वो फ़ोन कॉल- वंदना बाजपेयी

जब भी हम किसी लेखक या लेखिका की रचनाओं पर ग़ौर करते हैं तो पाते है कि बहुत से लेखक/लेखिकाएँ अपने एक ही सैट पैटर्न या ढर्रे पर चलते हुए..एक ही जैसे तरीके से अपनी रचनाओं का विन्यास एवं विकास करते हैं। उनमें से किसी की रचनाओं में दृश्य अपने पूरे विवरण के साथ अहम भूमिका निभाते हुए नज़र आते हैं। तो किसी अन्य लेखक या लेखिका की रचनाओं में श्रंगार रस हावी होता दिखाई देता है। कुछ एक रचनाकारों की रचनाएँ  बिना इधर उधर फ़ालतू की ताक झाँक किए सीधे सीधे मुद्दे की ही बात करती नज़र आती हैं। खुद मेरी अपनी स्वयं की रचनाओं में दो या तीन से ज़्यादा किरदार नहीं होते जो संवादों के ज़रिए अपनी बात को पूरा करते हैं। 

ऐसे में अगर कभी आपको विविध शैलियों में लिखने वाले किसी रचनाकार की रचनाएँ पढ़ने को मिल जाएँ तो इसे आप सोने पे सुहागा समझिए। 
दोस्तों.. आज मैं अपने आसपास के माहौल से प्रेरित होकर लिखी गई रचनाओं के एक ऐसे कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'वो फ़ोन कॉल' के नाम से लिखा है वंदना बाजपेयी ने।

इस संकलन की प्रथम कहानी में अपने अवसाद ग्रसित भाई, विवेक को पहले ही खो चुकी रिया के पास जब एक रात अचानक किसी अनजान नम्बर से मदद की चाह में एक अनचाही कॉल आती है तो वो खुद भी बेचैन हो उठती है कि दूसरी तरफ़ कोई अनजान युवती, आत्महत्या करने से पहले उससे अपना दुःख..अपनी तकलीफ़.. अपनी व्यथा सांझा करना चाहती है। ऐसी ही मानसिक परिस्थितियों को अपने घर में स्वयं देख चुकी रिया क्या ऐसे में उसकी कोई मदद कर पाएगी?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में तरह-तरह के व्यंजन बनाने में निपुण ज्योति चाहती है कि उसका पति उसके बनाए खाने की तारीफ़ करे मगर उसे ना अपने पति से और ना ही बेटे से कभी किसी किस्म की तारीफ़ मिलती है। कहानी के अंत तक आते आते उसे अपने बनाए खाने की तारीफ़ मिलती तो है मगर..

तो वहीं एक अन्य कहानी उन मध्यमवर्गीय परिवारों की उस पित्तात्मक सोच को व्यक्त करती नज़र आती है जिसके तहत बेहद ज़रूरी होने पर भी घर की स्त्रियों को कभी झिझक..कभी इज़्ज़त तो कभी आत्म सम्मान के नाम पर बाहर काम कर के कमाने के लिए अनुमति नहीं दी जाती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की प्रेरणा देती अपने अंत तक पहुँचते पहुँचते भावुक कर देती है। तो वहीं एक अन्य कहानी छोटे शहर से दिल्ली में नौकरी करने आयी उस वैशाली की बात करती है जो ऑफिस में अपने बॉस द्वारा खुद को लगातार घूरे जाने से परेशान है। नौकरी छोड़ वापिस अपने शहर लौटने का मन बना चुकी वैशाली क्या इस दिक्कत से निजात पा पाएगी या फ़िर इस सबके के आगे घुटने टेक यहीं की हो कर रह जाएगी? 

इसी संकलन की एक अन्य रचना में लेखिका ने विभिन्न पत्रों के माध्यम से एक माँ के अपने बेटे के साथ जुड़ाव और उसमें आए बदलाव को बेटे के जन्म से ले कर उसके (बेटे के) प्रौढ़ावस्था तक पहुँचने की यात्रा के ज़रिए वर्णित किया है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में माँ समेत सभी बच्चे पिताजी के गुस्से की वजह से सहमे और डरे हुए हैं कि माँ, अपनी बार बार भूलने की आदत की वजह से, इस बार भी अपने हाथ की दोनों अँगूठियों को कहीं रख कर भूल कर चुकी है। जो अब एक हफ़्ते बाद भी लाख ढूँढने के बावजूद भी नहीं मिल रही हैं। क्या माँ समेत सभी बच्चों की उन्हें ढूँढने की सारी मेहनत..सारी कवायद रंग लाएगी अथवा अब उन अँगूठियों को इतने दिनों बाद भूल जाना ही बेहतर होगा? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी  एक ऐसे दंपत्ति की बात करती दिखाई देती देती है जो, समाज में दिखावे के लिए खरीदे गए, बड़े फ्लैट और महँगी गाड़ी इत्यादि की ई.एम.आई भरने की धुन में दिन रात ओवरटाइम कर पैसा तो कमा रहे हैं। मगर इस चक्कर में वे अपने इकलौते बेटे तक को भी उसकी परवरिश के लिए ज़रूरी समय और तवज्जो नहीं दे पाते। नतीजन टी.वी, मोबाइल और लैपटॉप  के ज़रिए अपने अकेलेपन से जूझ रहा उनका बेटा एक दिन आत्महत्या को उकसाती  एक भयावह वीडियो गेम के चंगुल में फँसता चला जाता है। अब देखना ये है कि क्या समय रहते उसके माँ-बाप चेत पाएँगे अथवा अन्य हज़ारों अभिभावकों की तरह वे भी अपने बच्चे की जान से हाथ धो बैठेंगे? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी ऑर्गेनिक फल-सब्ज़ियों से होती आजकल के तथाकथित फ़टाफ़ट वाले डिस्पोजेबल प्यार के ज़रिए इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि कई बार हम सब कुछ पास होते हुए ख़ाली हाथ होते हैं। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हुए उस सफ़ल व्यवसायी नीरज की बात करती है जिसे उसके बचपन में दादा ने अपने बेटे की अचानक हुई मौत के बाद ये कहते हुए उसकी माँ के साथ घर से दुत्कार कर निकाल दिया था कि वो उसके बेटे को खा गयी और ये एक नाजायज़ औलाद है। तो वहीं एक अन्य कहानी घर भर के सारे काम करती उस छोटी बहू, राधा की बात करती है जिसकी सौतेली माँ और पिता ने उसे , उसके ब्याह के बाद बिल्कुल भुला ही दिया है। घर में बतौर किराएदार रखे गए कुंवारे जीवन की निस्वार्थ भाव से मदद करने की एवज में उस पर घर की जेठ-जेठानियों द्वारा झूठे लांछन लगाए तो जाते हैं मगर अंततः सच की जीत तो हो कर रहती है। 

इसी संकलन की एक कहानी एक ऐसी नयी लेखिका की व्यथा व्यक्त करती नज़र आती है जो एक तरफ़ अपनी रचनाओं के लगातार अस्वीकृत होने से परेशान है तो दूसरी तरफ़ लोगों की साहित्य के प्रति अरुचि के चलते फुटपाथ पर रद्दी के भाव बिकती साहित्यिक किताबों को देख कर टूटने की हद तक आहत है। 

इस संकलन की एक आध कहानी मुझे थोड़ी फिल्मी लगी। कुछ कहानियाँ जो मुझे ज़्यादा बढ़िया लगी। उनके नाम इस प्रकार हैं।

*वो फ़ोन कॉल
*तारीफ़
*अम्मा की अँगूठी
*ज़िन्दगी की ई.एम.आई
*बददुआ
*वज़न

इस कहानी संकलन की जो कॉपी मुझे पढ़ने को मिली, उसमें बाइंडिंग के स्तर पर कमी दिखाई दी कि पेज एक तरतीब में सिलसिलेवार ढंग से लगने के बजाय अपने मन मुताबिक आगे पीछे लगे हुए दिखाई दिए जैसे कि पेज नम्बर 52 के बाद सीधे पेज नम्बर 65 और 68 के बाद 77 दिखाई दिया। इसके बाद पेज नम्बर 80 के बाद पेज नम्बर 61 लगा हुआ दिखाई दिया। ठीक इसी तरह आगे भी आगे के पेज पीछे और पीछे के पेज आगे लगे हुए दिखाई दिए। जिस पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। 

वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का इस्तेमाल ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी काफ़ी जगहों पर 'कि' की जगह पर 'की' लिखा हुआ नज़र आया। इसके अतिरिक्त पेज नंबर 50 पर लिखा दिखाई दिया कि..

एक दिन निशा की एक सहेली उससे मिलने आयी और छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए बोली'

यहाँ निशा की सहेली ने निशा को छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए देख कर बोला है यह वाक्य बोला है जबकि वाक्य पढ़ने से ऐसा लग रहा है जैसे निशा की सहेली ने ही छोटे फोन का इस्तेमाल किया है जबकि ऐसा नहीं है। इसलिए यह वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..

'एक दिन निशा की एक सहेली उससे मिलने आयी और उसे छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए देख बोली'


पेज नंबर 122 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'मजाल है दफ़्तर जाने में किसी को देर ना हो जाए'

यहाँ घर की छोटी बहू के काम की पाबंद होने की बात कही जा रही है लेकिन ये वाक्य इसी बात को काटता दिखाई दिया। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'मजाल है दफ़्तर जाने में किसी को देर हो जाए' 

इसी संकलन की एक कहानी का प्रसंग मुझे तथ्यात्मक रूप से सही नहीं लगा जिसमें पति की अचानक हुई मृत्यु के बाद अपने पाँच वर्षीय बेटे के भविष्य की चिंता में उसे ले कर जब उसकी माँ अपने गुस्सैल ससुर के पास जाती है। तो उनके अंतरजातीय विवाह से नाराज़ उसका ससुर उसे व उसके बेटे यानी कि अपने पोते को ये कह कर दुत्कारते हुए भगा देता है कि "वो उसके बेटे को खा गयी है और ये उसकी नहीं बल्कि किसी और की नाजायज़ औलाद है।" अपनी माँ को रोता गिड़गिड़ाता हुआ देख पोता, अपने दादा से इस अपमान का बदला लेने की कसम खाते हुए गुस्से में वहाँ से अपनी माँ के साथ लौट जाता है और ईंटों के एक भट्ठे पर काम कर के अपना तथा अपनी माँ का पेट भरने के साथ साथ दसवीं तक की पढ़ाई भी करता है। 

यहाँ मेरे ज़ेहन में ये सवाल कौंधा कि क्या मात्र पाँचवीं में पढ़ने वाला बच्चा स्वयं में इतना सक्षम था या हो सकता है कि पढ़ने के साथ- साथ वो कड़ी मेहनत से अपना व अपनी माँ का पेट भी भर सके?  हो सकता है जिजीविषा और हिम्मत के बल पर ऐसा हो पाना संभव हो मगर फ़िर यहाँ सवाल उठ खड़ा होता है कि अगर ऐसा संभव है 
भी तो क्या उसकी माँ स्वयं, खुद हाथ पे हाथ धरे बैठ, अपने बेटे को कड़ी मशक्कत कर पसीना बहाते देखती रही? 

यूँ तो धारा प्रवाह शैली में लिखा गया ये उम्दा कहानी संकलन मुझे लेखिका से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 167 पृष्ठीय बढ़िया कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 225/- रुपए जो कि क्वॉलिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।

मास्टरबा- कुमार विक्रमादित्य

किसी भी देश..राज्य..इलाके अथवा समाज के उद्धार के लिए ये बहुत ज़रूरी है कि वहाँ के ज़्यादा से ज़्यादा लोग पढ़े लिखे यानी कि समझदार हों। क्योंकि सिर्फ़ पढ़ा लिखा समझदार व्यक्ति ही अपने दिमाग का सही इस्तेमाल कर अपने अच्छे बुरे का फ़ैसला कर सकता है। लेकिन ये भी सार्वभौमिक सत्य है कि किसी भी इलाके का कोई भी शासक ये कदापि नहीं चाहेगा कि उसके क्रिया कलापों पर नज़र रख उससे सवाल करने वाला..उसकी आलोचना कर उसे सही रास्ते पर पर लाने या लाने का प्रयास करने वाला कोई मौजूद हो। 

ऐसे में हमारे भारत जैसे देश में जहाँ राजनीति की बिसात ही जाति.. धर्म और बाहुबल के आधार पर बनती-बिगड़ती और बिछती-बिखरती हो, भला कौन सी सरकार..नेता या हुक्मरान चाहेगा कि उसके किए फ़ैसलों पर कोई उँगली उठा..उसे ही कठघरे में खड़ा कर सके? ऐसे में सभी राजनैतिक पार्टियों के हुक्मरानों और अफ़सरशाही ने मिल कर ऐसा कुचक्र रचा कि बस जनता की संतुष्टि के लिए मात्र इतना भर दिखता रहे कि कुछ हो रहा है मगर असल में कुछ हो ही नहीं रहा हो। 

दोस्तों..आज मैं हमारे देश में शिक्षा की हो रही इस दुर्गति..इस दुर्दशा से जुड़ी बातों का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि आज मैं इसी विषय पर आधारित एक उपन्यास 'मास्टरबा' का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे गहन शोध..मेहनत और अध्यन के बाद लिखा है कुमार विक्रमादित्य ने। 

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है शिक्षा को एक ध्येय..एक पवित्र कार्य की तरह लेने वाले ईमानदार शिक्षक कुंदन सर की। जिनकी राह में बार-बार रोड़े अटकाने के काम को बखूबी अंजाम दिया है स्कूल के प्रधान कहे जाने वाले प्रधानाध्यापक ने। इस उपन्यास में एक तरफ़ बातें हैं उस राज्य सरकार की जिसने जहाँ एक तरफ़ माँग होने के बावजूद भी शिक्षकों की भर्ती पर ये कहते हुए रोक लगा दी कि उनके पास इस काम के लिए बजट नहीं है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में बातें हैं उस सरकार की जिसने शिक्षा की ज़रूरत को बहुत ही कम आंकते हुए महज़ रिक्त स्थानों को पूरा करने के बिना किसी योग्यता को जाँचे हर गधे घोड़े को इस आधार पर नौकरी दे दी कि उसके पास, जायज़ या नाजायज़, किसी भी तरीके की डिग्री होनी चाहिए। भले ही वो बिना किसी योग्यता के महज़ पैसे दे कर क्यों ना खरीदी गयी हो।

इसी उपन्यास में एक तरफ़ आनंद जैसे पढ़ने लिखने के शौकीन कई बालक दिखाई देते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ ऐसे बच्चों की भी कमी नहीं है जिन्हें स्कूल जाना ही किसी आफ़त..किसी मुसीबत  से कम नहीं लगता। इस उपन्यास में एक तरफ़ कुंदन और संतोष जैसे अध्यापक हैं जिनके लिए बच्चों को अच्छी शिक्षा देना किसी ध्येय..किसी मनोरथ से कम नहीं तो वहीं दूसरी तरफ इस उपन्यास में प्रधान और मीनू मैडम जैसे अध्यापक भी दिखाई देते हैं जिनकी बच्चों की पढ़ाई में कोई रुचि नहीं। 

इसी उपन्यास में कहीं नियोजित शिक्षक की व्यथा व्यक्त की जाती दिखाई देती है कि समाज द्वारा सभी नियोजित शिक्षकों, योग्य/अयोग्य को एक ही फीते से नाप उन्हें हेय की दृष्टि से देखा जाता है। इसी किताब में कहीं नकली डिग्री के आधार पर नौकरी मिलने की बात नज़र आती है तो कहीं पैसे दे के डिग्री खरीदने की। 

