“पागल हो गए हैं स्साले सब के सब….दिमाग घास चरने चला गया है पट्ठों का…इन्हें तो वोट दे के ही गलती कर ली मैंने…अच्छा भला झाडू वाला भाडू तरले कर रहा था दुनिया भर के लेकिन नहीं..मुझे तो अच्छे दिनों के कीड़े ने काट खाया था ना?..लो!..आ गए अच्छे दिन..अब ले लो वडेवें…इन स्साले अच्छे दिनों की तो मैं”मैं दांत किटकिटाता हुआ गुस्से से बडबडा रहा था
“क्या हो गया तनेजा जी…ऐसे..इतने गुस्से में किसकी ऐसी तैसी करने पे तुले हैं?”…
“ऐसी तैसी तो हम लोगों की हुई है जनाब..हमने भला किसी ऎसी तैसी करनी है?”मैं अपनी आवाज़ को शाँत करने का प्रयास करता हुआ बोला....
“हुआ क्या?”….
“जो स्साले वो पहले वाले गा रहे थे..वही सब तो ये भी गुनगुना रहे हैं…फर्क क्या है आखिर..इनमें और उनमें?…एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं स्साले सब के सब”मेरा भुनभुनाना जारी था….
“किसकी बात कर रहे हैं?”स्वर में उत्सुकता थी.…
“शर्म भी नहीं आती पट्ठों को…इनके बाप की कैंटीन में मिलता है 12 रूपए में खाना….स्साले कह रहे हैं कि रोजाना 47 रूपए कमाने वाला गरीब नहीं है”मेरा गुस्सा कम होने को नहीं आ रहा था…
“ओह!…(स्वर में चिंता थी)
“खुद गुज़ारा कर के दिखा दें ना इतने में..स्सालों के चरण धो धो के पिऊँगा पूरी ज़िन्दगी”चैलेन्ज सा करते हुए मेरा बडबडाना जारी था..
“अरे!..काहे को और किस पर इतना कुलबुला रहे हैं?…कुछ बताइये तो सही"शर्मा जी के चेहरे पर प्रश्नवाचक मुद्रा थी..
“अरे!…अपनी इसी निकम्मी सरकार पर…और भला किस पर?”…
“यू मीन…आपका मतलब अपनी मोदी सरकार पर?”आश्चर्यचकित होने के भाव शर्मा जी के चेहरे पर आ जा रहे थे..
“अरे!…काहे की अपनी?…अगर अपनी होती तो भला ऐसा बयान देती कभी?….
“कैसा बयान?”…
“यही कि 47 रूपए एक दिन में कमाने वाला…
“गरीब नहीं है?”…
“हम्म!…
“तो?…आखिर!..गलत क्या है इसमें?…सही ही तो कह रहे हैं बेचारे…
“हुंह!…बेचारे…..अरे!..काहे के बेचारे…अगर सच में सही है तो खुद कर के दिखा दें ना इत्ते में गुज़ारा…किसी ढंग की जगह पे जा के चूतड़ टिकाएंगे तो पता चलेगा कि इतने में तो एक प्लेट मटर कुलचा भी…(मेरा शांत होता गुस्सा फिर बढ़ने को आया)
“अरे!…तनेजा जी…मानिए मेरी बात…अगर ढंग से चला जाए तो….
“47 रूपए में पूरे दिन का गुज़ारा किया जा सकता है?”…
“बिलकुल किया जा सकता है बल्कि मैं तो कहूँगा इससे भी कहीं कम में किया जा सकता है?(शर्मा जी के मुस्कुराते चेहरे पर समझाने वाली मुद्रा हँस खेल रही थी)…
“यू मीन..बन्दा एक टाईम खाए और बाकी के दो टाईम फाका रखे?” उपहास उड़ाते मेरे स्वर में शंका थी…
“हा…हा…हा…..वैसे…मेरा ये मतलब नहीं था लेकिन हाँ!…आईडिया बुरा नहीं है…इससे डायटिंग की डायटिंग हो जाएगी और बचत की बचत भी"…
“फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन डायटिंग की ज़रूरत अघाए पेटों को पड़ती है ना कि भूख के मारे कमर से पिचके पेटों को”मैं उनका माखौल सा उड़ाता हुआ बोला..
