संकल्प- लघुकथा


"तुझे पता है ना... मैं हमेशा सच बोलता हूँ मगर कड़वा बोलता हूँ। सीधी सच्ची बात अगर मेरे मुँह से तू सुनना चाहता है ना तो सुन... तू कामचोर था...तू कामचोर है।" राजेश, मयंक को समझा समझा कर थक जाने के बाद अपने हाथ खड़े करता हुआ बोला।

"लेकिन भइय्या....(मयंक ने कुछ कहने का प्रयास किया।)

" अब मुझे ही देख...मैं भी तो तेरी तरह इसी शहर में पिछले दो साल से हूँ लेकिन देख...गांव में इसी शहर की बदौलत मैंने पक्का मकान बना लिया...नयी मोटरसाइकिल खरीद ली और तूने बता इन दो सालों में क्या कमाया है? तेरे राशन तक का खर्चा भी तो मैं...(राजेश ने बात अधूरी छोड़ दी।)

 "मगर भइय्या...मम्...मैं दरअसल...
 
"पहली बात तो यह समझ ले कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। अब मुझे ही ले...अगर मैं भी तेरी तरह शर्म करता रहता ना तो आज तेरे जैसे ही मैं भी धक्के खा रहा होता। बोल मानेगा ना मेरी बात?" राजेश लाड़ से मयंक के बालों में अपनी उंगलियाँ फिराता हुआ बोला।

"ठीक है भइय्या...अब से जैसे आप कहेंगे, मैं वैसे ही करूँगा।" कर्ज़े में डूबे माँ बाप का चेहरा सामने आते ही असमंजस में डूबा मयंक अपने मन को पक्का करता हुआ बोला।

"शाबाश...ये हुई ना मर्दों वाली बात। ले....ये पकड़ चूड़ियाँ, नयी साड़ी और मेकअप का सामान। कल ठीक 10 बजे अच्छे से तैयार हो के आ जाना। मैं पीरागढ़ी चौक पर तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।" कहते हुए राजेश वहाँ से चल दिया।
 
चेहरे पर दृढ़ संकल्प लिए मयंक का चेहरा अब उज्ज्वल भविष्य की आस में चमक रहा था।
 

चढ़ी जवानी बुड्ढे नूं

{पति ड्रेसिंग टेबल के आगे सज संवर रहा है ।उसको देख कर उसकी पत्नी कैमरे की तरफ मुंह करके शुरू हो जाती है।}

"देखा आपने कैसे बुढ़ापे में इनको ये सब चोंचले सूझ रहे हैं।  बताओ...ज़रा से बाल बचे हैं सिर पर लेकिन जनाब को तो हफ्ते में दो बार शैम्पू विद कंडीशनर इस्तेमाल करना है और ड्रायर...ड्रायर तो बिना नागा रोज़ ही फेरना है। अब आप ही बताओ क्या रोज़ रोज़ ड्रायर फेरना सही है? एक तो पहले से ही खेत बंजर होता जा रहा है। ऊपर से ये क्या कि बची खुची फसल को सुखा मारो? माना की कभी शशि कपूर जैसी पर्सनैलिटी थी लेकिन अब...अब कुछ दिन और ऐसे हालात रहे ना तो पिंचु कपूर तक पहुँचते देर नहीं लगेगी।"

"औरों की तो छोड़ो...अपने घर में...अपने ही बीवी बच्चों से कंपीटीशन करने चले है।"

"जब से ये मुय्या ऑनलाइन का सिस्टम शुरू हुआ है। घर बैठे जनाब मोबाइल पे उंगलियाँ टकटकाते हैं और कभी बाल रंगने का डाई तो कभी दाढ़ी मुलायम करने की क्रीम घर बैठे मँगवा मारते हैं।  बताओ जवानी में तो कभी सोचा नहीं...अब  इस उम्र में ये मुलायमियत का एहसास करवाएंगे?"

'मैं तो सच्ची तंग आ गयी हूँ इनसे। कभी फेसवाश तो कभी माउथ वाश....अब मुँह के अंदर थोड़ी बहुत ठंडक आ भी गयी तो बताओ किसको फ्रैशनैस का फील करवाना है? और सुनो...थोड़ी सी दाढ़ी चिट्टी क्या नज़र आने लगी..कहने लगे कि...

"उठा कूची और फेर से समूची।"

"कोई बताए इनको कि इस उम्र में इनको अब भजन कीर्तन और माला जपना वगैरह शुरू कर देना चाहिए लेकिन नहीं...जनाब को तो संजय दत्त के कीड़े ने काटा है। कहते हैं कि 300 प्लस की गिनती पार कर के रहेंगे। डीजे पे डाँस करने लगें तो दो ठुमकों में ही हांफ..हांफ चिल्लाने लगते हैं कि....

"हाय मेरी कमर...उफ्फ मेरी कमर।" 

"लेकिन नहीं...जनाब को तो सदाबहार के कीड़े ने काटा है ना। बताओ... देव आनंद समझते हैं खुद को। रोज़ रोज़...नए नए सैलून और स्पा वगैरह सर्च करते रहते हैं ऑनलाइन। एक दिन मुझे कहने लगे कि....बैंगलोर में एक नया लगज़रियस स्पा खुला है...सुना है कि 100%  नैचुरल ...ऑर्गेनिक हेयर डाय इस्तेमाल करते हैं। दो चार दिन के लिए हो आऊँ?"

