कथा सप्तक - अनिलप्रभा कुमार


आमतौर पर हर लेखक अपने आसपास के माहौल अथवा परिवेश से प्रभावित हो कर या फिर अपने देखे भाले सच या फिर सुनी सुनाई बातों से रूबरू हो कर ही नया कुछ रचता है। जिसमें ज़रूरत के हिसाब से कम या ज़्यादा की मात्रा में कल्पना का समावेश हो सकता है। दोस्तों आज मैं यहाँ देशी विदेशी माहौल में रची बसी कहानियों के जिस संकलन की बात करने जा रहा हूँ। उसे रचा है अमेरिका में रहने वाली लेखिका अनिलप्रभा कुमार ने और उनके इस संकलन को 'कथा-सप्तक' का नाम दिया है इस संकलन के संपादक आकाश माथुर ने। 


इस संकलन की मानवीय संवेदनाओं और प्रैक्टिकलवाद के बीच के फ़र्क को दर्शाती एक कहानी उस जोड़े की बात करती है, जिसकी गाड़ी हाइवे पर एक हिरण के टकरा जाने से दुर्घटनाग्रस्त हो टूट-फूट चुकी है। जहाँ एक तरफ़ पत्नी हिरण के मारे जाने से व्यथित है तो वहीं दूसरी तरफ़ उसका पति अपनी गाड़ी के हुए नुकसान से। वहीं एक अन्य कहानी में अपने घर की तंगहाली से तंग आ कर समर अपनी माँ को अकेला छोड़ कर अमेरिका में स्टूडेंट वीज़ा पर चला जाता है। वहाँ उसे एक प्रतिष्ठित अख़बार में फ्रीलांस के तौर पर एक टास्क मिलता है जिसमें उसे हैरी ग्रोअर (हैरी ग्रोवर) की उसके घर में हुई गुमनाम मौत के बारे में तथ्यात्मक जानकारी जुटाने के लिए कहा जाता है। समर अनजाने में ही अकेलेपन से जूझ कर मृत्यु को प्राप्त कर चुके हैरी ग्रोअर के जीवन से भारत में अकेली रह रही अपनी माँ के एकाकीजीवन की तुलना करने लगता है। 


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में सब कुछ फ़िर से सामान्य करने की चाह में जब बच्चों की ज़िद पर उनके साथ रहने आए पिता की बरसों बाद अलग रह रही पत्नी से मुलाकात होती है। जिसके बाद कुछ ऐसा घटता है कि पिता की इच्छा का मान रखते हुए उनकी बेटी स्वयं ही उन्हें जाने के लिए कह देती है। 


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ कैंसर की वजह से कीमो थेरिपी के कष्ट झेलती तीस वर्षीय महक की दुनिया बस घर तक ही सिमट चुकी है। भीषण बर्फ़बारी और तूफ़ान के बीच बिजली चले जाने से अँधेरे घर में फँसे उसके माँ-बाप अपनी बच्ची की सेहत को ले कर परेशान हैं कि अगर इस बीच कोई दिक्कत हो गयी तो वे अपनी बेटी को अस्पताल कैसे ले कर जाएँगे। तो वहीं एक अन्य कहानी में दूसरे शहर में अपने पति के साथ सैटल होने पर ईशा अपने कुत्ते 'पेपे' को देखभाल के लिए अपने रिटायरमेंट ले चुके पिता के पास छोड़ जाती है। अनमने मन से ही सही मगर पिता को उसे अपनाना पड़ता है। पत्नी की दूसरे शहर में नौकरी होने की वजह से वह भी अपने पति के साथ रह नहीं पाती। ऐसे में पिता के अकेलेपन के साथी के रूप में पेपे उनके दिल में अपने लिए प्रेम और जगह बना तो लेता है मगर..


