मेरा खुला पत्र पं.डी.के.शर्मा "वत्स" उर्फ ‘बनवारी लाल’ के नाम

panditastro 
आदरणीय पंडित जी,प्रणाम
अभी कुछ घंटे पहले ही फोन पर आपसे सोहाद्रपूर्ण तरीके से बतियाने के बाद आपकी ये ताज़ी पोस्ट  
बुद्धिमानों का सम्मेलन और बनवारी लाल जी की मन की पीडा   अनायास ही पढ़ने को मिली …जान कर अच्छा लगा कि आप तो पूरे किस्सागो टाईप के होते जा रहे हैं…ठीक अपुन के जैसे ही…ज़रा सी बात का बतंगड कैसे बनाया जाता है?…ये भी आपसे सीखने को मिला …उम्मीद है कि मेरे इस पत्र के बाद आपको भी मुझ से काफी कुछ सीखने को मिलेगा|
चलिए!…पहले बात करते हैं आपकी उक्त पोस्ट की तो आपकी इस पोस्ट के नायक बनवारी लाल ने एक नहीं दो नहीं बल्कि कई बेवकूफियां एकसाथ …एक ही टाईम पे की की…
पहली बेवकूफी तो ये कि साफ़-साफ़ …एकदम क्लीयरकट पता होने के बावजूद कि दिल्ली में सिर्फ और सिर्फ बुद्धिमान व्यक्तियों का सम्मलेन हो रहा है और वहाँ बेवकूफों के लिए कोई जगह ही नहीं है…तो ऐसे हालात में मौके की नजाकत को समझते हुए उन्हें वहाँ जाने के बारे में सोचना ही नहीं चाहिए था और चलो…अगर सोच भी लिया तो उसे अमल मे नहीं लाना चाहिए था और अगर अमल मे लाना इतना ही ज़रुरी था कि उसके बिना चैन नहीं पड़ रहा था तो थोड़ी तो बुद्धिमत्ता दिखानी थी अपनी कम से कम कि अपने पल्ले से धेला रुपिय्या खर्च  करने के बजाए किसी छकड़े वाले से या फिर किसी बैलगाडी वाले से चिरौरी कर मुफ्त में दिल्ली तक की यात्रा कर लेनी थी  

चलो!…मान लिया कि उस समय काम का सीज़न और बिज़ी शैड्यूल होने की वजह कोई भी छकड़ा या बैलगाड़ी खाली नहीं थी…स्पेयर नहीं थी लेकिन दिमाग तो खाली नहीं था आपके उन तथाकथित बनवारी लाल जी का?…क्योंकि गोबर तो उसमें पहले से ही आलरेडी भरा हुआ था…थोड़ा गुड़ और डाल देते तो कुल मिला के पूरा गुड़-गोबर होने में कोई कसर बाकी नहीं रहती| पट्ठे को…ज़रा सी भी अक्ल होती तो उस समय इधर-उधर व्यर्थ में अपना पैसा धेला फूंकने के बाद आज इतने महीनों बाद पछताता तो नहीं…

आप तो उनके अपने थे…थे क्या?..हैं…आप ही उन्हें ये नेक राय दे देते कि…

“वत्स!…क्यों बेकार में ..उल-जलूल बंदों के लिए अपना मेहनत से…लोगों को पागल बना कमाया पैसा लुटाता है?…अक्ल से काम ले और ध्यान से देख…ये नैशनल हाइवे है और ठीक इसके बगल में ही ये फ्री-फंड का धोबीघाट खुला हुआ है…चुरा ले वहीँ से एक-आध तन्दुरस्त सा मोटा-ताज़ा गधा और किसी रण में हारे बांकुरे की भांति झट से छलांग लगा और फट से सवार हो जा उस मरदूद की घिन्नियाती पीठ पर|दो-चार…या ज्यादा से ज्यादा दस-बारह दुलत्तियाँ ही तो पड़ेंगी…उनसे ना घबरा क्योंकि गिरते हैं शहसवार ही मैदान ऐ जंग में”

अब आप अगर यहाँ अपनी दिन पर दिन कम होती बुद्धि से ये बेफिजूल का तर्क भी देना चाहें तो बेहिचक…बिना किसी संकोच के दे सकते हैं कि …

“इरादा तो मेरा भी यही था कि बनवारी लाल गधे पे बैठ के ही दिल्ली तक का सफर तय करे लेकिन इसमें डर यही था कि… देर ना हो जाए…कहीं देर ना हो जाए"…

“अरे!…अगर इतनी ही चिंता थी देर होनी की तो घर से हफ्ते-दो हफ्फ्ते पहले निकलना चाहिए था ना उस मरदूद को"…

आगे आप लिखते हैं कि… “आपके वो बनवारी लाल जी जैसे तैसे रास्ता खोजते-खोजते उस आयोजन स्थल तक पहुँच ही गए” 

तो भाई मेरे!.…इत्ती ढेर सारी मगजमारी करने की ज़रूरत ही क्या थी भला?…माना कि आपका बनवारीलाल आला दर्जे का बेवाकूफ था  लेकिन वो धोबीघाट का चुराया हुआ गधा तो कम से कम समझदार था ना? …उन्हें…उसे ही अपना हमजोली बना..अपनी मिचमिचा कर फड़फड़ाती हुई(चिपचिपी सी) बायीं आँख को ज़रा सा कष्ट देना था और काम ने देखते ही देखते अपने आप बनते चले जाना था|

“क्या हुआ?…नहीं समझे?…ऊपर से निकल गई बात?”…

“कोई बात नहीं…कोई बात नहीं….इसमें आपका तनिक भी कसूर नहीं…विनाश काल मे अक्सर विपरीत बुद्धि हावी हो जाती है"..

“अब भी नहीं समझे?”…

“अरे यार!…सिम्पल सी बात है…आपके उस बनवारी लाल जी ने उस मनमोहने गधे को हौले से आँख मारते हुए एक ज़रा सा…तनिक सा इशारा भर कर देना था कि वो बेचारा…उनके इस एहसान के बोझ का मारा …पल भर के लिए भी क्रोधित हुए बिना अपनी प्यार भरी मुस्कान के साथ उन्हें ऐसी धोबीपछाड़ दुलत्ती मारता कि वो शूं ssss करते हुए सीधा आसमान में कई गोते लगाने के बाद  सीधा दिल्ली में हो रहे उस तथाकथित गोल मेज़ सम्मलेन की उस बड़ी सी ही टेबल पर सर पटकते हुए आराम से धूम-धडाम कर चुपचाप से लैंड कर जाते|

इसके बाद कई-छोटी-छोटी बातों के बाद जैसा आपने बताया कि…

थोडी देर बाद सभा समाप्त हुई तो, आयोजकगण वहाँ उपस्थित सभी मेहमानों को भोजन का आग्रह करने लगे. बनवारी लाल जी तो पहले ही उनके स्नेहभाव से अभिभूत थे, चाहकर भी उनके द्वारा बारम्बार किए गए इस विनम्र आग्रह को टाल न सके.......और भोजन पश्चात आयोजकगण की शिष्टता, मिलनसारिता एवं सत्कारभावना से अभिभूत उन्होंने सभी सदस्यों सहित विदा ली..........

आपके अनुसार…अब यहाँ तक तो सब ठीक रहा.....किसी से कैसी भी कोई शिकायत नहीं लेकिन सम्मेलन के बहुत समय बाद की बात है कि एक दिन एक बुद्धिमान व्यक्ति उस सम्मेलन के औचित्य को लेकर कुछ सवाल खडे कर रहे थे तो भूलवश अपने बनवारी लाल जी का अचानक ही उधर को जाना हो गया और वहाँ प्रसंगवश उन्हे ये बात कहनी पडी कि…

"जी गलती से मैं भी उस सम्मेलन में उपस्थित था"..

यहाँ आपने कहा कि आपके बनवारीलाल जी भूलवश वहाँ चले गए थे तो ऐसा अगर सच में सही था तो उन्हें उसी वक्त अपनी भूल को सुधारते हुए बिना कुछ कहे चुपचाप वापिस लौट चले आना था जैसा कि कईयों ने किया होगा| वहीँ माथा टेक के उलटी जुगाली करने की ज़रूरत क्या थी उनको? 

अब यहाँ आप तर्क दे सकते हैं कि…

“तो क्या हुआ?… मुफ्त का खा-पी कर और हकने-मूतने के बाद उलटी जुगाली करने की तो बहुतों की आदत होती है…अपने बनवारीलाल जी ने ऐसा किया तो क्या गलत किया?”..

आप बेशक अपनी बात से इतेफाक रखते हों लेकिन मुआफ कीजिये…मेरी नज़र में तो ऐसे घटिया और ओछे लोगों को तो सरे बाज़ार ऐसे ज़लील किया जाना चाहिए…ऐसे ज़लील किया जाना चाहिए कि उनकी आने वाली सात पुश्तें तक अपनी बेशर्मी से भरे इस किस्से को याद रखें और बतौर विरासत अपनी अगली पीढ़ी को फारवर्ड करती चलें 

गुस्सा आ गया होगा आपके उस तथाकथित अशिष्ट, अभद्र व्यक्ति जो कि उस सम्मेलन मे भी शामिल था…अब जैसा बीज बोएंगे…वैसी फसल भी तो काटनी ही पड़ेगी ना?…क्यों?…है कि नहीं?…

अब आप ही बताइए कि …बोया पेड़ बबूल का तो फल कहाँ से होए?

