"अभी बहुत जान बाकी है"

"अभी बहुत जान बाकी है"

***राजीव तनेजा***


"अनर्थ!...घोर अनर्थ..."....

"राम...राम"अनुराग अपने कानों को हाथ लगाता हुआ बोला

"कुछ खबर भी है कि गन्नौर स्टेशन के पास क्या हुआ?"अनुराग मानों संस्पैंस क्रिएट करने के लिए ही पैदा हुआ था


"शश्श!...चुप...बिलकुल चुप"मैँ अनुराग की बात काट बीच में ही बोल पड़ा...

"सूरत के पास ट्रेन से कट कर अठारह लोगों की मौत हो गई"मैँ अपने चायनीज़ मोबाईल में टीवी देखता हुआ बोला...


"अठारह लोगों की?"गुप्ता जी ने हैरानी से मोबाईल में आँख गढाते हुए कहा


"जी हाँ!...पूरे अठारह लोगों की"....


"कब?"...

"कैसे?"शर्मा जी ने एक साथ दो सवाल जड़ दिए...


"तो क्या उनमें...तुम्हारी 'कम्मो' भी थी?"मुझे परेशान देख अनुराग बीच में मज़ाक उड़ाता हुआ बोल पड़ा...


"नहीं!..."मैँने ज़्यादा कुछ कहे बिना ही अनुराग को ऐसे घूर कर देखा कि उसे सकपका कर चुप हो जाना पड़ा


"तो क्या वो सारे एकसाथ पटरियों पे...धार काढने गए थे?"इस बार शर्मा जी अचानक पंजाबी के बजाए हरियाणवी में डॉयलाग मार बैठे


"बेचारे गरीब मज़दूर थे और काम के चक्कर में बिहार से सूरत जा रहे थे"...

"गल्ती से एक स्टेशन पहले उतर गए"मैँ उनकी बात पे ध्यान ना दे सारी कहानी ब्यान करता हुआ बोला...


"टाईम बचाने के लिए पैदल-पैदल ही पटरियों के साथ साथ चल रहे थे कि बीच में लोहे का पुल आ गया"

"उसी को पार कर रहे थे कि पीछे से ट्रेन आ गई"गुप्ता जी भी मोबाईल में देख-देख लाईव कमैंट्री देने लगे...


"पुल के बीचोंबीच होने के कारण उनके पास बचाव का कोई रास्ता नहीं था"मैँ आगे की बात बताते हुए बोला...


"ओह!..."...

"बेचारे!...सभी के सभी कट मरे होंगे"मैडम व्याकुल होते हुए बोली...


"क्या किया जा सकता है?"...

"हमारा तो पूरा सिस्टम ही गलत है"शर्मा जी ठण्डी साँस लेते हुए बोले...


"कैसे?"मेरे चेहरे पे सवाल था


"अब तुम ही बताओ कि अगर हम सब का काम दिल्ली में ही बढिया ढंग से सैट हो जाए...

तो क्या हम ये डेली पैसैंजरी करना पसन्द करेंगे?"शर्मा जी सभी से मुखातिब होते हुए बोले...


"नहीं!....बिलकुल नहीं"सभी ने एक साथ जवाब दिया


"सिवाय इस राजीव के बच्चे के!..

इसे तो लुत्फ सा आने लगा है इस कंभख्तमारी डॆली पैसैंजरी में"अनुराग सीरियस बातचीत के बीच फुलझड़ी छोड़ता हुआ बोला


"रोज़-रोज़ नए-नए सैम्पल जो मिलते रहते हैँ"गुप्ता जी भी कौन सा कम थे....


"गुप्ता जी आप भी ना!...

वो तो मेरी कहानियों को पढने के लिए रीडर मिल जाते हैँ...इसलिए"मैडम को अपनी तरफ ताकता देख मैँ अपनी झेंप मिटाते हुए बोला


"रीडर मिल जाते हैँ नहीं बल्कि रीडर मिल जाती हैँ कहो"दहिया के इतना कहते ही सभी हँस पड़े


"अगर हमें घर में...अपने शहर में रोज़गार मिले तो....

कोई भला बाहर कमाने खाने को क्यों जाएं?"शर्मा जी वापिस पुराने मुद्दे पे आते हुए बोले


"सही है!...घर में मिले खाने को तो...कद्दू जाए कमाने को"सबको बोलता देख अनुराग भी डायलाग मार बैठा


"सही है बेटा!...मौके पे डायलाग फिट बैठे ना बैठे लेकिन मारना ज़रूर है...लगे रहो "मैँ अनुराग का मज़ाक उड़ाते हुए बोला


"अपने घर में...

अपने बीवी-बच्चों के साथ रह कर हर कोई खुशी ही महसूस करेगा"मैडम जी बाहर गांव काम कर रहे अपने पति को याद करते हुए बोली



"फिर तो इन भईय्यों को बेटा पैदा होने की खुशी में मिठाई बांटते वक्त....भोलेपन से ये नहीं कहना पड़ेगा कि...

"मैँ अपना कच्छा छोड़ आया था ना गांव में...

सो!...लड़का पैदा हुआ है"मैँ पास से गुज़रते एक वैंडर को देख हँसते हुए बोला


"हुँह!..."बुरा सा मुँह बनाते हुए वो वैंडर कुछ बड़बड़ाते हुए आगे बढ गया


"सरकार भी कुछ खास इलाकों...कुछ खास शहरों को ही चमकाने में जुटी है"...

"बाकि सारा देश भाड़ में जाए"शर्मा जी मेरे मज़ाक पे ध्यान ना देते हुए बोलते रहे


"बेसिक साहूलियतें अगर छोटे शहरों को भी मिलें तो...

कोई भूले से भी नहीं ताकेगा बड़े शहरों की तरफ"गुप्ता जी भी बातचीत का फ्लो बढाने में जुटे थे ...


"बिलकुल सही बात!..इससे बैलैंस भी ठीक बना रहेगा जनसंख्या का और...

किसी को कोई परेशानी भी नहीं होगी"मैडम हामी भरते हुए बोली...


"सही है मैडम जी!...बात कहीं और की और इशारा कहीं ओर"...

"वाह!...वाह-वाह...क्या अन्दाज़ पाया है आपने"

"सरेआम नंगा कर के रख दिया"मैँ बोल पड़ा


"क्या आपका इशारा हमारी तरफ था?"गुप्ता जी ने मैडम से बेशर्म हो पूछ ही लिया...


"नहीं!...नहीं तो"मैडम अपनी झेंप मिटाने की कोशिश में थी...


"उफ!...हर तरफ इतना भीड़-भड़्ड़का है कि...पूछो मत"मैडम बात बदलने की असफल कोशिश सी करती दिख रही थी


"विडंबना ऐसी कि जहाँ एक तरफ बड़े शहरों में चारों तरफ....

मुण्डियाँ(इनसानी खोपड़ी)ही मुण्डियाँ दिखाई पड़ती हैँ...वहीं दूसरी तरफ कुछ इलाकों में तो...

अर्थी उठाने के वास्ते चार कन्धे तक तलाशने पड़ते हैँ"गुप्ता जी भी शर्मा जी की देखादेखी फिलास्फी झाड़ते हुए बोले



"ओफ्फो!...ये नैटवर्क क्यों नहीं पकड़ रहा?"मैँ उनकी बात पे ध्यान ना दे अपने मोबाईल को उलटते-पलटते बोला


"बेटा!...चायनीज़ मोबाईल है....कोई मज़ाक थोड़े ही है"अनुराग मेरा उपहास उड़ाते हुए बोला...


"वहाँ की आईटमज़ का कोई भरोसा नहीं...चल जाए चल जाए...रुक जाए जाए...रुक जाए"शर्मा जी बोले


"जितनी मर्ज़ी अच्छी हो वहाँ की आयटम लेकिन...तसल्ली नहीं होती है दिल को"गुप्ता जी हामी भरते हुए बोले...


"तसल्ली तो किसी को अपनी बीवी से भी नहीं होती है बेशक...वो भी जितनी मर्ज़ी अच्छी क्यों ना हो"अनुराग बोल पड़ा...

"क्यों राजीव...?"अनुराग का इशारा शायद मेरी तरफ ही था


"कोई गारैंटी जो नहीं मिलती"गुप्ता जी भी उसी के रंग में खुद को रंगते हुए बोले...


"किसकी?"...

"बीवी की?"....

"या फिर फोन की?"...


"राजीव!...कुछ तो देख लिया करो कि किसके सामने कैसी बात करनी है"मैडम को सर झुकाए देख दहिया मुझसे बोला


"शर्मा जी भी मुझी को घूरते हुए आँखों ही आँखो में बहुत कुछ कह गए"...


"मजबूरन मुझे चुप हो जाना पड़ा"...



"शर्मा जी!..यही फोन...इतनी ही फीचरज़ के साथ अगर...

नोकिया या फिर सोनी एरिक्सन का मिले तो कम से कम पच्चीस हज़ार का होगा"...

"क्यों!...है कि नहीं?"...

"और आप उसे दौड़ के लेंगे"मैँ नए सिरे से बात बदलते हुए बोला...


"अरे नहीं!...अपने पास तो यही हज़ार-बारह सौ वाला ठीक है"शर्मा जी अपना क्लासिक फोन दिखाते हुए बोले

'हमें तो बस फोन सुनना होता है....ज़रूरी हुआ तो एक-आध बार कर भी लेते हैँ"



"चार-चार मोबाईलों के पैसे पहले ही ले रही हैँ आपकी ये तथाकथित नोकिया-शोकिया कंपनियाँ"...


"अगर खराब हो जाए तो ठीक भी तो कर के देती हैँ ये कंपनियाँ"


"सही कह रहे हो!...ठीक कर के तो दे देती हैँ लेकिन...

ये जो आठ से दस तक चक्कर और बीस से पच्चीस तक घंटे खराब होते हैँ उसका क्या?"गुप्ता जी उँगलियों पे हिसाब लगाते हुए बोले

"एक साल की गारंटी दे भी दी तो कौन सा पहाड़ तोड़ मारा?"...


"ये कितने का आया है?"मैडम मुझसे फोन ले उलटते-पुलटते हुए पूछने लगी...


"महज़!..साढे छै हज़ार का"...

"अब इन सब को क्यों बताऊँ कि इसमें हज़ार रुपए का टांका भी शामिल है?"मैँने मन ही मन सोचा...

"आपको चाहिए हो तो बता देना ..ला दूंगा"...

"मेरी जान-पहचान है गफ्फार मार्किट में"मैँ मन ही मन भविष्य में होने वाली कमाई के बारे में सोचता हुआ बोला

"ये मेरा कार्ड है..आप रख लें"मैँ अपना विज़िटिंग कार्ड उन्हें थमाता हुआ बोला


"वैसे!...इन चायनीज़ फोनों में क्या-क्या फीचरज़ अवेलेबल हैँ?"मैडम कार्ड को पर्स में संभाल कर रखते हुए बोली


"सभी लेटेस्ट फीचरज़ अवेलेबल हैँ"...


"मसलन?"...


"जैसे...टीवी...एफ.एम...आडियो-विडियो...ब्लू टुथ...टच स्क्रीन...मैमोरी कार्ड...वगैरा...वगैरा"...


"आवाज़ कैसी है?"...


"आवाज़ ऐसी कि एक बार को 'डी.जे'भी शरमा उठे"...


"डीजे?..."...

"ये कौन से कुत्ते का नाम है?"


"बेवाकूफ!...'डी.जे'माने...'डिस्क जॉकी"...


"लेकिन!...ये जो शादी-ब्याहों और पार्टियों में रंग-बिरंगी लाईटों के बीच....डांस फ्लोर पे म्यूज़िक बजता है...

उसे भी तो 'डी.जे'ही कहते हैँ ना?"मैडम असमंजस भरे स्वर में बोली


"जी !...कहते तो हैँ लेकिन वो गलत है"...

"डी.जे का असली मतलब होता है...'डिस्क जॉकी'"....


"जैसे...'वी.जे'का मतलब...वीडियो जॉकी?"


"बिलकुल"...


"हम्म!...और अनुराग इसे डौग्गी बना रहा था"गुप्ता जी बोले...


"हद् है!...नासमझी की भी"दहिया अपने माथे पे हाथ रखता हुआ बोला...


"हद्!..?...हद से भी बढकर कोई चीज़ हो सकती है तो उसे कहो"मैँ नहले पे दहला जड़ते हुए बोला



"अरे हाँ!...राजीव...तुम क्या-क्या खासियतें बता रहे थे अपने मोबाईल की?"मैडम पुरानी बात पे वापिस लौटते हुए बोली


"जी...एक खूबी और कि..इसमें 'एफ.एम' सुनने के लिए कानों में 'लीड'लगाने की भी ज़रूरत नहीं है"...


"वाओ...दैट्स नाईस"मैडम खुश होते हुए बोली ....


"तो क्या'एफ.एम सुनने के लिए कानों में घोड़े की लीद् लगाना ज़रूरी होता है?"अनुराग फिर नासमझ बन सवाल पूछता हुआ बोला


"बेवाकूफ!...लीद नहीं 'लीड'..लीड माने ...हैडफोन"मैँ गुस्से से बोला...


"हाँ!..अगर तुम चाहो तो बेशक लीद भी लगा सकते हो"...

"है कोई अस्तबल तुम्हारे घर के आस-पास?"अनुराग की बेतुकी बातों पे गुप्ता जी को गुस्सा आने लगा था


"सही ही तो है गुप्ता जी!...जो थोड़ा बहुत सुनाई देता है...उससे भी हाथ धोना है कि नहीं?मेरे इतना कहते ही सभी हँस पड़े


"असली खूबी बताना तुम भूल ही गए...राजीव"अनुराग मेरी बात अनसुनी कर अपनी झाड़ता हुआ बोला


"क्या?"मैँने अपने ज्ञान पे शंकित होते हुए अनुराग की तरफ ताका


"वो ये कि एक बार हल्का सा भी...ज़रा सा भी गिर जाए तो बस....

समझो कि गया काम से"अनुराग मोबाईल की सारी खूबियों पे पानी फेरता हुआ बोला

"हुँह!...इसे कहते हैँ चायनीज़ मोबाईल"अनुराग हर बात में मेरी हँसी उड़ाने को था


"नहीं!...इसे कहते हैँ ...खट्टे अँगूर"मैँ भी कौन सा कम था...


"और हाँ!...समझ लो कि ईंट का जवाब पत्थर से देना मुझे अच्छी तरह आता है"मैँ उसकी तरफ देख आहिस्ता से बुदबुदाया



"मुझे तो लग रहा है कि शायद किसान ही रहे होंगे वो सब"दहिया हमारी नोक-झोंक को विराम देने के मकसद से बोला...


"कौन?"मैँ चौंका...


"अरे वही!..जो ट्रेन से कट मरे"अब मेरी नासमझी पे अनुराग के हँसने की बारी थी


"हाँ!..यही बात रही होगी...आजकल वैसे भी बहुत से आत्महत्या कर रहे हैँ"मैँ अपनी झेंप मिटाने की गर्ज़ से बोला

"दहिया जी!...मैँ आपसे सौ फीसदी सहमत हूँ"मैँ दहिया जी को अपने फेवर में करने के मकसद से बोला...


"इतने सारे एक साथ?"....

"क्या बात कर रहे हो?"अनुराग को मेरी हर बात काटने में पता नहीं क्या मज़ा आ रहा था


"क्यों?...सामुहिक आत्महत्या का चक्कर नहीं हो सकता क्या?"मैँने भी तुनक कर जवाब दिया


"कर्ज ना चुका पाने के कारण घणे किसान आत्महत्या करें हैँ आजकल"बड़ी देर से चुप बैठे वो बेनाम सज्जन भी बोल पड़े...


"लेकिन!..वो सब तो काम की तलाश में आए थे"अनुराग उन्हें टांग अड़ाता देख उन्हीं से चिपटता हुआ बोला...


"भगवान जाने!...क्या चक्कर रहा होगा"शर्मा जी ठण्डी साँस लेते हुए बोले


"क्या पता किसान ही रहे हों सब के सब और...सभी ने कर्ज़ा लिया हुआ हो बैंक से"मैँ गुप्ता जी की तरफ देखता हुआ बोला


"अब ये बैक़ वाले भी ना!..पहले तो बन्दे की औकात तक देखते नहीं हैँ कि...

सामने वाला बंदा लोन देने लायक भी है या नहीं"गुप्ता जी के बैंकर होने के नाते शर्मा जी उन्हीं पे कटाक्ष करते हुए बोले


"चुका पाएगा या नहीं"...

"इससे सब से उन्हें कोई मतलब नहीं...कोई सरोकार नहीं"हम सभी गुप्ता जी के पीछे पड़ गए


"उस वक्त तो 'टारगैट' पूरा करने का ज़ुनून छाया रहता है इन पर कि ...फिलहाल की तो अभी निबटो"...

"क्यों..गुप्ता जी?...ठीक कहा ना मैँने?"मैँ उनकी तरफ देखता हुआ बोला...


"सही ही तो है...बाद में जो होगा...देखा जाएगा"गुप्ता जी भी झेंप मिटाने को हँसते हुए बोले


"हाँ!...सही ही तो है...

बाद में जब कर्ज़ वसूली का टाईम आता है तो पिल्ल पड़ते हो बेचारे गरीब किसानों के साथ"मैडम भी कौन सा कम थी...



"अजी!...अब गरीब कहाँ?"...

"गरीबियत तो इनके चेहरे के आस-पास भी नहीं फटकती है"गुप्ता जी मैडम से मुखातिब होते हुए बोले

"आजकल तो कंगालपन्ने का नामोनिशान भी इनके आसपास से गुज़रने से शरमाता है"...


"शरमाता है?...या फिर कतराता है?"मैँने अपने व्याकरण बोध चैक करता हुआ पूछ बैठा


"मौके...मौके की बात है बेटा!...

कभी शरमाता है तो...कभी कतरा भी जाता है बेचारा"शर्मा जी हँसते हुए बोले



"सही है!...

