देखा जाए तो सत्ता का संघर्ष आदि काल से चला आ रहा है। कभी कबीलों में अपने वर्चस्व की स्थापना के लिए साजिशें रची गयी तो कभी अपनी प्रभुसत्ता सिद्ध करने के लिए कत्लेआम तक किए गए। समय अपनी चाल चलता हुआ आगे बढ़ा तो इसी सत्ता के संघर्ष ने अपना जामा बदल राजाओं-महाराजाओं का इस हद तक दामन संभाल लिया कि भाई, भाई का और पुत्र, पिता तक का दुश्मन बन बैठा। और आगे बढ़ने पर जब लोकतंत्र के नाम पर इनसे सत्ता छिन कर आम आदमी के हाथ में आने की नौटकी हुई तो इन तथाकथित आम आदमियों में भी कमोबेश उसी तरह की उठापठक जारी रही।
अब जबकि राजनीति हमारे नख से ले कर शिखर तक में इस हद तक समा चुकी है कि यहाँ कॉलोनी के RWA जैसे छोटे चुनावों से ले कर कारपोरेशन और ग्राम पंचायतों से होती हुई छोटी-बड़ी ट्रेड यूनियनों तक हर जगह घुसपैठ कर व्याप्त हो चुकी है। और जो अब दिन प्रतिदिन अपने निकृष्टतम स्तर को पाने के लिए निरंतर झूझती हुई दिखाई दे रही है।
दोस्तों..आज राजनीति और सत्ता संघर्ष से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इसी विषय से जुड़े जिस बहुचर्चित उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'ढाई चाल' के नाम से लिखा है लेखक नवीन चौधरी ने। नवीन चौधरी इस उपन्यास से पहले कॉलेज की राजनीति पर एक अन्य सफ़ल उपन्यास 'जनता स्टोर' के नाम से भी लिख चुके हैं।
इस उपन्यास के मूल में कहानी है प्रतिष्ठित अख़बार 'अर्क' के बड़े पत्रकार 'मयूर' को राजस्थान से, वहाँ के प्रभावशाली राजनीतिज्ञ, 'मानव सिंह' का फोन और ईमेल आता है जिसमें 'सीमा' नाम की एक नाबालिग लड़की से हुए बलात्कार में प्रभावशाली नेता 'राघवेन्द्र' को दोषी बताया जाता है। उसके प्रभावशाली व्यक्ति होने की वजह से उस पर मुकदमा दर्ज करने से इलाके की पुलिस भी झिझक रही है।
कॉलेज के ज़माने से 'राघवेंद्र' से खार खाने वाले 'मयूर' पर अपने अखबार का सर्क्युलेशन बढ़ाने का मालिकों के दबाव है। ऐसे में सनसनी की चाह में वह मामले की तह तक जाने की ठान लेता है। अब देखना यह है कि चहुं ओर से राजनीति के चक्रव्यूह में घिरा 'मयूर' क्या सच में 'सीमा' को इंसाफ़ दिला पाता है या नहीं? अथवा 'राघवेन्द्र' से पुराना हिसाब चुकाने की चाह में 'मयूर' इस सारे मामले की तह तक जाने के लिए ही हाथ-पाँव मार रहा है?
छात्र राजनीति से ऊपर उठ राज्य की राजनीति से लबरेज़ इस उपन्यास में कहीं राजनीति के चार महत्त्वपूर्ण स्तंभों की बात होती दिखाई देती है तो कहीं मेवात के लोगों के अन्य मुसलमानों से अलग होने या आधे हिंदू होने और उनके कुआँ पूजने इत्यादि की बात होती नज़र आती है। इसी उपन्यास में कहीं गो रक्षा के नाम पर बने कानूनों की आड़ में अपना फायदा खोजा जाता दिखाई देता है तो कहीं गाय एवं अवैध हथियारों की तस्करी तथा अवैध शराब के धंधे के ज़रिए मोटा पैसा पीटा जाता दिखाई देता है।
इसी किताब में कहीं 'अपराध नहीं रोज़गार' के नाम पर आम जनता को बरगलाया जाता नज़र आता है। तो कहीं तब्लीगी जमात द्वारा उकसा कर मेवातियों को मुसलमान बनाए जाने की बात होती नज़र आती है। सत्ता की हिस्सेदारी में धर्म और जाति के घालमेल से उपजी इस घोर राजनीतिक कहानी में कहीं रंजिशों और साज़िशों का दौर चलता नज़र आता है तो कहीं वर्तमान में अवैध हथियार बनाने वाले सिकलीगरों के ओजपूर्ण इतिहास के बारे में जानकारी मिलती नज़र आती है।