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में विवाह के बाद विदेश जा कर बस चुकी माधवी, अपने पिता की मृत्यु के बाद, पुरानी यादों को फ़िर से संजोने के लिए वापिस अपने मायके लौटती तो है मगर रिश्तों में अब पहले सा अपनापन ना पा कर वापिस लौट जाती है। 

तो वहीं एक अन्य कहानी में 20 वर्षीया प्रीत का पिता उसके जन्म लेने से पहले ही यह कह कर घर से गया था कि किसी ज़रूरी काम से जा रहा है, जल्द ही लौट आएगा। प्रीत की माँ वीरो अब भी उसके आने की बाट जोह रही है। ऐसे में एक दिन..


किताब को पढ़ते वक्त मुझे प्रूफरीडिंग की कुछ कमियाँ भी दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 

7 में लिखा दिखाई दिया कि..


'यंइ तो वह अब स्थानीय सड़क पर ही थे'


यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..


'यूँ तो वे अब स्थानीय सड़क पर ही थे'


पेज नंबर 10 में लिखा दिखाई दिया कि..


'पता नहीं इंश्योरेंस कंपनी कितना भरपाया करती है'


यहाँ 'भरपाया' की जगह 'भरपाई' आना चाहिए। 


21 में लिखा दिखाई दिया कि..


'सब जगह विज्ञापन दे रहे है'


यहाँ 'विज्ञापन दे रहे है' की जगह 'विज्ञापन दे रहे हैं' आएगा। 


इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'समर के होंठ विद्रूप से सिकुड़े'


यहाँ 'विद्रूप से सिकुड़े' की जगह पर 'विद्रूपता से सिकुड़े' आएगा। 


पेज नंबर 22 में लिखा दिखाई दिया कि..


'शायद तभी उन्हें हैरी के भारतीय मूल का होने में संदे है'


यहाँ ग़लती से 'संदेह' की जगह पर 'संदे' छप गया है।


पेज नंबर 43 में लिखा दिखाई दिया कि..


'सोहम ने फिर से सबके गिलस भर दिये'


यहाँ 'गिलस' की जगह पर 'गिलास' आएगा। 


पेज नंबर 53 में लिखा दिखाई दिया कि..


'अभी इसके किमो के सैशन ख़त्म हुए हैं न'


यहाँ 'किमो के सैशन ख़त्म हुए हैं न' की जगह पर 'कीमो के सैशन ख़त्म हुए हैं न' आएगा। 


पेज नंबर 62 में लिखा दिखाई दिया कि..


'उसके जन्मदिन पर एक पकेट भी भेजती'


यहाँ 'पकेट' की जगह पर 'पैकेट' आएगा। 


पेज नंबर 82 में लिखा दिखाई दिया कि..


'कब आएगा वोह'


यहाँ 'वोह' की जगह पर 'वो' आएगा। 


इसी पेज की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'वीरो चुपचाप कोठरी में आँखें बद किए पड़ी है'


यहाँ 'आँखें बद किए पड़ी है' की जगह पर 'आँखें बंद किए पड़ी है' आएगा। 


• प्रगट - प्रकट

• सान्तवना - सांत्वना

• स्वपन - स्वप्न



रोचक कहानियों के इस 84 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।


द होस्ट - आलोक सिंह खालौरी

आम इनसानी प्रवृत्ति के अनुसार हम एक-दूसरे से बात किए बिना नहीं रह पाते हैं। इसी बात को एक दूसरे तरीके से देखते हुए हम पाते हैं कि पहले के घरों में घर के बाहर एक-दो लोगों के बैठने लायक एक छोटा सा प्लेटफार्म टाइप का चबूतरा बना हुआ अक्सर दिखाई दे जाता था जिस पर शाम के समय घर की महिलाएँ बैठ कर अपने आमने-सामने या फ़िर दाएँ-बाएँ के घरों में रहने वाली स्त्रियों से गप्पें मारने, इधर-उधर की चुगली करने और किसी न किसी के आपसी झगड़ों, पारिवारिक कलहों, अफ़ेयरों इत्यादि जैसी ज़रूरी रिपोर्टों को एक-दूसरे तक पहुँचा कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाया करती थीं। इसी इनसानी फितरत को भुनाने के लिहाज़ से बदलते समय के साथ घर के बाहर के इन चबूतरों की जगह टीवी ने ले ली और वह भी हमें वही सब दिखाने लगा जो हमें सुहाता था जैसे कि सास-बहू टाइप के सीरियल और बिग बॉस इत्यादि। 

