ान के पल-पल…प्रतिपल नज़दीक आते पदचाप से…सरकार भी नपुंसक ही है आपकी जो उसे आम आदमी की इच्छाओं से…उसकी अपेक्षाओं से…उसकी उम्मीदों से कोई मतलब नहीं है…कोई सरोकार नहीं है…नपुंसक… हाँ…नपुंसक है आपकी सरकार और इसके द्वारा रचे…बुने और गढे गए अभी तक के सभी लोग…सभी क़ानून……तभी तो ये कलमाड़ी…राजा…मारन और कनिमोझी जैसे दो कौड़ी के लोग सरेआम देश की…उसके आवाम की खिल्ली उड़ा तिहाड़ जेल के  एयर कंडीशंड दफ्तरों में तमाम पाबंदियों और बंदिशों के बावजूद मज़े से चाय की चुस्कियों का आनंद लेते और रिसार्ट टाईप पार्कों में गुटरगूं कर इधर-उधर फुदकते दिखाई दे जाते हैं…

हर-किसी ऐरे-गैरे …नत्थू-खैरे को सर पे चढाना तो कोई आपसे सीखे…अब इन्हें ही लो…जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए नहीं है पालने में झूला झूलते हुए…मुँह में लगी चुसनी तक तो छोड़ी नहीं गयी अब तक इनसे और मुझे?…अपने वन पीस…सिंगल हैंडिड बाप को आँखें दिखाना शुरू?…भय्यी वाह…बहुत ही बढ़िया…. बात-बात पे….बिना बात…आगे-पीछे…ऊपर-नीचे ….उचक-उचक के बेफाल्तू में फुदक रहे हैं स्साले…सब के सब…बताइए…तो ज़रा कि किसकी शह पर?…आप ही की शह पर जनाब…आप ही की शह पर..…हाँ-हाँ!…सब आप ही का किया-धरा है… न…ना…इतने भोले भी ना बनिए आप कि आप लोगों को इस सब का कुछ पता ही नहीं….कुछ इल्म ही नहीं…किसी बात का कुछ गुमाँ ही नहीं… याद रखिये…आप लोगों के ही ढेर सारे प्यार और दुलार ने इन्हें बिगाडा है….इज्ज़त से संवारा है…

“अब संवारा है तो संवारा है….इसमें इसमें अपने बाप का क्या गया?…कुछ भी नहीं”…

चलो!…कुछ चला भी गया तो वांदा नय्यी…..बहुत दिया है ऊपरवाले  ने…और भी देगा… वो अपने घर में मस्त है तो मैं भी कैसे ना कैसे करके अपने घर में मस्त रह लूँगा.लेकिन इतना तो समझाओ इन बद्दिमागों को कम से कम कि मेरे सर पर तो ना आ के मूतने की कोशिश करें…ये?…ये स्साला…पिद्दा सा….माईक्रो सा…मुझे?…अपने बाप को..आँखें दिखाने चला है…ससुरे की नज़र कमजोर हो गई है शायद….और ये?…ये क्या कर रहा है?…अपने क्रोध का सारा लावा शुद्ध एवं खालिस रूप में मुझ पर ही उढेल…व्यावसायिक रूप से मुझे खुडढल लाइन लगाते हुए….बाज़ार रुपी अमरबेल को प्राप्त कर खुद अजर…अमर…एवं अमिट होना चाहता है…..और ये?…ये पाँच पाण्डव क्या कर रहे हैं?…खुद अपने नाम के साथ ‘जी’ लगा कर आखिर साबित क्या करना चाहते हैं?…ऐसे तिगनी के माफिक इधर-उधर उछल कर कूद लेने से क्या उखाड़ लेंगे मेरा?….माना कि इन सबके मिलेजुले आक्रामक हमलों ने बहुत कुछ बिगाडा है मेरा…मुझे आक्रामक से डिफैन्सिव मोड में ला कोने में दुबक के खड़े होने पे मजबूर कर दिया है…..विवश कर दिया है…

देखो!…कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं ये पागल के बच्चे…कि हम क्रांति ला देंगे…तूफ़ान मचा देंगे?…दिमाग खराब हो गया है स्सालों का….तभी तो एक म्यान में दो-दो तलवारें रखने की बात करने लगे हैं आजकल….बताओ…तो ज़रा…ये भी भला क्या बात हुई कि…म्यान एक…और तलवारें दो?…इनसे तो चलो…जैसे-तैसे कर के मैं निबट भी लूँ लेकिन उन कम्बख्तमारों का क्या करूँ जो एक ही म्यान में एक साथ तीन और चार तलवारों को रखने की ज्ञान भरी बातें कर रहे हैं?….और ऊपर से दंभ भरा खुद का स्तुतिपूर्ण दावा भी कर रहे हैं कि एक ही बार में चारों तलवारों को एक साथ भांज कर मांजते हुए चलाया और आजमाया और दर्शाया जा सकता है…संतुलित नहीं है इनके दिमाग…सठिया गए हैं ये लोग…क्रैश कर बैठेंगे एक ना एक दिन अपनी हार्ड होती हुई डिस्क को…

भय्यी वाह…बहुत बढ़िया… चार चवन्नी क्या देख ली चाँदी की?…लेने का मन बना लिया इन्दिरा गांधी की? ….

कुछ तो शर्म करो…कुछ तो लिहाज करो…पैसा ही सब कुछ नहीं होता…इतना मत उछलो…इज्ज़त…आबरू…रेपुटेशन….सबकी अपनी-अपनी कीमत है…अपना-अपना महत्त्व है…

अरे!…कुछ लेना ही है तो गांधीजी से उनकी सहिष्णुता लो…सुभाष चन्द्र बोस से उनकी दिलेरी…जाबांजी लो… भगत सिंह से उनकी हिम्मत लो…ये क्या कि इन्दिरा गाँधी से उनका आपातकाल जैसा निरंकुशता भरा अवगुण लिया और मन ही मन इतराते हुए फूले नहीं सामने लगे?…

कुछ भी कर लो…कुछ भी बन जाओ लेकिन याद रखना हमेशा कि… गंढेरियां जितनी बड़ी मर्जी हो जाएँ बेशक… रहती हमेशा गन्ने से छोटी ही हैं.. और फिर रिश्ते में भी तो हम…हाँ!…हम इन सभी मोबाईलों का बाप लगता हूँ क्योंकि नाम है मेरा….नोकिया…नोकिया…नोकिया…

NOKIA

 

माईक्रो= माईक्रोमैक्स

micromax

लावा= लावा मोबाईल

Lava_KKT_24

पाण्डव- GFIVE MOBILE

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