कई-कई करोड़ में एक-एक 'किल्ला(एकड़)जो बिक रहा है आजकल"वे बेनाम सज्जन बीच-बीच में अपनी हाजरी लगाने से नहीं चूक रहे थे


"और इसी वजह से...

तमाम तरह के 'ऐब्बी' हुए जा रहे हैँ ये गांव वाले भी आजकल"मैँ जेब से गुटखे का पैकेट निकाल एक ही बार में पूरा सटकता हुआ बोला


"सुरती...गांजा...सुल्फा...दारू...पोस्त से लेकर...

हेरोईन..स्मैक..ब्राउन शूगर तक कोई भी छोटा-बड़ा नशा इनसे अछूता नहीं है"मेरी आँखों में नशीली चमक जाग उठी थी


"अरे बेवाकूफ!..किल्ले बिक रहे हैँ सिर्फ दिल्ली और हरियाणा में"...

"बाकि सब जगह तो बुरा हाल है"अनुराग मेरी आँखों में उभरी तीखी चमक को भांपता हुआ बोला..


"चिंता ना करो!...यहाँ भी जल्दी ही इनका बुरा हाल होने वाला है"शर्मा जी भविष्य की तरफ ताकते हुए बोले


"वो कैसे?"अनुराग इस सवाल का उत्तर जानने के मक़सद से बोला..


"वो ऐसे मेरे लाल!...कि मोटा पैसा हाथ लग गया है अनाड़ियों के"मैँ अनुराग की अज्ञानता पे तरस खाते हुए बोला...


"और उन्हें खिलाड़ी बनने में वक्त लगेगा"गुप्ता जी ने मेरी बात पूरी की...


"पैसा चीज़ ही ऐसी है...पता नहीं ये बावले उसे संभाल पाएंगे या नहीं"मैडम कुछ सोचते हुए बोली...


"अब भी संभल गए तो ठीक...वर्ना!...बेड़ागर्क अब हुआ कि...अब हुआ"शर्मा जी भी उनकी नासमझी पे तरस खाते हुए बोले


"हाँ!..अपनी तरफ से तो कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैँ ये मोलढ बेचारे"मैँ हँसता हुआ बोला


"कुछ यूँ समझ लो कि अन्धों के हाथ बटेर लग गई है"...

"अब कितने दिन वो महफूज़ रह पाती है ये तो ऊपरवाला ही जाने"शर्मा जी के स्वर में चिंता का पुट था


"अब इसमें ऊपरवाला क्या जाने?"...

"बकरे की माँ आखिर कब तक खैर मनाएगी?"दहिया बोल पड़ा...


"ये तो!...तू जानता ही है कि पैसा बोलता है"...

"और वही पैसा अब इनके सर चढ कर बोल रहा है"शर्मा जी अनुराग को समझाते हुए बोले...


"बच्चा!...जब तक इन्हें होश आएगा तब तक...अकड़....पैसा ....रुआब ..

सब का सब एय्याशी के हवन-कुण्ड की अग्नि में स्वाहा हो चुका होगा"मैँ अपना ओपीनियन ब्याँ करता हुआ बोला...



"काहे पैसे पे?...हाँ!...काहे पैसे पे इतना गरूर करे है....गरूर करे है"दहिया अचानक लावारिस का ये गाना गुनगुनाने लगा


"सही बात है...आजकल तो बन्दे को बन्दा नहीं समझते हैँ"बेनाम सज्जन अब तक हमसे घुलमिल चुके थे


"काम-धाम नहीं निक्के ऑने का और...ऐब करवा लो दुनिया भर के"मैँ उनके कन्धे पे हाथ रखता हुआ बोला...


"दिन में बटर चिकन...शाम को विलायती दारू और...रात में शबाब"...

"वो भी कोई ऐसा-वैसा नॉरमल सा काम चलाऊ नहीं बल्कि ...फाईव स्टार...टॉप-ओ-टॉप"...

"जींन्स वाला स्टफ होना चाहिए"गुप्ता जी मैडम की जींन्स की तरफ इशारा कर आँख दबाते हुए मुझसे बोले ...


"कई रईसजादे तो रशियन और उज़्बेकिस्तान के माल के लिए मोटा खर्चा करने को तैयार रहते हैँ"

"एक को तो मैँने सोनीपत से दिल्ली और सारा का सारा 'एन.सी.आर.'छोड़...

सीधा हवाई टिकट कटा मुम्बई का दामन थामते हुए देखा है कई बार"वो बेनाम सज्जन आहिस्ता से फुसफुसाते हुए बोले

"मेरे पड़ोस में ही रहता है"


"कोई-कोई तो मर्दों का टेस्ट भी चखने से गुरेज़ नहीं करते"अनुराग मेरा कँधा आहिस्ता से दबाते हुए बोला


"हट्ट पीछे!...दूर हो के बैठ"मैँ गुस्से से अपना कँधा झटकते हुए बोला...

"ना जाने क्यों मुझे उसके इरादे ठीक नहीं लग रहे थे"


"बेशक!..पैसे भले एक के चार लग जाएं"...

"कोई मलाल नहीं...कोई परवाह नहीं"अनुराग मेरी तरफ ढीठों के माफिक देख पता नहीं कैसे-कैसे इशारे करता हुआ बोला...


"हाँ-हाँ!..परवाह भला क्यों होने लगी?"..

"मेहनत की..खून-पसीने की गाढी कमाई हो तो चुभे भी"मैँ भी आँखे तरेरता हुआ गुस्से से बोला...


"स्साले!..बाप-दादा तो हल जोत-जोत अपनी ज़िन्दगी काट गए...

औलादें ऐसी जनी कि...माशा अल्लाह"...

"धार मारने(पेशाब करने)जाने तक को भी बाईक या फिर स्कूटर का सहारा ढूंढते हैँ"मेरा गुस्सा कम होने का नाम नहीं ले रहा था


"अब 'वर्मा'नाई की ही कहानी लो...पहले कभी उजाड़ में हुआ करते थे उनके खेत-खात"...

"बाद में क्नॉट प्लेस से झुग्गियाँ उठने के कारण पूरी 'जे.जे कालौनी'आ बसी उनके पड़ोस में"...

"बस!..तभी से वारे-न्यारे हो गए उनके"


"वो कैसे?"...


"अगलों के कालौनी के साथ लगते कई किल्ले थे"...

"बस उसी ज़मीन पर कैसे ना कैसे करके पूरी मार्किट खड़ी कर दी उन्होंने"

"और एक 'टाकीज़'भी बना डाला"शर्मा जी कहानी सुनाने वाले अन्दाज़ में बोले ...


"टाकीज़ माने?"अनुराग पूछ बैठा...


"टाकीज़ माने!...बाईस्कोप"मैँ उसकी अज्ञानता पे तरस खाते हुए बोला....


"और!..बाईस्कोप माने?"...


"अरे मेरे भोले भण्डारी!...'बाईस्कोप'माने...सिनेमा हाल"गुप्ता जी भी अनुराग को खींचने के मूड में थे...


"तो सीधी तरह कहें ना कि...'पी.वी.ऑर'या फिर...'मल्टीप्लैक्स' था"

"ये क्या?...कि बुझारतें (पहेलियाँ) पूछे जा रहे हो मुझ मासूम से"अनुराग भोलेपन से बोला


"अरे!..वैसे वाले नहीं...टाकीज़ होते थे छॉटे सिनेमा घर"मैँ उसे समझाता हुआ बोला...


"और तब आज की तरह सैंकडॉ के हिसाब से टीवी चैनल थोड़े ही होते थे कि जब जी में आए फिल्म देख डालो"

"तब सिवाय दूरदर्शन के कोई और चैनल होता ही नहीं था"...

"सो!...खूब चलता था उनका टॉकीज़"


"और एफ एम?"...


"अरे!..ये एफ.एम वगैरा तो सब नए ज़माने की देन हैँ"मैँ अनुराग को समझाते हुए बोला


"तब तो अपना विविध भारती सुना करते थे आराम से"शर्मा जी जैसे पुरानी यादों में खो गए



"आजकल तो बिल्डर लॉबी निगलती जा रही है एक एक करके सभी पुराने टाकीज़ों को"...

"कभी मॉल के नाम पर तो कभी मल्टीप्लैक्स बना अपग्रेडेशन के नाम पर"


"अब तो समझ लो कि परिवार सहित फिल्म देखनी हो तो...

हज़ार का पत्ता स्वाहा करने को मैंटली प्रिपेयर हो जाओ"शर्मा जी का दार्शनिक अन्दाज़ एक बार फिर सामने था


"अरे वाह!...अपना...खुद का सिनेमा हाल"अनुराग आश्चर्यचकित सा होता हुआ बोला ...


"और!..नहीं तो क्या"...


"फिर तो खूब पैसा कमा रहे होंगे"अनुराग 'पी.वी.आर'सिनेमा घरों की मँहगी टिकटों के बारे में सोचता हुआ बोला


"अरे नहीं मेरे लाल!...उनकी टिकट तो बहुत ही सस्ती हुआ करती थी"मैँ अनुराग को समझाने वाले अन्दाज़ में बोला ...


"यही कोई!..पाँच रुपए से शुरू होकर बालकनी की पंद्रह रुपए तक में मिल जाया करती थी"शर्मा याद करते हुए बोले


"सवा सौ दुकानों की ये बड़ी मार्किट थी उनकी"शर्मा जी अपनी बाँहे फैलाते हुए बोले


"सुना है कि आजकल उनका एक बेटा भाड़े पे टैम्पू चला रहा है और एक बेटा नजफगढ में आरा-मशीन पे हैल्पर लगा है"...


"क्या बात कर रहे हैँ?"मैँ हैरान होता हुआ बोला...


"इतना बुरा हाल?"अनुराग को विश्वास ही नहीं हो रहा था....


"कभी कुत्ते को घी हज़म हुआ है?...जो इन्हें हो जाता?"शर्मा जी बोले...


"मतलब?"मेरे चेहरे पे प्रश्न मंडरा रहा था..


"मतलब ये कि...लाखों रुपए का किराया आता था हर महीने"

"फिर भी पेट्टा नहीं भर रहा था अगलों का"...


"वो क्यों?"अब अनुराग के पूछने की बारी थी


"वो यों कि...खर्चे ही इतने थे...

एक नम्बर के एब्बी-कबाबी हो गए थे वो सब के सब"

"दुनिया का कोई ऐसा एब्ब नहीं...जिसका चस्का उन्होंने ना लिया हो"


"बिना पसीना बहाए नोटों की बरसात हो रही थी उन पर"...

"सो!...काम-धन्धे पे जाना ही छोड़ दिया था सबने"...


"ये क्या बात हुई?...काम नहीं करेंगे तो भला...काम कैसे चलेगा?"मैँ अपनी समझ झाड़ते हुए बोला


"वही तो"...

"ऊपर से...पैसे के गरूर में आए दिन हर किसी पे चौड़ होते रहते थे बेफाल्तू में"शर्मा जी आगे बात बढाते हुए बोले


"अच्छा फिर?"शर्मा जी तरफ ताकते हुए मैडम पूछ बैठी...


"फिर क्या?"...

"धीरे-धीरे एक-एक कर के सब का सब पैसा खत्म"...


"वो कैसे?"मुझे विश्वास नहीं हो रहा था


"वो ऐसे कि ...एक दिन सेर को सवा सेर टकरा गया"...

"ज़मीन के बंटवारे को लेकर ऐसा तगड़ा वैर उठ बैठा सगे ताए-चाचों में कि पूछो मत"...

"ना वो इनसे कम...ना ही ये उनसे किसी भी सूरत में उन्नीस"

"पैसा इनके पास...तो बैंइंतहा पैसा उनके भी पास"शर्मा जी मानों किसी फिल्म का स्टोरी सुना रहे थे


"फिर तो खूब लट्ठ बजे होंगे"मैँ चटखारा लेता हुआ पूछ बैठा....


"हाँ!..पहली बार में ही दो उनके लुढके तो तीन इनके भी हलाक हुए"


"ओह!...फिर क्या हुआ?"मैडम का चेहरा उत्सुकता से फैल चुका था....


"होना क्या था?...दोनों तरफ से घर के सारे मर्द जेल के अन्दर"...

"दुश्मनी ऐसी तगड़ी बनी कि आए दिन घर की औरतों तक में खुलेआम झड़पें होने लगी"...

"हर कोई दूसरे पे हावी हो अपनी चौधराहट जमाना चाहता था"

"यूं समझ लो कि जैसे एक तरह से वर्चस्व की लड़ाई लड़ी जा रही थी"आगे की कहानी ब्याँ करते हुए शर्मा जी बोले ...


"रोज़-रोज़ गांव की चौपाल में पंचायत इन्हीं का मसला लेकर लगी रहती"...

"पूरा गाँव दो खेमों में बंट चुका था ...एक गुट इनकी तरफ तो..दूसरा गुट उनकी तरफ"

"फैसला अपने हक में करवाने के चक्कर में दोनों पार्टियाँ दुनिया भर का पैसा खर्च करने को तैयार"...


"कभी फैसला एक के हक में तो कभी दूसरे के हक में होता होगा?"मैडम अपना दिमाग लड़ाते हुए बोली...


"बिलकुल!...यहीं हुआ था"शर्मा जी के चेहरे पे प्रशंसा का भाव था



"पंचो से लेकर पुलिस...वकील....जज तक....

सभी उनका फुद्दू खींच...अपना उल्लू सीधा कर रहे होंगे"मैँ भी अपना दिमाग लगाते हुए बोला


"नाक का सवाल जो ठहरा...

कोई झुकने को तैयार नहीं रहा होगा"अनुराग की समझदानी ने भी कुछ-कुछ काम करना प्रारम्भ कर दिया था


"इसी चक्कर में दुनिया भर के खर्चे बढा डाले होंगे और काम तो पहले सी ही नहीं था"गुप्ता जी नतीजे पे पहुँचते हुए बोले



"पहले एक दुकान बिकी...फिर दूसरी...

उसके बाद कब तीसरी...चौथी...और पाँचवीं का नम्बर आ गया..कुछ पता नहीं"शर्मा जी बोले


"एक-एक करके इन्हीं के किराएदार...इन्हीं से दुकाने खरीद मालिक बनते चले गए"


"और ये मालिक से धीरे-धीरे कंगाल होते चले गए"मैँ अंतिम निर्णय पे पहुँचता हुआ बोला


"देख लो!...कैसे दौलत से भरा-पूरा उफनता घड़ा बूंद-बूंद रिसने से खाली हो गया"शर्मा जी मुझे समझाते हुए बोले ...

"आज हालत ये है कि कभी काम मिलता है और कभी नहीं"...

"अगर डेली के हिसाब से पल्लेदारी ना करें तो चूल्हा तक नहीं जलता है घर में कई बार"..

"काम चलाने के लिए कभी इसके आगे अँगूठा टेकते हैँ तो कभी उसके आगे"...

"रोज़ कोई ना कोई लेनदार अलसुबह उनके घर डेरा डाले रहता है"


"उनकी जगह मैँ होता तो ऐसे अपमान भरा जीवन जीने के बजाय कब का आत्महत्या कर चुका होता"मैँ आवेशित हो बोल उठा


"बस!..यही कारण...यही वजह समझ लो कर्ज़े से त्रस्त किसानों के आत्महत्या करने की"शर्मा जी मुझे समझाते हुए बोले ...


"लेकिन!....बैंको के डंडे में इतना दम कहाँ कि...

बेचारे गरीब किसान भय के मारे खुदकुशी करने पे उतारु हो जाएं?"बात मेरे पल्ले नहीं पड़ रही थी ...


"बेटा!..ये सब हालात के मारे वो किसान हैँ जिनका किसी ना किसी वजह से 'लोन'पास नहीं होता है और...

वो आखिरकार तंग आ के जा फँसते हैँ किसी सूदखोर...किसी महाजन या फिर किसी आढती के यहाँ"शर्मा जी मुझे समझाते हुए बोले


"अब इसे बैंक वालों की मनमर्ज़ी कह लो या कुछ और"....


"कुछ और माने?"अनुराग पूछ बैठा...


"यूँ समझ लो कि बिना खिलाए पिलाए...

काम करवाने की सोची होगी उन बेचारे बदनसीब किसानों ने"शर्मा जी उसकी शंका का निवारण करते हुए बोले...


"तो?....गलत क्या है इसमें?"काफी देर से चुप बैठी मैडम बोल पड़ी...


"अरे वाह!...आजकल तो अपने बच्चे को भी जब तक पाँच-दस रुपए का लालच ना दो...

अपना होमवर्क तक पूरा नहीं करता है"गुप्ता जी ने तुनक के जवाब दिया..


"और वैसे भी ये बैंक वाले तो छोटे-मोटे नहीं बल्कि...

भरपूर जवान और निहायत ही समझदार होते हैँ"मैँ सारी बैंक प्रणाली पे कटाक्ष कसता हुआ बोला...


"हम्म!...तो इसका मतलब...

इनका तो बिना खिलाए-पिलाए किसी भी कीमत पे फुद्दू नहीं खींचा जा सकता"अनुराग कुछ सोचता हुआ बोला...


"हज़ारों...लाखों क्या ऐसे ही फ्री में बाँट दें?"...

"आखिर!..हम तुम किसलिए काम करते हैँ?"...

"इस पापी पेट के लिए ही ना?"...

"तो वो भला!...फोकट में क्यों काम करे?"शर्मा जी भी समस्त बैंक वालों के पीछे पड़ चुके थे


"सही ही तो है!...जैसे हम सबने अपने बच्चे पालने हैँ...वैसे उन्होंने भी पालने हैँ"...

"क्यों!..है कि नहीं?"मैँ गुप्ता जी की तरफ देख हँसता हुआ बोला...


"गुप्ता जी ने कोई जवाब नहीं दिया...और देते भी कैसे?"...