इनमें से भी टीवी पर चल रहे बिग बॉस का क्रेज़ ऐसा है ज़्यादातर लोग अपना काम धंधा छोड़ कर इसमें भाग ले रहे प्रतिभागियों के बीच के आपसी झगड़ों, नोंक-झोंक और धींगामुश्ती को देखने के चक्कर में अपना कीमती समय बरबाद करते नज़र आते हैं कि चाहे-अनचाहे हम सबको दूसरे के फटे में अपनी टाँग घुसाने की आदत होती है। दोस्तों... आज इस विषय पर बातें इसलिए कि आज मैं यहाँ बिग बॉस की ही तर्ज़ पर लिखे गए जिस उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ, उसे 'द होस्ट' के नाम से लिखा है आलोक सिंह खालौरी ने। 

इस उपन्यास के मूल में कहानी है प्रतिभा के धनी इरफ़ान खान नाम के उस निर्देशक की जिसकी पिछली 4 लो बजट मूवीज़ ने उसके ठरकी प्रोड्यूसर को ठीकठाक पैसा कमा कर दिया है। इसके बावजूद भी प्रोड्यूसर खुश नहीं है कि वह उसकी सैटिंग फ़िल्म की हीरोइनों से नहीं करवा रहा है। ऐसे में निर्देशक इस शर्त पर उसे बिग बॉस की तरह का एक कार्यक्रम प्रोड्यूस करने के लिए मना लेता है कि वो इस बार उसकी बात बनवा देगा। 

बिग बॉस की ही तर्ज़ पर इस कहानी में मेहमानों के रूप में कुछ ऐसी विवादित शख्सियतों को जगह दी गयी है जो किस न किस वजह से चर्चा में हैं या जिन्हें चर्चा में बने रहना सुहाता है। इन शख्सियतों में जहाँ एक तरफ़ किसी भी क़ीमत पर फिल्मों में अपना मुकाम बनाने को आतुर एक नवोदित टीवी एक्ट्रेस है तो वहीं दूसरी तरफ़ पल्प फिक्शन के सुनहरे दौर को वापिस लाने के लिए प्रतिबद्ध एक नवोदित स्वयंभू लेखक भी इसमें अपनी हाजिरी भर रहा है। साथ ही इस कार्यक्रम में एक ऐसी अभिनेत्री भी शामिल है जो अपने सुनहरे दौर को जी चुकी है लेकिन अब भी अपने दौर के गुज़र जा चुकने की हकीकत को मानने को तैयार नहीं है। 

इनके साथ ही इस कार्यक्रम में एक प्रतिभा का धनी युवा क्रिकेटर भी अपनी मौजूदगी दर्शा रहा है जो अपनी शराब की लत और अक्खड़पने की वजह से अपने कैरियर के बेड़ागर्क कर चुका है। साथ ही एक चरित्रहीन फ़िल्म निर्माता, तिकड़मी महिला वकील और एक शातिर चोर भी इस 'द होस्ट' के कुनबे में शामिल है।

कार्यक्रम के दौरान अनपेक्षित ढंग से बिन बुलाए एक नवाब साहब और उनकी कनीज़ की एंट्री होती है और उसके बाद एक के बाद एक कर के कत्ल होने शुरू हो जाते हैं। 

इस उपन्यास को पढ़ते वक्त कहीं भूतिया फैक्टरी में भूतों के दर्शन से दोचार होना पड़ता है तो कहीं आजकल के तुरत फुरत बनने वाले उन लेखकों और प्रकाशकों के ऊपर कटाक्ष होता दिखाई देता है जिन्हें सही भाषा, वर्तनी और त्रुटियों का ज्ञान तक नहीं। उपन्यास को पढ़ते वक्त विभिन्न चैप्टर्स की शुरुआत में उस सीन से संबंधित चित्रों ने ख़ासा आकर्षित किया।
पाठकीय नज़रिए से अगर कहूँ तो रोचक एवं रहस्यमयी शुरआत के बाद यह उपन्यास मुझे एक सैट फॉर्म्युले पर आगे बढ़ता हुआ दिखाई दिया। 

पेज नम्बर 119 में लिखा दिखाई दिया कि..