मैंने भी कह दिया कि चलो...कोई बात नहीं...थोड़ा "खर्चा ही तो है ना...हो आओ। बस...तसल्ली कर लेना कि सब नैचुरल...ऑर्गैनिक हो।"

"अब आप ही बताइए अगर सब नैचुरल है...ऑर्गेनिक है...तो फिर क्या बुराई है? बंदा आखिर...कमाता धमाता किसके लिए है...अपने लिए ही ना? थोड़ा खर्चा ही तो करते हैं मगर चलो...खुश तो रहते हैं कम से कम।"

"अच्छा फ्रैंडज़...आज तो मैंने आपका काफी समय ले लिया। अब मैं भी चलती हूँ...खाने की तैयारी भी तो करनी हैं।"

"एक मिनट मैं मेन बात तो करना भूल ही गयी। उस दिन जब ये वापिस बैंगलोर से आए तो बड़े खुश खुश थे। मैं भी खुश कि चलो...कैसे भी कर के ये बस खुश रहा करें। लेकिन एक बात समझ नहीं आयी कि बाद  में आ के पुलिस वाले जाने क्यूँ हमारे घर के बाहर स्टिकर लगा के चले गए कि इस घर को दो हफ्तों के लिए क्वारैंटाइन किया जा रहा है। माना की एहतिहातन किया होगा लेकिन उन घरों को जा कर करें ना जहाँ से कोई विदेश गया हो।  हमारे यहाँ से तो कोई बैंकाक गया ही नहीं है।"
(समाप्त)

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हींग लगी ना फिटकरी

"अच्छा...सुनो...मैं सोच रही थी कि बड़े दिन हो गए सिंपल सिंपल सा बनाते खाते हुए...तो  आज कुछ अच्छा बना लेती हूँ। बोलो..क्या बनाऊँ?"

"अपने आप देख लो।"

"नहीं...तुम बताओ...

"सबसे अच्छा तो मेरे ख्याल से तुम मुँह बनाती हो।"

"तुम भी ना...हर टाइम बस मज़ाक ही करते रहा करो और कोई काम तो है नहीं।"

"अरे!....काम का तो तुम नाम ही मत लो। जब से ये मुय्या कोरोना शुरू हुआ है। काम धंधे तो वैसे ही सारे के सारे ठप्प पड़ गए हैं।"

"हम्म!...बात तो तुम सही ही कह रहे हो।"

"अच्छा...अब अगर तुम तशरीफ़ ले जाओ तो अपना मैं काम कर लूँ?"

"हुंह!...ये किताबें पढ़ना भी भला कोई काम है? ये तो तुम अपने मज़े के लिए पढ़ते हो।"

"तो तुम भी मज़े ले लो। लो...एक...बस एक किताब पूरी पढ़ के दिखा दो तो मैं मान जाऊँ।"

"मेरे बस का नहीं है ये किताब फिताब पढ़ना। एंड  फ़ॉर यूअर काइंड इन्फॉर्मेशन...काम उसे कहते हैं जिससे चार पैसे रोज़ाना घर में आएँ। ये नहीं कि दिन रात इन्हीं में तुम अपनी आँखें गड़ा कर चश्मे का नम्बर बढ़वाते फ़िरो और घर आए चवन्नी भी नहीं। बताओगे ज़रा कि साल में तुम अपने पल्ले से कितने रुपयों के चश्में बदलवाते हो?"

"फिर शुरू हो गयी ना तुम? पता भी है कुछ कि कितना दिमाग लगता है इनको पढ़ने और फिर इन पर समीक्षा लिखने में?"

"मुझे बस इतना पता है कि तुम इन्हें अपने मज़े के लिए पढ़ते हो।

"तो तुम भी मज़े ले लो ना...किसने रोका है? अच्छा...एक काम करो...तुम एक नहीं...दो दो मज़े ले लो।"(एक के बजाय दो दो किताबें पकड़ाते हुए।) 

"ना...मुझे नहीं लेने ये वाले मज़े। मैं तो अपने आप अलग तरीके से  मज़े ले लूँगी।"

"कैसे?"

"लाओ...मुझे अभी के अभी पाँच हज़ार रुपए दो।"

"किसलिए?"

"मज़े करूँगी।"

"कैसे?"

"क्यों बताऊँ? तुम बस मुझे पैसे दे दो।"

"अरे!...लेकिन पता तो चले कि किसलिए तुम्हें चाहिए पैसे?"

"तुम मुझे बताते हो कि तुम कैसे और कहाँ खर्च करते हो पैसे?"

"तो?"

"तो मैं भी नहीं बताऊँगी कि मैं पैसों का क्या करूँगी।"

"ये तो कोई भी बात नहीं हुई  कि नहीं बताओगी। बिना बताए तो भय्यी बिल्कुल पैसे नहीं मिलेंगे।"

"मुझे ना..दरअसल एक अवार्ड मिल रहा है।"

"घर बैठे?"

"हाँ....

"अरे!...वाह...कौन बेवकूफ है जो....

"मैं ज़रा सा कुछ बोल दूँ सही... फटाक से ताना मार दोगे  कि...फिर से शुरू हो गयी। अब बताओगे ज़रा कि अब कौन शुरू हुआ है?"