इसी किताब में कहीं लाखों रुपए की सरकारी तनख्वाह ले कर भी बच्चों को पढ़ाने के लिए कभी क्लास में ना जाने वाला अध्यापक दिखाई देता है। तो कहीं बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए दिन रात प्रयासरत रहता अध्यापक दिखाई देता है। कहीं कोई दबंग अभिभावक अपने बच्चे के अध्यापक को महज़ इसलिए धमकाता दिखाई देता है कि उसने,उसके बच्चे को भरी क्लास में डाँट दिया था। 

इसी उपन्यास में कहीं बच्चों के शैक्षिक भ्रमण की अनुदान राशि आपसी बंदरबाँट के चलते अध्यापकों में ही बँटती दिखाई दी तो कहीं महज़ खानापूर्ति के नाम पर पूरा भ्रमण ही हवाहवाई बन सरकारी फाइलों में गुम होता दिखाई दिया। कहीं विद्यालयों में शिक्षकों की कमी तो कहीं किसी अन्य विद्यालय में महज़ पाँच विद्यार्थी ही महज़ शिक्षा ग्रहण की औपचारिकता निभाते दिखाई देते हैं।

इसी किताब में कहीं किसी सरकार की छत्रछाया में शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय खामख्वाह के खर्च कह करबन्द किए जाते दिखाई दिए तो कहीं प्रतियोगिता के माध्यम से चुने गए शिक्षक भी उचित प्रशिक्षण के अभाव में अपने काम को सही से कर पाने में असफल रहने पर अन्य सरकारी विभागों में खपाए जाते नज़र आए।

कहीं बड़े अफ़सरों के मातहत तबादला करवाने या तबादला ना करवाने की एवज में अन्य शिक्षकों से पैसे ऐंठते दिखाई दिए। तो कहीं नौकरी जाने का डर दिखा शिक्षकों को जबरन चुनाव ड्यूटी करने के लिए मजबूर किया जाता दिखाई दिया। 

इसी उपन्यास में कहीं पिछले घोटालों को छुपाने के लिए घटिया फर्नीचर और बच्चों की उत्तर पुस्तकें आग में जलाई जाती दिखीं तो कहीं बिना आंसर शीट जाँचे ही परीक्षा परिणाम घोषित कर बच्चे पास किए जाने की बात भी उजागर होती दिखाई दी।कहीं सिफ़ारिश और रिश्वत के दम पर अयोग्य व्यक्तियों के ऊँचे पदों पर आसीन होने की बात दिखाई देती है। 

इसी उपन्यास में कहीं नाजायज़ होते हुए भी सरकार की नीति और ग्रामीण अभिभावकों के दबाव के चलते पढ़ाई में कमज़ोर बच्चों को फेल करने के बजाय पास करने की बात दिखाई देती है। 
तो कहीं कोई सरकार महज़ खानापूर्ति के लिए स्कूलों में अध्यापकों की खाली जगहों को भरती दिखाई देती है। 

यह उपन्यास कहीं इस बात की तस्दीक भी करता दिखाई देता है कि चपरासी..क्लर्क..अध्यापक और प्रधानाचार्य से ले कर ऊपर तक के सभी अफ़सर इस हमाम में इस हद तक नंगे हैं कि शरीफ़ आदमी का जायज़ काम भी बिना कमीशन खिलाए या रिश्वत दिए हो पाना असंभव है। 

तो कहीं महज़ पाँच रुपए के खर्च पर बच्चों के मध्याह्न भोजन के तैयार होने की बात कही जाती दिखाई देती है। कहीं स्कूल में बच्चों से प्रैक्टिकल एग्ज़ाम की एवज में ऐंठे गए पैसे की बंदरबाँट की प्लॉनिंग चलती दिखाई देती है। तो कहीं गढ़े मुर्दे खोदने की तर्ज़ पर हर पास हुए बिल में विधायक से ले कर ऊपर..अफ़सर तक अपना हिस्सा खोजते दिखाई देते हैं। 


इस पूरे उपन्यास में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के साथ साथ जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। साथ ही ज़रूरत होने के बावजूद भी बहुत सी जगहों से अल्पविराम (,) नदारद दिखे। इसके साथ ही संवादों की भरमार होने के बावजूद मुझे उनके इन्वर्टेड कौमा ("___°) में ना होने की कमी काफ़ी खली। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर 

पेज  नंबर 29 में दिखा दिखाई दिया कि..

'आज क्या तो पोशाक के पैसे, आज क्या साइकिल के पैसे, आज नैपकिन, आज छात्रवृत्ति, आज प्रीमैट्रिक, तो आज पोस्ट मैट्रिक, आज पोस्ट इंटरमीडिएट तो आज प्री इंटरमीडिएट, ऐसे कितने सारे स्कीम हैं जो रह-रह कर आते रहते हैं' 

इस वाक्य में बार बार 'आज' शब्द का प्रयोग वाक्य विन्यास को कमज़ोर कर रहा है। यहाँ 'आज' शब्द के बजाय 'कभी' शब्द का इस्तेमाल किया जाना ज़्यादा उचित रहेगा। 

पेज नम्बर 37 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'तब तक विद्यालय का मुख्य द्वार आ चुका था, बस वाले ने बस रोक दी, आनंद उसे पैसे दिए और अपने विद्यालय की तरफ बढ़ गया।'

कायदे से तो बस का टिकट, बस में चढ़ते वक्त ही लिया जाना चाहिए लेकिन यहाँ, इस उपन्यास में लिखा जा रहा है कि बस से उतरते वक्त आनंद ने बस वाले को पैसे दिए। 

पेज नंबर 178 की प्रथम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि...

'खैर हमारे शिक्षकों को भी कुछ दिनों के बाद मज़ा आने लगा, जो कल तक अलग-थलग थे वह भी हमारा साथ देने लगे। अब उपस्थिति पचहत्तर प्रतिशत ही नहीं थी, सौ प्रतिशत का आंकड़ा भी कम पड़ने लगा था।'

यहाँ ये ध्यान देने वाली बात है कि सौ प्रतिशत मतलब संपूर्ण यानी कि चाहे गिनती सैंकड़ों..हज़ारों अथवा लाखों..करोड़ों या फ़िर अरबों..खरबों तक जा पहुँचे, सौ प्रतिशत का मतलब सब कुछ इसमें आ गया। ऐसे में ये कहना कि..'सौ प्रतिशत का आंकड़ा भी कम पड़ने लगा था', एक तरह से बेमानी ही है। इसलिए इस वाक्य की यहाँ ज़रूरत ही नहीं थी। 


पाठकीय नज़रिए से अगर कहूँ तो पूरा उपन्यास मुझे  कई जगहों पर उपन्यास के बजाय किसी वृतचित्र यानी कि डॉक्यूमेंट्री जैसा लगा। 

मेरे हिसाब से पूरी कहानी एक ही फॉरमैट में कही जानी चाहिए या तो लेखक के हवाले से या फ़िर पात्रों के हवाले से लेकिन इस उपन्यास में लेखक कहीं स्वयं ही कहानी के सूत्रधार पर कहानी को आगे बढ़ाते दिखाई दिए तो कहीं स्वयं उन्होंने ही कहानी के मुख्य पात्र, कुंदन सर का लबादा ओढ़ लिया। जो कि थोड़ा अटपटा सा लगा।  पूरी कहानी को अगर स्वयं कुंदन सर ही अपने नज़रिए से पेश करते तो ज़्यादा बेहतर होता।

साथ ही किसी भी कहानी या उपन्यास में विश्वसनीयता लाने के लिए ये बेहद ज़रूरी होता है कि लेखक अपने किरदारों के हिसाब से परकाया प्रवेश कर उन्हीं की तरह बोले-चाले.. उन्हीं की तरह सोचे-समझे और उनकी समझ एवं स्वभाव के हिसाब से ही अपने बर्ताव को रखे। अगर इन कसौटियों पर कस कर देखें तो मुझे ये उपन्यास इस कार्य में पिछड़ता हुआ दिखाई दिया कि छोटे बच्चे से ले कर माँ बाप..सेना के अफ़सर.. अध्यापक..प्रधानाचार्य तक सभी के सभी एक जैसी भाषा में बोलते..बतियाते और सोचते हुए दिखाई दिए। बहुत सी जगह पर ऐसा भी प्रतीत हुआ कि उपन्यास के सभी पात्र अपने स्वभाविक चरित्र या भाषा के बजाय लेखक की ही ज़बान में उसके ही एजेंडे को पेश कर रहे हों। 


उपन्यास की रोचकता बढ़ाने के लिए ये ज़रूरी है कि पूरे उपन्यास के बीच में कहीं कहीं रिलैक्सेशन के लिए राहत के छींटों के तौर पर कुछ दृश्यों के होने के ज़रूरत के हिसाब से पात्रों की भाव भंगिमाओं और उनकी बॉडी लैंग्वेज का भी उसमें विवरण ज़रूर हो लेकिन इस उपन्यास को पढ़ते वक्त ऐसा लगा जैसे पूरा उपन्यास एक टेंशन..एक तनाव के तहत बिना किस दृश्य बदलाव के एक ही सैट पर एक नाटक की तरह लिखा या खेला जाता दिखाई दिया। उपन्यास की शुरुआत में दिखाई देने वाला छोटा सा बालक, आनंद कब बड़ा हो कर उपन्यास के अंत तक पहुँचते-पहुँचते जिले का कलैक्टर बन गया, पता ही नहीं चला सिवाय उपन्यास के बीच में आयी एक पंक्ति के कि.. आनंद अब दसवीं में हो गया है। 


साथ ही विद्यालय की कक्षा को 'कक्षा' कहने के बजाय बार-बार 'वर्ग' कहना तथा इसी तरह के कई अन्य शब्दों का शुद्ध हिंदी या दफ़्तरी भाषा के नाम पर प्रयोग करना मुझे मेरी समझ से परे का लगा। ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक अपनी कृति को पहुँचाने के लिए ये आवश्यक है कि किसी भी कृति या किताब की भाषा आम आदमी या ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को समझ में आने के हिसाब से ही लिखी गयी हो। 

भड़ास या आत्मालाप शैली में लिखे गए इस उपन्यास में सीधी..सरल..सपाट बातों के अतिरिक्त कहानी के दृश्य भी आपस में गडमड हो..बिखरते दिखाई दिए लेकिन इसे मैं लेखक की कुशलता कहूँगा कि शिथिल या बोझिल तरीके से धीमे धीमे चलता हुआ यह उपन्यास अपने आधे रास्ते के बाद एकाएक रफ़्तार पकड़ रोचक होता चला गया।


अगर पुनः संपादन के प्रयास किए जाएँ तो आसानी से महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर लिखे गए इस बेहद ज़रूरी उपन्यास को 191 पृष्ठों के बजाय 150 पृष्ठों में समेट कर रोचक बनाया जा सकता है। 

यूँ तो शिक्षाजगत में हो रही धांधलियों को उजागर करता यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 191 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है अंजुमन प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 


रूपसिंह चन्देल की लोकप्रिय कहानियाँ- रूपसिंह चन्देल

मैं जब भी किसी कहानी संकलन या उपन्यास को पढ़ने का विचार बनाता हूँ तो अमूमन सबसे पहले मेरे सामने ये दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि मैं किस किताब से अपने नए साहित्यिक सफ़र की शुरुआत करूँ? एक तरफ़ वे किताबें होती हैं जो मुझे अन्य नए/पुराने लेखकों अथवा प्रकाशकों ने बड़े स्नेह और उम्मीद से भेजी होती हैं कि मैं उन पर अपनी पाठकीय समझ के हिसाब से, किताब की खूबियों एवं ख़ामियों को इंगित करते हुए, कोई सारगर्भित प्रतिक्रिया अथवा सुझाव दे सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ मुझे अपनी ओर वे किताबें भी खींच रही होती हैं जिन्हें मैंने अपनी समझ के हिसाब से इस आस में खरीदा होता है कि उनसे मुझे कुछ ना कुछ सीखने को अवश्य मिलेगा। 

दोस्तों आज मैं प्रसिद्ध लेखक रूपसिंह चंदेल जी की चुनिंदा कहानियों के एक ऐसे संकलन की बात करने जा रहा हूँ। जिसका शीर्षक 'रूपसिंह चंदेल की लोकप्रिय कहानियाँ' ही उन कहानियों के जगप्रसिद्ध होने की बात करता है। बाल साहित्य..कहानियों और उपन्यासों से होती हुई इनकी साहित्यिक यात्रा अब तक 68 किताबों के आँकड़े अथवा पड़ाव को पार कर चुकी है और ये सफ़र अब भी जारी है। 

इसी संकलन की एक कहानी जहाँ उस ग़रीब..बेबस सरजुआ की बात करती है जिसे भारी ओलावृष्टि के बीच साहूकार रमेसर सिंह से उसके सभी अत्याचारों का बदला लेने का मौका उस वक्त मिल जाता है जब तूफ़ानी बारिश के बीच ठंड से कांपता रमेसर और वो एक ही पेड़ के नीचे खड़े होते हैं। मगर क्या सरजुआ अपने दीन ईमान को ताक पर रख कर उससे अपना..अपने पुरखों बदला ले पाएगा? तो वहीं एक कहानी अपने मूल में एक साथ कई समस्याओं को समेटे नज़र आती है। कहीं इसमें पूरा जीवन ईमानदार रह सादगी से अपना जीवन बिता रहे रघुनाथ बाबू की व्यथा नज़र आती है जो पैसे की तंगी के चलते अपनी पत्नी का ठीक से इलाज तक नहीं करवा सके। तो कहीं इसमे बच्चों की अवहेलना झेल रहे बुज़ुर्ग के किराएदार ही उसके मकान पर एक तरह से कब्ज़ा करने की फ़िराक में दिखाई देते हैं। कहीं पोते के तिलक में जाने के लिए तैयार खड़े रघुनाथ बाबू को उस वक्त निराश हो..घर बैठना पड़ता है कि उनके अपने बेटे को ही उन्हें बुलाने की सुध नहीं है। तो कहीं घर की शादी में घर का सबसे बड़ा बुज़ुर्ग भी नज़रअंदाज़ हो भीड़ में गुम होता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी एक तरफ़ अपने पिता के साथ बँधुआ मज़दूरी कर रहे उस मक्कू की बेबसी व्यक्त करती दिखाई देती है जिसका पिता पैसे ना होने की वजह से बिना इलाज मर जाता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ उसकी होने वाली बीवी, उस सावित्तरी की व्यथा कहती नज़र आती है जिसका मक्कू के मालिक का बेटा अपने दोस्तों एवं गाँव के पुजारी के साथ मिल कर बलात्कार कर देता है।

एक अन्य कहानी एक तरफ़ देश के महानगरों में ठगी के नए आयामों के साथ पुलसिया शह पर गुण्डों की बढ़ती दीदादिलेरे  की बात करती है तो दूसरी तरफ़ उन लोगों की भी बात करती नज़र आती है जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपने सहज..सरल मानवीय स्वभाव को बदल नहीं पाते।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ भारत-पाक विभाजन के वक्त बड़े शौक से पाकिस्तान जा कर बसे व्यक्तियों की व्यथा व्यक्त कहती नज़र आती है कि उन्हें अब इतने वर्षों बाद भी अपना नहीं बल्कि पराया करार दे वहाँ मुहाजिर कहा जाता है। एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ विश्वविद्यालय में नियुक्ति को ले कर चल रहे सिफ़ारिश तंत्र और उसमें राजनैतिक हस्तक्षेप के बोलबाले की बात करने के साथ साथ बड़े लोगों द्वारा बिना मेहनत के भूत लेखन(घोस्ट राइटिंग) के ज़रिए झटपट नाम..शोहरत कमाने की इच्छा को परिलक्षित करती दिखाई देती है। इसी कहानी में कहीं स्वच्छ छवि वाले लोगों की उज्ज्वल छवि, धूमिल हो ध्वस्त होती दिखाई देती है तो कहीं कोई अपने उज्ज्वल अथवा सुरक्षित भविष्य की चाह में गलत बात के आगे भी घुटने टेक उसका समर्थन करता दिखाई देता है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी एक बूढ़े की व्यथा के रूप में सामने आती है जिसके होनहार.. वैज्ञानिक बेटे को आंदोलनकारियों का साथी होने के शक में सरकारी शह प्राप्त पुलिस द्वारा सरेआम बर्बरता से मार दिया गया है। तो वहीं एक अन्य कहानी पढ़ने लिखने की उम्र में, बीच किनारे सैलानियों के बीच घूम घूम कर छोटी छोटी वस्तुएँ बेच अपना पेट भरते गरीब बच्चों के माध्यम से पूरी सामजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था पर ग़हरा तंज कसती नज़र आती है। 

धाराप्रवाह लेखनशैली से सुसज्जी इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे बेहतरीन लगीं। जिनके नाम इस प्रकार हैं..