गुस्से में कह बैठा होगा बेचारा कि…

" बनवारी लाल जी, आप सम्मेलन मे खाना तो बडे चपर-चपर कर खा रहे थे, अब आप अपने सम्मिलित होने को गलती बता रहे हैं"…

अब आपके बनवारी लाल जी ऐसा अंट-शंट बकेंगे तो जूते तो पडेंगे ही पड़ेंगे…क्यों?…है कि नहीं?” …..

खैर!…जो हुआ..सो हुआ…अब बीती बातों को बिसार कर आगे चलते हैं…और हाँ!…अब आगे की कहानी आप नहीं बल्कि मैं सुनाऊंगा क्योंकि या तो बनवारी लाल जी ने आपको पूरी बात नहीं बताई या फिर आप जानबूझकर एक अहम बात सबसे छिपा रहे हैं(शायद!…आपकी नीयत में खोट है)… कि  सम्मलेन से विदा लेते वक्त आपके बनवारी लाल जी ने उसी तथाकथित ‘अभद्र’ एवं ‘अशिष्ट’ व्यक्ति के साथ…उसी की काली कार में …फर्राटे भरते हुए लक्ष्मीनगर से किंग्जवे कैम्प तक का सफर हंसी-खुशी से बतियाते हुए किया था..

हो सकता है कि मेरी इस बात को आप सिरे से ही नकार दें और अपनी सफाई में दो बातें रखें….

पहली तो ये कि…बनवारी लाल जी के पास तो उनकी…खुद की निजी सवारी…याने के एक बेजोड़ ‘गधा’ थी…उन्हें भला किसी की काली-पीली गाड़ी में बैठ फ़ोकट में इतराने की ज़रूरत क्या थी?…

तो इसके जवाब में आप चाहें तो सुदूर जर्मनी में बैठे अपने एक ब्लॉगर साथी से इस बात की तस्दीक भी करवा सकता हूँ कि आपके बनवारी लाल जी उस ‘अभद्र’ एवं ‘अशिष्ट’ व्यक्ति के साथ हंस-हंस कर बतिया रहे थे कि नहीं?

अब चलते हैं दूसरी बात की तरफ…तो दूसरी बात ये है कि समय बड़ा बलवान है…उसके आगे किसी का बस नहीं चलता है…दुर्भाग्य से किसी अनहोनी के चलते ये भी हो सकता है कि पल भर के लिए ही सही…आपकी मति अल्प समय के लिए किसी ना किसी कारण भ्रष्ट हो जाए आप सीधे-सीधे उस ‘अभद्र’ एवं ‘अशिष्ट’ व्यक्ति पर ही खुलेआम आरोप लगा दें कि वो खुद ही होक्के पे होक्का लगाए जा रहा था कि….

“आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा..आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा"…

“वन वे जाएंगे…फुल स्पीड जाएंगे…कहीं रुकेंगे ना हम"..

तो ऐसे बनवारी लाल क्या करते?…बैठ गए बेचारे फट से छलांग लगा कूदी मारते हुए गाड़ी में…इसमें उनकी गलती ही क्या है?

मेरे हिसाब से ये गलती नहीं…गलता है…

अब आप पूछेंगे कि…क्यों?”…

तो मेरा जवाब बस यही होगा कि…

“अरे!…अगर हांडी का मुंह खुला हुआ हो तो लार टपकाने वालों को तो कम से कम कुछ शर्म करनी चाहिए कि नहीं?    

इसके बाद आपने कहा कि… “हालाँकि अपने बनवारी  लाल जी इतनी हैसियत रखते हैं कि बुद्धिमानी का नकाब पहने ऎसे चपड़गंजूओं के पूरे खानदान को बरसों तक मुफ्त में घर बैठे खिला सकते हैं”…

अरे!…तो फिर देर किस बात की है?…आप न्योता भेज के तो देखिए…एक छोटा सा सम्मेलन  करा के तो देखिए …संपूर्ण भारत से पूरी बरात बराबर चपड़गंजू आपके घर-द्वार और आले-द्वाले ना आ के धमक पड़ें तो फिर कहना

ओह्हो!…ये मैं क्या कह गया?… मुआफ कीजिये बेध्यानी में छोटी सी बहुत बड़ी गलती हो गई…

आपके वो बनवारी लाल जी तो ठहरे सुसंस्कारित व्यक्ति,जो कि चाहकर भी उस स्तर पर नहीं उतर सकते जहाँ ये सभ्य समाज के तथाकथित सभ्य इन्सान खडे हैं”…

“जी!…हाँ …आपके वो बनवारी लाल जी अपनी ओछी…घटिया एवं निंदनीय हरकतों की वजह से अपने लाख चाहने के बावजूद भी हम जैसे सभ्य इंसानों के बीच कहीं पर भी खड़े होने के लायक ही नहीं हैं 

आपने कहा कि… “बनवारी लाल जी समझ नहीं पा रहे थे कि ऎसे घटिया लोगों को अपनी अशिष्टता का परिचय देने और अपनी औकात दिखाने से भला क्या हासिल हो जाता है?...

तो यहाँ मैं बस इतना ही कहना चाहूंगा कि औकात के साथ-साथ अपनी ज़ात भी आपके उन तथाकथित चपड़गंजुओं ने नहीं बल्कि बनवारी लाल जी ने दिखाई है …

पता नहीं ऐसे घटिया लोगों को अपनी अशिष्टता का परिचय देने और अपनी औकात दिखाने से भला क्या हासिल हो जाता है?..

आपने आगे कहा कि ….ऎसे लोगों के रहते इस दुनिया के भाग्य में अभी बहुत से दुर्दिन देखने बाकी है.......

यहाँ मैं भी आपसे सहमत हूँ कि बनवारी लाल जी जैसे घटिया और ओछे व्यक्तियों के रहते इस दुनिया के भाग्य में अभी बहुत से दुर्दिन देखने बाकी है.......

अंत में आपने कहा कि… बेचारे बनवारी लाल जी अपनी आत्मा पर एक बहुत बड़ा बोझ लिए बैठे हैं…

तो मैंने पहले भी अपने इसी वक्तव्य में आपको समझाया था कि ऐसा क्यूँ हो रहा है?……अब उसी बात को नए तरीके से…नए लहजे में जोर दे के फिर से समझाता हूँ कि ….

“जैसे कर्म करेगा…वैसे फल देगा भगवान”…

“ये है गीता का ज्ञान…ये है गीता का ज्ञान"…

आपने कहा कि… “आयोजकगण अथवा वहाँ उपस्थित अन्य ज्ञानियों में से कोई उन्हे अपना पता अथवा बैंक एकाऊंट नम्बर ही भेज दे, ताकि उन्हे उस भोजन की मूल्यराशि चुकाई जा सके”…

तो भइय्या मेरे!..क्यों खुद भी इनकम टैक्स के पचड़े में फंसते हो और हम जैसे मासूमों को भी फंसाते हो?…समझदारी के ढक्कन को खोल उसमें थोड़ी ताज़ी हवा को भर जाने दो…एक से एक नायब आईडिए आएंगे एहसान चुकाने के …जल्दी क्या है?…अपना आराम से सोच-समझ के चुकाते रहना… और हाँ!…अगर बाज़ार में छाई मंदी के चलते नीयत में कभी खोट भी आ जाए तो घबराना मत…ये सोच के खुद को तसल्ली देते हुए संतोष कर लेना कि…

“मैं तो ब्राह्मण आदमी हूँ…किसी का खा लिया तो क्या गुनाह किया?”… 

और हाँ!…ये आपने सही कहा कि… इस जीवन का क्या भरोसा?… प्राण निकलते कोई देर थोड़े ही लगा करती है?...

और अगर देर हो भी रही हो तो घबराना मत…सीधा ऊपरवाले का नाम ले के चुल्लू भर पानी में डूब मरना …

और हाँ!…इस बात की कतई चिंता ना करना कि बिना कीमत चुकाए अगर कल को मर-मुरा गए तो पता नहीं उसके बदले में आगे चलकर क्या कुछ भुगतान करना पड जाए?....

जो लेना होगा…हम आप ही ले लेंगे…बक्शने वाले बिलकुल नहीं हैं…बस इतना समझ लीजो 

और अंत में ये छोटा सा डिस्क्लेमर भी हो जाए…

डिस्क्लेमर: हाँ!…सच में ये आपसे करबद्ध निवेदन है कि इसे कृ्प्या हास्य न समझ लें…

विनीत:

सदा से आपका ‘राजीव तनेजा’

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मिले लट्ठ मेरा तुम्हारा...तो सर फटे हमारा

***राजीव तनेजा***

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“ठक्क- ठक्क”….

“ठक्क……ठक्क- ठक्क”….

“आ जाओ भाई…आ जाओ…यहाँ तो खुला दरबार है…कोई भी आ जाओ"…

“नमस्कार!…गुप्ता जी….कहिये अब तबियत कैसी है आपकी?”…

“मेरी तबियत को क्या हुआ है?”…

“मुसद्दीलाल के मुंह से उड़ती-उड़ती खबर सुनी थी कि जब से आप उस ब्लॉगर मीटिंग से होकर आए हैं….तभी से पेट पकड़ कर संडास में बैठे हुए हैं…किसी को अंदर ही नहीं आने दे रहे"…

“अभी आपको आने दिया ना?”…

“आने तो दिया लेकिन कितनी मुश्किलों…कितनी दुश्वारियों के बाद?…कम से कम बीस दफा कुण्डी खड़काई होगी मैंने …मेरा हाथ तक दुखने लगा है”….