“ओह!…
“अब इसी प्याज का रोना ही ले लो…काटो तो भी स्साला रुलाता है और ना काटो तो भी रुलाता है”मेरा स्वर रुआंसा हो चला था….
“हम्म!…
“बड़े कहते थे..अच्छे दिन आएँगे…अच्छे दिन आएँगे…लो!..आ गए अच्छे दिन..अब ले लो वडेवें”…
“लेकिन क्या डॉक्टर ने कहा है कि प्याज के साथ ही खाना खाओ?…अपना..बिना प्याज के भी तो..
“अब जब बन्दर को ही नहीं पता अदरक का स्वाद कैसा होता है तो भला तुम्हें कैसे पता होगा कि प्याज के साथ पके और बिना प्याज के साथ पके खाने में क्या फर्क होता है?”मैं शर्मा जी की तरफ हिकारत भरी नज़र से देखता हुआ बोला….
“महज़ एक प्याज के महँगे हो जाने से कोस रहे हैं आप अपने मोदी जी को?”शर्मा जी मेरे कंधे पे हाथ रख…मुझे समझाने का प्रयास करने लगे..
“अरे!…काहे के अपने?…सपने दिखा के लूट लिया इन्होने तो हमें"मैं भला कहाँ हार मानने वाला था…
“अच्छा अगर मोदी जी के बजाए फिर से मनमोहन जी या फिर राहुल जी प्रधानमंत्री बन जाते तो….
“लाहौल विला अल कुव्वत…शुभ शुभ बोलो शर्मा जी…शुभ शुभ बोलो”शर्मा जी की बात काटते हुए मेरे स्वर में बौखलाहट थी...
“अच्छा!..चलो..अगर साईकिल वाले मुलायम या फिर हाथी वाली बहन जी?”शर्मा जी का हँसना जारी था…
“क्या बात कर रहे हैं शर्मा जी आप भी..इन जैसे चपड़गंजुओं के बस का भला कहाँ लडखडाते हुए देश को सही ढंग से चलाना?…अपनी ऊ.पी का हाल तो देख ही रहे हैं ना आप..कभी जीते जी अपनी मूर्तियाँ लगवा कर तो कभी सरेआम नवयुवतियों को पेड़ पे लटका कर”मेरे चेहरे पे घिन्न..नफ़रत..हिकारत के भाव एक एक कर के आ जा रहे थे…
“वोही तो…मगर महज़ एक प्याज के चक्कर में आप तो..
“बात सिर्फ प्याज की नहीं है शर्मा जी…बात है वादों की…बात है उसूलों की”मैं शर्मा जी बात बीच में ही काटता हुआ बोला….
“उसूल या वादे इसमें क्या करेंगे?….जानबूझ कर तो बारिश नहीं रुकवाई है मोदी जी ने और अगर बारिश ही नहीं होगी तो फसलें क्या ख़ाक होंगी?..महंगाई ने तो अपने आप ही बढ़ना है..
“और जनता ने ऐसे ही बैठे बैठे सड़ना है"…
“वोही तो..जनता सोचती है कि वो खुद आराम से बैठी बैठी..आराम करती फिरे और उनके लिए सारे काम मोदी जी करें"(शर्मा जी भी भला कहाँ हार मानने वाले थे?)…
“कौन सा काम किया है मोदी जी ने हमारे लिए?..जरा बताओ तो कि उसको करने से हमारा फ़ायदा हुआ हो"
“आप शेयरों में डील करते हैं?”…
“कुछ ख़ास नहीं…ऐसे ही एक दो बार ट्राई किया लेकिन कभी काफिया नहीं मिला तो कभी…
“अरे!..मैं उस शेरो शायरी की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि मैं तो शेयर बाज़ार वाले शेयरों की बात कर रहा हूँ"…
“ओह!…अच्छा लेकिन किसलिए पूछ रहे हैं आप?”…
“पहले आप बताइए तो सही..आप शेयरों में डील करते हैं या नहीं?”…
“करता तो था लेकिन अब नहीं?”…
“अब क्यों नहीं?”…
“मंदा ही इतना है कि जिस शेयर में हाथ डालो..उसी में नुकसान होता दिख रहा था..सो..पैसे लगाने बंद कर दिए”…
“ओह!..
“अभी दो महीने पहले..कुल जमा निवेश पर कम से कम पचास हज़ार का घाटा था लेकिन अब..
“अब क्या पोजेशन है?”शर्मा जी के चेहरे पर मुस्कराहट थी..
