अमेरिका में 45 दिन- सोनरूपा विशाल


किसी भी देश, उसकी सभ्यता, उसके रहन सहन..वहाँ के जनजीवन के बारे में जब आप जानना चाहते हैं तो आपके सामने दो ऑप्शन होते हैं। पहला ऑप्शन यह कि आप खुद वहाँ जा कर रहें और अपनी आँखों से...अपने तन मन से उस देश...उस जगह की खूबसूरती...उस जगह के अपनेपन को महसूस करें। दूसरा ऑप्शन यह होता है कि आप वहाँ के बारे में किसी ऐसे व्यक्ति से जानें जो वहाँ पर कुछ वक्त बिता चुका हो। 

अब ये तो ज़रूरी नहीं कि आपकी किस्मत इतनी अच्छी हो कि आप चाहें और तुरंत ऐसा व्यक्ति  आपके सामने हाज़िर नाज़िर हो जाए और अगर हो भी जाए तो ये कतई ज़रूरी नहीं कि वह आपको...अपने अनुभव..आपकी ही सुविधानुसार..आपके द्वारा ही तय किए गए समय के मुताबिक अपने अनुभव आपको सुनाने को बेताब हो। यहाँ ये बात काबिल ए ग़ौर है कि बेताब व्यक्ति ही आपके सामने  खुले मन और खुले दिल से अपने दिल की...अपने मन की बात रख सकता है।

ऐसे में हमारे सामने ये दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि अव्वल तो ऐसे आदमी को ढूंढें कहाँ से और चलो..अगर घणी मशक्कत के बार अगर ऐसा मानुस मिल भी गया तो क्या गारेंटी है कि वह अपने अनुभव सुनाने को हमारी ही जितनी उत्कंठा और बेताबी को महसूस कर रहा होगा? ऐसे में काम भी बन जाए और लाठी भी ना टूटे, इसके लिए बढ़िया यही होगा है कि हम किसी के लिखे यात्रा वृतांत को पढ़ें। 

अब उस यात्रा वृतांत को लिखने वाले ने खामख्वाह ही तो लिख नहीं डाला होगा। जब उसके जज़्बातों ने मन की चारदीवारी से बाहर निकल औरों को भी अपने अनुभव का साझीदार बना डालने की ठानी होगी, तभी उसने अपने कीमती समय में  से समय निकाल अपने भावों को...अपने अनुभवों को...अपने उदगारों को अपनी लेखनी के ज़रिए पहले शब्दों के रूप में और फिर उन्हीं शब्दों को किताब का रूप दिया होगा।

दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ प्रसिद्ध कवियत्री सोनरूपा विशाल जी के द्वारा लिखे गए "अमेरिका में 45 दिन" नामक यात्रा वृत्तांत की। इस किताब में 1980 में अमेरिका जा कर बस गए भारतीयों द्वारा स्थापित 'अंतराष्ट्रीय हिंदी समिति' द्वारा आयोजित उनके अमेरिका और कनाडा के अलग अलग शहरों में हुए 24 कवि सम्मेलनों और उनके चक्कर में हुए 45 दिन के प्रवास की बातें हैं। इस सफ़र में उनके साथी थे हास्य व्यंग्य के प्रसिद्ध मंचीय कवि सर्वेश अस्थाना और मुम्बई से गौरव शर्मा। मूलतः कवियत्री होने की वजह से उनके लेखन में जगह जगह पद्य की झलक भी दिखाई देती है। 

उनकी इस यात्रा संस्मरण में ज़रिए हम अमेरिका के डैलस, इंडियाना पोलीस, डेट्रॉयट, डेटन, शिकागो, टोलीडो और क्वींस लैंड आदि शहरों के बारे में जान पाते हैं कि किस तरह अमेरिका के विभिन्न शहरों में भारतीय अपने अथक परिश्रम के बल पर आज उस देश का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन बैठे हैं और वहाँ पर अपने देश की संस्कृति तथा अपने देश के रीति रिवाजों को शिद्दत के साथ संजोए बैठे हैं। 

बेशक अमेरिका में रहने वाले भारतीयों की वेशभूषा पर पाश्चात्य की झलक ने अपना थोड़ा बहुत असर दिखाया हो लेकिन अपनी मिट्टी से अपने जुड़ाव...अपने लगाव की वजह से तीज त्योहारों के मौके पर वे अपने भारतीय परिधानों को पहनना नहीं भूलते हैं। देसी व्यंजनों और उनके तड़के की महक अब भी उनकी रसोई से निकल अपने आसपास के वातावरण को महकाती है।

इस वृतांत में उन्होंने बात की अपने प्रवास के दौरान आने वाले विभिन्न शहरों और उनकी खासियतों की। उन्होंने बात की कोलंबस में बसे उर्दू पसंद करने वाले पाकिस्तानी और भारतीय श्रोताओं की। उन्होंने बात की अटलांटा के युवा वालेंटियर्स और हिंदी के प्रति उनके लगाव की। उन्होंने बात की वहाँ पढ़ाई जाने वाली हिंदी और वहाँ के स्वामी नारायण मंदिर की।उनकी इस किताब से एक और खासियत अमेरिका के मंदिरों की पता चली कि वहाँ एक ही मंदिर में साथ साथ भारत के सभी भगवानों की मूर्तियां विराजमान होती हैं भले ही वह दक्षिणी राज्यों में पूजे जाने वाले  कोई भगवान हों अथवा भारत के किसी अन्य हिस्से के। 

इस किताब में उन्होंने बात की अमेरिका और कनाडा के दोनों तरफ से बहते नियाग्रा प्रपात की। इसमें बात है नैशविल, पिट्सबर्ग, हैरिसबर्ग, फिलाडेल्फिया, फीनिक्स और न्यूयॉर्क आदि शहरों की। इसमें बात है 
बोस्टन, वाशिंगटन, रिचमंड और रालेह की। उन्हीं की किताब से जाना की ह्यूस्टन के डाउन टाउन और सिएटल की ख़ासियत वहाँ के टनल्स हैं। वहाँ गर्मी से बचने के पूरा शहर ज़मीन के ऊपर और आवाजाही के लिए टनल्स ज़मीन के नीचे बनी हुई हैं।

इस किताब के ज़रिए हमें  पता चलता है कि अमेरिका में होने वाले किसी भी शादी अथवा रिसैप्शन में खाना और ब्रंच तो मेज़बान देते हैं लेकिन  होटल और कार रेंट वगैरह का खर्चा मेहमान खुद वहन करते हैं। और बहुत महँगा देश होने की वजह से वहाँ पर घर-दफ़्तर की सफाई से ले कर अपने आसपास उग आई बेतरतीब घास काटने तक के काम खुद ही करने पड़ते हैं लेकिन इस स्वावलंबन और आत्मनिर्भर होने के चक्कर में सब वहाँ आत्मकेंद्रित से होते जा रहे हैं। 