*आदमख़ोर
*भीड़ में
*पापी
*हादसा
*हासिम का
*क्रांतिकारी
*ख़ाकी वर्दी
*मुन्नी बाई 

दो चार जगह वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ एक शब्दों में जायज़ होते हुए भी नुक्ते का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। साथ ही कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमी के चलते कुछ शब्द/वाक्य अधूरे या ग़लत छपे हुए भी दिखाई दिए। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 46 पर एक सिख किरदार, सतविंदर सिंह द्वारा बोले गए पंजाबी संवाद मुझे सही नहीं लगे। वहाँ लिखा दिखाई दिया कि..

"मैं ते पहले वी कया सी। होन नी की```।"

यहाँ 'होन नी की' की जगह 'होर नय्यी ते की' आएगा। 

इससे अगले पैराग्राफ़ में लिखा दिखाई दिया कि..

"येदे मम्मी डैडी ते छोटे भा अशोकनगर न रहंदे।"

यह वाक्य भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'एदे मम्मी डैडी ते छोटे भ्रा/प्रा अशोकनगर च रहंदे ने।"

इसके बाद पेज नंबर 65 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

*'मक्कू पैर पटकता लौट आया था अपनी झोपड़ी में। वह झोंपड़ी उसके बापू ने कुछ महीने पहले ही गाँव पंचायत से मिली ज़मीन पर बनाई थी, जब वह लौट कर आया, बापू काम पर जा चुका था। वह बेचैन सा झोपड़ी में पड़ा रहा'

आगे बढ़ने पर पेज नंबर 69 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"कहना का बेटा, सावित्तरी के लिए ही रो रही थी बेचारी। वो तेरे साथ उसका बियाह-- मना मत करना, मक्कू। मैंने ओको हाँ कह दी है। बिन बाप की बेटी।" छत की कड़ियां गिनने लगा था बापू।

अब सवाल उठता है कि मक्कू के बापू ने तो पंचायत से मिली ज़मीन पर अपनी झोंपड़ी बनाई हुई थी जबकि बाद में कहा जा रहा है कि..मक्कू का बापू छत की कड़ियां गिन रहा था। यहाँ ग़ौरतलब है कि झोंपड़ी, फूस यानी कि सूखी घास/पुआल इत्यादि से बनती है जबकि कड़ी, कम से कम 4 इंच बाय 3 (4x3) या 4 बाय 4 (4x4) इंच अथवा 5 बाय 4 (5x4) इंच का  कम से कम 9-12 फुट  लंबा लकड़ी का सिंगल पीस होता है। जिन्हें 2 या फ़िर 2.5 फुट की दूरी पर कमरे के छत पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक लगाया जाता है और उनके ऊपर पत्थर के टुकड़े या फ़िर लकड़ी की फट्टीयाँ लगायी जाती हैं। इस तरह के मकान को झोंपड़ी नहीं बल्कि सैमी पक्का कहा जाना चाहिए। 

166 पृष्ठीय इस दिलचस्प कहानी संकलन के बढ़िया छपे पेपरबैक संस्करण को छापा है प्रभात पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि अगर थोड़ा कम रहता तो ज़्यादा बेहतर रहता। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

बेहया- विनीता अस्थाना

आमतौर पर जब भी कोई लेखक किसी कहानी या उपन्यास को लिखने की बात अपने ज़ेहन में लाता है तो उसके मन में कहानी की शुरुआत से ले कर उसके अंत तक का एक ऐसा रफ़ खाका खिंचा रहता है। जिसमें उसके अपने निजी अनुभवों को इस्तेमाल करने की पर्याप्त गुंजाइश होती है या फ़िर किताब की तैयारी से पहले उसने, उस लिखे जाने वाले विषय को ले कर ज़रूरी शोध एवं मंथन किया हुआ होता है। बाक़ी फिलर का काम तो ख़ैर वो अपनी कल्पना शक्ति के सहारे भी पूरा कर लेता है। उदाहरण के तौर पर 300 से ज़्यादा थ्रिलर उपन्यास लिख चुके सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने अपने एक लेखकीय में लिखा था कि उनके 'विमल' एवं 'जीत सिंह' सीरीज़ के अधिकांश उपन्यासों की पृष्ठभूमि मुंबई रही है जबकि इन सीरीज़ के अधिकांश उपन्यासों के लिखे जाने तक उन्होंने कभी मुंबई की धरती पर कदम नहीं रखा था। 

इस सारी जानकारी के लिए उन्होंने मुंबई और उसके आसपास के इलाकों के नक्शे का गहन अध्ययन करने के साथ साथ वहाँ की सड़कों के एवं व्यक्तियों के आकर्षक मराठा नामों की बाकायदा लिस्ट बना कर रखी हुई थी। ख़ैर..कहने का मंतव्य बस यही कि आज मैं निजी तजुर्बे..शोध एवं कल्पना से लैस जिस उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ उसे 'बेहया' के नाम से लिखा है विनीता अस्थाना जी ने। 

कॉर्पोरेट जगत को पृष्ठभूमि बना कर लिखे गए इस उपन्यास में मूलतः कहानी है बहुराष्ट्रीय कंपनी 'बेंचमार्क कंसल्टेंट्स प्राइवेट लिमिटेड' में बतौर कंट्री हैड बेहद सफ़ल तरीके से काम करने वाली, उस दो बच्चों की माँ, सिया की जिसका बेहद शक्की प्रवृति का अरबपति पति, यशवर्धन राठौर एक अय्याश तबियत का आदमी है और जिसे अपनी बीवी पर झूठे.. मिथ्या लांछन लगाने..उसे मानसिक एवं शारिरिक तौर पर प्रताड़ित करने में बेहद मज़ा आता है। इसी उपन्यास में कहानी है सिया के अधीनस्थ काम कर रही उस तृष्णा की जिसके सिया के पति के भी अतिरिक्त अनेक पुरुषों से दैहिक संबंध रह चुके हैं और वह दफ़्तर में रह कर सिया के पति, यशवर्धन के लिए उसकी पत्नी की जासूसी करती है। जिसकी एवज में उसे यशवर्धन से शारीरिक सुख के अतिरिक्त इस जासूसी के पैसे भी मिलते हैं। 

साथ ही इस उपन्यास में कहानी है प्यार में विश्वास खो चुके उस अभिज्ञान की जिसे ऑस्ट्रेलिया से ख़ास तौर पर बेंचमार्क कम्पनी की छवि एवं गुडविल में बढ़ोतरी के इरादे कम्पनी के मालिकों द्वारा भारत भेजा गया है। इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ तृष्णा को अभिज्ञान के रूप में एक नया साथी..एक नया शिकार दिखाई देता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ अभिज्ञान शुरू से ही सिया के प्रति आकर्षित दिखाई देता है जबकि पति के दिए घावों को गहरे मेकअप की परतों में छिपाने वाली सिया के लिए वह महज़ एक कुलीग..एक अच्छे दोस्त से ज़्यादा कुछ नहीं है। अब देखने वाली बात ये है कि किताब के अंत तक पहुँचते पहुँचते..

• क्या तृष्णा कभी अपने शातिर मंसूबों को पूरा कर पाएगी?
• क्या अपने पति के अत्याचारों को चुपचाप सहने वाली सिया को उसके दुराचारी पति से कभी छुटकारा  मिल पाएगा?
• क्या अभिज्ञान और सिया कभी आपस में मिल पाएँगे या फ़िर महज़ अधूरी इच्छा का सबब बन कर रह जाएँगे। 

इस उपन्यास में कहीं उच्च रहन सहन और दिखावे से लैस कॉरपोरेट वर्ल्ड और उसकी कार्यप्रणाली से जुड़ी बातें दिखाई देती हैं। तो कहीं शारीरिक संबंधों से दूर एक ऐसे प्लेटोनिक लव की अवधारणा पर बात होती नज़र आती है जिसमें शारीरिक आकर्षण एवं दैहिक संबंधों की ज़रूरत एवं महत्त्व को दरकिनार  किया जा रहा है। इसी उपन्यास में कहीं अपना खून ना होने की बात पर झूठे ताने दे खामख्वाह में अपना तथा बच्चों का डीएनए टैस्ट तक होता दिखाई देता है। तो कहीं इस उपन्यास में कहीं जीवन दर्शन से जुड़ी बातें गूढ़ पढ़ने को मिलती हैं। कहीं ये उपन्यास हमें अन्याय से लड़ने..उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करता दिखाई देता है। 

धाराप्रवाह लेखन से जुड़े इस उपन्यास की कहानी के थोड़ी फिल्मी लगने के साथ साथ इसमें ट्विस्ट्स एण्ड टर्न्स की भी कमी दिखाई दी। अगर प्लेटोनिक लव की बात को छोड़ दें तो कहानी भी थोड़ी प्रिडिक्टेबल सी लगी।  कहानी में जीवन दर्शन से जुड़ी बातों में एकरसता होने की वजह से बतौर पाठक मन किया कि ऐसे बाद के हिस्से को पढ़ते वक्त स्किप करने का भी मन किया। प्रभावी एवं सशक्त लेखन के लिए ज़रूरी है कि इस तरह की कमियों से बचा जाना चाहिए।

इस उपन्यास में एक दो जगह प्रूफरीडिंग की कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर 

पेज नंबर 40 पर लिखा दिखाई दिया कि..

" तुम गे हो नाम्या?"

"शटअप! नो!"

"सही में? मेरा मतलब है... जिस तरह से तुम सिया की हमेशा तारीफ किया करती हो, मुझे शक होता है।" उसने बात को बदल दिया और अपने कैबिनेट की तरफ चला गया।

यहाँ अभिज्ञान ने नाम्या को सिया की तारीफ़ करते हुए देख कर उससे पूछा कि.. " तुम गे हो नाम्या?"

यहाँ ये बात ग़ौरतलब है 'गे' शब्द को पुरुषों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जबकि महिलाओं के लिए 'लेस्बियन' शब्द का प्रयोग किया जाता है। अतः सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

" तुम लेस्बियन हो नाम्या?"

इसके बाद पेज नम्बर 99 पर सिया को याद कर अभिज्ञान ने गाना लिखा जो कि अँग्रेज़ी में। हिंदी उपन्यास में होने के नाते अगर अँग्रेज़ी की जगह अगर वह गीत हिंदी में होता तो ज़्यादा प्रभावित करता। 

बतौर पाठक एवं खुद भी एक लेखक होने के नाते मेरा मानना है किसी भी कहानी या उपन्यास का प्रभावी शीर्षक एक तरह से उस कहानी या उपन्यास का आईना होता है। इस कसौटी पर अगर कस कर देखें तो यह शीर्षक मुझे प्रभावी लेकिन कहानी की नायिका, सिया के बजाय एक छोटे गौण करैक्टर 'तृष्णा' पर ज़्यादा फिट होता दिखाई दिया। ऐसे में उसके उत्थान से ले कर पतन तक की कहानी को ज़्यादा बड़ा..फोकस्ड और ग्लोरीफाई किया जाता तो ज़्यादा बेहतर होता।

अंत में चलते चलते एक ज़रूरी बात कि..हाल ही में प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री सुभाष चन्दर जी ने भी ज़्यादा पढ़ने की बात पर ज़ोर देते हुए कहा कि..

"लिख तो आजकल हर वह व्यक्ति लेता है जिसके शब्दकोश में पर्याप्त शब्द हों एवं उसे भाषा का सही ज्ञान हो। मगर ज़्यादा पढ़ना हमें यह सिखाता है कि हमें क्या नहीं लिखना है।" 

पाठकों को बाँधने की क्षमता रखने वाले इस 155 पृष्ठीय रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

द= देह, दरद और दिल! - विभा रानी

कई बार किसी किताब के कठिन या अलग़ से शीर्षक को देख कर अथवा लेखक की बड़े नाम वाली नामीगिरामी शख़्सियत को देख कर स्वतः ही मन में एक धारणा बनने लगती है कि..इस किताब को पढ़ना वाकयी में एक कठिन काम होगा अथवा किताब की बातें बड़ी गूढ़..ज्ञान से भरी एवं रहस्यमयी टाईप की होंगी। अतः इसे आराम से पहली फ़ुरसत में तसल्लीबख्श ढंग से पढ़ा जाना चाहिए। मगर तब घोर आश्चर्य के साथ थोड़ा अफ़सोस सा भी होने लगता है जब हम उस किताब को पढ़ने बैठते हैं कि.. 'उफ्फ़ इतने अच्छे कंटेंट से अब तक हम खामख्वाह ही वंचित रहे।'

दोस्तों आज मैं प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं लेखिका विभा रानी जी के कहानी संकलन 'द= देह, दरद और दिल!' की। बहुमुखी प्रतिभा की धनी विभा रानी जी हिन्दी एवं मैथिली की लेखिका, ब्लॉगर एवं अनुवादक होने के साथ साथ एक प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं फ़िल्म कलाकार भी हैं। फोक प्रैज़ेंटर होने के साथ साथ वे एक कॉर्पोरेट ट्रेनर, मोटिवेशनल स्पीकर एवं 'अवितोको रूम थिएटर' की प्रणेता भी हैं। विभिन्न पुरस्कारों की स्वामिनी, विभा रानी जी कला क्षेत्र से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों में ख़ासी सक्रिय हैं एवं इनकी अब तक 22 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। 


इसी संकलन की रामायण काल को आधार बना कर लिखी गयी एक काल्पनिक कहानी के माध्यम से अपनी बेटे को खो चुकी उस हिरणी की व्यथा व्यक्त की गई है जिसके अबोध बच्चे का राम जन्म के जश्न के दौरान होने वाली शाही दावत में परोसे जाने के लिए शिकार कर लिया गया। 
 