“ये तो भला हो सैंसैक्स का कि अचानक..एक ही झटके में उछाल आया और सारे घाटे एक ही हफ्ते में पूरे हो गए और अब..अब तो घाटे से उलट पूरे सत्तर हज़ार का फ़ायदा नज़र आ रहा है उसी पुरानी इन्वेस्टमेंट में”मेरी आवाज़ से ख़ुशी छलछला रही थी..
“इसका मतलब फ़ायदा हो रहा है?”…
“हाँ!..फ़ायदा तो हो रहा है"…
“ये किसका चमत्कार है?”शर्मा जी के चेहरे की मुस्कराहट और गहरी हो चली थी.…
“किसका चमत्कार है?”मैं अनजान बनता हुआ बोला…
“अपने मोदी जी का और किसका?"…
“वो कैसे"मैं हार मानने को तैयार नहीं था..
“वो ऐसे कि उनके आने से पहले ही देश में अच्छे दिनों के आने का माहौल सा तैयार होने लगा…
“अच्छा?”मेरे स्वर में व्यंग्य था…
“बीच में मत टोको”…
“ओ.के"..
“हाँ!…तो मैं कह रहा था…मोदी जी के आने से पहले ही जैसा माहौल तैयार हो रहा था…उसकी वजह से बाज़ार में दिन पर दिन उछाल आने लगा”…
“तुम्हें तो हर फायदे की चीज़ में मोदी की दिखाई ना देने वाली बोदी ही नज़र आती है और हर घाटे की चीज़ में कांग्रेस या फिर समूचे विपक्ष की कारगुजारियां"मुझसे चुप ना रहा गया…
“तो?…इसमें गलत क्या है?..कलयुगी इतिहास के पिछले सारे पन्ने पलट के देख लो…
“पिछले क्यों?…अगले क्यों नहीं?”मैंने हँसते हुए बीच में टोक दिया…
“अगले पन्ने तो अभी स्वर्णिम अक्षरों में मोदी जी ने लिखने हैं”शर्मा जी कौन से कम थे….
“बाद की तो बाद मे.. देख सुन कर ढंग से देखी भाली जाएगी…आप बताओ…आप क्या कह रहे थे?”…
“यही कि कलयुगी इतिहास के पिछले सारे पन्ने पलट के देख लो…हर जायज़-नाजायज़ पंगा कांग्रेस का या फिर उसके तथाकथित सेक्युलर मित्रों(मातहतों) का खड़ा किया हुआ है…चाहे वो कश्मीर समस्या हो…पंजाब या आसाम का उछलता..उफनता आतंकवाद हो या फिर बंगाल..केरल या किसी भी अन्य अशांत प्रदेश का दिन प्रतिदिन..अपना फन फैलाता हुआ नक्सलवाद हो”…
“हम्म…लेकिन ये प्याज तो…
“प्याज को मारिए गोली तनेजा जी और आप मेरी बात..
“क्यों ना तुम्हें ही गोली मार दूँ?…सारा टंटा अपने आप ख़त्म हो जाएगा”(शर्मा जी की जोश से परिपूर्ण बात को बीच में ही काट..मैं तैश में आता हुआ बोला)……
“आप तो खामख्वाह नाराज़ हो रहे हैं तनेजा जी…
“खामख्वाह नाराज़ हो रहा हूँ?…ऐसा तुमने बोल कैसे दिया कि…बिना प्याज के…तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हो गयी कि हम प्याज के शौकीनों को…
“म्म…मेरा मतलब तो…
“अच्छा..प्याज को छोड़ो..ये बताओ पैट्रोल क्यों महँगा कर दिया?…अब ये मत कहने लग जाना कि इसमें हमारे मोदी जी क्या कर सकते हैं?….पैट्रोल डीज़ल वगैरा की कीमतें तो ईराक में उत्पन्न अंतर्राष्ट्रीय संकट और बाज़ार में कच्चे तेल की चढ़ती उतरती कीमतों की वजह से…
“जब सारा कुछ आप खुदै जानते हैं तो हमसे काहे पूछत हैं?”…
“इसलिए कि देखूँ तो सही अपने मोदी जी के बचाव में इस बार तुम कौन सा नया बहाना गढ़ते हो?”…
“इसमें बहाना गढ़ने जैसी क्या बात है?…जो बात सही है..वो सही है"…
“बस!…बाकी सबका खट्टा और आपके मोदी जी का..मीठा दही है"…
“एग्जैकटली”..