"अच्छा....चलो छोड़ो....मगर कैसे? कौन सा ऐसा अवार्ड है जो बिना कुछ करे धरे...घर बैठे ही मिलने लगा?"

"हाँ!....मैं तो जैसे कुछ करती ही नहीं हूँ।"

"अरे!...मैं घर के कामों की बात नहीं कर रहा हूँ।"

"मुझे ना...मुझे ना दरअसल कोरोना वारियर्स का अवार्ड मिल रहा है।"

"लेकिन अब तक के पूरे लॉक डाउन में तो इस डर से  तुम घर से बाहर निकली ही नहीं कि कहीं ग़लती से भी तुम्हें कोरोना ना चिपट जाए।"

"तो?...पुष्पा, जमीला और राधा भी कौन सा घर से बाहर निकली हैं लेकिन अवार्ड तो उन्हें भी मिल रहा है।"

"मगर कैसे?"

"बस...ऐसे ही।"

"चलो..छोड़ो...अच्छा ये बताओ कि क्या अवार्ड की खुशी को सेलिब्रेट करना चाहती हो जो उसके लिए पैसे चाहिए?"

"नहीं...अभी फिलहाल तो लॉक डाउन के चक्कर में पार्टी करना पॉसिबल ही नहीं है। अगर चोरी छुपे कैसे भी कर के कर भी ली तो तुम्हें पता नहीं कि आजकल जलने वालों की कमी नहीं है।"

"तो?...उनके डर से पार्टी नहीं करोगी?"

"अरे!... कोई ना कोई कंबख्त पुलिस मे रिपोर्ट कर ही देगा और फिर पुलिस का तो तुम्हें पता ही है कि कैसे दनादन लट्ठ बजाती है? अभी पिछले हफ्ते ही तो....

"तुम ना बस मेरे ही पीछे पड़ी रहा करो। अभी ज़रूरी था उस बात का जिक्र करना?"

"चलो!....अच्छा सॉरी।  पार्टी के लिए तो मैं तुमसे बाद में अलग से पैसे लूँगी। "

"ओके डन...अभी मगर फिलहाल तो मुझे ये समझ नहीं आ रहा कि तुम्हें कोई अवार्ड क्यों और कैसे मिल रहा है? "

"पहली बात तो ये कि ये कोई वाला अवार्ड नहीं है। बहुत ही प्रतिष्ठित अवार्ड है और दूसरा ये कि तुम ना बस मुझे कभी घर की मुर्गी दाल बराबर से ज़्यादा मत समझना। बाहर जा के पता करो कि मेरा कितना नाम है...लोग कितनी मेरी इज़्ज़त करते हैं...मुझे कितना पूछते हैं।"

"बाहर?"

"हाँ!....बाहर"

"ये बाहर जा के पता करने की बात तुम जानबूझ के कर रही हो ना?"

"ओह....अच्छा....सॉरी....सॉरी।"

"हम्म....

"अच्छा ये बताओ...तुम घंटेश्वर जी को जानते हो?"

"क्या वही घंटेश्वर जी, जिनके तुम फेसबुक पर बड़े बड़े पुलिस वालों के साथ फोटो दिखाती रहती हो? ओह!....हाँ...याद आया वही ना...जिनका फेसबुक पर 'पुलिस के साथी' के नाम से पेज और शायद ग्रुप भी बना हुआ है।"

"हाँ...हाँ...वही।"

"क्यों?...क्या हुआ?...कोरोना के लपेटे में आ के क्या कंबख्त लुड़क गया?"

"हुंह!...तुम्हें तो हर वक्त बस  मज़ाक ही सूझता रहता  है। कोई काम की बात करने लगो तो मज़ाक। बिना काम की बात करो तो मज़ाक।"

"अच्छा...अच्छा बाबा...मैं सीरियस हो जाता हूँ। तुम बताओ कि क्या हुआ है उसको?"

"किसी का नाम तमीज़ से भी लिया जा सकता है।"

"ओह!....सॉरी...अच्छा ये बताओ की उनको क्या हुआ है?"

"फ़ॉर यूअर इन्फॉर्मेशन...उनको कुछ नहीं हुआ है। बल्कि जो हुआ है...मुझको ही हुआ है।"

"क्या?"

"उनसे अवार्ड लेने का भूत सवार।"

"वो अवार्ड बाँटते हैं?"

"पहले का तो पता नहीं...मगर हाँ....आजकल तो खूब बाँट रहे हैं...धड़ाधड़ बाँट रहे हैं।"

"अब अगर कोई बंदा अपनी खुशी से सब में खुशी बाँट रहा है तो मर्ज़ी है तुम्हारी....ले लो लेकिन मुझे ना ये सब कुछ  ठीक नहीं लग रहा कि कोई ऐसे...खामख्वाह...फ्री में अवार्ड बाँट रहा है। ज़रूर दाल में कुछ काला है या फिर उसे किसी पागल कुत्ते  के काटा होगा।"

"हुंह!...पागल कुत्ते  के काटा होगा और फिर फ्री में तुमसे किसने कह दिया कि दे रहा है? उसी को देने के लिए ही तो मैं तुमसे 5000 माँग रही थी।"

"इसका मतलब पागल कुत्ते ने उसको नहीं..पक्का तुमको काटा है।"

"मुझे भला क्यों काटने लगा...मैं कौन सा घर से बाहर निकलती हूँ?"