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में लोकल ट्रेन के सफ़र के दौरान नबीला को उसके धर्म की वजह से छीटाकशी और ताने झेलने पड़ते हैं। ऐसे में फ़ौरी सहानुभूति के तहत उसकी तरफ़ से उसके हक़ में आवाज़ उठाने वाली आवाज़ें भी क्या सही मायनों में उसकी तरफ़दार थीं? तो वहीं एक अन्य कहानी सरकारी रेडियो स्टेशन में नवनियुक्त हुई रोहिणी के माध्यम से हमें आगाह करती हुई नज़र आती है कि रेडियो स्टेशन जैसे बड़े..प्रतिष्ठित संस्थान भी यौन शोषण के मामलों में अपवाद नहीं हैं। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ अस्पतालों में डॉक्टरों एवं स्टॉफ की लापरवाही को इंगित करते हुए, मरीज़ के डॉक्टर के नाम पत्र के माध्यम से, मौत की कगार पर खड़ी उस युवती की व्यथा को व्यक्त करती है जो प्रेग्नेंसी के दौरान संक्रमित खून के चढ़ाए जाने से स्वयं भी एच. आई.वी पॉज़िटिव हो चुकी है। तो वहीं एक अन्य कहानी एक तरफ़ घरों में काम कर अपना गुज़ारा करने वाली उस जवान सुरजी की बात करती है जिसका, कमाने के लिए शहर गया, पति वापिस आने का नाम नहीं ले रहा। तो वहीं दूसरी तरफ़ यही कहानी छोटी सोच के कुंठित प्रवृति वाले उस सुरजबाबू की बात करती है, जो अपनी पत्नी को इसलिए पसन्द नहीं करता कि वो सुन्दर एवं पढ़ी लिखी है। सुरजबाबू और सुरजी के बीच अवैध संबंध संबंध पनप तो उठते हैं मगर एक दिन सुरजी के इनकार करने पर उसे भी सुरजबाबू के अहं और कुंठा का खामियाज़ा पिटाई..प्रताड़ना एवं ज़िल्लत के रूप में झेलना पड़ता है। थोड़ी सहानुभूति की चाह में वह मालकिन के पास जाती तो है मगर मालकिन भी तो अपने पति के रंग में रंग कुछ कुछ उसके जैसी ही हो चुकी है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ उन अभागी स्त्रियों की व्यथा कहती है जिनके पतियों ने उनसे अलग हो कर अपनी नयी दुनिया बसा ली और अब, पहली पत्नी से प्राप्त हुए अपने बच्चों को भूल नयी पत्नी के पेट में ही मर चुके बच्चे का मातम ये कह कर मना रहे हैं कि.. वो उनका पहला बच्चा था। तो वही दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी समाज के अलग़ अलग़ तबके से आने वाली जयलक्ष्मी और नागम्मा के माध्यम से प्रदेश की राजनीति के घरों की देहरी तक खिसक आने की बात कहती है कि किस तरह घर का मुखिया चाहता है कि उसकी मर्जी से..उसकी पसंद के व्यक्ति को ही वोट दिया जाए। मगर कहानी के अंत में नागम्मा और जयलक्ष्मी का अपनी अपनी समझ से ठठा कर हँसना तो कुछ और ही कहानी कहता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी चित्रकार प्रवृति के उन राधारमण बाबू की बात करती है जो पारिवारिक दबाव के चलते अपनी मर्ज़ी की लड़की से ब्याह नहीं कर पाए। अवसाद..बिछोह एवं पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते छूट चुका उनका कलाप्रेमी मन उस वक्त फ़िर सिर उठाने लगता है जब उनके बच्चे, बतौर पेंटर, अपना बड़ा नाम बना चुके होते हैं। क्या अब इस रिटायर बाद की अवस्था में उनकी तमन्ना..उनका शौक पूरा हो पाएगा अथवा वे अपनी पत्नी..अपने बच्चों की नज़र में मात्र उपहास का पात्र बन कर रह जाएँगे? 

इसी किताब की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ पढ़ी लिखी उस नसीबा की बात करती है जिसने अपनी मर्ज़ी के पढ़े लिखे..तरक्की पसन्द रियाज़ खान से निकाह पढ़वाने के लिए अपने घरवालों को मना..अपने नाम, नसीबा अर्थात नसीब वाली को सार्थक तो कर दिया मगर क्या वाकयी वह उस वक्त नसीबों वाली रह पाती है जब उसका शौहर महज़ इस बात पर उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने को उद्धत हो उठता है जब वह ग़रीब बच्चों को पढ़ाने के बारे में बात करती है? अब देखना यह है कि अपनी अस्मिता..अपने मान सम्मान को बचाने के लिए नसीबा क्या करती है? तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में खूबसूरत जवां मर्द मेजर रंगाचारी को, उसके पिता के निजी स्वार्थ के लिए, सामान्य  शक्ल सूरत की मीनाक्षी से नाजायज़ दबाव डाल ब्याह दिया जाता है। बिन माँ का बेटा रंगाचारी ना पिता की इच्छा का विरोध कर पाता है और ना ही मीनाक्षी को दिल से अपना पाता है। पति- पत्नी के इस बर्फ़ समान ठंडे हो जम चुके रिश्ते में गर्माहट लाने का संयुक्त प्रयास, उनकी बेटी, प्रीति एवं मेजर के अधीन काम कर रहा शंकरन, करते तो हैं मगर देखना यह है कि उन्हें इस काम में सफलता प्राप्त हो पाती है या नहीं। 

इसी संकलन की अंतिम कहानी कुदरती कमी से अधूरे जन्में ट्रांसजेंडर बच्चों की समाज में स्वीकार्यता को बनाने एवं बढ़ाने के प्रयास के साथ साथ इस समस्या का हल भी सुझाती दिखाई देती है। 

धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस संकलन की कहानियाँ कहीं सोचने पर मजबूर करती दिखाई देती हैं तो कहीं किसी अच्छे की आस जगाती दिखाई देती हैं। इस प्रभावी कहानी संकलन में मुझे दो चार जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ स्थानों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। एक दो जगह प्रूफरीडिंग की कमियाँ भी दिखाई दी जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 88 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'हाँ, मैं थर्ड रेड टॉर्चर में यकीन रखता हूँ'

यहाँ 'हाँ, मैं थर्ड रेड टॉर्चर में यकीन रखता हूँ' की जगह 'हाँ, मैं थर्ड डिग्री टॉर्चर में यकीन रखता हूँ' आएगा। 

इसी तरह पेज नंबर 89 के दूसरे पैराग्राफ़ में  लिखा दिखाई दिया कि..

'दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज से एमए, अँग्रेज़ी की स्टूडेंट नसीबा, मिसेज़ आईएएस नसीबा'

यहाँ नसीबा को मिसेज़ आईएएस बताया जा रहा है जबकि लेखिका इसके पहले पेज पर नसीबा के पति को आईपीएस अफ़सर बता चुकी हैं।


इसके साथ ही इसी संकलन की रेडियो स्टेशन वाली कहानी मुझे अपनी तमाम खूबियों के बावजूद कुछ अधूरी या थोड़ी कम असरदार लगी। कहानी के अंत में रोहिणी को कल्पना करते दिखाया गया है कि काश.. वो सरेआम रेडियो पर एनाउंसर की भूमिका निभाते वक्त अपने सभी बड़े लंपट अफ़सरान की पोल खोल दे। 

यहाँ "काश'..के बजाय अगर सच में दृढ़ निश्चय के साथ उसके कदम इस ओर बढ़ते हुए दिखाए जाते तो मेरे ख्याल से कहानी का इम्पैक्ट ज़्यादा नहीं तो कम से कम दुगना तो हो ही जाता। 

यूँ तो प्रभावी लेखन से जुड़ा ये कहानी संकलन मुझे प्रकाशक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस 120 पृष्ठीय उम्दा कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू- रश्मि रविजा


70- 80 के दशक के तक आते आते बॉलीवुडीय फिल्मों में कुछ तयशुदा फ़ॉर्मूले इस हद तक गहरे में अपनी पैठ बना चुके थे कि उनके बिना किसी भी फ़िल्म की कल्पना करना कई बार बेमानी सा लगने लगता था। उन फॉर्मूलों के तहत बनने वाली फिल्मों में कहीं खोया- पाया या फ़िर पुनर्जन्म वाला फंडा हावी होता दिखाई देता था तो कोई अन्य फ़िल्म प्रेम त्रिकोण को आधार बना फ़लीभूत होती दिखाई देती थी।

 कहीं किसी फिल्म में नायक तो किसी अन्य फ़िल्म में नायिका किसी ना किसी वजह से अपने प्रेम का बलिदान कर सारी लाइम लाइट अपनी तरफ़ करती दिखाई देती थी। कहीं किसी फिल्म में फिल्म में भावनाएँ अपने चरम पर मौजूद दिखाई देतीं थी तो कहीं कोई अन्य फ़िल्म अपनी हल्की फुल्की कॉमेडी या फ़िर रौंगटे खड़े कर देने वाले मार धाड़ के दृश्यों के बल पर एक दूसरे से होड़ करती दिखाई देती थी। 

उस समय जहाँ बतौर लेखक एक तरफ़ गुलशन नंदा  सरीखे रुमानियत से भरे लेखकों का डंका चारों तरफ़ बज रहा था तो वहीं दूसरी तरफ़ सलीम-जावेद की जोड़ी को भी उनकी मुँह माँगी कीमतों पर एक्शन प्रधान फिल्मों की कहानी लिखने के लिए अनुबंधित किया जा रहा था। ऐसे ही दौर से मिलती जुलती एक भावनात्मक कहानी को प्रसिद्ध लेखिका, रश्मि रविजा हमारे समक्ष अपने उपन्यास 'स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू'  के माध्यम से ले कर आयी हैं। 

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है
कॉलेज में एक साथ पढ़ रहे शची और अभिषेक की। इस कहानी में जहाँ एक तरफ़ बातें हैं कॉलेज की हर छोटी बड़ी एक्टिविटी में बड़े उत्साह से भाग लेने वाले मस्तमौला तबियत के अभिषेक की तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें बातें हैं साधारण नयन- नक्श की सांवली मगर आकर्षक व्यक्तित्व की प्रतिभाशाली  युवती शची की। मिलन और बिछोह से जुड़े इस उपन्यास में शुरुआती नोक-झोंक के बाद शनैः
शनैः उनमें आपस में प्रेम पनपता तो है लेकिन कुछ दिनों बाद शची, अभिषेक को अचानक नकारते हुए उसके प्रेम को ठुकरा देती है और बिना किसी को बताए  अचानक कॉलेज छोड़ किसी अनजान जगह पर चली जाती है। 

किस्मत से बरसों बाद उनकी फ़िर से मुलाकात तो होती है मगर क्या इस बार उनकी किस्मत में एक होना लिखा है या फ़िर पिछली बार की ही तरह वे दोनों अलग अलग रास्तों पर चल पड़ेंगे? 

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस भावनात्मक उपन्यास में प्रूफरीडिंग के स्तर पर कुछ कमियाँ भी दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 13 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'वैसे यह भी ज्ञात हुआ कि एक्स्ट्रा करिकुलर 'सुबह सवेरा' काफ़ी हैं उसकी।'

इस वाक्य में लेखिका बताना चाह रही हैं कि 'शची  की रुचि एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ में काफ़ी रुचि है लेकिन वाक्य में ग़लती से 'एक्टिविटीज़' या इसी के समान अर्थ वाला शब्द छपने से रह गया। इसके साथ ही त्रुटिवश 'सुबह सवेरा' नाम के एक अख़बार का नाम छप गया है जिसकी इस वाक्य में  ज़रूरत नहीं थी। 

सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

वैसे यह भी ज्ञात हुआ कि एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ काफ़ी हैं उसकी।'


इसी तरह पेज नंबर 36 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'सारा गुस्सा, मनीष पर उतार दिया। मनीष चुपचाप उसकी  स्वगतोक्ति सुनता रहा। जानता था, यह अभिषेक नहीं उसका चोट खाया स्वाभिमान बोल रहा है। उसने ज़रा सा रुकते ही पूछा, "कॉफी पियोगे?"

"पी लूँगा".. वैसी ही मुखमुद्रा बनाए कहा उसने और फिर शुरू हो गया।'

इसके पश्चात एक छोटे पैराग्राफ़ के बाद मनीष, अभिषेक से कहता दिखाई दिया कि..

'ऐसा तो कभी कहा नहीं शची ने..चल जाने दे..चाय ठंडी हो रही है..शुरू कर।'


अब यहाँ ये सवाल उठता है कि जब कॉफ़ी के लिए पूछा गया और हामी भी कॉफ़ी पीने के लिए ही दी गयी तो अचानक से कॉफी , चाय में कैसे बदल गयी? 


इसके आगे पेज नंबर 44 में कॉलेज के प्रोफ़ेसर अपने पीरियड के दौरान अभिषेक से कोर्स से संबंधित कोई प्रश्न पूछते हैं और उसके प्रति उसकी अज्ञानता को जान कर भड़क उठते हैं। इस दौरान वे छात्रों में बढ़ती अनुशासनहीनता, फैशन परस्ती, पढ़ाई के प्रति उदासीनता, फिल्मों के दुष्प्रभाव इत्यादि को अपने भाषण में समेट लेते हैं जो बेल लगने के बाद तक चलता रहता है।

यहाँ लेखिका ने पीरियड समाप्त होने की घंटी के लिए 'बेल बजने' में 'Bell' जैसे अँग्रेज़ी शब्द का इस्तेमाल किया जबकि 'Bell' हिंदी उच्चारण के लिए 'बेल' शब्द का प्रयोग किया जो कि संयोग से 'Bail' याने के अदालत से ज़मानत लेने के लिए प्रयुक्त होता है। 

अब अगर 'Bell' के उच्चारण के हिसाब से अगर लेखिका यहाँ हिंदी में 'बैल' लिखती तो अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती कि एक घँटी जैसी निर्जीव चीज़ को सजीव जानवर, बैल में बदल दिया जाता। 

अतः अच्छा तो यही रहता है कि ऐसे कंफ्यूज़न पैदा करने वाले शब्द की जगह देसी शब्द जैसे 'घँटी बजने' का ही प्रयोग किया जाता।


अब चलते चलते एक महत्त्वपूर्ण बात कि जब भी हम कोई बड़ी कहानी या उपन्यास लिखने बैठते हैं तो हमें उसकी कंटीन्यूटी का ध्यान रखना होता है कि हम पहले क्या लिख चुके हैं और अब हमें उससे जुड़ा हुआ आगे क्या लिखना चाहिए। लेकिन जब पहले के लिखे और बाद के लिखे के बीच में थोड़े वक्त का अंतराल आ जाता है तो हमें ये तो याद रहता है कि मूल कहानी हमें क्या लिखनी है मगर ये हम अक्सर ये भूल जाते हैं कि हम पहले क्या लिख चुके हैं। 

पहले के लिखे और बाद के लिखे में एक दूसरे की बात को काटने वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए। इसी तरह की एक छोटी सी कमी इस उपन्यास में भी मुझे दिखाई दी। उदाहरण के तौर पर  पेज नंबर 125 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'जब वह 'कणिका' को याद नहीं कर पा रहा था तो बड़ी गहरी मुस्कुराहट के साथ बोली थी, 'कभी तो तुम्हारी बड़ी ग़हरी छनती थी उससे' इसका अर्थ है वह भूली नहीं है कुछ।'

यहाँ शची, अभिषेक को कणिका के बारे में बताती हुई उसे याद दिलाती है कि कणिका से कभी उसकी यानी कि अभिषेक की बड़ी ग़हरी छना करती थी। 

अब यहाँ ग़ौरतलब बात ये है कि इससे पहले कणिका का जिक्र पेज नम्बर 121 की अंतिम पंक्तियों में आया और जो पेज नम्बर 122 तक गया लेकिन इस बीच कहीं भी उपरोक्त बात का जिक्र नहीं आया जो पेज नंबर 125 पर दी गयी है।

इस उपन्यास में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। मनमोहक शैली में लिखे गए 136 पृष्ठीय इस बेहद रोचक एवं पठनीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है प्रलेक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- जो कि कंटेंट एवं क्वालिटी के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

कर्ज़ा वसूली- गिरिजा कुलश्रेष्ठ

आमतौर पर आप सभी ने कभी ना कभी देखा होगा कि आप किसी को कोई बात याद दिलाएँ या पूछें तो मज़ाक मज़ाक में सामने से ये सुनने को मिल जाता है कि हमें ये तक तो याद नहीं कि कल क्या खाया था? अब बरसों या महीनों पुरानी कोई बात भला कोई कैसे याद रखे? अच्छा!..क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि आप अचानक अपने किसी परिचित से मिलें और बात करते करते उसका नाम भूल जाएँ? ऐसा औरों के साथ तो पता नहीं मगर मेरे साथ तो एक आध बार ज़रूर हो चुका है।

ख़ैर.. इनसानी यादाश्त में वक्त के साथ इतनी तब्दीली तो ख़ैर आती ही है कि देर सवेर हम कुछ न कुछ भूलने लगते हैं। इसलिए बढ़िया यही है कि जहाँ तक संभव हो काम की बातें हम लिख कर रखा करें। 