"खुद भी तो बैंक वाले ही थे ना"


"बस!..जब बैंक से लोन पास नहीं होता है तो ये बावले किसान पहुँच जाते हैँ...सीधा देनदार की शरण में"....

"बेवाकूफ कहीं के"...

"महाजन...आढती...या फिर सूदखोर की शरण में?"मैँ चेहरे पे प्रश्नवाचक मुद्रा लिए अपना ज्ञान बघारते हुए बोला..


"एक ही बात है....पईस्सा मिलना चाहिए बस ...

अब वो आढती से मिले...या महाजन से...या फिर किसी सूदखोर से मिले"...

"क्या फर्क पढता है?"अनुराग चौधरी बन मेरी जिज्ञासा शांत करता हुआ बोला


"काम बनना चाहिए...भले ही जैसे भी बने"शर्मा जी अनुराग की बात पूरी करते हुए बोले

"हम में से हर कोई एक-दूसरे की बातचीत के बीच में टपक पड़ता था"....

"सबको लाईमलाईट में जो आने का चाव चढा हुआ था"


"बस उन नोटों पे अपने 'गान्धी बाबा' का फोटू ज़रूर छपा होना चाहिए"मैँ चुटकी लेता हुआ बोला


"अपना कम खा लें...ये मंज़ूर नहीं"...

"कोई ज़रूरी नहीं कि यूरिया और आर्टीफिशल खाद डाल-डाल के खेत के साथ-साथ जेब की भी ऐसी-तैसी की जाए"...

"अपना ढंग से काम करो और वैसे भी इस आर्गैनिक खेती में भी क्या बुराई है?

"लागत भी कम और टैंशन भी कम"दहिया अपनी समझदारी झाड़ता हुआ बोला...


"सही राय दे रहे हो किसानों को कि ...

"मज्झ वेच्च के घोड़ी खरीदो...ताकि ओ भोले भण्डारी दुध तूं वी जाण नाल्ले लीद् अलग तूँ चुकणी पय्ये"शर्मा जी गर्म होते हुए बोले


"मतबल्ल?"अनुराग ने अचकचा कर पूछा


"मतबल्ल नहीं!...मतलब बोल मेरे लाल"मैँ अचानक बुज़ुर्गियत पे आ गया ...


"हाँ!...हाँ वोही...एक ही बात है"अनुराग के पास झेंप मिटाने को कोई जवाब ना था


"तो सुन मेरे लल्ला!...शर्मा जी की बात का मतलब ये है कि ...

"गाय-भैंस बेच के वो घोड़ी खरीदें...ताकि ....घी-दूध से भी जाएं और...लीदद अलग से उठानी पड़े"


"मतबल्ल?...ऊप्स!...सारी...मतलब?"अनुराग की गाड़ी वहीं अटकी रही ...


"मतलब ये मेरे लाल!..कि इस आर्गैनिक खेती के चक्कर में तगड़ी फसल से भी वंचित रहें और...

हाथ-पैर सब गोबर से सने रहें...सो अलग"मैँने हँसते हुए जवाब दिया


"क्यों?...अगर किस्मत ने ज़ोर मारा तो यदा-कदा दूरदर्शन के कृषिदर्शन सरीखे कार्यक्रम में. ..

बतौर सैलीब्रिटी आने का चांस भी तो मिल सकता है"अनुराग और मेरी बात ना काटे...ऐसा भला कैसे हो सकता था?"..



"अच्छा?"दहिया ने हैरान होते हुए कहा...


"हम्म!...फिर तो और भी बढिया है ...क्यों राजीव?"...

"पैसे का पैसा...नाम का नाम"

"बोनस स्वरूप सेहत भी ठीक रहेगी... उनकी भी और...पब्लिक की भी"...


"डाक्टर-वैध का खर्चा भी कम"अनुराग और खूबियाँ बताने की गर्ज़ से बोला


"लेकिन कोई माने तब ना"..

"फसल कटने पे बोरों के चट्टे लगे नज़र नज़र आने चाहिए जो कि आर्गेनिक खेती में संभव नहीं"दहिया के स्वर में निराशा का पुट था....


"फसल ज़्यादा उतरनी चाहिए पर किल्ले के हिसाब से"...

"बाद में भले ही.....

मंडी में ज़्यादा आवक आने की वजह से कोई भाव ना दे"अनुराग और दहिया की जुगलबंदी ने हम सबको मूक कर दिया था


"और आखिर में निराश हो कौड़ियों के भाव अपना माल लुटा...

मायूस चेहरा लिए वापिस लौटना पड़े"उनका पलड़ा भारी देख मैँ भी उन्हीं के साथ हो लिया


"बात वहीं की वहीं पड़ती है "...

"भले ही इस सब के लिए 'खेत-खलिहान' के कागज़ सूदखोर के पास गिरवी क्यों ना रखने पड़ें"...

"वो भी एक या दो टके महीने के ब्याज पे नहीं...पूरे पाँच टके ब्याज पे"...

"कोई-कोई बेवाकूफ तो दस टके के हिसाब से भी अँगूठा टिका आता है"शर्मा जी भी कोई और चारा ना देख हमसे सहमति जताने लगे ...


"ऊपर से इन सूदखोरों का डण्डा ऐसा तगड़ा होता है कि,...बस पूछो मत"...

"वो देना भी जानते हैँ तो लेना भी जानते हैँ"बेनाम सज्जन भी यदा-कदा एक आध तीर चलाने से नहीं चूक रहे थे .......


"उनके लठैतों के नाम से ही अच्छे-अच्छों का बीच पैंट में ही.."मैडम जी का ख्याल रखते हुए मैँने बात अधूरी छोड़ दी ..


"इन बेचारे गरीब किसानों की औकात ही क्या है"...

"ये किस खेत की गाजर मूली हैँ?"दहिया जी एक बार जो बोलने लगे तो बोलते ही चले गए ...

"दहशत ही इतनी होती है कि कर्ज़ ना चुका पाने की हालत में सिवाय खुदकुशी के कोई और चारा नहीं रहता उनके पास"


"लेकिन!..अब तो सुना है कि सरकार इन आढतियों या महाजनों के कर्ज़े को बैंक लोन में बदलने पे विचार कर रही है"...

"मैँने उड़ती-उड़ती सी खबर सुनी है"अनुराग कुछ याद करता हुआ बोला


"विचार ही कर रही है ना?"शर्मा जी उस की बुद्धिमानी पे तरस खाते हुए बोले...


"अब बन्दे के दिमाग में विचार तो पता नहीं कितने उमड़ते-घुमड़ते रहते हैँ"...

"कोई उन्हें अमल में थोड़ी ही लाता है"मैडम ने शर्मा जी की बात से सहमति जताई...


"अब ऐसे तो मेरे मन में बिना नागा ऐश्वर्या से शादी करने का विचार हर घंटे दो घंटे बाद टपकता ही रहता है...

"तो क्या मैँने उससे सचमुच में शादी कर ली?".....

"नहीं ना!..."मैँ हँसता हुआ बोला...


"हाँ...हाँ!...वो तो जैसे अभिषेक से तलाक ले तैयार ही खड़ी है ना शादी करने के लिए"अनुराग मेरा माखौल उड़ाते हुए बोला..


"लेकिन...अपने इन राजीव महाशय के पास कहानियाँ लिखने से फुरसत हो तब ना"...

"क्या करे ये बेचारा भी?"....


"वर्क लोड ही इतना है अगले पे कि....

पल दो पल के लिए आँखें झपकाने को भी तरसता है"दहिया मेरी रात-रात भर जाग कर कहानियाँ लिखने की आदत पे कटाक्ष करता हुआ बोला


"सरकारी कानून के हिसाब से वो गरीब किसान जिनके पास कम ज़मीन है ....

उन सभी का कर्ज़ा माफ किया जाना है"गुप्ता जी बैंक का सर्कुलर निकाल पढते हुए बोले


"मतलब...जिनके पास कम ज़मीन है उन सभी का लोन माफ हो जाएगा?"मैँ अपने लोन को याद करता हुआ पूछ बैठा


"क्यों नहीं?"गुप्ता जी के बजाए इस बार शर्मा जी ने उत्तर दिया


"फिर तो ठीक है...बहुत बढिया"मेरे चेहरे पे संतुष्टि का भाव था...


"राजीव!...तुमने भी तो लोन लिया हुआ है ना?"


"जी!...जी शर्मा जी"...


"तुम्हारा तो बिल्डिंग मैटिरियल का काम है ना?"


"जी"...

"लेकिन लोन तो किसानों को दिया गया था ना ?"शर्मा जी असमंजस भरे स्वर में पूछ बैठे


"जी...जी!...वो तो मैँने अपने 'जीं.टी'रोड वाले फार्म हाउस के कागज़ात दिखा कर लोन पास करवा लिया था कि ट्रेक्टर लेने हैँ"


"तो इस समय तुम्हारे पास कितने ट्रेक्टर हैँ?"दहिया मेरी तरफ ताकते हुए बोला


"जी!...फिलहाल तो इक्कीस हैँ...और परसों एक और लेना है...

कागज़ात तैयार हो चुके हैँ...पूरे बाईस हो जाएंगे"मैँ छाती फुला गर्व से बोला


"इतने ट्रेक्टर?...तुम्हारे चार किल्ले के फार्म हाउस के लिए?"

"कुछ ज़्यादा नहीं है खेती के हिसाब से?"अनुराग हैरान होता हुआ बोला


"हा हा हा....खेती हो मेरे ठेंगे पे"...


"अपना फार्म हाउस तो बारहों महीने बुक रहता है कभी शादी-ब्याह और पार्टियों के नाम पर....

तो कभी किसी के चौथे या उठाले के नाम पे"


"तो फिर इन इक्कीस ट्रेक्टरों का क्या करते हो?"शर्मा जी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था


"वो?...वो तो पूरे शहर में मिट्टी मलबा ढोने का काम करते रहते हैँ ना दिन भर"...


"यार!...तुम इतने सारे काम संभाल कैसे लेते हो?"दहिया मेरे कन्धे पे धौल जमाते हुए बोला ..



"अब अपने को क्या ज़रूरत है संभालने की?"...

"अपने आप देखते हैँ ठेकेदार...जिन्हें मैँने एक मुश्त ठेका दिया हुआ है पूरे साल का"...


"वैसे!...तुम्हारे उधर ज़मीन का रेट क्या चल रहा होगा?"


"शर्मा जी!...दो करोड़ रुपए किल्ले(एकड़)के हिसाब से तो लग लिए...कई बार"

"बस अपना मूड ही नहीं है देने का"

"अब इतना पैसा कहाँ ले के जाएंगे?".. .

"खाने को दो रोटी...तन ढकने के के लिए कपड़े और... रहने के लिए छत मिल जाए बस"...

"और क्या चाहिए?"...

"यही बहुत है आज के ज़माने में"

"अपुन ने तो डीलर से साफ साफ कह दिया है कि जब तक तेरे पास....

पाँच खोखे (करोड़)..पर किल्ले के हिसाब से आवाज़ ना आ जाए...मेरी ज़मीन की तरफ ताकियो भी मत"मैँ गर्व से बोला


"वही फार्म हाउस?...जहाँ तुम रिसार्ट बनाने की प्लानिंग कर रहे हो"दहिया मेरी तरफ देखता हुआ पूछने लगा


"जी!...जी हाँ...वही"

"हाँ गुप्ता जी!...इसी बात पे एक बात याद आई ...

रिसार्ट के लिए भी लोन चाहिए होगा"

"मिल जाएगा ना?"


"क्यों नहीं"...

"बस इतना याद रखना कि मैँ भूलने वाली चीज़ नहीं हूँ"


"कमाल करते हो गुप्ता जी आप भी...पहले कभी भूला हूँ आपको?...

जो इस बार भूल जाउँगा"...

"आप ही बताएं कि हर बार बिना कहे आपका हिस्सा अपने आप पहुँच जाता है कि नहीं?"...


"वो सारी बात तो सही है लेकिन आजकल तुम बहुत बिज़ी रहने लगे हो ...

इसीलिए सोचा कि याद दिला दूँ"...


"बाकि सारी बातें तो ठीक हैँ लेकिन इतना ध्यान रहे कि चैकिंग के वक्त ..

दिखावे भर को वहाँ खेती होती हुई दिखनी चाहिए"

"बाकि मैँ संभाल लूँगा"गुप्ता जी मुझे चेताते हुए बोले


"उसकी चिंता ना करें"...

"चौक से बिहारी पकड़ के ले आएंगे...दो चार दिन के लिए...

"आप बस फोन कर देना कि कब चाहिए होंगे"



"हाँ तो शर्मा जी!...जैसे कि हम बात कर रहे थे कि...

सरकार लोन माफ करने पर विचार कर रही है"...

"तो असल बात ये है कि लोन माफ होंगे और ज़रूर होंगे लेकिन सिर्फ हम जैसे गिने-चुने लोगों के"...

"जिनकी इन सरकारी बैंको में अच्छी पैठ होगी"मैँ हँसता हुआ बोला


"सही है!...बाकि तो बस यूं समझ लो कि एक प्यारा सा सपना दिखाया जा रहा है आम जनमानस को कि...

किसान खुशहाल होगा...अनाज सस्ता होगा..मँहगाई कम होगी वगैरा...वगैरा"शर्मा जी भी मेरी बात से सहमत दिख रहे थे


"हमारे देश में मोबाईल...टीवी...कंप्यूटर...

कार...स्कूटर...सब सस्ता हो सकता है लेकिन अनाज नहीं"दहिया भी अचानक तैश खाते हुए भड़क उठा...


"सुनो सब के सब!...बाहर का माल बेशक सस्ता हो मुफ्त बराबर तक मिलने लग जाए लेकिन...

ये ख्वाब देखना छोड़ दो कि अनाज सस्ता हो जाएगा"अचानक अखबार का भोंपू बना मैँ हिस्टीरियाई अन्दाज़ में चिल्लाया


"क्या हुआ राजीव?..."सब मेरे इस अचानक बदले रूप से भौंचक थे


"शर्मा जी अब आप ही बताओ कि क्या करे....कहाँ जाए आम इंसान?"

"एक तरफ खाने-पीने की ज़रूरी चीज़ें दिन दूनी रात चौगुनी तेज़ी से मँहगी हुए जा रही हैँ और ...

दूसरी तरफ रोज़ देखने को मिलता है कि राशन का गेहूं...मक्का प्लैटफार्म पर पड़ा-पड़ा सड़ता रहता है लेकिन....

कोई खोज-खबर लेने वाला ही नहीं होता"....


"क्यों क्या हुआ?"...


"अभी परसों की ही तो बात है...

देखा नहीं था कि आदर्श नगर रेलवे स्टेशन पर पूरी दो मालगाड़ी सरकारी अनाज की उतरी"....


"फिर?"...


"ऐसे बेतरतीब ढंग से माल बिखरा पड़ा था कि बस पूछो मत"...

"आधे से ज़्यादा बोरियाँ तो फटी पड़ी थी"...

"पता नहीं कितने किवंटल अनाज तो पटरियों पे पड़ा-पड़ा सड़ रहा था"


"हाँ!...मैँने भी देखा था ...

जिसका जितना मन कर रहा था...उतना वो झोला भर-भर ले जा रहा था"अनुराग मेरी हाँ में हाँ मिलाता हुआ बोला ...


"और ले के भला कोई क्यूँ ना जाए?"...

"कोई रोकने वाला...कोई टोकने वाला जो नहीं था वहाँ"


"ऊपर से इन मुय्ये चूहों की तो मौज लग गई थी...

पता नहीं कहाँ कहाँ से दुनिया भर के...

गज-गज भर लम्बे...ये मोटे-मोटे चूहे इकट्ठे हो गए थे कुछ ही पल में वहाँ"...

"सुना है कि!...कुछ एक 'एन.आर.आई' चूहे तो सीधा चार्टेड फ्लाईट पकड़ कर...

अफरा-तफरी के इस माहौल में हाँफते-हाँफते आ पहुँचे थे कि कहीं ये सुनहरा मौका हाथ से ना गवां बैठें"


"चार्टेड फ्लाईट से?"...

"जी हाँ!...चार्टेड फ्लाईट से ...

उन्हें स्पैशल दावत का न्योता जो भेजा गया था आदर्श नगर प्लेटफार्म की 'रैज़ीडैंट चूहा वैलफेयर एसोसिएशन'की तरफ से कि...

आ जाओ बे-खौफ...बेखटके..

कोई वली-वारिस नहीं है इस सैंकड़ों टन अनाज का"...

सुना है!.. सबने एक-दूसरे की देखा-देखी आने वाले छै से आठ महीने तक का राशन जुटा लिया था और...

अब कांडला पोर्ट के लिए सभी कंटेनरज़ के ऑलरैडी बुक होने के कारण मायूस चेहरा लिए इंतज़ार कर रहे हैँ कि....

कब उनका नम्बर आए और कब वो अपना माल बुक करवा वापिस अपने देश पहुँचे"

"आफ्टर ऑल...अपने घर के मुकाबले सब बेकार लगता है बिकाज़ ...'होम..स्वीट होम"


"हुँह!...सम्भालो अपनी धर्मशाला...मैँ तो चला अपना झुल्ली-बिस्तर उठा के"कहता हुआ अनुराग एक झटके से उठने को हुआ


"क्या हुआ?"शर्मा जी के स्वर में हैरानी थी...


"कुछ नहीं?"...


"बताएगा भी कि...क्या हुआ है ऐसा जो तू अचानक एक दम से भड़क खड़ा हुआ?"...


"कहा ना शर्मा जी!...कुछ नहीं हुआ है"...


"दूँ खींच के एक लाफ्फा?"...

"तुझे मेरी कसम"...

"सच्ची-सच्ची बता कि...क्या हुआ है"


"अब क्या बताऊँ शर्मा जी?..आप खुद समझदार है"..

"पिछली पूरी तीन कहानियों से ये राजीव का बच्चा गोली दे रहा है कि...

अब तेरे करैक्टर में जान डालूँगा...अब तेरे करैक्टर में जान डालूँगा लेकिन...