आमतौर पर कवि सम्मेलनों में भारी भीड़ का समावेश होता है लेकिन जब एक कवि सम्मेलन के लिए श्रोताओं की भारी कमी पड़ गयी तो भी इन  कवियों की तिकड़ी की दाद देनी होगी कि इन्होनें कार्यक्रम को कैंसिल करने के बजाय आयोजक का मनोबल बढ़ाना उचित समझा और महज़ 16 श्रोताओं के लिए भी पूरे मनोयोग से कार्यक्रम किया। 

इस किताब के ज़रिए पता लगा क्लीवलैंड के नज़दीक एक आदिम प्रवृत्ति वाले गांव की जो आज भी सरकार द्वारा प्रदत्त बिजली और तमाम तरह की आधुनिक सुविधाओं से दूर है। वहाँ पर आज भी बैलों द्वारा ही खेतों को जोता जाता है तथा लैंप द्वारा घरों में रौशनी की जाती है। अब चूंकि वे सरकार द्वारा दी जाने वाली किसी भी सुविधा का उपयोग नहीं करते हैं तो टैक्स भी नहीं देते हैं। इसके ठीक विपरीत हमारे देश में बहुत सी सरकारी सुविधाओं का प्रयोग करते हुए भी बहुत से लोग डायरेक्ट टैक्स के रूप में सरकार को धेला तक नहीं थमाते हैं।

इसी किताब से हमें पता चलता है कि हमारे यहाँ लोग जबकि ठीकठाक...ज़िंदा...स्वस्थ आदमी की भी परवाह नहीं करते और बेधड़क अपनी गाड़ी उन पर चढ़ा देते हैं वहीं अमेरिका में विकलांगों और बच्चों और जानवरों तक की तरफ भी इस हद तक ध्यान दिया जाता है कि जिस कॉलोनी में ऑटिज़्म की बीमारी ग्रस्त अगर कोई बच्चा रहता है तो कॉलोनी के बाहर एक बोर्ड लगा दिया जाता है 'ऑटिज़्म चाइल्ड' के नाम से कि वहाँ चालक गाड़ी धीरे से चलाएँ।

 इस यात्रा वृतांत को पढ़ते वक्त दो बार सुखद एहसास से मैं रूबरू हुआ जब इसमें मुझे हमारे समय के दो महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों...तेजेन्द्र शर्मा और सुधा ओम ढींगरा जी का जिक्र मिला। पहली बार तब, जब बारिश के बीच जॉन एफ कैनेडी की कब्र देखने का कार्यक्रम और वहाँ की पार्किंग में गाड़ियों की भीड़ की बात हुई कि उसमें प्रख्यात साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा जी का उनकी कहानी 'ओवर फ्लो' (जो हंस पत्रिका में छपी थी) का जिक्र आया कि उसमें भी बारिश और क्रेमेटोरियम का जिक्र है। और दूसरी बार तब जब अमेरिका में रह रही विख्यात लेखिका सुधा ओम ढींगरा जी से उनकी मुलाक़ात और उनसे हुए लेखिका के साक्षात्कार को उन्होंने अपने इस यात्रा वृतांत का हिस्सा बनाया। 

इस किताब में लेखिका ने कई स्थानों पर अपने अमेरिका प्रवास के फोटो भी लगाए हैं जो किताब के कंटैंट को विश्वसनीय तो बनाते हैं मगर उन फोटोग्राफ्स को किताब में स्थान देते वक्त प्रकाशक से चूक हो गयी है कि उसने फोटोग्राफ्स की ब्राइटनेस और क्लीयरिटी पर ध्यान नहीं दिया जिसकी वजह से ज़्यादातर फोटो एकदम काले आए  हैं जिसकी वजह से किताब की साख पर एक छोटा सा ही सही मगर बट्टा तो लगता है। उम्मीद है कि किताब के आने वाले संस्करणों को इस तरह की त्रुटियों से मुक्त रखा जाएगा।
 
अगर आप अमेरिका और वहाँ के शहरों के बारे में  जानने और उसे ले कर अपने मन में फैली हुई भ्रांतियों को दूर करने के इच्छुक है तो सरल...प्रवाहमयी भाषा में लिखी गयी यह किताब आपके मतलब की है। 120 पृष्ठीय इस यात्रा वृतांत की किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ब्लू ने और इसका बहुत ही जायज़ मूल्य मात्र ₹100/- रखा गया है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

अक्कड़ बक्कड़- सुभाष चन्दर

आम तौर पर हमारे तथाकथित सभ्य समाज दो तरह की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। एक कामकाजी लोगों की और दूसरी निठल्लों की। हमारे यहाँ कामकाजी होने से ये तात्पर्य नहीं है कि...बंदा कोई ना कोई काम करता हो या काम के चक्कर में किसी ना किसी हिल्ले से लगा हो अर्थात व्यस्त रहता हो बल्कि हमारे यहाँ कामकाजी का मतलब सिर्फ और सिर्फ ऐसे व्यक्ति से है जो अपने काम के ज़रिए पैसा कमा रहा हो। ऐसे व्यक्ति जो किसी ना किसी काम में व्यस्त तो रहते हों  लेकिन उससे धनोपार्जन बिल्कुल भी ना होता हो तो उन्हें कामकाजी नहीं बल्कि वेल्ला या फिर निठल्ला भी कहा जाता है।

ऐसे लोगों के लिए पुराने लोगों को कई बार कहते सुना था कि खाली बैठे आदमी का दिमाग शैतान का होता है। उसे हर वक्त कोई ना कोई शरारत..कोई ना कोई खुराफ़ात ही सूझती रहती है। अब बंदा कुछ करेगा धरेगा नहीं तो भी तो उसे किसी ना किसी तरीके अपना समय तो व्यतीत करना ही है। तो ऐसे में इस तरह की प्रजाति के लोगों को कोई ना कोई शरारत...कोई ना कोई खुराफ़ात...कोई ना कोई शैतानी अवश्य सूझती है जिससे कि दूसरे को परेशान और खुद का मनोरंजन किया जा सके।

                  ऐसे लोगों पर ना शहरों का...ना कस्बों का और ना ही गांवों का एकाधिकार पाया जाता है। इस तरह के निठल्ले लोग सर्वत्र याने के हर तरफ...हर दिशा में पाए जाते हैं। ऐसे ही वेल्ले लोगों को ध्यानाकर्षण का केंद्र बना कर सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार सुभाष चन्दर जी ने अपने व्यंग्य उपन्यास "अक्कड़ बक्कड़" का पूरा ताना बाना रचा है। 