"अरे!...जब किस्मत फूटी हो ना तो ऊँट पे बैठे हुए बंदे को भी कुत्ता काट जाता है।"

"बंदे को ही ना...बंदी को तो नहीं ना?"

"तुम ना बस...बात पकड़ के बैठ जाया करो।"

"तो?...बीवी किसकी हूँ?"

"हाँ!....अफसोस तो इसी बात का है कि बीवी तो तुम मेरी ही हो।"(ठंडी सांस लेते हुए)

"तो लाओ...निकालो इसी बात पे पूरे पाँच हज़ार रुपए।"

"अच्छा...कब होना है ये अवार्ड?"

"होना क्या है? वो तो आलरेडी चल रहा है।"

"कहाँ?"

"फेसबुक पर।"

"तो अवार्ड भी इसका मतलब फेसबुक पर ही मिलेगा?"

"और नहीं तो क्या घर पे आ के देंगे?"

"एक मिनट....अवार्ड फेसबुक पर मिलेगा। तो इसका मतलब सर्टिफिकेट वगैरह भी सब फेसबुक पर ही मिलेगा?" (कुछ सोचते हुए।)

"हाँ...

"इसका मतलब...हाथ में छूने के लिए कुछ ठोस नहीं मिलेगा?"

"मिलेगा ना।"

"क्या?"

"घँटा...

"कक्....क्या? तुमने घँटा कहा?"

"हाँ....पैसे ऑनलाइन भेजने के बाद अपना एड्रेस भी भेजना है उनको।"

"किसलिए?"

"अभी बताया तो...

"क्या?"

"यही कि...कोरियर से वो भेजेंगे।"

"घँटा?" 

"हाँ...

"मैं कुछ समझा नहीं।"

"तुम ना निरे बुद्धू हो।"

"कैसे?"

"पिछली बार मैंने क्या बताया था?"

"क्या?...

"यही कि उनके ग्रुप का लोगो 'घँटा" है। तो बट नैचुरल ही है कि वो हमें घँटा ही भेजेंगे।"

"पीतल का?"

"नहीं!...सोने का।"

"सच्ची?"

"दिमाग खराब है तुम्हारा? वैसे इतना समझदार बनते हो मगर महज़ पाँच हज़ार में सोने का घँटा सोच रहे हो। घंटा दिमाग है तुम्हारे पास।"

"मगर....

"अरे!...अगर उनके ग्रुप का लोगो घँटा है तो इसका ये मतलब तो नहीं हो जाता कि वो सचमुच का घँटा ही भेजें।"

"तो?"

"सर्टिफिकेट पे मेरे नाम के साथ छपा हुआ गोल्डन कलर का घँटा फ्रेम करवा कर भेजेंगे।"

"बस्स?....

"अरे!....इतना मान सम्मान दे रहे है। ये क्या कम है?" 

"नहीं...नहीं...ये तो बहुत है। इतना है कि संभाले नहीं संभलेगा हमसे।"

"और नहीं तो क्या?"

"अच्छा...एक बात सच सच बताओ...

"क्या?"

"यही कि इस अवार्ड की सुबह शाम तुम धूप बत्ती करोगी या फिर नींबू मिर्च लगा के चाटोगी?"

"हाँ....चाटूँगी लेकिन फ़ॉर यूअर काइंड इन्फॉर्मेशन...नींबू मिर्च लगा कर नहीं बल्कि दूध मलाई लगा कर चाटूँगी।"

"कैसे?"

"वो ऐसे...इस अवार्ड के मिलने के बाद हमारे सारे रिश्तेदार और  सारी सहेलियों की छाती पे तो पक्का साँप लौटने वाले तो। तो मारे खुशी के मैं दूध मलाई ही तो जी भर के चाटूँगी।"

"ओह!...यय....ये क्या? ये तुम्हारा हाथ क्यूँ कांप रहा है? तबियत तो ठीक है ना?"

"कुछ खास नहीं...बस ऐसे ही....तुम बेझिझक  हो के बेधड़क सुनाओ...मैं  लपेट रहा हूँ।"

"हुंह!...इसका मतलब तुम पैसे नहीं दोगे?"

"बेफालतू के कामों के लिए मेरे पास पैसे नहीं है।"

"ये बेफालतू का काम है।"

"नहीं!....बहुत ज़रूरी काम है।"

"सीधे सीधे तुम कह क्यूँ नहीं देते कि तुम मेरी सफलता से...मेरी कामयाबी से जलते हो।"

"मैं?...मैं जलता हूँ।"

"हाँ...तुम...तुम जलते हो।"

"अच्छा...तुम्हें बस सर्टिफिकेट ही चाहिए ना?"

"हाँ....

"अगर बिना कुछ खर्च किए तुम्हें मैं दिला दूँ तो खुश हो जाओगी?"

"हाँ....बिल्कुल।"

"मगर सर्टिफिकेट पे नाम तुम्हारे उस घंटेश्वर जी का नहीं होगा।"

"मुझे नाम से भला क्या लेना है? वैसे भी उसे फेसबुक से बाहर की दुनिया में और भला जानता ही कौन है?"