हर बार बस कहानी अपने ऊपर ही घुमाता रहता है"


"अब इस बार की कहानी को ही लो ....

गरीब मज़दूरों से लेकर किसानों की समस्याओं तक का जिक्र किया इसने"...

"टाकीज़ के बारे में बताया....बैंको की लोन प्रणाली की खामियों को उजागर किया...

और तो और...इस कंबख्त ने मुझे इशारों-इशारों में (gay)तक बनाने की कोशिश की लेकिन...

मैँने कुछ कहा?"..

"नहीं ना?"...

"इस से भी जब मन नहीं भरा तो मेरे कानों में लीद तक लगाने लगा"

"मैँने फिर भी कुछ नहीं कहा कि...लेखक का हुक्म ...सर आँखों पर"...


"इस राजीव के बच्चे को मुझसे पता नहीं क्या वैर है कि...

जब कभी भी मेरा रोल स्ट्रांग होने को होता है ...

वहीं यू टर्न ले कर बाज़ी फिर से अपने फेवर में कर लेता है"


"मेरे किरदार को उभारने का नाम ही नहीं लेता और...

मैँ बेचारा इस इंतज़ार में कि अब मुझे बढिया डायलाग मिलेंगे...अब बढिया डायलाग मिलेंगे...

जो भी जैसे भी घिसे-पिटे डायलाग थमाता है...मैँ चुपचाप उन्हें बोल देता हूँ"...

"कोई मेरी इज़्ज़त है कि नहीं"...

"शराफत की भी हद होती है"


"मेरे?...मेरे डायलाग घिसे-पिटे हैँ?"मैँ आवेशित हो बोला


"हाँ!...हाँ तुम और तुम्हारे डायलाग...दोनों महा बकवास"...

"एकदम घिसे पिटे"...


"शश्श!..अनुराग...ऐसे नहीं बोलते...इतना गुस्सा ठीक नहीं"


"शर्मा जी!...आखिर में तो इसने हद ही कर दी ...

पता नहीं क्या सोच के इस बेवाकूफ ने अच्छी भली चल रही कहानी को चूहों की तरफ मोड़ दिया"...

"वो भी छोटे-मोटे नहीं...ये लम्बे-लम्बे"अनुराग अपनी बाहें फैला चूहों का साएज़ बताता हुआ बोला

"हुँह!बड़ा आया...मुझे भूखा तरसता छोड़ ये चूहों की दावत करवाने चला है"...

"अरे!..जा जा ...छत्तीस देखे हैँ तेरे जैसे स्क्रिप्ट राईटर दिल्ली और मुम्बई की गलियों में धक्के खाते हुए"...

"कोई काम देने वाला नहीं मिलता"...

"शुक्र कर!...ये तो हम हैँ कि जो भी...जैसी भी उल्टी-सीधी कहानी लिख के लाता है...

बड़े चाव से आधी-अधूरी पढने के बाद बेफाल्तू की झूठी वाह-वाह कर देते हैँ कि....

तू दिन-रात एक कर के कागज़ काले कर रहा है"...


"सो!...थोड़ा मन तो रख ही लें तेरा"

"वैसे भी इसमें हमारे बाप का क्या जाता है?"...


"अब अगर तू महा बेवाकूफ !...इस सब झूठी वाहवाही को सच समझ लें तो इसमे हमारा क्या कसूर?"


"अरे बावले!...बढिया स्क्रिप्ट राईटर वो होता है जो कम से कम शब्दों में अपनी बात कह दे"...

"तेरे जैसा नहीं कि लगा रहे हरदम कीबोर्ड पे उँगलिया चटखाने"...

"ले टकाटक और....दे टकाटक"


"वैसे अनुराग की बात में दम है...क्यों राजीव?"शर्मा जी मुझ से मुखातिब होते हुए बोले...


"शर्मा जी!...मानता हूँ कि आप और अनुराग दोनों सही कह रहे हैँ लेकिन...

मैँ करूँ भी तो आखिर क्या करूँ?"...

"जब भी लिखने बैठता हूँ तो जो कुछ भी मन में उमड़-घुमड रहा होता है...

उसे सीधे सरल शब्दों में कागज़ पे उतार लेता हूँ"..

"अब ये राजीव बेचारा कुछ करे भी तो आखिर क्या करे?"...

"अपने देश में समस्याएं ही इतनी हैँ कि एक का जिक्र करो और दूसरी का ना करो तो अगले दिन नाराज़ बैठी पाएगी"

"इंफीरियरटी काम्पलैक्स जो हो जाता है उसे कि....इसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफेद कैसे?"



"बात तो तुम सही कह रहे हो....हर जगह ही तो समस्यायों के अम्बार लगे हैँ"...

"अब अगर उनका ढंग से जिक्र नहीं किया तो अच्छे व्यंग्यकार कैसे कहलाओगे?"


"जी..."...


"कोई बात नहीं ....

तुमने सबसे अलग तरीका अख्तियार किया हुआ है अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का"...

"लगे रहो!...एक ना एक दिन कामयाबी तुम्हारे कदम चूमेगी"


"धन्यवाद!..शर्मा जी"


"लेकिन इस बार!..अपनी कहानी में जो तुमने हम सभी को रोल दिया है"..


"जी!..."


"मेरे ख्याल से सभी के किरदारों को उनके हक के बराबर स्पेस मिलनी चाहिए"...


"क्यों?..है कि नहीं"...


"जी!..शर्मा जी...आपका कहना बिलकुल दुरद्स्त है"......

"दरअसल हुआ क्या कि इस बार कहानी कुछ ज़्यादा ही लम्बी होकर....

एक या दो भागों में नहीं बल्कि पूरे पाँच भागों में समेटी गई है मुझसे"....


"पहले इरादा तो नहीं था ऐसा लेकिन रोज़ अखबार में नई-नई खबरें पढने को मिल रही थी तो...

मैँने सोचा कि मेरी कहानी को भी अपडेट होना चाहिए माहौल के हिसाब से"...


"तो क्या?...इस कहानी को अभी और लम्बा खींचने का प्रोग्राम बना रहे हो"शर्मा जी कुछ-कुछ घबराते हुए बोले...


"नहीं!...नहीं शर्मा जी...बस एक पार्ट और है"...

"उसके बाद कहानी खत्म"....


"पक्का?..."..


"जी!...बिलकुल पक्का..अगली बार कहानी खत्म"...

"गॉड प्रामिस"...

"और हाँ अनुराग!..उसमें तुम्हें भरपूर मौका दूँगा"...

"जितना जी चाहे अपने दाव-पेंच ..अपना कौशल दिखा लेना"...

"फिर ना कहना कि तुम्हें मौका नहीं दिया"मैँ हँसता हुआ बोला


"और तुम्हारी उस 'कम्मो चूरन वाली'का क्या होगा?"अनुराग कौतुक भरे चेहरे से बोला...


"क्या वो बस यूँ ही चूरन बेचती-बेचती अपनी ज़िन्दगी गुज़ार देगी?"शर्मा जी के चेहरे पे भी प्रश्न था..


"शर्मा जी!...अगली कहानी में उसका भी काम तमाम कर दूँगा"....

"ऊप्स!...सॉरी...उसे बहुत बढिया रोल दूँगा"...

"बस आप देखना...जी ना खुश हो जाए तो कहना"...

"तो इंतज़ार रहेगा ना...मेरी आखरी कहानी...ऊप्स!...सॉरी ..अगली कहानी का?....

"अभी इतनी जल्दी मेरी आखरी कहानी कहाँ?"...

"अभी तो बहुत जान बाकी है इन हाथों में...

ऊप्स!...सॉरी...अभी तो बहुत जान बाकि है इस शैतानी खोपड़ी में"मैँ हँसता हुआ बोला..


"अरे वाह!..ये तो बड़ा ही शानदार टाईटल मिल गया"...

"क्यों सही रहेगा ना शर्मा जी?...


"तो ठीक है!...मेरी इस कहानी का टाईटल है...

"अभी तो बहुत जान बाकी है"


"सही ही तो है!...अभी तो बहुत जान बाकी है...

ज़ुल्म करने वालों में भी और ज़ुल्म सहने वालों में भी"...


"अभी तो बहुत जान बाकी है मुश्किलें पैदा करने वालों में भी और...

मुश्किलों को हँसते-हँसते पार करने वालों में भी"



"हाँ!...अभी तो बहुत जान बाकी है...

मुझमें लिखने की और..मुझे पढने वालों में भी"

"तो बेटा राजीव!...हो जा शुरू...दे टकाटक और ले टकाटक"


***राजीव तनेजा***


http://hansteraho.blogspot.com

rajivtaneja2004@gmail.com

Rajiv Taneja

Phone No:+919810821361,+919896397625

"श्श्श!...कहानी अभी बाकी है"

"शश्श!...कहानी अभी बाकी है"


***राजीव तनेजा***


"अरे!...कुछ खबर भी है कि कितना बड़ा कांड हुआ है गन्नौर स्टॆशन पे?"अनुराग सस्पैंस सा क्रिएट करता हुआ बोला...


"कब?"...

"क्या हुआ?"उसकी आवाज़ सुन मेरे मुँह से बस यही निकला


"उत्सुकता वश अगले पिछले सभी डेली पैसैन्जरों के कान भी हमारी तरफ हो लिए"......


"छापा था क्या?"एक की आवाज़ आई...


"ज़रूर!..मजिस्ट्रेट चैकिंग रही होगी"दूसरा बोल पड़ा


"सब इस 'लालू' का किया धरा है"....

"खुद तो चारे तक को नहीं बक्शा और अब पड़ गया है पीछे इन भोले 'टीटियों' की पूरी जमात के कि...

"पूरे नकद गिन के चाहिए 'इक्यावन हज़ार' हर महीने" ...

"कैसे वसूलने हैँ?..तुम जानो....तुम्हारा काम है"गुप्ता जी ऊपर वाली बर्थ पे लेटे-लेटे अपना कमैंट देते हुए बोले


"हुँह!...शक्ल नहीं है संत्री की भी ...बड़ा आया रेल मंत्री"....

"उसे तो बस!...कैसे भी कर के हर हाल में सरकारी खजाना भरता दिखना चाहिए"....


"भले ही वो हम डॆली पैसैंजरों के खून पसीने की गाढी कमाई पे हाथ साफ कर के क्यों ना हो"अनुराग बात आगे बढाता हुआ बोला


"वर्ना...तैयार रहो पोस्टिंग के लिए"...

"यही धमकी दी होगी"दहिया भी पीछे कहाँ रहने वाला था ....


"सुना है!...सीधा बिहार ले जा..पटकने की धमकी देता है"


"सही ही तो है!...बड़ा 'बिहारी'...ओए 'बिहारी' कह के चौड़े होते हो ना यहाँ हरियाणा में"

"पहुँचो तो सही एक बार बिहार...फिर पता चलेगा बच्चू"चने बेचता हॉकर भी बिहारियों की तरफदारी करता हुआ डॉयलाग मार बैठा

"कट्टे...लाठी....बल्लम के दम पे सब सिखा देंगे कि बिहारी कौन और हरियाणवी कौन"वो अपनी तेल चुपड़ी मूंछो को ताव देता हुआ आगे बढ गया


"जब से लालू का सख्त आर्डर हुआ है तब से तो ये नई भर्ती वाले पहलवान स्साले!..बिलकुल नहीं बक्शते"...

"भले ही डेली पसैंजर होने का लाख रोना रो लो...कोई परवाह नहीं"दहिया अपना दुखड़ा गा गा सुनाते हुए बोला...

"आखिर भुग्तभोगी जो ठहरा"...


"हमारी तरह ग्रुप में बैठा करो...कोई कुछ नहीं कहेगा"मैँ उसे समझाते हुए बोला


"अरे!...डेली पसैंजरों के ग्रुप को भी कम से कम एक पर्ची कटवाने पे मजबूर कर डालते हैँ कई बार"शर्मा जी भी कहाँ चुप रहने वाले थे


"अरे!...उनकी छोड़ो...उनका तो काम है पर्ची काटना"....

"तनख्वाह मिलती हैँ उन्हें इस सब की"...

"मैँने तो यहाँ तक सुना है कि उनको ठेके पे वसूली के लिए रखा गया है"गुप्ता जी बोले


"तुम उस दिन वाली अपनी बात सुनाओ ना"दहिया मेरी तरफ देख एक आँख दबा मुस्कुराता हुआ बोला...


"क्यों?...क्या हुआ था तुम्हारे साथ ?"अनुराग सहित सबकी निगाहें मेरी तरफ थी


"अरे!...मत पूछ बावले कि क्या हुआ था मेरे साथ"....

"ये पूछ कि...क्या-क्या नहीं हुआ था मेरे साथ"मैँ ठंडी सांस लेता हुआ अनुराग से बोला

"मेरा तो स्साला!..दिन ही खराब था"...

"अच्छी भली बीवी मुझ से चिपकते हुए कह रही थी कि...अजी सुनते हो!..मौसम बड़ा रोमांटिक हो रहा है"....

"क्या करोगे जाकर?...यहीं घर पर ही आराम कर लो ना"मैँ बीवी की आवाज़ की मिमिक्री सी करता हुआ बोला


"फिर?..."अनुराग मेरी ही तरफ ताके चला जा रहा था


"अब मैँ राजीव!...उस भोली भंडारन को कैसे समझाता कि मेरा आज का दिन तो पहले से ही अपनी सोलहवीं माशूका के नाम आलरैडी बुक्ड है"

"इसलिए कोई चांस ही नहीं बनता छुट्टी का"


"आफ्टर ऑल...कमिटमैंट इज़ कमिटमैंट"गुप्ता जी भी हमारी बातों का पूरा आनन्द लेते हुए बोले ...


"वायदा तो आखिर वायदा होता है"दहिया भी बीच-बीच में अपनी एंटरी दर्ज करवाना नहीं भूल रहा था...


"जी"...


"जो वायदा किया वो निभाना पड़ेगा"अनुराग ने कान पे हाथ धरा और लम्बी तान ले शुरू हो गया


"सो!...कैसे तोड़ देता मैँ उस अबला नारी का विश्वास?"...

"अपने बड़े बुज़ुर्ग भी तो कह गए हैँ कि 'प्राण जाए पर वचन ना जाए' "मैँ हँसता हुआ बोला


"वैसे भी रोज़-रोज़ एक ही पत्तल में दही-चिड़वा खाना कहाँ भाता है?"गुप्ता जी हँसते हुए बोले


"फिर तो!..खूब मज़े किए होंगे?"अनुराग ने उत्सुकता से पूछा


"मज़े?....


"अरे!...उस दिन तो एक टिकट में दो दो मज़े करवा डाले थे ऊपरवाले ने?"मैँ कानफीडैंस से बोला


"एक टिकट में दो दो मज़े?"लेटे हुए गुप्ता जी एकदम से उठ कर बैठ गए


"बिलकुल..."मेरा आत्मविश्वास देखते ही बनता था ...


"समझा नहीं...ज़रा खुल के समझाओ"गुप्ता जी के चेहरे पे नासमझी का सा भाव था....


"वो कहते हैँ ना....मीठा भी नमकीन भी... एक ही थाली में"मैँ हँस पड़ा


"क्यों पहेलियाँ बुझा रहे हो यार?....सीधे सीधे बताओ ना"अनुराग बोर हो उबासी लेता हुआ बोला


"तो सुन मेरे लल्ला!...जहाँ ये टीटी लोग हमसे पैसे वसूला करते हैँ ना...वहीं मैँ उल्टा उन्ही से वसूल लाया था"



"क्या बात कर रहे हो?"बैंकर होने के नाते पैसे की बात सुनते ही गुप्ता जी की आँखों से नींद गायब हो चुकी थी


"मैँ तो नहीं मानता"....

"ऐसा तो किसी भी कीमत पे हो ही नहीं सकता"अनुराग यकीन ना करने के मूड में था


"तो जा के पूछ लो ना फिर उस ठिगने टीटी के बच्चे से खुद ही कि....

पूरे ग्यारह सौ गिन के धरे थे इस 'राजीव' की हथेली पे या नहीं"मैँ एक साथ अपनी आँखे और हाथ नचाता हुआ गर्व से बोला

"अपने आप पता चल जाएगा कि सही कह रहा हूँ या फिर गलत"


"सही कह रहे हो....साँप की बाँबी में हमें ही हाथ धरने की कह रहे हो"....

"ऐत्थे सान्नू ओहदे नाम नाल्ल ही गश आन नूँ फिरदा ए....

अते तू कहणा ऐ कि सिद्दा ओहदे सामणे जा के खड़े हो जाईए कि...

"आ गए जी अस्सी...हुण जी भरर के वड्ढ देओ सान्नू"शर्मा जी कब हिन्दी से पंजाबी में शुरू हो गए...उन्हें खुद नहीं पता


'मति नहीं मारी गई है हमारी जो हम बेफाल्तू में खुद ही पंगा मोल ले के बैठ जाएं"सभी एक साथ इनकार करते हुए बोले


"तुम खुद ही बताओ ना...क्या हुआ था?"आश्चर्य और अविश्वास दोनों भाव गुप्ता जी के चेहरे पे एक साथ उभर उठे


"वत्स!..वैसे तो मैँने सोचा हुआ था कि उस दिन का जिक्र कभी किसी से नहीं करूगा लेकिन...

आपकी भोली सूरत पे ये प्रश्नवाचक चिन्ह मंडराता देख कैसे इनकार करे ये राजीव?" मैँ बाबाओं के माफिक गरदन हिलाता हुआ बोला


"तो सुनो भग्त!...दरअसल हुआ क्या कि उस दिन कुछ मूड तो पहले से ही ऑफ था मेरा और...

ऊपर से रही सही कसर इस स्साले मजिस्ट्रेटी छापे ने पूरी कर दी"मैँ सारी मंडली को प्रवचन सा देता हुआ बोला


"वो कैसे?"....