इस उपन्यास में कहानी है नंगला नाम के एक गांव की जिसे जलन वश अन्य गांवों वालों के द्वारा कंगलों का नंगला भी कहा जाता है। आतिथ्य देवो भव की तर्ज पर इस गांव के निवासी अपने गांव में आने वाले लोगों का फजीहत की शक्ल में स्वागत करने से कतई नहीं चूकते हैं। निठल्ले युवाओं में ठरकीपना, लालच, चुगली तथा मारपीट जैसी सहज सुलभ इच्छाओं एवं खासियत का स्वत: ही प्रचुर मात्रा में समावेश हो जाता है। इस गांव में हर बुराई..हर कमी को तर्कसंगत ढंग से एक उपलब्धि के तौर पर लिया जाता है और बुरे व्यक्ति का सर्वसम्मति से अपने सामर्थ्यनुसार यशोगान तथा महिमामंडन भी किया जाता है।

इस एक उपन्यास के ज़रिए उन्होंने हमारे पूरे ग्रामीण  एवं कस्बाई समाज का नक्शा हमारे सामने हूबहू उतार के रख दिया है। जहाँ एक तरफ उनके उपन्यास में मारपीट, दबंगई, हफ्ता वसूली, अक्खड़पने जैसे सहज आकर्षणों के चलते गांव देहात के युवाओं में पुलसिया नौकरी की तरफ रुझान पैदा होने की बात है तो वहीं दूसरी तरफ इसमें आदर्श ग्राम जैसी थोथी सरकारी घोषणाएं, सफाई, कीचड़..बदबू से बदबदाती कच्ची नालियाँ की पोल खोलती पंक्तियाँ भी हैं। उनकी पारखी नज़र से सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा और उनमें अध्यापकों की गैरहाज़िरी भी बच नहीं पायी है।

इसमें गांव- कस्बों की टूटी सड़कों के साथ साथ  बिजली की लगातार चलती आंखमिचौली की बात है तो इसमें अस्पतालों, डॉक्टरों और मेडिकल सुविधाओं की कमी का जिक्र भी है। इसमें गरीबी, बेरोज़गारी, लूटमार, ठगी, राहजनी इत्यादि का  वर्णन है तो उसी ठसके के साथ इसमें विकास के नाम पर धांधली और उसमें गांव के मुखियाओं का कमीशन को लालायित होना भी है। इसमें बेवजह मांग से उत्पन्न होता भ्रष्टाचार है तो भ्रष्टाचार की वजह से राजनीति में पदार्पण का सहज आकर्षण भी अपने चर्मोत्कर्ष पर है। इसमें भाइयों के आपस के झगड़े और उन झगड़ों से फ़ायदा उठा, उन्हें शातिर किस्म के कमीने और काइयां वकीलों के चंगुल में फँसा कर फायदा उठाते  बिचौलिए भी हैं। 


इसमें भारतीय रेल और उसकी एक्प्रेस ट्रेनों तथा जनरल बोगी की दुर्दशा है तो इसमें बिना टिकट यात्रियों, ठगों तथा लंपटों की वजह से छेड़खानी का शिकार होती युवतियों तथा प्रौढ़ाओं का भी विस्तार से वर्णन है। इसमें अगर चलते पुर्ज़े और मजनूँ टाइप के आवारागर्द लड़के हैं तो चालू किस्म की चुलबुलाती लड़कियाँ भी कम नहीं हैं। इसमें चुनाव और उसके ज़रिए  सरकारी पैसे से अपना..खुद का विकास करने की मंशा वाले लोग हैं तो दूसरी तरफ चुनावों में मुफ्त की दारू और साड़ी वगैरह पाने के इच्छुक भी बहुतेरे हैं। इसमें चुनावों के दौरान पनपता जातिगत संघर्ष है तो इसमें जुगाड़ू, खुराफ़ाती,ऐय्याश, दबंग लोगों को महिमामंडित किया जाना भी है। इसमें पुलिस की जबरन वसूली, उनकी दबंगई, उनकी आपसी खींचतान और पुलसिया पैंतरे भी कम नहीं हैं।

 बहुत ही रोचक अंदाज़ में लिखे गए इस धाराप्रवाह उपन्यास का हर पृष्ठ यकीन मानिए आपको हँसी के..आनंद के कुछ ना कुछ पल अवश्य दे कर जाएगा। हालांकि इस उपन्यास में एक किरदार की जोधपुर यात्रा के आने जाने का वर्णन मुझे थोड़ा लंबा और खिंचा हुआ लगा जिसे थोड़ा छोटा किया जा सकता था लेकिन इस बात के लिए भी लेखक बधाई के पात्र हैं कि उन पृष्ठों को भी उन्होंने उबाऊ नहीं होने दिया है और किसी ना किसी रूप में, उन्हीं पृष्ठों में हमारे समूचे कस्बाई भारत का एक खाका सा हमारे सामने बहुत ही सहज एवं सरल ढंग से रख दिया है। 

अपनी पंक्तियों और कथानक में "रागदरबारी" शैली की झलक दिखाते इस मज़ेदार उपन्यास को पढ़ने के बाद सहज ही विश्वास होने लगता है कि हमारे देश में भी ब्लैक ह्यूमर लिखने वाले दिग्गज अब भी मौजूद हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उनके इस उपन्यास पर जल्द ही कोई वेब सीरीज़ या फिर सीमित श्रृंखलाओं का कोई सीरियल बनता दिखे।

160 पृष्ठीय इस मज़ेदार संग्रहणीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और उसका बहुत ही जायज़ मूल्य ₹200/- मात्र रखा गया है जिसके लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

कौन..किसकी..कहाँ सुनता है?


(डायनिंग टेबल पर क्रॉकरी सैट करते करते श्रीमती जी कैमरे से मुखातिब होते हुए।)

हाय फ्रैंडज़...कैसे हैं आप?
उम्मीद है कि बढ़िया ही होंगे। मैं भी एकदम फर्स्ट क्लास। और सुनाएँ..कैसे चल रहा है सब? सरकार ने भले ही लॉक डाउन खोल दिया है लेकिन अपनी चिंता तो भय्यी..हमें खुद ही करनी पड़ेगी। क्यों?...सही कहा ना मैंने?

