दरकते दायरे - विनीता अस्थाना

कहा जाता है कि हम सभी के जीवन में कुछ न कुछ ऐसा अवश्य अवश्य होता है जिसे हम अपनी झिझक..हिचक..घबराहट या संकोच की वजह से औरों से सांझा नहीं कर पाते कि.. लोग हमारा सच जान कर हमारे बारे में क्या कहेंगे या सोचेंगे? सच को स्वीकार ना कर पाने की इस कशमकश और जद्दोजहद के बीच कई बार हम ज़िन्दगी के संकुचित दायरों में सिमट ऐसे समझौते कर बैठते हैं जिनका हमें जीवन भर मलाल रहता है कि..काश हमने हिम्मत से काम ले सच को स्वीकार कर लिया होता।

 दोस्तों..आज मैं भीतरी कशमकश और आत्ममंथन के मोहपाश से बँधे कुछ दायरों के बनने और उनके दरकने की बातें इसलिए कर रहा हूँ कि आज मैं 'दरकते दायरे' नाम से रचे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे लिखा है विनीता अस्थाना ने। 

दूरदर्शन से ओटीटी की तरफ़ बढ़ते समय के बीच इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है कानपुर और लखनऊ के मोहल्लों में बसने वाले मध्यमवर्गीय परिवारों की। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें बातें हैं दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों की आपाधापी भरी दौड़ की।

फ्लैशबैक और वर्तमान के बीच बार-बार विचरते इस उपन्यास में कहीं कोई चाहते हुए भी अपने प्रेम का इज़हार नहीं कर पाता तो कहीं कोई इसी बात से कन्फ्यूज़ है कि आखिर..वो चाहता किसे है? कहीं कोई अपनी लैंगिकता को ही स्वीकार करने से बचता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं कोई बड़े बैनर के लिए लिखी कहानी के कंप्यूटर के क्रैश होने को वजह से नष्ट हो जाने की वजह से परेशान नज़र आता है। तो कहीं स्थानीयता के नाम पर फिल्मों में दो-चार जगह देसी शब्दों को घुसा के देसी टच दिए जाने की बात पर कटाक्ष होता दिखाई देता है।  कहीं देसी टच के नाम पर फिल्मों में लोकल गालियों की भरमार भर देने मात्र से ही इस कार्य को पूर्ण समझा जाता दिखाई देता है। तो कहीं दूर से देखा-देखी वाली नई-पुरानी आशिक़ी को 'सिटियारी' के नाम से कहे जाने की बात का पता चलता है। 

इसी उपन्यास में कहीं लड़कियाँ आस-पड़ोस और घर वालों की अनावश्यक रोकटोक और समय-बेसमय मिलने वाले तानों से आहत दिखाई देती हैं कि लड़कों से मेलमिलाप बढ़ाएँ तो आवारा कहलाती हैं और लड़कियों से ज़्यादा बोलें-बतियाएँ तो गन्दी कहलाती हैं। तो कहीं भावी दामाद के रूप में देखे जा रहे लड़के के जब हिंदू के बजाय मुसलमान होने का पता चलता है तो बेटी को शह देती माँ भी एकदम से दकियानूसी हो उठती दिखाई देती है।  कहीं हिंदूवादी सोच की वजह से गंगा-जमुनी तहज़ीब के ख़त्म होने की बात उठती दिखाई देती है। तो कहीं खुद की आस्था पर गर्व करने के साथ-साथ दूसरे की आस्था के सम्मान की बात भी की जाती दिखाई देती है। कहीं मीडिया द्वारा सेकुलरिज़्म की आड़ में लोगों को धर्म और जाति में बाँटने की बात नज़र आती है। तो कहीं कोई पति हिटलर माफ़िक अपनी तानाशाही से अपनी पत्नी को अपने बस में करता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं बॉलीवुड हस्तियों के पुराने वीडियोज़ को मिक्स कर के गॉसिप हैंडल्स के लाइक बटोरने की बात का पता चलता है। तो कहीं कोई प्यार में निराश हो, नींद की गोलियाँ खा, आत्महत्या करने का प्रयास करता दिखाई देता है। कहीं कोई तांत्रिक की मदद से वशीकरण के ज़रिए अपने खोए हुए प्यार को पाने के लिए प्रयासरत नज़र आता है। तो कहीं कोई मौलाना किसी को किसी की यादें भुलाने के मामले में मदद के नाम पर खुद उसके कुछ घँटों के लिए हमबिस्तर होने की मंशा जताता दिखाई देता है। 