“टट्टू"…
“अच्छा!..चलो छोड़ो…ये बताओ…ये 47 रूपए वाली सच में सही है या फिर…..
“बिलकुल सही है…..100% सही है"…
“मैं तुम्हें शिकारपुर से आया हुआ लगता हूँ?”…
“मैंने ऐसा कब कहा?…मैंने तो बस यही कहा कि…”…
“कहा तो नहीं लेकिन मतलब तो तुम्हारा यही था”…
“वो कैसे"…
“वो ऐसे कि तुम्हारे हिसाब से अगर सोचा जाए तो कोई भी बन्दा बड़े आराम से 47 रूपए में पूरा दिन गुज़ारा कर सकता है?"…
“जी!..हाँ…बिलकुल कर सकता है"…
“वाह!..बहुत बढ़िया"….
“में कुछ समझा नहीं"…
“अच्छा!..ये लो…पूरे 50 रूपए का नोट और वो सड़क पार ‘ज्ञानी नान वाला’ है ना..उससे ज़रा एक प्लेट नान तो पैक करवा के लाओ”..
“मक्खन वाले या बिना मक्खन वाले?”…
“तुम बिना मक्खन वाले ही ले आओ"…
“पेपर प्लेट..नैपकिन वगैरा भी साथ में ले के आऊँ?”..
“हाँ!..लेते आना..अब कौन खामख्वाह बर्तन वगैरा मांजने के चक्कर में पड़ेगा?…तुम्हारी भाभी तो वैसे भी साल में छह महीने अपने मायके में टिकी रहती है"..
“जी!…
“और हाँ..उसको बोलना..चटनी और सलाद अलग से थोड़ा ज्यादा पैक कर देगा”…
“ओ.के"…
“अब खड़े खड़े मेरा मुँह क्या देख रहे हैं?…जाते क्यों नहीं?”…
“जा रहा हूँ लेकिन 50 रूपए से क्या होगा?…और पैसे तो दो"…
“वो किसलिए?”…
“उसके यहाँ नान की प्लेट 90 रूपए की है"…
“लेकिन अभी तो तुम कह रहे थे कि 47 रूपए में आराम से…
“लेकिन मैंने ये कब कहा था कि ‘ज्ञानी’ के नान…
“अच्छा!..चलो…एक काम करो…वो नुक्कड़ वाले ढाबे से ही एक दाल मक्खनी और तीन तंदूरी रोटी ले आओ…बहुत भूख लगी है"मैं तोंद पे हाथ फेरता हुआ व्यग्रता से बोला…
“सादी रोटी या फिर मक्खन मार के?"….
“पेट वैसे ही बाहर निकले जा रहा है…तुम सादी ही ले आओ"…
“लेकिन उसके लिए भी तो कम से कम 120 रूपए लगेंगे?”शर्मा जी के स्वर में असमंजस था…
“तो क्या मटर कुलचे खिला के मेरे पेट में मरोड़ उठवाओगे?”मैं हँसते हुए बोला..
“अब मुझे क्या पता?…मुझे तो जो कहोगे..वही ले आऊँगा”…
“एक काम करो…तुम अपनी मर्जी से..जो भी तुम्हें अच्छा और रुचिकर लगे…ले आओ लेकिन ध्यान रहे…47 रूपए से ज्यादा..बिलकुल नहीं खर्चने हैं और इसी में तीनों टाईम का गुज़ारा भी करना है”…
“लो!..धरो अपना पचास का नोट अपने पास..मेरे पास इतना फालतू वक्त नहीं है कि मैं तुम्हारी बकवास सुनता फिरूँ"शर्मा जी उखड़ कर चलने को हुए…
“अरे!…नाराज़ क्यों होते हैं…अभी आप ही तो कह रहे थे कि 47 रूपए कमाने वाला(मैं उन्हें शांत करता हुआ बोला)…
“लेकिन ऐसा मैंने तुम जैसे चटोरों के लिए तो बिलकुल नहीं कहा था"…
“तो फिर किनके लिए कहा था?”…
“मैंने कहा था उस मेहनतकश तबके के लिए जो मेहनत कर के खाना कमाना जानता है"…
“तो आपका मतलब..मैं नाकारा हूँ?….मेहनत नहीं करता हूँ?…मेरी ये दिल को छू लेने वाली..हँसा हँसा कर लोटपोट कर देने वाली…गहरी व्यंग्यात्मक समझ लिए कहानियां क्या ऐसे ही…पलक झपकते ही…अपने आप पैदा हो जाती हैं या फिर आसमान से टपक पड़ती हैं?”…मेरा रोष जायज़ था…
“आप मेरी बात को गलत दिशा में मोड़ रहे हैं जनाब…मैंने आपके लिए ऐसा बिलकुल नहीं कहा था"…
“तो फिर किसके लिए कहा था?”….