दरअसल इस लॉक डाउन ने हमें बहुत कुछ सिखा और समझा दिया है। कई लोगों के नए यूट्यूब चैनल बन गए और कइयों के पुराने यूट्यूब चैनल फिर से रंवा हो.. एक्टिव हो गए। बहुत से लोगों ने वीडियो देख देख के बढ़िया खाना बनाने और खाने के साथ साथ यूट्यूब के ज़रिए लोगों को सिखाना भी शुरू कर दिया। मिठाई और खाना वगैरह तो छोड़ो.. हेयर कटिंग करना वगैरह भी खुद ही करना सीख लिया। यूँ समझ लीजिए कि इस लॉक डाउन में जहाँ लोगों ने बहुत कुछ अगर गंवाया है तो बहुत कुछ सीख कर कमाया भी है।

सैनीटाइज़र...मास्क और होम सैनिटाइज़ेशन जैसे नए नए धंधे सामने उभर आए हैं। अब आप ये कहेंगे कि उनमें भी अब कंपीटीशन हो गया है। जिस सैनिटाइज़र की बोतल पहले 1000-1100 में लाइन लगा के बिक रही थी वो अब छह- साढ़े छह सौ में धक्के खा रही है। तो ये सब तो भय्यी...होना ही था। शुरू शुरू में तो सभी चाँदी कूटते हैं। असली आटे दाल का भाव तो बाद में ही पता चलता है।

अब ये ले के चलो कि हमारे देश की आबादी बहुत है तो इस कारण ये तो लाज़मी ही है कि हर धंधे में कंपीटीशन ने तो खैर बढ़ना ही है लेकिन इससे आपको बिल्कुल भी घबराना नहीं है। जहाँ औरों को बिरियानी मिल रही है तो चिंता ना करें..आपको भी केसरी या फिर तवा पुलाव तो खैर...मिल ही जाएगा।

अरे!...हाँ...तवा पुलाव से याद आया कि आज तो मैं लंच में तवा पुलाव बनाने जा रही थी। कैसा लगता है आपको तवा पुलाव? ऐसे तो कल की दाल बची पड़ी है लेकिन मुझे ना...हमेशा फ्रैश ही खाने की आदत है। फ्रैश खाने की तो बात ही निराली है। पता नहीं लोग कैसे एक दो दिन पुराना..बचा हुआ खाना खा लेते हैं। और फिर मुझे तो सच्ची तवा पुलाव के साथ रायता ना बड़ा ही यम्मी लगता है और लगे भी क्यों ना? उसे आखिर बनाता ही कौन है? मैं बनाती हूँ जनाब...मैं और भला कौन बनाएगा? ये तो हमेशा किताबों में  ही घुसे रहते हैं। एक मिनट...

"हाँ!...सुनो...आज कौन सी किताब पढ़ रहे हो?"

"अरे!...बड़ा मज़ेदार नॉवेल है अपने सुभाष चन्दर जी का "अक्कड़-बक्कड़"। पढ़ने वाला हँस हँस के पागल हो जाएगा इतना मज़ेदार लिखा है।"

"लेकिन तुम तो एकदम सीरियस हो के बता रहे हो।"

"अब इसमें में क्या कर सकता हूँ? ऊपरवाले से चौखटा ही ऐसा दिया है।"

"तो?...इसका मतलब तुम्हें हँसी आती ही नहीं है?"

"आती क्यों नहीं है?..बिल्कुल आती है...रोज़ ही किसी ना किसी बात पे आ जाती है।"

"कब?...मैंने तो तुम्हें कभी हँसते हुए नहीं देखा।"

"अरे!...मैं मन में हँस लेता हूँ ना। इसलिए तुम्हें नहीं पता चलता।"

"कमाल है...चलो!...ठीक है...तुम पढ़ो अपना आराम से।"

ये बंदा भी बताओ कैसा पल्ले पड़ गया है मेरे। हँसेगा तो वो भी मन में। बताओ भला कोई ऐसे कैसे मन में हँस सकता है? खैर छोड़ो...हम बात कर रहे थे "अक्कड़ बक्कड़" की ऊप्स!....सॉरी तवा पुलाव की तो चलिए आज मैं आपको तवा पुलाव बनाना सिखाती हूँ...आप भी क्या याद करेंगे कि किसी दिलदार से पाला पड़ा था। वैसे तो खैर आपने नोट किया ही होगा कि आजकल लोग दूसरों को कुछ भी सिखाने से कतराते हैं भले ही वो मोबाइल हो, कम्प्यूटर हो या फिर लैपटॉप हो। बताओ!...ये भी कोई बात हुई?

अगर आप में कोई हुनर... कोई टैलेंट ऊपरवाले ने आपको एज़ ए गिफ्ट दे दिया है तो उसे दूसरों में भी बाँटो लेकिन नहीं...उन्होंने तो अपने ज्ञान...अपने टैलेंट को अपने साथ...अपनी छाती पे बाँध के साथ ऊपर ले जाना है। बेवकूफों को ये नहीं पता चलता कि बाँटने से ज्ञान घटता नहीं बल्कि बढ़ता है। तो फ्रैंडज़ आप भी तवा पुलाव का ए टू ज़ैड सीखना चाहेंगे ना? चलिए!...ठीक है फिर हम शुरू करते हैं।

बढ़िया खाना बनाने का सबसे पहला रूल होता है कि सब ज़रूरी चीजों और मसालों को आप पहले ही किचन के प्लैटफॉर्म पर सजा लें। आपकी किचन बिल्कुल भी मैस्सी नहीं दिखनी चाहिए। दरअसल साफ सुथरी किचन में खाना बनाने का अपना अलग ही मज़ा है। दरअसल सफाई....चलिए!...छोड़िए...
सफाई की बात किसी अन्य वीडियो में। अभी अगर सफाई पर लैक्चर देना शुरू किया ना तो मेरा तवा पुलाव बस ऐसे ही बिना बने धरा का धरा रह जाएगा। चलिए!...अब हम मुद्दे से ना भटकते हुए सीधे काम की बात याने के तवा पुलाव की बात करते हैं।

तो सबसे पहले आप बढ़िया क्वालिटी के एक ग्लास  बासमती चावल कम से कम आधा घँटा पहले भिगो के रख लें और अगर घर में बढ़िया वाले चावल ना हों तो आप टेंशन ना लें। आप नार्मल चावल भी इस्तेमाल कर सकते हैं। वैसे एक बात बताऊँ...ये बढ़िया और घटिया चावल की बात ना बस..मन का वहम है। असली स्वाद ना जीभ से ज़्यादा आपकी आँखों में होता है। अगर खाने की शक्ल अच्छी हो और आप उसे अच्छे मूड में  खाएँ तो यकीन मानिए...आपको सब कुछ अच्छा ही अच्छा लगेगा।