'आज जो तुमने किया है न में....'

कहानी के हिसाब से यहाँ 'किया है न में....' की जगह पर 'किया है न मैं....' आना चाहिए।

पेज नम्बर 133 में लिखा नज़र आया कि..

'वैसे नवाब साहब, मेरे कहानी सुनाने से अगर आप ही ये कहानी सुनाएँ'

यहाँ 'मेरे कहानी सुनाने से' की जगह पर 'मेरे कहानी सुनाने के बजाय' आएगा। 

पेज नम्बर 138 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हमारे कथित अपराध के संबंध में निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं- एक तो कि क्या असेंबली में वास्तव में बम फेंके गए थे'

यहाँ 'एक तो कि' की जगह पर 'एक तो ये कि' आना चाहिए। 

• शाबास - शाबाश 

यूँ तो बढ़िया कागज़ एवं कलेवर से सुसज्जित यह उपन्यास मुझे उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 213 पृष्ठीय रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है शब्दगाथा पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

क़यामत - हरमिंदर चहल - सुभाष नीरव (अनुवाद)


कहते हैं कि दुख, विषाद या हताशा किसी सरहद या मज़हब की ग़ुलाम नहीं होती। किसी भी देश, धर्म अथवा संप्रदाय को मानने वाली हर माँ को उसके बच्चों से बिछुड़ने का दुख हर जगह..हर माहौल में एक जैसा होता है। इसी तरह आतंकवाद से दिन-रात त्राहिमाम करती जनता अथवा उससे जूझने वाले हर फौजी..हर सिपाही के मन में भी एक जैसी ही भावनाएं उमड़ती हैं। भले ही वे भारत या ईरान-इराक-अफ़गानिस्तान अथवा किसी भी अन्य मुल्क से ताल्लुक रखते हों।

दोस्तों.. आज मैं यहाँ इसी तरह के विषय पर लिखे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'क़यामत' के नाम से लिखा है पंजाबी लेखक हरमिंदर चहल ने और इसका हिंदी अनुवाद किया है प्रसिद्ध साहित्यकार एवं अनुवादक सुभाष नीरव ने। 

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है इराक के अल्पसंख्यक यज़ीदी समुदाय पर इस्लामिक स्टेट (ISIS) के आतंक भरे कहर की। जिसमें एक परिवार के माध्यम से वहाँ के लोगों की दशा-दुर्दशा और बुरे हालात का वर्णन किया गया है। उस आईएसआईएस (ISIS) की जो ऐसा चरमपंथी संगठन है जिसके आतंक की की शुरुआत 2013 में हुई थी। इस संगठन का पूरा नाम इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (Islamic State of Iraq and Syria) है। शुरू में, इसे अल-कायदा इत्यादि का समर्थन प्राप्त था, लेकिन बाद में अल-कायदा ने इससे दूरी बना ली। मौजूदा हालात में  आईएसआईएस अब अल-कायदा से भी ज़्यादा क्रूर और खतरनाक संगठन के रूप में जाना जाता है। 

इस उपन्यास में कहीं जवान युवतियों और औरतों को जबरन बंधक बनाए जाने और सीरिया में लड़ाकों की यौनिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए इन्हें भेजे जाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा इनकी सकुशल बरामदगी सुनिश्चित करने के प्रयास होते नज़र आते हैं। कहीं ईरान-इराक के युद्ध में सद्दाम हुसैन द्वारा जबरन युवाओं को युद्ध में झोंके जाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं दुश्मनों के लिए बिछाई गयीं बारूदी सुरंगों की चपेट में आ बेज़ुबान जानवरों के मरने की बात भी उठती नज़र आती है। 