दोस्तों..आज याददाश्त से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं जिस किताब के बारे में बात करने वाला हूँ। उसे मैंने 2 मई, 2022 को ही पढ़ लिया था लेकिन तब पता नहीं कैसे उस किताब में काफ़ी कुछ लिख लेने के बाद भी उस पर अपनो पाठकीय प्रतिक्रिया पोस्ट करना भूल गया। अब दो दिन पहले इस किताब को फ़िर से पढ़ने के लिए उठाया तो पहले दो पेज पढ़ते ही महसूस हुआ कि इस कहानी को तो मैं पहले भी पढ़ चुका हूँ। फ़िर लगा कि शायद किसी साझा कहानी संग्रह में ये कहानी पढ़ी हो। अपने नोट्स को खंगाला तो पाया कि इस पूरी किताब पर मेरे नोट्स की आख़िरी एडिटिंग की तारीख 2 मई, 2022 है। 

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दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ लेखिका गिरिजा कुलश्रेष्ठ के 'कर्ज़ा वसूली' के नाम से आए एक उम्दा कहानी संकलन की। 

अपने आसपास के माहौल एवं समाज में घट रही घटनाओं को आधार बना कर धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस कहानी संकलन में कुल 13 कहानियाँ हैं जिन्हें पढ़ कर आसानी से जाना जा सकता है कि लेखिका, विस्तृत शब्दकोश के साथ साथ पारखी नज़र की भी स्वामिनी है।

इसी संकलन की एक कहानी जहाँ एक तरफ़ इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि मन में अगर किसी काम करने की जब तक ठोस इच्छा ना हो..तब तक वह कार्य सिद्ध नहीं हो पाता। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी इस बात को स्थापित करती नज़र आती है कि किसी को उधार देना तो आसान है मगर उस दिए गए ऋण की वसूली करना हर एक के बस की बात नहीं। 

इसी संकलन की किसी कहानी में जब अध्यापक स्वयं अपने बेटे की उच्च शिक्षा के लिए अपने प्रोविडेंट फंड का एक हिस्सा निकलवा पाने में नाकामयाब हो जाते हैं तो अंत में उन्हें बिगड़ते काम को बनवाने के लिए भ्रष्ट सरकारी तंत्र के आगे घुटने टेकने पर मजबूर हो जाना पड़ता है। तो वहीं एक अन्य कहानी में अपने छोटे..अबोध बच्चे को लिखना पढ़ना एवं अनुशासन सिखाने के लिए उसके माँ उसे जब तब मारने से भी नहीं चूकती। मगर एक दिन अपने बेटे की प्रथम मार्मिक अभिव्यक्ति, जो उसने कमरे के फ़र्श पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखी होती है, को देख कर वह चौंक जाती है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ स्कूल में नए एडमिशन के रूप में एक अनगढ़ या फैशन और नए जमाने के तौर तरीकों से अनजान लड़की को देख कर क्लास के बाकी विद्यार्थी इस हद तक उसकी खिल्ली उड़ाते..उसे तंग करते हैं कि आखिरकार वह स्कूल छोड़ कर चली जाती है। मगर भविष्य के गर्भ में भला क्या लिखा है..यह तो किसी को पता ना था। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी बूढ़े बाप के जवान बेटे की मौत के कारणों का विश्लेषण करते उन रिश्तेदारों और परिचितों की बात करती है जिनमें से कोई इसके लिए उसकी उसकी पत्नी को दोष देता है तो कोई पीलिया बीमारी से हुई मौत का हवाला देता दिखाई देता। कोई अत्यधिक शराब को इसका कारण बताता दिखाई देता है तो कोई घर में उसकी पत्नी के कदमों को अशुभ मानता नज़र आता है। मगर असली वजह तो सिर्फ़ मृतक या उसकी पत्नी ही जानती थी। 


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ  अध्यापकों द्वारा कम समय में अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ के मद्देनज़र उत्तर पुस्तिकाओं की जाँच में हो रही भारी लापरवाही के ख़िलाफ़ जब वसन्तलाल आवाज़ उठाता है। तो उसे ही कठघरे में खड़ा कर उसकी मामूली सी ग़लती को बलन्डर मिस्टेक करार दे उसे ही सस्पैंशन लैटर थमाने की कवायद शुरू होने के आसार दिखने लगते हैं। तो वहीं एक अन्य कहानी में घर की मेहनती.. सब काम काज संभालने वाली सुघड़ बड़ी बहू सीमा को ससुराल में हमेशा छोटी बहु की बनिस्बत पक्षपात झेलना पड़ता है कि उसकी देवरानी, अमीर घर से है जबकि वह स्वयं गरीब घर से। ऐसे में जब एक बार उसकी गरीब माँ अपनी ज़रुरतों को नज़रंदाज़ कर उसके ससुरालियों के लिए बहुत से गिफ्ट भेजती तो है मगर क्या इससे उसे ससुराल में वैसा ही सम्मान प्राप्त हो पाता है जैसा कि छोटी बहू को शुरू से मिलता आया है?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि नाकारा और शराबी व्यक्ति अगर सही बात भी कर रहा हो तो भी ना कोई उसे गंभीरता से लेता है और ना ही उसकी बात का विश्वास करता है। तो एक अन्य कहानी परदेस में भाषा की दिक्कत के साथ महानगरीय जीवन की उन सच्चाइयों को उजागर करती है कि यहाँ सब अपने मतलब से मतलब रखते हैं और कोई अपने आस पड़ोस में रहने वालों के नाम तक नहीं जानता।

धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी इस रोचक किताब में काफी जगहों पर शब्द आपस में जुड़े हुए या फ़िर ग़लती से दो दो बार छपे हुए दिखाई दिए। जिससे कुछ एक जगहों पर तारतम्य टूटता सा प्रतीत हुआ और एक जगह अर्थ का अनर्थ भी होता दिखाई दिया। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर 124 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अब भी उसने छुट्टी मनाली थी और कथरी बिछा कर बरांडे में पड़ा था।' 

वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी छोटी छोटी खामियाँ दिखाई दी जिन्हें दूर किए जाने की ज़रूरत है।

यूँ तो सहज..सरल भाषा में लिखी गयी रोचक कहानियों से लैस ये कहानी संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस बढ़िया कहानी संग्रह के 172 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 175/- जो कि क्वालिटी एवं कंटेंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभ कामनाएँ।

यू पी 65- निखिल सचान

कई बार पढ़ते वक्त कुछ किताबें आपके हाथ ऐसी लग जाती हैं कि पहले दो चार पन्नों को पढ़ते ही आपके मुँह से बस..."वाह" निकलता है और आपको लेखक की लेखनी से इश्क हो जाता है। यकीनन कुछ ना कुछ अलग...कुछ ना कुछ दिलचस्प..कुछ ना कुछ अनोखा तो ज़रूर ही होता होगा उनके लेखन में जब कोई किताब दिलकश अंदाज़ में आपका सुख चैन...आपकी नींद उड़ा...आपको अपने साथ..अपनी ही रौ में बहा ले चलते हुए ..एक ही दिन में खुद को पूरा पढ़वा डाले। और उस पर सोने पे सुहागा ये कि हर दूसरा-तीसरा पेज कोई ना कोई ऐसे पंच लाइन खुद में समेटे हो कि औचक ही आप पढ़ना छोड़...हँसना शुरू कर दें।

दोस्तों!...आज मैं बात करने जा रहा हूँ "यूपी 65" नामक उपन्यास और उसके लेखक निखिल सचान की जो आए तो हिंदी साहित्य में एक बाहरी व्यक्ति के तौर पर ही लेकिन आते ही उन्होंने अपनी तथाकथित 'नई वाली हिंदी' के ज़रिए हज़ारों लोगों को हिंदी साहित्य से जोड़..उन्हें अपना मुरीद बनाते हुए अपने लेखन की धूम मचा दी।

किसी ने उन्हें हिंदी साहित्य के युवा तुर्क की उपाधि दी तो किसी ने अपकमिंग ऑथर ऑफ द ईयर के अवार्ड से भी उन्हें नवाजा। किसी ने उन्हें हिंदी साहित्य के सुनहरे दिनों को लौटा लाने का श्रेय दिया तो किसी ने उन्हें हिंदी साहित्य का नया सितारा कहा। किसी ने उनके द्वारा लिखी गयी तीनों किताबों का बेस्टसेलर की गिनती में शुमार किया। 

कॉलेज/होस्टल लाइफ पर आधारित कई फिल्में, कहानियाँ और उपन्यास पहले भी पढ़..देख एवं समझ चुकने के बावजूद भी इस उपन्यास की कहानी में एक ताज़गी...एक नयापन साफ़ दिखाई देता एवं महसूस होता है जो आपको, अपनी तरफ आकर्षित करता है। इस उपन्यास की कहानी कहीं आपको होस्टल एवं कॉलेज के शरारतों से भरे मस्त जीवन से रूबरू कराती है तो कहीं रुमानियत से भरे प्यार के एहसास से दो चार भी कराती हैं। 

कहीं इसमें दार्शनिक हो..जीवन दर्शन आप में समाने लगता है तो कहीं खिलंदड़ हो इसमें..आपका मन भी किरदारों संग हुड़दंग मचाने को मचल उठता है। ताज़ातरीन राजनैतिक हालातों के प्रति संजीदा...जागरूक विद्यार्थी इसमें नज़र आते हैं तो कहीं हर बात को बस धुएँ, बियर, शराब और नशे के ज़रिए तफ़रीह में उड़ाने को आतुर युवा भी दिखाई देते हैं। कहीं इसमें धीर गंभीर हो पढ़ाई की बातें हैं तो कहीं इसमें सामूहिक हड़ताल के ज़रिए परीक्षाएँ रद्द करवाने की जुगत भरी चालें हैं। 

कहीं महज़ मस्ती के लिए फ्लर्टिंग का बोलबाला है तो कहीं इसमें सुंदर लड़की को ले..खिलंदड़पने से भरी, लड़कों की आपस की ईर्ष्या..जलन एवं मारामारी है। कहीं इसमें प्यार में संजीदगी समेटे भावुकता अपने चरम पर है तो कहीं माहौल को हल्का करती किसी को पाने को लेकर होती हास्यास्पद हरकतें हैं। 

कहीं इसमें कबाड़ के ढेर पे बैठ कोई सबके ज्ञानचक्षु खोल..अपनी समझ बाँटता दिखाई देता है तो कहीं इसमें ठेठ बनारसी अंदाज़, लहज़े और ठसक में ज्ञान बघारते/पेलते युवा भी दृष्टिगोचर होतें हैं। कहीं कोई प्रोफ़ेसर नशे में भावुक हो..विद्यार्थियों के बिगड़ते भविष्य पर चिंता जताता है तो कहीं दमदार..मारक पंच लाइनें आपका स्वागत करने को बेताब नज़र आती हैं। 

कहीं इसमें बनारस के घाटों की खूबसूरती वर्णन है तो कहीं उन्हीं घाटों के आसपास बने उन होटलों का जिक्र है जो अपने यहाँ...खुद की क़ुदरती मौत का इंतज़ार करने वालों का स्वागत करते नज़र आते हैं। 

160 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को मिल कर छापा है 'हिन्दयुग्म' और 'वेस्टलैण्ड पब्लिकेशंस' ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र ₹150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। कम दामों पर बढ़िया कंटैंट पेश करने का फंडा अगर सभी प्रकाशकों की समझ में आ जाए तो हिंदी साहित्य के सुनहरे दिनों के आने में कोई देर..कोई कोताही नहीं। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

अपने अपने मेघदूत- पूनम अहमद

किसी भी कहानी या उपन्यास के लेखन का मकसद अगर  ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक उसकी पहुँच.. उसकी पकड़ को बनाना हो तो ये लाज़मी हो जाता है कि उसकी भाषा..शैली एवं ट्रीटमेंट आम आदमी की समझ के हिसाब से यानी के सहज एवं सरल हो। ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि उन कहानियों की विषय वस्तु भी ऐसी हो कि आम पाठक उससे आसानी से खुद को कनैक्ट कर सके..जोड़ सके।

दोस्तों..आज मैं लेखिका पूनम अहमद द्वारा लिखे गए एक ऐसे ही कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसमें हमारे समाज एवं आसपास के माहौल में घट रही घटनाओं का कहानियों की ज़रूरत के हिसाब से समावेश किया गया है। पिछले 15 वर्षों से लेखन के क्षेत्र में सक्रिय पूनम अहमद का नाम आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है।  अब तक कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं जैसे गृहशोभा, सरिता, मुक्ता, मेरी सहेली, वूमेंस एरा, फेमिना इत्यादि में छपने के अतिरिक्त अनेक  समाचार पत्रों में उनकी लगभग साढ़े पांच सौ कहानियां और दो सौ के आसपास लेख प्रकाशित हो चुके हैं। इनके अब तक 4 कहानी संग्रह आ चुके हैं एवं दो प्रकाशनाधीन हैं।

  इसी संकलन की एक कहानी में पार्क के बैंच के माध्यम से पैंतीस वर्षीया उस वल्लरी की बात कही गयी है जिसे खामख्वाह पार्क में बैठ अपने एकांतपन से जूझ रही बूढ़ी औरतों से बतियाना पसन्द नहीं। मगर क्या यही स्थिति तब भी बनी रह पाएगी जब वल्लरी स्वयं उनकी उम्र तक पहुँचेगी?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में विवाहित बेटी, कविता के घर बीस दिनों के लिए रहने आयी राधिका, उसका,  उसकी बेटियों के साथ स्नेह देख कर स्वयं अपराधबोध से ग्रसित हो जाती है कि उसने कभी अपनी बेटियों को ऐसा लाड़ प्यार नहीं दिया।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अपने अपने घरवालों के विरोध के बावजूद सुहास और नितिन एक साथ रहने का फ़ैसला करते हैं और एक अनाथ बच्चे अंश को गोद ले उस पर अपना सारा प्यार लुटाते तो हैं मगर उन्हें डर है कि अंश के जीवन में आने वाली लड़की उनके साथ क्या सहजता से रह पाएगी? 

इसी संकलन की एक कहानी में जहाँ बच्चों के बड़े हो..विदेश में सैटल हो जाने के बाद अकेलेपन से जूझ रही मेघ उस समय खिल उठती है जब उसे पता चलता है कि अगले महीने दोस्तों के साथ होने वाली किट्टी पार्टी उसके घर में होने वाली है। तो वहीं एक कहानी में अपने बेरोज़गार पति आलोक की कैंसर से मृत्यु हो जाने के बाद जब सुनंदा से पति का आवारा दोस्त और पड़ोसी आत्मीयता बढ़ाने का प्रयास करते हैं तो सुनंदा उन्हें कठोरता से झिड़क तो देती है मगर...