खैर!... जब तक आपके चावल भीग रहे हैं...तब तक आप ज़रूरी सब्ज़ियों जैसे अलग अलग रंग की शिमला मिर्च, बारीक टुकड़ों में कटे हुए आलू और पनीर के टुकड़े,नमक, मिर्च और जीरे के अलावा हल्दी, गरम मसाला, तेज पत्ता, कसूरी मेथी और हींग, छोटी बड़ी इलायची वगैरह सब अपने आसपास ही तैयार कर के रख लें।

इसके बाद सब्ज़ियों में आप लाल, पीली और हरी वाली शिमला मिर्च को बारीक बारीक टुकड़ों में काट लें। ध्यान रहे कि आपने  टुकड़े बारीक काटने हैं...उनके ये लंबे लंबे लच्छे नहीं बनाने हैं। आप तवा पुलाव बनाने जा रहे हैं ना कि चाउमीन या फिर कढ़ाही पनीर। उनकी रेसिपी किसी और दिन। आज हम सिर्फ और सिर्फ तवा पुलाव की बात करेंगे।

अब लगने को तो कई लोगों को लग सकता है कि लाल और पीली शिमला मिर्च तो बड़ी महँगी आती है। ये तो हमारा कूंडा करवाएगी या फिर भट्ठा बिठाएगी। तो फ्रैंडज़...ऐसे में आप इन दोनों रंगों की शिमला मिर्च को स्किप भी कर सकते हैं और वैसे भी इनसे स्वाद वगैरह तो कुछ खास बढ़ता नहीं है। बस दिल को ही मानसिक संतुष्टि होती है कि आप कुछ महँगी...कुछ रॉयल चीज़ खा रहे हो। आप सिर्फ सिंपल वाली हरी शिमला मिर्च भी इस्तेमाल कर सकते हैं। यकीन मानिए कि इससे स्वाद में उन्नीस बीस का भी फर्क नहीं पड़ेगा।

अब यहाँ पर कुछ लोग इस बात पर ऑब्जेक्शन उठा सकते हैं कि उन्हें शिमला मिर्च से एलर्जी है या फिर पनीर तो उन्हें जड़ से ही पसंद नहीं है और आप बात कर रही हैं उन्हें बनाने और खाने की? तो ऐसे में मैं अपने दोस्तों को ये कहना चाहूँगी कि भय्यी...अगर नहीं पसंद है तो मत खाइए। कौन सा ये एंटी रैबीज़ का इंजेक्शन है कि ठुकवान ही पड़ेगा?

उफ्फ!....हमारे यहाँ तो आज बहुत गर्मी है और ऊपर से ए.सी भी सही से काम नहीं कर रहा। इससे तो अच्छा मैं कल की पड़ी दाल के साथ दो फुल्के ही सेंक लेती। हाँ!...ये आईडिया बढ़िया है। मैं अभी फुल्के ही सेंक लेती हूँ। कौन सा मेरी बहुत बड़ी खुराक है जो मैं ये सब पंगे लेती फिरूँ? अभी पिछले साल ही तो तवा पुलाव खाया था पड़ोसियों के घर में।

तो फ्रैंडज़...जैसा कि आपने देखा...मेरा तवा पुलाव बनाने का प्रोग्राम तो फिलहाल कैंसिल हो ही चुका है तो अब आप भी आयोडेक्स मलिए और काम पर चलिए और हाँ!... अगर ज़्यादा ही मूड कर रहा हो तवा पुलाव खाने का तो आप यूट्यूब से दो चार रेसिपी देखिए और फिर अपनी मर्ज़ी से उनमें कुछ भी फेरबदल कर के बनाइए और खाइए। मैंने भी तो वहीं से देखना और फिर अपनी मर्ज़ी से कुछ घटा बढ़ा के बनाना था। वैसे भी ए टू ज़ेड आजकल भला कौन कहाँ किसकी सुनता और मानता है? 


शार्ट वीडियो का लिंक

https://youtu.be/taWDE0W9H1c



अंधेरे कोने@ फेसबुक डॉट कॉम


जिस तरह एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हम लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए आपस में बातचीत का सहारा लेते हैं। उसी तरह अपनी भावनाओं को व्यक्त करने एवं उनका अधिक से अधिक लोगो  तक संप्रेषण करने के लिए कवि तथा लेखक,गद्य अथवा पद्य, जिस भी शैली में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में सहज महसूस करते हैं, को ही अपनी मूल विधा के रूप में अपनाते हैं। मगर कई बार जब अपनी मूल विधा में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में खुद को असमर्थ पाते हैं भले ही इसकी वजह विषय का व्यापक होना हो अथवा अत्यंत संकुचित होना हो। तब अपनी मूल शैली को बदल, वे गद्य से पद्य या फिर पद्य से गद्य में अपने भावों को स्थानांतरित कर देते हैं।

ऐसे में पद्य छोड़ कर जब कोई कवि गद्य के क्षेत्र में उतरता है तो उम्मीद की जाती है कि उसकी लेखनी में भी उसकी अपनी शैली याने के पद्य की ही किसी ना किसी रूप में बानगी देखने को मिलेगी और उस पर भी अगर वह कवि, वीर रस याने के ओज का कवि होगा तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके गद्य लेखन में भी जोश खरोश और ओज की कोई ना कोई बात अवश्य होगी। मगर हमें आश्चर्यचकित हो तब आवाक रह जाना पड़ता है जब अपनी मूल विधा याने के पद्य का लेशमात्र भी हमें उनके गद्य में दिखाई नहीं देता।

दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ ओज के जाने माने मंचीय कवि अरविंद पथिक जी और उनके लिखे नए उपन्यास "अंधेरे कोने@फेसबुक डॉट कॉम" की। पहले उपन्यास और फिर उसके लेखक के रूप में अरविंद पथिक जी के नाम को देख एक सहज सी जिज्ञासा मन में उठी कि आखिर एक ओज के कवि को उपन्यास जैसी कठिन विधा में उतरने के लिए बाध्य क्यों होना पड़ा? दरअसल उपन्यास का कैनवास ही इतना बड़ा एवं विस्तृत होता है कि  उसमें हमें शब्दों से खेलने के लिए एक विस्तृत एवं व्यापक विषय के साथ साथ उसमें मौजूद ढेरों अन्य आयामों की आवश्यकता होती है। 