इसी किताब में कहीं सद्दाम हुसैन द्वारा कुर्दिश इलाकों पर ज़ुल्म करने की वजह से वहाँ की जनता त्रस्त नज़र आती है तो कहीं सद्दाम हुसैन का हौसला तोड़ने के मद्देनज़र चीनी जैसी मामूली चीज़ की उपलब्धता पर भी अमेरिका द्वारा इस कदर बंदिश लगाने की बात होती दिखाई देती है कि इराक के शहरों, कस्बों और गाँवों में चीनी की मौजूदगी बमुश्किल ही दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं गद्दारी के शक में सद्दाम हुसैन के द्वारा ज़हरीली गैस के ज़रिए कुर्दिश इलाकों के गाँव के गाँव ख़त्म कर देने की बात होती नज़र आती है। 

इसी उपन्यास के द्वारा हमें पता चलता है कि यज़ीदी धर्म को इस वजह से मुस्लिमों द्वारा धर्म ही नहीं माना जाता कि इनकी बाइबल या कुरान की तरह कोई धार्मिक किताब नहीं है। साथ ही यज़ीदी धर्म में धार्मिक मान्यता के अनुसार उसके अनुयायी बुधवार के दिन नहाते नहीं हैं। जिसकी वजह से उन्हें गंदा समझ जाता है। 

इसी उपन्यास द्वारा हमें पता चलता है कि यज़ीदी धर्म वाले अपने धर्म का प्रचार नहीं करते क्यों बाहर का कोई भी व्यक्ति अन्य धर्मों की तरह अपना धर्म बदल कर इनके धर्म में नहीं आ सकता। साथ ही इराक के गाँवों में गाँव वालों द्वारा किसी की मौत पर बंदूकें चला-चला कर शोक मनाया जाता है। तो कहीं सुन्नी मुसलमानों द्वारा यजीदियों के जवान बच्चों का पैसे के लिए अपहरण कर लिया जाता है। 

इसी उपन्यास में कहीं गाँव देहातों में ISIS के बढ़ते प्रभाव एवं अतिक्रमण की वजह से आम जन चिंतित को कहीं अपनी तथा अपने क्षेत्र की सुरक्षा के प्रति सजग रूप से प्रयासरत नज़र आते हैं। तो कहीं ISIS के हमले के बाद अपने गाँव-घर छोड़ कर भागे लोगों द्वारा पेड़ों के पत्ते खा कर जीवित रहने या फ़िर अमेरिकी के रूप में हवाई जहाजों से फैंकी जाने वाली रसद सामग्री के पैकेटों पर निर्भर रहने की बात होती नज़र आती है। इसी किताब में कहीं सिखों (सिख धर्म के अनुयायी) द्वारा सीरिया और कुर्दिस्तान की सीमा पर शरणार्थियों की सेवा के लिए राहत कैंप चलाए जाने की बात पता चलती है। तो कहीं ISIS द्वारा सामूहिक नरसंहार के रूप में पूरे गाँव के बुज़ुर्गों और अधेड़ों को गोलियों द्वारा छलनी किए जाने की बात होती दिखाई देती है। 

 कहीं जवान युवकों और बच्चों को आत्मघाती हमलों के लिए तैयार किए जाने की बात तो कहीं जवान युवतियों को आगे बेचने या सैक्स स्लेव के रूप में ISIS के लड़ाकों द्वारा इस्तेमाल किए जाने की बात उठती दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं ISIS द्वारा विरोध किए जाने की सज़ा के रूप में एक युवती को पहले जबरन गैंगरेप का शिकार और फ़िर सबके सामने ज़िंदा जला दिए जाने की बात होती नज़र आती है। 

दरअसल किसी भी उपन्यास को एक शिफ़्ट में लिखने के बजाय कई-कई शिफ्टों में लिख कर तैयार किया जाता है। इस बीच वक्त ज़रूरत के हिसाब से बीच में काफ़ी दिनों के गैप का आ जाना भी कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसे में दिक्कत ये आती है कि पहले हम किसी चीज़ के बारे में कुछ और लिख चुके होते हैं मगर कहानी को बढ़ाते समय हम पहले लिखी बात को भूल जाते हैं जिससे कहानी की कंटीन्यूटी में फ़र्क आ जाता है। इस चीज़ का एक उदाहरण इस उपन्यास में भी नज़र आया कि पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..