कहीं कोई एक साथ..एक ही वक्त में एक जैसे ही फॉर्म्युले से अनेक लड़कियों से फ़्लर्ट करता दिखाई देता है। तो कहीं ऑनलाइन निकाह करने के महीनों बाद बताया जाता दिखाई देता है कि वो निकाह जायज़ ही नहीं था। कहीं किसी की बेवफ़ाई के बारे में जान कर कोई ख़ुदकुशी को आमादा होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई किसी से प्यार होने के बावजूद प्यार ना होने का दिखावा करता नज़र आता है। कहीं कोई अपनी लैंगिकता के भेद को छुपाने के लिए किसी दूसरे के रिश्ते में दरार डालने का प्रयास करता नज़र आता है। तो कहीं कोई किसी को जबरन अपने रंग में रंगने का प्रयास करता दिखाई देता है। 

इस बात के लिए लेखिका की तारीफ़ करनी पड़ेगी कि जहाँ एक तरफ़ बहुत से लेखक स्थानीय भाषा के शब्दों को अपनी रचनाओं में जस का तस लिख कर इसे पाठक पर छोड़ देते हैं कि वो अपने आप अंदाजा लगाता फायर। तो वहीं दूसरी तरफ़ ऐसे स्थानीय एवं अँग्रेज़ी शब्दों के अर्थ को लेखिका ने पृष्ठ के अंत में दे कर पाठकों के लिए साहूलियत का काम किया है। 

कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग की ग़लतियाँ भी दिखाई दीं जैसे कि..

पेज नम्बर 72 के अंतिम पैराग्राफ में उर्दू का एक शब्द 'तफ़्सील' आया है। जिसका मतलब किसी चीज़ के बारे में विस्तार से बताना होता है लेकिन पेज के अंत में ग़लती से हिंदी में इसका अर्थ 'मापदंड' दे दिया है।

पेज नम्बर 155 में दिए गए अँग्रेज़ी शब्द 'जस्टिफाई' का हिंदी अर्थ 'उत्पन्न' दिया गया है जो कि सही नहीं है। 'जस्टिफाई' का सही अर्थ 'सफ़ाई देना' है। 

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस उपन्यास में ज़्यादा किरदारों के होने की वजह से उनके आपसी रिश्ते को ले कर पढ़ते वक्त कई बार कंफ्यूज़न हुआ। बेहतर होता कि उपन्यास के आरंभ या अंत में किरदारों के आपसी संबंध को दर्शाता एक फ्लो चार्ट भी दिया जाता कि पाठक दिक्कत के समय उसे देख कर अपनी दुविधा दूर कर सके।

हालांकि यह उम्दा उपन्यास मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 206 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है नोशन प्रेस की इकाई 'प्रतिबिम्ब' ने और इसका मूल्य रखा गया है 267/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए 200/- रुपए तक होता तो ज़्यादा बेहतर था। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

शुद्धि - वन्दना यादव

कहते हैं कि सिर्फ़ आत्मा अजर..अमर है। इसके अलावा पेड़-पौधे,जीव-जंतु से ले कर हर चीज़ नश्वर है। सृष्टि इसी प्रकार चलती आयी है और चलती रहेगी। जिसने जन्म लिया है..वक्त आने पर उसने नष्ट अवश्य होना है। हम मनुष्य भी इसके अपवाद नहीं लेकिन जहाँ एक तरफ़ जीव-जंतुओं की मृत देह को कीड़े-मकोड़ों एवं बैक्टीरिया इत्यादि द्वारा आहिस्ता-आहिस्ता खा-पचा उनके वजूद को खत्म कर दिया जाता है। तो वहीं दूसरी तरफ़  स्वयं के तथाकथित सभ्य होने का दावा करने वाले मनुष्य ने अपनी-अपनी मान्यता एवं तौर-तरीके के हिसाब से मृत देह को निबटाने के लिए ज़मीन में दफ़नाने, ताबूत में बंद कर मिट्टी में दबाने, मीनार जैसी ऊँची छत पर कीड़े-मकोड़ों और पक्षियों की ख़ुराक बनाने    या जला कर सम्मानित तरीके से निबटाने के विभिन्न तरीके अपना लिए। 

सनातन धर्म की मान्यता अनुसार आत्मा फ़िर से जन्म ले किसी नई योनि..किसी नए शरीर को प्राप्त करती है मगर इससे पहले वह तेरह दिनों तक उसी घर में विचरती रहती है। मृतक की आत्मा की शांति के लिए इन तेरह दिनों में घर में गरुड़ पूजा की जाती है। दोस्तों..आज मृत्यु और गरुड़ पूजा से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इन्हीं सब बातों से लैस एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे "शुद्धि" के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखिका वन्दना यादव ने। वन्दना यादव जी मोटिवेशनल स्पीकिंग एवं समाज सेवा के अतिरिक्त साहित्य के क्षेत्र में भी खासी सक्रिय हैं। 