जिस तरह पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं ठीक उसी तरह उपन्यास के शुरुआती पन्नों को पढ़ने से ही यह आभास होने लगता है लेखक इस क्षेत्र में भी लंबी रेस का घोड़ा साबित होने वाला है। भावुकता से लबरेज़ इस उपन्यास में कहानी है फेसबुक चैट/मैसेंजर से शुरू हुई एक हिंदू-मुस्लिम प्रेम कहानी की। इसमें कहानी है एक ऐसे प्रौढ़ प्रोफेसर की जो अपनी विद्वता...अपने ज्ञान, अपनी तर्कशीलता, अपनी वाकपटुता, अपने व्याख्यानों एवं अपने वक्तव्यों  की वजह से शहर के बुद्धिजीवी वर्ग में एक खासा अहम स्थान रखने के बावजूद भी अपने से बहुत छोटी एक युवती के प्रेम में गिरफ्त हो जाता है। इसमें कहानी है ज़ोया खान नाम की एक मुस्लिम युवती की जो अपने से 15 साल बड़े एक प्रोफेसर को अपना सब कुछ मान चुकी है और उसके लिए हर बंधन...हर पाबंदी से किसी भी कीमत पर निबटने को आमादा है।

इसमें कहानी है फेसबुक जैसे सोशल मीडिया की वजह से कुकुरमुत्तों के माफिक जगह जगह उपजते एवं ध्वस्त होते प्रेम संबंधों की। इसमें कहानी है उज्जवल भविष्य की चाह में बीसियों लाख की रिश्वत देने को तैयार युवक और  शिक्षा माफिया की। इसमें कहानी है सोशल मीडिया के आकर्षण और उससे मोहभंग की। इसमें कहानी है प्यार, नफरत और फिर उमड़ते  प्यार की। इसमें कहानी है ज़िम्मेदारी का एहसास होने पर अपने वादे से पीछे हट अपने प्यार को नकारने की...अपनी भूल को सुधारने और अपने प्रायश्चित की। इसमें कहानी है अलग अलग जी रहे प्रेमी युगल को जोड़ने वाली लेखक रूपी कड़ी की।

इस उपन्यास को पढ़ते वक्त एक अलग तरह का प्रयोग देखने को मिला कि  पूरी कहानी कृष्ण और मीरा के अमिट प्रेम की शक्ल अख़्तियार करते हुए लगभग ना के बराबर वर्तमान या फिर पुरानी चिट्ठियों, डायरियों अथवा फ्लैशबैक के माध्यम से आगे पीछे चलती हुई कब संपूर्ण कहानी का रूप धर लेती है...आपको पता भी नहीं चलता। 

उपन्यास की भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है और पाठक को अपनी रौ में अपने साथ बहाए ले चलने में पूरी तरह से सक्षम है। अंत तक रोचकता बनी रहती है। हालांकि कुछ जगहों पर एक पाठक के नज़रिए से मुझे कहानी थोड़ी सी खिंची हुई सी भी लगी। उपन्यास में दिए गए प्रोफ़ेसर के व्याख्यानों को थोड़ा छोटा या फिर जड़ से ही समाप्त किया जा सकता था लेकिन उन्हें मेरे ख्याल से उपन्यास के मुख्य किरदार को डवैलप करने के लिहाज़ से रखा गया हो सकता है या फिर उपन्यास की औसत पृष्ठ संख्या को पूरा करने के हिसाब से भी शायद कहानी को बढ़ाया गया हो। 

उपन्यास में लेखक की भूमिका पर नज़र दौड़ाने से पता चलता है कि यह उपन्यास उन्होंने 2019 में लिखा और कहानी के माध्यम से हमें पता चलता है कि उसमें पिछले 15 से 20 वर्षों की कहानी को समाहित किया गया है। यहाँ पर इस हिसाब से देखा जाए तो उपन्यास में तथ्यात्मक खामी नज़र आती है कि...कहानी की शुरुआत सन 2000 के आसपास होनी चाहिए जबकि असलियत में फेसबुक की स्थापना ही सन 2004 में पहली बार हुई थी। इस खामी को अगर छोड़ भी दें तो दूसरी ग़लती यह दिखाई देती है कि फेसबुक ने पहली बार चैट की सुविधा सन 2008 में शुरू की थी और उसके मैसेंजर वाले वर्ज़न को महज़ 8 साल और दस महीने पहले ही पहली बार लांच किया गया था। जब आप आप अपनी कहानी में कहीं किसी चीज़ का प्रमाणिक ढंग से उल्लेख कर रहे होते हैं  तो आपका तथ्यात्मक रूप से भी सही होना बेहद ज़रूरी हो जाता है। उम्मीद है कि इस उपन्यास के आने वाले संस्करणों में इस कमी को दूर करने की तरफ लेखक तथा प्रकाशक, दोनों ध्यान देंगे।

160 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है यश पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य ₹199/- मात्र रखा गया है जो कि उपन्यास की क्वालिटी एवं कंटेंट को देखते हुए जायज़ है।आने वाले भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

थोड़ा हँस ले यार- सुभाष चन्दर


आमतौर पर किसी कहानी संग्रह को पढ़ते वक्त हमारे ज़हन में उस उस कहानी से जुड़े पात्रों को लेकर  मन में कभी त्रासद परिस्थितियों की वजह से करुणा तो कभी क्षोभ वश कटुता उपजती है। ज़्यादा हुआ तो एक हल्की सी...महीन रेखा लिए एक छोटी सी मुस्कुराहट भी यदा कदा हमारे चेहरे पर भक्क से प्रदीप्त हो उठती है। मगर कई बार किसी किताब को पढ़ते वक्त किताब में आपकी नज़रों के सामने कोई ऐसा वाकया  या ऐसा पल भी आ जाता है कि पढ़ना छोड़ बरबस आपकी हँसी छूट जाती है। अगर ऐसा कभी आपके साथ भी हुआ है तो समझिए कि वह किताब पाठकों को अपने साथ... अपनी रौ में बहाए ले जाने में पूर्णतः सक्षम है और अगर उसी किताब में पृष्ठ दर पृष्ठ आपके सामने ऐसे ही वाकयों की भरमार लग जाए तो सोचिए कि आपकी हालात कैसी होगी उस समय, आप पढ़ कम रहे होंगे और ठठा कर हँस ज़्यादा रहे होंगे। 

ऐसे ही कभी खुल कर खिलखिलाने को तो कभी ठहाके लगाने को मजबूर करता है प्रसिद्ध व्यंग्यकार सुभाष चन्दर जी का कहानी संग्रह "थोड़ा हँस ले यार"। पूर्णतः हास्य कहानियों के संग्रह के रूप में यह कहानी संग्रह लगभग 32 साल बाद छपा था। कमाल का हास्य बोध छिपा रहता है उनकी कहानियों में। अमूमन लगातार पढ़ने वालों को पढ़ते वक्त पहले से यह अंदाज़ा लग जाता है कि अगले वाक्य का ऊँट किस करवट बैठने वाला है? मगर सुभाष चन्दर जी की कहानियों में सीधा चलता वाक्य भी कब अचानक खुराफाती बंदर की तरह गुलाटी मार हुडदंग मचा दे...कोई भरोसा नहीं।