"हम्म!....सर्टिफिकेट और अवार्ड दिखा कर वैसे भी तो रिश्तेदारों और सहेलियों को ही तो बस इम्प्रेस करना है।"

"बिल्कुल।"

"तो बस अभी तुम मुझे आधा एक घँटा दो। ऐसा धाँसू अवार्ड और सर्टिफिकेट का डिज़ायन ना बनाया ना तो मेरा तुम नाम बदल देना।"

"तुम बनाओगे?....सच्ची तुम बनाओगे?"

"हाँ!...भय्यी...मैं ही बनाऊँगा। तुम्हें पता तो है कंप्यूटर ग्राफिक्स में मेरा हाथ कमाल का चलता है।"

"अरे!...फिर तो मज़ा आ जाएगा। हींग लगी ना फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा।"

"बिल्कुल....

"अच्छा एक काम करोगे?"

"एक क्या दो बोलो...बस बेफालतू का खर्चा नहीं होना चाहिए।"

"हा....हा....हा...मैं सोच रही थी कि...
 अच्छा एक काम करो...जब प्रिंट निकालने लगो ना तो दो चार सर्टिफिकेट एक्स्ट्रा निकाल लेना पुष्पा, जमीला और राधा के नाम से।"

"किसलिए?"

"मैं सोच रही थी कि उनकी भी क्यों हींग और फिटकरी लगे?"

"अरे!...वाह...नेकी भी करना चाहती और वो भी पूछ पूछ के?  बिल्कुल बना दूँगा। अगर बोलोगी तो दो चार और का भी बना दूँगा।"

"रहने दो...ऐसे रेवड़ियों की तरह बाँट के मुझे अपने अवार्ड की भदद नहीं पिटवानी है।"

{अंत में दोनों एक साथ)

"ऐसे ठगों से बचें जो आपको अवार्ड देने के नाम पर आपकी मेहनत का पैसा ठगने की फिराक में रहते हैं।"

बेसिक स्टोरी आईडिया- सुमित प्रताप सिंह

खिड़कियों से झाँकती आँखें- सुधा ओम ढींगरा

आमतौर पर जब हम किसी फ़िल्म को देखते हैं तो पाते हैं कि उसमें कुछ सीन तो हर तरह से बढ़िया लिखे एवं शूट किए गए हैं लेकिन कुछ माल औसत या फिर उससे भी नीचे के दर्ज़े का निकल आया है।  ऐसे बहुत कम अपवाद होते हैं कि पूरी फ़िल्म का हर सीन...हर ट्रीटमेंट...हर शॉट...हर एंगल आपको बढ़िया ही लगे। 

कमोबेश ऐसी ही स्थिति किसी किताब को पढ़ते वक्त भी हमारे सामने आती है जब हमें लगता है कि इसमें फलानी फलानी कहानी तो बहुत बढ़िया निकली लेकिन एक दो कहानियाँ... ट्रीटमेंट या फिर कथ्य इत्यादि के हिसाब से औसत दर्ज़े की भी निकल ही आयी। लेकिन खैर... अपवाद तो हर क्षेत्र में अपनी महत्त्वपूर्ण पैठ बना के रखते हैं। 

तो ऐसे ही एक अपवाद से मेरा सामना हुआ जब मैंने प्रसिद्ध कथाकार सुधा ओम ढींगरा जी का कहानी संग्रह "खिड़कियों से झाँकती आंखें" पढ़ने के लिए उठाया। कमाल का कहानी संग्रह है कि हर कहानी पर मुँह से बस यही लफ़्ज़ निकले कि..."उफ्फ...क्या ज़बरदस्त कहानी है।" 

सुधा ओम ढींगरा जी की कहानियॉं अपनी शुरुआत से ही इस तरह पकड़ बना के चलती हैं कि पढ़ते वक्त मन चाहने लगता है कि...ये कहानी कभी खत्म ही ना हो। ग़ज़ब की किस्सागोई शैली में उनका लिखा पाठकों के समक्ष इस तरह से आता है मानों वह खुद किसी निर्मल धारा पर सवार हो कर उनके साथ ही शब्दों की कश्ती में बैठ वैतरणी रूपी कहानी को पार कर रहा हो। 

चूंकि वो सुदूर अमेरिका में रहती हैं तो स्वाभाविक है कि उनकी कहानियों में वहाँ का असर...वहाँ का माहौल...वहाँ के किरदार अवश्य दिखाई देंगे लेकिन फिर उनकी कहानियों में भारतीयता की...यहाँ के दर्शन...यहाँ की संस्कृति की अमिट छाप दिखाई देती है। मेरे हिसाब से इस संग्रह में संकलित उनकी सभी कहानियाँ एक से बढ़ कर एक हैं। उनकी कहानियों के ज़रिए हमें पता चलता है कि देस या फिर परदेस...हर जगह एक जैसे ही विचारों...स्वभावों वाले लोग रहते हैं। हाँ...बेशक बाहर रहने वालों के रहन सहन में पाश्चात्य की झलक अवश्य दिखाई देती है लेकिन भीतर से हम सब लगभग एक जैसे ही होते हैं।

उनकी किसी कहानी में अकेलेपन से झूझ रहे वृद्धों की मुश्किलों को उनके नज़दीक रहने आए एक युवा डॉक्टर के बीच पैदा हो रहे लगाव के ज़रिए दिखाया है। तो कुछ कहानियॉं...इस विचार का पूरी शिद्दत के साथ समर्थन करती नज़र आती हैं कि....