इस उपन्यास के मूल में कहानी है राजस्थान के एक गाँव उदयरामसर में एक के बाद एक कर के हुई चार मौतों को झेल रहे एक ऐसे परिवार की जिसके दूरदराज से शोक मनाने आए रिश्तेदार भी इन एक के बाद एक हो रही मौतों की वजह से सभी रस्मों के पूरे होने तक एक साथ..एक ही छत के नीचे रहने को मजबूर हो जाते हैं। जिनमें से एक की पत्नी एवं लिव इन पार्टनर भी शामिल है। अपने-अपने व्यस्त जीवन से निकल कर सालों बाद मिल रहे इन रिश्तेदारों में एक तरफ़ मातम का दुःख है तो दूसरी तरफ़ आपस में मिलने जुलने का उल्लास भी। यही खुशी..यही उमंग..यही उल्लास तब खीज..क्रोध एवं हताशा में बदलता जाता है जब उनके वहाँ रहने का समय एक के बाद एक होने वाली मौतों की वजह से और आगे खिसकता चला जाता है। 

इसी उपन्यास में कहीं मृत्य प्राप्त कर चुके व्यक्ति के श्रद्धावश चरण छूने के लिए आयी महिलाएँ अपने हाथ में पकड़े चढ़ावे के बड़े नोट के ज़रिए अपनी संपन्नता का प्रदर्शन करती दिखाई देती हैं तो कहीं  शवयात्रा के ऊबड़ खाबड़ रास्ते में महिलाओं के नंगे पैर जाने या फ़िर आधे रास्ते से ही वापिस लौट जाने की परंपरा की बात होती दिखाई देती है। साथ ही यह उपन्यास, शवयात्रा में पुरुषों के जूते-चप्पल पहन कर और महिलाओं के नंगे पैर जाने की कुप्रथा पर सवाल उठाने के साथ-साथ मृतक के शरीर पर सोना-चाँदी रख कर जलाने के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता नज़र आता है। 

इसी उपन्यास में कहीं लेखिका अपने मुख्य किरदार, शेर सिंह के माध्यम से पंडितों द्वारा कही गयी हर बात पर आँखें मूंद कर विश्वास कर लेनी वाली जमात पर भी कटाक्ष करती नज़र आती हैं तो कहीं वे स्त्री-पुरुष के एक समान होने की बात करती नज़र आती हैं। इसी उपन्यास में कहीं किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी तेरहवीं तक उसकी पसंद के खान-पान और उसी की तरह के जीवन को जीने वाले परिवार के पुरुष सदस्य को बीकानेर से सटे उदयरामसर गाँव के अहीर समाज द्वारा 'इकोळिया' कहे जाने की बात का पता चलता है। तो कहीं खामख्वाह के आडंबरों को चलती आयी रीतों के नाम पर ढोया जाता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं किसी से जाति के नाम पर भेदभाव करने की बात दिखाई देती है तो कहीं मृत्यु के बाद निकट संबंधियों के लेनदेन पर होने वाले खर्चों को ले कर चिंताग्रस्त बड़ी बहू और बेटे में विमर्श होता दिखाई देता कि इस सबका का खर्चा वही सब क्यों करें। कहीं मर चुके पिता द्वारा छोड़ी गई संपत्ति के बंटवारे को ले कर चिखचिख होती नज़र आती है। 

इसी उपन्यास में कहीं समाप्त होने की कगार पर खड़े ऐसे रिश्तों की बात होती नजर आती है जिन्होंने वर्तमान बुजुर्ग पीढ़ी के नहीं रहने पर खुद-ब-ख़ुद समाप्त हो जाना है। तो कहीं चोरी से औरों की बातें सुनने की आदत पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। कहीं किसी नज़दीकी के  मृत्यु जैसे समय पर भी नहीं आने के बहाने बनाने की बात की जाती नज़र आती है तो कहीं कौन-कौन नहीं आया का सारा हिसाब-किताब दिमाग़ी बहीखाते में नोट किया जाता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं कोई महिला शमशान की तरफ़ जाते हुए कच्चे रास्ते को देख कर अपने मताधिकार की बात करती नज़र आती है कि इस बार मैं वोट उसी को दूँगी जो यहाँ तक की पक्की सड़क बनवा देगा। तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई महिला वोट भी अपने-अपने पतियों की मर्ज़ी से देने की वकालत करती नज़र आती है। कहीं स्त्री-पुरुष के एक समान होने के बावजूद महिलाओं के शमशान तक जाने और अंतिम क्रियाकर्म में भाग लेने में मनाही की बात होती नज़र आती है। तो कहीं गर्मी के दिनों में मृतक के घर में तेरहवीं तक रिश्तेदारों के जमावड़ा,  किसी की चिंता का इस वजह से बॉयस बनता दिखाई देता है कि दिन-रात कूलरों और पंखों के चलने से इस बार बिजली का बिल ज़्यादा आने वाला है।