 इनकी कहानियाँ अमूमन अपने में ग्रामीण अथवा क़स्बाई चरित्र के किरदारों को समेटे हुए होती हैं सहज एवं स्वाभाविक स्थितियों से भी कैसे हास्य उत्पन्न किया जा सकता है, ये जानना चाहने वाले जिज्ञासुओं एवं शोधार्थियों के लिए सुभाष चन्दर जी का लिखा हुआ पढ़ना एक उत्तम उपाय कहा जा सकता है। 

इस संग्रह में कहीं...कोई युवा तथाकथित लव गुरु की मदद से अपनी प्रेम कहानी शुरू कर अपना बेड़ा पार लगाना चाहता है तो कहीं मूंछों की लड़ाई अपने चरम पर है। इसमें कहीं हँसती गुदगुदाती झोलाछाप डॉक्टर की व्यथा कथा है तो कहीं इसमें हवाई यात्रा के नाम पर किसी अनाड़ी के द्वारा अजब ग़ज़ब पापड़ बेले जाने का वर्णन है। कहीं किसी मरियल...सींकिया को ब्याह करने की शर्त के रूप में कुश्ती तक लड़नी पड़ जाती है तो कहीं बददिमाग एवं गुस्सैल पति को अपने ही ढंग से सबक सिखाती उसकी नवविवाहिता बीवी नज़र आती है। 

इसमें कहीं बच्चे की ज़िद और उसकी माँ की शह पर कुत्ता पालने को मजबूर पति की दुर्गत दिखाई देती है तो कहीं इसमें ससुरालियों की होली का हुड़दंग है। कहीं इसमें गांव के ऊधम मचाते बच्चों की कारस्तानियां हैं तो कहीं इसमें खटारा स्कूटर को ले कर पूरी कथा का ताना बाना बुना गया है। कहीं इसमें चंट लड़कियों के दाव पैंतरे हैं तो कहीं इसमें पूरा का पूरा गांव ही लफून्डरों से भरा पड़ा है। 

कहीं इसमें शातिर दंपति के पड़ोस में आ बसने की बात है तो कहीं किसी कुएँ के मेढ़क छाप दंपत्ति के पहली बार शताब्दी जैसी बढ़िया ट्रेन में सफर करने की बात है। कहीं चेपू टाइप के शुभचिंतकों के कारनामे हैं तो कहीं काइयां रिश्तेदार को सबक सिखाने की बात है। 

संयोग से ऐसा हुआ कि इस किताब की जो प्रति मुझे मिली इसमें बाइंडर की ग़लती से सब पेज इधर के उधर हो गए। उम्मीद है कि प्रकाशक इस कमी पर आगे आने वाली किताबों में ध्यान देंगे।

136 पृष्ठीय इस बढ़िया हास्य कहानियों के संग्रणीय संकलन को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसके पेपरबैक संस्करण का मूल्य रखा गया है  ₹175/ जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले सुखद भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

चमत्कार को नमस्कार

(कॉलबेल की आवाज़

बीवी के दरवाज़ा खोलने पर पति अन्दर आता है और अपना बैग साइड पर रखने के बाद भगवान के आगे माथा टेकता है। उसे ऐसा करते देख बीवी हैरान हो कर कहती है....

"अरे!...ये अचानक सूरज पश्चिम से कैसे निकल आया? तुम और मंदिर में?...ये तो सच्ची कमाल हो गया। आज ना सच्ची...मैं बहुत खुश हूँ....भगवान ने मेरी सुन ली। तुम बस रुको एक मिनट...मैं प्रसाद ले कर आती हूँ।"

"अरे!....प्रसाद की तुम चिंता ना करो... मैं अभी मंदिर से ही हो कर आ रहा हूँ। लो...तुम भी प्रसाद ले लो।"

"मुझे ना सच्ची....विश्वास ही नहीं हो रहा कि आप...ऐसे अचानक...कमाल है...इतना कायापलट एक ही दिन में?"

"अरे!....एक ही दिन में नहीं बल्कि कुछ ही घँटों में कहो। अभी कुछ घँटों पहले ही मुझे ये एहसास हुआ कि कोई ना कोई ऐसी शक्ति तो ज़रूर है इस नश्वर संसार में जो हवा, पानी, आग और हम सबको अपने कंट्रोल में रखती है।"

"मगर कैसे?....तुम तो इन सब चीजों को बिल्कुल नहीं मानते थे। उलटा मुझे डाँटते रहते थे कि मैं खामख्वाह के फण्ड करती रहती हूँ।"

"अब यार...क्यों शर्मिंदा कर रही हो? मैं अपनी ग़लती मान तो रहा हूँ। बस इतना समझ लो कि जब जागो तब सवेरा। अब तो मैनें ठान लिया है कि रोज़ सुबह शाम मंदिर जाया करूँगा और सारे के सारे व्रत उपवास वगैरह भी रखूँगा।"

"सच्ची....मैंने तो भगवान से कुछ और भी माँगा होता ना तो मेरी वो मन्नत भी पूरी हो जाती...थैंक गॉड।"

"सच बताऊँ...आज अगर वो बाबा मुझे नहीं मिलता ना तो मुझे कभी भी इन चमत्कारों और दैवीय शक्तियों में यकीन नहीं आता।"

"बाबा?"

"हाँ!....आज एक बहुत ही चमत्कारी बाबा से मेरी मुलाकात हुई।"

"लेकिन कहाँ?...तुम तो सीधा अपने काम पर ही गए थे ना?  या कहीं और तो नहीं चले गए थे? देखो...मुझसे झूठ बिल्कुल नहीं बोलना। तुम्हें मेरी कसम है।"

"अरे!...बाबा...काम पर ही गया था और कहीं नहीं गया था। तुम चाहो तो सीसीटीवी की रेकॉर्डिंग चैक कर लो।"

"वो तो मैं करती ही रहती हूँ हमेशा। बस...आज ही नहीं की।"(बीवी के चेहरे पे अफसोस के भाव।)

"तुम ना बस्स मुझे शुरू से सब बताओ कि क्या हुआ था?"(बीवी का उत्साहित स्वर।)

"सुबह जब मैं घर से निकला ना तो बीच रस्ते मुझे लिफ्ट के एक लिए एक बूढ़े फकीर ने हाथ दे के रोक लिया।"

"लिफ्ट के लिए?"