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़  नयी पुरानी विचारधारा के बीच टकराव की बातें करते हुए अंततः एक बीच का रास्ता सुझाती नज़र आती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी बढ़ती उम्र के साथ पति पत्नी के जोड़े में से किसी एक के चले जाने के बाद बचे दूसरे साथी के अकेलेपन की बात करती नज़र आती है कि उसे किस कदर अकेला रह कर वियोग में तड़पना पड़ता है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी के ज़रिए लेखिका जहाँ कांक्रीट के जंगल बनते जा रहे महानगरों के आवासीय अपार्टमेंट्स में कम धूप आने की समस्या की तरफ़ अपने पाठकों का ध्यान आकर्षित करती नज़र आती हैं। तो वहीं एक अन्य कहानी इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि ज़रूरी नहीं कि सभी कॉन्टैक्ट्स किसी काम या धंधे के दौरान ही बनते दिखाई दें।

एक दो जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ एक स्थानों पर प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियाँ दिखाई दीं। 

यूँ तो धाराप्रवाह लेखनशैली से सजा यह कहानी संग्रह मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 120 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है 225/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

गूँगे नहीं शब्द हमारे- सुभाष नीरव/ डॉ. नीरज सुघांशु(संपादन)

पुरुषसत्तात्मक समाज होने के कारण आमतौर पर हमारे देश मे स्त्रियों की बात को..उनके विचारों..उनके जज़्बातों को..कभी अहमियत नहीं दी गयी। एक तरफ पुरुष को जहाँ स्वछंद प्रवृति का आज़ाद परिंदा मान खुली छूट दे दी गयी। तो वहीं दूसरी तरफ नैतिकता..सहनशीलता..त्याग एवं लाज के बंधनों में बाँध महिलाओं का मुँह बन्द करने के हर तरफ से सतत प्रयास किए गए। उनका हँसना बोलना..मुखर हो कर तर्कसंगत ढंग से अपनी बात रखना तथाकथित मर्दों को कभी रास नहीं आया। 

मगर आज जब हमारे देश..समाज की महिलाएँ, पुरुषों के मुकाबले हर क्षेत्र..हर काम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हुए बराबर का या फिर कई बार पुरुषों से भी ज़्यादा बेहतर काम कर रही हैं। तो ऐसे में उनसे, चुप्पी लगाते हुए, पुरुषों से दब कर रहने की उम्मीद करना बेमानी होने के साथ साथ न्यायसंगत भी प्रतीत नहीं होता है। 

दोस्तों...आज मैं बात करने जा रहा हूँ 'गूंगे नहीं शब्द हमारे' नामक कहानी संकलन की। जिसका नाम ही उसकी कहानियों के तेवरों से हमें अवगत कराने में पूरी तरह सक्षम है। इस कहानी संकलन का संपादन किया है प्रसिद्ध साहित्यकार सुभाष नीरव जी और सुश्री. डॉ. नीरज सुघांशु जी ने। इस संकलन में वरिष्ठ एवं समकालीन लेखिकाओं की कुल पंद्रह कहानियाँ का समावेश है और हर कहानी किसी ना किसी रूप में सशक्त होती स्त्रियों की दास्तान कहती है।

इस संकलन की किसी कहानी में जहाँ शक्की दामाद के ख़िलाफ़ अपने घर की बेटी के मान की रक्षा के लिए जब परिवार की एक दबंग महिला अपनी चुप्पी तोड़, अपनी पोती के साथ देने का फैसला करती है तो घर के सभी सदस्य उसके समर्थन में एकजुट हो जाते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ किसी कहानी में गांव की भोली गंगा अपने से उम्र में तीन गुणा बड़े पुरुष से यह कह कर ब्याह दी जाती है कि..."आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता"। 

इस संकलन की एक अन्य कहानी में अनसुलझे रिश्तों के मोहजाल में फँसी एक युवती के रिश्तों के धागों को एक एक कर के सुलझाने की बात है। तो वहीं एक कहानी पूरी तरह से प्रोफेशनलिज़्म के रंग में रच बस चुकी एक महिला एक्सिक्यूटिव की बात करती है कि किस तरह से वह किसी के प्रेम में भीतर तक डूबी होने के बावजूद संकोचवश उस शख्स से अपने दिल की बात कह नहीं पाती और यही हाल उस शख्स का भी है।

इस संकलन की एक अन्य कहानी में पढ़ाई में अव्वल रहने वाली एक लड़की के तमाम विरोधों के बावजूद भी उसके माता पिता द्वारा, पढ़ाई बीच में ही छुड़वा, जबरन उसकी एक ऐसे युवक से शादी कर दी जाती है जो नशेड़ी होने के साथ साथ दुनिया भर के ऐबों से भी ग्रस्त है। लड़की के लाख रोने गिड़गिड़ाने के बावजूद भी अपनी थोथी इज़्ज़त बचाने के नाम पर उसे कभी मायके तो कभो ससुराल वालों द्वारा उसी घर के उन्हीं हालातों में रहने को मजबूर किया जाता है। तो वहीं एक कहानी में  एक प्रेम कहानी महज़ इस वजह से अधूरी रह जाती है कि लड़का संकोचवश अपने दिल की बात नहीं कह पाता कि जिस लड़की से वह प्रेम करता है, वह उसके एक ऐसे दोस्त की बहन है जिसके घर उसका रोज़ का उठना बैठना है।

एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ एक माँ अपनी बेटी को सभी अपरिचितों से दूर रहने..उनसे बात ना करने के लिए समझाती रहती है कि ज़माना ठीक नहीं है। मगर क्या बच्चियों को सिर्फ अपरिचितों से ही ख़तरा है? तो वहीं दूसरी तरफ एक कहानी में बचपन से ही भाई के मुकाबले अपने माता पिता का दोयम दर्जे का व्यवहार झेलती बच्ची जब बड़ी हो कर ब्याही जाती है तो भी उसके स्वभाव में वही दब्बूपन बचा रह जाता है। मगर अपने बच्चों की परवरिश वो इस ढंग से करती है कि दोनों भाई बहन में बराबरी का एहसास हो। उनके बड़े हो..सैटल हो जाने के बाद पति पत्नी में आपसी समझ उत्पन्न होती है और उसके बाद दोनों एक दूसरे के मित्र हो..पुरानी ग़लतियों को अब सुधारने में जुट जाते हैं।

पढ़ाई में अव्वल रहने वाली लड़की इश्क के चक्कर में फँस एक पहले से शादीशुदा आदमी के साथ घर छोड़ कर भाग जाती है और बाद में एक के बाद एक कर के तीन बच्चों को जन्म देती है। उसका पति बाद में चल कर एक अन्य स्त्री के चक्कर में फँस जाता है। ऐसे में विक्षिप्तता की हालत में उसे पुरुषों से ही नफरत हो जाती है। बाद में स्थायी नौकरी पाने के बाद उत्पन्न हुई आत्मनिर्भरता की स्थिति से वह धीरे धीरे सामान्य होने लगती है।

हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच आपसी संबंधों को ले कर लिखी गयी एक कहानी में कोई कट्टर हिंदू मुस्लिमों के मोहल्ले में अपनी सोच से ठीक उलट होते देखता है तो उसके मन मस्तिष्क पर सालों से लगा ग्रंथियों एवं भ्रांतियों  का जाला साफ़ होता है।

इसी संकलन की एक कहानी हमें बताती है कि नियति कैसे किसी के शांत शख़्सियत भरे जीवन में अशांति का कोलाहल भर...तूफान मचा दे...कहा नहीं जा सकता। इस कहानी में एक शांतचित्त लड़की का ब्याह परदेस के एक ऐसे घर में कर दिया जाता है जहाँ उसे बात बात में प्रताड़ित..अपमानित  किया जाता है और अंत में इस सबकी परिणति उसकी मौत के रूप में होती है जिसे आत्महत्या का रूप दे दिया जाता है। 

इसी संकलन में कहीं कहानी इस बात की तस्दीक करती है कि कई बार कुछ निश्छल.. भोले किरदार हमारे जीवन...हमारे मन मस्तिष्क में इस प्रकार अपनी सुदृढ़..टिकाऊ एवं भरोसेमंद पैठ बना लेते हैं कि उनके सामने मौजूद होने ..ना होने पर भी हम उनके मोहपाश से बच नहीं पाते। 

प्रेम विवाह के बाद भी जब एक युवक अपने शक के दायरे से बाहर नहीं निकल पाता तो ऐसे में काफी सालों तक उसके ताने..लांछन एवं प्रताड़ना झेलने के बाद युवती अपने बड़े हो रहे बेटे के भविष्य की खातिर अपने पति से अलग होने का फैसला करती है और उसे अपने दम पर काबिल बना विदेश में सैटल करती है। ऐसे में उम्र के इस पड़ाव में एकाकी जीवन जीते हुए उसे किसी अन्य व्यक्ति का साथ जब भाने लगता है। तो इस बाबत वह अपने बेटे को बताती है मगर उसका बेटा अपने अनुवांशिक गुणों/अवगुणों के चलते क्या अपनी पुरुषसत्तात्मक सोच के दायरे से बाहर निकल पाता है?

किसी कहानी में नायिका जब अपने स्पष्टवादी पति की दोटूक दबंगता..उद्दंडता तथा अपने प्रति उदासीनता को सहन नहीं कर पाती तो उसका बॉस अपने फायदे के लिए उसे अपने पति से तलाक लेने के लिए बार बार उकसाता है। तलाक के बाद अपने बॉस से गर्भवती हो चुकी वह महसूस करती है कि उसी स्थिति कमोबेश वैसी की वैसी याने के पहले जैसी ही है। ऐसे में इस सबसे निजात पाने के लिए वह अपने पेट में पल रहे आजन्मे बच्चे को गिराने का फ़ैसला कर लेती है। 

यूँ तो 'गूंगे नहीं शब्द हमारे' शीर्षक के हिसाब से ये होना चाहिए था कि हर कहानी में नायिका समाज में चल रही रूढ़ियों..ग़लत बातों का विरोध करती दिखाई देती लेकिन कुछ कहानियों में हालात के साथ वह समझौता करते हुए भी नायिका दिखाई दी। शायद इस शीर्षक को कुछ लेखिकाओं ने अपने ऊपर निजी तौर पर इस तरह पर्सनली ले लिया कि...

गूंगे नहीं हैं शब्द हमारे...हम भी अच्छा एवं उम्दा लिख सकती हैं। 

एक आध कहानी में क्लिष्ट क्षेत्रीय शब्दों के प्रयोग ने उसे पढ़ना तथा समझना थोड़ा दुष्कर कर दिया और उसे एक से ज़्यादा बार पढ़ कर समझने का प्रयास करना पड़ा। इसके अलावा एक दो कहानियों में जहाँ अपवाद स्वरूप बुद्धिजीविता जबरन थोपी हुई लगी तो वहीं एक अन्य कहानी ने शुरुआती कुछ पैराग्राफ़स में जेट की सी ऊँचाई और स्पीड पकड़ी मगर उसके बाद उसने औंधे मुँह धड़ाम गिरते हुए धरती का मुँह चूमने का मन बनाने से भी गुरेज़ नहीं किया। 

जहाँ एक तरफ क्षेत्रीय भाषा के शब्द रचना में मधुरता एवं क्षेत्रीय विश्वसनीयता पैदा करते हैं वहीं दूसरी तरफ उस भाषा से पूरी तरह से अनजान लोगों के लिए उसे पढ़ना एवं समझ पाना दूभर भी बनाते हैं। भाषायी शब्दों से सुसज्जित वाक्यों के अगर सरल हिंदी अनुवाद भी साथ में दिए जाएँ तो सोने पे सुहागा वाली बात होगी।

यूँ तो पठनीयता के हिसाब से पूरी किताब बढ़िया लगी मगर फिर भी कुछ कहानियाँ मुझे बहुत बढ़िया लगीं जिनके नाम इस प्रकार हैं:
• अंतिम प्रश्न- कविता वर्मा
• युग्म- नीलम कुलश्रेष्ठ
• मौसमों की करवट- प्रज्ञा
• घोंसला...जो बन ना सका
• स्ट्रेंजर्स- प्रतिभा
• एकांत के फूल- रजनी मोरवाल
• अज़ीयत,मुसीबत,मलालत...तिरे इश्क- सपना सिंह
• नीम की निबौरी- विनीता राहुरीकर 
• उजास और कालिमा के आर पार- उर्मिला शुक्ल 
• अन्धे मोड़ से आगे- राजी सेठ

बतौर लेखक और एक सजग पाठक के नाते मैं सभी लिखने वालों को एक सलाह अवश्य देना चाहूँगा कि अपनी रचना को फाइनल करने से पहले कम से कम वे खुद दर्जनों बार उसका स्वय मूल्यांकन करें कि अगर उसे किसी और ने लिखा होता तो वे खुद उसमें क्या क्या कमी निकाल सकते थे? 

बढ़िया क्वालिटी के इस 184 पृष्ठीय कहानी संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है वनिका पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹400/- जो कि आम पाठक की नज़र से देखें तो थोड़ा ज़्यादा है। पायरेसी से बचने एवं अधिकतम पाठकों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि किताबों के वाजिब दामों पर पेपरबैक संस्करण भी उपलब्ध कराए जाएँ। 

आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए संपादक द्वय तथा सभी लेखिकाओं को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

बन्द दरवाज़ों का शहर- रश्मि रविजा

अंतर्जाल पर जब हिंदी में लिखना और पढ़ना संभव हुआ तो सबसे पहले लिखने की सुविधा हमें ब्लॉग के ज़रिए मिली। ब्लॉग के प्लेटफार्म पर ही मेरी और मुझ जैसे कइयों की लेखन यात्रा शुरू हुई। ब्लॉग पर एक दूसरे के लेखन को पढ़ते, सराहते, कमियां निकालते और मठाधीषी करते हम लोग एक दूसरे के संपर्क में आए। बेशक एक दूसरे से हम लोग कभी ना मिले हों लेकिन अपने लेखन के ज़रिए हम लोग एक दूसरे से उसके नाम और काम(लेखन) से अवश्य परिचित थे। ऐसे में जब पता चला कि एक पुरानी ब्लॉगर साथी और आज के समय की एक सशक्त कहानीकार रश्मि रविजा जी का नया कहानी संग्रह "बन्द दरवाज़ों का शहर" आया है तो मैं खुद को उसे खरीदने से रोक नहीं सका। 

धाराप्रवाह शैली से लैस अपनी कहानियों के लिए रश्मि रविजा जी को विषय खोजने नहीं पड़ते। उनकी पारखी नज़र अपने आसपास के माहौल से ही चुन कर अपने लिए विषय एवं किरदार खुदबखुद छाँट लेती है। दरअसल... यतार्थ के धरातल पर टिकी कहानियों को पढ़ते वक्त लगता है कि कहीं ना कहीं हम खुद उन कहानियों से...किसी ना किसी रूप में खुद जुड़े हुए हैं। इस तरह के विषय हमें सहज...दिल के करीब एवं देखे भाले से लगते हैं। इसलिए हमें उनके साथ, अपना खुद का संबंध स्थापित करने में किसी किस्म की कोई परेशानी नहीं होती। आइए!...अब बात करते हैं उनके इस कहानी संग्रह की।

इस संकलन की एक कहानी में सपनों की बातें हैं कि हर जागता.. सोता इंसान सपने देखता है मगर सपने अगर सच हो जाएँ तो फिर उन्हें सपना कौन कहेगा? अपने सपनों के पूरा ना हो पाने की स्थिति में अक्सर हम अपने ही किसी नज़दीकी के ज़रिए अपने सपने के पूरे होने की आस लगा बैठते हैं। ऐसे में अगर हमारा अपना ही...हमारा सपना तोड़ चलता बने तो दिल पर क्या बीतती है? 