इसी उपन्यास में कहीं पिता की मूर्ति बनवाने के नाम पर तो कहीं तेरहवीं के भोज में खाने की आइटमों को ले कर तनातनी बढ़ती दिखाई देती है। तो कहीं किसी की मृत्य शैय्या पर एक के बाद एक कर के दो महिलाएँ अपनी चूड़ियाँ तोड़ती नज़र आती है। कहीं किसी की संपन्नता के आगे उसकी ग़लत बात को भी मान्यता मिलती नज़र आती है। तो कहीं किसी का बेटा अपने पिता को मुखाग्नि देने से पहले मुंडन कराने से साफ़ इनकार करता नज़र आता है। 

इसी उपन्यास में कहीं किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके सगे-संबंधी इस वजह से पशोपेश में पड़े नज़र आते हैं कि जिसे उसने संपूर्ण समाज के सामने पूरे धार्मिक रीति रिवाजों से पत्नी स्वीकार किया था, उस स्त्री को पत्नी के रूप में उसने स्वयं मान्यता नहीं दी और जिसके साथ वह स्वयं भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ अपने प्राण त्याग देता है, उसे अब समाज उसकी पत्नी के रूप में मान्यता नहीं देन चाहता।

इसी उपन्यास में कहीं संजीदा विचार विमर्श तो कहीं निंदा पुराण चलता दिखाई देता है। कहीं किसी के अवैध संबंधों पर गुपचुप मंत्रणा होती नज़र आती है। तो कहीं घर का बेटा ही घर के हिसाब-किताब में हेराफेरी करता नज़र आता है। कहीं ओढ़े मुखौटों से इतर लोगों के  असली चेहरे सामने आते दिखाई देते हैं तो कहीं रिश्तों की सरेआम बखिया उधड़ती नज़र आती है।
 
व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया यह प्रभावी उपन्यास थोड़ा खिंचा हुआ एवं कहीं-कहीं स्वयं को रिपीट करता हुआ लगा। साथ ही बहुत ज़्यादा किरदारों  के जमावड़े को अपने में समेटे इस उपन्यास में उनके आपसी रिश्ते को ले कर कंफ्यूज़न हुआ। बेहतर होता कि कहानी के आरंभ या अंत में फ्लो चार्ट के ज़रिए सभी का आपसी रिश्ता स्पष्ट किया जाता। कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की छोटी छोटी कमियाँ दिखाई दीं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए।

संग्रहणीय क्वालिटी के इस 200 पृष्ठीय विचारोतेजक उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भारतीय ज्ञानपीठ (वाणी प्रकाशन) ने और इसका मूल्य रखा गया है 425/- रुपए जो कि मुझे आम हिंदी पाठक की जेब के हिसाब से काफ़ी ज़्यादा लगा। ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि जायज़ कीमत पर इस उपन्यास का पेपरबैक संस्करण भी उपलब्ध कराया जाए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