“हाथ तो मेरा भी बहुत….खैर छोडिए इस बात को…कहिये…कैसे याद किया?”…

“कैसे याद किया से मतलब?…आपसे ऐसे ही मिलने नहीं आ सकता?”…

“लेकिन फिर भी…ऐसे अचानक…बेवक्त टपकने का कोई औचित्य…कोई मकसद तो ज़रूर होगा"..

“सब मेरी ही गलती है….सब मेरी ही बेवकूफी है…मैं ही पागल था जो आपका पेट खराब होने की बात का पता चलते ही अपने सभी गैरज़रूरी काम छोड़ ..नंगे पाँव…आपकी खिदमत में दौड़ा चला आया"…

“ऐसी कौन सी आग लग गई थी मेरे पेट में जो तुम फायरब्रिगेड बन उसे बुझाने चले आए?…ज़रा से जुलाब ही तो लगे थे?”…

“ज़रा से?…हद हो गई अब तो लापरवाही की भी ….पिछले तीन दिन से आप टायलेट से बाहर नहीं निकले हैं और आप इसे ज़रा से जुलाब कह रहे हैं?…ज़रा से?”…

“तुम्हें कैसे पता चला?”…

“क्या?”…

“यही कि पिछले तीन दिनों से मैं टायलेट से बाहर नहीं निकला हूँ"…

“इसमें पता लगने की क्या बात है? …ये तो पूरे जग-जहाँ को मालुम है"…

“पंजाब केसरी में खबर छपी थी क्या?”गुप्ता जी का उत्सुक चेहरा ..

“इस बारे में तो मुझे कुछ नहीं पता लेकिन इतना ज़रूर पता है कि पिछले तीन दिनों से आप लगातार अपना चाय-नाश्ता वगैरा…सब अन्दर ही मँगवा रहे हैं"...

"ओह!…लेकिन ये तो अन्दर की बात थी...बाहर कैसे आ गई?"...

“मुझे क्या पता?”…

“हम्म!…इसका मतलब किसी घर के भेदी ने ही लंका ढाह दी है"…

“लेकिन ऐसा मरदूद भला कौन हो सकता है जिसे आपके घर की…आपकी हरकतों की पल-पल की खबर रहती हो?”…

“घर की नहीं…सिर्फ टायलेट की…वहीँ की चिटखनी तो टूटी हुई है ना?"…

“ओह!…तो इसका मतलब…मैं ऐसे ही पागलों की तरह …आप पहले नहीं बता सकते थे क्या?”मैं क्रोधित सा होता हुआ बोला …

“कैसे बताता?…किस मुंह से बताता कि हिंदी के इतने बड़े ब्लॉगर के गुसलखाने की सिटखनी टूटी हुई है?"…

“अब भी तो उसी मुंह से बता रहे हैं ना?…कम से कम बाहर एक तख्ती ही लटकवा देते कि…

“सावधान!…चिटखनी टूटी हुई है…अपने रिस्क व जोखिम पर पूरे होशोहवास में प्रवेश करें"…

“ताकि सबके सामने अपना जलूस निकलवा लूँ?”…

“जलूस तो अब भी आपका निकलना ही है गुप्ता जी…मैं आपको इतनी आसानी से बक्शने वाला नहीं"…

“अगर ऐसी ही बात है तो फिर यहाँ…मेरे साथ…मेरे टायलेट में क्या कर रहे हो?…दफा हो जाओ यहाँ से"…

“मुझे भी आपके साथ यहाँ...इस खुशबूदार माहौल में बैठ के बेकार की गुफ्तगू करने का कोई शौक नहीं है"…

“तो फिर जाओ ना…जाते क्यूँ नहीं?”…

“हाँ-हाँ!…जा रहा हूँ मैं…लेकिन याद रखना तुम्हारी एक-एक पोलपट्टी खोल के ना रख दी पूरे ब्लॉगजगत के सामने तो मेरा भी नाम ‘खुमार बुलबुला’ नहीं"…

“ओह!…माय गाड...ये म्मै…मैं क्या कह गया?”…

“हम्म!…तो इसका मतलब तुम्हीं वो सड़ान्ध मारते पानी का बदनुमा सा बुलबुला हो जो ज़लज़ला बन पूरे ब्लोग्जत में ‘लैला'(नया तूफ़ान) के नाम से सुनामी का कहर बरपा रहा है"...

“न्नहीं!..…नहीं तो"…

“ठीक है!…तो फिर जाओ…खोल दो मेरी पोलपट्टी पूरे ब्लॉगजगत में…तुम्हारा वहाँ बेसब्री से इंतज़ार हो रहा होगा"…

“म्मै …मैं तो बस ऐसे ही मजाक कर रहा था”…

“झूठ!…बिलकुल झूठ"…

“नहीं!…सच्ची…कसम से"…

“ठीक है!…तो फिर खाओ!….काणे कुत्ते की कसम"…

“काले कुत्ते की कसम"...

"काले कुत्ते की नहीं...काणे कुत्ते की कसम"...

"काणे कुत्ते की कसम...मैं तो बस ऐसे ही...ज़रा सा मजाक कर रहा था"..

“हम्म!...

"प्लीज़!...ये बात किसी से कहिएगा नहीं"...

"अरे-अरे!…घबराओ मत…अगर तुम ‘खुमार बुलबुला’ हो तो मैं भी किसी ‘गपोड़शंख’ से कम नहीं"…

“ओह!…माय गाड...तो इसका मतलब आप वही फेमस ‘गपोड़शंख’ है जिनकी टिप्पणियाँ पढ़-पढ़ के अच्छे-भले गुर्दे वाले ब्लोग्गरों का भी जी मिचलाने लगता है?”…

“आफकोर्स!…मेरे अलावा और कौन हो सकता है?”…

“ठीक है!...ओ.के..बाय...मैं चलता हूँ”…

“क्या हुआ?”…

“कुछ नहीं…बस ऐसे ही…जी मिचला रहा है थोड़ा सा"…

“अरे!…अरे भाई…ज़रा आराम से …क्या गज़ब करते हो?…ऐसे…अचानक…तैश में आ के बाहर निकलोगे तो ब्लॉगजगत के लोग-बाग क्या सोचेंगे?”..

“क्या सोचेंगे?”…

“यही कि तनेजा और गुप्ता में छतीस का आंकड़ा है"…

“ओह!…

“लो...ये क्लोरमिंट की गोली लो और आराम से वहाँ कोने में ऊंकड़ूँ  हो के बैठ जाओ...आराम मिलेगा"...

“जी!…शुक्रिया"….

"इसमें शुक्रिया की क्या बात है?..आप मेरे मेहमान हैं…इस नाते मेरा धर्मं बनता है कि मैं हर संभव तरीके से आपकी सेवा-स्रुषा करूँ"…

“अरे वाह!...ये तो कमाल का जुगाड बताया आपने...सारी की सारी मिचलाहट एक मिनट में ही हवा हो गई"...

"और नहीं तो क्या?...पिछले तीन दिन का प्रैक्टिकल तजुर्बा है मुझे"...

"क्लोरमिंट चबाने का?"..

"नहीं!...ऊंकड़ूँ बैठ भैंस के माफिक जुगाली करने का"...

"ओह!…

"वैसे सच में ऊंकड़ूँ बैठ के क्लोरमिंट चबाने में कितना मज़ा आता है ना?”…

“बहुत"…

"आप थोड़ा साईड में हो जाएंगे…प्लीज़"…

“क्यों?…क्या हुआ?”…

“कुछ खास नहीं…बस ऐसे ही…..ऊंकड़ूँ बैठे-बैठे पाँव ज़रा सा सो गया है शायद"...

“ओह!…पहलेपहल मेरे साथ भी यही दिक्कत हो रही थी लेकिन लेकिन अब ठीक है"...

"तुम एक काम करो"...

"क्या?"..

"यहाँ आ के मुझ से सट के बैठ जाओ..आराम मिलेगा"...

“लेकिन वहाँ तो पहले से ही जगह काफी तंग है"…

“जगह पे मत जाईए तनेजा जी…दिल पे जाईए…दिल में जगह होनी चाहिए”….

“जी!…

“जगह का क्या है?..आज तंग है तो कल को खुल भी जाएगी"…

“जी!…बिलकुल...शुक्रिया"मैं उनके साथ सट के बैठ जाता हूँ...

“अब ठीक लग रहा है"…

“जी!..लेकिन क्या आपको यहाँ थोड़ी सफोकेशन सी महसूस नहीं हो रही?”..

“थोड़ी क्या?…काफी महसूस हो रही है ….अब एक की जगह दो-दो एडजस्ट हो जाएंगे तो…..सफोकेशन तो अपने आप होनी ही है"…

“जी"…

“ठीक है!…तो फिर चलिए…बाहर निकल के आराम से बैठते हैं"…

"जी!...