"ज़रूरी नहीं कि एक ही कोख से जन्म लेने वाले सभी बच्चे एक समान गुणी भी हों। परिवारिक रिश्तों के बीच आपस में जब लालच व धोखा अपने पैर ज़माने लगता है। तो फिर रिश्तों को टूटने में देर नहीं लगती।"

 इसी  मुख्य बिंदु को आधार बना कर विभिन्न किरदारों एवं परिवेशों की कहानियाँ भी इस संग्रह में नज़र आती हैं। 

इस संग्रह में सहज हास्य उत्पन्न करने वाली कहानी नज़र आती तो रहस्य...रोमांच भी एक कहानी में ठसके के साथ अपनी अहमियत दर्ज करवाने से नहीं चूकता। किसी कहानी में भावुकता अपने चरम पर दिखाई देती है तो एक कहानी थोड़ी धीमी शुरुआत के बाद आगे बढ़ते हुए आपके रौंगटे खड़े करवा कर ही दम लेती है। 

बहुत ही उम्दा क्वालिटी के इस 132 पृष्ठीय संग्रणीय कहानी संग्रह के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है शिवना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र ₹150/- जो कि कंटैंट एवं क्वालिटी को देखते हुए बहुत ही कम है। कम कीमत पर इस स्तरीय किताब को लाने के लिए लेखिका तथा प्रकाशक का बहुत बहुत आभार। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

बहुत दूर गुलमोहर- शोभा रस्तोगी

जब कभी भी हम अपने समकालीन कथाकारों के बारे में सोचते हैं तो हमारे ज़हन में बिना किसी दुविधा के एक नाम शोभा रस्तोगी जी का भी आता है जो आज की तारीख में किसी परिचय का मोहताज नहीं है। लघुकथाओं के क्षेत्र में उन्होंने उल्लेखनीय काम किया है। ऐसे में जब पता चला कि इस बार जनवरी के पुस्तक मेले में उनकी एक नई किताब "बहुत दूर गुलमोहर" आ रही है तो उसे लेना तो बनता ही था। 

अब फुरसत के इन पलों में जब उनकी किताब को पढ़ने के लिए उठाया तो सुखद आश्चर्य के तहत पाया कि इस किताब में उनकी लघुकथाएँ नहीं बल्कि कुछ  छोटी कहानियाँ हैं। लिखते समय शोभा रस्तोगी जी धाराप्रवाह शैली में ग़ज़ब की किस्सागोई के साथ बहुत ही सहज ढंग से स्थानीय तथा प्रांतीय शब्दो  का इस्तेमाल करते हुए शब्दों से खुल कर खेलती हैं। शहरी, ग्रामीण तथा क़स्बाई संस्कृति के किरदार आमतौर पर उनकी कहानियों के मुख्य पात्र बनते हैं। 

उनकी कहानियों में एक तरफ पढ़े लिखे किरदार दिखाई देते हैं तो दूसरी तरफ वेश्या जैसा किरदार भी उनकी कहानी में मुख्य जगह बनाता है। किसी कहानी में अपने ही रिश्तेदारों द्वारा प्रताड़ित एक विधवा है जिसे साज़िशन डायन का तमगा दे उसके अपने ही घर से बेदखल कर दिया जाता है। किसी कहानी में घर की बड़ी बेटी को उसके ही अभिभावकों द्वारा महज़ नोट कमाने की मशीन समझ उसके अरमानों का गला घोंटने की बात है। 

इसी संकलन की एक कहानी टूटते रिश्तों की कहानी है कि किस तरह रिश्तों की अहमियत के बीच जब पैसा आड़े आने लगता है तो उनके बिखरने में देर नहीं लगती। इसी संकलन की एक  अन्य कहानी में ट्रेन के सफ़र के दौरान कामातुर अधेड़ और एक युवती की कहानी है कि किस तरह वह युवती उस अधेड़ को शर्मिंदा करते हुए ट्रेन से उतरने पर मजबूर कर देती है। 

इसी संकलन की एक कहानी इस बात को ले कर लिखी गयी है कि किस तरह खुद के उज्ज्वल भविष्य की चाह में कई बार गरीब माँ बाप अपनी किसी संतान को गोद तो देते हैं लेकिन फिर उसकी कोई पूछ खबर नहीं रखते। इसी संकलन की एक कहानी में इस बात का जिक्र है कि किस तरह बाल मन, घर और स्कूल की डाँट से त्रस्त हो आत्महत्या तक की बात सोचने लगता है। इसी संकलन की एक कहानी में घर वैभव सब कुछ के होते हुए भी अपने पति की उपेक्षा झेल रही एक विवाहिता, अवैध कहे जाने वाले संबंध की गर्त में उलझ तो जाती है लेकिन फिर तुरंत ही पछताते हुए लौटने का प्रयास करती है मगर क्या वो इसमें सफल हो पाती है?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी ऐसी युवती की कहानी है जिसके पति को विवाह होते ही पुलिस एक ऐसे जुर्म में गिरफ्तार कर जेल में डाल देती है जिसमें उसे उम्रकैद होने की संभावना है। ऐसे में वक्त के साथ समझौता करते हुए बहु पूरे मनोयोग से लाख झिड़कियाँ सहती हुई भी अपनी सास की सेवा करती रहती है। ऐसे में सास भी उसे अपनी बेटी मान उससे स्नेह जताते हुए उसके अन्यत्र कहीं विवाह को हामी भर घरजमाई बनाने की मंशा जताती है मगर तभी उसका बेटा बाइज़्ज़त छूट कर घर लौट आता है।