कैलेण्डर पर लटकी तारीखें - दिव्या शर्मा

आमतौर पर किसी भी रचना को पढ़ने पर चाहत यही होती है कि उससे कुछ न कुछ ग्रहण करने को मिले। भले ही उसमें कुछ रुमानियत या फ़िर बचपन की यादों से भरे नॉस्टेल्जिया के ख़ुशनुमा पल हों या फ़िर हास्य से लबरेज़ ठहाके अथवा खुल कर मुस्कुराने के लम्हे उससे प्राप्त हों। अगर ऐसा नहीं हो तो कम से कम कुछ ऐसा मजबूत कंटैंट हो जो हमें सोचने..समझने या फ़िर आत्ममंथन कर स्वयं खुद के गिरेबान में झाँकने को मजबूर कर दे। 
दोस्तों आज मैं आत्ममंथन करने को मजबूर करते एक ऐसे लघुकथा संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'कैलेण्डर पर लटकी तारीखें' के नाम से लिखा है दिव्या शर्मा ने। 
इस संकलन की रचनाओं में कहीं हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कुछ अन्य रचनाओं में देह व्यापार से जुड़ी युवतियों की व्यथा व्यक्त कही जाती दिखाई देती है।  कुछ अन्य रचनाओं में लेखिका अपने साहित्यिक संसार से प्रेरित हो रचनाएँ रचती नज़र आती है तो कहीं कुछ अन्य रचनाओं में बिंब एवं प्रतीकों के ज़रिए वे मन के उद्गार व्यक्त करती नज़र आती हैं। साथ ही साथ इस संकलन की कुछ रचनाओं में लेखिका विज्ञान को आधार बना कर अपने मन की बात कहती नज़र आती है। 
इस संकलन की किसी रचना में जहाँ कोई इस बात से परेशान है कि हर बार उसके गर्भवती होंने की उम्मीद जब नाउम्मीदी में बदल जाती है तो उसके श्वसुर का चहकता चेहरा बुझ जाता है। तो वहीं एक अन्य रचना जन्नत की चाह में काफ़िरों का कत्ल-ए-आम कर रही कौम को आईना दिखाती नज़र आती है। एक अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ समाज की बर्बरता के ख़िलाफ़ मानवता के धर्म से मदद माँगने पर वह भी अपनी असमर्थता में अपने हाथ खड़े करता दिखाई देता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना, बाप हो या बेटा, दोनों की एक जैसी पुरुषवादी सोच की तरफ़ इशारा करती नज़र आती है। 
एक संकलन की एक अन्य रचना में कोई युवती इस बात के बिल्कुल उलट कि 'सैक्सुअल हैरेसमेंट सिर्फ़ लड़कियों का ही होता है' किसी युवक का शोषण करती नज़र आती है। तो वहीं एक अन्य रचना एक तरफ़ नाबालिग़ द्वारा अपनी मर्ज़ी से बनाए गए सेक्स संबंध तो दूसरी तरफ़ विवाह के बाद जबरन बनाए गए दैहिक संबंधों की बात करती नज़र आती है। एक अन्य रचना जहाँ एक तरफ़ किसी वेश्या की व्यथा व्यक्ति करती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य रचना में एक वेश्या अपने विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा कर आत्महत्या कर लेती है कि अपने प्रेमी से विवाह कर वो उसका भविष्य खराब नहीं करना चाहती थी। 
इसी संकलन की एक अन्य रचना में जहाँ चित्रकार के लिए बतौर मॉडल कार्य करने वाली युवती, खुद को दुत्कारे जाने पर चित्रकार को ही आईना दिखाती नज़र आती है। तो वहीं एक अन्य रचना में उस अर्धविक्षिप्त लड़की की बात करती नज़र आती है जो खुद के जैसे ही बलात्कार का शिकार होती बच्ची को अपनी दिलेरी की वजह से बचा लेती है। एक अन्य रचना में एक बलात्कार पीड़िता अदालत में जज के सामने इस बात के लिए सरेंडर करती दिखाई देती है कि उसने देश की कानून व्यवस्था पर विश्वास कर के बहुत बड़ा गुनाह किया । तो वहीं एक अन्य रचना विक्रम बेताल के बहाने हम सब में संवेदनाओं के मर जाने की बात की तस्दीक करती नज़र आती है।
इसी संकलन की एक अन्य रचना नदी में निर्वस्त्र नहाते हुए योगी के उदाहरण के माध्यम से पुरुष मानसिकता का परिचय देती प्रतीत होती है कि पुरुष वस्त्र उतार कर योगी बन जाता है और स्त्री वस्त्र उतारने पर भोग्या। इसी संकलन में कहीं कोई दृढ़ निश्चयी माँ, अपनी सास के दबाव के बावजूद, कम उम्र में अपनी बेटी का ब्याह नहीं करने की के फ़ैसले पर डट के खड़ी दिखाई देती है। तो कहीं किसी अन्य रचना में घर की प्रॉपर्टी में भाई-बहन, दोनों का बराबर का हिस्सा बताया जाता दिखाई देता है। 