"लेट मी फिनिश दा जॉब”…

“ओ.के"मैं दरवाज़ा खोल बाहर निकल जाता हूँ …

(कुछ देर बाद फ्लश चलने की आवाज़ के साथ दरवाज़ा खुलता है)

“हाँ!…तो मैं क्या कह रहा था?”…

“सफोकेशन"…

“वो तो अब बची कहाँ है?…बाहर निकलते ही छूमंतर हो गई"…

“जी!…यही फर्क होता है अंदर का और बाहर का"…

“जी"…

“अब बताएँ कि तबियत कैसी है आपकी?”…

“पहले तो ऊपरवाले के फज़ल से ज़रा परेशानी में फंस गया था लेकिन अब भगवान की दया से काफी आराम है"…

“शुक्र है उस खुदा…उस नेक परवरदिगार का कि आप ठीक हो रहे हैं”…

“जी"..

“लेकिन ये सब हुआ कैसे?”…

“होनी को शायद यही मंज़ूर था...उसके आगे भला किसकी चली है?"...

"कहीं ये उसी पागल के बच्चे की शरारत तो नहीं थी आपको परेशान करने की?”..

“अरे!...नहीं यार…उसमें भला इतना दम कहाँ कि वो मुझसे पंगे ले सके?...ये तो उलटा मेरी ही शरारत थी उससे पंगा ले उसे  सरे बाजार नंगा करने की"...

"लेकिन यहाँ तो उसी दिन से आप नंगे हुए पड़े हैं"...

"हाँ!...यार...बात तो तुम सही ही कह रहे हो...खेल तो मैंने खूब सोच समझ के एकदम बढ़िया से खेला था लेकिन वो कहते हैं ना कि हर वक्त सितारे आपके फेवर में नहीं होते"..

"जी"...

"बस!...यही हुआ मेरे साथ...एन वक्त पे बाज़ी पलट गई"...

"ओह!...आप मुझे शुरू से बताएँ कि आखिर...हुआ क्या था?"...

"एक मिनट!...पहले मैं ज़रा ये हाथ धो लूँ...काफी देर हो गई है टायलेट से बाहर निकले हुए"...

"जी!...ज़रूर"...

(हाथ धोने के बाद)

"हाँ!...तो मैं बता रहा था कि कैसे रातोंरात बाज़ी पलट गई"...

"रातोंरात?"..

"जी"...

"लेकिन ब्लॉगर मीट तो दिन में हुई थी ना?"....

"जी"....

"तो फिर बाज़ी रात को कैसे पलट सकती है?"...

"ओह!...माय मिस्टेक...मुझे कहना चाहिए था कि…कैसे दिन ही दिन में बाज़ी पलट गई?"...

"जी"...

"थैंक्स...

"किसलिए?"...

"गलती की तरफ ध्यान दिलाने के लिए"...

"प्लीज़!..डोंट मैन्शन इट ...ये तो मेरा फ़र्ज़ था"..

"कभी मुझे भी यही मर्ज़ था"...

"ओह!...आप मुझे शुरू से सारी बात बताइए कि कैसे?..कहाँ से ये सब शुरू हुआ था?"...

"उसने और मैंने अपना ब्लॉग्गिंग कैरियर एक साथ...एक ही महीने में शुरू किया था"..

"ओ.के"...

"संयोग देखिये मेरी और उसकी…दोनों की पहली पोस्ट का विषय भी एक ही था और  टाईटल भी लगभग एक जैसा ही था"…

“लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है?…दो अलग-अलग व्यक्तियों की अलहदा सोच एक जैसी?…नामुमकिन"..

“अरे!…इस दुनिया में नामुमकिन कुछ भी नहीं है"…

“लेकिन दो पोस्ट एक जैसी?…कैसे?”…

“जहाँ से मैंने कॉपी मारी…वहीँ से उसने भी कॉपी मारी…सिम्पल”…

“ओह!…

"अब पता नहीं ये संयोग कैसे बना कि उसकी और मेरी सोच...विचारधारा…आदतें काफी हद तक एक दूसरे से मिलनी शुरू हो गई थी"....

"ओ.के"...

"जल्द ही हम दोनों में इतनी अधिक गाढ़ी छनने लग गई कि जिस दिन हम एक-दूसरे को देख ना लें या बात ना कर लें...चैन ही नहीं पड़ता था"...

"ओ.के"...

"रातों को हम अक्सर हमबिस्तर भी होने लगे थे"...

"क्क्या?”…

"अरे!…नहीं यार.....वो मतलब नहीं है मेरा"...

"तो?"..मेरा शंकित स्वर

"दरअसल!…क्या था कि हम दोनों के घर एक-दूसरे के आमने-सामने थे"...

"तो?...इसका ये मतलब तो नहीं हो जाता ना कि आप सारी हदें...सारी सीमाएं लांघ के अनैतिक कृत्यों पर उतर आएं? "...

"अरे!…नहीं यार...पहले पूरी बात तो सुनो"...

"हाँ!...बोलो...क्या कहना चाहते हो"मेरे स्वर में तल्खी आ चुकी थी ...

"हमारे यहाँ रात को अक्सर लाईट चली जाया करती थी"...

"तो?...उसी का फायदा उठा कर आप दोनों...

"अरे यार!...बार-बार बात को उसी एंगल की तरफ क्यों मोड़ रहे हो?"..

"मैं कहाँ मोड़ रहा हूँ?...आप खुद ही तो अभी कह रहे थे कि....हम दोनों अक्सर हमबिस्तर होने लगे थे"...

"तो क्या हुआ?....दो भाई क्या एक ही बिस्तर में नहीं सो सकते?"...

"आपके घर में बिस्तरों की कमी पड़ गई थी या उसके यहाँ पर उनका अकाल पड़ा हुआ था?”…

"ना ही मेरे घर में बिस्तरों की कोई कमी थी और ना ही उसके घर में बिस्तरों का अकाल पड़ा हुआ था"...

"तो फिर क्या ज़रूरत पड़ गई थी आपको उसके साथ हमबिस्तर होने की?”….

"अरे!…उसके घर में इन्वर्टर लगा हुआ था...इसलिए लाईट के चले जाने पर मैं उसी के साथ सो जाया करता था"...

"उसी के बिस्तर में?"...

"और नहीं तो क्या उसकी फूफ्फी के बिस्तर में?"..

"ओ.के!...तो पहले से ही ऐसे बात क्लीयर कर के चलना चाहिए था ना"...

"अब क्या हो गया है?”…

“फिर क्या हुआ?"मैं गुप्ता जी की बात को नज़रंदाज़ करता हुआ बोला..

"होना क्या था?...वक्त के साथ-साथ हमारी दोस्ती इतनी पक्की...इतनी गहरी होती चली गई कि लोगों को हमारी किस्मत से रश्क होने लगा"...

"ओह!...मेरे स्वर में चिंता का पुट था

"जलन के मारे उन्होंने हमें एक दूसरे के खिलाफ लाख भड़काने की कोशिश की लेकिन किसी की दाल ना गली...गले तो तब ना जब हमारे बीच आपस में किसी किस्म का कोई मतभेद हो"...

"जी!...

"वो मुझसे और मैं उससे दिल खोल के सारी बातें बतला लिया करता था"...

"ओ.के!…फिर क्या हुआ?"...

"वही जो होनी को मंज़ूर था"...

"क्या?"..

"हम दोनों की दोस्ती को ज़माने की नज़र लग गई"…

"लेकिन कैसे?"...

"तुम तो जानते ही हो कि औरत मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है"....

"जी!...ये तो मोहल्ले का बच्चा-बच्चा जानता है"…

"लोगों ने उसी का फायदा उठा हम दोनों को अलग करवा दिया"...

"तो क्या किसी गर्लफ्रेंड वगैरा का कोई चक्कर?”…

“नहीं!…इस मामले में वो अपने उसूलों का बड़ा ही पक्का था”….

“गुड"…

“कभी भी उसने अपनी गर्लफ्रेंड को मेरे धोरे(करीब) नहीं लगने दिया…शायद!…डरता था कि कहीं मैं उसका तिया-पांचा ना कर दूँ"…

“ओह!…तो फिर कैसे?”…

"एक दिन अचानक मैंने नोटिस किया कि उसके ब्लॉग पे महिलाओं की आवाजाही बढ़ गई है"..

"ओह!…दैट्स स्ट्रेंज”…

"पक्का &^%$#$%^  था स्साला….उसने अपने ब्लॉग को कम्युनिटी ब्लॉग बना कर तीन-चार को अपने जाल में फांस लिया था"...

"फांस लिया था?...मतलब?"...

"तीर-चार महिला ब्लोगरों को पता नहीं कैसे पटा अपने ब्लॉग पे लिखने के लिए राज़ी कर लिया"...

"तो?”….

"उन्हीं के नेतृत्व में पता नहीं कैसी आंधी चली और उसका रेंगता हुआ ब्लॉग एकदम धमाके से ऐसे चल निकला...ऐसे चल निकला मानों टी.आर.पी की बाढ़ ही  आ गई हो जैसे"...

"ओह!...

"एक तरफ उसके ब्लॉग पे दर्ज़नों के हिसाब से महिलाएं रोजाना बिना किसी नागे के टिपियाने लगी दूसरी तरफ मेरी ओछी हरकतों को देख मेरे ब्लॉग की तरफ रुख करना किसी एक को भी गवारा नहीं था"...