शुरू से अंत तक बाँधे रखने की क्षमता वाले इस उपन्यास में कहीं नाजायज़ होते हुए भी अपने राजनैतिक प्रभाव के ज़रिए जायज़ करार दे हाइवे की ज़मींत पर डैंटल कॉलेज का बनना एप्रूव होता दिखाई देता है। तो कहीं उद्योगों में स्थानीय लोगों को रोजगार देने के बात पर हवा- हवा में ही ज़ोर दिया जाता दिखाई देता है। इसी उपन्यास में कहीं अच्छी कंडीशन की पुरानी गाड़ियों को औने-पौने दाम पर बेचने के नाम पर कुछ अलग ही गोरखधंधा चलता दिखाई देता है तो कहीं फ़िरौती एवं बदले की नीयत से किसी का वारिस सरेआम अगवा किए जाने के फ़िरौती की रकम मिलने के बावजूद भी मारा दिया जाता है।
इसी उपन्यास में कहीं हैसियत होते हुए भी दिखावे के तौर ओर सभी विद्यार्थियों से एक-एक रुपया ले छात्र संघ का चुनाव लड़ा जाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई अख़बार अपनी साहूलियत के हिसाब से ख़बरें मैनेज करता नजर आता है। कहीं किसी अख़बार के सरकार विरोधी संपादकीयों की वजह से अखबार का मालिक, सरकारी विज्ञापनों में तरजीह ना मिलने से परेशान हो अपने ही संपादक पर गाज गिराता दिखाई देता है। तो कहीं आने वाले चुनावों में राजनैतिक फ़ायदे की चाह में सरकार अख़बारों को विज्ञापन का लालच दे खुद को बिज़नस फ्रैंडली बताते हुए अपनी गोटियाँ सेट करती नज़र आती है।
इसी उपन्यास में कहीं नांबियार सरीखा हाईकमान द्वारा बिठाया गया प्रभावशाली पात्र अपने एजेंडे के मुताबिक गोटियाँ सेट करता दिखाई देता है तो कहीं जानबूझ कर दूसरे प्रत्याशी के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए दलित प्रत्याशी को मैदान में उतार अपना उल्लू सीधा किया जाता दिखाई देता है। कहीं प्रेम जैसी पवित्र चीज़ को भी खुद के राजनैतिक फ़ायदे के मोहरा बनाया जाता दिखाई देता है। तो कहीं अवैध हथियारों की खरीद-बिक्री का पूरा जुग्राफिया समझ धंधे में हाथ डाला जाता दिखाई देता है।
कहीं सरकारी विज्ञापनों के लालच में अख़बार अपनी पॉलिसी से उलट घोर विरोधी से भी समझौते करते नज़र आते हैं। तो कहीं राजनीति के नियमों और अच्छी चाय बनाने के तरीकों में तुलना के ज़रिए समानता बताई जाती दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं शह और मात के इस अजब खेल में छोटे प्यादे बड़ों के स्वार्थ के आगे होम होते नज़र आते हैं तो कहीं कदम-कदम पर स्वार्थ और धोखे से लबरेज़ इस कहानी में कब..कौन..कहाँ पलटी मार जाए, पता ही नहीं चलता।
राजनैतिक उठापटक व वर्चस्व की लड़ाई से जुड़े इस पल-पल चौंकाते इस रोमांचक उपन्यास में कहीं प्यार-मोहब्बत के मामले को अपने फ़ायदे के लिए लव जिहाद का रंग दिया जाता दिखाई देता है तो कहीं पीड़ित को ही डरा धमका कर झूठा बयान देने के लिए मजबूर किया जाता दिखाई देता है।राजनीति और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी को ले कर चलती इस उठापठक भर कहानी में कौन..कब.. किसको छल कर अपना उल्लू सीधा कर जाए..कोई भरोसा नहीं।
हालांकि यह उपन्यास अपने आप में संपूर्ण है मगर फिर भी पिछले उपन्यास 'जनता स्टोर' से इस कहानी के जुड़ा होने की वजह से नए पाठकों को थोड़ा कंफ्यूज़न क्रिएट हो सकता है। बेहतर होता कि उपन्यास के प्रारंभ में पिछले उपन्यास की कहानी का संक्षिप्त सारांश दिया जाता। साथ ही ज़्यादा किरदारों के होने से उनके आपसी रिश्ते को ले कर थोड़ा कंफ्यूज़न भी क्रिएट हुआ। बढ़िया रहता यदि उपन्यास के आरंभ या अंत में एक या दो फ्लो चार्ट बना कर किरदारों के आपसी रिश्ते को भी सही से स्पष्ट किया जाता।
पल पल चौंकाते इस तेज़ रफ़्तार मज़ेदार उपन्यास के 191 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है राधा कृष्ण प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लेखक की कलम से और अधिक पढ़ने को रोचक सामग्री निरंतर मिलती रहेगी। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
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