इसी संकलन की किसी अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ ऑफिस में कार्यरत किसी युवती का शोषण करने का प्रयास होता दिखाई देता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना में जहाँ इंडवा (सर पर रखे पानी भरे मटके को सहारा देने रखा जाने वाला गोल कपड़ा) के बहाने पुराने दिनों को याद किया जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना में बूढ़ी सास, अपनी बहू का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित करने के लिए बीमारी का बहाना करती नज़र आती है। तो कहीं किसी रचना में साड़ी बाँधने के सही तरीके के ज़रिए रिश्तों को संभालने की बात की जाती दिखाई देती है। कहीं किसी रचना में माँ की मृत्यु के बाद घर में सौतेली माँ के आ जाने से नाराज़ हो घर छोड़ चुकी काव्या का मन अपनी नई माँ की व्यथा देख, पिघल जाता है। तो कहीं जीवन की आपाधापी में व्यस्त जोड़ा जब 35 साल बाद, 60 की उम्र में पहली बार पहाड़ों पर घूमने के लिए जाता है। तो बाहर बर्फ़ गिरती देख पत्नी, बरसों पुरानी अपनी ख्वाहिश के पूरा होने से खुश होती नज़र आती है। 
 कहीं किसी लघुकथा में बूढ़े होने पर पिता, बेटे की भूमिका में और बेटा, पिता की भूमिका निभाता नज़र आता है। तो कहीं किसी दूसरी रचना में लिव-इन और विवाह के बीच के फ़र्क को समझाया जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य जहाँ एक तरफ़ लघुकथा विधवा विवाह का समर्थन करती नज़र आती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना मोहब्बत और इश्क की अलग-अलग परिभाषा पर बात करती नज़र आती है।  कहीं किसी लघुकथा में भारत-पाकिस्तान के बीच बँटवारे के दर्द को घर-परिवार के बीच बँटवारे के दर्द के ज़रिए समझने का प्रयास किया जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना हवा-पानी के माध्यम से आपसी भाईचारे का संदेश देती दिखाई देती है कि उन पर किसी एक कौम का हक़ नहीं होता।  तो एक अन्य रचना भगवान राम द्वारा सीता का त्याग किए जाने को नए नज़रिए से सोचने को मजबूर करती दिखाई देती है। 
इसी संकलन की एक अन्य कहानी आरक्षण की साहूलियतों का फ़ायदा उन तक पहुँचने की वकालत करती नज़र आती है, जिन्हें सच में इसकी जरूरत है।  तो वहीं एक अन्य रचना लोगों की कथनी और करनी में फ़र्क की बात करती दिखाई देती है। कहीं किसी रचना में कोई किसान सूखे की आशंका से आने वाली दिक्कतों की बात करता दिखाई देता है। तो कहीं कोई अन्य लघुकथा पुरुषों की बनिस्बत स्त्रियों की केयरिंग नेचर की बात करती दिखाई देती है। कहीं किसी अन्य रचना में शहरों के विकास के साथ-साथ गाँवों के सिकुड़ने की बात की जाती दिखाई देती है तो कहीं किसी अन्य रचना में कोई पुरुष लेखक किसी लेखिका को उसके लेखन की सीमाएँ निर्धारित करने के लिए कहता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य लघुकथा में बाहर साहित्यजगत में औरों को प्रेरित करने वाली मज़बूत इमेज की लेखिका भीतर से बेहद कमज़ोर निकलती नज़र आती है। 
इसी संकलन की एक रचना में पानी को व्यर्थ बहाने वालों पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। तो कहीं किस अन्य रचना में आने वाले भयावह समय को ले कर चिंता जताई जाती दिखाई देती है कि लड़कियों को उनके लड़की होने की वजह से पेट में ही मार दिए जाने की वजह से ऐसी स्थिति आ पहुँची है कि लड़कियाँ अब विलुप्तप्राय होती जा रही हैं। 