"ओह!...आपको उसे मिल-बाँट कर खाने के लिए राज़ी कर लेना चाहिए था"…

"मैंने उसे भैंस समझ कर उसके आगे खूब बीन बजाई…खूब बीन बजाई कि मेरे लाख ना चाहने के बावजूद मेरा तानपुरा टूट ही गया"…

“आपको पूरा यकीन है कि आपने बीन ही बजाई थी…कुछ और नहीं?”..मेरा शंकित स्वर

“बिलकुल!…पूरा यकीन है"…

तो फिर आपका तानपुरा कैसे टूट गया"मेरे स्वर में असमंजस था

मैं तानपुरे पे बैठ के बीन बजा रहा था ना"…

ओह!…फिर क्या हुआ?”…

“किसी तरह अपने तानपुरे के बेवक्त टूट जाने के गम से बाहर निकल मैंने उसे बड़े प्यार से…खुद के बड़े होने का हवाला देते हुए चिरौरी कर समझाया भी कि इस तरह अकेले-अकेले सारी मलाई चट कर जाना ठीक नहीं लेकिन उसे अक्ल आए तब ना"...

"कहने लगा कि….

“सब किस्मत की बात है...फिलहाल तो मेरी बारी है"...

"ओह!..फिर क्या हुआ?”..

“ना चाहते हुए भी पता नहीं कैसे अचानक मेरे मुंह से निकल गया कि…

“हाँ!...सब किस्मत की बात है...कुत्ता चाट रहा तरकारी है"..

"ओह!...

"मेरी ये कड़वी बात वो एक पल के लिए भी सहन ना कर सका और और तुरंत ही आगबबूला हो उठकर पता नहीं कहाँ चला गया"...

"ओह!...

"बस....तब से वो दिन है और आज का दिन है...वो मेरी और मैं उसकी काट किए बिना रह नहीं पाता हूँ"...

"लेकिन अभी उसी ब्लॉगर मीट की किसी रिपोर्ट में मैंने एक फोटो देखी थी जिसमें आप दोनों एक-दूसरे से हंस-हंस के बतिया रहे थे"...

"अरे!...तुम नहीं समझोगे...दिखावे के लिए ये सब ड्रामा करना पड़ता है"...

"लेकिन किसलिए?...जब पता है कि वो आपकी काट करता है तो ऐसे घटिया आदमी को किसलिए मुंह लगाना?"...

“बात तुम्हारी बिलकुल सही है बंधू मेरे लेकिन करना पड़ता है…ना चाहते हुए तिल-तिल कर मरना पड़ता है"…

“हम्म!..

“अब तो यूँ समझ लो कि मेरा और उसका पिछले जन्म से चल रहा कोई छत्तीस का आंकड़ा है लेकिन बाहर जब हम एक-दूसरे से किसी पब्लिक प्लेस में मिलते हैं तो दिखावे के लिए ऐसे गलबहियां डाल के मिलते हैं मानो हम से तगड़ा कोई दूसरा लंगोटिया यार हो ही नहीं सकता इस पूरी दुनिया में"…

“ओह!…

“अभी हफ्ता भर पहले जब ब्लोगजगत में ये खबर फैली कि वो फलाने-फलाने दिन…फलाने-फलाने रेस्टोरेंट में ब्लॉगर मीट रखवा रहा है तो मेरे तो पूरे तन-बदन में आग लग गई"..

“गुड!…इसे कहते हैं अंदरूनी भभक"…

फिर क्या हुआ?”…

“पहले तो सोचा कि जा के पूरे रेस्टोरेंट को ही उस दिन के लिए..उससे पहले ही अपने नाम से बुक करवा उसे नाकों चने चबवा दूँ”…

“नॉट ऐ बैड आईडिया"…

“लेकिन फिर बाद में सोचा कि पैसे के दम पे अगर किसी का खेल बिगाड़ा तो क्या बिगाड़ा?”…

“गुड!…वैरी गुड…ये आपने अच्छा सोचा"…

फिर क्या हुआ?”…

“मैंने खूब दिमाग लगा के सोचना शुरू किया और अंत में थक-हार के इस नतीजे पे पहुंचा कि क्यों ना कुछ ऐसा किया जाए कि साँप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे"…

“गुड!…वैरी गुड"…

“ब्लॉगर मीट से एक दिन पहले ही मैं बाजार से जुलाब की गोलियों का पूरा पैकेट खरीद के ले आया कि …ले बेट्टे!…अब तुझे बताऊंगा कि कैसे दी जाती है दावत?…कैसे खिलाए जाते हैं मेहमानों को पकवान?”…

“ओह!…लेकिन आपके अलावा किसी और का पेट खराब हुआ हो…ऐसी तो मैंने कोई खबर नहीं सुनी"..…

“हाँ!…इसी बात का तो अफ़सोस है मुझे कि मेरे अलावा सभी मौज ले रहे हैं"…

“लेकिन कैसे?..आपने तो पूरे खाने में ही मिलाया था ना जुलाब?”…

“नहीं!…इसका तो मुझे मौका ही कहाँ मिल पाया?”..

“क्या मतलब?”…

“भीड़ ही इतनी थी कि….

“जब कोई काम आपके बस का ही नहीं होता है तो उसे पूरा करने का बीड़ा ही क्यों उठाते हैं आप?”…

“किसने कहा तुमें कि मेरे बस का नहीं था?…अरे!…अगर बस का नहीं होता तो मैं वहाँ जाता ही नहीं…गोलियों का पैकेट खरीदता ही नहीं”…

“तो फिर आप बिना कुछ किए…..हाथ मलते…खाली हाथ वापिस कैसे लौट आए?”…

“तो क्या अपने क्रोध की आंच में निर्दोष लोगों को जल जाने देता?…मेरी दुश्मनी उससे और उसके तमाम ब्लॉगर साथियों से है ना कि आम मासूम जनता से?”….

“तो क्या किसी भंडारे या लंगर में वो सबको जीमवा रहा था?”…

“यही समझ लो"…

“क्या मतलब?”…

“पट्ठे ने बफेट सिस्टम वाले रेस्टोरेंट को चुना था”…

“तो?…इससे आपको क्या फर्क पड़ता है?…वो किसी भी सिस्टम वाले रेस्टोरेंट में खाना खिलए…यही बहुत बड़ी बात है कि उसने खिलाया तो सही वर्ना आजकल के ज़माने में तो पैसे खर्च करने के नाम पर सब एक-दूसरे की बगलें झाँकने लगते है कि कौन बिल्ली के गले में घंटी बांधे?”…

“बात तो तुम्हारी सही है…इस बात की तो मैं भी तारीफ़ करूँगा कि उसने एक नहीं…दो-दो बार अपने पल्ले से पैसे खर्च कर सबको मौज करवाई है लेकिन प्लीज़…मेरी इस बात को ऑफ दा रिकार्ड ही रखना"…

“वो किसलिए?”…

“दुश्मन है वो मेरा…मैं कैसे और किस मुंह से उसकी तारीफ़ कर सकता हू?”…

“हम्म!…फिर क्या हुआ?”..

“होना क्या था?…बफेट सिस्टम में हम ब्लागरों के अलावा और भी जो रेस्टोरेंट के नियमित ग्राहक थे…वो भी खाना का रहे थे"…

“तो?”…

“उन्हें कैसे अपने क्रोध की आंच में मुर्ग-मुसल्लम बन जाने देता?”..

“ओह!…तो इसका मतलब किसी और को बलि का बकरा ना बनने देने के चक्कर में जनाब का दिल पसीज गया और गुस्से के मारे सारी की सारी गोलियाँ खुद ही निगल ली?”…

“पागल हो गए हो क्या?…उसमें से एक-एक गोली खुद अपने दम पे अच्छे से अच्छे का पेट फाड़ उसे दोखज दिखाने का सामर्थ्य  रखती है और तुम बात कर रहे हो पूरी शीशी निगलने की?”…

“तो फिर आपकी ये मरियल कुत्ते जैसी हालत कैसे हो गई?”…

“सब मेरी ही बेवाकूफी है"…

“लेकिन अभी तो आप कह रहे थे कि आपने एक भी गोली….

“तो?…क्या सिर्फ गोली खाने से ही दस्त लग सकते हैं?…ज्यादा खाने से नहीं?”…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“पट्ठे ने इतने स्वादिष्ट खाने का इंतजाम करवाया था कि मुझसे रहा ना गया और पेट में जगह ना होने के बावजूद उसे ज़बरदस्ती ठूसता गया… ठूसता गया”…

“ओह!…अब क्या सोचा है आपने?”…

“बदला तो मुझे लेना है और हर हाल में लेना है"…

“लेकिन कैसे?”…

“तुम एक काम करो"…

“क्या?”…

“मैं ज़रा फिर से टायलेट जा रहा हूँ”…

“क्यों?…क्या हुआ?”..

“कुछ खास नहीं…बस ये सुसरा…मरोड़ का बच्चा फिर से सर उठाने लगा है"…

“तो?”..

“तुम ज़रा ये सामने वाले कमरे से मेरा लैपटाप उठा के मुझे टायलेट में दे दो"…

“किसलिए?”…

“वहीँ से किसी की पोस्ट पे कमेन्ट दाग देता हूँ कि ….उसने अपनी उस तथाकथित ब्लॉगर मीट में सबसे पैसे लिए थे"…

“तो?…साँप के निगल जाने के बाद लाठी भांजने से क्या फायदा?”…

“लोग थू-थू तो करेंगे"..