बचपन की शरारतें..झगड़े,  कब बड़े होने पर हौले हौले प्रेम में बदल जाते हैं...पता ही नहीं चलता। पता तब जा के चलता है जब बाज़ी हाथ से निकल चुकी या निकल रही होती है। ऐसे में बिछुड़ते वक्त एक कसक...एक मलाल तो रह ही जाता है मन में और ज़िंदगी भर हम उम्मीद का दामन थामे..अपने प्यार की बस एक झलक देखने की आस में बरसों जिए चले जाते हैं।

इस संकलन की एक अन्य कहानी में कॉलेज के समय से एक दूसरे के प्रेम में पड़े जोड़े के सामने जब जीवन में कैरियर बनाने की बात आती है तो अचानक ही पुरुष को अपने सपनों...अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के सामने स्त्री की इच्छाएँ...उसकी भावनाएँ गौण नज़र आने लगती हैं। ऐसे में क्या स्त्री का उस पुरुष के साथ बने रहना क्या सही होगा?
इसी संकलन की एक दूसरी कहानी में नशे की गर्त में डूबे युवा की मनोस्थिति का परत दर परत विश्लेषण है कि किस तरह  घर में किसी नयी संतान के जन्म के बाद पहले वाली संतान कुदरती तौर पर माँ- बाप की उपेक्षा का शिकार होने लगती है। ऐसे में उसे बहकते देर नहीं लगती और नौबत यहाँ तक पहुँच जाती है कि स्थिति , लाख संभाले नहीं संभालती। जब तक अभिभावक चेतते हैं बात बहुत आगे तक बढ़ चुकी होती है।

इसी संकलन की किसी कहानी में स्कूल की मामूली जान पहचान बरसों बाद कॉलेज की रीयूनियन पार्टी फिर से हुई मुलाकात पर प्यार में बदलने को बेताब हो उठती है। तो किसी कहानी में मैट्रो शहरों में खड़ी ऊँची ऊंची अट्टालिकाओं के बने कंक्रीट जंगल में सब इस कदर अपने कामों में व्यस्त हो जाते हैं कि किसी को किसी की सुध लेने की फुरसत ही नहीं होती। ऐसे में घरों में बचे खुचे लोग अपनी ज़िंदगी में स्थाई तौर पर बस चुकी बोरियत से इतने आज़िज़ आ जाते हैं कि सुकून के कुछ पलों को खोजने के लिए किसी ना किसी का साथ चाहने लगते हैं कि जिससे वे अपने मन की बात...अपने दिल की व्यथा कह सकें मगर हमारा समाज स्त्री-पुरुष की ऐसी दोस्ती को भली नज़र से भला कब देखता है?

इस संकलन की किसी कहानी में पढ़ाई पूरी करने के तीन साल बाद भी बेरोज़गारी की मार के चलते आस पड़ोस एवं नाते रिश्तेदारों के व्यंग्यबाणों को झेल रहे युवक की कशमकश उसका बनता काम बिगाड़ देती है। तो किसी कहानी में इश्क में धोखा खा चुकने के बाद, ब्याह में भी असफल हो चुकी युवती के दरवाजे पर फिर से दस्तक देता प्यार क्या उसके मन में फिर से उमंगे जवां कर पाता है? 

इसी संकलन की एक कहानी इस बात की तस्दीक करती है कि...हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। दरअसल हम इंसानों को जो हासिल होता है, उसकी हम कद्र नहीं करते और जो हासिल नहीं होता, उसे पाने...या फिर उस जैसा बनने के लिए तड़पते रहते हैं। 

नयी बहु बेशक घर की जितनी भी लाडली हो लेकिन उसके विधवा होते ही उसको ले कर सबके रंग ढंग बदल जाते हैं और उसका दर्जा मालकिन से सीधा नौकरानी का हो उठता है। ऐसे में शारीरिक तथा मानसिक यंत्रणा झेलती उस स्त्री के जीवन में राहत के क्षण तभी आते हैं जब उसके अपने बच्चे लायक निकल आते हैं।

अच्छी नीयत के साथ देखे गए सपने ही जब बदलते वक्त के साथ नाकामयाबी में बदलने लगे और अपनों द्वारा ही जब उनकी...उनकी सपने की कद्र ना की जाए तो कितना दुख होता है। ऐसे में प्रोत्साहन की एक हलकी सी फुहार भी मन मस्तिष्क को फिर से ऊर्जावान कर उठती है।

इस कहानी संकलन में कुल 12 कहानियाँ हैं।  रश्मि रविजा जी की भाषा शैली ऐसी है कि एक बार शुरू करने पर वह खुद कहानी को पढ़वा ले जाती है। आखिर की कुछ कहानियाँ थोड़ी भागती सी लगी। उन पर थोड़ा तसल्लीबख्श ढंग से काम होना चाहिए था। 

कुछ जगहों पर अंग्रेज़ी शब्दों को इस तरह लिखा देखा कि उसके मायने ही बदल रहे थे जैसे..एक जगह लिखा था 'फिलिंग वेल' जिसका शाब्दिक अर्थ होता है कुएँ को भरना लेकिन असल में लेखिका कहना चाहती है 'फीलिंग वैल'-feeling well). एक जगह अंग्रेज़ी शब्द 'आयम' दिखाई दिया जिसे दरअसल 'आय एम' या फिर 'आई एम' होना चाहिए था। खैर!...ये सब छोटी छोटी कमियां हैं जिन्हें आने वाले संस्करणों तथा नयी किताबों में आराम से दूर किया जा सकता है।

180 पृष्ठों के इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹225/- जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

पिशाच- संजीव पालीवाल

बचपन में बतौर पाठक मेरी पढ़ने की शुरुआत कब कॉमिक्स से होती हुई वेदप्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों तक जा पहुँची.. मुझे खुद ही नहीं पता चला। उन दिनों में एक ही सिटिंग में पूरा उपन्यास पढ़ कर खत्म कर दिया करता था। उसके बाद जो किताबों से नाता टूटा 
तो वो अब कुछ सालों पहले ही पूरी तारतम्यता के साथ पुनः तब जुड़ पाया जब मुझे किंडल या किसी अन्य ऑनलाइन प्लैटफॉर्म के ज़रिए फिर से वेदप्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक के दमदार थ्रिलर उपन्यास पढ़ने को मिले।

हालांकि मैं गद्य से संबंधित सभी तरह के साहित्य में रुचि रखता हूँ मगर थ्रिलर उपन्यासों में मेरी गहरी रुचि है कि उनमें पाठकों को पढ़ने के साथ साथ अपने दिमाग़ी घोड़े दौड़ाने का भी पूरा पूरा मौका मिलता है। किंडल पर पिछले कुछ समय से मैं हर महीने सुरेन्द्र मोहन पाठक के कम से कम 4 या 5 थ्रिलर उपन्यास तो पढ़ ही रहा हूँ।

दोस्तों..आज थ्रिलर उपन्यासों की बात इसलिए कि आज मैं थ्रिलर कैटेगरी के जिस रोचक उपन्यास की बात कर रहा हूँ उसे 'पिशाच' के नाम से लिखा है, अपने पिछले उपन्यास 'नैना' से प्रसिद्ध हो चुके लेखक, संजीव पालीवाल ने।

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस तेज़ रफ़्तार उपन्यास में मूलतः कहानी है एक उम्रदराज प्रसिद्ध कवि के किसी अनजान नवयुवती के द्वारा विभीत्स तरीके किए गए कत्ल और उसके बाद उपजी परिस्थितियों की। जिनमें उसी तरह के विभीत्स तरीके से एक के बाद एक कर के तीन और कत्ल होते हैं। जिनके शिकार राजनीति..प्रकाशन और टीवी चैनल के दिग्गज लोग हैं।

एक के बाद एक हुए इन कत्लों की तफ़्तीश के सिलसिले में कहीं पुलिस अपने पुलसिया रंग ढंग दिखाती नज़र आती है। तो कहीं किसी बड़े टीवी चैनल का सर्वेसर्वा अपनी साहूलियत के हिसाब से कभी इन्हें साम्प्रदायिक रंग देता नज़र आता है। कभी वही चैनल इनका संबंध किसी आतंकवादी घटना से जोड़ अपने चैनल की टी.आर.पी बढ़ाता नज़र आता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई अन्य टीवी चैनल टी.आर.पी की परवाह ना करते हुए पूरी संजीदगी से इन कत्लों की प्राप्त सूचनाओं के आधार पर रिपोर्टिंग करता नज़र आता है। 

साहित्यिक जगत की परतें उधेड़ते इस हर पल चौंकाने..रौंगटे खड़े कर देने वाले रोचक उपन्यास में और आगे बढ़ने से पहले एक ज़रूरी बात ये कि लेखक के इस उपन्यास के किरदार उनके पिछले उपन्यास 'नैना' से ही जस के तस लिए गए हैं और एक तरह से यह भी कह भी सकते हैं कि यह उपन्यास उनके पिछले उपन्यास का ही एक्सटैंडिड वर्ज़न है। 

अमूमन किसी भी संपूर्ण प्रतीत हो रही कहानी में अगर उसके भविष्य में और आगे बढ़ाए जाने की गुंजाइश होती है तो उसका कोई ना कोई सिरा अधूरा छोड़ दिया जाता है। जबकि लेखक ने अपने पिछले उपन्यास 'नैना' की खत्म हो चुकी कहानी और उसके किरदारों को इस उपन्यास में फिर से ज़िंदा करने का प्रयास किया है। 

ऐसे में पिछला उपन्यास पढ़ चुका पाठक तो कैसे ना कैसे कर के खुद को उस पुरानी कहानी से कनैक्ट कर लेता है मगर पहली बार लेखक के इस उपन्यास को पढ़ने वाले नए पाठकों का क्या? वो ये सोच के अजीब असमंजस में फँस..ठगा सा रह जाता है कि पुरानी कहानी को कैसे जाने? या तो इस उपन्यास को साइड में रख वह पिछले उपन्यास को पढ़ने का जुगाड़ करे या फिर असमंजस में फँस जैसे तैसे इस उपन्यास को थोड़े अनमने मन से ही सही मगर पढ़ कर पूरा करे। 

ऐसे में बेहतर यही रहता कि पुरानी कहानी का बीच बीच में हिंट देने के बजाय इस उपन्यास की शुरूआत में ही पिछले उपन्यास की कहानी का सारांश दे दिए जाने इस हो रही असुविधा से बचा जा सकता था।

प्रूफ़रीडिंग के स्तर पर भी इस बेहद दिलचस्प उपन्यास में कुछ कमियाँ नज़र आयीं जैसे कि..

पेज नंबर 59 के स्वामी गजानन के बारे में लिखी गयी एक फेसबुक पोस्ट में लिखा दिखाई दिया कि..

'ये लोग तो पिशाच होते हैं।'

इसके बाद इसी पेज..इसी पोस्ट के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'स्वामी गजानन पीडोफाइल है। बच्चियों का शिकारी है। हैवान है। पिशाच है पिशाच!'

इसी पोस्ट को पढ़ने के बाद पेज के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'अब पोस्ट में लिखे गए एक और शब्द पर समर का ध्यान गया। वह शब्द पोस्ट में दो बार आया था , 'पिशाच' '

यहाँ लेखक लिख रहे हैं कि उक्त फेसबुक पोस्ट में दो बार 'पिशाच' शब्द आया जबकि असलियत में यह शब्द 'पिशाच' दो बार नहीं बल्कि तीन बार आया है। 


इसी तरह पेज नंबर 15 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'समर का मन हुआ कि घुमा कर इस आदमी को एक थप्पड़ जड़ दे, पर उसने अपने आप को संयत रखा और पूछा, "ये क्या होता है वंचित, सर्वहारा, हाशिए का समाज और मुख्यधारा? ये कौन सी कविता है?"

इसके बाद पेज नम्बर 127 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'समर को उसकी बातों पर हँसी आ रही थी। हाशिए का समाज और सर्वहारा का मतलब ये आर्मी कैंटोनमेंट में पढ़ने और अँग्रेज़ी मीडियम या कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने वाली लड़की क्या जाने?  सही भी है इससे यह उम्मीद क्यों लगाई जाए।

यहाँ उल्लेखनीय बात ये है कि जो समर उपन्यास की शुरूआत में खुद वंचित, सर्वहारा, हाशिए का समाज या मुख्यधारा जैसे शब्दों से अनभिज्ञ था..उसी समर को इन्हीं शब्दों को ले कर किसी अन्य की अनभिज्ञता पर हँसी आ रही है जबकि वह खुद उस राह का मुसाफ़िर था जिसकी वह तथाकथित कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने वाली लड़की थी। 

पल पल रोचकता जगा..उत्सुकता बढ़ाने वाले इस 239 पृष्ठीय पैसा वसूल उपन्यास को छापा है
वेस्टलैंड पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड की Eka इकाई ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

उजली होती भोर- अंजू खरबंदा

साहित्य के क्षेत्र में अपने मन की बात को कहने के लिए लेखक अपनी सुविधानुसार गद्य या फिर पद्य शैली का चुनाव करते हैं। गद्य में भी अगर कम शब्दों में अपने मनोभावों को व्यक्त करने की आवश्यता..प्रतिबद्धता..बात अथवा विचार हो तो उसके लिए लघुकथा शैली का चुनाव किया जाता है।

लघुकथा एक तरह से तात्कालिक प्रतिक्रिया के चलते किसी क्षण विशेष में उपजे भाव, घटना अथवा विचार, जिसमें कि आपके मन मस्तिष्क को झंझोड़ने की काबिलियत हो..माद्दा हो, की नपे तुले शब्दों में की गई प्रभावी अभिव्यक्ति है। मोटे तौर पर अगर लघुकथा की बात करें तो लघुकथा से हमारा तात्पर्य एक ऐसी कहानी से है जिसमें सीमित मात्रा में चरित्र हों और जिसे आराम से मिनट..दो मिनट में ही पढ़ा जा सके।

दोस्तों..आज लघुकथा की बातें इसलिए कि आज मैं लेखिका अंजू खरबंदा के पहले लघुकथा संग्रह "उजली होती भोर" की बात करने जा रहा हूँ।
मानवीय संबंधों एवं संवेदनाओं के इर्दगिर्द रची गयी इन लघुकथाओं को पढ़ने के बाद आसानी से जाना जा सकता है कि अंजू खरबंदा अपने आसपास के माहौल एवं घटती घटनाओं पर ग़हरी एवं पारखी नज़र रखती हैं और उन्हीं में अपने किरदार चुनने एवं गढ़ने के मामले में सिद्धहस्त हैं। 

पुरानी रूढ़ियों को तोड़..नए रास्ते दिखाती इस संकलन की सकारात्मक लघुकथाओं में कहीं घर की बालकनी में मर्दाना कपड़े महज़ इसलिए टँगे दिखते हैं कि बुरी नज़र वालों के लिए घर में किसी मर्द के होने का अंदेशा और डर बना रहे। कहीं किसी लघुकथा में रोज़मर्रा के कामों की मशीनें आ जाने से बढ़ती बेरोज़गारी और अकेलेपन की बात दिखती है।

इसी संग्रह में कहीं किसी लघुकथा में पत्नी की कामयाबी से जलते पति की बात है तो किसी अन्य रचना में स्कूटी सीखने जैसी छोटी सी बात पर पत्नी को प्रोत्साहित करने के बजाय समूची महिला शक्ति को ही दोयम दर्ज़े का ठहराया जा रहा है। कहीं किसी रचना में सार्थक पहल करते हुए अपनी हाल ही में विधवा हुई बहु के पुनर्विवाह करवाने की बात होती दिखती है । तो कहीं किसी अन्य रचना में टीस दे चुके पुराने कटु अनुभव को भूल प्रफुल्लित मन से आगे बढ़ने की बात दिखती है। 

इसी संकलन की एक अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ पुरुष और स्त्री को बराबर का दर्ज़ा देने की बात है तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना, ब्याह के बाद बच्चों को अपने साथ बाँधने के बजाय उन्हें उनका स्पेस..उनका समय एन्जॉय करने देने की पैरवी करती नज़र आती है। कहीं किसी रचना में बेटों के साथ घर में बेटियों के हक की बात नज़र आती है। तो कहीं किसी रचना में सकारात्मक ढंग से कोई वृद्धा खुशी खुशी वृद्धाआश्रम और वहाँ के अपने जीवन की पैरवी करती नज़र आती है। 

यूँ तो इस संकलन की सभी लघुकथाएँ कोई ना कोई अहम मुद्दा या आवश्यक बात को उठाती नज़र आती हैं। फिर भी इस संकलन की कुछ लीक से हट कर लिखी गयी रचनाओं ने मुझे बेहद प्रभावित किया। उनके नाम इस प्रकार है...