"हाँ!...

"दिमाग खराब है तुम्हारा? उस खटारा बैट्री वाले स्कूटर में इतनी जान भी है कि तुम किसी को लिफ्ट देते फ़िरो? 18- 20 से ज़्यादा की स्पीड तो पकड़ता नहीं है और....

"18- 20 नहीं...वो तो बड़े आराम से  24- 25 की स्पीड दे देता है। मैन खुद कई बार चैक किया है कि.....

"बात मानने वाली तो है नहीं लेकिन चलो...मैं मान लेती हूँ...24- 25 की ही सही लेकिन इस स्पीड की स्कूटरी भर भला कौन किसको लिफ्ट देता है? हुंह!....लिफ्ट देने वाला भी पागल और लिफ्ट देने वाला भी पागल।"

"अरे!....उनको तो पागल बिल्कुल मत खो। उनकी वजह से ही तो...उनके चमत्कार की वजह से ही तो मेरा ईश्वर में विश्वास जगा है। मैं उसके वजूद को मानने लगा हूँ।"


"चमत्कार?"

"हाँ!....चमत्कार।"

"तुम मुझे पूरी बात बताओ कि क्या हुआ था?"


"अब मैंने स्कूटर को रोक तो लिया....

"स्कूटर नहीं...स्कूटरी को।"

"हाँ...जो मर्ज़ी समझ लो।"

"जो मर्ज़ी समझ लो का क्या मतलब? स्कूटर...स्कूटर होता है और स्कूटरी...स्कूटरी होती है।"

"ओके बाबा....अब मैंने स्कूटरी को रोक तो लिया मगर बाबा के डील डौल देख कर असमंजस में पड़ गया कि कहीं...ये हम दोनों को ले के ही ना बैठ जाए।"

"हम्म....मेरे दिल में तो सुन के ही हौल पड़ने लगा है कि...उस पिद्दी सी बेचारी के साथ इतना अत्याचार? खैर...फिर क्या हुआ?"

"उनको बिठाने के बाद कायदे से तो ये होना चाहिए था कि उसके इंजर पिंजर सब एकदम ढीले हो जाने चाहिए थे।"

"किसके?...बाबा के?"

"नहीं!...स्कूटरी के।"

"नहीं हुए"?( हैरानी का भाव।)

"अरे!....यही तो कमाल है कि स्कूटरी एकदम टनाटन।"

"और तुम? तुम भी ठीकठाक हो ना? कहीं कोई गुम चोट वगैरह तो नहीं लगी?"

"अरे!...मैं भी टनाटन...स्कूटरी भी एकदम टनाटन।"

"ओह!....इसका मतलब बाबा तो गया काम से। चच्च...बेचारा।" बीवी अफ़सोस जताते हुए बोली।

"अरे!...उनको भी कुछ नहीं हुआ। एकदम सही सलामत हैं वो भी।"

"पक्का ना? कहीं मेरा मन रखने के लिए झूठ तो नहीं बोल रहे हो?"

"झूठ बोल के क्या मुझे वड़ेवें मिलने हैं?"

"अच्छा...चलो छोड़ो...तुम मुझे बताओ की उसके बाद क्या हुआ?"

"अब उनको बिठाने के बाद मेरा दिमाग घूमने लगा कि आज तो मीटर की सुई 18-20 से ऊपर तो बढ़ ही नहीं पाएगी।" 

"हम्म!....

"लेकिन कमाल ये कि उनके बैठते ही स्कूटरी तो फर्राटे भरती हुई हवा से बातें करने लगी और सुई?....सुई तो 35-36 से नीचे एक सैकंड को भी नहीं हुई।"

"क्या बात कर रहे हो? पक्का...तुम्हें वहम हुआ होगा।"

"वोही....तो...मैंने भी एकदम यही सोचा और दो चार बार आँखें मिचमिचा कर भी देखा लेकिन सुई तो नीचे उतरने  का नाम ही नहीं ले रही थी और कमाल ये कि बाबा के उतरते ही वही ढाक के तीन पात।"

"मतलब...स्पीड फिर वापिस वही की वही?"

"और नहीं तो क्या?"

"ओह!...

"बस...तभी मुझे विश्वास हो गया कि ज़रूर उनके पास कोई दैवीय शक्ति रही होगी या फिर बाबा खुद ही कहीं....ओह....ओह....माय गॉड....वो सचमुच भगवान ही थे...आज....आज उन्होंने मुझे साक्षात दर्शन दिए....ओह माय गॉड....मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा।" पति प्रफुल्लता के अतिरेक में हड़बड़ा कर चिल्लाता हुआ बोला।

"एक मिनट...लैट मी थिंक...तुमने उन्हें कहाँ से लिफ्ट दी थी?"

"पंजाबी बाग से....क्यों?....क्या हुआ?"

"और कहाँ तक दी थी?"

"ज़्यादा नहीं बस...आधे पौने किलोमीटर के बाद वो उतर गए थे।"

"हम्म!....पंजाबी बाग में कहाँ?..एगजैकट लोकेशन बताओ....उसके आसपास कोई मंदिर या मज़ार ज़रूर होनी चाहिए।"

"पहले एक थी तो सही लेकिन शायद pwd वालों ने तोड़ दिया उसको।"

"फिर तो बहुत ग़लत किया उन्होंने। ज़रूर कोई भटकती रूह होगी।"

"ओह!....

"चलो!....उठो....प्लीज़ मुझे अभी ले चलो वहाँ पर। मुझे भी दर्शन करने हैं उस दिव्य आत्मा के।"

"लेकिन वो तो शायद कह रहे थे कि उन्हें वहाँ से बस मिल जाएगी झंडेवालान की।"

"ओह!...तुमने उन्हें कहाँ पर छोड़ा था?"

"पंजाबी बाग गोल चक्कर पर।"

"और लिया कहाँ से था?"

"पंजाबी बाग फ्लाईओवर के ऊपर से।"

"क्या?"

"हाँ...वहीं से लिया था....फ्लाईओवर के ऊपर से ही।"

"हे भगवान!....जाने कब अक्ल आएगी मेरे इस निखट्टू पति को।"

"क्या हुआ?"

"अरे!...बेवकूफ....फ्लाईओवर से जब कोई भी गाड़ी नीचे उतरेगी तो उसकी स्पीड अपने आप नहीं बढ़ जाएगी।"

"ओह!....शिट...ये तो मैंने सोचा ही नहीं।"

(समाप्त)
 
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