“लेकिन अगर उन्होंने उसके बजाय आपके मुंह पर ही थूकना शुरू कर दिया तो?”..

“अरे!…ऐसे-कैसे थूकना शुरू कर देंगे?…मैं कौन सा अपने नाम से टिप्पणी करने वाला हूँ?…बेनामी से करूँगा"…

“ओह!…लेकिन वो खुद तो समझ ही जाएगा कि ये सब आपका किया-धरा है"…

“तो समझने दो…ज्यादा से ज्यादा क्या होगा?…छिप-छिपाते चल रही लड़ाई खुल के सामने आ जाएगी"…

“इसी का तो डर है"…

“लेकिन मुझे किसी का डर नहीं…मैं तो इस सब के लिए पूरी तरह से तैयार बैठा हूँ…मानसिक रूप से भी और शारीरिक रूप से भी"…

“ओह!…

“मैंने तो अपनी अगली पोस्ट का टाईटल भी सोच लिया है"…

“क्या?”…

“मिले लट्ठा मेरा तुम्हारा…तो सर फटे हमारा"…

“आमीन…

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

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तीन बच्चे पानीपत के और दो फरीदाबाद के पकड़ लो

***राजीव तनेजा***

“ऐसा आखिर कब तक चलेगा बॉस?”…

“क्यों?…क्या हुआ?”…

“क्या हुआ?..जैसे आप जानते ही नहीं हैं….यहाँ दिन-रात खाली बैठने से भूखों मरने की नौबत आ गई है… और आप कह रहे हैं कि क्या हुआ?”…

“तो इस तुगलकी शीला के कुलबुलाते फरमान की आंच में मैं ही कौन सा माल-पुए सेंक रहा हूँ?…तुम्हारी तरह मैं भी तो खाली ही बैठा हूँ ना?"…..

“आपका खाली बैठना…ना बैठना एक बराबर है बॉस”….

“क्या मतलब?”…

“आप तो खाली बैठे-बैठे भी कंप्यूटर पर उँगलियाँ टकटका कर दो दूनी चार करते हुए इधर-उधर से अपना काम चला लेंगे…..लेकिन हम….हम क्या करें?”…

“फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन इस कहानियाँ लिखने के बिलबिलाते शौक से मुझे दुअन्नी भी नसीब नहीं होती है…इन्हें तो मैं बस ऐसे ही…महज़ टाईम पास करने के लिए लिखता हूँ”…

“चलो…घर बैठे आपका टाईम तो पास हो जाता है कम से कम लेकिन यहाँ परदेस में रोजाना खाली बैठ-बैठ के हम किसकी माँ-बहन एक करें?”…

“मेरी और अपनी छोड़ के..बाकी सबकी”…

“लेकिन बॉस…ऐसा आखिर कब तक चलेगा?…कब तक?…कब तक हम यूँ निठल्ले बैठ के दूसरों की …..

“ठीक है!…तो फिर आज अपनी वालियों को ही छेड के काम चला लो लेकिन ध्यान रहे कि माल अपना है…पराया नहीं”…

“नहीं!…बॉस…नहीं….मेरा ये मतलब बिलकुल नहीं था”….

“तो क्या फिर ऐसे ही….फ़ोकट में डरा रहे थे?….

“क्या बॉस…आप भी?….म्म….मेरा कहने का तो मतलब था कि कब तक हम इस सच को नकारते हुए कि..हमारे अपने घर में भी ..खुद की निजी..सगी माँ-बहनें हैं… हम यूँ खुलेआम पराए टोटटों को ताड़ अपनी नीयत काली करते फिरें?…आखिर कब तक?”…

“तो फिर टाईम-पास के लिए तुम कोई और डीसेंट सा काम क्यों नहीं ढूंढ लेते?”…

“अब इस टोटटे ताड़ने से और भला डीसेंट काम क्या होगा बॉस?”…

“बात तो तुम्हारी एकदम सही है…इसमें ना तो हींग लगती है और ना ही फिटकरी और रंग तो चोखा चढ़ता ही है"…

“बिलकुल!…इस महँगाई भरे युग में बिना कुछ खर्चा किए मुफ्त में आँखें सिक जाएँ इससे ज्यादा और भला क्या चाहिए किसी नेक बंदे को?”…

“ठीक है!…तो फिर जैसे गाड़ी चल रही है…चलने दो"…

“लेकिन क्या मुफ्त में?”…

“क्या मतलब?”…

“कब तक?…आखिर कब तक हम यूँ ही मुफ्त में लोगों की माँ-बहन एक करते फिरें?”..

“तो तुम चाहते हो कि इस नेक काम के लिए भी तुम्हारे समक्ष बतौर नजराना कुछ फीस पेश की जाए?”…

“हाँ!…और वो भी बिना किसी प्रकार की काट-छांट के फुल एण्ड फाईनल"…

“क्या मतलब?”..

“उस पर कोई लेवी नहीं…कोई टैक्स नहीं"…

“हुंह!…कोई लेवी नहीं…कोई टैक्स नहीं….सीधे-सीधे जा के सरकारी गल्ले पे धावा बोल डकैती क्यों नहीं डाल लेते?”…

“व्हाट एन आईडिया सर जी…व्हाट एन आईडिया लेकिन अगर सीधी ऊँगली से ही घी निकल जाए तो ऊँगली टेढ़ी करने की ज़रूरत क्या है?”…

“भूल जाओ…अपने इस खुशनुमा होते हुए सुनहरी ख़्वाब को….भूल जाओ”…

“लेकिन क्यों?”…

“पहली बात तो ये कि अभी इतना बेडागर्क नहीं हुआ है हमारे दूषित होते हुए सभ्य समाज का कि लोग अपनी माँ-बहन को छिड़वाने हेतु बतौर नजराना तुम्हारे समक्ष फीस की पेशकश करें"…

“और दूसरी बात?”…

“आमदनी के इतने सरल स्रोत का पता होने के बावजूद सरकार टैक्स माफ कर दे….हो ही नहीं सकता"..

“इसीलिए तो मुझे बड़ी खुंदक आती है इस दिल्ली सरकार की दिन पर दिन बिलो स्टैंडड हो गिरती हुई नीयत पर कि वो दूसरे की मेहनत का…हक हलाल का पैसा हड़पने में मिनट  भर की भी देरी नहीं लगाती”…

“तुम क्या?…मैं तो खुद तंग आ चुका हूँ यहाँ से…यहाँ के घुटन भरे सड़े-गले माहौल से ….ना किसी किस्म का कोई खटका….ना ही कानों को भीतर तक बेंध डालने वाला धूम-धडाम करता शोर-शराबा”…

“उफ़!…कोई पागल ही रह सकता है इस मरघट की सी शान्ति भरे नीरस माहौल में….कसम से!…अगर पापी पेट का सवाल ना होता तो….माँ कसम…अभी के अभी….

“शांत!…गदाधारी भीम…शांत…तुम अकेले ही परेशान नहीं हो इस नीरवता भरे लुंज-पुंज माहौल से…मैं खुद यहाँ के निराशाजनक माहौल से तंग आ कर कई मर्तबा  सुसाईड करने तक की सोच चुका हूँ”…

“ओह!…तो फिर अब तक किया क्यों नहीं बॉस?”…

“बस!…यार …ऐसे ही…कभी व्यावसायिक मजबूरियों के चलते मैं ऐसा नहीं कर पाया तो कभी  टाईम ही नहीं मिला पाया इस सब के लिए"…

“रहने दो बॉस…रहने दो….ये सब तो ना मरने के बहाने हैं…महज़ बहाने"…

“बहाने?”….

“और नहीं तो क्या?”…

“क्या मतलब?”…

“अरे!…अगर लगन सच्ची और इरादा पक्का एवं नेक हो तो कोई भी मजबूरी…कैसी भी मजबूरी इंसान को ढट्ठे खू(अंधे कुएं)  में गिर कर मरने से नहीं रोक सकती"…

“कहना बहुत आसान है बच्चे लेकिन जब असलियत में जब मरने की बारी आती है ना तो …..फट के हाथ में आ जाती है"…

“छोड़ो ना बॉस….ये सब बेकार की…बेमतलब की बातें हैं…..असलियत की काँटों भरी जिंदगी से इनका कोई सरोकार नहीं…कोई वास्ता नहीं"…

“क्या मतलब?”…

“सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते बॉस..कि हिम्मत नहीं है आप में इस सब को करने की…डरते हैं आप अपने वजूद के छिन्न-भिन्न हो बिखर जाने से ..गुर्दा नहीं है आप में अपनी ही मौत को खुशी-खुशी गले लगाने का”…

“हाँ!…नहीं है गुर्दा मुझमें अपनी ही मौत को खुशी-खुशी गले लगाने का लेकिन जानते हो क्यों?”…

“क्यों?”…

“पत्थरदिल कलेजा चाहिए होता है इस सब के लिए एण्ड फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन मेरे सीने में पत्थर का टुकड़ा नहीं बल्कि एक जिंदा दिल धड़कता है…जिंदा….

“धड़कता क्या?…तडपता है… तडपता है अपने मासूम बिलखते बच्चों की भूख से…तडपता है दिन पर दिन लाचार होते अपने बूढ़े माँ-बाप की बेचारगी से …तडपता है अपनी बीवी के जिस्म पे भूखे भेड़ियों और गिद्धों की वासना भरी नज़र से”..