अंत में एक सुझाव है कि...कुछ जगहों पर स्थानीय/ प्रांतीय भाषा के इस्तेमाल होने की वजह से कई बार पढ़ने में थोड़ी असुविधा भी हुई। बेहतर होगा कि इस पुस्तक के अगले  संस्करण तथा आने वाली पुस्तकों में ऐसे वाक्यों  के हिंदी अनुवाद भी साथ में दिए जाएँ। एक जगह और तथ्यात्मक ग़लती दिखी कि वहाँ पर "रामानंद सागर की मंदाकिनी" लिखा गया है जिसे "राजकपूर की मंदाकिनी" होना चाहिए। 

कुल 88 पृष्ठों की इस उम्दा क्वालिटी की संग्रणीय स्तर की किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिल्पायन बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹175/- जो मुझे कम पृष्ठ संख्या होने की वजह से थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

खट्टर काका- हरिमोहन झा



कहते हैं कि समय से पहले और किस्मत से ज़्यादा कभी कुछ नहीं मिलता। हम कितना भी प्रयास...कितना भी उद्यम कर लें लेकिन होनी...हो कर ही रहती है। ऐसा ही इस बार मेरे साथ हुआ जब मुझे प्रसिद्ध लेखक हरिमोहन झा जी द्वारा लिखित किताब "खट्टर काका" पढ़ने को मिली। इस उपन्यास को वैसे मैंने सात आठ महीने पहले अमेज़न से मँगवा तो लिया था लेकिन जाने क्यों हर बार मैं खुद ही इसकी उपस्तिथि को एक तरह से नकारता तो नहीं लेकिन हाँ...नज़रंदाज़ ज़रूर करता रहा। बार बार ये किताब अन्य किताबों को खंगालते वक्त स्वयं मेरे हाथ में आती रही लेकिन प्रारब्ध को भला कौन टाल सका है? इस किताब को अब..इसी लॉक डाउन के समय में ही मेरे द्वारा पढ़ा जाना लिखा था। खैर...देर आए...दुरस्त आए।


दिवंगत हरिमोहन झा जी एक जाने-माने लेखक एवं आलोचक थे। एक ऐसे शख्स जिनकी लेखनी धार्मिक ढकोसलों के खिलाफ पूरे ज़ोरशोर से चलती थी। उनका लिखा ज़्यादातर मैथिली भाषा में है जिसका और भी अन्य कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। उन्होंने 'खट्टर काका' समेत बहुत सी किताबें लिखीं जो काफी प्रसिद्ध हुई। उन्हें उम्दा लेखन के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। 

अपनी किताबों में हरिमोहन झा जी ने अपने हास्य व्यंग्यों एवं  कटाक्षों के ज़रिए सामाजिक तथा धार्मिक रूढ़ियों को आईना दिखाते हुए अंधविश्वास इत्यादि पर करारा प्रहार किया  है। मैथिली भाषा में आज भी हरिमोहन झा सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखक हैं।

अब बात करते हैं उनकी किताब "खट्टर काका" की तो इस किताब का मुख्य किरदार 'खट्टर काका' हैं जिनको उन्होंने सर्वप्रथम मैथिली भाषा में रचा था। इस किरदार की खासियत है कि यह एक मस्तमौला टाइप का व्यक्ति है जो हरदम भांग और ठंडाई की तरंग में रहता है और अपने तर्कों-कुतर्कों एवं तथ्यों के ज़रिए इधर उधर और जाने किधर किधर की गप्प हांकते हुए खुद को सही साबित कर देता है।

इस किताब के ज़रिए उन्होंने हिंदू धर्म में चल रही ग़लत बातों को अपने हँसी ठट्ठे वाले ठेठ देहाती अंदाज़ में निशाना बनाया है। और मज़े की बात कि आप अगर तार्किक दृष्टि से उनका लिखा पढ़ो तो आपको उनकी हर बात अक्षरशः सही एवं सटीक नज़र आती है। खट्टर काका हँसी- हँसी में भी जो उलटा-सीधा बोल जाते हैं...उसे फिर अपनी चटपटी बातों के ज़रिए सबको भूल भुलैया में डालते हुए साबित कर के ही छोड़ते हैं।

रामायण, महाभारत, गीता, वेद, पुराण उनके तर्कों के आगे सभी के सभी सभी उलट जाते हैं। खट्टर काका के नज़रिए से अगर देखें तो हमें, हमारा हर हिंदू धर्मग्रंथ महज़ ढकोसला नज़र आएगा जिनमें राजे महाराजों की स्तुतियों, अवैध संबंधों एवं स्त्री को मात्र भोगिनी की नज़र से देखने के सिवा और कुछ नहीं है। ऊपर से मज़े की बात ये कि उन्होंने अपनी बातों को तर्कों, उदाहरणों एवं साक्ष्यों के द्वारा पूर्णतः सत्य प्रमाणित किया है। उन्होंने अपनी बातों को सही साबित करने के लिए  अनेक जगहों पर संबंधित श्लोकों का सरल भाषा में अनुवाद करते हुए, उन्हें उनके धार्मिक ग्रंथों के नाम सहित उल्लेखित किया है।