इस संकलन की कुछ लघुकथाएँ मुझे बेहद प्रभावी लगीं। उनके नाम इस प्रकार हैं : 
1. कैलेण्डर पर लटकी तारीखें
2. आमाल
3. भूखा
4. बेड़ियाँ
5. छिपा हुआ सच
6. रेशमा
7. अर्धविक्षिप्त
8. अंतर
9. रसूलन बी
10. सिसकी
11. वक्त
12. मिलन
13. कुलटा
14. प्यास
15. तिलिस्म
16. इंसानी करामात
17. एक जोड़ी चप्पल
18. विवादित लेखन
19. प्रसिद्धि
20. परदा
21. चमकता आसमान
22. चीख
23. दो बूँद पानी
24. दुर्लभ प्रजाति
हालांकि धाराप्रवाह शैली में लिखा गया यह उम्दा लघुकथा संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा बढ़िया लघुकथाओं से सुसज्जित इस किताब के 177 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है साहित्य विमर्श ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

ढाई चाल - नवीन चौधरी


देखा जाए तो सत्ता का संघर्ष आदि काल से चला आ रहा है। कभी कबीलों में अपने वर्चस्व की स्थापना के लिए साजिशें रची गयी तो कभी अपनी प्रभुसत्ता सिद्ध करने के लिए कत्लेआम तक किए गए। समय अपनी चाल चलता हुआ आगे बढ़ा तो इसी सत्ता के संघर्ष ने अपना जामा बदल राजाओं-महाराजाओं का इस हद तक दामन संभाल लिया कि भाई, भाई का और पुत्र, पिता तक का दुश्मन बन बैठा। और आगे बढ़ने पर जब लोकतंत्र के नाम पर इनसे सत्ता छिन कर आम आदमी के हाथ में आने की नौटकी हुई तो इन तथाकथित आम आदमियों में भी कमोबेश उसी तरह की उठापठक जारी रही। 

अब जबकि राजनीति हमारे नख से ले कर शिखर तक में इस हद तक समा चुकी है कि यहाँ कॉलोनी के RWA जैसे छोटे चुनावों से ले कर कारपोरेशन और ग्राम पंचायतों से होती हुई छोटी-बड़ी ट्रेड यूनियनों तक हर जगह घुसपैठ कर व्याप्त हो चुकी है। और जो अब दिन प्रतिदिन अपने निकृष्टतम स्तर को पाने के लिए निरंतर झूझती हुई दिखाई दे रही है। 

दोस्तों..आज राजनीति और सत्ता संघर्ष से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इसी विषय से जुड़े जिस बहुचर्चित उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'ढाई चाल' के नाम से लिखा है लेखक नवीन चौधरी ने। नवीन चौधरी इस उपन्यास से पहले कॉलेज की राजनीति पर एक अन्य सफ़ल उपन्यास 'जनता स्टोर' के नाम से भी लिख चुके हैं। 

इस उपन्यास के मूल में कहानी है प्रतिष्ठित अख़बार 'अर्क' के बड़े पत्रकार 'मयूर' को राजस्थान से, वहाँ के प्रभावशाली राजनीतिज्ञ, 'मानव सिंह' का फोन और ईमेल आता है जिसमें 'सीमा' नाम की एक नाबालिग लड़की से हुए बलात्कार में प्रभावशाली नेता 'राघवेन्द्र' को दोषी बताया जाता है। उसके प्रभावशाली व्यक्ति होने की वजह से उस पर मुकदमा दर्ज करने से इलाके की पुलिस भी झिझक रही है। 

कॉलेज के ज़माने से 'राघवेंद्र' से खार खाने वाले 'मयूर' पर अपने अखबार का सर्क्युलेशन बढ़ाने का मालिकों के दबाव है। ऐसे में सनसनी की चाह में वह मामले की तह तक जाने की ठान लेता है। अब देखना यह है कि चहुं ओर से राजनीति के चक्रव्यूह में घिरा 'मयूर' क्या सच में 'सीमा' को इंसाफ़ दिला पाता है या नहीं? अथवा 'राघवेन्द्र' से पुराना हिसाब चुकाने की चाह में 'मयूर' इस सारे मामले की तह तक जाने के लिए ही हाथ-पाँव मार रहा है? 

छात्र राजनीति से ऊपर उठ राज्य की राजनीति से लबरेज़ इस उपन्यास में कहीं राजनीति के चार महत्त्वपूर्ण स्तंभों की बात होती दिखाई देती है तो कहीं मेवात के लोगों के अन्य मुसलमानों से अलग होने या आधे हिंदू होने और उनके कुआँ पूजने इत्यादि की बात होती नज़र आती है। इसी उपन्यास में कहीं गो रक्षा के नाम पर बने कानूनों की आड़ में अपना फायदा खोजा जाता दिखाई देता है तो कहीं गाय एवं अवैध हथियारों की तस्करी तथा अवैध शराब के धंधे के ज़रिए मोटा पैसा पीटा जाता दिखाई देता है।

 इसी किताब में कहीं 'अपराध नहीं रोज़गार' के नाम पर आम जनता को बरगलाया जाता नज़र आता है। तो कहीं तब्लीगी जमात द्वारा उकसा कर मेवातियों को मुसलमान बनाए जाने की बात होती नज़र आती है।  सत्ता की हिस्सेदारी में धर्म और जाति के घालमेल से उपजी इस घोर राजनीतिक कहानी में  कहीं रंजिशों और साज़िशों का दौर चलता नज़र आता है तो कहीं वर्तमान में अवैध हथियार बनाने वाले सिकलीगरों के ओजपूर्ण इतिहास के बारे में जानकारी मिलती नज़र आती है। 