“ओह!…

“कई बार सोचा कि चलती ट्रेन से कूद कर जान दे दूँ लेकिन बस हिम्मत ही नहीं हुई”…

“अगर ऐसी ही बात है बॉस…तो फिर छोड़ क्यों नहीं देते मनहूसियत लिए इस नामुराद इलाके को?”..

“कहना बहुत आसान है बच्चे कि इस इलाके को छोड़ दूँ….कल को पता चले कि जहाँ जा के डेरा बसाया …वहाँ भी नोटिस चिपके मिलें कि…फलानी-फलानी दफा के तहत….दफा हो जाओ यहाँ से"…

“लेकिन मैं पूछता हूँ कि  सिर्फ हमारे इलाके को लेकर ही ऐसा पक्षपात भरा रवैया क्यों?…दूसरे इलाकों में तो खुलेआम धांय-धांय कर के धुएँ उड़ाए जा रहे हैं….चीरफाड़ किए जा रहे हैं…उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता”…ordinance-to-hault-sealing_26

“यही तो विडंबना है मेरे दोस्त कि लाइन पार वही सब हो रहा है जिसके लिए हमें रोका जा रहा है टोका जा रहा है”…

“ओह!…

“पता है कितनी मुश्किलें?…कितनी दिक्कतें आती हैं जमे जमाए कारोबार को एक जगह से उखाड के दूसरी जगह फिर से सेट करने में?” ….

“लेकिन इसके अलावा और चारा भी क्या है अपने पास?”…

“चारा तो यही है मेरे दोस्त कि….जहाँ बैठे हैं…जैसे बैठे हैं…चुपचाप वैसे ही दुबक के बैठे रहे"…

“लेकिन कब तक?…आखिर!…कब तक हमें ऐसे निराशा और अवसाद भरे माहौल में जीना पड़ेगा?”…

“जब तक दिल्ली में कामन वैल्थ गेम खत्म नहीं हो जाते…तब तक"…

“क्या मतलब?…उसमें तो अभी बहुत दिन पड़े हैं…तब तक क्या ऐसे ही …..

“जितने भी पड़े हैं…चुपचाप किसी तरीके से मनमसोस कर के काट लो…उसके बाद तो रातें भी अपनी होंगी और दिन भी अपने….अपना खुलेआम …धांय-धांय कर मज़े से धुआं उडाएंगे …

“क्यों सुनहरी चमक लिए झूठे ख़्वाब दिखा रहे हो बॉस?…एक बार जो दिल्ली से पत्ता कट गया तो समझो कट गया…बाद में तो यहाँ तम्बू गाड़ना …ना आपके बस का रहना है और ना ही मेरे"…

“तो फिर जब तक खेल निबट नहीं जाते…चुपचाप अपने-अपने दडबे में दुबक के बैठे रहो बाहर निकलने की सोचना भी मत…हमेशा के लिए पर कतर दिए जाएंगे”….

“कमाल करते हो आप भी….चुपचाप दुबक के बैठ जाएँ….यहाँ पान…गुटखा….खैनी चबाने तक के पैसे नहीं बचे हैं जेब में….बनिए ने उधार देने से अलग मना कर दिया है …..कुल जमा दो दिन का राशन ही बचा होगा मुश्किल से अलमारी में”…

“ओह!…

“अगर यही हाल रहा ना तो कसम से कहे देता हूँ कि एक ना एक दिन इस शीला की गर्दन होगी मेरी मुट्ठी में”…

“शांत!…गदाधारी भीम…शांत…गुस्से पे अपने काबू रखो…अगर किसी ने सुन लिया तो….

“सुन लिया तो सुन लिया…मैं क्या किसी से डरता हूँ?…और फिर इस तुगलकी फरमान के चलते बचा ही क्या है मेरे पास जो कोई उखाड लेगा?”…

“हाथ-पैर तो सही सलामत बचे हैं ना?…ज्यादा चूं-चपड़ की तो वो भी उखाड़ दिए जाएंगे जड़ से…पता है ना कि हमेशा उसके इर्द-गिर्द कितनी बड़ी कमांडो फ़ोर्स तैनात रहती है?”…delhi2

“तो क्या हुआ?…मैंने भी कौन सा चूडियाँ पहन रखी हैं?”…

“बस!…कह दिया ना एक बार कि…बस…जानते नहीं कितनी बड़ी तोप है वो?….तुम्हारे मचलते अरमानों को नेस्तनाबूत कर धूल उड़ाने में उसे पल भर की भी देरी नहीं लगेगी”…

“लेकिन महज़ क्या इसी डर के चलते हम अपने वजूद को गुमनामी के अँधेरे में खो जाने दें?…क्या इस तरह चुप लगा के डरते हुए हमारा अपने-अपने दडबों में दुबक जाना जायज़ है?”..

“जायज़ तो जो हम कर रहे हैं…वो भी नहीं है”…

“लेकिन इसके अलावा और चारा भी क्या है अपने पास?…पेट हमारे साथ भी लगे हुए हैं…हमने भी अपने बीवी-बच्चे पालने हैं…काम नहीं करेंगे तो खाएंगे क्या?”…

“बड़े आए कहने वाले कि रंधा मशीनें ना चलाओ…सील कर देंगे…इनसे प्रदूषण फैलता है…अरे!..अगर नहीं चलाएंगे तो खाएंगे क्या?…खिलाएंगे क्या?”…Multi-Purpose-Wood-Working-Planner

यही बात तो इन मरदूदों के समझ में नहीं आती कि घोड़ा अगर घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या?”…

“ठीक है!…आप कहते हो तो चलो मान लेते हैं…नहीं चलाते मशीनें लेकिन क्या सिर्फ अकेले हमारे मशीनें बंद कर देने ये धुआं-धक्कड़ रुक जाएगा?”…

“नहीं!…

“तो फिर मैं आपसे पूछता हूँ जनाब…आपसे…आपसे और आपसे सिर्फ हमारे इलाके के साथ ये पक्षपात क्यों?…ये भेदभाव क्यों? ..उधर आसाम गली की तरफ जा के क्यों नहीं झांकते हैं ये लोग?…गिन के पूरी अस्सी मोल्डिंग मशीनों समेत आरा मशीनें चल रही हैं वहाँ”…

“अस्सी?"…

“जी हाँ!…पूरी अस्सी"…

“वहाँ भला क्यों जाने लगे ये लोग?…नजराना जो चढ चुका है फी मशीन पचास हज़ार के हिसाब से"…

“प्पचास….हज़ार?”…

“हाँ!…पूरे पचास हज़ार”…

“इस हिसाब से अस्सी मशीनों के हो गए पूरे चालीस लाख"…

“हाँ!…वो भी सिर्फ छह महीनों तक बक्शने की कीमत”…

“ओह!….लेकिन हम जैसे छोटे-मोटे धंधे वाले लोग कहाँ से लाएं इतना पैसा एक साथ…हमने तो रोज कमाना है और रोज खाना है”…

“यही तो रोना है इस देश का मेरे भाई कि यहाँ मोटा आदमी दिन पर दिन और मोटा हुआ चला जाता है और गरीब आदमी रोज एक नई मौत मरता चला जाता है”…   

“अरे!…अगर पहले से ही पता था कि मशीनों से प्रदूषण होता है तो क्या ज़रूरत थी पाषाण युग से बाहर निकलने की? …अपना पत्थर मार के शिकार करते….पत्थर घिस के ही आग जला चूल्हा-चौका करते”…

“नहीं-नहीं…आग जलाने से भी तो प्रदूषण होता है ना?…इसलिए शाक-सब्जी से लेकर जानवरों तक के मांस को ऐसे ही कच्चा चबा कर खा जाते या निगल जाते”…

“जब पता था कि जीवन ऊपरवाले की देन है और मौत भी उसी का वरदान है…तो क्या ज़रूरत थी मशीनों और औजारों के जरिए नई-नई दवाइयाँ इजाद कर हमें बरगलाते हुए इंसानी जिंदगियां बचाने की?… अपना मर जाने देते सब को ढोर-डंगर और कीड़े-मकोडों की तरह”…

“जब पता था कि सब कुछ नश्वर है…अपने आप नष्ट हो जाता है तो क्या ज़रूरत थी संडास….सीवर और गुसलखाने बनवा अपने सभ्य होते हुए समाज पे इतराने की?… 

“जब पता था कि पैदल चलने से तन-मन तन्दुरस्त रहता है तो क्या ज़रूरत थी साईकिल…रिक्शा…मोटरकार और हवाई जहाज़ बना हमें हवा से बातें कराने की?”…

“जब पता है कि बन्दूक की गोली का धमाका धुआं और शोर पैदा कर प्रदूषण को जन्म देता है तो आतंकवादियों पे गोली काहे चलाते हो रे ?..अपना गुलेल मार के सर फोड दो स्सालों के"…

“अगर गुलेल के इस्तेमाल से किसी किस्म की कोई दिक्कत या परेशानी होती हो तो बर्छे-भाले-कृपाण से आक्रमण कर धूल चटा दो स्सालों को”…

“एक तरफ हमारे देश के नेता कहते हैं हमें अपने देश को ऊंचाहईयों के नए सोपान पे ले जाना है और दूसरी तरफ कहते हैं मशीनें मत चलाओ …इनसे प्रदूषण फैलता है”…