'वह आँखें मूंदे प्रार्थना कर रही थी। उठकर बाहर देखने का यत्न किया, पर सफलता नहीं मिली, क्योंकि खिड़कियों के शीशे कागज़ लगाकर ढके हुए थे।'

इससे अगले पैराग्राफ में दिखा दिखाई दिया कि..

'अंदाज़ा हुआ कि सवेरा हो चुका है। फिर दिन चढ़ गया और खिड़कियों के बाहर दिखने लगा।'

यहाँ एक पैराग्राफ़ पहले लेखक द्वारा बताया जा रहा है कि खिड़कियों से बाहर देख पाना मुमकिन नहीं था क्योंकि खिड़कियों के शीशों पर अख़बारी कागज़ चिपका हुआ था जबकि अगले ही पैराग्राफ़ में लिखा जा रहा है कि खिड़कियों से बाहर दिखाई दे रहा था।

इस उपन्यास को पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमियाँ भी दिखाई दीं जैसे कि पेज नम्बर 20 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'रात उसी तरफ बीती जैसे पहली रात बीती थी'

यहाँ 'रात उसी तरफ बीती' की जगह पर 'रात उसी तरह बीती' आएगा। 

पेज नम्बर 41 में लिखा दिखाई दिया कि..

'क्योंकि बाइबल या कुराना की तरह हमारी कोई धार्मिक किताब नहीं' 

यहाँ 'कुराना' की जगह पर 'कुरान' या फ़िर 'कुरआन' आएगा।

पेज नम्बर 56 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'मैंने तो तैयारी की थी कि भेड़ा काटूँगा'

यहाँ 'भेड़ा काटूँगा' की जगह पर 'भेड़ काटूँगा' आना चाहिए। 

पेज नम्बर 64 में लिखा नज़र आया कि..

'इस बातें से अमेरिका भी सावधान है'

कहानी के हिसाब से यहाँ 'इस बातें से अमेरिका भी सावधान है' की जगह पर 'इन बातों से अमेरिका भी सावधान है' आना चाहिए। 

पेज नम्बर 71 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसके कहे मुताबिक जो लोग भागने में कामयाब हो गए, वे सिंजार पहाड़ों की तरह निकल गए' 

यहाँ 'सिंजार पहाड़ों की तरह निकल गए' की जगह पर 'सिंजार पहाड़ों की तरफ़ निकल गए' आएगा। 

पेज नम्बर 79 में लिखा नज़र आया कि..

'क़रीब एक घंट बाद आकर वह संक्षेप में बात बताने लगा' 

यहाँ 'एक घंट बाद' की जगह पर 'एक घंटा बाद' आएगा। 

पेज नम्बर 84 में लिखा दिखाई दिया कि..

'इस वक्त इस्लामिक स्टेट वाले आँधी की तरह हर तरफ़ चढ़े जो रहे हैं' 

यहाँ 'चढ़े जो रहे हैं' की जगह पर 'चढ़े जा रहे हैं' आएगा। 

पेज नम्बर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..

'पता नहीं था कि कब तक इस्लामिक स्टेट वालों का घरा पड़ा रहेगा' 

यहाँ 'घरा पड़ा रहेगा' की जगह पर 'घेरा पड़ा रहेगा' आना चाहिए। 

पेज नम्बर 112 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मैंने राते हुए कहा' 

यहाँ 'मैंने राते हुए कहा' की जगह पर 'मैंने रोते हुए कहा' 

पेज नम्बर 113 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसकी बात सुनकर फौजिया बड़ी विचलित हो गई और बाली'

यहाँ 'और बाली' की जगह पर 'और बोली' आएगा। 

पेज नम्बर 119 में लिखा नज़र आया कि..