शुरू से अंत तक बाँधे रखने की क्षमता वाले इस उपन्यास में कहीं नाजायज़ होते हुए भी अपने राजनैतिक प्रभाव के ज़रिए जायज़ करार दे हाइवे की ज़मींत पर डैंटल कॉलेज का बनना एप्रूव होता दिखाई देता है। तो कहीं उद्योगों में स्थानीय लोगों को रोजगार देने के बात पर हवा- हवा में ही ज़ोर दिया जाता दिखाई देता है। इसी उपन्यास में कहीं अच्छी कंडीशन की पुरानी गाड़ियों को औने-पौने दाम पर बेचने के नाम पर कुछ अलग ही गोरखधंधा चलता दिखाई देता है तो कहीं फ़िरौती एवं बदले की नीयत से किसी का वारिस सरेआम अगवा किए जाने के फ़िरौती की रकम मिलने के बावजूद भी मारा दिया जाता है। 

इसी उपन्यास में कहीं हैसियत होते हुए भी दिखावे के तौर ओर सभी विद्यार्थियों से एक-एक रुपया ले छात्र संघ का चुनाव लड़ा जाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई अख़बार अपनी साहूलियत के हिसाब से ख़बरें मैनेज करता नजर आता है। कहीं किसी अख़बार के सरकार विरोधी संपादकीयों की वजह से अखबार का मालिक, सरकारी विज्ञापनों में तरजीह ना मिलने से परेशान हो अपने ही संपादक पर गाज गिराता दिखाई देता है। तो कहीं आने वाले चुनावों में राजनैतिक फ़ायदे की चाह में सरकार अख़बारों को विज्ञापन का लालच दे खुद को बिज़नस फ्रैंडली बताते हुए अपनी गोटियाँ सेट करती नज़र आती है। 

 इसी उपन्यास में कहीं नांबियार सरीखा हाईकमान द्वारा बिठाया गया प्रभावशाली पात्र अपने एजेंडे के मुताबिक गोटियाँ सेट करता दिखाई देता है तो कहीं जानबूझ कर दूसरे प्रत्याशी के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए दलित प्रत्याशी को मैदान में उतार अपना उल्लू सीधा किया जाता दिखाई देता है। कहीं प्रेम जैसी पवित्र चीज़ को भी खुद के राजनैतिक फ़ायदे के  मोहरा बनाया जाता दिखाई देता है। तो कहीं अवैध हथियारों की खरीद-बिक्री का पूरा जुग्राफिया समझ धंधे में हाथ डाला जाता दिखाई देता है। 
 
कहीं सरकारी विज्ञापनों के लालच में अख़बार अपनी पॉलिसी से उलट घोर विरोधी से भी समझौते करते नज़र आते हैं। तो कहीं राजनीति के नियमों और अच्छी चाय बनाने के तरीकों में तुलना के ज़रिए समानता बताई जाती दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं शह और मात के इस अजब खेल में छोटे प्यादे बड़ों के स्वार्थ के आगे होम होते नज़र आते हैं तो कहीं कदम-कदम पर स्वार्थ और धोखे से लबरेज़ इस कहानी में कब..कौन..कहाँ पलटी मार जाए, पता ही नहीं चलता। 

राजनैतिक उठापटक व वर्चस्व की लड़ाई से जुड़े इस पल-पल चौंकाते इस रोमांचक उपन्यास में कहीं प्यार-मोहब्बत के मामले को अपने फ़ायदे के लिए लव जिहाद का रंग दिया जाता दिखाई देता है तो कहीं पीड़ित को ही डरा धमका कर झूठा बयान देने के लिए मजबूर किया जाता दिखाई देता है।राजनीति और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी को ले कर चलती इस उठापठक भर कहानी में कौन..कब.. किसको छल कर अपना उल्लू सीधा कर जाए..कोई भरोसा नहीं। 
 
हालांकि यह उपन्यास अपने आप में संपूर्ण है मगर फिर भी पिछले उपन्यास 'जनता स्टोर' से इस कहानी के जुड़ा होने की वजह से नए पाठकों को थोड़ा कंफ्यूज़न क्रिएट हो सकता है। बेहतर होता कि उपन्यास के प्रारंभ में पिछले उपन्यास की कहानी का संक्षिप्त सारांश दिया जाता। साथ ही ज़्यादा किरदारों के होने से उनके आपसी रिश्ते को ले कर थोड़ा कंफ्यूज़न भी क्रिएट हुआ। बढ़िया रहता यदि उपन्यास के आरंभ या अंत में एक या दो फ्लो चार्ट बना कर किरदारों के आपसी रिश्ते को भी सही से स्पष्ट किया जाता। 

पल पल चौंकाते इस तेज़ रफ़्तार मज़ेदार उपन्यास के 191 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है राधा कृष्ण प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लेखक की कलम से और अधिक पढ़ने को रोचक सामग्री निरंतर मिलती रहेगी। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 


 
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