"पहले तो कार के बजाय ट्रेन में आने की कहने से ही फोन पे माशूका से बहसा-बहसी हो गई" ...


"उफ!...इन लड़कियों को भी ना...पैसे बचाता बन्दा एकदम बकवास लगता है"शर्मा जी को शायद कोई पुरानी बात याद आ गई थी...


"बिना सोचे समझे सीधा कंजूस मक्खीचूस की उपाधी तक दे डालती हैँ"वो अपना तजुर्बा बताते हुए बोले


"खास कर के तब!..जब वो पति नहीं...आशिक हो"अनुराग ने बात पूरी की


"वैसे भी अगली को खुद अपने दिमाग पे ज़ोर दे के सोचना चाहिए कि...

वो पहली-दूसरी नहीं बल्कि...सोलहवीं या फिर सत्रहवीं माशूका है"मैँ उँगलियों पे गणितीय हिसाब सा लगाता हुआ बोला...


"ऐसे नखरे दिखाना शोभा नहीं देता उसे"

"क्यों?...उसे क्या सपने में आना था कि वो तुम्हारी सोलहवीं या फिर सत्रहवीं माशूका है"शर्मा जी मेरी तरफ देखते हुए बोले


"क्यों आँखें नहीं थी क्या उसकी जो मेरे ये धौले( सफेद) बाल ना देख सकी?"मैँ अपने सर पे हाथ फिराता हुआ बोला


"देख नहीं सकती थी क्या कि...

उम्र के इस चालीसवें पड़ाव के हिसाब से ये राजीव तो एक दम से खेला-खाया व्यक्ति होना चाहिए?"अनुराग मैडम की तरफ ताकता हुआ बोला


"बिलकुल!...बिलकुल सही बात"शर्मा जी भी अनुराग से हाथ मिलाते हुए बोले


"पूरे चार घंटे!...पूरे चार घंटो तक स्सालों ने घुटनों के बल उकडूँ बिठाए रखा कि...

"बेटा!...इंतज़ार कर"...

"मैजिस्ट्रेट साहब आने ही वाले हैँ"...

"वही करेंगे तेरा निबटारा"अपनी तरफ से ध्यान हटता देख मैँ बीच में ही बोल पड़ा


"फिर...?"अनुराग मेरी तरफ ताकते हुए बोला...


"फिर क्या?...उस स्साले! ... मैजिस्ट्रेट के बच्चे को फुरसत हो तब ना"...

"सुबह से दोपहर होने को आई थी...लेकिन जनाब का कोई पता ठिकाना नहीं"...

"पता नहीं कहाँ सिर सड़ा रहा था?"


"पट्ठे को झाड़ू-पोंचे से लेकर बर्तन सफाई तक सारे काम उसी दिन ही निबटाने होंगे"गुप्ता जी हँस पड़े....


"क्यों...मजिस्ट्रेट क्या जोरू का गुलाम था?"कॉफी देर से मौन बैठी मैडम भी हमारी गुफ्तगू का आनंद लेने लगी थी


"अब ये तो पता नहीं"मैँने छोटा सा जवाब दिया....


"वैसे भी इसे अपनी माशूका के बारे में सोचने के अलावा फुरसत ही कहाँ रही होगी कि...

ये ऐसे फाल्तू सवालों के जवाब ढूँढता फिरता"अनुराग मेरी तरफ इशारा कर कटाक्ष करता हुआ बोला


"यहाँ स्साली!..देर पे देर हुए चली जा रही थी और....

वो था कि आने का नाम ही नहीं ले रहा था"मैँ अनुराग की बात अनसुनी कर बोलता रहा...


"उफ!...ये वैलैंटाईन भी पता नहीं क्या-क्या गुल खिलवाएगा"मैँ आने वाले समय को याद करता हुआ बोला


"अब ये 'वैलैंटाईन' का तुम्हारे इस किस्से से क्या कनैक्शन है?"शर्मा जी पूछ बैठे


"शर्मा जी!...वैलैंटाईन का ही तो महीना चल रहा था ना वो"मैँ मोबाईल में कलैंडर दिखाता हुआ बोला


"मैँ ऑलरैडी लेट पे लेट हुए जा रहा था और वो जज का बच्चा था कि आने का नाम ही नहीं ले रहा था"


"पट्ठे ने भी कोई ना कोई माशूका पटा रखी होगी"अनुराग बोल उठा..


"वैल्ल गैस्ड...."मैँ अनुराग की तारीफ करते हुए बोला

"हाँ!..उसी की खातिर ही तो पता नहीं कहाँ कहाँ से वैलैंटाईन की शापिंग करके लौटा था"...


"वैलैंटाईन की शॉपिंग करके?....तुम्हें कैसे पता?"गुप्ता जी का सवालिया चेहरा मेरे सामने था...


"वैरी सिम्पल!...दोनों हाथों में जो उसके ताज़े गुलाब के फूलों के 'बूके' और. ..

मँहगी वाली इंपोर्टेड 'चाकलेट' के पैकेट जो नज़र आ रहे थे और..

ऐसे मँहगे गिफ्ट कोई अपनी बीवी को दे...ऐसा सनकी तो मैँने आज तक नहीं देखा"मैँ हँसता हुआ बोला


"बीवी के इश्क में कोई खुद को मिटा ले...

हो नहीं सकता...हाँ!..हो नहीं सकता"मैँ अजय देवगन का ये गीत अपनी ही तर्ज़ पे गुनगुनाते हुए बोला



"अजी!..काहे की इंपोर्टेड चॉकलेट?"...

"सब स्साली!...यहीं पैक होती है अपने आज़ाद मार्किट में"गुप्ता जी राज़ की बात सरेआम बताने वाले अन्दाज़ में बोले


"कई बार तो मैँने भी उन्हे एक्सपाईरी डॆट मिटा नकली मोहर लगाते देखा है"अनुराग बोल उठा...


"अरे!...कोई नहीं देखता है एक्सपाईरी- शैक्पाईरी"...

"कुछ हम जैसे गिने चुने सिरफिरों की छोड़ दो तो सब लकड-पत्थर हज़म हो जाता है हिन्दुस्तानी जनता को"शर्मा जी तैश खाते हुए बोले


"कमाल है!...बिना किसी लाग-लपेट के आँखों देखी मक्खी तक कैसे निगल जाते हैँ लोग?"मैडम जी भी हमारा भरपूर साथ दे रही थी...


"वाह!...कितना मज़बूत कलेजा है हमारा...वाह!...वाह..."अनुराग उपहास सा उड़ाता हुआ बोला...


"देखा!..कितने ज़िदादिल हैँ हम?"सबको बोलता देख काफी देर से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे मैडम के साथ बैठे सज्जन भी बोल पड़े...


"बेशक!...हमारा एक गुर्दा किडनी किंग ने फोकट बराबर में निकाल लिया तो क्या?"शर्मा जी अखबार के पन्ने पलटते हुए बोले



"हुह!....इन बड़े लोगों का वैलैंटाईन...वैलैंटाईन है और...

हमारा वैलैंटाईन....निहायत ही फुददूपन्ती"मैँ बातचीत का रुख दूसरी तरफ घूमता देख बीच में ही बोल पड़ा

"वाह रे ऊपरवाले!....देखा तेरा इंसाफ"


"जुर्माना लगा होगा तगड़ा तब तो?"मैडम मेरी तरफ ताकती हुई बोली


"जुर्माना और मैँ?...अपुन तो साफ नॉट गए कि 'निक्का ऑना' भी नहीं अपुन के पास"...

"बेशक!...जी भर तलाशी ले लो"...


"अच्छा!...फिर?"मैडम उत्सुकता से बोली


"पट्ठों ने सारी जेबें खंगाल मारी लेकिन...कुछ हो...तभी तो निकले"...


"तो क्या?...बिलकुल ही ठनठन गोपाल निकले थे घर से?"अनुराग ने हैरानी से मेरी तरफ देखा


"अरे!...काहे को...?....ठनठन गोपाल निकलें मेरे दुश्मन"

"यहाँ तो जब मर्ज़ी जेब तलाश लो...

हज़ार दो हज़ार तो ऐसे ही बेतरतीब पड़े मिल जाएंगे"मैँ पर्स दिखाता हुआ रौआब से बोला


"पूरे बाईस सौ रुपए थे अपुन की जेब में...पूरे बाईस सौ"मैँ गर्व से छाती फुला बोला


"फिर!..तलाशी में कुछ निकला क्यूँ नहीँ?"अनुराग के चेहरे पे सवाल जस का तस मौजूद था


"अरे!...ये तो भला हो उस अपनी फेवरेट 'कम्मो' चूरन(चूर्ण) वाली का...जो अचानक नज़र आ गई"


"कम्मो?"....

"ये भला क्या नाम हुआ?"अनुराग ने एक साथ दो सवाल मेरे चेहरे पे दाग दिए


"अब मुझे क्या पता?"...

"क्या मैँ बैठा था उसकी छट्ठी रात पे पंडित बन के नामकरण के वास्ते?"...

"जो मुझे पता हो"...

"माँ-बाप ने जो प्यार से रख दिया तो रख दिया"मैँ अपनी बात कटते देख झट से बोला...


"वैसे भी 'कम्मो' की जगह अगर 'लच्छो' रख देते तो क्या फर्क पड़ जाता?"...

"बेचना तो उसने तब भी चूरन(चूर्ण) ही था"शर्मा जी मुझ से सहमत होते हुए बोले


"अच्छा वो?...वो तो पुरानी खिलाड़िन है"गुप्ता जी के चेहरे पे ना जाने क्यों चमक सी आ गई...


"ज़रूर मजिस्ट्रेट से भी सैटिंग रही होगी उसकी"...

"एक दिन उसी का नाम ले के साफ बच निकली थी मैजिस्ट्रेटी छापे से"अनुराग कुछ याद सा करता हुआ बोला


"इन बिना परमिशन सामान बेचने वालों को कोई कुछ नहीं कहता"


"डाईरैक्ट हफ्ता जो पहुँच जाता है सभी झोलाछाप हॉकरों का ठेकेदार के पास"शर्मा जी अखबार लपेट साईड पे रखते हुए बोले


"वैसे!...कहाँ-कहाँ तक सप्लाई होता है इनका चूरन?"गुप्ता जी मुझसे पूछ बैठे


"कहाँ-कहाँ क्या?"...

"ऊपर से नीचे तक हर जगह सप्लाई होता है इनका चूरन"मैँने भी उन्हीं की तरह कोड लैंग्वेज में जवाब दिया


"चूरन?"...

"सप्लाई?"अनुराग की समझ में कुछ नहीं आ रहा था...


"समझा कर यार!..."मैँ आँख दबा मैडम जी की तरफ इशारा करता हुआ अनुराग से बोला


"हम्म!..इसीलिए इस दिल्ली से पानीपत के रूट पे इन चूरन वालियों की ही तूती बोलती है"अनुराग हमारी कोड भाषा को डी-कोड करता हुआ बोला


"अब ये तो पता नहीं!... लेकिन उस 'कम्मो' को तो पैसे दे मैँने चलता कर दिया कि...

"शाम को 'मालवा' में ले लूंगा......'एस-आठ(S-8 Coach)' में मिलिओ"


"फिर?..."अनुराग समेत सभी की उत्सुकता बढती ही जा रही थी


"फिर क्या?....जैसे ही पता चला कि आज छापा है....भगदड़ सी मच गई पूरी ट्रेन में"

"जिसको जिधर रस्ता मिला...निकल लिया"

"मैँने भी प्लैटफार्म के बजाय दूसरी तरफ छलांग लगाई ..लेकिन अफसोस...

स्साले!...वहाँ भी सिर सड़ाने को तैयार खड़े थे"मैँ कहानी में रोमांच सा जगाता हुआ बोला...


"सब रास्ते पता चल गए हैँ अगलों को...कि डिफाल्टर सारे किधर-किधर से गोली होते हैँ"शर्मा जी बोल पड़े


"अच्छा!...फिर?"गुप्ता जी अब तक नीचे उतर कर आ चुके थे ...


"फिर क्या?... मैँने भी आव देखा ना ताव ...

एक झटका दिया कस के उस साले टीटी के बच्चे को और जिधर रस्ता दिखा ...भाग लिया"मैँ शेखी बघारते हुए बोला


"तुम तो कह रहे थे कि पूरे चार घंटे तक उकड़ूँ बैठा के रखा?"अनुराग को मेरी बात काटता हुआ बोला


"ओह!...वो?...

वो तो!.. जैसे ही मैँ हाथ छुड़ा के भागा तो देखा स्साले!...पता नहीं कहाँ से दो पहलवान और कूद कर आ गए मैदान में"


"एक अकेले के पीछे तीन-तीन...बहुत नाइंसाफी है ये तो"अनुराग गब्बर सिंह की का स्टाईल पकड़ता हुआ बोला


"हाँ!...एक एक करके आते तो बताता"


"उसके बाद क्या हुआ?"मैडम को भी इंटरैस्ट सा आने लगा था


"उसके बाद की कहानी तो बस!..पूछो मत...

स्सालों ने!...पता नहीं कितने घूँसे बरसाए और कितने नहीं... कुछ याद नहीं"मैँ शरमाता हुआ बोला


"होश ही कहाँ रहा था मुझे बे-इंतहा मार खाने के बाद?"मैँ वो भयानक मंज़र याद कर सिहरता हुआ बोला


"हरामखोर स्साले!...पहले मार-मार ठुकाई करें...बाद में पानी के छींटे मार-मार उठाएं"

"शर्म भी नहीं आती '*&ं% $#@' को..."मुझे गुस्सा आ चुका था


"उन्हें क्यों आए शर्म? ...शर्म तो आपको आनी चाहिए थी जो बिना टिकट यात्रा कर रहे थे"मैडम मेरी गल्ती निकालते हुए बोली


"ये!...ये बात नहीं है मैडम"...


"राजीव सही कह रहा है मैडम जी!....."अनुराग को अपने हक में बोलता देख 'जी' खुश हो गया मेरा


"अगलों को भी दिखाई दे रहा था कि खाते-पीते घर का बन्दा है"....

"थोड़ा नरमियत से तो काम लेना ही चाहिए था कम से कम".. ..

"कुछ ज़्यादा नहीं...सिर्फ सौ किलो ही तो वज़न है इसका"अनुराग हँसते हुए बोला


"ओए!..तू मेरी तारीफ कर रहा है या....फिर मेरी बुराई?"मैँ अनुराग की तरफ गुस्से से देख झेंपता हुआ बोला

"उड़ा ले बेटा तू भी मेरा मज़ाक!....सही दोस्ती निभा रहा है..."मुझे गुस्सा आ चुका था


"गलत बात!...अनुराग...तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए"शर्मा जी मुझे शांत करने के मकसद से उसे समझाते हुए बोले


"तुम बताओ...क्या हुआ उसके बाद"शर्मा जी को भी इस किस्से में मज़ा आने लगा था


"एक तो ठीक से चला तो जाता नहीं है इस बेचारे से..ऊपर से ऊँकडू और बिठा दिया"अनुराग सहानुभूति भरे स्वर में बोला



"देख तो लें कम से कम कि किस के कैसा बरताव करना है और कैसा नहीं".. .

"ये क्या कि गधे घोड़े सब तौल दो एक ही भाव?"गुप्ता जी भी मानों अनुराग का ही साथ देने को उतारू थे


"गुप्ता जी!...आप भी?"मैँ कुछ रुआँसा सा होता हुआ उनकी तरफ देख बोला


"शश्श!..गुप्ता...नहीं"शर्मा जी गुप्ता जी को कुछ इशारा सा करते हुए बोले


"इसको छोड़ो...तुम आगे बताओ क्या हुआ था"


"कमर दुखने को हो रही थी मेरी...मन तो कर रहा था कि बैठ जाऊँ वहीं पलाथी मार के कि...

उखाड़ लो ...जो उखाड़ना हो...नहीं है मेरे पल्ले दुअन्नी भी"मैँ भी किसी की परवाह ना करता हुआ बोला


"फिर?"सबका इंटरैस्ट बढता ही जा रहा था ...


"जैसे ही पलाथी मारने की कोशिश करूँ..


"धड़ाक से पिछवाड़े पे पड़ती होगी 'तड़ाक'..तड़ाक"अनुराग का बच्चा...बीच में ही मेरी बात काटता हुआ बोला


"शर्मा जी!...समझा लो इसे"....

"वर्ना!..."


"वर्ना क्या?"...

"क्या उखाड़ लेगा तू?"अनुराग आस्तीन ऊपर चढाता हुआ बोला


"नहीं अनुराग...बीच में मत बोलो"मैडम अनुराग को समझाते हुए बोली..

"राजीव!...तुम अपनी बात पूरी करो"....


"बस फिर क्या था...मैँ भी सौ-सौ गालियाँ देता हुआ मन मसोस कर इस इंतज़ार में उकडूँ बैठा रहा कि...

कब आए मजिस्ट्रेट और कब मेरी इन जल्लादों से जान छूटे"


"अपनी सरकार को भी पता नहीं क्या होता जा रहा है"....

"अक्ल घास चरने गई है हमारे नेताओं की"शायद किसी चीज़ की जलन थी मुझे ...


"क्यों!...हुण साड्डे नेतावां नूँ केहड़ी गोली वज्ज गई?"शर्मा जी फिर पंजाबियत पे उतर आए


"शर्मा जी !...कितना टाईम हो गया आपको दिल्ली और पानीपत के बीच सफर करते हुए?"


"यही कोई सवा सात साल"शर्मा जी हिसाब सा लगाते हुए बोले

"क्यों?...क्या हुआ?"


"हरियाणवी आप बोलते नहीं और..कब आप हिन्दी छोड़ पंजाबी का दामन थाम लेते हैँ...कुछ पता नहीं चलता"


"ओए!..की दसिए हुण तैन्नू?"...