अगर आप जिज्ञासा के चश्मे को पहन खुली आँखों एवं खुले मन से हिंदू धर्म में चली आ रही बुराइयों एवं आडंबरों को मज़ेदार अंदाज़ में जाने के इच्छुक हैं, तो ये किताब आपके बहुत ही मतलब की है। इस किताब के 18वें पेपरबैक संस्करण को छापा है राजकमल पेपरबैक्स ने और इसका बहुत ही वाजिब मूल्य सिर्फ ₹199/- रखा गया है। उम्दा लेखन के लिए लेखक तथा कम दाम पर एक संग्रणीय किताब उपलब्ध करवाने के लिए प्रकाशक को साधुवाद।

नॉस्टेल्जिया

"नॉस्टेल्जिया"

बताओ ना...
पुन: क्यूँ रचें...लिखें...पढ़ें..
या फिर स्मरण करें..
एक दूसरे को ध्यान में रख कर लिखी गयी 
उन सब तमाम..
बासी..रंगहीन..रसहीन प्रेम कविताओं को 

बताओ ना...
क्यूँ स्मरण करें हम...
अपने उस रूमानी..खुशनुमा दौर को 
क्या मिलेगा या फिर मिलने वाला है..
आखिर!..इस सबसे अब हमें..
सिवाए ज़िल्लत...परेशानी और दुःख के अलावा 

अब जब हम जानते हैं..
अच्छी तरह से कि...
अब इन सब बातों का..
कोई असितत्व..कोई औचित्य नहीं...

तुम भी खुले मन और अपने अंत:करण से...
किसी और को स्वीकार कर चुकी हो...
और मैंने भी अब किसी और को 
अब अपने मन मस्तिष्क में..
राज़ी ख़ुशी..ख़ुशी से बसा लिया है 

बताओ ना..
पुन: क्यूँ रचें...लिखें...पढ़ें..
या फिर स्मरण करें..
एक दूसरे को ध्यान में रख कर लिखी गयी 
उन सब तमाम..
बासी..रंगहीन..रसहीन प्रेम कविताओं को 

सिवाए इसके कि यही नोस्टैल्जिया ही अब..
उम्र भर हमें जीने का संबल देता रहेगा

राजीव तनेजा

सब्र

"सब्र"

मुंह में दांत नहीं...
पेट में आंत नहीं..
फिर भी देख..
मौजूद कितना..
मुझमें सब्र है 

ब्याह करने को..
अब भी उतावला हूँ..
बेशक..पाँव लटके हैं..
और तैयार देखो..
हो रही मेरी कब्र है

कचरा- लघुकथा

"तंग आ गए यार खाली बैठे बैठे। तू बात कर ना शायद कहीं कोई ऑनलाइन काम ही मिल जाए। लॉक डाउन की वजह से यहाँ बाहर तो सब का सब ठप्प पड़ा है।"

"हाँ!...यार...खाली बैठे बैठे तो रोटियों तक के लाले पड़ने को हो रहे हैं।"

"तू बात कर ना कहीं। तेरी तो इतनी जान पहचान है।"

"हम्म....बात तो तू सही कह रहा है। खाली बैठे-बैठे तो मेरा दिमाग भी...लेकिन इस लॉक डाउन के चक्कर में अव्वल तो कोई काम मिलेगा नहीं और अगर कहीं कोई काम मिल भो गया तो पैसे बहुत थोड़े मिलेंगे।"

"पेट भरने लायक ही मिल जाएँ फ़िलहाल तो बस। कमाने की बाद में देख लेंगे।"

"हम्म...एक आईडिया तो है।"

"क्या?"

" मैं ऑनलाइन लघुकथा गोष्ठी वाले किसी एडमिन से बात कर के देखता हूँ। आज भी उनकी एक गोष्ठी है।"

"वहाँ भला हम कम पढ़े लिखों को क्या काम मिलेगा?"

"मैसेज वगैरह तो डिलीट कर लेगा ना?"

"हाँ...उसमें क्या बड़ी बात है? रोज़ ही तो मैं अपनी गर्लफ्रैंड के साथ हुई चैट को डिलीट करता हूँ लेकिन इससे भला.....

"अरे!...यार...लाख बार उन्होंने समझ के देख लिया लेकिन मैम्बर हैं कि वही ठस्स के ठस्स दिमाग।"

"मतलब?"

"बार बार सबको समझा दिया कि अपने दिए गए टाइम से पहले कुछ पोस्ट नहीं करना है लेकिन सब के सब....'वाह-वाह'...'बहुत खूब'...'मार्मिक' जैसे सैंकड़ों मैसेज एक साथ पोस्ट कर के पूरी गोष्ठी की ऐसी तैसी करे दे रहे हैं।"

"ओह!....

"तो ऐसे में उनको भी तो कोई ना कोई हैल्पर चाहिए होता होगा ना ये सब फालतू का कचरा हटाने के लिए? बेचारे कब तक अपनी उंगलियों की ऐसी तैसी करवाते रहेंगे खुद ही? उन्हीं से बात करता हूँ...उनका काम भी हो जाएगा और हमारा भी।"

"हाँ!...यार...तू उनको फटाफट मैसेज या फिर फोन कर दे इस बारे में पूछने के लिए।" 

"मैसेज ही कर देता हूँ। एक आध मैसेज से कौन सा कचरा फैल जाएगा?"
 
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