'लगा जैसे सारा मास उखाड़कर ले गया हो' 

यहाँ 'मास' की जगह पर 'मांस' आएगा। 

पेज नम्बर 131 के अंत में लिखा नज़र आया कि..

'पीछे घर की चारदीवारी के ऊपर से घिसरते हुए दूसरी तरफ़ जाया जा सकता था' 

यहाँ 'घिसरते हुए' की जगह पर 'घिसटते हुए' आना चाहिए। 

पेज नम्बर 173 में लिखा दिखाई दिया कि..

'इस्लामिक स्टेट का नासिर नाक का एक खतरनाक आतंकवादी हलाक' 

यहाँ 'नासिर नाक का एक खतरनाक आतंकवादी हलाक' की जगह पर 'नासिर नाम का एक खतरनाक आतंकवादी' आएगा। 

पेज नम्बर 174 में लिखा दिखाई दिया कि..

'सुरक्षा फोर्सों ने उसको वहीं ढेर कर दियाकृ' 

यहाँ 'कर दिया' की जगह पर ग़लती से 'कर दियाकृ' छप गया है। 

* लावारिश - लावारिस 

* पड़क - पकड़ 

* (पूछ-तड़ताल) - (पूछ-पड़ताल)

* घिराव - घेराव 

* इस्लामिद स्टेट - इस्लामिक स्टेट 

* (धागा-तावीत) / (धागा-तावीज) 

उपन्यास को पढ़ते वक्त इस किताब के काफ़ी पेज अपनी बाइंडिंग से उखड़े मिले। जिसकी तरफ़ ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है।

यूँ तो यह उम्दा उपन्यास मुझे लेखक की तरफ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस रोचक किताब के 175 पृष्ठीय हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भारत पुस्तक भंडार ने और इसका मूल्य रखा गया है 450/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक, अनुवादक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