"पंजाबी साड्डी माँ-बोली हैग्गी"

इस्स करके पंजाबी नूँ कैवें छड्ड देइय्ये?"शर्मा जी फिर पंजाबी में बोले



"सुणो हुण शर्मा जी तुस्सी वी ..कि जिन बच्चों के अभी दूध पीते दाँत भी नहीं टूटे हैँ...

उनको 'आई.पी.एस' के जरिए सीधे 'ए.सी.पी'....'मजिस्ट्रेट' के ओहदे थमा..

देश की बागडोर सौंपी जा रही है"मैँ हिन्दी पंजाबी मिक्स करता हुआ बोला


"क्या सन्देशा देना चाहती है सरकार इससे?"...

"इधर स्कूल खत्म ..उधर 'आई.पी.एस' की ट्रेनिंग चालू"अनुराग भी शर्मा जी से मुखातिब होता हुआ बोला


"ये तो अच्छी बात है...पढाई खत्म होते ही रोज़गार शुरू"मैडम मेरी बात काटती हुई बोली


"मैडम जी!..तजुर्बा भी कुछ होता है कि नहीं?"

"कम से कम थोड़े बहुत बाल तो सफेद होने दो"मैँ शर्मा जी के सफेद बालों की तरफ इशारा करता हुआ बोला....


"पता नहीं ऊँचा ओहदा मिल जाने से ये लौंडे लपाड़े किस गुमान में रह्ते हैँ?"...

"पट्ठे मैजिस्ट्रेट ने भी बिना कुछ सुने सीधे-सीधे ही जुर्माना ठोक दिया...कि...

निकाल बेटा!...पूरे ग्यारह सौ"....


"मैँने भी उकड़ूँ बैठे-बैठे टका सा जवाब दे दिया कि...अपने पल्ले तो चवन्नी भी नहीं"...


'स्साले!...बाप का माल समझ के ट्रेन में सफर कर रहा था?"मजिस्ट्रेट भी मेरा रूखा सा जवाब सुन आपा खो गाली गलोच पे उतर आया

"बिना सोचे समझे उसने पीछे से खींच के ऐसी लात जमाई कि मैँ सीधा मुँह के बल गिर ज़मीन चाटता नज़र आया"


"ओए!...राजीव......तू?"....

"तनेजा?"...

"स्साले!..तू कभी सुधरेगा नहीं".....

"अभी तक गई नहीं तेरी ये पैसे बचाने वाली आदत?"....

"आ जा ओए...जल्दी से गले लग जा"


"अब चौंकने की बारी मेरी थी"...

"देखा तो!..वो मैजिस्ट्रेट मेरा बचपन का लंगोटिया यार निकला"...

"एक ही साथ पहले स्कूल....फिर कॉलेज में रहे थे दोनों"...

"ये बात और है कि उसका ध्यान हमेशा पढाई की तरफ लगा रहा और मेरा...."...


"लड़कियों की तरफ"...अनुराग बीच में ही बोल पड़ा


"इतना तो पता था कि किसी ऊँची पोस्ट पे लग गया है...लेकिन मैजिस्ट्रेट...ये मालूम न था"...

"साला पढाकू की औलाद...पढ लिख कर कब मजिस्ट्रेट बन बैठा...पता भी ना चला"


'फिर?"...

"फिर क्या था....सभी टीटियों को लाईन में खड़ा कर मुझसे पूछ कि बता किस-किस ने तुझ पर हाथ साफ किया था?"

"अब मैँ क्या बताता?"...

"कोई एक हो तो बताऊँ भी"...


"वैसे भी इतनी मार के बाद इसे याद ही कहाँ रहा होगा कि कौन कौन था पीटने वाला?"अनुराग मेरी भद्ध पीटने पे उतारू था


"बस जब मैँने किसी का नाम ना लिया तो मजिस्ट्रेट साहब के हुक्म पर सभी टीटियों ने अपने पल्ले से पूरे ग्यारह सौ मेरी हथेली पे टिका दिए"

"हाँ!...इसी हथेली पे"


"तो क्या हुआ तुम्हारी उस 'लच्छो' का?"...


"लच्छो?"...


"ऊप्स!..सॉरी... 'कम्मो' का"

"क्या पूरे पैसे सही सलामत वापिस मिल गए थे उस 'कम्मो' की बच्ची से?"आशंका से ग्रस्त गुप्ता जी मंद-मंद मुस्काते हुए पूछ बैठे



"या फिर पूरे कर लिए थे?"अनुराग हल्की सी आँख दबा हँसता हुआ बोला


"क्या बात करते हो?"...

"ऐसा टेस्ट नहीं है मेरा"...

"अपुन तो... हाई क्लास से नीचे...सवाल ही नहीं पैदा होता"


"कोशिश तो बड़ी की थी पट्ठी ने लेकिन....हम...हम हैँ...कोई ऐंवे ही वेल्ला करैक्टर नहीं कि....

बिना किसी खास मौके के जब चाहे बिना चूने कत्थे के लपेंटे ही सादा पान खाने को तैयार हो जाएं "मैँ अकड़ता हुआ बोला


"मैँने तो अच्छी तरह झाड़ पौंछ कर के रख दी थी उसकी"....

"अब कभी मत्थे लगने का नाम भी नहीं लेगी"...


"आखिर हुआ क्या था?"अनुराग व्याकुल हो पूछ बैठा


"होना क्या है .. ..दो सौ काट के पकड़ाने लगी कि... हैँ नहीं अभी मेरे पास...खर्च हो गए"....


"अरे!...ऐसे-कैसे खर्च हो गए?"

"बाप का माल समझ रखा है क्या?"...


"वो!...वो बच्चे की स्कूल फीस भरनी थी ना इसीलिए...

नहीं तो नाम कट जाता"


"अरे!...कल का कटता..बेशक आज कट जाए...मेरी बला से"...

"मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता"

"पैसे कम लेना तो दूर...उल्टे भाषण और पिला दिया उसे नेकी और इंसानियत का"

"जब मैँ अड़ के खड़ा हो गया कि पूरे चाहिए अभी के अभी ......तो झोले से चूरन निकाल पकड़ाने लगी कि....

"ले लो....काम आएगा"...


"तो क्या दो सौ का चूरन ले लिया?"...


"हुँह...मेरी क्या मति मारी गई थी जो मैँ बेफाल्तू में दो सौ रुपए फूंक डालता?"...

"पाँच दस की बात हो तो मान भी ले बन्दा लेकिन...दो सौ का चूरन....मतलब ही नहीं पैदा होता"

"हुँह!...बड़ी आई चूरन बेचने वाली"...


"सब पता है मुझे कि...इस चूरन की आड़ में क्या धन्धा करती है तू"

"पूरी ट्रेन को रंडीखाना बना रखा है तुम सबने...."मैँ भरी भीड़ में ज़ोर से चिल्लाया

"कोई जगह तो साफ सुथरी रहने दिया करो...कम से कम"...


"बाबू!. ..पति शराबी है..कुछ करता धरता नहीं"...

"पूरा दिन...चाहे सर्दी हो या गर्मी...बारहों महीने ये पंद्रह किलो का झोला ले....

पूरा दिन इधर-उधर धक्के खाती फिरती हूँ"कम्मो झोले की तरफ इशारा कर अपनी बेबसी ब्यान करते हुए बोली . ..

"एक-एक दिन में बीस-बीस किलोमीटर पैदल चल कर माल बेचती हूँ"...

"तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से शाम को घर में चूल्हा जल पाता है"

"ऊपर से...शराबी पति भी जब जी में आए...बात बेबात पीटने लगता है"वो रुआँसी सी होती हुई बोली......



"चूल्हा जलाने की तुझे फुरसत ही कहाँ है?"...

"रोज़ तो सब्ज़ी मंडी स्टेशन पे मोबाईल से कभी 'डॉमिनो' का पिज़्ज़ा...

तो कभी 'मैक डोनाल्ड' का बरगर आर्डर कर रही होती है....वो सब क्या है?"

"अब ये नकली के दिखावटी टसुए बहाना छोड़ और सीधी तरह से बता कि मेरे पैसे देती है कि नहीं?"

"वर्ना मुझे उँगली टेढी करनी भी आती है"


"तू!...हाँ तू ...उसे शराबी कहने वाली पहले तो ये बता कि उसके लिए दारू कौन लाता है?...

"तू ही ना?"

"और ये!...ये जो तेरे झोले में मैक-डावेल का अद्धा दिख रहा है...उसका क्या?"

"क्या मिंयाँ-बीवी दोनों एक साथ चढाते हो?"मैँ उसका झोला खंगालता हुआ बोला


"सही ड्रामा है!...पहले दारू पिलाओ...फिर मार खाओ...और फिर...."ना जाने क्या सोच गुप्ता जी ने बात अधूरी छोड़ दी


"बाबू जी !...छोटे-छोटे पाँच बच्चे हैँ मेरे"...

"सगी माँ हूँ!...कोई सौतेली नहीं कि अपने ही खून को भूखों मरने दूँ"...

"फैंक भी तो सकती नहीं उन्हें कहीं"...

"कुछ भी कर के किसी तरह उनका पेट पालती हूँ तो क्या बुरा करती हूँ मैँ?"



"तो क्या डाक्टर ने कहा था कि लाईन लगा दो बच्चों की?"...

"खुद तेरे को सोचना चाहिए कि पति तेरा कोई कमाता-धमाता नहीं"...

"सारा घर तेरे को ही संभालना है"...

"पेट पालने के लिए कोई ज़रूरी नहीं कि ये गन्दा काम कर"....

"कहीं नौकरी नहीं कर सकती क्या?"


"बहुत जगह धक्के खाए नौकरी की तलाश में लेकिन जहाँ भी गई...

काम से ज़्यादा मेरा बदन भाया हर किसी को"...

"अब क्या करूँ?...

"ये गोरा रंग भी ऐसा मनहूस दे दिया है मुझे ऊपरवाले ने कि सबकी नज़र मेरे बदन के कपड़े उधेड़े बिना नहीं रहती"


"जी में तो आता है कि चाकू ले अपनी ये गोरी चमड़ी ही उधेड़ डालूं"वो आवेशित होती हुई बोली


"रहने दे....रहने दे ..सब हिस्ट्री जानता हूँ तेरी....पुरानी चस्कोड़न है तू"कहते हुए मैँने उसके हाथों से पर्स छीन अपने दो सौ रुपए निकाल लिए.. ..


"अब इसे मेरी तीखी बातों का असर कहें या फिर कुछ और कि...

अचानक!..पता नहीं उस 'कम्मो' को क्या दौरा पड़ा और वो सचमुच में अपने झोले से चाकू निकाल हवा में ऐसे लहराने लगी"...

"मानों सचमुच में किसी का कत्ल कर देगी"


"स्साली!..नौटंकी कहीं की"...

"पैसे देने के नाम पे ड्रामा शुरू"कहते हुए मैँ बड़बड़ाता हुआ अगले डिब्बे की तरफ बढ गया

"फिर उस 'कम्मो' का क्या हुआ?"


"बाद में पता चला था कि ...

बड़ी मुश्किल से पाँच-छे जनों ने मिलकर उस पर काबू पाया"..

"पता नहीं कैसे उन बेचारों ने उस आफत की पुतली को समझा-बुझा कर शांत किया होगा"...


"अब आजकल 'कम्मो' कहाँ है?"...

"जाएगी कहाँ?"...

"मुल्ला की दौड़...

ऊप्स!...सॉरी..."मुल्लाईन की दौड़ मस्जिद तक"...

"इसी ट्रेन के किसी डिब्बे में अपनी सैटिंग जमा रही होगी"इतना कह मैँ कहानी का ये वाला भाग यहीं खत्म करने को हुआ...



"हुँह!...ये भी भला कोई धांसू करैक्टर हुआ?"...

"बड़े दावे कर रहा था ये राजीव कि उसकी कहानी ही इस 'कम्मो' के दम पे टिकी है"...

"बस इतना सा!...बित्ते भर का रोल?"अनुराग मेरी कहानी से बाहर निकलता हुआ बोला


"क्या हुआ?"...

"निकल गई हवा?"...

"नाम बड़े और दर्शन छोटे"

"ऊँची दुकान और फीका पकवान"उसका बड़बड़ाना जारी था

"मुझे भी सब्जबाग दिखाए थे इस राजीव के बच्चे ने कि तेरा करैक्टर भी कहानी के साथ-साथ चलता है"...

"काट-पीट के सत्यानाश कर दिया मेरे सारे किरदार का"

"बस जहाँ मैँ कोई तगड़ा डॉयलॉग बोलूँ...वहीं कुछ ना कुछ करके कहानी अपनी तरफ मोड़ लेता है"अनुराग के लहजे में शिकायत थी


"अब आप ही देखो ना!...कहानी के इस ऐपीसोड के शुरू में ही मुझसे गन्नौर के कांड के बारे में डॉयलॉग बुलवा लिया...

बाद में पूरी कहानी में कुछ अता-पता भी नहीं है क्या होता है गन्नौर?"अनुराग मेरी कहानी में काम कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहा था


"शिट!...मेरा सारा टाईम...मेरी सारी मेहनत बेकार गई"


"अरे बेवाकूफ!...किसने कह दिया कि कहानी खत्म?"...

"परेशान क्यों होता है?"...

"मेरी कहानी किसी एकता कपूर के सीरियल जैसी ना हुई तो क्या.....उस से कम भी नहीं है"...

"कहानी अभी कम से कम एक एपीसोड और जारी रहेगी"...

"तेरे साथ-साथ 'कम्मो' का रोल भी अभी बाकि है"

"रात अभी बाकि है...बात अभी बाकि है"

"तूने अभी तक तो तेल देखा है...

चिंता ना कर...तेल की धार अभी बाकि है"...


***राजीव तनेजा***

"कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार"


"कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार"



***राजीव तनेजा***






"कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार"....

"कान खोल के सुन लो"...

"कहे देती हूँ कसम से"बीवी भाषण पे भाषण पिलाए चली जा रही थी


"खबरदार!...जो इस बार होली का नाम भी लिया ज़ुबान से"...

"छोड-छाड के चली जाउंगी सब"...

"फिर भुगतते रहना अपने आप"


"पिछली बार का याद है ना?" ...

"या!...भूले बैठे हैँ जनाब कि..कितने ड्ण्डे पडे थे?और...कहाँ-कहाँ पडे थे?"...

"सिकाई तो मुझी को करनी पड़ी थी ना?"....

"तुम्हारा क्या है?"...

"मज़े से चारपाई पे लेटे-लेटे कराह रहे थे चुप-चाप"...

"हाय!..मैँ मर गया....हाय!..मैँ मर गया"बीवी मेरा मज़ाक सा उड़ाती हुई गुस्से से बोली


"हुँह!...बड़े आए थे कि इस बार..पडोसियों के दाँत खट्ते करने हैँ"....

"मुँह की खिलानी है...वगैरा-वगैरा"

"थोथा चना बाजे घना"...


"आखिर!..क्या उखाड डाला था उनका?"

"बित्ते भर का मुँह और...ये लम्बी चौडी ज़बान"

"आखिर जग हँसाई से मिला ही क्या?"...


"धरे के धरे रह गए तुम्हारे सब अरमान कि...मैँ ये कर दूँगा और...मैँ वो कर दूँगा"

"अरे!...जो करना है सब ऊपरवाले ने करना है"...

"हमारे तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं"बीवी बिना रुके बोलती ही चली जा रही थी


"मैँ भी तो यही समझा रहा हूँ भागवान"...

"अब जा के कहीं घुसी तुम्हारे दिमागे शरीफ में बात कि...

बाज़ी तो वो ही जीतेगा जो ऊपर से निशाना साधेगा"मेरा इतना कहना भर था कि बीवी का शांत होता हुआ गुस्सा फिर से उबाल खाने लगा"


"हाँ!...हाँ...पिछली बार तो जैसे तहखाने में बैठ के गुब्बारे मारे जा रहे थे"...

"ऊपर से ही मारे जा रहे थे ना?"...

"फिर भला कहाँ चूक हो गयी हमारे इस निशानची 'जसपाल राणा' से?"...


"ना काम के...ना काज के...बस!..दुश्मन अनाज के"बीवी का बड़बड़ाना जारी था


"अरे!...एक निशाना क्या सही नहीं बैठा तुम तो...बात का बतंगड बनाने पे उतारू हो"


"और नहीं तो क्या करूँ?"...

"बे-इज़्ज़ती तो मेरी होती है ना मोहल्ले में कि...बनने चले थे 'तुर्रम खाँ' और...

रह गये फिस्सडी के फिस्सडी"


"किस-किस का मुँह बन्द करती फिरूँ मैँ?...

"या फिर किस-किस की ज़बान पे ताला जढूँ?"

"अरे!...कुछ करना ही है तो प्रक्टिस-शरैक्टिस ही कर लिया करो कभी-कभार कि ऐन मौके पे कामयाबी हासिल हो"


"और कुछ नहीं तो!..कम से कम बच्चों के साथ गली में क्रिकेट या फिर कंचे ही खेल लिया करो"...

"निशाने की प्रैक्टिस की प्रक्टिस और लगे हाथ बच्चों को भी कोई साथी मिल जाएगा"बीवी मुझे समझाती हुई बोली

"और कोई तो खेलने को राज़ी ही नहीं है ना तुम्हारे इन नमूनों के साथ"...

"मैँ भी भला!..कब तक साडी उठाए-उठाए कंचे खेलती रहूँ गली-गली?"


"पता नहीं क्या खा के जना था इन लफूंडरों को मैने"उसका बड़बड़ाना रुक नहीं रहा था

"स्साले!...सभी तो पंगे लेते रहते हैँ मोहल्ले वालों से घड़ी-घड़ी"

"अब किस-किस को समझाती फिरूँ?कि...

इनकी तो सारी की सारी पीड़ियाँ ही ऐसी हैँ...मैँ क्या करूँ?"


"पता नही मैँ कहाँ से इनके पल्ले पड गयी?"...

"अच्छी भली तो पसन्द आ गयी थी उस 'इलाहाबाद' वाले को" ...