*गुब्बारे वाला
*मुखिया
*डिश वॉशर
*उजली होती भोर
*अपना घर- एक अलग नज़रिया
*कठपुतलियाँ
*सौ का नोट
*ऑब्ज़र्वेशन
*अंतर्द्वंद्व 
*चौपदी
*कसैला स्वाद
*वक्त का तकाज़ा
*परिमल
*गुबरैला
*नयी परिपाटी
*लंच बॉक्स
*अवतार
*ये तेरा घर ये मेरा घर
*खिसियानी बिल्ली
*इनविटेशन
*कलमुंही
*झूठे झगड़े
*प्रेम पगे रिश्ते
*गोकाष्ठ
*सरप्राइज़ 
*अजब पहेली
*एक पंथ दो काज
*बदलती प्राथमिकताएँ

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस पूरे संकलन में कुछ लघुकथाएँ पूर्व निर्धारित तयशुदा..स्वाभाविक ढर्रे पर चलती हुई दिखाई दी तो सुखद आश्चर्य के रूप में कुछ अपने ट्रीटमेंट से चौंकाती हुई भी लगी। कहीं कहीं वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के दिखाई देने एवं जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना होना भी थोड़ा खला।

पेज नंबर 138 की कहानी 'असली उपहार' के पहले पैराग्राफ में ही लिखा दिखाई दिया कि..

'बाजार और दुकानें उपहारों से लगी पड़ी थी' 

यहाँ 'बाज़ार और दुकानें उपहारों से लदी पड़ी थी' होना चाहिए था। 

'स्वेटर' कहानी छोटी..तुतलाती बच्ची के हिसाब से थोड़ी अस्पष्ट और उम्र के लिहाज से बड़ी बात करती लगी। कुछ लघुकथाऐं पढ़ने के दौरान थोड़ी दबी दबी सी लगी कि उनमें खुल कर कहने से बचा जा रहा है। इसी तरह बाल मज़दूरी के उन्मूलन का आह्वान करती एक लघुकथा अपनी ही बात काटती दिखी जिसमें दस साल के छोटे बच्चे को ढाबे की बाल मज़दूरी से हटा पढ़ाई के साथ साथ गैराज में ट्रेनिंग लेने के लिए कहा जा रहा है। 

'अपना कमरा' नाम की लघुकथा अगर सांकेतिक शब्दों के बजाय स्पष्ट रूप से समाप्त होती तो बेहतर था। 'टिप' नाम की लघुकथा अगर सकारात्मक होने के बजाय नकारात्मक होती तो मेरे ख्याल से ज़्यादा प्रभाव छोड़ती।

यूँ तो आकर्षक डिज़ायन एवं बढ़िया कागज़ पर छपा यह संकलन मुझे उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस 146 पृष्ठीय उम्दा लघुकथा संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है 350/- रुपए। जो कि आम हिंदी पाठक की जेब के लिहाज़ से ज़्यादा ही नहीं बल्कि बहुत ज़्यादा है। किसी भी किताब की ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पकड़ बनाने के लिए यह बहुत ही आवश्यक है कि उसे बहुत ही जायज़ मूल्य पर आम पाठकों के लिए उपलब्ध करवाया जाए। उम्मीद है कि लेखिका एवं प्रकाशक इस ओर ध्यान देंगे। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

सिंगला मर्डर केस- सुरेन्द्र मोहन पाठक

हमारी पीढ़ी के लोगों के बारे में एक तरह से कहा जा सकता है कि.. हम लोग बॉलीवुडीय फिल्मों के साए तले पले बढ़े हैं। शुरुआती तौर पर दूरदर्शन पर रविवार शाम को आने वाली पुरानी हिंदी फिल्मों ने और सिंगल स्क्रीन पर लगने वाली ताज़ातरीन हिंदी फिल्मों ने हमें इस कदर अपना मुरीद बनाया हुआ था कि हर समय बस उन्हीं को सोचते..जीते और महसूस करते थे। उन फिल्मों में कभी रोमांटिक दृश्यों को देख हम भाव विभोर हो उठते थे तो कभी भावुक दृश्यों को देख भावविह्वल हो उठते थे। कभी कॉमेडी दृश्यों को देख पेट पकड़ हँसते हुए खिलखिला कर लोटपोट हो उठते थे। तो कभी फाइटिंग और मुठभेड़ के दृश्यों को देख खुदबखुद हमारे भी हाथ पाँव भी..बेशक़ हवा में ही सही मगर अनदेखे..अनजाने दुश्मन पर चलने लगते थे। कभी किसी थ्रिलर कहानी या मर्डर मिस्ट्री की उलझती कहानी को देख उसे सुलझाने के प्रयास में हमारे रौंगटे खड़े होने को आते थे। 

उपरोक्त तमाम तरह की खूबियों से लैस उस समय के लुगदी साहित्य कहे जाने वाले तथाकथित उपन्यास भी हमारे भीतर लगभग इसी तरह भावनाएँ एवं जादू जगाते थे। दोस्तों..आज मैं बात करने जा रहा हूँ थ्रिलर उपन्यासों के बेताज बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के 288 वें थ्रिलर उपन्यास 'सिंगला मर्डर केस' की जो कि उनकी 'सुनील' सीरीज़ का 121 वां उपन्यास है। नए पाठकों की जानकारी के लिए बात दूँ की सुनील, दोपहर को छपने वाले दैनिक अख़बार 'ब्लास्ट' का क्राइम रिपोर्टर है और मर्डर..क्राइम जैसी गुत्थियों को सुलझाना उसका रोज़मर्रा का काम है। 

अब चूंकि नाम से ही ज़ाहिर है कि यह उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री है तो आइए..हम लोग अब सीधे बात करते हैं इसकी कहानी की। तो कहानी कुछ यूँ है कि.. 

सुनील को शैलेश सिंगला नामक शख्स की बदौलत पता चलता है कि जिस स्टॉक ब्रोकर फर्म 'सिंगला एण्ड सिंगला' का वह पार्टनर है, उसी के, कैसेनोवा प्रवृत्ति के, दूसरे रईस पार्टनर हिमेश सिंगला का देर रात उसके (हिमेश सिंगला) घर में कत्ल हो गया है जोकि उसी का छोटा भाई भी था। एन माथे के बीचोंबीच गोली के लगे होने से यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि यह किसी एक्सपर्ट का काम है। बिना किसी क्लू के रेत के ढेर में सुई ढूँढने जैसे इस केस में शक की सुई बारी बारी घर की हाउस कीपिंग मेड से ले कर..उस दिन उसके साथ डेट पर गयी युवती, उसके प्रेमी, धमकी देने वाले दोस्त के साथ साथ कुछ अन्य लोगों की तरफ़ भी इस कदर घूमती है कि सभी पर उसके कातिल होने का शुब्हा होता है क्योंकि सभी के पास उसका कत्ल करने की अपनी अपनी वजहें मौजूद हैं।

क्या सुनील इस पल पल उलझती..सुलझती या सुलझने का भान देती गुत्थी को सुलझा पाता है अथवा हर पल बदलती घटनाओं और खुलते रहस्यों में और उलझ कर रह जाता है? यह सब जानने के लिए तो खैर..)#आपको धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस तेज़ रफ़्तार उपन्यास को पूरा पढ़ना होगा। अंत में बोनस के रूप में इस उपन्यास के साथ बतौर फिलर एक छोटी थ्रिलर कहानी पाठकों के लिए सोने पे सुहागा वाली बात करती है। 

2014 में आए इस 317 पृष्ठीय बेहद रोचक उपन्यास को छापा है राजा पॉकेट बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 100/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

माफ़ कीजिए श्रीमान- सुभाष चन्दर

व्यंग्य..साहित्य की एक ऐसी विधा है जिसमें आमतौर पर सरकार या समाज के उन ग़लत कृत्यों को इस प्रकार से इंगित किया जाता है की वह उस कृत्य के लिए ज़िम्मेदार व्यक्ति के मस्तिष्क से ले कर अंतर्मन में एक शूल की भांति चुभे मगर ऊपरी तौर पर वो मनमसोस कर रह जाए..उफ़्फ़ तक ना कर सके। 

दोस्तों..आज व्यंग्य से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं जिस व्यंग्य संकलन की बात करने जा रहा हूँ..उसे 'माफ़ कीजिए श्रीमान' के नाम से हमारे समय के सशक्त व्यंग्यकार सुभाष चन्दर जी ने लिखा है। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित सुभाष चन्दर जी की अब तक 47 से ज़्यादा व्यंग्य पुस्तकें आ चुकी हैं। इनके अलावा वे टीवी/रेडियो के लिए 100 से अधिक धारावाहिकों का लेखन कर वे इस क्षेत्र में भी ख़ासे सक्रिय हैं। 

आम तौर पर अखबारी कॉलमों में छपने वाले तथाकथित व्यंग्यों में जहाँ एक तरफ़ बात में से बात या फिर विषय से भटकते हुए बिना बात के कहीं और की बात खामख्वाह निकलती दिखाई देती है। वहीं सुभाष चन्दर जी की व्यंग्य रचनाएँ एक ही विषय से चिपक कर चलती हैं और उसे अंत तक सफ़लता से निभाती भी हैं। 

इसी संकलन की किसी व्यंग्य रचना में औरत के अपने पाँव की जूती समझने वाले दबंग व्यक्ति की दबंगई भी बुढ़ापे में उस वक्त चुकती नज़र आती है जब उसकी कम उम्र की चौथी बीवी उसकी ही आँखों के सामने अपनी मनमानी करती दिखाई देती है। तो वहीं किसी अन्य व्यंग्य में विचारधारा के मामले में बेपैंदे के लौटे बने उन व्यक्तियों पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है जो वक्त ज़रूरत के हिसाब से अपनी राजनैतिक विचारधारा को बदलते नज़र आते हैं।  

इसी संकलन का एक अन्य व्यंग्य में नकचढ़ी बीवी की ज़िद से त्रस्त सरकारी दफ़्तर का बड़ा अफ़सर अपने मातहतों को प्रमोशन का लालच दे..उनके ज़रिए दफ़्तर में लगे शीशम के सरकारी पेड़ को कटवाने की जुगत भिड़ाता नज़र आता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य व्यंग्य में कीचड़ और गन्दगी में ही अपना भविष्य खोजने वालों पर मज़ेदार ढंग से कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। 

इसी संकलन का एक अन्य झकझोरने वाला व्यंग्य हर धर्म में मौजूद अंधभक्तों पर गहरा तंज कसता नज़र आता है जिसमें हर धर्म को एक समान मानने वाला यासीन ना घर का और ना ही घाट का रह पाता है और अंततः दो धर्मों की नफ़रत की बीच पिस.. मार दिया जाता है। 

इसी संकलन के अन्य व्यंग्य में जहाँ लेखक युद्धग्रस्त देशों को हथियार बेचने वाले अमीर देशों की मंशा पर तंज कसते दिखाई देते हैं कि किस तरह हथियार बनाने वाले देश अन्य देशों को भड़का कर अपना भारी मुनाफ़े का उल्लू सीधा करते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य व्यंग्य में लेखक एक अमीर आदमी के द्वारा सड़कछाप..आवारा कुत्ते की तरफ़ फैंके गए माँस के टुकड़े का संबंध अमीर आदमी बनाम ग़रीब आदमी से जोड़ते नज़र आते हैं। 

इसी संकलन के किसी व्यंग्य में जहाँ एक तरफ़ लेखक कोरोना से ग्रस्त होने पर टोने टोटके और व्हाट्सएप ज्ञान को डॉक्टरी इलाज से ज़्यादा तरजीह देते और फिर उसका परिणाम भुगतते नज़र आते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य व्यंग्य में लेखक गुरु, चेले और मेंढक के माध्यम से साहित्यिक जगत में हो रही पुरस्कारों की बंदरबाँट  पर प्रकाश डालते नज़र आते हैं। 

इसी किताब में कहीं फेसबुक और व्हाट्सएप जैसी सोशल मीडिया की तथाकथित स्वयंभू यूनिवर्सिटियों द्वारा विपरीत धर्मों की आड़ ले आपस में नफ़रत की आग बढ़ाई जाती दिखाई देती है। तो वहीं किसी अन्य व्यंग्य के ज़रिए देश के विभिन्न त्योहारों को बाज़ार में बदलने वाले बिज़नस माइंडेड व्यापारियों की सोच और मंशा पर गहरा कटाक्ष होता दिखाई देता है।

इसी संकलन के अन्य व्यंग्य में 'बुरा ना मानो..होली है' की तर्ज़ पर हम लोगों की उस मनोवृत्ति पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है कि हम लोग हर अन्याय अपने दब्बूपन की वजह से चुपचाप सह लेते हैं और उसका बुरा तक नहीं मानते। एक अन्य व्यंग्य में सोशल मीडिया के ज़रिए तुरत फुरत में होने..पनपने वाले प्रेम संबंधों पर हल्का फुल्का कटाक्ष होता दिखाई देता है। 

इसी संकलन में संकलित कुछ कोरोना कथाओं में से रौंगटे खड़े करती एक रचना में शहर से परिवार समेत पैदल अपने घर..अपने गाँव जा रहा व्यक्ति एक ही समय पर दुखी और खुश है। दुखी इसलिए कि रास्ते की थकान और तकलीफ से घर जा रहा उसके परिवार का एक सदस्य गुज़र चुका है और खुश इसलिए कि अब बचा खाना कम लोगों में बँटेगा। 

कहीं किसी कोरोना कथा में कोई नेता अपने वोट बैंक के हिसाब से सगा-पराया देख मदद करता दिखाई देता है। तो कहीं पुलिस वालों को इस चीज़ की खुन्दक है कि कोरोना के दौरान आम आदमी अपने अपने घरों में आराम कर रहे हैं जबकि उनको बाहर सड़कों पर ड्यूटी बजानी पड़ रही है। 

इसी किताब में कहीं कविताओं के ज़रिए कोरोना का इलाज होता दिखाई देता है तो कहीं थोक के भाव पुरस्कार बँटते नज़र आते हैं। कहीं किसी रचना में कोई अशक्त बूढ़ा थानेदार से एक्सीडेंट के असली मुजरिम के बजाय उसे मुजरिम मान गिरफ्तार करने का सौदा कर रहा है। मगर क्या तमाम स्वीकारोक्ति के बाद अंततः उसके हाथ कुछ लगेगा भी या नहीं? 

कहीं किसी व्यंग्य में कोई इसलिए परेशान है कि वो अपनी किताब किसे समर्पित करे? तो कहीं किसी रचना में कोई कलयुगी बहु अपने सास ससुर के आपस में मिलने..हँसने.. बोलने..बतियाने तक पर इस हद तक रोक लगा कर रखती है कि उन्हें छुप- छुप कर घर से बाहर.. पार्क इत्यादि में मिलने को मजबूर होना पड़ता है। 

इस संकलन के किसी व्यंग्य में चुनावों की कढ़ाही में वोटों के पकौड़े तले जाते दिखाई देते हैं तो कहीं कोई आलोचना का तंबू तानता दिखाई देता है। कहीं नए ज़माने की लड़कियों की बातें होती दिखाई देती हैं। इसी संकलन के किसी व्यंग्य में कहीं सपने भी बिकते दिखाई देते हैं 

इस संकलन के कुछ व्यंग्य मुझे बेहद पसन्द आए। उनके नाम इस प्रकार हैं..

1. मर्द की नाक
2. मेम साहब की ड्रेसिंग टेबल
3. यासीन कमीना मर गया
4. अमीर आदमी और पट्टे वाला कुत्ता
5. करोना के साथ मेरे कुछ प्रयोग
6. हिंदू मुसलमान वार्ता उर्फ़ तेरी ऐसी की तैसी
7. कुछ करो ना कथाएं
8. सौदा ईमानदारी का
9. लड़की नए ज़माने की


133 पृष्ठीय इस व्यंग्य संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 195/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
 
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