“मैंने तो ऐसा उन लोगों के लिए कहा था जो समाज के अत्यंत गरीब तबके से सम्बन्ध रखते हैं”….
“सम्बन्ध तो मेरे भी बहुत बार गरीब तबके से रहे हैं….मेरी कुल जमा 25 माशूकाओं में से तीन माशूकाएँ तो घरों में काम करने वाली कामवालियां थी और चार…चार तो इतनी गरीब थी…इतनी गरीब थी कि उनके पास तन ढकने के लिए भी कभी पर्याप्त एवं प्रचुर मात्रा में पूरे कपडे नहीं हुए..हमेशा पेट दिखाऊ टीशर्ट और जांघे उधेड़ती मिनी स्कर्ट ही नज़र आई मुझे उनके नंगधडंग सुडौल तन बदन पे”…
“कमाल करते हैं तनेजा जी आप भी…इतनी सीरियस बातचीत में भी आपको हास्य सूझ रहा है?”…
“इसे हास्य नहीं..व्यंग्य कहते हैं मेरी जान"मैं शरारतपूर्ण ढंग से शर्मा जी के गोरे गाल पे चिकोटी काटता हुआ बोला..
“लेकिन क्यों?”शर्मा जी असमंजस में अपने लाल हो चुके गाल को आहिस्ता से सहलाते हुए बोले…
“क्यों?..क्या?…यही तो मेरा काम है"…
“चिकोटी काटना?”…
“नहीं…व्यंग्य लिखना"…
“लेकिन मेरे हिस्से के डायलाग तो कम से कम मुझे लिखने..ऊप्स..सॉरी..कहने दें"…
“बको"…
“हाँ!…तो मैं बक रहा था..ऊप्स!…सॉरी..कह रहा था…
“क्या?”…
“यही कि…
“47 रूपए में बड़े आराम से तीनों टाईम का खाना खा…गुज़ारा किया जा सकता है?”…
“एग्जैकटली”…
“टट्टू”…
“टट्टू…नहीं..सही में"…
“कैसे?”…
“वो ऐसे कि अपना सिंपल दाल रोटी खाओ और प्रभु के गुण गाओ"…
“दालों के रेट पता हैं?”…
“बिलकुल पता हैं"…
“ख़ाक पता हैं?…एक दाल मक्खनी के प्लेट ही…
“उफ्फ!…तौबा….तुम्हारी ये दाल मक्खनी की प्लेट तो एक दिन मेरी जान ले के रहेगी"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“नौ दिन में चले बस …अढाई कोस”..
“क्या मतलब?”..
“यही कि यहाँ लिख लिख के मैंने इतने कागज़ काले कर दिए लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात"…
“ज़रा खुल के समझाओ"…
“खुल के या फिर खोल के?”..
“खोल के…
“ओ.के"शर्मा जी खुश हो…अपनी शर्ट के बटन खोलने लगे…
“य्य्य…ये अपनी कमीज़ क्यों खोल रहे हैं"….
“खुद तुमने ही तो कहा कि खोल के..
“मैंने कमीज़ खोलने के लिए थोड़े ही कहा था"…
“तो फिर किसलिए कहा था?”…
“खोल कर समझाने के लिए कहा था"…
“तो?…मैं भी तो खोल ही रहा हूँ"…
“आप तो अपनी कमीज़ के बटन खोल रहे हैं"…
“तो?”…
“कमीज़ नहीं…आप अपनी बात खोल कर समझाएँ"…
“ओह!…लेकिन कमीज़ तो मैं गर्मी की वजह से खोल रहा था…उफ्फ!…कितनी गरमी है इस जुलाई के महीने में भी?”शर्मा जी माथे पे चुह आए पसीने को रुमाल से साफ़ करते हुए बोले....