"लेकिन!...अब किस्मत को क्या दोष दूँ?"...

"मति तो आखिर मेरी ही मारी गयी थी न?"..

"इस बावले के चौखटे में 'शशिकपूर' जो दिखता था मुझे"


"अब मुझे क्या पता था कि ये भी असली 'शशिकपूर'के माफिक तोन्दूमल बन बैठेगा कुछ ही सालों में?"


"तोन्दूमल सुनते ही मुझे गुस्सा आ गया और ज़ोर से चिल्लाता हुआ बोला...

"क्या बक-बक लगा रखी है सुबह से?"....

"चुप हो लिया करो कभी कम से कम"..

"ये क्या?कि एक बार शुरू हुई तो भाग ली सीधा सरपट समझौता एक्सप्रैस की तरह"...


"पता है ना!...अभी पिछले साल ही बाम्ब फटा है उसमें?"...

"चुप हो जा एकदम से"...

"कहीं मेरे गुस्से का बाम्ब ही ना फट पडे तुझ पर"मैँ दाँत पीसता हुआ बोला


"बाम्ब?.."कहते हुए बीवी खिलखिला के हँस दी

"अरे!....ऐसे फुस्स होते हुए बाम्ब तो बहुतेरे देखे हैँ मैने"


"क्यूँ मिट्टी पलीद किए जा रही हो सुबह से?"मैँ उसकी तरफ धीमे से मिमियाता हुआ बोला

"इस बार सुलह हो गई है अपनी पडोसियों से"...

"अब उनसे कोई खतरा नहीं"....


"और उस नास-पीटे!..गोलगप्पे वाले क्या क्या?...जिसे सोंठ से सराबोर कर डाला था पिछली बार"


"अरे!...वो 'नत्थू'?"


"हाँ वही!...वही नत्थू"...

"उसको?"...

"उसको तो कब का शीशे में उतार चुका हूँ"...


"कैसे?"बीवी उत्सुक चेहरा बना मेरी तरफ ताकती हुई बोली


"अरी भलेमानस!...बस..यही कोई दो बोतल का खर्चा हुआ और...बन्दा अपने काबू में"

"अब ये दारू चीज़ ही ऐसी बनाई है ऊपरवाले ने"..


"हम्म!...इसका मतलब इधर ढक्कन खुला होना है बोतल का और...

उधर सारी की सारी दुशमनी हो गयी होनी है हवा"बीवी बात समझती हुई बोली


"और नहीं तो क्या?"मैँ अपनी समझदारी पे खुश होता हुआ बोला...


"ध्यान रहे!...इसी दारू की वजह से कई बार...दोस्त भी दुश्मन बन जाते हैँ"बीवी मेरी बात काटती हुई बोली...


"अरे!...अपना नत्थू ऐसा नहीं है"मैँ उसे समझाता हुआ बोला


"क्या बात?...बड़ा प्यार उमड़ रहा है इस बार नत्थू पे"बीवी कुछ शंकित सी होती हुई बोली...


"पिछली बार की भूल गए क्या?"...

"याद नहीं?...कि कितने लठैतों को लिए-लिए तुम्हारे पीछे दौड़ रहा था"

"ये तो शुक्र मनाओ ऊपरवाले का कि तुम जीने के नीचे बनी कोठरी में जा छुपे थे"

"सो!..उसके हत्थे नहीं चढे"


"वर्ना ये तो तुम भी अच्छी तरह जानते हो कि क्या हाल होना था तुम्हारा"वो मुझे सावधान अ करती हुई बोली


"अरी बेवाकूफ!...बीति ताहिं बिसार के आगे की सोच"

"इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा...सारा मैटर पहले से ही सैटल हो चुका है"मैँ उसे डांटता हुआ बोला...

"और तो और....इस बार दावत का न्योता भी उसी की तरफ से आया है"


"अरे वाह!...इसका मतलब कोई खर्चा नहीं?"बीवी आशांवित हो खुश होती हुई बोली


"जी!..."

"जी हाँ!...कोई खर्चा नहीं"मैँ धीमे-धीमे मुस्करा रहा था


"यार!...तुम तो बड़े ही छुपे रुस्तम निकले"...

"काम भी बना डाला और खर्चा दुअन्नी भी नहीं"

"हवा ही नहीं लगने दी कि...कब तुमने रातों रात बाज़ी खेल डाली"बीवी मेरी तारीफ करती हुई बोली


"बाज़ी खेल डाली नहीं!...बल्कि जीत डाली कहो"


"हाँ-हाँ!...वही"


"आखिर!...हम जो चाहें...जो सोचें...वो कर के दिखा दें"...

"हम वो हैँ जो 'दो और दो पाँच' बना दें"


"बस!..दावत का नाम ज़ुबाँ पर आते ही ... मुँह में जो पानी आना शुरू हुआ तो बस आता ही चला गया"

"आखिर!..मुफ्त में जो माल पाड़ने का मौका जो मिलने वाला था"

"अब ना दिन काटे कट रहा था और ना रात बीते बीत रही थी"

"इंतज़ार था तो बस..'होली' का कि...कब आए 'होली'और कब दावत पाड़ने को मिले"


"लेकिन अफसोस!...हाय री मेरी फूटी किस्मत"...

"दिल के अरमाम आँसुओ में बह गए"...


"होली से दो दिन पहले ही खुद मुझे अपने गांव ले जाने के लिए आ गया था नत्थू कि...खूब मौज करेंगे"

"मैँ भी क्या करता?"...

"कैसे मना करता उसे?"

"कैसे कंट्रोल करता खुद पे?"

"कैसे उभरने नहीं देता अपने लुके-छिपे दबे अरमानों को?"

"आखिर!..मैँ भी तो हाड-माँस का जीता-जागता इनसान ही था ना?"...

"मेरे भी कुछ सपने थे...मेरे भी कुछ अरमान थे"...


"पट्ठे ने!...सपने भी तो एक से एक सतरंगी दिखाए थे कि...

खूब होली खेलेंगे...गांव की अल्हड़ मदमस्त गोरियों के संग...चिपक-चिपक के"मेरे चेहरे पे वासना का भूत साफ झलक रहा था...


"और मुझे देखो!...मैँ बावला...अपने काम-धन्धे को अनदेखा कर चल पड़ा था बिना कुछ सोचे समझे उसके साथ"


"आखिर में मैँ!..लुटा-पिटा सा चेहरा लिए भरे मने से घर वापिस लौट रहा था"...

"यही सोच में डूबा था कि घर वापिस जाऊँ तो कैसे जाऊँ?और....

किस मुँह से जाऊँ?"

"बडी डींगे जो हाँकी थी कि...मैँ ये कर दूँगा और मैँ वो कर दूँगा"

"पिछली बार का बदला ना लिया तो!..मेरा भी नाम राजीव नहीं"

"कोई कसर बाकी नहीं रखूँगा"


"अब क्या बताऊँगा और...कैसे बताऊँगा बीवी को कि मैँ तो बिना खेले ही बाज़ी हार चुका हूँ"...

"क्या करूँ?..अब इस कंभख्तमारी 'भांग' का सरूर ही कुछ ऐसा सर चढ कर बोला कि...

सब के सब पासे उलटे पड़ते चले गए"

"कहाँ मैँ स्कीम बनाए बैठा था कि...मुफ्त में माल तो पाड़ूंगा ही और...रंग से सराबोर कर डालूँगा सबको"....

"सो अलग!.."


"हालांकि बीवी ने मना किया था कि ज़्यादा नहीं चढाना लेकिन...अब इस कंभख्त नादान दिल को समझाए कौन?"

"अपुन को तो बस!..मुफ्त की मिले सही"...

"फिर कौन कंभख्त देखता है कि...

कितनी 'पी' और...कितनी नहीं 'पी'?"


"पूरा टैंकर हूँ!...पूरा टैंकर"

"कितने लौटे गटकता चला गया...कुछ पता ही ना चला"

"मदमस्त हो भांग का सरूर सर पे चढता चला जा रहा था"...


"लेकिन!..सब का सब इतनी जल्दी काफूर हो जाएगा...ये सोचा ना था"

"पता नहीं किस-किस से पिटवाया उस नत्थू के बच्चे ने"

"स्साले ने!..पिछली बार की कसर पूरी करनी थी"...

"सो!..मीठा बन....अपुन को ही पट्टू पा गया था इस बार"


"उल्लू का पट्ठा!...दावत के बहाने ले गया अपने गांव और कर डाली अपनी सारी हसरतें पूरी"

"शायद!...पट्ठे ने सब कुछ पहले से ही सैट कर के रखा हुआ था"...

"वर्ना मैँ?..."...

"मैँ भला!...किसी के हत्थे चढने वाला कहाँ था?"


"स्साले!..वो आठ-आठ...लाठियों से लैस एक तरफ और...दूसरी तरफ मैँ निहत्था...अकेला"


"बेवाकूफ!...अनपढ कहीं के...भला ऐसे भी कहीं खेली जाती है होली?"


"अरे!..खेलनी ही है तो...

'रंग' से खेलो...'गुलाल' से खेलो..

'जम' के खेलो और...ज़रा 'ढंग' से खेलो"


"कौन मना करता है?"...

"और!..करे भी क्योंकर?"...

"आखिर!..त्योहार है 'होली'...पूरी धूमधाम से मनाओ"...


"ये क्या कि पहले तो किसी निहत्थे को टुल्ली करो तबियत से"...

"फिर उठाओ और पटक डालो सीधा...बासी गोबर से भरे हौद्ध में?"


"ऊपर से!...बाहर निकलने का मौका देना तो दूर...

अपने मोहल्ले की लड़कियों से डंडो की बरसात करवा दी...सो अलग!..."


"हुँह!...बड़ी आई लट्ठमार होली"...


"स्साले!..अनपढ कहीं के"

"पता नहीं कब अकल आएगी इन बावलों को?कि...

मेहमान तो भगवान का ही दूसरा रूप होता है "...

"उसके साथ ऐसा बरताव?"...


"चुल्लू भर पानी में डूब मरो"


"खैर!..अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत वाली कहावत...आज पल्ले पड़ी मेरे"

"पहले ही समझ जाता सब कुछ!..तो ये नौबत ना आती"


'रह-रह कर बीवी के डायलाग रूपी उपदेश याद आ रहे थे कि...

"कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार"...

"अच्छा होता!..जो उसकी बात मान लेता"...

"कम से कम आज ये दिन तो नहीं देखना पड़ता"


"खैर!...कोई बात नहीं"...

"कभी तो ऊंट पहाड़ के नीचे आएगा"...

"उस दिन कंभख्त को मालुम पड़ेगा कि...कौन कितने पानी में है"..

"सेर को सवा सेर कैसे मिलता है".....

"इस बार नहीं तो अगली बार सही"...

"दो का नहीं तो...चार का खर्चा ही सही"


"हाँ!..कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार"...

"सच!...कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार"


***राजीव तनेजा****

"राम मिलाई जोड़ी...एक अन्धा...एक कोड़ी"




"राम मिलाई जोड़ी...एक अन्धा...एक कोड़ी"

***राजीव तनेजा***
नोट: ये कहानी मेरी पिछली कहानी "ना हींग लगी ना फिटकरी...रंग चढा चोखा ही चोखा" का ये दूसरा भाग है

"हाँ राजीव!..क्या हुआ तुम्हारी उस 'निम्मो' चूरन वाली का?"...
"पिछली कहानी में जिक्र कर रहे थे ना तुम उसका"शर्मा जी मेरी तरफ देख बोले
"शर्मा जी!...'निम्मो' नहीं...'कम्मो' "...
"हुँह!...'निम्मो' हो या 'कम्मो'...क्या फर्क पड़ता है?"...

"हाँ...हाँ!...क्या फर्क पड़ता है...
कोई तुम्हारा नाम बिगाड़ दे और तुम्हें कोई फर्क ना पड़ता हो तो बेशक ना पड़े"...
"मुझे फर्क पड़ता है"....
"आखिर!...मेरी कहानी की मेन सदस्या है वो ..
कोई ऐव्वें ही वेल्ला करैक्टर नहीं कि...जो जी में आए पुकार लो "
"मैडम जी!...अगले स्टेशन...'दिवाना' है"मैँ बात बदलने की गर्ज़ से मैडम से मुखातिब होता हुआ बोला....
"अब!...ये स्टेशन कब से दिवाने होने लग गए?"अनुराग मेरी बात को हँसी में उड़ाता हुआ बोला
"बेवाकूफ!...पूरे सवा दो साल होने को आए हैँ तुझे ट्रेनों में धक्के खाते हुए"...
"इतना भी नहीं पता कि...इस स्टेशन का ना 'दिवाना' है"मैँ उसे झाड़ पिला... अपने नम्बर बनाता हुआ बोला
"शायद!..आपने सुना तो होगा?"मैँ मैडम की मोहिनी सूरत ताकते हुए बोला...
"वही दिवाना?...जहाँ पिछले साल पाकिस्तान जा रही 'समझौता एक्सप्रैस' में बम्ब फटा था"मैडम दिमाग पे ज़ोर डालते हुए बोली
"जी!..जी हाँ...वही"...
'ये देखें...कैसे जले हुए दोनों डिब्बे अभी भी जस के तस वहीं के वहीं खड़े हैँ"मैँ खिड़की से बाहर खड़े डिब्बों की तरफ इशारा करता हुआ बोला
"उफ!..बहुत बुरा हुआ उन बेचारे यात्रियों के साथ"...
"अपनी तो ट्रेन ही कैंसिल हो गई थी...
सो!...पूरे पौने चार सौ का पैट्रोल फूँक के पहुँचा था उस दिन पानीपत"..
"क्यों झूठ बोल रहा है?...तेरी कार तो 'सी.एन.जी' पे चलती है"अनुराग मेरी पोल खोलता हुआ बोल पड़ा
"बारह किलो की टंकी है ना?...तो उन्नीस रुपए बीस पैसे पर किलो के हिसाब से...."अनुराग मन ही मन हिसाब लगाने लगा
"तो क्या हुआ?....
'एक सौ अस्सी' की 'सी.एन.जी' और बाकि बचे दो सौ का चाय-नाश्ता"मैँ झेंपता हुआ बोला...
"हाँ...हाँ!...पूरे रस्ते फोक्की चाय तो पिलाई नहीं गई थी तुझ से"...
"बड़ा आया ...नाश्ता करवाने वाला"...
"भूल गया क्या?...उस दिन शास्त्री सब के सामने तेरी दरियादिली की ऐसी तैसी ही तो फेर रहा था"....
"वो भी तो तेरे साथ ही गया था ना उस दिन?"
"हाँ!...हाँ...गया तो था"मुझे इस अनुराग के बच्चे की वजह से झेंपना पड़ रहा था
"सब पता है मुझे !..कितना बड़ा 'कंजूस-मक्खीचूस' है तू". ..
हमारी आपसी नोक-झोंक जारी ही थी कि साथ बैठे सज्जन पुरानी बात पे वापिस आते हुए बोले....
"अच्छा हुआ!....स्साले...मर..खप्प गए अपने आप"
"क्यों?...क्या वो इनसान नहीं थे?"मैडम ने तुनक कर पूछा...
"हाँ!...नाम भर के लिए तो वो इनसान थे ही"...
"नाम भर के लिए?"मैँ प्रश्नवाचक चिन्ह चेहरे पे लिए उन सज्जन की तरफ ताक रहा था ...
"जी!...नाम भर के लिए"...
"वो कैसे?"...
"वो ऐसे!...कि अगर वो सब इनसान थे तो जिनका...
सरेआम कश्मीर में कत्ल किया जा रहा था...या किया जा रहा है....
जिन हज़ारों को घर से बेघर किया जा रहा था...या किया जा रहा है ..
वो क्या इनसान नहीं ...जानवर थे...या जानवर हैँ?"वो महोदय सवाल के जवाब में और सवाल दागते हुए बोले
"हुँह!...अपना देश तो संभाला नहीं जाता ढंग से....चले हैँ दूसरे देश में इस्लामियत का परचम लहराने"...
"बड़े आए कश्मीर को आज़ाद करवाने वाले"...
"अपने देश का बच्चा-बच्चा जान दे देगा लेकिन...
अपनी आन...अपनी बान...अपनी शान पे बदनामी का दाग नहीं लगने देगा"अनुराग भी देशभग्ति से ओतप्रोत हो बोला
"ये तो वो शुक्र करें कि...ये हम ही हैँ जो सहन करते चले आ रहे हैँ"...
"अमेरिका...इंगलैंड...जर्मनी या फ्राँस या फिर किसी भी अन्य छोटे-मोटे देश के साथ ऐसा कर के दिखाएं ना"...
"तब पता चलेगा"शर्मा जी भी बात से सहमत थे
"दुनिया के नक्शे से पूरे देश का वजूद ही साफ ना हो जाए तो कहना"

"लेकिन!..अपने सिक्योरिटी वालों ने भी कम गलत नहीं किया"मैडम भी पीछे कहाँ हट रही थी....
"सुना है!...कि बाहर से सभी डिब्बों में ताला लगा दिया गया था"...
"सही है!...कम से कम इनसान को इनसान तो समझा जाना ही चाहिए"मेरा मैडम की हाँ में हिलाना तो जायज़ था ही