“एक तरफ कहते हैं कि हमारा मुकाबला चीन से है…जापान से…कोरिया और ताईवान से है…हमें उन्ही की तरह हर मामले में आत्मनिर्भर बनना है …दूसरी तरफ कहते हैं कि मशीनें मत चलाओ….इनसे प्रदूषण फैलता है"…

“एक तरफ हम अपने यहाँ खेलों का आयोजन कर के पूरी दुनिया को बताना चाहते हैं कि विगत वर्षों में हमने कितनी और किस तरह तरक्की की है?…साथ ही ये भी बताना चाहते हैं कि ये पुल….ये फ्लाईओवर…ये ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएँ …ये मेट्रो ….ये चौड़ी-चौड़ी सडकें हमने नई तकनीक को अपना मशीनों से नहीं वरन अपना पसीना बहा हाथों से रगड़ घस्स कर के बनाई हैं"…

“आखिर क्या साबित करना चाहती है ये शीला की बच्ची कि हम ऊपर से जितने ज़हीन…जितने पढ़े-लिखे …जितने सभ्य नज़र आते हैं…अंदर से हम उतने ही संकीर्ण …उतने ही ओछे…उतने ही गिरे हुए हैं?"…

“बॉस!…ये किसे सुना रहे हैं हम?…ये बहरों…अन्धों और गूंगों का शहर है…यहाँ अपनी इच्छा से…अपनी खुशी से…अपनी मर्ज़ी से ही सब देखा…सुना और बोला जाता है sealing_in_delhi   

“हाँ!…इन कलयुगी भैंसों के आगे बीन बजाने से कोई समस्या हल नहीं होने वाली”…

“इसीलिए तो मैं आपसे पूछ रहा था बॉस..कि खाली बैठने से तो यही अच्छा रहेगा कि हम अपना छुप-छुपाते हुए ही सही…थोड़ा-बहुत काम करते रहे…मालपुए ना सही…दाल-रोटी तो चलेगी कम से कम"…

“हम्म!….तो फिर तीन बच्चे पानीपत के और दो फरीदाबाद के पकड़ लो"…

“ओ.के बॉस"…

“लेकिन ध्यान रहे….मशीनों का इस्तेमाल बड़ा संभल कर…कहीं लेने के बजे देने ना पड़ जाएँ"…

“ओ.के बॉस"…

(बच्चा=छोटा दरवाज़ा)

नोट: दिल्ली में होने वाले कामन वैल्थ गेम्ज़ को मद्देनज़र रख कर यहाँ की नांगलोई ज़ोन में इस समय सीलिंग चल रही है(सिर्फ नांगलोई ज़ोन में…बाकी पूरी दिल्ली को बक्श दिया गया है)| रोजाना इस सीलिंग के चक्कर में यहाँ के सैंकडों लोगों का रोज़गार रोज छिन रहा है| हालात दिन पर दिन दयनीय होते जा रहे हैं|बेरोज़गारी के इस आलम में लोग अपने ही शहर में मुहाजिर बन शरणार्थी जीवन जीने को मजबूर हो रहे हैं…एक रंधा मशीन या किसी भी मशीन पर औसतन तीन से चार व्यक्ति काम करते हैं और हर व्यक्ति के साथ उसका परिवार जुड़ा हुआ है|इन लोगों के दुःख एवं त्रासद जीवन को सामने लाने के उद्देश्य से मैंने इस कहानी को लिखा है…उम्मीद है कि इनकी आवाज़ को मैं अपनी आवाज़ बना पाने में सफल हुआ हूँ

मुकद्दर का सिकंदर कौन? - समीरलाल या अनूप शुक्ल?

***राजीव तनेजा***

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दोस्तों!…इस समय हिंदी ब्लॉगजगत में इस बात को लेकर धमासान मचा हुआ है कि ब्लोग्वुड  का बादशाह कौन?…हिंदी का सच्चा सेवक कौन? …इस सब का सिलसिला शुरू हुआ ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की एक विवादास्पद पोस्ट के आने के बाद|जिसको लेकर यहाँ ऐसा हंगामा मचा…ऐसा हंगामा मचा कि मानों सावन में लग गई हो आग जैसे …. आरोपों-प्रत्यारोपों के ढेर लग गए…अम्बार लग गए…कोई किसी के पक्ष में तो किसी के विपक्ष में खुल कर सामने आ गया| हद तो तब हो गई जब कोई-कोई तो दबे पाँव दोनों तरफ ही अपनी निष्ठा जताने लगा | …इस सब को देखकर मेरे खोते हुए ज़मीर ने चेतावनी देते हुए मुझे ललकारा कि… “ओए राजीव!…तू कहीं खोत्ता(गधा) तो नहीं है?”….

ये सुन मैं चौंका कि… “क्क्क्या मतबल्ल है आपका?”……

अंतर्मन से एक गुंजायमान से होती एक मधुर आवाज़ आई …“बेटे!…राजीव अगर इस समय तू इस सुनहरी अवसर को चूक गया तो समझ ले कि कोई तेरे माथे पे थूक गया"…

मैं गुस्से में चिल्लाया कि… “ये क्या बेहूदी सी बकवास कर रहे हो?”…

अंतर्मन से फिर वही शांत …सौम्य आवाज़ कर्कश स्वर में मुझे प्रवचन सी देती हुई प्रतीत हुई कि…. “अब अगर तू चूक गया ना बेट्टे…तो समझ ले कि तेरा टाईम खत्म…इस पूरे हिंदी  ब्लॉगजगत में कोई तुझे सूखी …बिना रस की घास भी डालने वाला नहीं मिलेगा"…

मैं परेशान…मुंह से बस यही निकला… “ओह!…

“खा मेरी सौंह(कसम)… कि तू वी कोई ना कोई तगड़ा जेहा फूत्ती-फंगा(पंगा) ज़रूर लएँगा”…

मैंने कहा कि “ऐ सब्ब मेरे कल्ले दे वस्स दा नहीं ऐ"…(ये सब मेरे अकेले के बस का नहीं है)

“ते फेर अपनी जनानी नूं वी नाल रला लै”…(तो फिर अपनी बीवी को भी इस खेल में साथ मिला लो)

मैंने कहा कि .. “की गल्ल करदे हो तुस्सी जी?…मरदां दा खेल विच्च जनानियां दा की कम्म?”…(क्या बात करते हैं आप?…मर्दों के इस खेल में औरतों का क्या काम?)

“कम्म ते तेरा वी इस ब्लोगजगत विच्च कोई नय्यी ..लेकन फेर वी तू इत्थे अपनी हाजरी लगाना हैं के नहीं?”…(काम तो तेरा भी इस ब्लॉगजगत में कोई नहीं है लेकिन फिर भी तू यहाँ अपनी हाजरी बजाता है कि नहीं?)

“जी!…लगाना ते हैंगा लेकिन….

“लेकिन-वेकिन नूं मार गोल्ली ते फटाफट कोई फूत्ती-फंगा पा"…(लेकिन-वेकिन को मार गोली और और फटाफट कोई ना कोई पंगा डाल)

“ऐ सब्ब मेरे वस्स दा कोई नय्यी हैगा जी"…(ये सब मेरे बस का नहीं है जी)

“नय्यी है वस्स दा ते फेर खाली बै के टल्ली वजा"…(नहीं है बस का तो फिर खाली बैठ के घंटी बजा)

“की मतबल्ल?”…

“अरे!…अगर नहीं है बस का तो फिर वेल्ले बैठ के मैग्गी नूडल वालों को फोन कर कर के अपने सड़े से चुटकुले सुनाता रहिओ”…

“नहीं!….

खुद…अपने से ही नज़रें नहीं मिला पा रहा था मैं…..अनजाने में हुई इस भूल से मेरे आत्म-सम्मान को जो ठेस पहुंची थी…उससे मैं निजात पा…जल्द से जल्द खुद को पूरे ब्लॉगजगत का सूरमा साबित करना चाहता था…अब यही मेरा लक्ष्य…यही मेरा मकसद…यही मेरी मंजिल बन चुकी थी

अपने खोए हुए आत्म-सम्मान को फिर से पाने की लालसा इतनी अधिक मेरे मन में घर कर चुकी थी कि दिमाग ना होने के बावजूद मैंने दिन-रात एक कर के सोचना शुरू किया और घंटो की थकान भरी कड़ी मेहनत के बाद इस नतीजे पे पहुंचा कि चिड़िया के खेद चुग जाने के बाद पछताने से बेहतर यही रहेगा कि साँप के निकल जाने से पहले ही मैं अपनी लाठी भांज लूँ? ….क्यों?…सही सोचा ना मैंने?…

बस!…फिर क्या था जनाब?…एक से बढ़कर एक धाँसू आईडियाज़ (टपोरी टाईप के) रुपी कीड़े मेरे दिमागी भंवर में फंस कर कुलबुलाते हुए बुरी तरह से बिलबिलाने लगे…सच मानिए माईबाप!…मुझ से उन बेचारों की बिलबिलाहट देखी नहीं गई और विचलित हो मैं इस विवादास्पद मुद्दे पर ये पोस्ट लिखने का जुर्म कर बैठा ….

अब यार!…अब जब सब मौज ले रहे हैं तो मैं भला कौन होता हूँ खुद को रोकने वाला? …क्यों है कि नहीं?  ….

लीजिए…आप भी मौज लीजिए….इसमें भला कौन सा टैक्स लग रहा है?

 

 

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