“हाँ!..गरमी तो बहुत है"..
“और यही गरमी तुम्हारे सर पर भी चढ़ गयी है"…
“वो कैसे?”…
“तभी तो तुम इतने बढ़िया आदमी के खिलाफ..इतनी देर से अंट संट बके चले जा रहे हो"…
“शर्मा जी!..आप मुझे फिर से गुस्सा दिला रहे हैं"मेरे स्वर में तैश उत्पन्न होने को आया…
“ओह!…सॉरी…
“चलिए!..छोड़िए..आप अपनी बात समझाइए”…
“खुल के या फिर खोल के"शर्मा जी हँसते हुए बोले…
“जैसे भी आपका मन करे लेकिन बात समझ में आनी चाहिए"…
“ओ.के…तो फिर पहली बात ये कि अगर 47 रूपए में तीनों टाईम खाने की बात करनी है तो बात करने वाले को सपने नहीं देखने चाहिए"…
“कैसे सपने?…किस तरह के सपने”मेरे स्वर में उत्सुकता थी...
“यही.. ‘ज्ञानी के चूर चूर नान’ या फिर ‘डीलक्स थाली टाईप’ के"…
“ओह!..
“सिर्फ इनके ही नहीं बल्कि इन्हीं के जैसा..किसी भी किस्म का कोई भी सपना नहीं देखना है"…
“यू मीन आउट साईड भोजन..नॉट अलाउड?”…
“एग्जैकटली!..उसके बारे में तो सोचना भी हराम है"…
“ओह!…
“सिर्फ घर में अपने हाथ से बना…सादा खाना खाना है”…
“लेकिन आटे की एक 10 किलो की थैली ही…
“थैली का तो नाम भी ना लो…अपना गेहूँ लो और खुद…
“लेकिन बाज़ार में गेहूँ के भाव भी कौन सा कम हैं?”…
“बाज़ार से खरीदने की ज़रुरत ही क्या है?…सरकार खुद ही 2 से 3 रूपए किलो के बीच गेहूँ दे रही है हर गरीब परिवार को…उसी को लो और…
“खुद ही पीस लो?”…
“नहीं!..यहाँ तुम चक्की की शरण में जा सकते हो"…
“लेकिन चक्की वाले भी तो 5 रूपए किलो से कम में गेहूँ पीस के नहीं देते हैं”..
“तो?”…
“जिन्ने दी बुड्ढी नय्यी…ओने दी ओहदी सिर मुनाई"….
“मतलब?..बाज़ार भाव से तो फिर भी बहुत सस्ता पड़ेगा गेहूँ"…
“हम्म!…ये बात तो है"…
“वोही तो"….
“उसके बाद?”…
“किसके बाद?”…
“आटा पिसवाने के बाद?”…
“अपना ईंटों का चूल्हा धरो और गरमागरम रोटियां सेंक लो”…
“बिना सब्ज़ी के खाली रोटियाँ क्या कद्दू चबाई जाएँगी?”…
“खाली क्यों?…सब्जी है तो सही"…
“कहाँ पर है?”…
“अभी तुमने खुद ही कद्दू का नाम लिया"…
“मैं?…और कद्दू के साथ रोटी खाऊँगा?…आक्क..(शर्मा जी की बात सुन मुझे उबकाई सी होने को आई)…
“क्या हुआ?”…
“मेरे बस का नहीं है ये कद्दू शद्दू खाना"…
“तो मत खाओ..कोई ज़बरदस्ती थोड़ी है"…
“लेकिन अभी तो आपने कहा कि कद्दू के साथ….
“ओह!..अच्छा…कद्दू का उदाहरण तो मैंने इसलिए दिया कि वो सस्ता होता है…तुम ऐसी कोई भी सब्जी या दाल बना कर खा सकते हो जो बाज़ार में अधिक मात्रा में उपलब्ध होने के कारण सस्ती मिल रही हो"…
“यू मीन जो चीज़ डिमांड में नहीं हो…वही खाई और खिलाई जाए?”…
“मेहमानों को?”…
“जी!..