"शायद!...सिक्योरिटी के हिसाब से ठीक लगा होगा...तभी किया होगा"गुप्ता जी कुछ सोचते हुए बोले
"सिक्योरिटी का ये मतलब तो नहीं कि...इनसान को जानवर के माफिक दड़बे में बन्द कर बाहर से ताला लगा दिया जाए?"मैँ भी कौन सा कम था..
"मैडम जी!..सालों से हमारा खून चूस रहे हैँ ये कटुए स्साले. .."वो सज्जन मैडम से मुखातिब होते हुए बोले ...
"पाकिस्तान हमेशा अपने जन्म से ही हमारा दुश्मन रहा है"मुझे मैडम से बात करता देख अनुराग हमारा एंटी होता हुआ बोला....
"उसे कोई कुछ नहीं कहता"...
"हमारी बहस दो धड़ों में बंट चुकी थी"...
"हर बार लड़ाई की पहल वही करता है"...
"ध्यान रहे कि!...हर बार पहले उसी ने हमला किया है....हमने नहीं"गुप्ता जी भी अनुराग का पक्ष लेते हुए बोले...
"क्यों!...बांग्लादेश को किसने आज़ाद करवाया था"....
"हमने ना?"उन्हें दूसरे पाले मे देख मैँ आवेश में बोला...
"हमने उसके देश के दो टुकड़े कर दिए...और तुम कहते हो कि उसे ठेस भी ना लगे?"
"क्यों!...उसकी रीढ की हड्डी नहीं है क्या?"...
"वाह!...तुम चाहे जो करो...वो बदले में हाथ जोड़े खड़ा रहे?"मैडम भी मेरा साथ देने से पीछे नहीं हटी...
"इतना बे-गैरत भी ना समझो उसे"मैडम को अपने पाले में देख मैँ चौड़ा होता हुआ बोला...
"वहाँ अत्याचार हो रहा था बेचारे बंगालियों के साथ"अनुराग बोला...
"झगड़े हो रहे थे रोज़ाना"गुप्ता जी ने हामी भरी...
"अरे!...उनका देश था...वो खुद निबटते"मैडम भी पूरा लुत्फ उठा रही थी बहस का ....
"मेरे ख्याल से!...हमें बड़ा भाई बन उनका आपसी झगड़ा निबटाना ही नहीं चाहिए था"...
"क्या ज़रूरत पड़ गई थी इंडिया को दूसरे के फटे में टाँग अड़ा अपनी चौधराहट दिखाने की?"शर्मा जी का दार्शनिक अंदाज़ फिर सामने था
"सही कह रहे हो शर्मा जी आप भी!...हमें क्या ज़रूरत थी दूसरे के फटे में टाँग अड़ाने की?"...
"माना कि कोई ज़रूरत नहीं थी लेकिन वो कहते हैँ ना कि..
'ईंट का जवाब पत्थर से देना'....
तो बस!...यूँ समझ लो कि यही किया था हमारी प्रधानमंत्री 'श्रीमति इंदिरा गान्धी' ने"अनुराग गौरान्वित होता हुआ बोला.
"आखिर!...और कितना सब्र करते हम?"चुपचाप बहस का आनंद ले रहा दहिया भी अचानक विरोधी खेमे में जा घुसा ...
"सन पैसंठ की लड़ाई में हमने उसे नाकों चने चबवा दिए थे और दोबारा फिर 'इकहत्तर' की जंग में एक ही झटके में ऐसा बदला ले लिया कि. ..
ताउम्र ये घाव उसे टीसता ही रहेगा"वो बेनाम सज्जन फख्र से अपना सीना फुला...ऊप्स सॉरी...छाती फुला बोले..
"सीना तो...."शर्मा जी की घूरती आँख देख मुझे चुप हो जाना पड़ा
"ऐसा ज़ख्म दिया है...जो ना भर सकेगा"ध्यान ही नहीं रहा कि कब मैँ मैँ आमिर खान का नामालुम किस फिल्म का ये गीत गुनगुनाने लगा
"शायद कोई...हिट फिल्म थी"
"सही कह रहे हो इतनी आसानी से भरने वाला भी नहीं"मैँ फिल्म का नाम याद कर ही रहा था कि मैडम की आवाज़ से मेरा ध्यान भंग हुआ

"इसी सब का नतीजा है है ये आंतकवाद...ये छद्दम युद्ध... ये कारगिल"मैडम जी बात आगे बढाते हुए बोली...
"वो भी जानता है कि सीधे हमले में नहीं जीता जा सकता हमसे"
इसीलिए वो कभी 'कारगिल' ...तो कभी घुसपैठ...तो कभी...आत्मघाती 'बम विस्फोटों' के जरिए अपनी भड़ास निकाल रहा है"शर्मा जी बोले ...
"अपनी खुन्दक की वजह से. ..
हमारे देश की युवा वर्ग रूपी तलवार पे नफरत का पानी चढाया जा रहा है उसकी तरफ से"गुप्ता जी भी यदा कदा हमारी बातचीत में शामिल हो जाते थे
"इसे कहते हैँ खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे"अनुराग भी मेरी नकल मार मुहावरा जड़ता हुआ बोला....
"आखिर इस सब से उसे मिलेगा क्या?"...
"देश की जनता तो भूखों मर रही है और वो है कि...
परमाणु हथियारों का जखीरा इकट्ठा करता फिर रहा है"शर्मा जी का समझ नहीं आ रहा था कि वो किस तरफ हैँ...
"कुछ पता नहीं चल रहा था कि कौन सी पार्टी उनका वोट अपनी तरफ पक्का समझे"
"उनकी बातें कभी हमारी तरफ तो कभी उनके दूसरी तरफ होने का आभास सा दे रहीं थी"...
"उसे खतरा जो है हम से"दहिया भी बीच-बीच में अपनी उपस्तिथि दर्ज कराना नहीं भूल रहा था ...
"हम हिन्दुस्तानियों ने कभी पहले हमला किया है उस पे...जो उसे हम से खतरा है?"मैँ बोला
"किया तो नहीं लेकिन...डर तो है ही उसे"मुझे बोलता देख मैडम भी कौन सा कम थी ...
"यहाँ हमने पोखरन के जरिए अपनी परमाणु क्षमता उजागर की तो वो भी भला क्यों पीछे रहे?"
"वो?...वो परीक्षण तो हमने अपने ऊपर से अमेरिका का वर्चस्व हटाने को किया था..और वो इसे अपने एहं पे चोट समझ बैठा"शर्मा जी बोले
"शायद!...हमारे परीक्षण करने के अगले दिन ही उसने भी तो अपना परमाणु बम्ब चैक कर डाला था ना?"मैडम शर्मा जी की तरफ ताकते हुए बोली
"हम्म!...इसका मतलब...पहले से बना रखा होगा"उन्हें बोलता देख मैँ भला पीछे कैसे रहता...
"अरे!...रुको"...
"रुको तो सही"...
"ये क्या?...ये हम किस पाले से. ...किस पाले में एंटरी मार रहे हैँ?"
"कुछ पता ही नहीं चल रहा"...
"अभी थोडी देर पहले तो हम पाकिस्तान के हिमायती बने बैठे थे...और अब ये क्या है?"
"लगता है जैसे... सब गड़बड़ झाला हो रहा है"...
"खैर छोड़ो!...मज़ा तो आ रहा है ना?"...
"तो क्या ख्याल है?...चलने दें ऐसे ही?"...
"हाँ!..यही ठीक भी रहेगा"...
"अब!..उमड़ते-घुमड़ते विचारों का क्या है?...कभी इस तरफ तो कभी उस तरफ"मैँ जैसे खुद से ही बात कर रहा था...
"मैँ तो यही सोच रहा था कि हमने रातोंरात तैयार कर डाला था?"अनुराग भोली सूरत लिए-लिए बोला...
"हाँ!..हाँ...तुम्हारे हिसाब से तो इधर वाजपेयी जी ने फरमाईश की होगी कि "चलो!...फटाफट तैयार करो...सुबह फोड़ना है"
"और हमने रातोंरात तैयार कर डाला"मैँ उसका मज़ाक उड़ाते हुए बोला...
"अरे!...डोसा...इडली...सांबर नहीं है ये कि...
दिन में भिगोया...रात में खमीर उठा और अगले दिन सुबह पीस के...'इल्ले...लिल्ले...पिल्ले ....सापिलिण्डे पो'...
याने के इडली...डॉसा...वड़ा सब तैयार"मैँ पास से गुज़रते साउथ इंडियन खाना बेचने वाले वैंडर को देखता हुआ उसी अन्दाज़ में बोला
"हुँह!...लेना लिवाना कुछ होता नहीं है इन डेली पैसैंजरों को और बातें सुन लो इन से दुनिया भर की"वो भी मुझे देख बड़बड़ाता हुआ आगे निकल गया
"अरे बुद्धू!...ये सब तैयारी तो कई सालों से चल रही थी"...
"दोनों ही देश परमाणु हथियारों से आलरैडी लैस थे"मैँ अपना ज्ञान बघारते हुए बोला...
"बस कुछ यूं समझ लो कि..अमेरिका और कुछ बड़े देशों के डर से कोई भी अपने पत्ते खोल नहीं रहा था"दार्शनिक बने शर्मा जी बोले ...
"ये तो अपने वाजपेयी जी ही थे जिन्होंने तमाम तरह के प्रतिबन्धों की परवाह ना करते हुए हिम्मत दिखाई और मजबूरन हमारी देखादेखी
पाकिस्तान को भी अक्षरश हमारे किए का पालन करना पड़ा"गुप्ता जी भी हमारी बातचीत के ओवर में एक आध अपनी तरफ से बाउंसर डाले दे रहे थे
"हम तो झेल गए...लेकिन उसकी फटने को आई थी"मुझे डबल मीनिंग के डायलाग बोलते देख शर्मा जी ने मुझे घूर के देखा...
"राजीव!...तुझे कितनी बार कहा है कि अपने शब्दों में डी-सैंसी रखा कर"...
"अच्छे आदमी को शोभा नहीं देता है ऐसे शब्दों का प्रयोग करना"
"शर्मा जी!...क्या करूं मैँ भी?"...
"जब आम आदमी को अपनी भड़ास निकालनी होती है ...तो वो ऐसे ही शब्दों का इस्तेमाल करता है"...
"सो!...वही लिख देता हूँ कई बार"...
"सही कह रहे हो...मेरे साथ भी कई बार ऐसा होता है"गुप्ता जी भी मेरा साथ देते हुए बोले ...
"भई ...अपने से तो बिना गाली के बात ही नहीं होती है...
"ये तो साथ में ये महिला बैठी है...इसलिए पता नहीं कैसे मैँ कंट्रोल करे बैठा हूँ"...
वर्ना!...अभी तक सौ-पचास तो इस मुख से निकल ही चुकी होती"साथ बैठे सज्जन मेरी बात से सहमत होते हुए बोले
"अच्छी तरह मालुम हो चुका है इन पाकिस्तानियों को कि आमने-सामने की लड़ाई में वो कभी हमसे जीत नहीं सकते...
इसलिए अब बरसों से आंतकवाद और गुसपैठ के जरिए छद्म युद्ध जारी है उनकी तरफ से"वो सज्जन बोलते ही चले जा रहे थे ..
"वो कहते हैँ ना जिसे..सो कॉल्ड...'कोल्ड वॉर'...शायद 'दहिया' साहब मैडम को अपने अँग्रेज़ी के अध्यापक होने का अहसास कराने के मूड में थे
"इसलिए ताला लगा दिया तो कोई गुनाह नहीं किया"...
"एतिहातन...सावधानी बरतने में बुराई कैसी?"बातचीत को घुमा फिरा कर पुराने टॉपिक पे लाने का श्रेय गुप्ता जी को गया ...
"डर भी तो है कि कहीं से गलत लोग गाड़ी में सवार हों और ...दहशत फैलाने की गरज़ से बीच रास्ते में ही कहीं ना उतर जाएं"अनुराग बोला
"इसी वजह से ताला लगा दिया तो क्या बुरा किया?"
"उसके बजाए निगरानी हेतू सिक्योरिटी बढाई भी तो जा सकती थी"मैडम अपने पुराने रुख पे कायम थी....
"कोई चक्कर ही नहीं पड़ता अगर हर डिब्बे हथियारबंद जवानों की तैनाती की गई होती"
"वैसे भी पड़े-पड़े कौन सा दूध दे रहे होते हैँ या फिर...अँण्डे से रहे होते हैँ हमारे जवान?"...
"आराम ही कर रहे होते हैँ ना"मैँ भी हँसी-हँसी में व्यंग्य कस मैडम जी का साथ देता हुआ बोला
"क्यों है कि नहीं?मेरे इतना कहते ही सबकी हँसी छूट गई...
"तुम सही हो!...पुराने किस्से सुना मैडम को लुभा रहे हो. ...क्या हुआ तुम्हारी उस निगोड़ी ' कम्मो' का?"
" कोई है भी सचमुच में या यूं ही नम्बर बनाने को फोकट में रच डाला किरदार?"अनुराग शायद बोर हो बात बदलने के चक्कर में था
"अरे!...है क्यों नहीं?लेकिन...किसी बात तक पहुँचने के लिए 'भूमिका' तो बनानी ही पड़ती है"...
"क्यों!...मैडम जी?"...
"सही कहा ना मैँने?".मैँ मैडम की तरफ मुखातिब होता हुआ बोला
"इतनी लंबी भूमिका?"अनुराग मानों उपहास सा उड़ाता हुआ बोला
"सही है ना!...जैसा लम्बा खुद ये 'राजीव' ...वैसी ही लम्बी इसकी 'भूमिका'..."...
"एकदम सही मेल मिलाया है ऊपरवाले ने "ना जाने क्यों इतना कह वो मैडम हौले से मुस्कुरा दी....
"सही है!...लगे रहो"...
"राम मिलाई जोड़ी...एक अन्धा...एक कोढ़ी'.."मैडम की बाजू पे 'भूमिका' नाम खुदा देख जलभुन कोयला होता हुआ अनुराग बोला
"खैर!...उसकी बात से बेखबर...मैडम की तरफ से ग्रीन सिग्नल देख....मेरा बोलना जारी रहा"....
"पता भी है कुछ कि 'सूरत' के पास कितना बड़ा कांड हो गया?"...
"ज़रूर!... तुम्हारी ही 'सूरत' देख के हुआ होगा"बिना सोचे समझे अनुराग बोल पड़ा
"शश्श!...चुप....बिलकुल चुप"...शर्मा जी अनुराग को चुप कराते हुए बोले
"क्या हुआ?"....
"हाँ!...बताओ...क्या हुआ?"सबको मेरी तरफ ताकता देख दहिया मुझ से पूछ बैठा
"अरे मत पूछ यार मेरे कि.....क्या हुआ और..क्या नहीं".....
"बस!..यूँ समझ लो कि...
"धरती फटने वाली है...आकाश हिलने वाला है"मैँ ड्रामैटिक अंदाज़ में हाथ हवा में हिलाता हुआ बोला
"और ये सब हो रहा है...हम सब के पापों की वजह से"...
"अब क्या हुआ?"....
"कुछ बताएगा भी?"शर्मा जी मुझे बेफाल्तू में फुटेज खाते देख गुस्से से बोले ...
"शर्मा जी!...अगली कहानी में लिखता हूँ ना बाकि का किस्सा"......
"क्यों यार?...फ्री में सस्पैंस क्रिएट कर रहा है?"दहिया जी के चेहरे पे भी उत्सुकता का भाव था ...
"शर्मा जी!..आप ही तो कहते हो कि ज़्यादा लम्बा ना लिखा कर"...
"तंग आ के पढने वाले कम होते जाएंगे दिन प्रतिदिन"...
"अगर ज़्यादा लम्बी कहानियाँ लिखेगा तो...रीडरशिप भी घटती जाएगी तेरे ब्लॉग पे "
"इसलिए आपकी नेक सलाह को मानते हुए इस बार की कहानी यहीं खत्म"...
"तो फिर उस 'कम्मो' का क्या हुआ?'....
"पूरी कहानी में कहीं नज़र नहीं आई"अनुराग मेरी कहानी में कमी निकालने में जुटा था....
"ध्यान से देख बेटे लाल!...एक बार तो अवश्य जिक्र किया है मैँने कहानी में...
इनफैकट!...हमारी इस बार की कहानी भी उसी से शुरू हुई थी....
"विश्वास नहीं है तो. ..फिर से चैक कर ले"...
"बस!...इतना सा...पिद्दी सा रोल दिया उस बेचारी को?"...
"हुँह!...नाम बड़े और दर्शन छोटे"...
"अरे!...काहे को दर्शन छोटे?"......
"मेन करैक्टर है वो मेरी कहानी की"....
"यूँ समझ लो कि जान बसी है मेरी कहानी की उसमें लेकिन...
मैँ करूँ भी तो क्या करूं?...अब बात खिचने लगती है तो खिंचती ही चली जाती है"...
"अब आप ही बताओ कि इस कहानी में से भला कौन सा हिस्सा काट के अलग करूँ?"...
"कोई जल्दी नहीं है...आराम से बता देना"...
"ये कमैंट बाक्स इसीलिए है ना"
"तो मिलेगा ना आप सभी से कमैंट?"...
"खैर!..कहानी को अब बस यहीं विराम देते हुए...मिलते हैँ ब्रेक के बाद"
"क्यों ठीक रहेगा ना?"...
"अब रहे ना रहे..क्या फर्क पड़ता है?"...
"वैसे एक बात कहूँ मैँ सच्ची सच्ची?"...
"दरअसल सच तो ये है कि कहानी लिखते-लिखते सुबह के पाँच बज चुके हैँ और....
अब कीबोर्ड पे उँगलियाँ चटखाते चटखाते मेरी उँगलियाँ तक दुखने लगी हैँ"...
"कीबोर्ड की टक टकाटक से अपनी इकलौती श्रीमति जी भी थोड़ा डिस्टर्ब सा फील कर रही हैँ...
"अब सच कहें तो...टक टकाटक का मज़ा तो जागती आँखों से ही है"...
"गहरी नींद में टक टकाटक से तो आप भी 'फील गुड' करने से रहे"....
"अब ये टक टकाटक से आप मतलब समझते हैँ कि नहीं?"
"ऊप्स सॉरी!...शर्मा जी ने डबल मीनिंग के डॉयलॉग लिखने से मना किया है"
"सो!...फिलहाल इतना ही"...
"फिलहाल चलता हूँ ...और जल्द ही अगली कहानी में हाज़िर होता हूम अपनी 'कम्मो' के साथ"...
"इस बार पक्का"...
कसम से!...गॉड प्रामिस"...

***राजीव तनेजा****
 
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