यार पापा - दिव्य प्रकाश दुबे

कुछ किताबें आपको अपने पहले पन्ने..पहले पैराग्राफ़ से ही अपने मोहपाश में बाँध लेती हैं तो कुछ किताबें आपके ज़ेहन में शनैः शनैः प्रवेश कर आपको अपने वजूद..अपनी मौजूदगी से इस हद तक जकड़ लेती हैं कि आपसे बीच में रुकते नहीं बनता है और आप किताब के अंत तक पहुँच कर ही दम लेते हैं।
दोस्तों..आज मैं यहाँ लेखक दिव्य प्रकाश दुबे के 'यार पापा' के नाम से लिखे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जो अपनी कहानी के साधारण होने बावजूद भी धीरे-धीरे आपके मन-मस्तिष्क पर इस कदर हावी होता चला जाता है कि आप उसे पूरा किए बिना रह नहीं पाते।
इस उपन्यास के मूल में कहानी है देश के बड़े नामी वकील मनोज साल्वे और उससे अलग रह कर पुणे में कानून की पढ़ाई कर रही, उससे नाराज़ चल रही बेटी साशा की। जिनके आपसी रिश्ते में इस हद तक उदासीनता पनप चुकी है कि वह अपने बाप से बात तक नहीं करना चाहती। 
राजनीतिक गलियारों एवं बॉलीवुड तक पर अपनी गहरी एवं मज़बूत पकड़ के लिए जाने जाने वाले मनोज साल्वे का अपनी बेटी से सुलह का हर प्रयास विफ़ल होता है कि इस बीच मीडिया में एक हँगामासेज ख़बर फैलती है कि मनोज साल्वे की वकालत की डिग्री नकली है। 
एक तरफ़ उस पर अपनी बेटी एवं पत्नी से रिश्ते सामान्य करने का दबाव है तो दूसरी तरफ़ अदालत में अपने खिलाफ़ चल रहे नकली डिग्री के मामले से भी उसे बाहर निकलना है। ऐसे में अब देखना ये है कि तमाम तरह की दुविधाओं निकलने के इस प्रयास में क्या मनोज सफ़ल हो पाता है अथवा नहीं। 
अर्बन यानी कि शहरी कहानी के रूप में लिखे गए इस उपन्यास को पढ़ते वक्त बीच-बीच में कुछ एक जगहों पर अँग्रेज़ी में लिखे गए वाक्यों को भी पढ़ने का मौका मिला। जिसकी वजह से बतौर पाठक मुझे इस किताब के एक ख़ास वर्ग तक ही सीमित रह जाने का अंदेशा हुआ। साथ ही इस उपन्यास की कहानी के सबसे अहम ट्विस्ट के साथ बड़ी दिक्कत ये लगी कि कोई भी इनसान किसी जाली या फर्ज़ी डिग्री के साथ इतने बड़े मुकाम तक भला कैसे पहुँच सकता है? क्या पुलिस-प्रशासन सब आँखें मूंद कर सोए पड़े थे? साथ ही सोने पर सुहागा के रूप में एक कमी ये लगी कि उसे अपनी ग़लती सुधारने और फ़िर से डिग्री हासिल करने के लिए कॉलेज में एडमिशन भी मिल जाता है?
इस उपन्यास को पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की छोटी-छोटी कमियों के अतिरिक्त एक-दो जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ भी दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 79 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वh हल्के - से मुस्कुराया और करवट लेकर सो गया'
यहाँ 'वh हल्के - से' की जगह 'वह हल्के से' आएगा। 
पेज नंबर 80 में लिखा दिखाई दिया कि..
'डेविड किनारे पर बैठ हुआ था। वे दोनों को देखकर मुस्कुरा था'
यहाँ 'दोनों को देखकर मुस्कुरा था' की जगह 'वह दोनों को देखकर मुस्कुरा रहा था' आएगा। 
पेज नंबर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..
'एक लड़की जो समझदार थी, वह अपने गुस्से से बार-बार हार जा रही थी'
यहाँ 'बार-बार हार जा रही थी' की जगह 'बार-बार हार रही थी' आना चाहिए। 
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'क्योंकि तुम मम्मी को 100 प्यार करती हो और मुझे 99'
यहाँ 'क्योंकि तुम मम्मी को 100 प्यार करती हो और मुझे 99' की जगह ''क्योंकि तुम मम्मी को 100 ℅ प्यार करती हो और मुझे 99℅' आएगा।
पेज नंबर 133 में लिखा दिखाई दिया कि..
'जैसे भारत के कुछ प्रदेश में एक समय पर कुछ अनकहे नियम थे'
यहाँ 'जैसे भारत के कुछ प्रदेश में' की जगह 'जैसे भारत के कुछ प्रदेशों में' आएगा। 
पेज नंबर 143 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'मैंने जब सायकॉलजी और फ़िलॉसफ़ी दोनों से अपने पोस्ट पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया'
यहाँ 'दोनों से अपने पोस्ट पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया' की जगह 'दोनों से अपना पोस्ट पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया' आएगा। 
पेज नंबर 181 में देखा दिखाई दिया कि..
'मनोज ने इशारे से कहा, बस दो मिनट और अगले दो घंटे में मनोज के 2 घंटे नहीं आए'
यहाँ बात 'दो मिनट' की हो रही है। इसलिए ये वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'मनोज ने इशारे से कहा, बस दो मिनट और अगले दो घँटों में मनोज के दो मिनट नहीं आए'
पेज नंबर 194 में लिखा दिखाई दिया कि..
'जाओ मनोज! मीता ने कहा, "स्पेशल बैच है, इतने बड़े आदमी के साथ पास हो रहा है'
दृश्य के हिसाब से यहाँ 'जाओ मनोज' के बजाय 'आओ मनोज' आना चाहिए। 
पेज नंबर 215 में दिखा दिखाई दिया कि..
'ये ऐसे ही था जैसे रिटायर होने बाद कोई खिलाड़ी दुबारा उतरता है'
यहाँ 'रिटायर होने बाद' की जगह 'रिटायर होने के बाद' आएगा। 
• फ़ज - फोर्ज (जालसाज़ी)
• पुछ - पुंछ (आँसू) - पेज नम्बर 184
223 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
 
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