“वाह!..बहुत बढ़िया…47 रूपए में आप मेहमानों को भी खिलाने की सोच रहे हैं?”…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“बड़ी ही अजीब किस्म के अहमक हो मियाँ…एक तरफ कह रहे हो कि 47 रूपए में कोई तीनों वक्त का खाना नहीं खा सकता और अब इतनी ही कमाई में मेहमानों को भी जीमाने की सोच रहे हो?”…
“ओह!…इसका मतलब अगर इनसान चाहे तो कम पैसों में भी बड़े आराम से अपना पेट भर सकता है”…
“बिलकुल…एक ख़ास बात और..बहुत कम चाँस ऐसे नज़र आते हैं कि हर कोई अपना खाना अलग से पकाता हो"…
“मैं कुछ समझा नहीं”…
“मेरे कहने का मतलब है कि अगर घर में सभी कमाने वाले हों तो यही छोटी सी रकम भी जुड़ कर एक अच्छी रकम बन जाती है जिससे आराम से पेट भरने लायक गुज़ारा किया जा सकता है"…
“हम्म!…मगर तुम्हारे इस फार्मूले में एक दिक्कत है"…
“क्या?”…
“इसमें फ़ैल सूफियों के लिए ज़रा सी भी गुंजाईश नहीं है"…
“हाँ!…ये बात तो है"….
“वोही तो….
“अच्छा!..चलो..एक बाद बताओ”…
“क्या?”…
“एक आम बेलदार को दिहाड़ी कितनी मिलती होगी?”…
“दिल्ली में?”…
“हम्म!…
“कम से कम 300 –350 रूपए..इससे कम में तो पट्ठे हिलने तक को राजी नहीं होते"…
“हम्म!…फिर तो बड़े आराम से…
“लेकिन रोज़ भला कहाँ सबको काम मिलता है?…बहुत से तो ऐसे ही लेबर चौकों पे महज़ खैनी-गुटखा चबा…खी..खी कर खिसियानी हँसी हँसते या फिर ताश पीटते हुए पूरा दिन गुज़ार देते हैं"…
“दरअसल…ये वो लोग होते हैं जो काम करना ही नहीं चाहते वर्ना ज़्यादा लालच के चक्कर में ना पड़ें अगर तो दिल्ली जैसे शहर में काम की कोई कमी नहीं है"….
“चलो!…मानी तुम्हारी बात कि दिल्ली जैसे शहर में काम की कोई कमी नहीं लेकिन गाँव…कस्बे या देहात का क्या?..वहाँ इनके नखरे कौन और क्योंकर सहेगा?”…
“जिसकी काम करने की नीयत हो ना…उसके लिए काम की कहीं भी कोई कमी नहीं…ये ‘नरेगा’ काम की गारैंटी नहीं तो और क्या है?"…
“क्या है?”…
“साल में कम से कम 100 दिन काम देने की गारैंटी"…
“लेकिन ये योजना तो कांग्रेस ने बनाई थी…
“तो?”…
“आप उसी की याने के एक तरह से कांग्रेस की ही तारीफ़ कर रहे हैं"…
“तो?”…
“लेकिन आप तो पक्के भाजपायी हैं"…
“ये तुमसे किसने कहा?”…
“आप खुद ही तो मोदी…मोदी कर रहे हैं इतनी देर से…
“तो?”…
“और अब कांग्रेस के गुण गा रहे हैं"…
“अरे!…भाई…मैं तो हर उस आदमी के साथ हूँ जो आम आदमी के साथ है"…
“ओह!..अच्छा…
“अच्छा…शर्मा जी…अचानक एक अर्जेंट काम याद आ गया है…मुझे निकलना होगा"…
“लेकिन कहाँ?”…
“एक सीरियल लिखने का ऑफर मिला है"…
“अरे!..वाह..बहुत बढ़िया…अब तो मैं मिठाई खा के ही जाऊँगा"…
“जी!..ज़रूर लेकिन….
“लेकिन?”…
“लेकिन मैंने तो उन्हें इनकार कर दिया था"…
“लिखने से?”…
“जी!…
“लेकिन क्यों?”…
“पैसे बहुत कम दे रहे थे"…
“ओह!..तो अब वहाँ जा के क्या करेंगे?”….
“उन्हीं के कहे दामों पर लिखने की सोच रहा हूँ"…
“अचानक इरादा कैसे बदल लिया?”…
“बच्चे भी तो पालने हैं शर्मा जी….फैलसूफियाँ नहीं तो ना सही"…
(कथा समाप्त)
फैलसूफियाँ- ऐश करना
***राजीव तनेजा***
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