यू पी 65- निखिल सचान

कई बार पढ़ते वक्त कुछ किताबें आपके हाथ ऐसी लग जाती हैं कि पहले दो चार पन्नों को पढ़ते ही आपके मुँह से बस..."वाह" निकलता है और आपको लेखक की लेखनी से इश्क हो जाता है। यकीनन कुछ ना कुछ अलग...कुछ ना कुछ दिलचस्प..कुछ ना कुछ अनोखा तो ज़रूर ही होता होगा उनके लेखन में जब कोई किताब दिलकश अंदाज़ में आपका सुख चैन...आपकी नींद उड़ा...आपको अपने साथ..अपनी ही रौ में बहा ले चलते हुए ..एक ही दिन में खुद को पूरा पढ़वा डाले। और उस पर सोने पे सुहागा ये कि हर दूसरा-तीसरा पेज कोई ना कोई ऐसे पंच लाइन खुद में समेटे हो कि औचक ही आप पढ़ना छोड़...हँसना शुरू कर दें।

दोस्तों!...आज मैं बात करने जा रहा हूँ "यूपी 65" नामक उपन्यास और उसके लेखक निखिल सचान की जो आए तो हिंदी साहित्य में एक बाहरी व्यक्ति के तौर पर ही लेकिन आते ही उन्होंने अपनी तथाकथित 'नई वाली हिंदी' के ज़रिए हज़ारों लोगों को हिंदी साहित्य से जोड़..उन्हें अपना मुरीद बनाते हुए अपने लेखन की धूम मचा दी।

किसी ने उन्हें हिंदी साहित्य के युवा तुर्क की उपाधि दी तो किसी ने अपकमिंग ऑथर ऑफ द ईयर के अवार्ड से भी उन्हें नवाजा। किसी ने उन्हें हिंदी साहित्य के सुनहरे दिनों को लौटा लाने का श्रेय दिया तो किसी ने उन्हें हिंदी साहित्य का नया सितारा कहा। किसी ने उनके द्वारा लिखी गयी तीनों किताबों का बेस्टसेलर की गिनती में शुमार किया। 

कॉलेज/होस्टल लाइफ पर आधारित कई फिल्में, कहानियाँ और उपन्यास पहले भी पढ़..देख एवं समझ चुकने के बावजूद भी इस उपन्यास की कहानी में एक ताज़गी...एक नयापन साफ़ दिखाई देता एवं महसूस होता है जो आपको, अपनी तरफ आकर्षित करता है। इस उपन्यास की कहानी कहीं आपको होस्टल एवं कॉलेज के शरारतों से भरे मस्त जीवन से रूबरू कराती है तो कहीं रुमानियत से भरे प्यार के एहसास से दो चार भी कराती हैं। 

कहीं इसमें दार्शनिक हो..जीवन दर्शन आप में समाने लगता है तो कहीं खिलंदड़ हो इसमें..आपका मन भी किरदारों संग हुड़दंग मचाने को मचल उठता है। ताज़ातरीन राजनैतिक हालातों के प्रति संजीदा...जागरूक विद्यार्थी इसमें नज़र आते हैं तो कहीं हर बात को बस धुएँ, बियर, शराब और नशे के ज़रिए तफ़रीह में उड़ाने को आतुर युवा भी दिखाई देते हैं। कहीं इसमें धीर गंभीर हो पढ़ाई की बातें हैं तो कहीं इसमें सामूहिक हड़ताल के ज़रिए परीक्षाएँ रद्द करवाने की जुगत भरी चालें हैं। 

कहीं महज़ मस्ती के लिए फ्लर्टिंग का बोलबाला है तो कहीं इसमें सुंदर लड़की को ले..खिलंदड़पने से भरी, लड़कों की आपस की ईर्ष्या..जलन एवं मारामारी है। कहीं इसमें प्यार में संजीदगी समेटे भावुकता अपने चरम पर है तो कहीं माहौल को हल्का करती किसी को पाने को लेकर होती हास्यास्पद हरकतें हैं। 

कहीं इसमें कबाड़ के ढेर पे बैठ कोई सबके ज्ञानचक्षु खोल..अपनी समझ बाँटता दिखाई देता है तो कहीं इसमें ठेठ बनारसी अंदाज़, लहज़े और ठसक में ज्ञान बघारते/पेलते युवा भी दृष्टिगोचर होतें हैं। कहीं कोई प्रोफ़ेसर नशे में भावुक हो..विद्यार्थियों के बिगड़ते भविष्य पर चिंता जताता है तो कहीं दमदार..मारक पंच लाइनें आपका स्वागत करने को बेताब नज़र आती हैं। 

कहीं इसमें बनारस के घाटों की खूबसूरती वर्णन है तो कहीं उन्हीं घाटों के आसपास बने उन होटलों का जिक्र है जो अपने यहाँ...खुद की क़ुदरती मौत का इंतज़ार करने वालों का स्वागत करते नज़र आते हैं। 

160 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को मिल कर छापा है 'हिन्दयुग्म' और 'वेस्टलैण्ड पब्लिकेशंस' ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र ₹150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। कम दामों पर बढ़िया कंटैंट पेश करने का फंडा अगर सभी प्रकाशकों की समझ में आ जाए तो हिंदी साहित्य के सुनहरे दिनों के आने में कोई देर..कोई कोताही नहीं। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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